बुधवार, 14 अक्टूबर 2020

तृप्ति की क्वालिटी

 *

पहले एक पहेली बूझिये फिर आगे की बात -

'कोठे से उतरीं, बरोठे में फूली खड़ीं.'

इन फूलनेवाली महोदया का तो कहना ही क्या!(इन पर एक पूरा पैराग्राफ़ लिखना अभी बाकी है).  

बीत गए वे दिन जब घरों में भोजन बनाने की नित्य की प्रक्रिया भी, जैसे कोई  आयोजन हो रहा हो.किसी विशेष अवसर पर तो अनुष्ठान जैसा. सुरुचि -सावधानी के साथ विधि-विधान से यत्नपूर्वक बनाना और चाव-भाव से  खिलाकर तृप्त कर देने का उछाह . न कोई शार्ट-कट , न रेडी मेड साधन,और न कोई जल्दी-पल्दी.पूरे विधान के साथ ,सधी हुई आँच पर पूरे इत्मीनान से पकाना ,कोई हबड़-तबड़ नहीं. कोई कहीं  भागा नहीं जा रहा है.न पकानेवाले  न खानेवाले.  

पूरे मनोयोग से तैय्यारी और पूरी रुचि से आस्वादन. 

संतोष .और प्रशंसा के दो बोल सुनने को मिल जाएँ तो लगता सारा श्रम सार्थक हो गया. वे दिन कब के बीत गये .

परिवार में 6-7 लोग होते ही थे ,आए-गए भी  बने रहते थे. और खुराक,आज से कहीं अधिक .अपने से ही देख लें, कितना खा और पचा लेते थे औऱ अब जैसे डर-डर कर खाते हैं ,

हाँ, तो जैसे रुचिपूर्वक भोजन पकाया जाता था और उतने ही चाव से परोसा-खिलाया जाता था .खाना अब भी घरों में पकता है पर उन दिनों के साथ ही वह भाव, चाव और स्वाद ग़ायब हो गए है.

न वह आयोजन,न वह व्यवस्था ,वह सामग्री ,वे साधन और वे प्रयास भी अब उसके पासंग भर भी नहीं .अब कहाँ चूल्हा, और धुएँ की  सोंधी महक ,अब तो गैस की कसैली गंध,नॉब को खोलते -बंद करते प्रायः ही हवा में तैर आती है.सिल-बट्टा कही दिखाई नहीं देता और न जम कर पीसने वाले. पत्थर की सिल पर पिसे उस ताज़े पिसे मसाले की बात ही और थी,जो मौसमी तरकारियों में सिझ कर जो अनुपम स्वाद  देता,ये पनीर ,न्यूट्री नगेट और खुम्भी,जैसी माडर्न चीजों की उसके आगे क्या बिसात! पिसे मसाले कहाँ? महरी या नाइन ,हल्दी भी सिल पर पीस कर नारियल की नट्टी में रख देती ,कि दाल में पड़ जाय.बाकी तो खड़े मसालों के साथ सिल पर पिसेगे ही.

 अरहर की आम पड़ी  चूल्हेवाली दाल जिसमें देसी घी में लहसुन-मिर्च का करारा छौंक लगा हो ,उसके आगे  म़ॉडर्न करियाँ फीकी  लगती हैं.हमारे घर लौकी के बड़े-बड़े टुकड़े दाल चढ़ाने के साथ ही डाल कर घुला दिये जाते थे ,जिससे दाल में विलक्षण स्वाद का आ जाता थ. सिल पर पिसी चटनी की तो बात ही क्या !

आज पिसे मसालों के डिब्बे और दुनिया भर के पैकेट अल्मारी में भऱे हैं, पर उन गिने-चुने मसालोंवाला स्वाद खो गया है.हर चीज़ में टमाटर डालने की रीत नहीं थी,सब  अपना एक निराला  स्वाद लिये थीं  तरकारी का रसा कृत्रिम रूप से गाढ़ा न हो कर मसालों की असली गंध में बसी तरावट वाली तरलता सँजोये रहती थी. ,और बटलोईवाली दाल के क्या कहने ,जिसे चूल्हे पर चढाने बाद पहला उबाल उतार फेंकना जरूरी होता था. और लोहे के बड़े चमचे में अंगारों पर रख कर बनाया हुआ,दूर तक गमक फैलाता ,देशी घी का तीखी मिर्चोंवाला करारा छौंक बटलोई मैं छनाक से बंद होता देर तक छुनछुनाता,स्वाद की घोषणा करता रहता था.

 काँसे की थालियाँ, फूल की कटोरे कटोरियों के साथ चम्मच घर में गिनती के रहते थे .वे लंबे गिलास विस्थापित हो गए. भारी पेंदी की पतीलियाँ और लोहे की कड़ाहियाँ जाने कहाँ खो गईं . कुकर और पैन उपस्थित हैं.नानस्टिक में दो बूँद तेल से काम चल जायेगा.और देशी घी भी लोगों को नुक्सान करने लगा है, रिफ़ाइण्ड आयल ,रिफ़ाइण़्ड प्रकृति के अनुकूल पड़ता है.

खाना चलते-फिरते, फटाफट बनता है ,प्लेटों में परस कर पेट  भरने का पूरा इन्तज़ाम होता है.चम्मचों की कमी नहीं .डिज़ाइनदार ,श्वेत ,झमकती फ़ुल,हाफ़ ,क्वार्टर प्लेटों से टेबल सजा है ,छुरी चम्मच,नैपकिन सब उपस्थित फिर भी जाने क्यों मन वैसा नहीं भरता. 

लगता है तृप्ति की क्वालिटी अब बदल गई है.

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9 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १६ अक्टूबर २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  2. जिसमें तृप्ति जानी है वही बता सकता है तृप्ति का स्वाद । जो कि अब सच में कहीं नहीं मिलता है । आधुनिक भोजन शैली क्या जाने उन दिनों की बात ।

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  3. पहेली का अर्थ तो आप ही बताएं,अनुमान लगाया है कि वह मोहतरमा जो खाना पकाने की झंझट से दूर रहना चाहती हैं, आपका लेख पढ़ते पढ़ते बचपन में खाये सुस्वादु व्यंजनों की स्मृति हो आयी

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  4. सही कहा अमृता जी जिसने तृप्ति जानी है वही बता सकता है तृप्ति का स्वाद....।
    सच में पूरे मन से अनेक तरीकों से परिवार के कोई विशिष्ट ही रसोई सम्भालता...।
    बहुत ही बीती बातें याद दिला दी आपने।

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  5. जीअनिता जी,पहेली का अर्थ सुनिये, हाँ बरोठा का मतलब है ड्योढ़ी घर के अन्दर होते हुए भी बाहर से जोड़े रखती है(एक प्रकार से संधि स्थल)-

    लोक-जीवन से संबद्ध है यह पहेली, जिसके मन में रोटी के साथ लकड़ी के चूल्हे का संबंध जुड़ा है.
    पहेली का उत्तर - रोटी.
    रोटी पहले चूल्हे पर चढ़े तवे से उतरती है ,फिर चूल्हे के मुहाने पर खड़ा कर फुलाई और सेंकी जाती है.
    हो गया न समाधान?

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  6. पहेली बहुत बढ़िया रही । आपका जवाब पढ़ कर ही समझ पाए ।
    मॉर्डन करियाँ शब्द मस्त है । आप भी न चुन चुन कर प्रसंग उठाती है । बचपन में दादी और माँ को ऐसे ही काम करते और खाना खिलाते देखा । कितनी ही यादें शामिल हो गईं इस लेख को पढ़ते पढ़ते ।

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