शनिवार, 28 जुलाई 2012

कृष्ण-सखी - 53. & 54 .



53.
'आज कैसा निचिंत तुम्हारे पास बैठा हूँ सखी,बस यही क्षण मेरे अपने होते हैं . जब तुम्हारे साथ होता हूँ ,तुमसे सुन लेता हूँ अपनी कह देता हूँ .और कौन है जिससे कह लूँ ?कल नहीं होऊँगा यहाँ.,..पता नहीं फिर.कब...'
 यह कैसा स्वर हुआ जा रहा है - क्या हो रहा है आज इन्हें ! उसने विस्मय से देखा ,
' स्वस्थ हो न ?बहुत श्रमित हो ?मुझसे ऐसे तुम्हारा मुख नहीं देखा जा रहा ,कुछ दिन विश्राम कर लो फिर चले जाना .'
'वहाँ से बुलावा आ रहा है ,अब नहीं रुक पाऊँगा .चाहता  था एक बार गोकुल-वृंदावन जाऊँ पर कहाँ ...'
उन्मन मन में वृषभानु-सुता की स्मृति जाग उठी है - समझ गई , स्मित हास्य पूर्वक छेड़ती हुई बोली ,' क्यों मित्र ,वार्धक्य में क्या स्मृतियों  की चुभन बढ़ जाती है ?'
कृष्ण को हँसी आ गई ,'मुझे तो यही लगता है .जीवन की आपाधापी में किसे इतना विराम मिल पाता है ..!..'
'हाँ, नेक विराम मिला तो अंतर की करवटें शुरू .'' पांचाली एकदम बोल पड़ी ,' मधुसूदन ,तुम्हारा व्यक्तित्व ही एकदम निराला है. तुम्हें सभी चाहते हैं .... पर जिसे सब चाहते हैं वह किसे चाहता है ,यह भी तो कोई सोचे !'
'सखी ,' वही टेढ़ी- सी  हँसी मोहक मुखमंडल पर ,' मेरी कह रही हो या अपनी ?आज बता दो कि तुम सच में किसे चाहती हो ?'
'मेरे चाहने न चाहने का प्रश्न कहाँ उठता है ?दस मर्यादायें जिसके साथ लगी हों  ,ऊपर से कितनी वर्जनायें ?मैं कृष्ण नहीं जो मुक्त मन से किसी को भी चाह सकूँ ,'
कृष्ण की ओर देखा फिर बोली,
 'तुम तो गउएँ चराते रहे हो .जानते होगे जहाँ कोई भटकी, कैसे ,हाँक कर ठिकाने लगा दी !'
 हँस दिये दोनों.
 'जुगाली करने दो अपनी गउओँ को ..'
खिलखिला कर हँस पड़ी,' गो-चारण करते बहुत सिख-पढ़ गये हो न !'
चुप ही रहे वे -किसी सोच में डूबे .
'बहुत गंभीर हो आज. '
'वहाँ द्वारका की स्थितियाँ ठीक नहीं हैं .'
 कहते-कहते गांधारी का शाप याद आया ,अंतर उद्वेलित हो उठा . 
'...वे लोग किसी को अपने समान नहीं समझते .मत्त होकर अपनी अहम्मन्यता में एक दूसरे को नीचा दिखाने को तत्पर रहते हैं .किसी की नहीं सुनते ?'
'दाऊ तो हैं न ?'
'सीधे-भोले मेरे दाऊ . उनके समझाने हँस-हँस कर  हाँ-हाँ करते हैं सब ,और उनके मुड़ते ही ....'
वाक्य अधूरा छूट गया ,सोच में पड़े-से द्रौपदी का मुख देखने लगे 
'..आत्मश्लाघा और अपनी श्रेष्ठता का गर्व . मदपान में लीन सब ,कोई सुनता नहीं किसी की .'
'इतने चिंतित  मत हो माधव .इससे भी विषम स्थितियाँ संभाली हैं तुमने .ये तो तुम्हारे अपने लोग है .'
अपने हैं इसीलिये इतने सिर चढ़े हैं,वे तो मुझे ही टोकने लगते हैं,मेरे कार्य-कलापों पर आक्षेप करना ही रह गया है उन्हें .
 विचार चलते रहे, पर प्रकट में ,बोले ,'जाऊँगा ,प्रयत्न करूँगा .पूरी तरह करूँगा .'
'  .हमेशा ही जाते रहे हो .कहीं टिके कब तुम ?फिर आओगे .वहाँ से निवृत्त हो कर ,चिंता रहित .'
ढाढस बँधाना चाहती है-
'माधव ,फिर आओगे तुम. कहने-सुनने को कितना सारा शेष है .तुम्हें बताये बिना मुझे  कहाँ चैन पड़ेगा !'
'हाँ ,फिर कभी .. ..'
कैसा स्वर !...पांचाली का जी धक् से रह गया .कंठ में आकर कुछ अटक गया हो जैसे .साँस ऊपर की ऊपर नीचे की नीचे .
'तुम मुझे घबरा देते हो !'
श्वेत पड़ गया वह मुख देख, बोल उठे यादव,'घबराओ मत सब ठीक है .'
' तुम क्या कह रहे थे ?'
'मैं तो कुछ नहीं ,तुम कह रहीं थीं ..'
'तुमसे कहना कभी समाप्त नहीं होता .पर आज सब भूल गई हूँ .तुमने सामने हो और विश्वास नहीं हो रहा कि तुम यहीं हो ..'
पांचाली व्याकुल .
'मैं हूँ ,यहीं हूँ देखो ,' आगे बढ़ प्रिय सखी के सिर पर हाथ रख दिया .
.'मैं कभी भी ,कहीं भी होऊँ ,जब तुम्हारा मन  पुकारेगा ,मुझे समीप अनुभव कर लोगी !'
 कृष्ण की असीम करुणामय दृष्टि ! द्रौपदी का अंतर द्रवित हो उठा.
'इस बार तुम शीघ्र आ सके .चिर जीवें उषा-अनिरुद्ध ! अच्छा हुआ तुम शोणित पुर पहुँच गये .बाणासुर को शान्ति से समझा दिया .'
' हाँ ,उषा योग्य वधू है .'
थोड़ी देर दोनों चुप .
'तुम बिन पता नहीं जीवन कैसा होता , क्या होता मेरा ! पर अब तुम भी जा रहे हो ...'
उनके चित्त की गहनता इस पर भी छाई जा रही है . 
' मीत, बहुत थक गई हूँ .  अब इस सब से निवृत्ति चाहती हूँ .'
गहरी उदासी घिर आई है मुख पर ,
'तुम्हीं ने कहा था ,मेरे निमित्त कर दो सब कुछ,फिर तुम्हें कुछ नहीं व्यापेगा .'
माधव देखते रहे उस श्यामल मुख पर घुमड़ती गहन भाव-रेखायें.
'ये दुख-सुख ,  शोक-क्लेश  अब मुझे न व्यापें ! सारी अशान्ति,ग्लानि , और कामनाओं का भार तुम्हें सौंप देना चाहती हूँ -. अब नहीं संभाला जाता मुझसे !'
'हाँ सखी ,हाथ पसारे खड़ा हूँ.लाओ, सब डाल दो मेरी झोली में और मुक्त हो जाओ .'
कृष्ण के दो अरुण कर-तल किंचित आगे बढ़ आये .
'अब तक जो गट्ठर लादे रही उतार कर फेंक रही हूँ तुम्हारे आगे . कोई लगाव नहीं रहा अब. मोह-वश गाँठ में  सेंत कर रखे रही .सब बेकार था -सड़ गल गया ! डूब जाये सब काल की अतल गहराइयों में. मैं हल्की होकर जाना चाहती हूँ .आगे तुम जानो तुम्हारा काम जाने .'
उसे  लगा वे हँस रहे हैं.
'वाह ,कम तुम भी नहीं हो .जब तक काम का लगा अपना सम्हाले रहीं .बेकार लगने लगा तो सौंप दिया मुझे .मैंने तो पहले ही कहा था -क्यों लादे हो ,दे दो मुझे ,तुम्हारा भार मैं ग्रहण कर लूँगा .पर तुम ..'
'यही  तुम्हारी  माया है ,गोविन्द ! कहते हो पर समझने योग्य बुद्धि देर से आती है .'
उस दारुण पल में भी कृष्णा के होंठों पर मुस्कान खेल गई . 
'जो पाँच पतियों से नहीं कह सकती ,जो संसार के सामने व्यक्त नहीं कह सकती ,अपने मन का वह बोझ तुम्हारे आगे रखे दे रही हूँ . गीता में तुमने कहा था तुम सबकी व्यथा झेलते हो कृष्ण ,मुझे विश्वास हो गया है .क्योंकि जो मेरे अनुभव-क्षेत्र में था उसकी पीड़ा मैंने भी सही है .'
' विभाजित होकर रहना ही मेरी नियति रही .एक सामान्य नारी की तरह मुझे भी सुख- दुख व्यापते हैं ,मन में कामनाओं की तरंगें उठती हैं ,मुझ में भी दुर्बलतायें हैं।'
कृष्ण चुप .
फिर बोले ,सब बीत गया .विगत का बोझ मुझे सौंप दिया तुमने. अब क्या ..?'
'क्यों सखे ,सबके दुखों का बोझ तुम्हीं उठाते हो ?'
'हाँ सखी ,  दुख में याद करते हैं सब ।दुख ही मुझसे बाँटना चाहते हैं ।सुख में मेरी याद किसे आती है ?तुम्हें भी तो नहीं .' 
वह उदास-सी मुस्कराई ,' साक्षी रहे हो तुम .मिले होते तो सुख तब तो ! और  तुमने अपने लिये कुछ नहीं रखा कृष्ण !'
 'इसी में  मेरा सुख है ,मेरा संतोष है . जीवन ही इस निमित्त है .'
'लेकिन क्यों ?'
'क्यों ?मैं ही तो हूँ ,ये सब  अनुभव करता हूँ .मेरा मैं सीमित नहीं  सर्वव्याप्त हो गया है  है .मैं रोया हूँ गान्धारी बन कर ,कुंती बन कर जीवन भर दग्ध होता रहा, कितने अपमान झेले ,अपमानित होता रहा  कर्ण रूप में .सखी ,तुम्हारा अपमान आक्रोश ,संताप और अशान्ति मैंने निरन्तर भोगे है .द्रौपदी, मैं तुम्हें अनुभव कर रहा हूँ अपने भीतर ,तभी इतना जुड़ गया हूँ .'
'तुम सब मे व्याप्त हो कर असीम हो गये , सब ग्रहण करते गये .'
वातावरण बोझिल हो उठा था .जाने की घड़ी समीप थी ,चलते-चलते उनके शब्द थे-
सौंप दो अपने को इन लहरों में ,बहे जाओ .सहज रूप से करती चलो क्योंकि इससे बचने का कोई उपाय नहीं कोई निस्तार नहीं.अपने विषय मे मत सोचो उस विराट् चेतना के रूप में इस दृष्य-जगत की साक्षी बनती चलो .फिर कुछ तुम्हें नहीं व्यापेगा !' 
नहीं रोक सकती अब .एक वही तो नहीं ,और संबंध हैं ,परिवार है उनसे विरत हो कैसे रह सकते हैं .बहुत साधा है ,अब जाना तो होगा ही . 
 उसे यहीं रहना है ,और कहाँ जायेगी ?मित्र-हीना ,पुत्र-हीना पांचाली के लिये वे जो वचन छोड़ गये, उन्हें सुमिरती अलिप्त-सी जीवन विताती रहेगी !
*
54.
कृष्ण चले गये .बहुत दिन बीत गये .
कृष्णा प्रतीक्षा करती रही . वे नहीं आ पाये.  समाचार आते रहे .
द्वारका के तट पर कैसी ऊँची-ऊंची घास उगी है -एरका ! कभी देखी नहीं ऐसी लंबी-लंबी नुकीली पत्तियाँ .उखाड़ने के बाद ऐसी कड़ी पड़ जाती है जैसे मूसल !
सागर तट पर  यादव-कुमार आकर मनोविनोद करते हैं .सबका उपहास करना उनका मनोरंजन है.
एक दिन सूचना मिली वृष्णि वंश के लोग मदिरा-सेवन के पश्चात् विवेकहीन हो कर ,परस्पर लड़ कर समाप्त हो गये .कोई नहीं बचा, एक कृष्ण के सिवा.
ऋषि दुर्वासा और विश्वामित्र का उपहास किया था यादव कुमारों ने.कृष्ण- पुत्र सांब को गर्भवती महिला बना कर उसका भविष्य जानने लाये थे . परिणाम में पाया  उस के पेट पर बँधे आवरण से लौह- मूसल , उनके वंश-नाश का कारण बनने को  .
भयंकर शाप सुन वे भयभीत हो गये . लौह-मूसल  घिस-घिस कर सागर में बहा दिया.अवशिष्ट ज़रा सी नोक सागर में फेंक दी . 
मूसल की घिसन जल में दूर-दूर तक लहराई, फिर उसी तट आ लगी .
सांब ,अनिरुद्ध ,प्रद्युम्न इस संसार से बिदा हो चुके थे .कृतवर्मा और सात्यकि परस्पर नीचा दिखाने में तत्पर थे .युद्ध-काल की अनीतियों पर एक दूसरे को  धिक्कारने लगे .सारे यादव एकत्र हो गये -अपने अहं और मद्य के नशे में चूर .कोई किसी से कम पड़ने को तैयार नहीं.
सब दूसरे की कलंक-कथा खोलने लगे .उत्तेजना बढ़ती गई.
इतने आवेश में आ गये कि उसी एरका घास को  उखाड़-उखाड़  एक दूसरे पर अंधाधुंध वार करने लगे .
अतिशय मदपान ने सबकी मति हर ली थी .
उस घात से कोई नहीं बच पाया ,सारे यादव-कुल का संहार हो गया .
और दाऊ ?बलराम ?
यादवों के आत्म-विनाश के पश्चात् ,वे अति दुखी हो गये .अंतिम बार उन्हें सागर की ओर जाते देखा गया था ,वे अकेले चले जा रहे थे , लौटते कभी किसी ने नहीं देखा उन्हें .
*
श्री हरि कहाँ हैं ?
एकाकी,संतप्त मन ले निकल गये सघन वनों में छाँह पाने .
श्रान्त हो गये थे - तन से और  मन से भी.
वन-तुलसी की गंध पूरित अरण्य प्रान्तर.अश्वत्थ की शीतल छाया ,लता गुल्मों की एकान्त ओट, दाहिनी जंघा पर वाम पद-तल  टिकाये शिथिल-से अर्ध निमीलित नेत्र, विश्रान्त मुद्रा में टिके हैं तरु के तने से .
 पत्तों की ओट से  झलकता ,अर्द्धचंद्राकार नख-कोर से ईषत् आवृत्त वाम पग का तिरछा अँगुष्ठ हिल-हिल जाता है !
'जरा , ओ आखेटक ,तुम्हें नहीं मालूम यहाँ पुरुषोत्तम आत्मलीन हो विराज रहे हैं ?
तुम्हें कुछ नहीं मालूम  ? 
 अरुण-श्याम अँगूठे में मृग-नेत्र का आभास हो रहा है तुम्हें ?
ओह, कर दिया शर-संधान !
फिर दौड़ा उसी ओर .अपने लक्ष्य की परिणति देखने . 
हाय !
 जरा चीख उठा, ' हाय, मैंने क्या कर डाला ?'
सिर पटकने लगा .
'रुको व्याध ,शान्त होओ !'
'मुझे क्षमा करो स्वामी...हाय, मैं क्या करूँ अब ..मैं पापी कहाँ जाऊँ  ' व्याकुल हो- हो कर विलप रहा है .
 बाण खींच कर निकाला ,हथेली से दबाये हैं कृष्ण रक्त से रंजित अँगूठा .
 व्याध ने शऱ को घुमा-फिरा कर देखा 
वही लौह खंड !याद आ गया उसे  मछली के पेट से जो मिला था .
 'कितना नुकीला ! एकदम घातक.' शर के अग्र-भागके लिये बिलकुल उपयुक्त ,सोच कर रख लिया था उसने.
' आह, इसके अग्र-भाग में वही तीक्ष्ण लौह-खंड ,शर कितना संघातिक हो गया .'
ध्यान से देखा कृष्ण ने .
'तुम केवल निमित्त हो .व्याध ,अपराधी  नहीं तुम . '
'क्या नाम है तुम्हारा ?'
'पापी हूँ मैं ,घोर पापी !मत पूछिये मेरा नाम.....'
वह कुछ सुन नहीं रहा ,कुछ उसकी समझ में नहीं आ रहा ,कहे जा रहा है ,कुछ बोले जा रहा है पगलाया-सा .. 
'शान्त हो ,मैंने क्षमा किया ?'
 'मेरा एक काम है ,पहले नाम बताओ अपना .'
'प्राण दे कर भी करूँगा. स्वामी , जरा नाम है इस पातकी का ..'
उसे समझा-बुझा कर शान्त, किया कृष्ण ने और  तुरंत द्वारका जाकर सूचित करने को कहा.
व्याध दौड़ा चला गया ! 
*
मन जाने कैसा- कैसा हो रहा है .
 अपना  वचन पूरा करने आये हैं अर्जुन !
जब वे  द्वारकापुरी गये थे तब एक कार्य सौंपा था कृष्ण ने ,
बोले थे जनार्दन ,'अभिशप्त हैं हम सब, किसी न किसी रूप में ,'
यादव वंश का भवितव्य घट कर रहेगा , कितना भी कहें, कोई सुनने को तैयार नहीं .,' वे अति गंभीर थे  , 
,' पार्थ ,पुरुष सारे मर-खप जायें तो वृष्णि,और अंधक वंश की इन कुलनारियों की सुध लेना मित्र,इन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देना,संभव है उस समय मैं भी यहाँ न होऊं .'
विस्मय हुआ था पार्थ को ,कैसी बात कर रहे हैं जनार्दन!
'...उनका वह पहलेवाला .सहज जीवन  समाप्त हो चुका है .मदमत्त हो-हो कर मनमानी करते हैं अपने आगे किसी को नहीं गिनते .मद और पारस्परिक अहं .कोई समझने को तैयार नहीं .क्या कहूँ मेरे पुत्र भी उनके साथ उच्छृंखल हो गये .'
अर्जुन क्या बोलें ? 
'कितना भी प्रयत्न करो सब ठीक करने का ,कहीं न कहीं कुछ दोष निकल ही आता है '
' संसार है यह ,बिलकुल सही कौन रह सका है यहाँ ..? '
एक उसाँस भरी कृष्ण ने .
कैसी मनस्थिति है आज .अर्जुन ने कुछ पूछना चाहा ,पर उनकी मुद्रा देख कुछ न कह सके .
'न तुम कहीं जा रहे न मैं ,' पार्थ ने हलका करना चाहा था ,''मैं उन सब का दायित्व लेता हूँ .तुम चिन्तित न हो .'
'आओ,मिल लें मित्र ,फिर तो...'
दोनों मित्र गले मिलते भावाकुल  हो गये थे. 
*
सब कुछ बदल गया है .यादवों का पारस्परिक  विनाश लोगों का भय समाप्त कर गया ,द्वारका  अरक्षित हो गई . इस समृद्धिपूर्ण नगरी पर बाहरवालों की आँखें लगी हैं .
पुर में  सूचना हो गई , कुछ भी ठीक नहीं है .कृष्ण का पूरा  रनिवास प्रस्थान कर रहा है 
पुरजन त्रस्त हो उठे , अपने आश्रय खोज, संबंधियों के पास प्रस्थान करने लगे ,
 अपने वचनानुसार महाधनुर्धारी अर्जुन  परम मित्र की अट्टालिकाओं से  कुलनारियों को सुरक्षित स्थान की और ले जा रहे हैं. जहाँ उन्हें अपनत्व मिल सके ,जीवन  सुविधापूर्वक बीत सके.
अनगिनती रथ राज-महिषियों, सहचरियों के साथ  चलने को ,बहुमूल्य सामग्री रथों पर लाद दी गई. 
सारी व्यवस्था कर प्रस्थान को उद्यत हैं सब . 
रथों के पास जाकर उन्होंने रुक्मिणी ,सत्यभामा ,कालिन्दी जांबवंती ,मित्रविन्दा, नीला, लक्ष्मणा आदि सबसे  बात की उन्हें धीर बँधाया .
मित्र -पत्नियों के  श्री-हत मुख ,शृंगारहीन वेष !
 देख कर इच्छा हो रही थी फफक कर रो पड़ें .किसी तरह संयत किया अपने आप को  .रथ में चढ़ा-चढ़ा कर सारथियों को सावधान किया . 'कहीं अधिक रुकने की आवश्यकता नहीं .कोल-भीलों के आवास से जितनी दूर रहो उतना अच्छा. मार्ग में आभीरों की बस्तियाँ हैं ,धीमे से रथ निकाल लेना -कोई वार्तालाप , कोलाहल हलचल  न हो .'
अनेक रथ चल पड़े .
 निरंतर आगे बढ़ते रहने का आदेश .
मार्ग लंबा ,दुर्गम वन-पर्वतों से संकुल .कोल-भील और वन्य-जातियों से भरा पड़ा  है .पग पग पर भय .
रथ द्वारका से निकल कर अधिकांश वाहन आधा रास्ते भी पार नहीं कर पाये थे. तीर-कमान लिये अधनँग कोल-भीलों  के  समूह के समूह वन मार्गों पर निकल आये .
अर्जुन की भृकुटियाँ तन गईं .इतना साहस ,वन्य जातियों का !
वे झुंड के झुंड शोर मचाते पास आ रहे थे .
अर्जुन ने ललकारा -दूर हट जाओ .अपनी कुशल चाहते हो तो एक पग भी आगे मत बढ़ाना .
पर वे और वेग से आगे बढ़ रहे थे .आगे के रथों को दूसरी ओर मोड़ने का निर्देश देकर पार्थ सन्नद्ध हो गये. वन के निवासियों की उत्तेजनाभरी आवाज़ें ,चीत्कार और पुकार भरी मदोन्मत्त ध्वनियाँ बढ़ती जा रहीं थीं .उन्होंने वेग से रथ हाँकने को कहा .सारे वाहन आगे बढने लगे .
वे  लोग निकट आ गये ,पीछे दौड़ रहे हैं .  
आवाज़ें आ रही हैं 
'ये कितनी-कितनी औरतें रख लेते हैं ?'
'अरे ,इतनी औरतों का तुम क्या करोगे ?हमें भी चाहियें .'
'खूब धन जोड़ा है न ,इसीलिये तो .तरह-तरह की औरतों के बिना मन नहीं भरता .'
' और ये औरतें भी तो ,इनका जी नहीं ऊबता .अरी ,चलो उतरो .हमारे साथ चलो !' 
अर्जुन ने निकल कर टोका ,'नहीं बलात् नहीं ले जा सकते उन्हें .'
'सारे उपदेश हमारे लिये .तुम लोग भी तो अपने भुज-बल से छीन लाते हो ,'
 'ये सारी अपने आप थोड़ी चली आई होंगी ! '
अर्जुन क्या उत्तर दें ?
'अब वे विवाहितायें हैं ,'
'तो का ? कुंआरी हो चाहे बियाही  ,कौनो छूत लग जाती है .ई सब तुम लोगन के चोंचले .' 
दूसरा बोला -
'जान्यो , ,शंबर की पत्नी मायावती भी तो उसकी बियाही थी ,काहे हरण किया था ?'
 '..दूसरों की बेर शिक्षा दे रहे हैं .औरत तो औरत !जो भुजबल से जीत ले उसकी ...'
तीर चलाने लगे वे .
 सारथी घायल हो-हो गिर रहे हैं .
झपट रहे हैं वे लोग .नारियाँ चीत्कार कर रही हैं .
'काहे रोती हो री ,'हम भी आदमी हैं,जानवर थोड़े ही न . ,रक्खेंगे तुम्हें  अपने साथ .'
अर्जुन के तीर चलने लगे .गिरे कुछ लोग, पर वे रुके नहीं .
'छीन लो रे ,ये सीधे देने वाले नहीं .'
दूसरा बोला ,'इनकी कहाँ से हो गईं ,जिसमें ताकत होगी ,उसकी ..'
'चलो री ,उतरो  नीचे .हमारे साथ चलना है तुम्हें .
महिलायें त्रस्त हो कर चीत्कार कर रही हैं.अर्जुन क्रोध से भरे ,ललकार रहे हैं .
चारों ओर से घेर लिये गये हैं .
कुछ वनवासी ,रथों को स्त्रियों सहित हाँके लिये जा रहे  हैं ,
अर्जुन पीछे दौड़ते हैं ,गाँडीव से शर-संधान करते हैं .एकाध कोई गिर भी गया तो दूसरे तैयार .इनके पास जुझारू पुरुष  गिनती के .और वे  तक-तक कर निशाने लगाते हैं उनके तीर औषधियों से सिक्त हैं .लगते ही अपार पीड़ा और मूर्छा .
मौका पाते ही झपटते हैं और स्त्रियों को खींच कर ले भागते हैं .
किस-किस का पीछा करें पार्थ ?जो रथ आगे चले गये हैं उनकी भी चिन्ता .कुशल से पहुँच जायें किसी तरह .
कोल-भील बहुत हैं एकदम जंगली - रुक्ष और कठोर .
अर्जुन का गांडीव प्रभाव खो चुका है .न वह टंकार, न वह वेग !    
पता नहीं रानियों का क्या हाल होगा ?
किसी तरह बच कर निकले अर्जुन .
कुछ वाहन जो आगे निकल गये या शीघ्र पलायन कर गये थे उनकी चिन्ता नहीं की वनवासियों ने .जो सामने थे वही  उन्हें यथेष्ट लगे .उन्हें  घेर लिया .स्त्रियों को ले-ले कर सघन वनों की ओर भाग गये धन-संपदा भी लूट ली उन लोगों ने . 
अवसाद ग्रस्त .अर्जुन .
गांडीव की गरिमा कहाँ खो गई !
उस दिन अर्जुन के तीर व्यर्थ हो गए .इतनी बड़ी भीड़ में एक अकेला योद्धा ! 
किसी तरह प्राण ले कर वहाँ से  निकले .आगे रानियोंवाले रथों की चिन्ता चैन नहीं लेने दे रही !
**
 कृष्ण परमधाम सिधार गये ।
 उदधि हिलक-हिलक कर रो रहा है .उत्ताल तरंगें  उमड़ी चली आ रही हैं  .मन का आवेग नहीं थम रहा , प्रवाह बढ़ा चला आ रहा है .आगे ,द्वारावती से आगे और आगे - कहाँ हैं श्री हरि के चरण !
 एक के ऊपर एक ,चढ़ती लहरें ,उद्दाम वेग जल का -नहीं सागर के खारे आँसू ये !
अधीर सागर उफन रहा है, दुखोद्गार पर संयम खो गया ,दहाड़-दहाड़ कर दिशायें पूर रहा है. 
उस वृक्ष के तल तक चली आईँ व्यथा से बल खाती ,नीली लहरें .चरण परसने को व्याकुल !
 पखार रही हैं वे सुकोमल चरण तल .
वनभूमि में बिखर-बिखर ,सिर टकराती विलपती रहीं विकल लहरियाँ . प्रस्तरखंडों और तरुओं से लिपट-लिपट प्रहरों-प्रहर रोईं .अंततः निढाल हो सागर में जा समाईं.
अश्रु-धाराओं के शेष चिह्न उस वनभूमि में अपना खारापन बो गये .
श्रीकृष्ण की गंभीर  मुद्रा देख सहम गया जलनिधि .
कुछ नहीं कहेंगे वे .परम शान्त हैं ,पुरुषोत्तम !
*
अपनी शैया पर विश्राम हेतु आते होंगे वे ,
और पयोधि ने वह सुन्दर नगरी ,जिसके वैभव का कोई सानी नहीं था अपने अतल जल  में समेट ली .
संसार ने समझा श्री कृष्ण की  द्वारकापुरी सागर में समा गई !
'त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये !'

*
(क्रमशः)
.

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

कृष्ण-सखी - 51.& 52.



51
      युधिष्ठिर के सिंहानारोहण के पश्चात्, द्वारकाधीश अपनी पुरी को प्रस्थान हेतु प्रस्तुत हुये .
  अब तक उत्तराखण्ड की समस्याओं में उलझे रहे , उधऱ ध्यान नहीं दे पाये थे . परिवार में स्थिर हो कर कभी  नहीं रह पाये .अब पुर-जनों परिजनों को तोष देना चाहते हैं .अपनी पुरी की व्यवस्था में भी रुचि लेंगे .
 पांचाली उनकी विवशता समझ रही है ,फिर भी उसके मुख से निकला,
'कुछ दिन और रुक जाओ  .'
 कह कर अपने कथन की व्यर्थता पर संकुचित हो गई.
प्रारंभ से  यही करती आई थी कि अधिक दिन बीतने पर मन  अकुला उठे तो संदेशा भेजती  ,' बस दर्शन दे जाओ ,रोकूँगी नहीं .'
 सबके मनों में उदासी छा गई, पर उन्हें रोकने के लिये कोई कुछ कह  नहीं सका .
जाते समय पांचाली से बिदा लेने कक्ष में आये तो वह बोल उठी ,'तुम जा रहे हो तो यह बताते जाओ ,मैँ अपनी बात किससे कहूँ  ? किसे अपना मानूँ यहाँ ?'
वे दूसरी ओर देखने लगे थे ,क्या कहें .समझ गये बिदा-समय की व्याकुलता है .
  सँभल जायेगी.किसी के सामने दीन होनेवाली नहीं है ,अपनी मनस्थिति किसी के सामने प्रकट नहीं होने देगी .
'अपना कौन है पांचाली यहाँ ?मेरा कौन है यह बताओगी ?'
 भऱभरा आया कंठ संयत कर कहा,' श्रान्त   हो गया हूँ ,थोड़ा विराम  चाहता हूँ ,जीवन भर भटका ही तो हूँ .अब उन लोगों को आशा लगी है कि उनके साथ रहूँगा .'
उसका मन बहुत कच्चा हो रहा है .क्या कहे शब्द नहीं मिल रहे .
 'कब आओगे ?'
'जब तुम्हारे यहाँ मेरी आवश्यकता होगी .जब कोई विशेष आयोजन होगा !'
'पता नहीं कब  देख पाऊंगी ?'
' जानती हो न,पांवों मे चक्कर है ,कभी-भी चलता फिरता उपस्थिति लगा जाऊँगा..'
*
 पुराने  लोग सब चले गये .
कितने राज-घराने थे - अब न पांचाली का पितृगृह , न हीं कोई सुधि लेनेवाला. न उत्तरा के .पांडव ही पांडव बचे . घर में कोई बालक भी नहीं .लगता है सब गतिहीन हो गया.
   कहाँ गया विजय का उत्साह ?जीवन का स्वाभाविक उल्लास कहाँ खो गया ?
इससे तो वन का प्रवास अधिक सहनीय लगता था .
सर्वत्र एक उदासीनता-सी छाई रहती है .हर ओर उजड़ापन .जैसे कुछ करने को नहीं बचा.सब कुछ थम सा गया है.दूर-दूर तक - कहीं हलचल, कोलाहल नहीं .
वही हाल पुर का - धूल में लोटते बच्चे .अभिभावकहीन परिवार .नयनों में विचित्र सा सूनापन लिये अनगिनत विधवायें .शायद ही कोई घर हो जहाँ किसी की मृत्यु न हुई हो .अधिकांश युवा ,युद्ध की भेंट चढ़ गये ,हताश वृद्ध और सहमे हुये बालक ,आँखों अपार शून्यता समेटे ,श्वेत वस्त्रों में लिपटी युवा विधवायें .
दुपहरियाँ धूल उड़ाती ,उदास संध्यायें और रात्रियाँ में प्रायः ही  सन्नाटे को भंग करते रुदन के स्वर !
वातावरण .भयावह लगने लगता है .
*
जाने के पहले पांडव बंधुओं से कृष्ण ने कहा था, 'महर्षि व्यास आपके संबंधी हैं ,सत्परामर्श ही देंगे .
राजकीय समस्याओं  पर विचार-विमर्ष करने के लिये वे सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं .'
 युधिष्ठिर वेद व्यास को गुरुजनों का सम्मान देते हैं .अब है ही कौन उनके सिवा !.एक सहारा सा मिल जाता है .
वय में भी बहुत बड़े हैं पांडवों से. वयोवृद्ध तपस्वी .सत्यवती-माँ के नाते परिवार के निकटतम सदस्य .
 स्मरण किये जाने पर उन का आगमन प्रायः ही हो जाता है .
उन्होंने प्रबोधित किया 'युधिष्ठिर , इस मनस्थिति से उबरो ,राजा का कर्तव्य है प्रजा को शान्तिपूर्ण जीवन दे ,उनकी आशायें पूरी करे .सुख-समृद्धि का विधान करे . सब कुछ बिखर गया है ,व्यवस्थित करो .''
'तात,इस महा ध्वंस के बाद ,निराशा और टूटन ही शेष रह गई है .इस उछाहहीन विषण्ण मनस्थिति को कैसे बदलें ?निष्क्रियता का बेधन कैसे हो ,कहाँ से आशा की किरण फूटें ?'.
व्यास ने स्थिति का विश्लेषण किया .
उनका मत था विगत अनीति और क्रूर कृत्यों के बाद जीवन-मूल्यों  में गिरावट आई है,मनों में निराशा पनपी4 है.
'शासक-वर्ग के आचार-विचार का जन पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है .उसने  जैसा  आचरण किया उससे प्रजा का  विश्वास टूटा है ,
अपने हित की सोच  शासन अनीति का पल्ला पकड़ता है तो जन का मनोबल टूटता है .आत्मविश्वास खो जाता है .मनोबल गिरता है तो नया कुछ करने में संशयाकुल चित्त बाधा बना रहता है.
सुचारु शासन के लिये इसके शमन का उपाय करना राजा का कर्तव्य है .इस समय अपेक्षित है कि  जन को क्रियाशीलता की ओऱ उन्मुख करे ,कुछ सार्थक जिसकी व्यस्तता में व्यर्थ की चर्चाओँ से छुटकारा हो .
लोगों को अपने आप को  व्यक्त करने का अवसर मिले.
 अधिभौतिक अस्त्रों के घात से धरित्री क्षुब्ध है,तत्व कुपित! लोक-मन अवसन्न है  कुछ भी तो सामान्य नहीं .स्तब्ध -सी शून्यता समाई है.उसे भरना बहुत आवश्यक है.'
विचार-विमर्ष चलने लगा इस स्थिति से कैसे उबरा जाय
उसी बीच अनिरुद्ध-उषा प्रकरण के सुखद समापन के पश्चात् कृष्ण का आगमन हुआ .
 कोई भी आयोजन .धार्मिक या सामाजिक अर्धांगिनीं के सहयोग बिना अधूरा  है .
 व्यास देव ने पाँचाली को बुलवा भेजा ,' हमारे निर्णयों में  महिषी का मत होना आवश्यक है .'
याज्ञसेनी युधिष्ठिर के समीप आ बैठी है .बीच-बीच में प्रतिक्रिया व्यक्त कर देती है ,
पूछे जाने पर ही विशेष कुछ बोलती है .
 पांचाली के मुख पर डोलती छायायें देख कर पूछा, 'क्यों विचलित हो, शुभे ?
'इतनी संख्या में  युद्ध-विधवाओं को देख कर हृदय विचलित हो गया है -नित्य ही उनका करुण- क्रंदन हृदय को चीरता चला आता है .'
'युद्ध का परिणाम बड़ा भयंकर होता है ! '
आगे वह कह नहीं पाती काँप उठती है सोच कर .उस रात मेरे पति उस शिविर में होते तो आज मैं भी  ..
कृतज्ञ दृष्टि मुरारी की ओर गई , मन उमड़ आया ,मुझे तो बचा लिया तुमने  - ओह,कैसा होता वह जीवन .संतानों का दायित्व लिये ,पति-विहीना पांचाली , सिर पर दुर्योधन का शासन !
 सबको लगता कितनी अभागी ,पाँच में से एक पति नहीं बचा !उस नारकीय स्थिति की कल्पना से ही दहल गई .
प्रकट में बोली,' रात्रि की गहन नीरवता के बीच  सद्य-विधवाओँ का करुण-विलाप, व्याकुल कर  देता है, तात .मैं नहीं सो पाती फिर .
'मैं ऋणी हो गई हूँ इन नारियों की जिनका  सुहाग इस युद्ध ने छीन लिया .उनका कोई स्वार्थ नहीं था .उनके बलिदान के कारण ही आज यह  दिन देखने को मिला .वे शोक सागर से कैसे तरेंगी ..'
गोपेश का मत था ,' उन नारियों का जीवन जिनके संरक्षक युद्ध में मारे गये हताशा से उबारना परमावश्यक है. .'
' सोच नहीं पाती क्या करूँ ?वे इस  शोक के भँवर से कैसे निकलेंगी ,जब जीवन में आगे कोई आशा ही नहीं बची . अगर वे वंचित-वर्जित रहीं ,तो समाज का जीवन शान्ति-सुखमय नहीं हो सकेगा'
'करना तो पड़ेगा .विचार भी तुम्हें ही करना पड़ेगा ....और,इतना  मैं जानता हूँ , तुम कर सकोगी '.
पांचाली प्रश्नमयी दृष्टि से परम मित्र को देख रही है '
मन की द्विधा में  फँस कर रह गई है.
ऐसी ही एक घटना की ओर विचार घूमते हैं -
उन सोलह सहस्त्र नारियों का क्या भविष्य था ?
मधुसूदन तुमने स्वयं उनके त्राणकर्ता बन  , तिरस्कृत जीवन को  पुरस्कृत कर दिया .
अनायास मन में कौंधा -' मुझे राह मिल गई !'
तभी व्यास देव की ओर घूम कर यादव बोले ,'याज्ञसेनी अपना दायित्व भले से पूरा कर लेगी मैं जानता हूँ.'
मीत ,तुम क्या अंतर्यामी हो ?
व्यास देव की प्रसन्न दृष्टि उनका अनुमोदन कर रही थी.,
पति ने अति तुष्ट-भाव से निहारा .
नये सम्राट् की ओर प्रवृत्त हो कर व्यास बोले ,'अब दायित्व तुम्हारा है ,प्रजा को आश्वस्त करने का ,समाज को नई दिशा देने एवं सुख-समृद्धि की राह ले जाने का..और साम्राज्ञी  तुम्हारा भी .
  ' ऐसे सद्-प्रयास करो कि  जीवन की नम्यता और रम्यता बनी रहे !'
*
युधिष्ठिर को परामर्श दिया कृष्ण ने  -
लोक में यह स्पष्ट करना होगा कि इस ध्वंस का कारण वे अनीतियाँ हैं जो पूर्व शासकों ने की थीं .हमने हर संभव प्रयत्न किये कि विग्रह न हो .'
 व्यास देव का मत था ,'भ्रमों को दूर करने के लिये, जन को आश्वस्त करने के लिये ,अंतर्निहित  सत्य को  हृदयंगम कराना आवश्यक है ,राज्य की कामना नहीं थी ,केवल न्याय चाहते थे . हम  रहने के लिये पाँच गाँव पा कर भी शान्त हो जाते ,यह सर्व विदित है .उन्हें बताओ कि पार्थ युद्ध से विरत हो रहे थे ,वे अपने आत्मीयों को हत नहीं करना चाहते थे '
कृष्ण की ओर देख कर बोले ,'
 ' और तब जनार्दन ने उन्हें कर्तव्य के प्रति सचेत किया .रण-भू में गीता का संदेश दिया.और फिर सब जानते हैं,जो हुआ उस पर किसी का वश नहीं था.शान्ति का प्रयत्न हमारी ओर से अंत तक होता रहा था .'
'हाँ और इसे टालने का  स्वयं तुमने  दूत बन कर प्रयास किया था .पर जब एक पक्ष बिलकुल ही हठ पर तुल जाय तो कोई उपाय काम नहीं आता .'
 'तुम अपनी बात सबके सामने रखो -वे समझेंगे .'
'वह सब तो सब के सामने हुआ ,कुछ भी छिपा नहीं है .' युधिष्ठिर की उलझन अभी सुलझी नहीं .
' ठीक है  ,पर जनता को बार-बार स्मरण कराना पड़ता है .उसकी स्मृति बहुत कच्ची होती है और एकांगी  भी ,भान कराये बिना उसकी सोच सीमित रह जाती है . इतना विवेक सामान्य जन में कहाँ !..और फिर समूह में व्यक्ति का मस्तिष्क कहाँ सचेत रहता है ,उसे वही लगने लगता है जो कुछ मुखर और प्रभावी व्यक्ति कहते हैं . '
'...उन्हें कह-कह कर बताना होगा .सच का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता .लोग समझेंगे , उनकी सहानुभूति मिलेगी .'
' गहरी उदासीनता से प्रजा का उबरना आवश्यक है कि उनमें आशा और  विश्वास जागे . प्रयास बार-बार करने पर सफलता अवश्य मिलेगी. ...,'
'और इतने  बड़े कांड के प्रतिकार्य स्वरूप ,उतना ही विराट् आयोजन अपेक्षित है ' -जनार्दन का मत था .
सब की ओर से आती प्रश्नसूचक दृष्टियों पर व्यास एकदम बोल उठे ,'यज्ञ ,अश्वमेध यज्ञ!'
युठिष्ठिर ने यंत्रवत्  दोहराया ,'अश्वमेध यज्ञ.'
'हाँ,अश्वमेध यज्ञ  ! जीवन में हलचल हो, सब को लगे कुछ सार्थक और कल्याणकारी होने जा रहा है.जन में उछाह जागे, नये शासन की मंगल-भूमिका रचने को  कुछ नया तो होना चाहिये जिससे जन-मन को आश्वस्ति मिले ...'
सब चुप सुन रहे हैं ,
'...दूर देशों में तुम्हारा संदेश जाये .चतुर्दिक राज्य अधीनता स्वीकारें .'
एक दम युधिष्ठर के मुख से निकला ,'फिर युद्ध!'
कृष्ण ने ने समाधान दिया -.
'अब युद्ध करने को बचा ही कौन  ?सारे योद्धा मारे गये .बच-खुचे लोगों की सेना जोड़ कर किसी का साहस नहीं होगा चुनौती देने का .कोई एकाध  निकल भी आया तो कितना टिकेगा !नहीं, बहुत आसान है तुम्हारी विजय.'
व्यास ने फिर समाधान किया-
'प्रजा का मनोबल गिरता है तो नया कुछ करने में संशयाकुल चित्त बाधा बन जाता है. कुछ हलचल ,कुछ व्यस्तता आवश्यक है, आगे फिर मनोयोग से कुछ करने का अपनी क्षमताओं व्यक्त करने का अवसर मिले.'
'इस रंगारंग उत्सव में चारों दिशाओं से लोगों की आने की संभावना रहेगी .जन समदाय उमड़ेगा ,विक्रय के अनेक मार्ग खुलेंगे .हमारे संसाधनों का सदुपयोग और धन का प्रवाह इस ओर होगा .
इसी बहाने लोक-,जीवन व्यस्त हो जायेगा . आजीविका के लिये कहीं दौड़ना नहीं होगा . कोष में धन का आवागमन होता रहेगा .लोगों में कुछ करने का चाव उत्पन्न होगा. .'
'एक बार प्रारंभ हो जाय फिर तो कर्मण्यता संक्रमण की तरह व्याप्त होती चलेगी !'
**
व्यास देव ने कहा था -
यज्ञ का अर्थ केवल हवन नहीं ,जगत-जीवन की  विकृतियों का शमन,निर्मल मति, शान्ति-स्वस्ति ,असत् से सत् की ओर प्रवृत्ति ,सर्वभूतों में सामंजस्य और विश्व का मंगल !
सम्राट्,  सर्वभूतोपकार, सर्वत्र कल्याण का विस्तार यही यज्ञ का साध्य हो.किसी प्रतिशोध,किसी स्वार्थ-सिद्धि के हेतु नहीं यह संकल्प करो . बंधुओं समेत महाराज युधिष्ठिर,  तुम्हारा उद्देश्य पूर्ण हो !धरा पर नई ऊर्जा का अवतरण हो !'
बहुत विस्तार से उन  समाधानों की व्याख्या की व्यास ने जो इस उपक्रम से अपेक्षित थे.
   दूर देशों के नरेशों का आगमन होगा ,प्रजा को अपना कौशल दिखाने का अवसर मिलेगा ,लोग उत्साहपूर्वक व्यस्त हो जायेंगे .व्यर्थ की चर्चाओं से विरत हो ,जीने को एक उद्देश्य मिलेगा  .हर क्षेत्र में उन्नति ,समृद्धि के द्वार खुलेंगे .जड़ हो गई लोक- मति चैतन्य हो कर सक्रिय होगी.
अकर्मण्यता और उदासीनता पलायन करने लगेगी ,'अचानक वे चुप हो गये.
व्यास विचार मग्न हैं .वे सब एक दूसरे का मुख देख रहे हैं.
कृष्ण के मुँह से निकला ,' हाँ ,तो फिर?'
 व्यास सजग हुये ये ,' बहुत अनीतियाँ हुई हैं. उनकी  छायाओँ से मुक्त होने को ,वह आवरण हटाने को किसी महत् अनुष्ठान का आयोजन होगा यह ! ...इस नये साम्राज्य के शुभारंभ के प्रयोजन  हेतु महा-यज्ञ ,जिससे लोक में नया संदेश जाये !
**
अश्वमेध-यज्ञ की संभावना से चारों ओर हलचल मच गई.
प्रबुद्ध वर्ग की ओर से नित नये  संदेश आने लगे  ,नई-नई व्याख्यायें प्रारंभ हो गईँ. -
'अश्वमेध  यज्ञ का आशय, संपूर्ण राष्ट्र-जीवन का पुनर्संस्कार  .इस हेतु सभी का वर्गों का योगदान चाहिये !'
'उद्योग ,कला-कौशल , सभी को उत्प्रेरित करते हुये  नये निर्माण की ओर बढ़ें.'
' एक नये अध्याय की प्रस्तावना ,स्वच्छ संपूर्ण युग का अवतरण होने जा रहा है .'
सब अपने-अपने ढंग से विश्लेषित कर रहे हैं .
'अभौतिक शस्त्रों से दूषित तत्वों के शोधन हेतु पुण्य-आयोजन ,जिसे सर्वभूतों की परिशुद्धि और परिमार्जन हो .मानव मन और आत्मा में पावन ऊर्जा का संचार हो !'

जन वार्तलाप को नये विषय मिले ,क्या होगा ,कैसे कार्य संपन्न होगा - कौतूहल और संभावनायें .
आशायें करवट लेने लगीं .
कर्मकारों, कलाकारों, बाजीगरों प्रत्येक वर्ग के लोगों को भागीदारी हेतु राज-भवन से निकली सूचनायें इस कान से उस कान पहुँचने लगीं   .
प्रभाव दिखायी देने  लगा
 कला ,उद्योग कृषि कारीगरी ,सब क्षेत्रों में  कुछ करने का चाव जगा.
 कवियों को राज-दरबार में आमंत्रित कर सम्मानित किया गया .
 अपनी  काव्य-धारा से सहृदयों को रस-विभोर  कर आगत समारोह को स्मरणीय बनाने  का अनुरोध कर, आशा व्यक्त की गई कि उनकी कृतियों को  सार्वदेशिक होने का गौरव मिलेगा .
*
कलाकार की कल्पना और  कौशल पत्थर और माटी में भी जीवन फूँकने लगा ,
करघों पर एक से एक वस्त्र बुने जा रहे हैं, स्वर्ण तारों से खचित ,चीनांशुक .
सुन्दर कढ़ाई और अद्वितीय कौशल में होड़ करती पुर-नारियाँ व्यस्त हो गईं  .
स्वर्णकारों से कह दिया गया है ,धातु और रत्नों की चिन्ता न करें .राज-कोष से उधार देने की व्यवस्था है .
भीमसेन ने अखाड़ों की व्यवस्था सँभाली,मल्ल-युद्ध के दाँव सोचे जाने लगे .
क्रीड़ा-प्रतियोगिताओं के अभ्यास अभी से चलें .
 नृत्य-गीत , रंगमंच - सारी परंपरायें निद्रा से जाग क्रयाशील हो उठीं .
सब में अपनी कला के प्रदर्शन का उछाह जागा .
प्रोत्साहन हेतु पुरस्कार मिलेंगे ,हवा में समाचार उड़ने लगे ..
एक नया प्रवाह सभी को निमग्न करता बहने लगा.
और अनुकूल वातावरण पा कर शोधी हुई  तिथि को  अश्वमेध की घोषणा  प्रसारित कर दी गई
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पांचाली ने सप्त दिवसीय कथामृत का आयोजन किया - स्वयं भगवदीय महिमा श्रवण का व्रत लिया - जिसके प्रभाव से  जीव, शोक से तरता है .
उन स्त्रियों को विशेष आग्रहपूर्वक बुलाया जिनके पति या संरक्षकों ने युद्ध में वीर-गति पाई थी. उन्हें गौरवान्वित किया कि इस धर्म-युद्ध में जिनने अपने पतियों का बलिदान दिया वे अभागी नहीं ,वे कृष्ण- रक्षितायें हैं .जिनके सारथ्य में यह जय-युद्ध  संचालित हुआ .
वे युवा विधवायें ,अशुभ नहीं ,जिनके पति रण-भूमि मे खेत रहे ,वे अमर हो गये ,उनके  ऋणी हैं हम !उनकी देख-रेख राज्य का दायित्व है. राजमहल से उनके लिये पूजा- सज्जा उपकरण भेजे गये .
अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गये  लीलाधर - कृष्ण !
उनकी जीवन कथायें लोक-मानस का रंजन कर रही हैं.उस लीला-पुरुष की कल्याण-वाणी उन नारियों को सुनाती है पांचाली .ऐसा प्रभावपूर्ण वर्णन कि सब चमत्कृत .
अनोखी आभा से मुखमंडल  दीप्त हो उठता है ,वह कहती हैं ,' यह सब मेरे सामने घटित हुआ!'
मुग्ध भाव से नारियाँ श्रवण करती हैं -
कैसे उन सोलह सहस ,रनिवास में बंदी, नारियों को मुक्त किया . उन  अपहृताओं को परित्यक्ता का जीवन भोगने को नहीं छोड़ा .पत्नी के रूप में   स्वयं स्वीकारा. उनके  हत नारीत्व को गौरव प्रदान किया .
पांचाली को याद थीं वे बातें भी जो गोपियों के जीवन को आनन्दमय बनाने के लिये ब्रजनाथ ने आचरण में उतारीं थी.
वह  विस्तार से सुनाती है, रास-लीला का सच उद्घाटित करती है . वे सब चाव से सुनती हैं .वे समझने लगी हैं कि उनका जीवन केवल भोग्य नहीं , ईश का वरदान हो  उच्चतर उद्देश्यों का निमित्त बने !
'केवल श्रवण करने को नहीं ,उनका चरित्र गुनो और समझो .'
तभी कोई स्वर उठता है -
'ओ मेरे त्राता ,हर बार तुम्हीं ने उबारा. आज भी तुम  हम सब का आधार हो !'
सुन कर  महिलायें परम सुख पाती हैं ,अघा कर सांस लेती हैं .जीवन में कुछ है जो उनके संताप हरने को तत्पर है .
'उस सच्चिदानन्द के आनन्द- तत्व में  सब के साथ तुम्हारा  भाग भी है .'
पांचाली की बात सुन सहमति में  सिर हिलाती हैं.
मगन- मन कान दिये पुर- नारियाँ और पास खिसक आईं  हैं .
*
 मधुसूदन ,तुम्हीं ने राह दिखाई ,वंचिताओँ को जीवन का मंत्र तुम्हीं ने दिया.समाज की नकार को सुन्दर स्वीकार में परिणत कर  जीवन को आनन्द-रस से आपूर्ण कर दिया .
घरों में नारियां संतुष्ट रहेंगी  परिवार का वातावरण सुखद  रहेगा  सामाजिक क्रिया-कलाप में कहीं कोई व्यवधान नहीं आयेगा.
याज्ञसेनी का अभियान चल रहा है .
हताश नारियों को दिशा मिलने लगी ,वे एकत्र हो कर मंदिर के आयोजनों में रुचि लेने लगीं .उन्हें समाज की  स्वीकृति मिल रही है ,अब वे दीन विधवायें नहीं  कृष्ण- समर्पितायें हैं. अपने प्रभु को रिझाने के लिये वे सुवस्त्रा- शुभांगी हो कर  अपनी निष्ठा से उन्हें  प्रसन्न करने को तत्पर , उन्हें प्रेरित किया है कृष्ण-सखी ने कि वे  शोभन वेष में रहें उस  नटनागर को कुवेष दिखा उद्विग्न न करें !
उसका कहना है -
'शरीर-सुख के हेतु नहीं, नारी जीवन सार्थक करने हेतु तुम उस से जुड़ रही हो, अपनी भावनायें समर्पित कर रही हो ,उसे जो अविनाशी है .
उन्हीं को अर्पित हुये तुम्हारे वीर पतियों के जीवन .और तुम सब कृष्ण की संरक्षितायें उन्हीं के प्रति समर्पित ,उन्हीं के रस में डूबी .
कोई अपराध नहीं तुम्हारा,अपने सुख को परे रख तुम ने सदा अपना कर्तव्य निभाया है .'
 द्रौपदी ,उन दीन दुखिनियों को .नारीत्व के गौरव से आपूर्ण कर रही है  !
हर जीवधारी आनंद खोजता है .तुम मनुष्य हो स्वयं को वंचित मत करो !
कृष्ण से कहा था पांचाली ने 'प्रेम बिना जीवन की गति नहीं,रस अनिवार्य है मन की रम्यता के लिये .'
आनन्द का तिरोभाव नहीं हो.माधव ,यही तो सीखा है तुमसे. जिसे आज जीवन में उतार रही हूँ .'
वह जानती है सारे सांसारिक पुरुष चाहे जितने प्रबुद्ध हों उनकी ऐषणायें नारी को अपनी सुख-सुविधा- सेवा का एक माध्यम भऱ मानती है.इसीलिये केवल अपने हित से जोड़  कर अपने लिये सारे रास्ते खोल , नारी के  आत्म-कल्याण के मार्ग के आगे पूर्ण- विराम लगा रखा है   .
 केवल श्रीकृष्ण परम- पुरुष हैं जिनमें उसके कल्याण और आनन्द को आधार देने की सामर्थ्य है .
 तुम सब उन्हीं  की शरण पाओ!
इन वर्जनाओं में जीने के लिये विवशा नारियों को जो संबल चाहिये, उनके सिवा और  कौन दे सकता है ?
 यही गोपेश का संदेश  .प्रेम और आनन्द का हेतु ,जहाँ  वासना नहीं दुर्भावना नहीं .
जीवन में आनन्द का संचार हो, कृष्ण के सौन्दर्य और प्रेम के गानों की तान उठे   ,श्रीराधा  का ,कृष्ण-प्रिया के रूप में हृदय की सुप्त प्रेमावृत्तियों में प्रकटीकरण  हो .
वे उनके लिये सजती हैं ,नृत्य-गान से रंजन करती हैं .रास के रंग में विभोर हो जाती हैं.
*
कृष्ण -भगिनी महा-शक्ति, विंध्यवासिनी नवरात्र-काल  की आराधिता हैं . जगत की समस्त नारियों में उनका अंश विद्यमान है . आनन्द-मंगल ,मनाते हुये हम सब मग्न हो कर देवी के सायुज्य का स्वयं में अनुभव करें .
मास भर पहले से घोषणा हो गई थी .प्रजा की नारियाँ रास-दाँडिया आदि का अभ्यास करें , नृत्य-गीत का उछाह मंदिर की रात्रियों को अपने उल्लास से भरता रहे .
  कुशल  नृत्यांगनाओं को राज्य की ओर  से सहायक उपादान प्रस्तुत किये जायेंगे .
देवी के मंदिरों में देर रात तक गरबे और डाँडिया की चटकन ,जैसे कोई अविराम  उत्सव चल रहा हो !
सखी के इस बुद्धिृ-कौशल पर मदन-मोहन विस्मित हैं !
'तुम तो प्रेमाभक्ति का उद्भव कर रही हो, पांचाली !'
'प्रेम और भक्ति में कोई अंतर है क्या ', वह उन्हीं से प्रश्न कर देती है.
अभिभूत देखते हैं कृष्ण .
जगह-जगह उल्लास के स्वर ,और प्रेम-भक्ति की लहरियाँ , उत्तुंग तरंग बन जीवन को आप्लावित करने लगीं .वे हताश वंचितायें भाव-लीन हो कर इन कलाओं में मनोमुक्ति पा रही हैं .
 नया उत्साह  भरते , आस्था और विश्वास जगाते वे  मुदित स्वर जीवन में रस का संचार करने लगे .
*.
महायज्ञ की सूचना ,और उसके बाद आये दिन घोषणाएँ.
गति-विधियाँ  व्यापक होने लगीं -
कर्मकारों कलाकारों बाजीगरों प्रत्येक वर्ग के लोगों को भागीदारी हेतु संदेश आने लगे .
 कला का पारस जिसे छू ले वह आधार स्वर्ण सा महार्घ हो  जायेगा ,
कलाकार के करों का परस, पत्थर और माटी में भी जीवन फूँकने लगा.
कवियों .को रचना हेतु विगत संग्राम के नायकों और ख्यात पूर्वजों की जीवनी याद आने लगी .
सारे वर्ग कार्य में व्यस्त हो गये  .उद्योग कृषि कारीगरी ,सब क्षेत्रों में बढ़-बढ़ कर भागीदारी होने लगी .
कला-कौशल को मान मिला .रचनात्मकता की सराहना होने लगी और
प्रजा में उत्साह की लहर दौड़ गई .
प्रयत्न यह था कि सब को अपनी कला के प्रदर्शन का अवसर मिले ,प्रोत्साहन हेतु पुरस्कार भी.
राज सभा में प्रमुख नागरिकों को आमंत्रित कर ,रूप-रेखायें बनने लगीं.कार्य-क्रम निर्धारित होने लगे .
कुशल कलाकारों,संगीतज्ञों ,नर्तकों ,कवियों आदि प्रतियोगिताओं के लिये तैयार रहें , का ढिंढोरा पिटवा दिया गया अन्य राज्यों से प्रतियोगिताविरुदावलियाँ रच लें .रंगमंच के आयोजनों हेतु ,परिषदें बना दी गईँ इस निर्देश के साथ कि  हेतु तत्पर रहें !
भाटों को न्योता कि
 प्रजाजनों को दिशा देने का ,उनकी सोच  को सही दिशा देने का ,जन में चेतना के संचार का दायित्व तुम्हें सँभालना है .
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52
विधि-विधान के साथ यज्ञ का अश्व छोड़ दिया गया .
धनंजय के साथ सैन्य ,अश्व का अनुगमन करता चला.
उन्हें निर्देश था ,सद्भावना पूर्वक कार्य संपन्न हो इसकी पूरी चेष्टा करें .संघर्ष की स्थिति न आये तभी अच्छा.
समाचार आ रहे हैं हर जगह अश्व मुक्त- भाव से विचर रहा है .राजा लोग अधीनता स्वीकार करते जा रहे हैं .
हाँ ,हम इन्हें महायज्ञ में निमंत्रित करते हैं और आगे चल देते है ,
उस दिन महाराज युधिष्ठिर नकुलादि के साथ बैठ कर भावी योजनाओं पर विचार कर रहे थे.
अचानक चर असंभावित समाचार लाया'
कुमार धनंजय गंभीर रूप से घायल हैं ,तुरंत सेना मँगाई है.
युधिष्ठिर चौंके, ' मणिपुर ?धनंजय का श्वसुरालय.राजकुमारी चित्रांगदा अर्जुन की पत्नी हैं .'
 पांचाली विमूढ़ !
देश के अधिकांश भागों से होता हुआ अश्व मणिपुर पहुँचा था .
महाराज चित्रवाहन ने पूछा ,'किसका अश्व है ?
'पांडव सम्राट् महाराज युधिष्ठिर का .साथ में हैं परम वीर कुन्तीपुत्र ,अर्जुन .'
विस्मय से उनके नेत्र कपाल पर चढ गये ,माथे पर सलव़ें पड़ गईं -
'अच्छा !'
'किसी की ओर से  सूचना नहीं निमंत्रण नहीं ,साथ लेने का पारिवारिक आह्वान नहीं .ये हमारे  कैसे संबंधी हैं ?'
उनके मुख पर विरक्ति की रेखायें उभऱ आईँ थीं.
युवराज वभ्रु ,नागकुमारी उलूपी को मातृवत् सम्मान देते हैं .उनका मत जानना चाहा .
उलूपी ने तुरंत पूछा ,'कोई सूचना आई ,परिवार के सदस्य के रूप में सम्मलित होने का निमंत्रण मिला ?.'
'नहीं.नहीं. बस चुनौती देता अश्व ,और उसके पीछे युद्ध-तत्पर योद्धा .'
'पुत्र ,नाना से भी परामर्श कर लो .'
'नाना का भी तो उचित सम्मान नहीं किया वे इस धृष्टता से असंतुष्ट हैं.'
तब सोच-विचार कर उत्तर दिया था उलूपी ने -
'' ,आत्म-सम्मान खोकर संबंध कैसे निभ सकते हैं वत्स  .तुम अपना कर्तव्य करो !'
  कुमार ने नाना महाराज से कहा ,
' हम कायर नहीं हैं . पिता का अश्व है तो  उसके संरक्षकों में हम क्यों नहीं गिने गये, हम भागीदार क्यों नहीं हुये?'
वह उत्तेजित था.
'हमें सूचना नहीं ,आमंत्रण नहीं ,और अश्व अपनी विजय-घोषणा करता राज्य में घुस आया -यह सबंध का निर्वाह नहीं,चुनौती दी गई है जिसे हम स्वीकार करते हैं ?'
 युवराज ने अश्व  बाँध लिया .युद्ध की घोषणा कर दी .
'मेरे नाना का शासन है ,उनकी ओर से मैं अश्व बाँधता हूँ .'
चर बता रहा था-
'लाचार युद्ध करना पड़ा .हमारी सेना कम पड़ गई .'
सब अवाक् सुन रहे हैं .
याज्ञसेनी के अंतर में ऊहापोह चल रहा है .
अपनी विजय में ,पराजय में हम उनसे अलग रह गये , धनंजय की पत्नियों मे केवल सुभद्रा साथ रही ,वह भी आपत काल में हमे सहारा देने के लिये.उलूपी और चित्रांगदा की किसी ने याद नहीं की ,बहत दूर पड़ गईं वे दोंनो .वभ्रुवाहन ने कभी अपने पिता को जाना  नहीं .इरावान के खेत रह जाने के बाद उलूपी की सुध नहीं ली.अकेला छोड़ दिया उसे .माना कि दोनों अपने -अपने पिताके राज्य में ही रहेंगी  पर उनका  यहाँ आना-जाना वर्जित नहीं था .विशेष अवसरों पर पार्थ के इस परिवार को वह संबंध निभाना क्यों नहीं आया? उन्हें अपने से जोड़े रखना इनका  कर्तव्य बनता था.. .'
यहीं चूक हो गई थी.
उसे याद है वभ्रु अपने पिता से भेंट करने कौरव्य नाग के पुर गया था .उलूपी ने बहुत स्नेह-सत्कार किया था .उसके बाद उन्हें विस्मृत कर दिया  गया .यह ठीक है कि अपने नाना के राज्य का उत्तराधिकारी है ,फिर भी इनका कुछ दायित्व नहीं रहा क्या ?
विवाह कर लेना और पत्नी  को राम-भरोसे छोड़ देना कैसा पुरुष स्वभाव है? संतान हो तो भी दायित्व केवल पत्नी का ?युद्ध के समय पुत्र अपना हो जता है . वह कैसे -क्या कर रही है कभी जानने की इच्छा भी नहीं होती ?
कौन आज की ,यह कहानी जाने कब से चली आ रही है !
  दायित्व ही समझते तो स्थितियाँ ऐसी नहीं होतीं.
अंतर्मंथन चल रहा है !
*
पाँचाली स्तब्ध.सब सुन रही है -
बड़े पांडव ने कहा  ,' राजा चित्रवाहन हमारे संबंधी हैं धनंजय के श्वसुर .उन्हें सहयोग करना था,वे ही विरोध कर रहे हैं !'
पांचाली के मुखमंडल पर प्रतिरोध झलक आया ,' केवल संबंधी नहीं ,चित्रा मेरी सपत्नी है इस नाते वे मेरे भी पिता हुये .उनका मान रखा किसी ने ?तुम्हारे अधीन नहीं, वे स्वतंत्र राजा हैं उन्हें निमंत्रित किया ?सहयोग हेतु  निवेदन किया था? .
सब चुप !
वह बोल रही है ,
' धड़धड़ाते हुये उनके राज में सेना सहित अश्व लेकर घुस गये कि अधीनता स्वीकारो ?'.
सब पांचाली का मुख देख रहे हैं.
वह कहे जा रही है ,
'उंन्हे तो अपने साथ लेना था ,
'पुत्र है ,उसे भी साथ ले कर श्रेय देना चाहिये था,केवल युद्ध-काल में ही याद क्यों ? यों अचानक अश्व आगे कर ललकारते पहुँच जाना कौन सी नीति है  ?तुम्हारे अधीन नहीं हैं वे सब !'
'तो अब क्या करें ?सेना तो और भेजनी ही पड़ेगी.  .'
 .सेना के साथ कोई कुमार भी जाये क्योंकि पार्थ गंभीर रूप से घायल हैं .
उनमें  बोल पाने की  भी क्षमता नहीं.'
इसी बीच एक चर फिर सूचना ले कर आया -
'आपके बंधु का संरक्षण किया राजकुमारी  चित्रांगदा  ने ,देवि उलूपी ने अपनी विशेष विद्याओं से उनके प्राण बचाये .'
पांचाली बोली,'आभार प्रकट कीजिये ,सेना के उनके सामने होने के पूर्व सम्मान सहित  स्नेहोपहार प्रस्तुत कर ,क्षमा-याचना सहित समारोह में  निमंत्रित कीजिये कि कृपापूर्वक यहाँ पधार कर हमें गौरवान्वित करें !'
युधिष्ठिर चुप थे अब तक.
बोले ,'साम्राज्ञी की आज्ञा का पालन हो.'
*
उस दिन वभ्रु से कह कर उलूपी निचिंत नहीं हो पाई,
कुछ अनिष्ट न घट जाये ,उसे लगा इस समय मणिपुर में होना चाहिये .
वभ्रु को पुत्रवत् नेह करती है ,उलूपी और चित्रा से भेंट होती रहती है .
अर्जुन गंभीर रूप से घायल हैं ,व्रण गहरे हैं .बार-बार अचेत हो रहे हैं .चित्रांगदा अपने कक्ष में ले आई है .
ऐसे समय  नागकन्या का आगमन उनके लिये वरदान बन गया .उलूपी ने अपनी विशेष विद्याओं से आसन्न मृत्यु को लौटा दिया .
 सच यही है कि पार्थ,अनायास नहीं बचे , नाग-कन्या उलूपी ने अपने विशेष उपचारों से उन्हें  पुनर्जीवित किया
शनेः-शनैः चेत आया उन्हें .उदास चित्रांगदा उत्साहित हो उठी .
उलूपी की चिकित्सा चल रही है.धनंजय स्वस्थ  हो रहे हैं ,उन्हें भान है महाराज चित्रवाहन और कुमार वभ्रु इस अचानक सैनिक अभियान से खिन्न हैं .
पर युधिष्छिर आदि से परामर्श बिना वे कैसे अपनी भूल का परिहार करें .
हस्तिनापुर जाने की बात भी नहीं उठा सकते.
इसी चिन्ता में समय बीत रहा है .
अचानक पार्थ को सूचना मिली कि हस्तिनापुर जाने की तैयारियाँ चल रही हैं .
मणिपुर नरेश के गंभीर ,चिंतायुक्त मुखमंडलपर ,स्मिति की लहरें दिखाई देने लगीं.
वभ्रु ,पूछने चला आया वहाँ कौन-कौन होगा .और भी उत्सुकतापूर्ण जानकारियाँ ..
अचानक यह कैसे ?
उत्तर मिल गया.
पूछने पर, चित्रा ने एक पत्र , पति की  ओर बढ़ा दिया -
'दीदी के ही वश में था प्रतिकूल को अनुकूल बना लेना ..'
लिखा था -
पूज्यवर ,
प्रणाम स्वीकारें ,
बहिन चित्रांगदा  के साथ आप मेरे भी पिता हैं .आपकी यह पुत्री विनती करती है कि असावधानीवश हुई भूल के लिये हमें क्षमा करें .
तात, प्रारंभ से इतनी विषम स्थितियाँ झेलनी पड़ीं ,जीवन इतना कठिन रहा , और अब भी इतनी समस्यायें सामने खड़ी हैं कि निश्चिंतमना कार्य संपादन सदा संभव नहीं हो पाता ,त्रुटियाँ हो जाती हैं .आप जैसे गुरुजनों का ही आसरा है . उदारभावेन क्षमा करें अथवा दंडित करें पर अपनी कृपा से वंचित न करें . यह यज्ञ आप के संरक्षण बिना कैसे पूर्ण हो सकता है ! हम सब का आग्रह है कि इस अवसर पर आप स्वयं आकर इसे गरिमा प्रदान करें ,अपने आशीष से हमें उपकृत करें!
एक और अनुरोध ,बहिन चित्रा  और पुत्र वभ्रुवाहन बिना हमारा परिवार अधूरा है उन्हें इस अवसर पर यहाँ आने की अनुमति प्रदान  करें .'
आगे नहीं पढ़ पाये ,धनंजय के नेत्र वाष्पित हो आये थे ,'ओह पांचाली !'
कुछ स्थानों पर अक्षरों की पाँते धुली सी ,किसके अश्रु - पांचाली  या चित्रा !संभवतः दोनों!
' इस पुत्री ने  मुझे भी विगलित कर दिया ,' मणिपुर के नरेश कह उठे थे .'
पांचाली को धीर बँधाने वाला वही जो सदा संकट से उबारता रहा .
माधव ने कहा था,' यह तो कभी न कभी होना ही था ,अच्छा हुआ अभी निपट गया .'
वह चकित सुनती रही .
'सखी ,अपने किये का फल भोगना ही पड़ता है, कर्मफल से छुटकारा नहीं .पार्थ ने आमने-सामने हो कर नहीं ,किसी की आड़ लेकर पितामह को हत किया था .याद है न तुम्हें ?'
आगे कहने-सुनने को रहा ही क्या ?
अंतर्मन पुकार उठा ,'उलूपी ,चित्रा! विवाह से  क्या पाया तुमने ? फिर भी तुमने जो किया यह कुल उसका प्रतिदान नहीं दे सकता !'
*
नगर आगमन पर  वीर वभ्रुवाहन का नायक के समान विशेष स्वागत हुआ . राजा युधिष्ठिर ने कौरव्य नाग को विशेष निमंत्रण पहुँचाया .उनके अनुरोध पर  उलूपी का आगमन हुआ .
यज्ञ प्रारंभ हुआ !
एक नई व्यवस्था का शुभारंभ होने जा रहा है .
आयोजन की भव्यता में संशय के बादल उड़ गये .समाज का प्रत्येक वर्ग योग दान हेतु तत्पर हो गया.
व्यास देव के संपर्क से  दूर-दूर के ऋषि-महर्षियों का आगमन और संरक्षण  प्राप्त कर जनता का विश्वास दृढ़ हुआ. श्रद्धा-भावना द्विगुणित हो गई.
 चारों ओर कोलाहल- हलचल .पट्टमहिषी है पाँचाली यज्ञकर्ता की वामांगिनी .
सब कार्य चल रहे हैं .कभी-कभी उसे लगने लगता है वह दर्शक बनी रह गई है .जो करना हैं दुनिया के काम हैं .शरीर उपस्थित है मन हो न हो !
चित्त क्यों इतना उचाट रहता है .सब कार्य होते रहते हैं चित्त थिर  नहीं रहता .
बार-बार एक ज्योतिर्मय व्यक्तित्व स्मृति- पटल पर डोल जाता है .कभी अपमानित करने से चूकी नहीं थी जिसे.क्या हो गया था  मुझे ?
इच्छा होती है अकेले में बैठ कर खूब रोये  ,सिसक सिसक कर कर रोये .
यज्ञ के कार्यों में वृषाली आती है -गरिमामयी नारी ,
वह भी जान गई है कि उसका पति कौन था ,ये सब उसके कौन हैं.पर अब जब  पति-पुत्र सब को युद्ध की धरती निगल गई .
पहली बार सामना हुआ तो गले लग कर दोनो रो पड़ीं, धीरे से पांचाली से बोली थी ,'उन्हें एक बात का सदा पछतावा रहा ,तुम्हारे साथ उस भरी सभा में जो किया उसके लिये कभी अपने को क्षमा नहीं कर सके .बहुत ग्लानि थी उनके मन में .तुमसे क्षमा-याचना का भी साहस नहीं .कर सके.. ' उसके बोल रुँध गये थे .'
'कुछ मत कहो ,नहीं सुन सकूंगी .मैंने कोई कम अन्याय नहीं किया उनके साथ .अशेष ग्लानि है,..मैं कैसे क्या कहूँ बहुत धिक्कारती हूँ अपने स्वयं को ...'वह फूट कर रो उठी थी.
'सब बीत गया! अब तो शेष जीवन काटना रह गया है .समय बीतता ही नहीं किसके सहारे रहूँ ...'
'ये सारा परिवार है न.सब जितना मेरा उतना तुम्हारा ...अकेली नहीं तुम .हम सब की बड़ी.सबकी मान्य...'
'उनकी  भी तो  वृद्धावस्था है,उन्हें अवलंब चाहिये,बिखर से गये है , 'उसका इशारा ,कर्ण के पालक माता-पिता की ओर था. .
वृषाली ने बहुत स्नेह-सम्मान पाया है पति का -पांचाली जानती है .कर्ण की प्रिया को, वह अपने कर्तव्य से कभी विमुख नहीं होगी .
यज्ञ से पूर्व दिवंगतों की स्मृति कर उनका अभिनन्दन किया गया .
हिडिम्बा आई ,विशेष आमंत्रण अहिलवती को गया था ,उसे साथ ले कर  .
 पितामह को याद किया गया.
पिछली बार सब उपस्थित थे बृहत् परिवार था .कितना उछाह-हलचल .इस बार वह बात नहीं है..
बर्बरीक के गुण गाये गये ,कर्ण  को श्रद्धंजलि अर्पित की ,सबको याद किया गया.
 सब अपने -अपने कार्य में व्यस्त हैं.
रथ भेज कर वानप्रस्थी धृतराष्ट्र,कुन्ती, विदुर सबको बुलाया वे आये और आशीष दे कर लौट गये .
महात्मा विदुर कुछ दिन रुके .व्यास देव को उपस्थित रहना ही है .
कृष्ण और उनका रनिवास कब का आ चुका है .
स्वर्णाभा युक्त रुक्मिणी और होम धूम श्यामा याज्ञसेनी दोनों मिलीं ,गंगा-यमुना का मिलन !
 दंगल ,प्रतियोगिताये .सांस्कृतिक कार्यक्रम.कवियों के दरबार ,रंगमंच पर प्रस्तुतियाँ .सभी व्यस्त हैं अपनी कलाकारी के प्रदर्शन में ,मूर्तिकार चित्रकार,कोई पीछे नहीं .आगत अतिथि मुंहमाँगे दाम देकर क्रय कर रहे  हैं.
 मान्य एवं संबंधियों को स्मृति-चिह्न.देने के लिये  , कारीगरों की कृतियाँ  हाथों-हाथ बिकी जा रही हैं .एक से एक विचित्र काम के बहुमूल्य वस्त्र,आभूषण , काष्ठ-धातु आदि कलाकृतियाँ , उपहार भी तो कितने देने हैं . आनेवाले भी जानेवाले भी, सब को कुछ स्मृति-चिह्न चाहिये !
महिलायें सुईकारी की विभन्न विधाओं में पारंगत! जुटी हैं दिन-रात.
,कितने समय बाद अपनी कला प्रदर्शित करने का अवसर आया है .
उत्साह का पार नहीं !
**
एक और यज्ञ की घटनायें स्मृति में घूमने लगीं .
वे दिन और ये दिन !कितनी भिन्नता है लेकिन एक तार दोनों को संयोजित किये है.
तब चढ़ाव के प्रहर थे ,अब उतार का उपक्रम .
वह राजसूय यज्ञ!
याद आती है तो पांचाली का चित्त  व्याकुल हो उठता है .
 'सुनने में आता है कि युद्ध का कारण मैं रही  .पर तुम जानते हो ,जनार्दन,इसकी भूमिका कितनी पहले से बन रही थी.उस पर कैसे दोषारोपण कर कर दिया गया कैसे निमित्त कह दिया गया,' ,
क्या था उसका योगदान यह मधुसूदन को बताया  पांचाली ने -
'स्वयंवर के पश्चात् मैंने अपने श्वरालय के विस्तृत परिवार में पलते द्वेष को जान लिया था.कितनी बार  भीमसेन के प्राण लेने का प्रयत्न किया ,कैसे छल से राज्यविहीन किया .
और लाक्षागृह की घटना तो मेरे सामने की थी .उनकी अनीति और अन्याय पर मेरे मन में आक्रोश था .दुर्योधन की दृष्टि मुझे कभी देवर जैसी सहज नहीं लगी .एक विचित्र सा भाव सदा उसके मुख पर ,जो मुझे कभी नहीं सुहाया.
 मन में उनके प्रति आक्रोश था.कटुता भरी थी,'
 पांचाली ने कहा ,'पर मैं इतनी व्यवहारहीन और मूर्ख ..नहीं थी कि घर आये मान्य अतिथियों की हँसी उड़ाती,उन्हें  अपमानित करती .
दुर्योधन के जल और थल के भ्रम पर मैंने उन्हें सुनाने को नहीं कहा था .
मैं इतनी दूर महिलाओं के बीच थी और वह ,अपने मित्रों के साथ उस ओर के क्रीड़ा-प्रांगण में .मैंने ऐसे नहीं कहा था कि वे सुन लें .अपने समीप बैठी ,सुभद्रा से धीरे से कहा,'अंधों के अंधे ही होते हैं क्या '
पता नहीं था कि बात इतनी दूर तक जायेगी.
सुभद्रा हँसी थी तब तक दुर्योधन को कुछ भी आभास नहीं था. वह स्वयं भी हमारी हँसी मे सम्मिलित हो गया था.
उस समय एक परिचारिका मद्य के चषक लेकर आगत महिलाओं को प्रस्तुत कर रही थी .उसने सुन लिया .वह हँसी और पास खड़ी दूसरी परिचारिका को हँस-हँस कर सुनाने लगी . मैंने उसे रोकना चाहा था .पर वह रिक्त चषक पूर्ण  करने चली गई थी .
फिर तो  मुख और कानों में होती हुई वह बात कहाँ-कहाँ तक पहुँच गई .
  'परिचारिकाएं तो ऐसी ताक में रहती ही हैं .उनका  हँसी-ठट्ठा चला होगा  फिर बात को फैलने से कौन रोक सकता है .हाँ ,मुँह से तो निकल ही गया .'
पर जो होना था हो चुका ' कृष्ण समझ रहे हैं सखी की स्थिति.
'हाँ वृषाली भी वहीं वैठी थी ,कर्ण की पत्नी ..'
कृष्ण ने कहा था ,
'नहीं पांचाली ,वृषाली भड़कानेवाली नहीं संस्कारशीला नारी  है ,कर्ण के अनुरूप आचरण वाली है ,उस ने कर्ण को बताया भी हो तो वह तुम्हारे विरुद्ध दुर्योधन के कान नहीं भरता .पिशुनता  बिलकुल नहीं. नीचता तृण भर भी नहीं उसमें .!
 बड़े कौरव ने तुमसे दुष्टतापूर्वक उसी का  बदला निकाला था .'

*
(क्रमशः)







रविवार, 8 जुलाई 2012

कृष्ण-सखी . - 49 & 50.



49.
अनेक आधे-अधूरे जोड़कर एक सर्वांग संपूर्ण की रचना होगी ,सोचना भी असंभव !
सब-कुछ टूटा-फूटा  हो जहाँ , हर ओर अवसाद ,और खंडित संबंधों के दंश ,कुछ भी तो समूचा नहीं बचा .समर के बाद सारे भ्रंश समेट कर एक नया प्रारंभ करना कितना दुरूह कार्य  !
 पर जीवन कब रुका है ? सिंहासन रिक्त कैसे रहता .युधिष्ठिर सम्राट बने,पांचाली पट्टमहिषी !
धृतराष्ट्र और गांधारी से इस देश नहीं रहा गया .वे सप्तस्रोत तीर्थ चले गये .
कुन्ती भी रुक न सकीं .जीवन में बहुत कुछ देख लिया. अपने अंतर की गहन वेदना  में किसी को भागीदार न बना सकीं ,अंत में सत्य उद्घाटित करना पड़ा.केवल निराशा  और आरोप झेले .जिन पुत्रों के लिये जीवन लगा दिया उनका असंतोष और संपूर्ण नारी जाति के लिये  युधिष्ठिर के शाप की कारण बनीं .
सब कुछ करती रहीं, पर मन का एक कोना कर्ण के लिये रिक्त रहा,एक फाँस जो कभी निकल नहीं सकी ,आजीवन करकती रही .अब चित्त उचाट हो गया .यहाँ नहीं रहा जाता -और वे भी उनके साथ प्रस्थान कर गईं .
द्रौपदी , कहीं नहीं जा सकती .महारानी है ,मन का वनवास यहीं पूरा करेगी. पिता -भाई और पुत्र सब गये. कितने अँधड़ आये ,झकझोरते निकल गये . बैठकर विचार करती है -जीवन में जो रिक्तियाँ समा गई हैं कैसे पुरेंगी !
आवेग उठता है- सब गडमड हो जाता है .
*
सुविधा से बैठकर बात करने का कितने दिनों बाद  आज अवसर मिल पाया .
मन में घुमड़ती बात पूछ बैठी पांचाली ,' योगेश , तुम्हें इतना क्रोधित कभी नहीं देखा था,इतना भयंकर शाप .. .'
'उस पातकी अश्वत्थामा  की बात कर रही हो ?'
'तो सुन लो उसके अपराध -
' पिता का बदला लेने के लिये वह नारायणास्त्र का प्रयोग कर चुका था .उसके बाद  इन बालकों की हत्या. आगे ,अजन्मे शिशु पर आघात -एक और जघन्य पाप !
पांचाली,और आगे  सुनो ,अर्जुन से भयभीत हो  इसने ब्रह्मास्त्र का संधान किया.अक्षम्य अपराध !जान-समझ कर ऐसे अस्त्र का संधान कि भू-तल पर असह्य ताप, तत्वों में भीषण प्रदूषण,  ,युगों तक कुत्सित- अपंग होता जीवन !सोचो तनिक,  कितना लंबा भविष्य अँधेरा कर डाला ! ...और  प्रतिकार स्वयं को नहीं मालूम! '
उफनती साँस का वेग रोकने रुके नारायण , '  उसका यह घात कहाँ तक गया है इसका साक्षी बने वह, इसी अवस्था में ,चिरकाल जीवित रह कर !घोर प्रतिहिंसा ने उसे जिस तल पर पहुँचा दिया है ,इसके बिना उसका निस्तार नहीं !'
सिहर उठी वह .
' याज्ञसेनी , कुरुक्षेत्र की यह धरती कभी भूल पायेगी उस दाह को ?
मौन छा गया  -पाँचाली हतप्रभ-सी  .
 वे उसकी की मुद्रा देखते कह रहे थे, '  और  उस दिन तुम्हारी दृष्टि में ऐसा कुछ देखा कि हृदय  उद्वेलित हो उठा . '
  वह देख रही है अति गंभीर .
'सच कहना याज्ञसेनी,उस दारुण व्यथा के बीच तुम्हारे मन में मेरे लिये कुछ आया था ?'
सिर झुकाये सोच रही है द्रौपदी , उत्तर खोजती दृष्टि जमी है उस के मुख पर .
'मिथ्या-वाचन नहीं करूँगी .क्षण भर को लगा था तुम ,तुम्हारे होते यह कैसे हो गया ?मेरे बच्चे !काश ,तुम बचा लेते. माँ के मन की दुर्बलता समझोगे तुम ,भीतर घुटती पुकार कहीं तो निकलती .दुर्बलता थी मेरी ही.. .नहीं ,तुम्हें दोष नहीं दे सकती .. किससे शिकायत करूँ ?किस पर अधिकार दिखाऊँ .
पागल मन बहकता है तो तुम्हीं याद आते हो .आवेग फूट निकलता है. तुम्हें जानती हूँ . दुख के उन विवेकहीन क्षणों को गंभीरता से मत लो .'
वे चुप देख रहे हैं वह करुणा-कातर मुख .
भाव-हीन मुद्रा ,यंत्र-वत् शब्द मुख से निकल रहे हैं ,' अधिक नीतिवान अपना स्वार्थ  सिद्ध करता है तो कोई जान नहीं पाता चोट किस पर गई ,चुप्पा रह सबकी सहानुभूति का पात्र बना रह कर .और जो सबके सामने खुल कर कर डाले दोषी -अपराधी तो वही हुआ न !
'.. .कहने मात्र से कोई धर्मराज नहीं हो जाता  वासुदेव ,मनुष्य की  पहचान विषम स्थितियों में होती है .जो अनीतियाँ हो रही हैं उनका परिणाम कहाँ तक जा सकता है ,यह भी विचारा होता ..मैं किससे कहूँ ?..नहीं कह सकती ..मैं इन पाँचों में भेद के बीज नहीं बो सकती ....
 मन का सच किसी के सामने नहीं खोल सकती  बस, एक तुम्हारे सिवा ....!'
सुन लिया कृष्ण ने ,समझ गये मन का उमड़ता आवेग .किसी से न कह सकी जो ,मुझसे कह डाला .
 सोच रहे थे कैसे समाधान करूँ .मन की इस विचलित अवस्था में किन-किन बीहड़ों में भटकी जा रही है .कोई नहीं जो आश्वस्ति के बोल ,बोल दे .
 वे मुखर हुये,जैसे कहीं बहुत गहरे से आवाज़ आ रही हो ,
 मेरे सामने तुम्हारे पाँच और सुभद्रा का इकलौता मार दिये गये .प्रयत्न था मेरा दोनों का सुहाग सुरक्षित रहे ..नहीं तो पितामह को कोई नहीं रोक सकता था,उनकी तूणीर में रखे पाँच ,अभिमंत्रित बाण ,इन पांचो के नाम के गवाह हैं .पर पितामह के हाथ बंध गये तुम्हें आशीर्वाद दे कर .
उस दिन छल से  तुम्हें दूसरे के लिये रखा अखंड सौभाग्य ,आशीष में दिला लाया . ऐसा न करता तो तुम्हारे पाँचो पतियों की मृत्यु अवश्यंभावी थी .वरदान पलट गया .मूल्य तो चुकाना पड़ेगा !वे नहीं उनके पुत्र गये .एक को जाना ही था.
पतियों के जाने से तुम दुर्भागिनी होतीं .दुर्योधन का शासन होता ,आँखों के सामने पुत्रों को अपमानित देखना कितना कष्टकर होता है .कुन्ती बुआ को देख कर समझा मैंने ....
और सोचो  पांचाली ,सब-कुछ किसी को कहाँ मिला है !'
रुक कर लंबी सांस भरी यादव ने .
'फिर भी अपराध मेरा समझती हो तो क्षमा ...'
व्याकुल हो हाथ से बरजती बीच में बोल उठी  ,'मत कहो ,मत माँगो क्षमा .
एक तुम्हीं तो हो .मेरा हित समझते हो .,अपमानजनक जीवन से मृत्यु अच्छी .उनके लिये क्या बचता ?कुछ नहीं . तुमने मुझसे पूछा भी होता तो भावनाओं के वश में विचार नहीं कर पाती .बस यही कहती उन दोनों की जगह मुझे ..'
 सोचते रहे कृष्ण .
वह फिर बोली - 'तुम मुझे क्षमा कर दो ,मेरी दुर्बलता पर . '
'बस-बस हमारी मित्रता में यह क्षमा कहाँ से घुस आई कृष्णे ,विषम परिस्थितियों में हो जाता है ऐसा.उस रात भी उसका लक्ष्य तुम्हारे पाँचो पति थे ,पर संयोग या विधि का विधान कि उसी रात पिताओं की जगह पुत्र वहाँ जा सोये .'
'हाँ ,इधर भीम ,पार्थ आदि देर रात तक मंत्रणा करते रहे  .अपने
मामा के साथ बातें करते वे पाँचों उधर सोने चले गये  .  किसी को क्या पता था ..'
एक उसाँस  बस !
*
'दुख भटका देता है पांचाली ,डुबो देता है ,सारा विवेक बह जाता है .'
'बस तुम मेरे साथ रहना ,जो होगा वह शिरोधार्य !'
एक करुण हास्य कृष्ण के मुखमंडल पर छा गया .
'इस महायज्ञ में तुम्हें भी अपनी आहुति डालनी थी..अपना पूरा बचा कर नहीं रख  सकती थीं .'
'तुम्हारे लिये कभी कुछ अन्यथा सोच भी नहीं सकती. कभी भी नहीं मीत ,इतना भरोसा रखना .''
शान्ति छा गई माधव के मुख पर .

 ' एक खटक थी मन में जाती रही .अब शान्ति से जा सकूँगा .तुम पट्ट-महिषी हो  अपना दायित्व समझती हो ,जानता हूँ .'
'पट्टमहिषी!' पांचाली ने दोहराया ,'यह कुछ नहीं चाहिये मुझे ,बस शान्तिपूर्ण जीवन .'
'मेरे -तुम्हारे चाहने से क्या !किसके जन्म का निमित्त क्या है ,किसे पता ?..पर जो होना था हो चुका .अब बस ..'
''एक तुम हो साथ ..बस आश्वस्त हूँ .'
'किसका आसरा ? सदा के लिये कुछ नहीं होता.'
वही करुणा-भीगा  हास्य कृष्ण के मुख पर ,' अभी तुम्हें रहना है कृष्णे,सब निभाया तुमने ,अब काहे का सोच !'
क्या कहना चाहते हैं जनार्दन ?
 '..अधर में नहीं छोड़ूंगा तुम्हें .सब सुलटा कर जाऊँगा .'
 'जाओगे ?कहाँ ?'
' निश्चिंत हूँ. अब मैं न होऊँ तो भी तुम सँभाल ले जाओगी .'
एकदम चौंकी पांचाली ,'कहाँ जा रहे हो तुम ?'
'...और कहाँ जाऊँगा ! अभी तो द्वारका .. ..वहाँ  की समस्यायें ,यादव वंश की समस्याये '
'वहाँ भी कुछ ..?'
'शान्ति कहाँ है ?उन का अनुशासनहीन जीवन ,अमर्यादित व्यवहार ....कुछ तो करना होगा मुझे .'
नहीं कहा कृष्ण ने कि शप्त हैं यादव वंश .
नहीं कहा कि माँ गांधारी ने कैसा शाप दिया है .
अवसान-काल समीप आ रहा है -आभास भी नहीं दिया प्रिय सखी को .
एक और दुखिनी गांधारी ,उसे सुख से जीने का अवसर कहाँ  मिला अंधे को ब्याह कर उसने स्वयं अपनी दृष्टि गँवा दी .कृष्ण को शाप दे दिया पर फिर बहुत  पछताई थी गांधारी.
कुछ चैन पड़ा था क्या?
कहाँ, मन की व्याकुलता और बढ़ गई ?
आह , यह क्या कर डाला  ?पागल हो गई थी  !आँखों पर पट्टी बाँधकर क्या पाया मैंने ?जिन पुत्रों के मुख तक नहीं देखे,जिनके क्रिया-कलाप कभी मेरे आनंद का विषय नहीं बने  उनके लिये रो रही हूँ ।और दोष कृष्ण को दे रही हूं ?'
उत्तर में क्या कहा था?
हँस कर कृष्ण ने कहा था ,'चलो माँ, तुम्हें संतोष मिलता है तो मैं यह शाप शिरोधार्य करता हूँ . हर बार जीता-मरता तो मैं ही रहा हूँ ।कुलनाश को नियति का संकेत मान कर स्वीकार करता हूँ .मुझे भी जाना ही है , कहाँ तक रहूँगा यहाँ !'
क्यों कहें वह बात इस संतप्तमना नारी से ,जान कर झेलना और  कठिन हो जायेगा .
प्रत्यक्ष कहा उन्होंने ,' जो होना था हो चुका .अब तो उतार का क्रम है .
तुम दुर्बल नहीं हो कृष्णे,अब जब सब बीत चुका है .शेष जीवन  बिताना रह गया है .'
संध्या का धुँधलका गहराने लगा था.राजमहल की परिचारिकायें दीप प्रज्ज्वलित करने उपस्थित हो गईँ .
उस दिन का संवाद वहीं थम गया .
*
50.
 कर्मयोग जिसे वे जीवन में उतारते रहे ,रणक्षेत्र में मुखर हो उठेगा कौन जानता था !
उस महाध्वंस के बीच वह अमृत-वाणी समस्त मानवता की एक धरोहर बनी रह जाएगी , यह कोई सोच भी नहीं सकता था.
पितामह के विचार चल रहे हैं .
 संकट के समय पौरुष न हो  .अपने सुख अपनी कामना पूर्ति हेतु नहीं ,धर्म की रक्षा हेतु .शक्ति का प्रतिफलन, न्याय और सत् के रक्षण हेतु ,
दुर्बलता से दुष्टता उत्पन्न होती है .इससे आगे और कहने सुनने को बचा ही क्या ?
 हे मुकुन्द, तुम दृष्टा हो
  सत्य तुम ने उद्घाटित किया !
देह त्यागने हेतु सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं भीष्म !
सब आते हैं ,समाचार मिलते हैं .सब जान-सुन कर फिर आत्म-चिन्तन में डूब जाते हैं पितामह.
जनार्दन सौ वर्ष की वय प्राप्त कर चुके  .वृद्धावस्था झलकने लगी  ,जीवन में कभी विश्राम करने को नहीं मिला था.महाभारत -युद्ध के बाद ,आवश्यक कार्य संपन्न करवा दिये .पितामह के अवसान के समय उनकी दृष्टि के सामने बने रहें उनकी इस इच्छा से अवगत थे  .
शर-शैया पर निरंतर उन्हें प्रबोधते रहे .
भीष्म की शंका पर उन्होंने  ही कहा था ,' तात ,बात केवल सावधानी की है .आपने प्रण किया था तब  विचित्रवीर्य और चित्रांगद के राज्य संरक्षण की बात थी . बाद में स्थितियाँ बदल चुकीं थीं ,स्थितियाँ बदलने के साथ अपनी नीति ,शपथ,संकल्प ,आदि का पुनरावलोकन करना ही उचित होता है .विभ्रम से अशान्ति ही पल्ले पड़ती है .'
 तभी तो. अशान्ति ही पल्ले पड़ी मेरे.
कितने-कितने विचार उठते हैं मन में ,सब कुछ सामने घटता रहा.जीवन भर न समझ सके ,आज परिणाम देख रहे  हैं ,कामना में बाधा पड़ने पर मन में कितने विकार उत्पन्न होते हैं -यही तो सारी कहानी है
*
मेरा वचन सत्यवती-माँ के पुत्रों के संरक्षण के लिये था. फिर तो धर्म की धज्जियाँ उड़ती रहीं और मैं प्रतिज्ञा की ओट लिये रहा .इच्छा-मृत्यु का वरदान है मुझे सब जानते थे .कह देता अनीति सहने से मृत्यु भली, तो कौन दुस्साहस करता ?
कृष्ण ने कहा था,'जो भवितव्य था, हो कर रहा .'
कुसमय आने पर मनुष्य की बुद्धि वैसी ही हो जाती है .
 अम्बा की याद आई उसके शब्द -  'मनमाने हरण हेतु परम समर्थ, ग्रहण हेतु नितान्त असमर्थ - श्रेष्ठ पौरुष के लक्षण यही न !'
गहरा निश्वास .
चाहते हैं कुछ न सोचें ,पर पता नहीं चलता ,जाने कहाँ-कहाँ की भूली-बिसरी  स्मृतियाँ घेर लेती हैं .विचार परंपरा सक्रिय हो जाती है .
जानता था  पांडु बचपन से ही दुर्बल है -  स्नायु तंत्र इतना दुर्बल कि  किंचित उत्तेजना भी सहन नहीं कर सके , और उसके दो-दो विवाह !
बौद्धिक पकड़ सिद्धान्त है ,और कर्म में परिणति व्यवहार .यही जीवन की विद्या है -ब्रह्मविद्या की एक शाखा यह भी -जिससे  अर्जुन का विषाद-ग्रस्त अंतर प्रकाशित हो उठा .
 पितामह के अंतः-चक्षु खुल रहे हैं .
तुम लीला मय थे या कर्मशील ?
हाँ, तुम लीला भाव से कर्म करते चले गये .
परम चिति का लीला-विलास ! जिसके विभिन्न अध्याय इस विराट्  पटल पर एक के बाद एक लिखे जा रहे हैं, इस -मानव चेतना के आयाम ,सारे रस ,समस्त रूप ,समूचे रंग समाहित होकर जैसे एक महाकाव्य की रचना हो रही हो !
व्यक्ति सब भूल जाता है उचित-अनुचित का भान नहीं रहता .मोह बुद्धि जाग्रत हो जाती है विवेक हरा जाता है .यही सब तो हुआ.
किसका जीवन कैसा बीता वही जान सकता है ,या सब के साक्षी नारायण !
पुरुषोत्तम,तुम्हारी बात मेरी समझ में आ गई .
धन्य हो तुम !
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