'सुहाग' शब्द को लेकर ,अपनी एक मित्र के साथ मेरी बहस हो गई .उनका कहना था -जिसका पति जीवित हो वही सुहागिन ,और यह शब्द स्त्री के परिप्रेक्ष्य में ही प्रयुक्त किया जाता है .किसी पुरुष के साथ सुहागवान होने की न होने की समस्या नहीं होती, वह ऐसी चीज़ों से परे है .अधिक से अधिक वह विधुर हो सकता है जो उसके लिये किसी सामाजिक वंचना का कारण नहीं वनता .लेकिन स्त्री यदि विधवा है तो सुहाग से वञ्चिता कहलाएगी.और सुहाग से वञ्चिता तो तमाम चीज़ों से वञ्चित होना उसके लिये लाज़िमी है -
ऐसा लगता है समाज में नारी की स्थिति के साथ जुड़ा सुहाग शब्द अपने अर्थ में रूढ़ होता गया .
अब 'सुहाग' एक शब्द -मात्र नहीं, यह व्यापक अर्थ से परिपूर्ण एक व्यंजक पद है. एक सांस्कृतिक अवधारणा है जिसमें नारी के सर्वांगसम्पूर्ण जीवन की परिकल्र्पना -समाई है . सफल-संपन्न नारी-जीवन का बोधक है यह छोटा-सा शब्द - श्री-सुख-माधुर्य से परिपूर्ण जीवन का सूचक
लेकिन सुहाग शब्कीद परिभाषा कर उसे किसी सीमा में बाँधना संभव नहीं, पीढ़ियों की मान्यताओँ और आचार-व्यवहार से पोषित धारणा लोकमन पर गहरी पकड़ रखती है और सदियों के संस्कार संचित उऩ शब्दों की अनूभूति-प्रवणता मंद नहीं होती (फ़ालतू की बौद्धिक कसरतों से उसमें अर्थ -अनर्थ की संभावना कर ले ,कोई तो बात दूसरी है.).इस प्रकार के
शब्द अनुवादित नही हो पाते , क्योंकि किसी भाषा के शब्द ,जिन मूल्यों और मान्यताओं को वहन करते हैं वह उसकी समाजिक-सांस्कृतिक धरोहर है जिसे दूसरी भाषाएँ स्वाभाविक रूप में ग्रहण और व्यक्त नहीं कर पाती .
इस शब्द का सही अर्थ समझने के लिये एक लोक-प्रचलित पद्यमय कथन 'आरी-बारी' दृष्टव्य है,जो स्त्रियाँ अपनी व्रत-पूजाओं में अक्षत-पुष्प हाथ में ले कर श्रद्धापूर्वक कहती- सुनती हैं सुहाग की कामना करती कन्या ,अपने भावी जीवन की परिकल्पना करती हुई देवी से कृपा-याचना करती है -
आरी-बारी -
' आरी-बारी ,सोने की दिवारी ,
तहाँ बैठी बिटिया कान-कुँवारी .
का धावै ,का मनावै ?
सप्ता धावै,सप्ता मनावै .
सप्ता धाये का फल पावै ?
पलका पूत ,सेज भतार ,
अमिया तर मइको ,महुआ तर ससुरो .
डुलियन आवैं पलकियन जायँ .
भइया सँग आवें ,सइयाँ सँग जायँ .
चटका चौरो ,माँग बिजौरो ,
गौरा ईश्वर खेलैं सार .
बहुयें-बिटियाँ माँगें सुहाग-
सात देउर दौरानी ,सात भैया भौजाई,
पाँव भर बिछिया ,माँग भर सिंदुरा ,
पलना पूत, सेज भतार ,
कजरौटा सी बिटियां सिंधौरा सी बहुरियाँ ,
फल से पूत, नरियर से दमाद.
गइयन की राँभन,घोड़न की हिनहिन .
देहरी भरी पनहियाँ ,कोने भर लठियाँ ,
अरगनी लँगुटियाँ
चेरी को चरकन ,
बहू को ठनगन
बाँदी की बरबराट,काँसे की झरझराट,
टारो डेली,बाढ़ो बेली,
वासदेव की बड़ी महतारी .
जनम-जनम जनि करो अकेली .
*
मैं जानी बिटिया बारी-भोरी ,
चन मँगिहै ,चबेना मँगिहै ,
बेटी माँगो कुल को राज .
पायो भाग!
सप्ता (सप्त मातृका) दियो सुहाग !'
- अपनी कामना के साथ हाथ में धरेअक्षत -पुष्प देवी-माँ क चरणों में अर्पित कर देती हैं.
सांसारिक जीवन में अपनी बहुमुखी भूमिका निबाहती .सुखी समृद्ध गार्हस्थ्य की धुरी के रूप में कल्याणमयी नारी का स्वरूप , सुहाग की मूल अवधारणा है.