*
(व्यंग्य)
प्राइवेसी कहाँ !
हमारे देश के कवियों का भी जवाब नहीं ।नारी से संबद्ध रीति-नीति का जितना ज्ञान उन्हें है और किसी देश के कवि में मैने नहीं पाया ।वैसे अन्य देशों के कवियों के बारे में मेरा ज्ञान सीमित है ,किसी को पता हो तो सूचित करे । हाँ, तो नारी तन के समग्र-वर्णन और उसके क्रिया-कलापों के सूक्ष्म-चित्रण में एक से एक पहुँचे हुये मर्मज्ञ यहाँ मिलेंगे ।यह परंपरा संस्कृत से शुरू हो जाती है ,उसके पहले से भी हो सकती है ,पर मुझे पता नहीं । वैसे कवि और नारी का संबंध जन्मजात है -किसी अच्छे-खासे व्यक्ति के भीतर कवि तब जन्मता है जब उसका नारी से साबका पड़ता है ।और यह संबंध हर चरण में किसी न किसी प्रकार व्यक्त होता रहता है । अपने महाकवि कालिदास, गोस्वामी तुलसीदास किनकी प्रेरणाओं से कवि बने कोई छिपी बात नहीं है ।जिन्हें कविकुल-गुरु की उपाधि प्राप्त है उन कालिदास के सूक्ष्म वर्णनों की दाद देनी पडेगी। पार्वती तपस्या में लीन हैं,वर्षा का जल उन्हें भिगो रहा है ।जल की बूँदें कहाँ-कहाँ कैसे -कैसे गिर कर कहाँ -कहाँ तक क्या रूप ले रही हैं ,कवि की दृष्टि-.यात्रा में कोई ब्योरा छूटा नहीं है,इतना सब तो स्वयं पार्वती को अपने बारे में पता नहीं होगा ।सचमुच सूरज की भी जहाँ पहुँच नहीं कवि वहाँ भी ताक-झाँक करने की धृष्टता पर उतारू रहता है ।अभिज्ञान शाकुन्तल में कुमारी कन्या की साँसों का शारीरिक चित्रण तो रसिक राजा दुष्यंत के मुख से करवाया है ,गनीमत है।आगे के कवियों की क्या कहें गुरु गुड़ ही रह गये चेले शक्कर हो गये- कम से कम इन मामलों में ।
बचपन से मेंरा मन अपने कोर्स की किताबें पढने में नहीं लगता था ।बडे भाई-बहिन की किताबें चुपके से उठा लाती थी (सामने लाने की हिम्मत नहीं थी )और पढा करती थी ।किसी से समझाने को कहूँ इतना साहस कहाँ था मनमाने अर्थ लगाया करती थी ।तब विद्यापति की सद्य-स्नाता नायिका का वर्णन पढा ।मुझे बड़ा विस्मय हुआ -ये कवि लोग क्या छिप-छिप कर महिलाओं के स्नानागारों में झाँकते थे ।और नहीं तो इतना सांगोपांग चित्रण कैसे कर पाते ? इसके बाद तो वर्षों मैं बड़े ऊहापोह में रही ।कहीं जाती थी तो बाथरूम में घुस कर सबसे पहले दीवारों -दरवाज़ों का निरीक्षण करने के बाद स्नान करने का उपक्रम करती थी।मन बराबर भय- संशय में पड़ा रहता था कि कहीं कोई कवि टाइप आदमी सँधों से आँखे चिपकाये तो नहीं खड़ा है !
उससे आगे चलिये और देखिये -एक बालिका ,जिसे हमारे यहाँ कन्या कह कर मान दिया जाता है । पर इनकी खोजी निगाहें उसे भी नहीं बख्शतीं ।क्या कपड़ा-फाड़ दृष्ट पाई है -
'पहिल बदरसन पुनि नवरंग ।
मैंने नख-शिख वर्णन पढे और दंग रह गई ।सब स्त्रियों के शरीर पर आधारित थे ।बहुत खोजा पुरुषों का नख-शिख वर्णन कहीं नहीं मिला । नारी के'नख-शिख' वर्णन की परंपरा में निष्णात कवि पुरुष के प्रति इतने उदासीन क्यों रहे मैं कोशिश करके भी समझ नहीं पाई ।किसी से पूछने की हिम्मत पड़ी नहीं ।मन में एक काम्प्लेक्स सा समाया हुआ है। लड़कों और आदमियों के विषय मे जानने को बेहद उत्सुक होने पर भी कभी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी ।अपनी सखियों से बात की पर उनका भी वही हाल था जो मेरा ।मन मार कर रह गये ।
अधिकार पूर्वक स्वयं को प्रस्तुत करने का साहस करते तो पुरुष तन और मन में पैठने का अवसर सबको मिलता ।वय के साथ होनेवाले शारीरिक-मानसिक परवर्तनो में नर का चित्रण भी उतनी ही रुचिपूर्वक करना साहित्य और समाज के लिये उपादेय सिद्ध होगा ।मैं आशा करूंगी कि अब कोई पुरुष आगे बढ़ कर इस शुभ-कार्य का श्रीगणेश करेगा ।
उधर बिहारी भी शैशव से यौवन तक होनेवाले परिवर्तनों पर अपनी 'गृद्धदृष्टि' जमाये बैठे हैं ।इन लोगों से कुछ भी बचा नहीं रहता ,नारी की प्राइवेसी खत्म । उनके 'बडो इजाफाकीन 'जैसे रुचिबोध पर मुझे बडी कोफ्त होती है ।ऐसे तो नीति के पद लिखने में भी माहिर हैं पर वैसे रीतिनीति सब ताक पर रख आते हैं।
कवियों की उक्तियाँ समाज की बहुत सी समस्याओं का हल भी प्रस्तुत कर देती हैं । बिहारी ने अपने एक दोहे में बताया है -
'वधू अधर की मधुरता कहियत मधु न तुलाय ,
लिखत लिखक के हाथ की किलक ऊख ह्वै जाय ।'
धन्य है ऐसी वधू और धन्य है ऐसा कवि !जिससे कलम बनती है वे सारे किलक अगर ऊख हो जायँ तो देश की चीनी की आवश्यकता तो पूरी हो ही ,इतनी बची रहेगी कि उसके निर्यात से विदेशी मुद्रा के भंडार भर जायेंगे ।और भी --
' पत्रा ही तिथि पाइये वा घर के चहुँ पास ,
नित प्रति पून्यो ही रहे आनन ओप उजास ।'
हर मोहल्ले में ऐसी दो-चार नायिकायें बस जायँ तो बिजली का संकट खत्म
उनके सौंदर्य-बोध का क्या कहना ! दुनिया भर के लुच्चे-लफंगे उनकी दृष्टि में रसिक हैं।श्लीलता ,शालीनता ,शोभनीयता सब बेकार की बातें हैं । प्रस्तुत है एक बानगी -
'लरिका लेबे के मिसन लंगर मो ढिग आय ,
गयो अचानक आँगुरी छाती छैल छुआय।'
बताइये भला लडकी ,भतीजे को गोद में खिलाती -बहलाती बाहर निकल आई है।यौवन का प्रारंभ है ।बच्चे को उछाल उछाल कर खिलखिला रही है।वह लफंगा बाहर खड़ा है। ताक लगाये रहता है लड़की कब बाहर निकले ।बच्चे से बोलने के बहाने पास आ गया ।बोल रहा है बच्चे से निगाहें लड़की पर हैं। बस मिल गया मौका ।बच्चे को गोद लेने के बहाने हाथ बढाया उद्देय़्य था लड़की के शरीर से छेड़खानी ।दाद देनी पड़ेगी कवि के मन में क्या-क्या भरा पड़ा है।
इस समय बिहारी का नीति-बोध कहाँ बिला गया ? जरूर उस लफंगे को लडकी से लिफ्ट मिली होगी ,नहीं तो इतनी हिम्मत नहीं पडती ।पडती भी तो दुत्कार खाकर भागता ।बिहारी जानते होंगे कि कुछ लगा-लिपटी चल रही है ,नहीं तो वह बेहया लडकी भी इतना रस लेकर लफंगे को छैल कह कर उन्हं न बता पाती ।चलो, मान लिया ऐसा कुछ था तो कवि का क्या कोई दायित्व नहीं बनता !
पर जब घर की महिलायें अपने कार्य में व्यस्त हैं ,उन पर भी ये कवि महोदय अपनी लोलुप दृष्टि डाल रहे हैं --
'अहे,दहेडी जिन धरे ,जिन तू लेइ उतारि ,
नीके छींके ही छुयै,ऐसी ही रहु नारि !'
इनके आगे तो भले घर की औरतों का काम करना चलना-फिरना मुश्किल ।उससे कह रहे हैं ऐसे ही खडी रह ।कहीं के राजा -महाराजा होते तो चारों ओर छींके लटकवा कर सुन्दरियों को उसी तरह खडा रखते ।
मुझे याद है ,जब मै ब्याह कर ससुराल आई तो सबसे छोटी बहू होने के कारण ,मुझे बहुत छूट मिली हुई थी।रसोई में देखलें तो ससुर जी फ़ौरन टोकते थे ,' अरे,उसे कहाँ चौके में घुसा दिया?
सास जी चिल्ला कर कहती थीं , 'नहीं चूल्हे के पास बैठाय रही हैं ।सबसे पहले नहाय कर तैयार हुई जात है सो अदहन में दार डारै अपने आप चली गई है। महराजिन आय रही हैंगी।'
और किसी बहू से नहीं बोलेते थे पर मुझे पास बिठा कर बात करते थे ।सास जी ने भी सिर्फ़ एक रोक लगाई थी -जब रिश्तेके एक विशेष ननदोई ,उम्र पचास से ऊपर ही रही होगी उनकी,आँगन में बैठे हों तो अपने कमरे में रहा करूँ ।
मैने अपनी जिठानी से पूझा था,मेरी तीनों जिठानियाँ ,मुझसे 10 से 25 साल तक बड़ी थीं ।उन्होंने हँसते हुये बताया,'बे मन्दिरऊ जात हैंगे तो भगवान की बनाई की मूरतन को निहारत रहत हैं।
उन्होंने एक बार किसी से कहा भी था ,'उसकी गढ़ी सूरतें देखते हैं।'
बाद में मेरी समझ में आ गया विधि की रची मूरत- अर्थात् भगवान की बनाई नारी देह! इन कवियों की रसिकता उनसे किस अर्थ में कम है?भगवान की बनाई मूरत उनके लिये अधिक स्पृहणीय है,आदमी ने पत्थर से जो मूर्ति गढ़ी उसमें ऐसा लीला-लालित्य कहाँ !
हाँ ,आज की विज्ञपनबाजों के लिये उपरोक्त मुद्रा बहुत आकर्षक और उपयोगी सिद्ध हो सकती है ।
'नासा मोरि सिकोरि दृग ,करत कका की सौंह '
क्य कह रही है यह सुनने की फ़ुर्सत कहाँ ,अपने बिहारी कवि को लड़की के चेहरे से आँखें हटाना गवारा नहीं।सोचने समझने की जरूरत किसे है।
गोरी गदकारी हँसत परत कपोलन गाड़,
कैसी लसति गँवारि यह सुनकिरवा की आड़ !
नागरी हो या गँवारी क्या फ़र्क पड़ता है ,आँखों को चारा दोनो से मिलेगा ।
एक और दृष्य देखिये !युवती नदी किनारे आई है, स्नान करना है ।पर नदी का पानी ठंडा है ।स्पर्श करती है तो शरीर में फुरहरी उठती है पानी में घुसने की हिम्मत नहीं पडती ,तट पर खडे लोगों को देखती है(हो सकता उन में उसका प्रेमी भी खड़ा हो,कवि को ज्यादा पता होगा ) सोचती है क्या करूँ स्वयं पर हँसी आ रही है,घर भी ऐसे कैसे चली जाये!.
नहिं नहाय नहिं जाय घर ,चित चिहट्यौ उहि तीर ,
परसि फुरहरी लै फिरति ,विहँसति धँसति न नीर!
इन कवियों की महिमा अपार है ।लिखने बैठो को ग्रंथ के ग्रंथ भर जायें ।
पर बाकी फिर कभी ।
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(व्यंग्य)
प्राइवेसी कहाँ !
हमारे देश के कवियों का भी जवाब नहीं ।नारी से संबद्ध रीति-नीति का जितना ज्ञान उन्हें है और किसी देश के कवि में मैने नहीं पाया ।वैसे अन्य देशों के कवियों के बारे में मेरा ज्ञान सीमित है ,किसी को पता हो तो सूचित करे । हाँ, तो नारी तन के समग्र-वर्णन और उसके क्रिया-कलापों के सूक्ष्म-चित्रण में एक से एक पहुँचे हुये मर्मज्ञ यहाँ मिलेंगे ।यह परंपरा संस्कृत से शुरू हो जाती है ,उसके पहले से भी हो सकती है ,पर मुझे पता नहीं । वैसे कवि और नारी का संबंध जन्मजात है -किसी अच्छे-खासे व्यक्ति के भीतर कवि तब जन्मता है जब उसका नारी से साबका पड़ता है ।और यह संबंध हर चरण में किसी न किसी प्रकार व्यक्त होता रहता है । अपने महाकवि कालिदास, गोस्वामी तुलसीदास किनकी प्रेरणाओं से कवि बने कोई छिपी बात नहीं है ।जिन्हें कविकुल-गुरु की उपाधि प्राप्त है उन कालिदास के सूक्ष्म वर्णनों की दाद देनी पडेगी। पार्वती तपस्या में लीन हैं,वर्षा का जल उन्हें भिगो रहा है ।जल की बूँदें कहाँ-कहाँ कैसे -कैसे गिर कर कहाँ -कहाँ तक क्या रूप ले रही हैं ,कवि की दृष्टि-.यात्रा में कोई ब्योरा छूटा नहीं है,इतना सब तो स्वयं पार्वती को अपने बारे में पता नहीं होगा ।सचमुच सूरज की भी जहाँ पहुँच नहीं कवि वहाँ भी ताक-झाँक करने की धृष्टता पर उतारू रहता है ।अभिज्ञान शाकुन्तल में कुमारी कन्या की साँसों का शारीरिक चित्रण तो रसिक राजा दुष्यंत के मुख से करवाया है ,गनीमत है।आगे के कवियों की क्या कहें गुरु गुड़ ही रह गये चेले शक्कर हो गये- कम से कम इन मामलों में ।
बचपन से मेंरा मन अपने कोर्स की किताबें पढने में नहीं लगता था ।बडे भाई-बहिन की किताबें चुपके से उठा लाती थी (सामने लाने की हिम्मत नहीं थी )और पढा करती थी ।किसी से समझाने को कहूँ इतना साहस कहाँ था मनमाने अर्थ लगाया करती थी ।तब विद्यापति की सद्य-स्नाता नायिका का वर्णन पढा ।मुझे बड़ा विस्मय हुआ -ये कवि लोग क्या छिप-छिप कर महिलाओं के स्नानागारों में झाँकते थे ।और नहीं तो इतना सांगोपांग चित्रण कैसे कर पाते ? इसके बाद तो वर्षों मैं बड़े ऊहापोह में रही ।कहीं जाती थी तो बाथरूम में घुस कर सबसे पहले दीवारों -दरवाज़ों का निरीक्षण करने के बाद स्नान करने का उपक्रम करती थी।मन बराबर भय- संशय में पड़ा रहता था कि कहीं कोई कवि टाइप आदमी सँधों से आँखे चिपकाये तो नहीं खड़ा है !
उससे आगे चलिये और देखिये -एक बालिका ,जिसे हमारे यहाँ कन्या कह कर मान दिया जाता है । पर इनकी खोजी निगाहें उसे भी नहीं बख्शतीं ।क्या कपड़ा-फाड़ दृष्ट पाई है -
'पहिल बदरसन पुनि नवरंग ।
मैंने नख-शिख वर्णन पढे और दंग रह गई ।सब स्त्रियों के शरीर पर आधारित थे ।बहुत खोजा पुरुषों का नख-शिख वर्णन कहीं नहीं मिला । नारी के'नख-शिख' वर्णन की परंपरा में निष्णात कवि पुरुष के प्रति इतने उदासीन क्यों रहे मैं कोशिश करके भी समझ नहीं पाई ।किसी से पूछने की हिम्मत पड़ी नहीं ।मन में एक काम्प्लेक्स सा समाया हुआ है। लड़कों और आदमियों के विषय मे जानने को बेहद उत्सुक होने पर भी कभी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी ।अपनी सखियों से बात की पर उनका भी वही हाल था जो मेरा ।मन मार कर रह गये ।
अधिकार पूर्वक स्वयं को प्रस्तुत करने का साहस करते तो पुरुष तन और मन में पैठने का अवसर सबको मिलता ।वय के साथ होनेवाले शारीरिक-मानसिक परवर्तनो में नर का चित्रण भी उतनी ही रुचिपूर्वक करना साहित्य और समाज के लिये उपादेय सिद्ध होगा ।मैं आशा करूंगी कि अब कोई पुरुष आगे बढ़ कर इस शुभ-कार्य का श्रीगणेश करेगा ।
उधर बिहारी भी शैशव से यौवन तक होनेवाले परिवर्तनों पर अपनी 'गृद्धदृष्टि' जमाये बैठे हैं ।इन लोगों से कुछ भी बचा नहीं रहता ,नारी की प्राइवेसी खत्म । उनके 'बडो इजाफाकीन 'जैसे रुचिबोध पर मुझे बडी कोफ्त होती है ।ऐसे तो नीति के पद लिखने में भी माहिर हैं पर वैसे रीतिनीति सब ताक पर रख आते हैं।
कवियों की उक्तियाँ समाज की बहुत सी समस्याओं का हल भी प्रस्तुत कर देती हैं । बिहारी ने अपने एक दोहे में बताया है -
'वधू अधर की मधुरता कहियत मधु न तुलाय ,
लिखत लिखक के हाथ की किलक ऊख ह्वै जाय ।'
धन्य है ऐसी वधू और धन्य है ऐसा कवि !जिससे कलम बनती है वे सारे किलक अगर ऊख हो जायँ तो देश की चीनी की आवश्यकता तो पूरी हो ही ,इतनी बची रहेगी कि उसके निर्यात से विदेशी मुद्रा के भंडार भर जायेंगे ।और भी --
' पत्रा ही तिथि पाइये वा घर के चहुँ पास ,
नित प्रति पून्यो ही रहे आनन ओप उजास ।'
हर मोहल्ले में ऐसी दो-चार नायिकायें बस जायँ तो बिजली का संकट खत्म
उनके सौंदर्य-बोध का क्या कहना ! दुनिया भर के लुच्चे-लफंगे उनकी दृष्टि में रसिक हैं।श्लीलता ,शालीनता ,शोभनीयता सब बेकार की बातें हैं । प्रस्तुत है एक बानगी -
'लरिका लेबे के मिसन लंगर मो ढिग आय ,
गयो अचानक आँगुरी छाती छैल छुआय।'
बताइये भला लडकी ,भतीजे को गोद में खिलाती -बहलाती बाहर निकल आई है।यौवन का प्रारंभ है ।बच्चे को उछाल उछाल कर खिलखिला रही है।वह लफंगा बाहर खड़ा है। ताक लगाये रहता है लड़की कब बाहर निकले ।बच्चे से बोलने के बहाने पास आ गया ।बोल रहा है बच्चे से निगाहें लड़की पर हैं। बस मिल गया मौका ।बच्चे को गोद लेने के बहाने हाथ बढाया उद्देय़्य था लड़की के शरीर से छेड़खानी ।दाद देनी पड़ेगी कवि के मन में क्या-क्या भरा पड़ा है।
इस समय बिहारी का नीति-बोध कहाँ बिला गया ? जरूर उस लफंगे को लडकी से लिफ्ट मिली होगी ,नहीं तो इतनी हिम्मत नहीं पडती ।पडती भी तो दुत्कार खाकर भागता ।बिहारी जानते होंगे कि कुछ लगा-लिपटी चल रही है ,नहीं तो वह बेहया लडकी भी इतना रस लेकर लफंगे को छैल कह कर उन्हं न बता पाती ।चलो, मान लिया ऐसा कुछ था तो कवि का क्या कोई दायित्व नहीं बनता !
पर जब घर की महिलायें अपने कार्य में व्यस्त हैं ,उन पर भी ये कवि महोदय अपनी लोलुप दृष्टि डाल रहे हैं --
'अहे,दहेडी जिन धरे ,जिन तू लेइ उतारि ,
नीके छींके ही छुयै,ऐसी ही रहु नारि !'
इनके आगे तो भले घर की औरतों का काम करना चलना-फिरना मुश्किल ।उससे कह रहे हैं ऐसे ही खडी रह ।कहीं के राजा -महाराजा होते तो चारों ओर छींके लटकवा कर सुन्दरियों को उसी तरह खडा रखते ।
मुझे याद है ,जब मै ब्याह कर ससुराल आई तो सबसे छोटी बहू होने के कारण ,मुझे बहुत छूट मिली हुई थी।रसोई में देखलें तो ससुर जी फ़ौरन टोकते थे ,' अरे,उसे कहाँ चौके में घुसा दिया?
सास जी चिल्ला कर कहती थीं , 'नहीं चूल्हे के पास बैठाय रही हैं ।सबसे पहले नहाय कर तैयार हुई जात है सो अदहन में दार डारै अपने आप चली गई है। महराजिन आय रही हैंगी।'
और किसी बहू से नहीं बोलेते थे पर मुझे पास बिठा कर बात करते थे ।सास जी ने भी सिर्फ़ एक रोक लगाई थी -जब रिश्तेके एक विशेष ननदोई ,उम्र पचास से ऊपर ही रही होगी उनकी,आँगन में बैठे हों तो अपने कमरे में रहा करूँ ।
मैने अपनी जिठानी से पूझा था,मेरी तीनों जिठानियाँ ,मुझसे 10 से 25 साल तक बड़ी थीं ।उन्होंने हँसते हुये बताया,'बे मन्दिरऊ जात हैंगे तो भगवान की बनाई की मूरतन को निहारत रहत हैं।
उन्होंने एक बार किसी से कहा भी था ,'उसकी गढ़ी सूरतें देखते हैं।'
बाद में मेरी समझ में आ गया विधि की रची मूरत- अर्थात् भगवान की बनाई नारी देह! इन कवियों की रसिकता उनसे किस अर्थ में कम है?भगवान की बनाई मूरत उनके लिये अधिक स्पृहणीय है,आदमी ने पत्थर से जो मूर्ति गढ़ी उसमें ऐसा लीला-लालित्य कहाँ !
हाँ ,आज की विज्ञपनबाजों के लिये उपरोक्त मुद्रा बहुत आकर्षक और उपयोगी सिद्ध हो सकती है ।
'नासा मोरि सिकोरि दृग ,करत कका की सौंह '
क्य कह रही है यह सुनने की फ़ुर्सत कहाँ ,अपने बिहारी कवि को लड़की के चेहरे से आँखें हटाना गवारा नहीं।सोचने समझने की जरूरत किसे है।
गोरी गदकारी हँसत परत कपोलन गाड़,
कैसी लसति गँवारि यह सुनकिरवा की आड़ !
नागरी हो या गँवारी क्या फ़र्क पड़ता है ,आँखों को चारा दोनो से मिलेगा ।
एक और दृष्य देखिये !युवती नदी किनारे आई है, स्नान करना है ।पर नदी का पानी ठंडा है ।स्पर्श करती है तो शरीर में फुरहरी उठती है पानी में घुसने की हिम्मत नहीं पडती ,तट पर खडे लोगों को देखती है(हो सकता उन में उसका प्रेमी भी खड़ा हो,कवि को ज्यादा पता होगा ) सोचती है क्या करूँ स्वयं पर हँसी आ रही है,घर भी ऐसे कैसे चली जाये!.
नहिं नहाय नहिं जाय घर ,चित चिहट्यौ उहि तीर ,
परसि फुरहरी लै फिरति ,विहँसति धँसति न नीर!
इन कवियों की महिमा अपार है ।लिखने बैठो को ग्रंथ के ग्रंथ भर जायें ।
पर बाकी फिर कभी ।
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