मंगलवार, 26 नवंबर 2024

बचपन के रंग -

बहुत पुरानी , घोर बचपन की बातें याद आ रही है.

 मुझसे पाँच वर्ष छोटे भाई का जन्म तब तक नहीं हुआ था. पिताजी का ट्रांस्फ़र होता रहता था - उन दिनों हमलोग तब के मध्य-भारत के एक कस्बे अमझेरा में रहतेथे. हमारे घरके सामनेवाले घर में एक लड़की मेरे बराबर की थी, नाम था सरजू, जिसके साथ मैं खेला करती थी .अक्सर ही वह अपने धर से बिना किसी को बताए ही भाग आया करती थी .कभी-कभी उसकी माँ आवाज़ लगाती ,'सरजूड़ी, नाँगी-पूँगी काँ फिरी रई छोरी?'

हमलोग ऊपर के तल पर रहते थे, नल नीचे था. नीचे से सरजू आवाज़ लगाती,' मुन्नी आई जा!' और नल खोलकर नहाने खड़ी हो जाती.तब मुझे मुन्नी कहाजाता था.

   मै भी उतरकर नहाने लगती.उसकी एक आदत थी वहाँ पड़ा कोई भी लोटा गिलास उठाकर उसमें पानी भरती और 'ले देख केसो मजो आवे कह कर मेरे कानों में उँडेलने लगती,अपने भी डालती थी.कानों में डुम.डुम बोलता था पानी 

फिर हमलोग बाल ओंछते (काढते) .तब ऐसे प्लास्टिक के कंघे हमारे घर नहीं आते थे लकड़ी की कंघियाँ होती थीं.मै जब कंघी में फँसे बाल निकलती सरजू मेरे हाथ से बाल लेकर  फिर उसी में फँसा देती  कहती - अच्छे लगते हैं. उसकी मां उसे टोंकती थी -सरजूड़ी ,यो काईं करे?

एक और बात.जब उसकी माँ हमारे घऱ आती या मेरी उसके घऱ जातीं, हम लोग  छोटी-छोटी थीं, माँ के साथ लगी रहतीं विशेष रूप से जब वे किसीसे मिलने जातीं. तब तो जरूर ही. .तो थोड़ी देर बैठने के उपरान्त जब घर की मालकिन बीच में उठती तो मेहमान कहती .अरे बहनजी, बैठिये कोई तकलीफ़ मत करिये,और दूसरी कहती नहीं नहीं कुछ तकलीफ नहीं बस जरा सा कुछ.

सरजू का मुँह बन जाता उसे तकलीफ़ न करने की बात बिलकुल अच्छी नहीं लगती थीफिर वह जब मेरे साथ होती तो कहती -मुन्नी जब हम आएँ तो तुम खूब तकलीस(तकलीफ) करना.उसे लगता वो खिला-पिला रही तो  ये क्यों मना कर रही हैं.

किसी के घर जाकर बैठकर  खाना पीना किसे नहीं भाता! लेकिन लोग मना करते हैं बेकार में. बार-बार कहते हैं (विशेष रूप से महिलाएँ)  तकलीफ़ मत करो,तकलीफ़ मत करो! अरे, अपने मज़े के लिए ही तो किसी के घर जाया जाता है, और कौन रोज़ -रोज़ जाते हैं. किसी ने अपने आप  तकलीफ़ कर ली तो क्या! दूसरे का क्या बिगड़ा? यही तो सरजू को नागवार लगता था पर उसके बस में क्या था ही क्या? कुछ बोल तो सकती नहीं वहाँ .बस मुझसे ही कह सकती थी. 

और भी तमाम बातें मुझे बताती रहती थी अपने घर की बातें भी. प्रायःशुरू करती ...जब पन्नादादा जी के पेट में रहा.. अब जो उसकी जी (माँ को यही पुकारते थे वे भाई-बहन) कहा करती थी ,वह झूठ थोड़े ही होगा. अपने बड़ों से ही सीखते हैं हम हाँ, पन्नालाल उसके बड़े भाई का नाम था.

चर्चा काफ़ी लंबी हो गई. क्रमबार कुछ याद भी नहीं.

चलो इतना ही काफ़ी!


शुक्रवार, 30 अगस्त 2024

बीत गई श्रीकृष्ण जन्माष्टमी -

*

 बीत गई श्रीकृष्ण जन्माष्टमी .पूरा हो गया व्रत!- भक्तों ने खाते-पीते नाचते-गाते,आधी रात तक जागरण कर लिया जन्म करा दिया, प्रसाद चढ़ा दिया खा-खिला दिया, पञ्चामृत पी लिया..और परम ,संतोष से बैठ गये!संपन्न  हो गई  जन्माष्टमी !

 व्रत कियाऔर पारण कर संतुष्ट् हो गये ? 

 श्रीकृष्ण .स्वयं जो  संदेश दे गये ,कितनों ने याद किया उसे ,कितनों ने  तदनुसार आचरण का विचार भी किया? कितनों ने उनका आदेश माना, शिरोधार्य करने का व्रत  लिया?

कैसा दिखावटी आचरण कि उनकी कही, पर ध्यान मत दो , बस शिकायतें किये जाओ! .चीख पुकार मचाते रहो!कितना खो चुके, और खोते चले जाओ !

बिना लड़े कुछ नहीं मिलता यहाँ ! 

धर्म के साथ कर्म भी जुड़ा है, लेकिन धन्य हैं हमारे धर्माचार्य कि समयानुकूल कर्म के लिए कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं समझते!. 

कितनी जन्माष्टमियाँ बीत गई यों ही खाते-पीते ,रोते-गाते . शिकायतें करतेस उन्हें टेरते -अवतार लो  अवतार लो ?  क्या करें अवतार लेकर? उनका कहा, किसने  माना?

 श्रीकृष्ण प्रेम का दम तो बहुत भरते हैं उनकी बात कितने सुनते है, सुन कर समझने- आत्मस्थ करने का यत्न कितने करते हैं और उस पर आचरण कितने करते हैं? युग-युग का सत्य इस कान सुना, उस कान निकाल दिया ,जानने समझने की कोशिश ही नहीं की . 

तो फिर आज जो स्थिति बनी है उसके लिये  उत्तरदायी कौन है?  

 एक बार फिर सुन लीजिये, कवि अटल बिहारी वाजपेयी के  ये शब्द.शायद बात स्पष्ट  हो जाए!

 ‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’

आज,

जब कि राष्ट्र-जीवन की

समस्त निधियाँ,

दाँव पर लगी हैं,

और,

एक घनीभूत अंधेरा—

हमारे जीवन के

सारे आलोक को

निगल लेना चाहता है;


हमें ध्येय के लिए

जीने, जूझने और

आवश्यकता पड़ने पर—

मरने के संकल्प को दोहराना है।


आग्नेय परीक्षा की

इस घड़ी में—

आइए, अर्जुन की तरह

उद्घोष करें:

‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’

*

- अटल बिहारी वाजपेयी 


गुरुवार, 22 अगस्त 2024

सुच्ची-रत्ता .

कमरे से बाहर निकली ही थी कि कान में आवाज़ आई- सुच्ची-रत्ता!   

 अरे,यह कैसा नाम?

 बहू फ़ोन पर किसी से बात कर रही थी.

 याद आ गया एक और सरनेम इसी प्रकार का सुना था -मेंहदीरत्ता!  मन का  समाधान कर लिया! फिर  अक्सर ही सुनाई देने लगा- सुच्ची-रत्ता  ,उत्तर मे एक नई टोन भी,   एक नारी स्वर. 

 फिर  मैने उससे पूछ ही लिया ,ये सुच्ची-रत्ता नाम है किसी का? 

 हाँ, ये  नई लड़की शामिल हुई है हमारे ग्रुप में. सुच्ची-रत्ता बोस!

 अच्छा तो ये सरनेम नहीं है नाम है- मैंने सोचा -और लड़की बंगाली है .पर बंगाली लोग तो चुन-चुन कर सुन्दर-सुन्दर नाम रखते हैं. आश्चर्य हुआ मुझे.

 कई बार अपने को समझाया छोड़ो, मुझे क्या? सब तरह के नाम होते हैं दुनिया में. जन्म दिया है माता-पिता ने पाला-पोसा है नाम रखने का अधिकार है उनका मैं कौन होती हूँ बीच मे दखल देनेवाली?

और अपने को फ़र्क भी क्या पड़ता है?

 पर मन है कि मानता नहीं- बार-बार कोई किनका अटक जाता है गले से नीचे नहीं उतरता.  जानती हूँ भारत से यहाँ आनेवाले लोगों के साथ यहाँ उन के नामों का भी अमरीकीकरण होने लगता है.कुछ बिरले ही नाम होंगे जो अपने असली रूप में बचे रहे हों .उच्चारण अवयवों की सीमित क्षमता तो एक कारण है ही पर हमारे लोग भी अपना ही नाम उसी टोन में बताने लगते हैं प्रणति अपना नाम कहती है प्रोनोती, हरीश का हैरिस बन जाता है ललिता तो लोलिता ही कही जाती हैस विद्या विडिया हो जाती है- गनीमत है वीडियो नहीं बन जाती ! शर्वाणी है देवी पार्वती का नाम  लेकिन यहाँ आकर बेटी, शरावणी बन गई है ,सबको यही  बताया भी जाता है मुझे तो श्रावणी का भ्रम हो जाता है.  

खैर वह तो एक अलग कहानी है 

पर  बात है सुच्ची-रत्ता की! 

एक दिन डिनर पर गये थे हमलोग. रेस्तरां में लोगों का आना-जाना लगा था हम ने सीट ली ही थी कि बहू बोल उठी ,अरे ,सुच्ची-रत्ता!.

मैने सिर घुमा कर देखा एक जोड़ा पति-पत्नी चले आ रहे थे

 लोग अधिक थे, बैठने की व्यवस्था धीमी थी. कुछ लोग उठें तो सीट खाली हो. 

 प्रणति ने कहा- हम तीन ही लोग हैं चौथी खाली है ,एक चेयर और डलवा लेंगे.  दोनों आ जाएँगे यहीं.

. प्यारी-सी लड़की है पति भी ठीक-ठाक.

 आ गये वे लोग. कुर्सी का भी इंतजाम हो गया. 

आपस में ये लोग हाय-हलो करते हैं, पर उसने  मुझे हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. अच्छा लगा, मन से आशीर्वाद दिया. लड़की अभी भारत के तौर-तरीके भूली नहीं है. बातें चलती रहीं. लोग उससे सुच्ची-रत्ता सुच्ची-रत्ता कहते रहे, वह भी बोलती रही. 

अंततः मैंने पूछा ही लिया- मैं तुम्हें क्या  कह कर पुकारूँ?

आण्टी, आप भी नाम लीजिये न- सुच्चोरिता - बोलने की टोन वही बंगालियों वाली- ओ और आ की ध्वनियाँ मिली-जुली. 

  मुझे एकदम कुछ स्ट्राइक किया, कह उठी- सुचरिता - 

 वह खुश हो गई- अरे आण्टी, यही तो नाम है मेरा! पर ये सब अइसा नहीं बोलते, क्या करूँ? 

कुछ रुक कर बोली -यहाँ सबके नाम टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं! 

ठीक कह रही है सुचरिता! 

खुद मेरा नाम भी कोई ठीक से कहाँ बोलता है, किसी को क्या कहूँ?

कितना सुन्दर नाम और कैसा मरोड़ डाला. हे भगवान् !

सच्ची में यहाँ सबके नाम टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं!

 *



शनिवार, 17 अगस्त 2024

वर्णमाला का सच -

  वर्णमाला का सच -

अपनी देवनागरी लिपि के वर्ण बड़े मस्त जीव हैं. इनकी एक निराली दुनिया है, जिसमें रिश्तेदारियाँ, रीति-रिवाज़ मेल-जोल,प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े. अतिक्रमण, दूसरे पर रौब जमाना, उसे चुप कर खुद हावी हो जाना,सब चलता हैं. इनके कुछ नये संबंधी भी बन गये हैं.जिनके बिना वर्णों का काम नहीं चलता.यों कहें कि इन नये लोगों द्वारा सुसेवित होकर ही ये वर्णलोग सार्थकता पाते हैं. इनके साथ जुड़ गए हैं मात्राएँ और विराम-चिह्न! सगे रिश्तेदारों की भूमिका निभाते हैं ये नये लोग- जब मात्राओं से विभूषित और विराम चिह्नों से सेवित हों तभी वर्ण मुखऱ हो पाते हैं.

 ये नवागत चुप्पे से हैं ,काम करने में विश्वास करते हैं, ढोल नहीं पीटते. परिणाम यह हुआ कि वर्णों में सुपीरियरटी कामप्लेक्स आ गया. उन्हें लगा उनके पास वाणी है -जब चाहे अपनी आवाज़ उठा सकते हैं. अब उन्हें कौन समझाए कि व्यर्थ में आवाज़ उठाने से कुछ नहीं होता जो बोला जाय वह  सार्थक,सुनियंत्रित-सुनियोजित हो तब बात बनती है.ये मात्राएँ और विराम चिह्न बोलें चाहे कुछ न, भाषा में इन तीनो गुणों का संचार करते हैं. वर्णो की वाणी पर अपना पूरा नियंत्रण रखते हैं.

यों कहने को लिपि की वर्णमाला में बावन अक्षर हैं ,पर केवल इनके होने से काम नहीं चलता इनका व्यावहारिक उपयोग आवश्यक हैं. अकेले वर्णों के बस का नहीं कि अभिव्यक्ति की पूरी भूमिका निभा लें.उन्हें सक्रिय होने के लिए सहायकों की आवश्कता होती है उनके काम में साथ खड़े रहने वाले ये मात्राएँ और विराम-चिह्न तन मन से परमानेन्ट सहायक रुप में विद्यमान हैं. पर वर्ण-परिवार में इनका नंबर तब आता है जब स्वयं वर्णाक्षर मुँह लटकाए हतबुद्ध से खड़े रह जाते हैं कि अब कैसे-क्या करें, तब यही लोग आगे आते हैं  और जड़ से खड़े वर्णों मे सक्रियता का संचार करते हैं. इनके सहारे बिना वर्ण लोग आगे बढ़ ही नहीं सकते. और भलमनसाहत देखिये इन प्राणियों की! पुकारते ही मात्रायें दौड़ कर साथ खड़ी हो जाती हैं, विराम-चिह्न बढ़ कर सबको अनुशासित कर देते हैं .इन लोगों ने अपने-अपने  स्थान  निश्चित कर रखे हैं दौड़ कर जम जाते हैं.तभी भाषा अर्थ प्रतिपादन मे समर्थ हो पाती हैं. बड़े ही सचेत-सावधान हैं ये भाषा के निष्ठावान अनुचर! 

किसी भी वर्ण को काम पर लगना होता है तो उसे तय्यार करने के लिए मात्रा की पुकार लगती है .बिलकुल इन्सानों के जैसा बिन पहने-ओढ़े कोई व्यक्ति घर से बाहर नहीं निकलता वही वर्णों का हाल है. ये वर्ण लोग भी एक-दूसरे को साथ लिये बिना नहीं चलते..ये जो छोटावाला 'अ' है न ,बड़ा परोपकारी जीव है.हर वर्ण को अपना स्वर दे देता है.सबका जीवनदाता है अफ्ना स्वर न दे तो किसी वरण मे इतना दम नहीं कि मुँह से बाहरआ सके ,अंदर ही अंदर बन्द रह कर चुक जाय. वैसे ये सारे सह अस्तित्व में विश्वास करते हैं , आवश्यक होने पर  कभी भले ही इक्का-दुक्का  मिल जाएँ आपस में भले लड़-भिड़ लें लेकिन अकेलापन इन्हें काटने दौड़ता है.बोल कर देख लीजिए आपको कुछ करना-कहना है तो साथी अक्षरों को इकट्ठा किये बिना अपनी बात  नहीं कर सकते कुछ नहीं कर सकते..जैसे भूख लगी है तो कहेंगे 'खाना'. खाली खाना कहने से भी काम नहीं चलेगा, आगे स्पष्ट कहना पड़ेगा  लाओ. किसी वर्ण के लिए आवश्यक है कि सज्जित होकर आए. और ये भली लुगाइयाँ पुकार सुनते ही प्रकट हो जाती हैं,  वर्ण लोग झटपट अपनी पसन्द की चुनकर पहन-ओढ़ आगे  बढ़ आते  हैं.

माना जाता है भाषा वर्णों पर आधारित है ,लेकिन मात्राएं और विराम-चिह्नों की अनुपस्थिति में भाषा निरर्थक रह जाती है. इन लोगों की सहायता के बिना उच्चारण तो दूर की बात है. वर्ण अपना मुँह भी नहीं खोल पाते. सतत प्रयत्नशील रहते हैं कथन को अर्थपूर्ण बनाने के लिए   ये लोग भाषा के मूडानुसार चलते हैं.

मान लिया वर्णमाला है यह, हाँ वर्णौं की माला है जैसे पुष्पमाला,या मुक्ता माला! अब विचार कीजिए जिन उपकरणों वह गुम्फित की है है गई उनमें से कुछ निकाल दें तो माला बचेगी? वे माला का अवयव बन कर रहेंगी.

अन्याय देखिय़े , जैसे परिवार के फ़ोटो से परिचारक और सहायक  ग़ायब रहते हैं. वैसे ही वर्णमाला निरूपण में ये दोनों वर्ग किनारे कर दिये जाते हैं. माला के सारे उपकरण माला के अवयव है;  उन से ही पूर्णता है ,शोभा है.  पर क्या कहा जाय! 

 मति का फेर है, और क्या? 

- प्रतिभा सक्सेना.