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अपने समाज में अपनी सांस्कृतिक पहचान पर गर्व करने का और उसे अभिव्यक्त करने वाले सांस्कृतिक चिह्नों को धारण करने का कल्चर है क्या आप लोगों में ?
आपकी विवाहित महिलाओं ने माथे पर पल्लू तो छोड़िये, साड़ी पहनना तक छोड़ दिया...किसने रोका है उन्हें?
तिलक बिंदी तो आपकी पहचान हुआ करती थी न...कोरा मस्तक और सुने कपाल को तो आप अशुभ, अमंगल का और शोकाकुल होने का चिह्न मानते थे न...आपने घर से निकलने से पहले तिलक लगाना तो छोड़ा ही, आपकी महिलाओं ने भी आधुनिकता और फैशन के चक्कर में और फारवर्ड दिखने की होड़ में माथे पर बिंदी लगाना क्यों छोड़ दिया?
आप लोगो ने नामकरण, विवाह, सगाई जैसे संस्कारों को दिखावे की लज्जा विहीन फूहड़ रस्मों में और जन्म दिवस, वर्षगांठ जैसे अवसरों को बर्थ-डे और एनिवर्सरी फंक्शंस में बदल दिया तो क्या यह हमारी त्रुटि है?
हमारे यहां बच्चा जब चलना सीखता है तो बाप की उंगलियां पकड़ कर इबादत के लिए जाता है और जीवन भर इबादत को अपना फर्ज़ समझता है....
आप लोगों ने तो स्वयं ही मंदिरों की ओर देखना छोड़ दिया, जाते भी केवल तभी हो जब भगवान से कुछ मांगना हो अथवा किसी संकट से छुटकारा पाना हो...
अब यदि आपके बच्चे ये सब नहीं जानते कि मंदिर में क्यों जाना है, वहाँ जाकर क्या करना है और ईश्वर की उपासना उनका कर्तव्य है....तो क्या ये सब हमारा दोष है?
आप के बच्चे कॉन्वेंट से पढ़ने के बाद पोयम सुनाते थे तो आपका सर ऊंचा होता था !
होना तो यह चाहिये था कि वे बच्चे भगवद्गीता के चार श्लोक कंठस्थ कर सुनाते तो आपको गर्व, होता!
इसके उलट जब आज वो नहीं सुना पाते तो ना तो आपके मन में इस बात की कोई ग्लानि है, ना ही इस बात पर आपको कोई खेद है!
हमारे घरों में किसी बाप का सिर तब शर्म से झुक जाता है जब उसका बच्चा रिश्तेदारों के सामने कोई दुआ नहीं सुना पाता!....
हमारे घरों में बच्चा बोलना सीखता है तो हम सिखाते हैं कि सलाम करना सीखो बड़ों से, आप लोगों ने प्रणाम और नमस्कार को हैलो हाय से बदल दिया...तो इसके दोषी क्या हम हैं?
हमारे मजहब का लड़का कॉन्वेंट से आकर भी उर्दू अरबी सीख लेता है और हमारी धार्मिक पुस्तक पढ़ने बैठ जाता है!...
और आपका बच्चा न रामायण पढ़ता है और ना ही गीता....उसे संस्कृत तो छोड़िये, शुद्ध हिंदी भी ठीक से नहीं आती क्या यह भी हमारी त्रुटि है ?
आपके पास तो सब कुछ था-संस्कृति, इतिहास, परंपराएं! आपने उन सब को तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड़ में त्याग दिया और हमने नहीं त्यागा बस इतना ही भेद है!....
आप लोग ही तो पीछा छुड़ाएं बैठे हैं अपनी जड़ों से! हम ने अपनी जड़ें ना तो कल छोड़ी थी और ना ही आज छोड़ने को राजी हैं!
आप लोगों को तो स्वयं ही तिलक, जनेऊ, शिखा आदि से और आपकी महिलाओं को भी माथे पर बिंदी, हाथ में चूड़ी और गले में मंगलसूत्र-इन सब से लज्जा आने लगी, इन्हें धारण करना अनावश्यक लगने लगा और गर्व के साथ खुलकर अपनी पहचान प्रदर्शित करने में संकोच होने लग गया!...
तथाकथित आधुनिकता के नाम पर आप लोगों ने स्वयं ही अपने रीति रिवाज, अपनी परंपराएं, अपने संस्कार, अपनी भाषा, अपना पहनावा-ये सब कुछ पिछड़ापन समझकर त्याग दिया!
आज इतने वर्षों बाद आप लोगों की नींद खुली है तो आप अपने ही समाज के दूसरे लोगों को अपनी जड़ों से जुड़ने के लिये कहते फिर रहे हैं!
अपनी पहचान के संरक्षण हेतु जागृत रहने की भावना किसी भी सजीव समाज के लोगों के मन में स्वत:स्फूर्त होनी चाहिये, उसके लिये आपको अपने ही लोगों को कहना पड़ रहा है.... विचार कीजिये कि यह कितनी बड़ी विडंबना है!
यह भी विचार कीजिये कि अपनी संस्कृति के लुप्त हो जाने का भय आता कहां से है और असुरक्षा की भावना का वास्तविक कारण क्या है?
आपकी समस्या यह है कि आप अपने समाज को तो जागा हुआ देखना चाहते हैं किंतु ऐसा चाहते समय आप स्वयं आगे बढ़कर उदाहरण प्रस्तुत करने वाला आचरण नहीं करते, जैसे बन गए हैं वैसे ही बने रहते हैं...
आप स्वयं अपनी जड़ों से जुड़े हुए हो, ऐसा दूसरों को आप में दिखता नहीं है,,
और इसीलिये आपके अपने समाज में तो छोड़िये, आपके परिवार में भी कोई आपकी सुनता नहीं,, ठीक इसी प्रकार आपके समाज में अन्य सब लोग भी ऐसा ही आपके जैसा डबल स्टैंडर्ड वाला हाइपोक्रिटिकल व्यवहार (शाब्दिक पाखंड) करते हैं!
इसीलिये आपके समाज में कोई भी किसी की नहीं सुनता!... क्या यह हमारी त्रुटि है?
दशकों से अपनी हिंदू पहचान को मिटा देने का कार्य आप स्वयं ही एक दूसरे से अधिक बढ़-चढ़ करते रहे,,
और आज भी ठीक वैसा ही कर रहे हैं ...
परंतु हम अपनी पहचान आज तक भी वैसे ही बनाए रखने में सफल रहे हैं, तो हमें देखकर आपको बुरा लगता है!
हमसे ईर्ष्या होती है हमसे घृणा करने लगते हैं आप अपनी संस्कृति और परम्पराओं को नहीं संभाल पाए तो अपनी लापरवाही और विफलता का गुस्सा हमारी जड़ों को काट कर क्यों निकालना चाहते हैं?
दूसरों को देखकर विचलित होने के स्थान पर आवश्यकता ये सीखने की है कि कैसे अपने संस्कारों में निष्ठा रखी जाती है, कैसे उन पर गर्व किया जाता है, कैसे तत्परता से उन्हें सहेज कर उनका संरक्षण किया जाता है!
अपनी पहचान को आप खुलकर प्रदर्शित कीजिये, इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है.... किंतु अपनी संस्कृति तो आपको बचानी नहीं है, उसे अपने हाथों स्वयं ही नष्ट करने पर तुले हुए हो!
अपने समाज में अपनी सांस्कृतिक पहचान पर गर्व करने का और उसे अभिव्यक्त करने वाले सांस्कृतिक चिह्नों को धारण करने का कल्चर तो बनाइए पहले!
(- जी हाँ, किसी ने कहा है यह, मैं तो केवल सामने रख रही हूँ.- प्रतिभा सक्सेना.)