*
बाह्य संसार से जब कोई परेशान हो जाता है, उबरने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता तो उस झींकन के साथ उसके अंतःचक्षु खुलने लगते हैं.नई-नई बातें सूझती हैं॒. अगर कहें सहज ज्ञान उत्पन्न होने लगता है तो भी गलत न होगा. नवोत्पन्न ज्ञान बाह्य जगत की अनेक गर्म-ठंडी स्थितियों से गुज़रते सघन होता जाता है. व्यक्ति में नये बोध जागते हैं ज्ञान चेतता है . उसकी उमड़न तेज़ हो तो आँधी जैसे झकोरे उठने लगते हैं .ऐसा अक्सर कबीर , पलटू दास जैसे अकाम लोगों के साथ होता है और वे सांसारिक जीवन से विरक्त हो ,आत्म-कल्याण की राहें खोजने चल पड़ते हैं .ज्ञान की आँधी उन्हें झकझोरती है, नया चेत स्फुटित होता है और नये पंथों की नींव पड़ती है.
ऐसे ही बोध के पलों में सिद्धार्थ बुद्ध हुए होंगे.
तब उन्हें दिखती है एक ही बाधा .ठीकरा स्त्री के सिर फूटता है .और किसी पर तो उनका बस नहीं - धर्म-संकट एक ही -स्त्री. वह आई कि धर्म का आधार खिसका.
बुद्ध ने स्पष्ट कह दिया था -आनन्द, स्त्री आ गई, अब सद्धर्म केवल 500 वर्ष ही रह पायेगा!
कितने त्याग-तप-साधना के बाद सद्धर्म विकसता है ,और एक अनचाही वस्तु उसे संकट में डाल देती है. सन्मार्ग की चाहवाले आदमी के लिये भगवान ने भी कैसी-कैसी -बाधायें रच दी हैं. .स्त्री के मारे धर्म संकट में पड़ा रहता है .
अपने तुलसी दास ये सब भोगे बैठे थे,उनके अपने अनुभव का सार , या भव पारावार को उलँघि पार को जाय, तिय छबि छाया ग्राहिनी गहै बीच ही आय - बेचारा बेबस आदमी . करे तो क्या करे?
ईश्वर पर अपना बस नहीं ,कसर स्त्री से निकालो ,पूरी तरह वश में रखने के उपाय खोजो.इसके बस दो उपयोग ठीक -जन्म दे कर पाल-पोस दे ,और भूख लगे तो पेट भर दे -माँगने पर भिक्षा देती रहे . (संतों,भिक्षा तो वह देगी -ऐसा कंडीशंड कर रखा है-कहीं आत्म कल्याण की बात उसके भी मन में आ गई, उसने भी सांसारिकता को गौण समझ लिया तो ग़ज़ब ही हो जायेगा )-देगी ,अपने लिये रखा होगा उसमें से भी देगी- कम खाना गम खाना ,अपनी किस्मत समझ कर.
स्त्री ही है जो माया-जाल में फँसाती है .भटकाती है ,दुख का कारण है.छोड़ दो सारी चिन्तायें उस पर.
ओह, कितने-कितने रूप धरती हैं यह, नटिनी है न, नचाना चाहती है हमें भी.
हमारे मतलब का सिर्फ माँ का रूप है . बच्ची-बूढ़ी जवान सब में वही रूप मानेंगे .अरे दुनिया है. यहाँ फिसलता कौन नहीं .जब बोध जागे सब छोड़-छाड़ के निकल आओ.साथ रखो यह जादू की छड़ी है 'माँ' शब्द . तुम बालिका या युवती से माँ कह दो और आशा लगाए लगो उससे कि वैसी ही ढल जाएगी . हाँ, किसा छोटे लड़के से पिता कहना या ,उसमे पितृत्व की संभावना करना सोच कर ही हँसी आती है न!
तुलसी जब नारी से दूर आगये तो सारी कमियाँ याद आने लगीं. घर-परिवार से वंचित रहे थे ,दुनियादारी में पड़े नहीं पर नारी की अस्लियत पर प्रामाणिक वचन कह गये - 'अवगुन आठ सदा उर रहहीं '.हाँ , नर तो परफ़ेक्ट है.
अपने पलटू जी तो किसी महावृद्धा तक का विश्वास नहीं करते , साफ़ कहते हैं- अस्सी बरस की बूढ़ी सो , पलटू ना पतियाय !
कारण है-
साँप बीछि को मंत्र है , माहुर झारे जात ,
विकट नारी पाले परी , काटि करेजा खात
देखा,साँप-बिच्छू से भी ज़हरीली महासंकटा को? सबसे गई-बीती है स्त्री -
नारी की झांई पडत,
अंधा होत भुजंग ।
कह कबीर तिन की गति,
जो नित नारी संग ।।
आगे अपनी कुशलता की चिन्ता ,हरएक को खुद करनी चाहिये .मलूकदास ने इसी की पुष्टि की है -‘‘एक कनक और कामिनी, यह दोनों बटमार। मिसरी की छुरी गर लायके, इन मारा संसार।।
संत सुन्दर दास ने इस के प्रत्येक अंग को नरक के समान कहने में भी तनिक संकोच नहीं किया है-
‘उदर में नरक, नरक अध द्वारन में, कुचन में नरक, नरक भरी छाती है।
कंठ में नरक, गाल, चिबुक नरक किंब, मुख में नरक जीभ, लालहु चुचाती है
नाक के नरक, आँख, कान में नरक ओहै, हाथ पाऊँ नख-सिख, नरक दिखाती है।
सुन्दर कहत नारी, नरक को कुंड मह, नरक में जाइ परै, सो नरक पाती है’।
नारी की बुराइयों के अनुभवी ये संत लोग किसी और तत्व के होते होंगे ,इनकी देहें इऩ सब तत्वों से परे रहती होंगी. हाँ ये बताओ संतों, उसी पर गुर्राओगे .फिर उसी गृहस्थिन के दुआरे भीख माँगने पहुँचोगे .. हाथ फैलाओगे ,उसका राँधा खाओगे ?
पर करें क्या ?उनका आदर्श वाक्य है -
अजगर करे न चाकरी .पंछी करे न काम,
दास मलूका कह गये सबके दाता राम .पेट भरने का श्रेय भिक्षादात्री को नहीं राम को.
वैसे संत लोग बहुत भले हैं.
खूब अच्छी-अच्छी बातें करते हैं लेकिन नारी की बात आते ही एकदम कांशस हो जाते हैं. ऐसी भड़कते हैं, सारा संयम बिला जाता है.तो आपा खो कर गाली-गलौच पर उतारू हो जाते हैं ,ये ऐसी है वैसी है ,इससे दूर ही रहो ,तुम्हारा जाने क्या-क्या अनिष्ट कर देगी .. इस विषय पर सहज रूप से बात नहीं कर पाते.कुछ-कुछ होने लगता हो जैसे.वे संतई से च्युत नहीं होना चाहते ,पर स्त्री उनके पीछे पड़ी है .सो बेचारे बमक पड़ते हैं. स्त्री नाम की बला संसार की सारी बुराइयों की जड़ है .पर इससे बचा नहीं जा सकता. कबीर के शब्दों में कहें तो'रुई पलेटी आग' है
पहले तो वे उससे दूर भागने का प्रयास करते हैं ..फिर बार-बार उझक कर देख लेते हैं -अब ये क्या कर रही है?अरे, ये ऐसे क्यों कर रही है?इसे ऐसे नहीं वैसे रहना चाहिये .संत जी, तुम दूर चले गये तो छुट्टी करो. मन काहे उसके आस-पास ही मँडराता रहता है? संत हो संतई करो ,दुनिया से तुम्हें क्या मतलब अपने काम से काम रखो .तुमने नारी-मात्र को सुधारने का ठेका ले रखा है ? क्या संत क्या भक्त दोनो के यही हाल.
मुझे लगता है यह भारतीय स्त्रियों की विशेषताएँ हैं. विदेशी साहित्यों में ऐसी शिकायतें मेरे सुनने में नहीं आई. .हाँ, इस्लाम का पूरा पता नहीं पर उनने तो पूरी घेराबंदी कर रखी है औरत की - पर नहीं मार सकती.भारत के पुरुष जितने त्यागी महात्मा, आदर्शवादी,सहनशील महान् आदि आदि होते हैं ,स्त्रियाँ उतनी ही ..अब .आगे क्या बताऊं, संतजन औऱ भक्तलोग इतना धिक्कारते हैं ,उपदेश देते हैं - लेकिन औंधे घड़े पर कभी कुछ टिका है जो अब टिकेगा?
बाकी आप खुद समझदार हैं.
- प्रतिभा सक्सेना.
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बाह्य संसार से जब कोई परेशान हो जाता है, उबरने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता तो उस झींकन के साथ उसके अंतःचक्षु खुलने लगते हैं.नई-नई बातें सूझती हैं॒. अगर कहें सहज ज्ञान उत्पन्न होने लगता है तो भी गलत न होगा. नवोत्पन्न ज्ञान बाह्य जगत की अनेक गर्म-ठंडी स्थितियों से गुज़रते सघन होता जाता है. व्यक्ति में नये बोध जागते हैं ज्ञान चेतता है . उसकी उमड़न तेज़ हो तो आँधी जैसे झकोरे उठने लगते हैं .ऐसा अक्सर कबीर , पलटू दास जैसे अकाम लोगों के साथ होता है और वे सांसारिक जीवन से विरक्त हो ,आत्म-कल्याण की राहें खोजने चल पड़ते हैं .ज्ञान की आँधी उन्हें झकझोरती है, नया चेत स्फुटित होता है और नये पंथों की नींव पड़ती है.
ऐसे ही बोध के पलों में सिद्धार्थ बुद्ध हुए होंगे.
तब उन्हें दिखती है एक ही बाधा .ठीकरा स्त्री के सिर फूटता है .और किसी पर तो उनका बस नहीं - धर्म-संकट एक ही -स्त्री. वह आई कि धर्म का आधार खिसका.
बुद्ध ने स्पष्ट कह दिया था -आनन्द, स्त्री आ गई, अब सद्धर्म केवल 500 वर्ष ही रह पायेगा!
कितने त्याग-तप-साधना के बाद सद्धर्म विकसता है ,और एक अनचाही वस्तु उसे संकट में डाल देती है. सन्मार्ग की चाहवाले आदमी के लिये भगवान ने भी कैसी-कैसी -बाधायें रच दी हैं. .स्त्री के मारे धर्म संकट में पड़ा रहता है .
अपने तुलसी दास ये सब भोगे बैठे थे,उनके अपने अनुभव का सार , या भव पारावार को उलँघि पार को जाय, तिय छबि छाया ग्राहिनी गहै बीच ही आय - बेचारा बेबस आदमी . करे तो क्या करे?
ईश्वर पर अपना बस नहीं ,कसर स्त्री से निकालो ,पूरी तरह वश में रखने के उपाय खोजो.इसके बस दो उपयोग ठीक -जन्म दे कर पाल-पोस दे ,और भूख लगे तो पेट भर दे -माँगने पर भिक्षा देती रहे . (संतों,भिक्षा तो वह देगी -ऐसा कंडीशंड कर रखा है-कहीं आत्म कल्याण की बात उसके भी मन में आ गई, उसने भी सांसारिकता को गौण समझ लिया तो ग़ज़ब ही हो जायेगा )-देगी ,अपने लिये रखा होगा उसमें से भी देगी- कम खाना गम खाना ,अपनी किस्मत समझ कर.
स्त्री ही है जो माया-जाल में फँसाती है .भटकाती है ,दुख का कारण है.छोड़ दो सारी चिन्तायें उस पर.
ओह, कितने-कितने रूप धरती हैं यह, नटिनी है न, नचाना चाहती है हमें भी.
हमारे मतलब का सिर्फ माँ का रूप है . बच्ची-बूढ़ी जवान सब में वही रूप मानेंगे .अरे दुनिया है. यहाँ फिसलता कौन नहीं .जब बोध जागे सब छोड़-छाड़ के निकल आओ.साथ रखो यह जादू की छड़ी है 'माँ' शब्द . तुम बालिका या युवती से माँ कह दो और आशा लगाए लगो उससे कि वैसी ही ढल जाएगी . हाँ, किसा छोटे लड़के से पिता कहना या ,उसमे पितृत्व की संभावना करना सोच कर ही हँसी आती है न!
तुलसी जब नारी से दूर आगये तो सारी कमियाँ याद आने लगीं. घर-परिवार से वंचित रहे थे ,दुनियादारी में पड़े नहीं पर नारी की अस्लियत पर प्रामाणिक वचन कह गये - 'अवगुन आठ सदा उर रहहीं '.हाँ , नर तो परफ़ेक्ट है.
अपने पलटू जी तो किसी महावृद्धा तक का विश्वास नहीं करते , साफ़ कहते हैं- अस्सी बरस की बूढ़ी सो , पलटू ना पतियाय !
कारण है-
साँप बीछि को मंत्र है , माहुर झारे जात ,
विकट नारी पाले परी , काटि करेजा खात
देखा,साँप-बिच्छू से भी ज़हरीली महासंकटा को? सबसे गई-बीती है स्त्री -
नारी की झांई पडत,
अंधा होत भुजंग ।
कह कबीर तिन की गति,
जो नित नारी संग ।।
आगे अपनी कुशलता की चिन्ता ,हरएक को खुद करनी चाहिये .मलूकदास ने इसी की पुष्टि की है -‘‘एक कनक और कामिनी, यह दोनों बटमार। मिसरी की छुरी गर लायके, इन मारा संसार।।
संत सुन्दर दास ने इस के प्रत्येक अंग को नरक के समान कहने में भी तनिक संकोच नहीं किया है-
‘उदर में नरक, नरक अध द्वारन में, कुचन में नरक, नरक भरी छाती है।
कंठ में नरक, गाल, चिबुक नरक किंब, मुख में नरक जीभ, लालहु चुचाती है
नाक के नरक, आँख, कान में नरक ओहै, हाथ पाऊँ नख-सिख, नरक दिखाती है।
सुन्दर कहत नारी, नरक को कुंड मह, नरक में जाइ परै, सो नरक पाती है’।
नारी की बुराइयों के अनुभवी ये संत लोग किसी और तत्व के होते होंगे ,इनकी देहें इऩ सब तत्वों से परे रहती होंगी. हाँ ये बताओ संतों, उसी पर गुर्राओगे .फिर उसी गृहस्थिन के दुआरे भीख माँगने पहुँचोगे .. हाथ फैलाओगे ,उसका राँधा खाओगे ?
पर करें क्या ?उनका आदर्श वाक्य है -
अजगर करे न चाकरी .पंछी करे न काम,
दास मलूका कह गये सबके दाता राम .पेट भरने का श्रेय भिक्षादात्री को नहीं राम को.
वैसे संत लोग बहुत भले हैं.
खूब अच्छी-अच्छी बातें करते हैं लेकिन नारी की बात आते ही एकदम कांशस हो जाते हैं. ऐसी भड़कते हैं, सारा संयम बिला जाता है.तो आपा खो कर गाली-गलौच पर उतारू हो जाते हैं ,ये ऐसी है वैसी है ,इससे दूर ही रहो ,तुम्हारा जाने क्या-क्या अनिष्ट कर देगी .. इस विषय पर सहज रूप से बात नहीं कर पाते.कुछ-कुछ होने लगता हो जैसे.वे संतई से च्युत नहीं होना चाहते ,पर स्त्री उनके पीछे पड़ी है .सो बेचारे बमक पड़ते हैं. स्त्री नाम की बला संसार की सारी बुराइयों की जड़ है .पर इससे बचा नहीं जा सकता. कबीर के शब्दों में कहें तो'रुई पलेटी आग' है
पहले तो वे उससे दूर भागने का प्रयास करते हैं ..फिर बार-बार उझक कर देख लेते हैं -अब ये क्या कर रही है?अरे, ये ऐसे क्यों कर रही है?इसे ऐसे नहीं वैसे रहना चाहिये .संत जी, तुम दूर चले गये तो छुट्टी करो. मन काहे उसके आस-पास ही मँडराता रहता है? संत हो संतई करो ,दुनिया से तुम्हें क्या मतलब अपने काम से काम रखो .तुमने नारी-मात्र को सुधारने का ठेका ले रखा है ? क्या संत क्या भक्त दोनो के यही हाल.
मुझे लगता है यह भारतीय स्त्रियों की विशेषताएँ हैं. विदेशी साहित्यों में ऐसी शिकायतें मेरे सुनने में नहीं आई. .हाँ, इस्लाम का पूरा पता नहीं पर उनने तो पूरी घेराबंदी कर रखी है औरत की - पर नहीं मार सकती.भारत के पुरुष जितने त्यागी महात्मा, आदर्शवादी,सहनशील महान् आदि आदि होते हैं ,स्त्रियाँ उतनी ही ..अब .आगे क्या बताऊं, संतजन औऱ भक्तलोग इतना धिक्कारते हैं ,उपदेश देते हैं - लेकिन औंधे घड़े पर कभी कुछ टिका है जो अब टिकेगा?
बाकी आप खुद समझदार हैं.
- प्रतिभा सक्सेना.
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