शनिवार, 29 जुलाई 2017

हम भी हैं पाप के भागी -

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रात्रि आधी से अधिक बीत चुकी थी ,हमलोगों को लौटने में बहुत देर हो गई थी ,उस कालोनी में अँधेरा पड़ा था.कारण बताया गया कि रात्रि-चर और वन्य-प्राणी भ्रमित न हों इसलिये रोशनियाँ बंद कर दी गई हैं.मन आश्वस्त हुआ .
पिछले दिनों एक समाचार बहुत सारे प्रश्न जगा गया था-  ऋतु-क्रम में होनेवाली अपनी प्रव्रजन यात्रा में दो हज़ार पक्षी टोरेंटो से जीवित नहीं लौट सके. जी हाँ ,दो हज़ार पक्षी . प्रव्रजन  क्रम में काल का ग्रास बन गये. प्रकृति के सुन्दर निष्पाप जीव मनुष्य के सुख-विलास के, उसकी असीमित सुख- लिप्सा की भेंट चढ़ गये.दो हज़ार पक्षी !वहीं के वहीं दम तोड़ गए. रात में मानवकृत रोशनियों से भरमा कर उड़े ,ऊंची इमारतें अड़ी खड़ी थीं ,खिडकी के शीशों में खुले आकाश और वनस्पतियों के प्रतिबिंब, जिन्हें देख अच्छा खासा आदमी भरमा जाये ,पूरे वेग से उडान भरी .अगले ही क्षण  ज़ोरदार टक्कर खाकर टूटे पंख और घायल शरीर ले  होश-हवास गुमा धरती पर आ गिरे .कैसी यंत्रणामय  मृत्यु रही होगी !
गगनचुंबी इमारतें ,बनावटी रोशनियाँ और शीशेदार खिड़कियाँ - बेचारे पक्षी विवश और भ्रमित होते रहे - ठंडी हवाओं में ,राह रोकती इमारतों के कारण उड़ न सके ,शीत से जम गये, रात को कृत्रिम रोशनी उन्हें भरमा  देती ,दिन में खिड़कियों के शीशों में वृक्ष-वनस्पतियोंवाले आकाश के प्रतिबिंबों से भ्रमित  वेग से उड़ते , टकराते ,घायल हो  गिरते, तड़पते मरते  रहे .उन्होंने प्रकृति के अनुकूल आचरण किया था - काहे की सज़ा मिली ?मनुष्य अपनी खुराफ़ातों से बाज़ नहीं आता ,अपने स्वार्थ के लिये दूसरों की बलि चढ़ा देता है .

घटना टोरेंटो की है पर उसके पीछे का कटु यथार्थ ,किसी न किसी रूप में सारी दुनिया की असलियत सामने रख रहा है. हम भी उसी  दुनिया के भोगी हैं - इस पाप के भागीदार !अपने भीतर झाँक कर देखें -क्या सबकी आवश्यकताओं का ध्यान रख हम अपनी ज़रूरत भर का ले रहे हैं या सबका हिस्सा हड़प रहे हैं.अपने छोटे से स्वार्थ पूरने को  निसर्ग के तत्वों को प्रदूषित किये जा रहे हैं.दूसरों का जीवन अँधेरा कर रहे हैं. अन्य जीवधारियों का हक छीन कर ,उन्हें जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित कर ,आज का सभ्य कहलानेवाला आदमी अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाये चला जा रहा है . नदियाँ इतनी प्रदूषित कर डालीं कि जल जीवन के योग्य नहीं रहा,  बेबस प्राणी कहाँ जा कर अपनी प्यास बुझायें .धरती, आकाश, सागर कोई ठौर निरापद नहीं रहने दिया. अंतरिक्ष में कूड़े का ढेर इकट्ठा कर दिया .सरल जीवन को जटिल बना कर रख दिया .न शान्ति से रह पाता है न दूसरों को चैन लेने देता है. 
अपनी बेलगाम ज़रूरतों के कारण कितने स्वार्थी हो गया मानव समाज , तृष्णाओँ की कोई सीमा रही ही नहीं .प्रकृति ने जीव-मात्र की तुष्टि और पुष्टि का विधान किया था .इसी क्रम में मनुष्य़ को सर्वाधिक विकसित ,समर्थ और बुद्धिमान बनाया कि वह सबका संरक्षक-सहायक बन अपना दायित्व निभाए . पर वही अब सब के संताप का कारण बन गया है.इस अति का प्रतिफल प्रकृति देगी ज़रूर ,किसी न किसी रूप में,आज नहीं तो कल .
         हमें लौटना होगा प्रकृति की ओर ,सहजताकी ओर . यह बोध जागना बहुत ज़रूरी है कि सब के साथ सहभागिता निभा कर ही हम इस संसार को रहने योग्य बना सकते हैं ,अन्यथा हमारे लिये भी कहीं सुरक्षित ठौर नहीं बचनेवाला .
प्रकृति की योजना का अनुसरण करते निरीह जीवधारियों की प्यास ,तृप्ति पाती रहे ,साँसें निरापद रहें. रात्रियाँ ,काल का ग्रास बने भ्रमजाल का पर्याय न बन विश्राम-प्रहर बनी रहें. चेत जाना है हमें कि सृष्टि की विविधता और निरंतरता बनी रहे. 

बुधवार, 19 जुलाई 2017

आगे-आगे देखिये होता है क्या ...

* जन्म से लेकर मृत्यु तक हम वस्त्रों में ही लिपटे रहते हैं.
वस्त्र-विन्यास का यह तीसरा युग है . पहला युग - प्राकृतिक उपादानों से निर्मित बाह्य तत्वों से ,शरीर के संरक्षण के लिये,
दूसरा - फ़ैशन के लिये .परिधानों  का चयन - .रुचिपूर्ण ढंग से अच्छा लुक देकर सजाने,दिखाने के लिये .
इसी क्रम में  1935 से सिंथेटिक फ़ाइबर चलन में आया ,जो प्राकृतिक वस्त्रों से अधिक दमदार,अधिक क्षमता-संपन्न, विशेष कार्यो के लिये उपयोगी-,स्ट्रानट्स के लिये ,एंटी वेलेस्टिक वेस्ट्स,,अधिक तापरोधी,अग्निशामकों और कार रेसर्स के लिये विशेष उपयोगी.
ये तो आपने सुन ही लिया होगा कि दूध से कपड़े बनाने में सफलता मिल गई है. जी हाँ ,दूध का प्रोटीन-नीले काले भूरे रंगों में टेक्सटाइल रेशम की तरह मुलायम -सूँधने में दूध की कोई महक नहीं. इसका श्रेय है आंके डोमास्के को जो डिज़ाइनर हैं और माइक्रोबायोलॉजिस्ट भी.ये कपड़े एकदम ईको फ़्रेंडली हैं , खाया भी जा सकता है.
और अब तीसरे क्रम में सचेत बोध वाले वस्त्र -- यह वस्त्र-विन्यास निष्क्रिय होकर शरीर को केवल  ढाके न रह कर .पहननेवाले की सुरक्षा के लिये जुम्मेदारी से संपन्नभी निभाएगा.
तीसरा चरण निरंतर आगे बढ़ता जा रहा है.
न्यूयार्क की सेंसटेक्स एक स्मार्ट टीशर्ट के लिये प्रयत्नशील हैं जो कांडक्टिव फ़ाइबर्स से रचित है ,जिनसे छोटे ट्रांसफ़ार्मर फ़ीड होते हैं ,हृदय की धड़कन,रक्त में आक्सीज़न,साँस की गति,तापमान आदि को मानिटर करते रहते हैं - इन शर्ट्स को पहनने-योग्य मदर बोर्ड कहा जा सकता है.शर्ट में बुने हुये कांडक्टिव रेशों के द्वारा बेतार के ट्रांसमीटर को सूचनाएँ जाती हैं जो इंटरप्रेट होकर अस्पताल के मानीटरिंग स्टेशन पहुँचती हैं.
इसके आविष्कारक जार्जिया के टेक्नालाजी के प्रोफेसर सुन्दरेसन जयरामन हैं
यह ,टी शर्ट देखने में साधारण टीशर्ट जैसी लगती है ,मेटीरियल थोड़ा-सा मोटा ,Ace bandage जैसा,.जिसमें कई पोर्ट्स , फ़ोन के जैक समान संयोजकों से युक्त हैं.  उन्होंने यह भी बताया कि सेंसर्स रोशनी में वीडियो का काम करते हैं ,वैसे ही जैसे एक GPS के सिग्नल्स में,
तो अब भविष्य की पोशाकें   शरीर पर अपनी सक्रिय भूमिका निबाहेंगी
शिशु मृत्यु सिंड्रोम, अग्निशामक-दस्तों आदि की ज़रूरत के अनुसार  विशेष संचालकों की व्यवस्था भी होने लगी है.
ब्रिटिश रिटेलर Mark&Spencer के टेक्नालाजी प्रमुख, इयान स्काट का कहना है कि कुछ वर्षों में हम इंटेलिजेंट ब्रा बाज़ार में ला सकते हैं .ये स्पोर्ट ब्रा जो स्ट्रेस , झटकेआदि को सेंस कर अपनी डायमेंशन एडजस्ट कर लेगी और अंगों का पूरा सहारा  बनेगी ,जैसे  खेल दौड़ आदि के झटकों भाँप कर  अपने आप अनुकूलता बना कर शरीर को संरक्षित रखना.
लंदन में फ़िलिप्स डिज़ाइन नामक यूरोपियन व्यवसायी की  लैब में पहनने योग्य इलेक्ट्रानिक्स का स्वप्नागार है .यहाँ पोशाकें तैयार की जाती हैं..इसमे लिनन के ऐसे एप्रन बनते हैं जिनमें पावर प्वाइंट और बिल्ट इन माइक्रोफोन संलग्न हैं ,जिनसे रसोई के एप्लीएंसेज़ बिना हाथ लगाये संचालित हों.जैसे हाट प्लेट आन-आफ़ करना ,कोई रेसिपी स्क्रीन पर दिखाना आदि.लेकिन अभी यह विक्रय के लिये नहीं  केवल ्प्रदर्शन  के लिये.. बाज़ार के आइटम में एक इलेक्ट्रानिक जैकेट (ICD +) जिसेमें  MP3 ऑडियो प्लेयर और सेलफ़ोन ,कालर में माइक्रोफ़ोन,आदि संलग्न हैं. इसमें और एक snazzy लुकिंग पाकेट्स और सिले हुये तारोंवाली जाकेट में थोड़ा ही फ़र्क है.
इसी प्रकार संगीत की लय और धुन से ताल और प्रकाश के प्रभाव देना भी गायिका या नर्तकी की वस्त्र-योजना में सम्मिलित हो जायेगा.  लंदन की एक अग्रदर्शी डिज़ाइनर कैथेरीन से जब पूछा कि क्या वह बोलने वाले कपड़े पसंद करेगी ?
वह बोली," बिलकुल नहीं , कहीं ऐसा न हो कि कपड़े झ़ट् से हमीं को टोक दें  -  हट,झूठे कहीं के ..कह कर'
अब विकसित टेक्नालाजी वाले उत्पादों पर काम हो रहा है,जहाँ कपड़े में ही इलेक्ट्रानिक्स अनुस्यूत  हैं. वस्त्रों की भूमिका बदलती जा रही है.
जीवन में आने वाली समस्याओं के लिये प्राकृति के भंडार में   समाधानों की अपार शृंखला विद्यमान है. बस, ज़रूरत है तो समझने और उचित ढंग से उपयोग करनेवाले  की.
मांट्रियल की नेक्सिया बाइटेक्नालाज़ी कंपनी के संचालक जेफ़ टर्नर, स्पाइडर सिल्क  उत्पादन योजना पर कार्यरत हैं. 42 वर्षीय टर्नर मांट्रियल में उस कंपनी के हेड हैं जहाँ स्पाइडर सिल्क का उत्पादन होता है .उनकी कंपनी  मकड़ी से सबक ले रही है .मकड़ी के जाले का रेशा स्टील के से पाँच गुना मज़बूत होता है.  उसमें खिंच जाने की भी क्षमता होने के कारण वस्त्र-विन्यास के लिये अधिक उपयुक्त है .अत्यंत उत्साही टर्नर का कहना है प्रकृति के पास जीवन की समस्याओं के समाधान की पूरी शृंखला है .उसकी अपार लीला का करिश्मा कब से चला आ रहा है. इसके मूल आधार 20 तरह के अमीनो एसिड्स हैं.         
मकड़ी ने अपने तंतुओँ के लिये जिनका का प्रयोग किया वही हमारे बालों ,त्वचा और शरीर में कार्य रत  हैं .कितनी कुशलता से मकड़ी उनसे लंबा अटूट रेशा खींच कर बुनाई करती है ,  जिसमें इतनी  मज़बूती और पारदर्शिता है.और यह पूरी तरह बायलोजिकल है ,हानिरहित है.
मकड़ियों को तो हम पाल नहीं सकते ,उसने उपाय निकाला मकड़ी के
तंतु  का प्रोटीन-जीन  को बकरी से जीन संयुक्त किया जाय ( जो उस के केवल mammary gland को प्रभावित करता है)फिर उसके दूध से वह तंतु प्रोटीन अलग कर लिया जाय. उस को  प्रोसेस कर उसे कातने पर वही तंतु तैयार हो जायेगा.ऐसे जीनवाली बकरी सामान्य रहती है .जेनेटिकली माडिफ़ाइड बकरी में 70,000 सामान्य बकरी के जीन्स और केवल एक मकड़ी का जीन है, जिससे उसे कोई हानि नहीं पहुँचती.इस नये तंतु को उसने बायोस्टील नाम दिया .यह नायलान से अधिक मज़बूत और बायोडिग्रेडेबिल भी होगा.
सभ्यतायें अपने द्वारा प्रयुक्त सामग्री से परिभाषित होती हैं. जैसे स्टील से औद्योगिक और सिलिकान से कंप्यूटर क्रान्ति हुई ऐसे ही अब  बायो मिमिक्री का युग आ रहा है ,जो प्रकृति की कार्यशाला के प्रयोगों को अपने हिसाब से नियोजित करेगा.
ब्रूनल वि.वि. (दक्षिणी इंगलैंड)के डिज़ाइन फ़ार लाइफ़ सेंटर की आशा थाम्सन ने  पत्रिका के आकार का एक चमकदार पीला तकिया दिखाया -बहुत सारे वाल्यूम कंट्रोल आइकंस से कढ़ा हुआ ,जिनका स्विच ताँबा चढे नायलोन की दो  तहों के बीच दबा था
उसका काम विकलांगों की कई असमर्थताओँ का निवारण करना था.
मानवोपयोगी उपादानों के स्वप्न बुनती आशा थाम्सन जैसे लोगों से मिलकर  इन संवेदनशील वस्त्रो से कौन उदासीन रह सकता है?
आगे-आगे देखिये, किन-किन रेशों से भविष्य अपने ताने-बाने पूरता है !
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शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

आवहि बहुरि वसन्त ॠतु -

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 बड़ी तेज़ गति से  चलते चले जाना  -  वांछित तोष तो मिलता नहीं ,ऊपर से मनः ऊर्जा का क्षय !
तब लगता है क्यों न अपनी मौज में रमते हुये पग बढ़ायें ; वही यात्रा सुविधापूर्ण बन ,आत्मीय-संवादों के आनन्द में चलती रहे ......

उस छोर की अनिवार गति और विदग्ध अति  से मोह-भंग के बाद ,सहृदय जनों का ब्लाग-जगत के  सहज  आश्वस्तिमय क्रम में  पुनरावर्तन  होगा -  इसी आशा  में, मैं तो  यहाँ से कहीं गई ही नहीं -

   इहि आसा अटक्यो रह्यो अलि गुलाब के मूल, 
  आवहि बहुरि वसन्त ॠतु, इन डारन वे फूल॥ 
   ( बिहारी )
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