15.
दोनों मित्रों में कैसा विचित्र -सा साम्य ! लगता है , एक ही तत्व के दो रूप अपने-अपने परिवेश में आमने-सामने आ गये हों . फिर भी संबंध का सही स्वरूप समझ में नहीं आता ,केवल बंधु नहीं ,केवल मित्र नहीं और भी जाने क्या-क्या !
उलझन में पड़ जाती है पाँचाली .
ऊँह ,जाने दो यह पहेली कभी सुलझेगी नहीं , मुझे क्या ..दोनों मेरे अपने हैं.
पहले जब उसे जाना नहीं था ,सुनती रहती थी उसके विषय में .औत्सुक्य जागता था .कैसा होगा वह जिसकी इतनी चर्चा ,इतनी कहानियाँ ,विस्मय-जनक वृत्तान्त - जिनका कोई ओर-छोर नहीं .और फिर भेंट हुई थी कृष्ण से .लगा नहीं कि पहली बार मिल रही हूँ .और न जाने कैसे इतना गहन मैत्री संबंध जुड़ गया .
और यह गोकुल का कान्हा तटस्थ मुद्रा में कितना-क्या कह जाता है ! यही है वह रसिया ,जिसने सारी ब्रज भूमि में रस- धार बहाकर जन-मन सिक्त कर दिया . सबको हँसाता रहा ,खेल खिलाता, लीलाएँ दिखाता रहा - और फिर भी इतना अनासक्त !
सोच कर मन जाने कैसा हो उठता है .
नारीत्व का सम्मान और नारी के प्रति सहज मानवीय संवेदनापूर्ण उसकी भावनायें पांचाली को अभिभूत कर देती है - कभी किसी ने इस दृष्टि से देखा था क्या ?
कैसी विराट् सहानुभूति !नहीं ,केवल नारियों के लिये नहीं -प्राणिमात्र के प्रति .ब्रज-भूमि के वन-कुंज ,यमुना तट और करील के वन तक जिसके नेह-भाव से चेतन हो उठे हों ,वह किसी जीव के प्रति उदासीन कैसे हो सकता है !
उसी ने कहा था -
'सहज जीवन के आनन्द का भोग उसके लिये वर्जित कर दिया कि एक बार यह लगने के बाद सारे ऊपरी स्वाद फीके लगने लगते हैं.
'और भी तो ,' पांचाली ने कहा था , '' जकड़ दी गई है शृंखलाओं में .रीति-नीति- धर्म के नाम पर ,आदर्शों की घुट्टी भी सिर्फ़ नारी के लिये,. व्यक्ति कहाँ रही वह, अपने के उपयोग की वस्तु बना कर ,पुरुष ने अपने लिए सारे रास्ते खुले रखे .'
वह हँसा ,'इसीलिये कि वह संसार में उलझी रहे और पुरुष मुक्ति का स्वाद ले सके . सारे नियम , विधान ,मर्यादायें,उत्तरदायित्व उस पर लाद कर वह निश्चिंत हो गया कि चलो दुनिया के सारे काम चलते रहेंगे . और मैं मुक्त रहूँगा.'
'उस पर भी अगर उसके कुंठित होते जा रहे जीवन में विकृतियाँ पलने लगें तो दोषी भी वही ! '
'वह सुख अधूरा है जिसे पुरुष सिर्फ़ अपने लिये चाहता है ,' कृष्ण ने कहा था ,'और अधूरा सुख कभी संतुष्टि नहीं देता .
वह प्रकृति रूपा है ,रचयित्री है.परम समर्थ - वे जानते हैं और इसीलिए उसे लाचार कर देना चाहते हैं .पर अपने अहंकार में उसे पराभूत करने का प्रयास आगत पीढ़ियों को कुसंभावनाओं का ग्रास ही बना देता है .'
'... तो और यहाँ हो क्या रहा है ? विसंगतियों की परंपरा चली आ रही है! वृद्ध राजा की कामना जागी धीवर-पुत्री के लिए . पिता ने अपनी पुत्री का हित देखा - सौदा ही तो रहा.फिर अंबा अंबिका अंबालिका ! काशिराजकी कन्यायें !....भाइयों में साहस होता तो स्वयं जीत कर लाते ,अपनी शक्ति और साहस से उन्हें आश्वस्त करते हुये ,सम्मान के पात्र बन कर ब्याहते .विजयी की भार्या बनने की जगह ,लाचारों को सौंप दी गईँ ।यह कैसा स्वयंवर ?
और फिर आगे अरुचिपूर्ण नियोग के लिये विवश किया जाना ।कठपुतलियों की तरह डोर खींची जाती रही .
कैसी -कैसी स्थितियाँ और उनके विचित्र परिणाम ..आगे क्या होगा .कौन जाने ...'
'उसकी तो भूमिका बन चुकी , सखी.'
'काहे की ?'
' भावी अनिष्ट की . देखो न ,ये जो कुछ हो रहा है अनर्थ का बीजारोपण हो रहा है .अब जो होना है सामने दिखाई देने लगा है .कैसी विकृत पीढ़ी - यही पिछली वाली .कैसी अस्वाभाविकताएं -विकृत दाम्पत्य ,उदासीन माता-पिता की संस्कारहीन संतानें, समाज पर बोझ बनी-सी ....'
कुछ रुका रहा ,सोचता-सा फिर बोला -
'वास्तविकता यह है कि जहाँ नारी सतेज है वहां संतान समर्थ ,जहाँ विवश निरीह है वहाँ संततियाँ कैसी हैं -उदाहरण सामने है .'
'ये दो पीढ़ियाँ ,' कृष्णा सोच रही है ,' चित्रांगद,विचित्रवीर्य फिर आगे धृतराष्ट्र ,पांडु और अब ये सारे लोग...'
तब तक कृष्ण बोल उठे, ' ऊपर से भले लगे कि शक्ति ,-सामर्थ्य, प्रभाव सब पा लिया . लेकिन ऐसा है नहीं . विषमतायें विकृत करती चलती है . अन्याय आगे चल कर ब्याज समेत अपना सारा मूल वसूल लेता है. '
' हाँ ,वासुदेव.अनर्थ की पहुँच कहाँ-कहाँ तक है ?अपने केन्द्र को घेरने के बाद वह पूरे घेरे को अपनी समेट में ले लेता है ,'
आगत की आशंकाओं को किनारे कर देना चाहती है ,वह.
उद्विग्न कर देने वाली स्मृतियों को दूर धकेल देना चाहती है पांचाली .
बाहर उपवन से कुछ आवाज़ें आ रही हैं .भीम , नकुल-सहदेव का संवाद चल रहा है ..किसी बात पर हँस रहे हैं वे लोग .
नहीं , कहीं नहीं जायेगी ,अभी किसी से कुछ कहने-सुनने की इच्छा नहीं .
बस वातायन से बाहर वृक्षों का हिलना देख रही है .
*
16
कहाँ से कहाँ खींच ले जाता है यायावर मन !
भावन करना चाहती है कोई रमणीय प्रसंग जो अंतर को स्निग्ध कर दे , और पहुँच गई अनर्थों की जड़ तक !
हाँ ,रास महोत्सव -एक अनोखी घटना !
विस्मय होता है द्रौपदी को ! कितनी आसानी से उन गोप रमणियों को सीमित घेरों से बाहर निकाल लाया यह नटनागर. ग्राम्य भूमि के विस्तृत प्रांगण में रस की अनुभूति देना कोई सरल काम था क्या ?
पर उससे भी अधिक उसके पीछे माधव का चिन्तन पांचाली को अभिभूत कर देता है .
अब तक किस ने सामाजिक आयोजनों की इतनी समग्रभावेन चिन्ता की थी ?सबके कल्याण और सु-संतोष का विधान करने का किसी को भान भी हुआ था?
जो चलता आया है उससे परे कुछ करने का प्रयास , सीमित घेरों में रहने वाले लोग कहाँ कर पाते ?
पूरे विस्तार में जाना चाहती है वह . इस सारे आयोजन की पृष्ठभूमि समझने की उत्सुकता जाग उठी है.
अपनी बात कृष्ण से कहे बिना चैन कहाँ था -
' ये क्यों नहीं सोचता कोई कि स्त्री के भी मन है ,बुद्धि है. स्थूल-चेता नहीं वह, सूक्ष्म स्तरों तक संचरण करने में समर्थ है. '
'इसीलिये तो ,अन्न और प्राण की सीमा से निकाल कर आनन्द के स्तर तक पहुँचाना चाहता हूँ ।मनो-मुक्ति देना चाहता हूँ कि नारी मर्यादाओं में बँधी ,विधि- निषेधों में सिमटी ,परमुखापेक्षी होकर पुरुष के हास-विलास का साधन मात्र न रह जाए .वह कर्त्री है ,सर्जक है, भोगकर्त्री भी .'
उसने जो कहा था उसकी अनुगूँज बार-बार उठती है कृष्णा के अंतर्मन में -
'जीवन व्यवहार का पर्याय है ।पुरुष के सुख और हित के लिये नारी की आत्मा का हनन क्यों ?उसके जीवन में भी उल्लास और उजास भरना चाहता हूँ ।जिसे सदियों से जकड़ कर रखा गया है कुण्ठित कर डाला गया है ।सहज मानवीय संवेदनायें दबा कर इतना भार लाद दिया कि अपने लिये विचार करने की न सामर्थ्य बची न अवकाश ।आनन्द जीवन का भोग्य है ।उन्मुक्त भाव से जीवन का रस उसके लिये वर्जित क्यों ?ललित कलायें मन का उन्नयन करती हैं सरसता का संचार करती हैं ,वह जीवनांश उत्सव बन जाता है ।नारी उनमें डूब कर आनन्दित हो तो दोष काहे का ?
कोरे ऊँचे आदर्शों को लाद देने से काम नहीं चलता ।अगर उनसे जीवन असंतुलित होता है तो वे व्यर्थ हैं।व्यवहार की श्रेष्ठता, समाज में संतुलन और जीवन में संगति लाने के लिये है ..'
मुख से चाहे न बोले चाहे ,पाँचाली का मन बराबर हुँकारा दे रहा है .
' स्त्री के लिये भावना का मार्ग सहज-गम्य है।मैं उस प्रकृति -रूपा को बाँधना नहीं मुक्त करना चाहता हूँ .'
कल्पना में उभरने लगते हैं वे दृष्य साथ में कृष्ण के स्वरों की पीयूष-वर्षा -
' मैं मनोमुक्ति देने आया हूँ .इस शरद्पूर्णिमा की ज्योत्स्ना में ,स्त्री -पुरुष का भेद भूल ,मुक्त- मना महारास के परमानन्द में डूब जाओ .संपूर्ण मनश्चेतना इस रस में लीन हो ,अपनी लघुता से मुक्त हो लें सब - चाहे सीमित अवधि के ही लिये.'
'हाँ ,तुम्हारा प्रयोजन जान रही हूँ ..'
' हाँ ,मैं उसी का आयोजन करता हूँ सखी .वही कला कि जीवन का विष रस में परिणर्तित हो जाये ,जड़-चेतन में चिदानन्द की व्याप्ति संभव हो .'
आत्म-विस्मृता पांचाली सुनती रहती है चुपचाप.
' मैं जीवन को सुन्दर बनाना चाहता हूँ. कि भूमा की आनन्दिनी वृत्ति सब में चरितार्थ हो .'
'नारी-पुरुष का आकर्षण प्रकृति का सनातन नियम है .बचेगा कोई कैसे .वह प्रकृति है .उससे भाग कर -पुरुष कहाँ रहेगा !
उसी वृत्ति का परिष्करण कर वासना से ऊपर भावना में परिणत करना चाहता हूँ .
अमित विस्तार पाती अंतश्चेतना का संस्कार करता यह महोत्सव ऐन्द्रिय वासना से निरा अछूता है
'आत्मा में आनन्द का झरना फूट पड़ता है. सारे इन्द्रिय-बोधों को आत्मसात् करती वह सौंन्दर्य चेतना ,समय-खंड से असीम में खींच ले जाती है -कितना मनोरम रूप .मन सीमित नहीं रहता ,सामने जो है वह भी दृष्टि में नहीं आता,सुनाई नहीं देता .एक विरा़ट़् अनाम अनुभूति अपने में डुबा लेती है .
' मैं यह सब ,उनसे भी बाँटना चाहता हूँ जो सरलमना हैं ,सहज-विश्वासी भी और जीवन के आनन्दमय रूप से वंचित रही है ,कि ,मत घुसी रहो दीवारों के भीतर ,
बाहर आओ प्रकृति के रम्य प्राँगण में , आनन्द -विभोर हो मन असीम में विस्तार पा ले .'
हाँ ,उसने कहा था ,'आयें सब साथ-साथ इस रम्य-लोक में . सौंदर्य मन का उन्नयन करता है.प्रकृति के परिवेश में ,सब-कुछ भूल कर उन्मुक्त रास रचा लें .कितना आनन्द कि तृप्त हो जाए तन-मन . ऐसे में पाप तो छू भी नहीं पाता .सब-कुछ आनन्दमय, रमणीय,पावन!'
कल्पना करती है दिव्यता में डूबी उस मुक्त -बेला की जहाँ देश-काल व्यक्ति का विलय हो गया होगा .व्याप्ति की असीमता में सब ने सब का अनुभव किया होगा .सब में बसा वही कृष्ण-मन , लगा जैसे इस विराट् क्रीड़ा में वही सहचर बना है ,प्रत्येक का .सब को उसके साथ का अनुभव हो रहा है .वह एक साथ सब के साथ है , सब के साथ !
हाँ,हाँ यही तो हुआ था .
और अभिभूत करे दे रहे हैं उसके शब्द -
' देखो न कृष्णे ,इस महारास का प्रत्येक भागी मेरा ही रूप है. रस का भोग ,जीवन के हर मीठे-तीते रस का भोग मैंने किया है .नहीं किया होता तो सबसे भिन्न हो जाता !मैं अपने हृदय में सबको अनुभव कर सका हूँ ।ये गोप भिन्न नहीं हैं ,मेरा आत्म-भाव सब में स्थापित हो गया है ,ये सब मेरे साथ हैं हूँ .देखोगी तो समझ जाओगी सखी ,अपने में पा लोगी मुझे.इस महारास का भोग मैं शत-शत देहों से कर रहा हूँ .इन ग्वालों में, मैं ही विद्यमान हूँ -सहस्र सहस्र रूपों में--.इस विराट् चेतना के आनन्द का अनुभव ये सब कर रहे हैं , वही मैं अपने में कर रहा हूँ .'
पाँचाली विभोर ! '
'चित् प्रकृति का यह रूप ,मानवी प्रकृति से समन्वित हो !पुलकित मन-प्राण जुड़ाते रहें .रुक्ष-विषण्ण जीवन को रस के ये कण सहनीय बना दें .'
दोनों चुप .
अनायास पांचाली की विनोद-वृत्ति जाग उठी -
'अरे वाह , तुम तो बड़े भारी चिन्तक निकले गोपीवल्लभ !मैं तो नट-नागर ही समझे थी . तुम क्या-क्या हो मैं तो समझ नहीं पाती.'
'बस-बस ,खींचने पर तुल गईँ .' कृष्ण ने हाथ हिला कर निषेध करते हुये कहना जारी रखा ,
'एक साधारण गोप बालक ,वन-वन घूमता गोचारण करता बड़ा हुआ ,जान लिये भागता रहा इधर से उधर ,और अब पांचाली, तुम भी हँसी उड़ाने पर तुल गईँ !'
'गुरु संदीपनि के आश्रम से लोगों को भरमाने शिक्षा भी ले कर आये हो क्या ?सारी दुनिया को बहका लोगे ,पर मैं नहीं तुम्हारे झाँसे में आनेवाली .'
मोहक हँसी से व्याप्त हो गया मोहन का आनन .
' मैं तो मनमाना बोल जाता हूँ पर तुम कब बहकी हो पाँचाली ? '
मनमाना ?द्रौपदी के मन में उठा ,ऐसे निचिंत भाव से सब कुछ कह जाते हो जैसे काल की गति को अपने संकेतों पर साधे बैठे हो !
पर चुप रह गई वह .
'जीवन में इतनी उठ-पटक रही सखी,निरंतर चलता मंथन . घूर्णित - विचारों के निहित तत्व अपने आप तल में ,जमते चले गये .'
'समझ रही हूँ मीत, सब समझ रही हूँ .'
'हाँ ,तुम्हीं समझोगी !तुम भी तो.. पांचाली, तुम भी ..तभी तुमसे सब कुछ कह बैठता हूँ .'
बार-बार ध्यान में आता है कैसी-कैसी बाधायें पार कर इस मनोभूमि तक पहुँचा होगा यह विलक्षण पुरुष !
मन ही मन कहती है , तुम नहीं होते मेरे साथ, तो मैं कितनी एकाकी, कितनी लाचार होती !और कितनी असहाय !जीवन को सहन करने की शक्ति तुम्हीं से पाती हूँ गोविन्द ,तुम क्या हो मैं समझ नहीं पाती,सिर्फ़ सोचती रह जाती हूँ ।
*
(क्रमशः)