कल्चरल नाइट थी वह. छात्र-जीवन का समापन .
बहुरंगी कार्यक्रम चल रहे थे ,एनाउंसमेंट हो रहे थे, रह-रह कर तालियाँ बज रहीं थीं .
मैं भी आगे की पंक्ति में ,फ़ाइनल के छात्रों के साथ बैठा था .कैंपस इंटरव्यू में जिन्हें जॉब मिल चुके थे ,उनमें से एक मैं भी .
जीवन-धारा दूसरी ओर मुड़ने का क्रम, वातावरण में बिदा की गंध ,प्रसन्नता और उदासी का विचित्र सा मिश्रण. जिनका भविष्य निश्चित हो चुका था, उनके मन उमंग से भरे ,एक दूसरे के पते-ठिकाने का लेन-देन चल रहा था. अब तो मुझे भी यहाँ से चल देना है .
पहले सीधा माँ के पास ,कुछ दिन रुक कर नये लगे काम पर.
माँ प्रसन्न होगी ,पुत्र योग्यता सिद्ध कर आजीविका कमाने लगा .
स्टेज पर क्या चल रहा है दिमाग़ रजिस्टर नहीं कर रहा था तभी कान में कुछ शब्द पड़े - ध्यान उधर ही केन्द्रित हो गया .
एक छात्र था मंच पर , गुरु गंभीर तार-स्वर में शब्द मुखरित हो रहे थे -
'धिक् जीवन जो पाता ही आया है विरोध ...'
सब ओर से ध्यान हट कर उधर ही केन्द्रित हो गया . सुनने लगा -
'धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध '
सुनता रहा ,साथ में जो वक्तव्य चल रहे थे समझता रहा .
पर वे दो छोटी पंक्तियाँ अंतर्मन पर लिख गईं हों जैसे.
मेरी ही व्यथा है यह - गहन मंथन, राम की हताशा का हो, या स्वयं रचनाकार का आत्म-भुक्त , पर यही है मेरा सच - जीवन का अब तक का सारांश .
बार-बार वही पंक्तियाँ मन में घूमती हैं -'धिक् जीवन...'
अंतर्मन से धिक्कार उठती है अपने लिए .
अवरोध और विरोध ही झेलता आया सदा ,कुछ नहीं कर पाया जो चाहा.
खुल कर बोल नहीं सका कभी . किससे कहूँ - माँ एकाकी जूझती रही. मेरे लिए ही तो , हाँ और वसु के लिए भी.
जी-जान से यत्न करता हूँ ,कोई कसर नहीं छोड़ता .पर जब फल की आशा बँधती है सब हाथ से फिसल जाता है .अचानक कोई झटका, जैसे निरभ्र आकाश से वज्रपात हो जाए . आशा का महल टूट कर बिखर जाता है .हत्बुद्ध देखता रह जाता हूँ .
छात्र जीवन के समापन पर यही दो पंक्तियाँ मन की स्लेट पर लिखे लिए जा रहा हूँ ,सुदूर प्रदेश के किसी अनजाने स्थल पर ,अजनबियों के बीच पैर जमाने.
एक अध्याय का समापन - माँ की प्रतीक्षा पूरी हुई .पुत्र अपने पाँव खड़ा हो गया.
जब से वसु का पत्र पढ़ा है ,मन बहुत विचलित है .कार्य क्रम में शामिल होने की बिलकुल इच्छा नहीं थी ,पर भार कर जाऊँ भी कहाँ !
सब कुछ कर के क्या मिला ?
मन बार-बार हटाता हूँ ,सिर घूमने लगता है .
सोचना नहीं चाहता ,चाहता हूँ एकदम ब्लैंक हो जाऊँ, बस .
लिखा है , आजकल कुछ अस्वस्थ चल रही हैं ,पहले वहीं जाना है .बीच का समय वहीं साथ बिताना है .
फिर ज्वाइन करने के बाद , वसु और माँ को अपने पास लाने की व्यवस्थाओं में कुछ समय तो लगेगा. माँ का बड़ा मान है वहाँ . उनके स्वच्छ और सादे परोपकारी जीवन ने सब को प्रभावित किया है .और सब सबसे बढ़ कर मीता का आसरा था , अब तक उसका आसरा रहा .पर अब ? अब वहाँ कैसा होगा सोच नहीं पाता .
वहाँ से सबका टिकट कट जाय वही अच्छा.पर माँ तैयार नहीं होंगी कहती हैं रिटायरमेंट को कुछ साल रह .गए हैं पूरे कर लूँ .चलो, कुछ समय और सही .अब वे कुछ यात्राएँ करना चाहती है दो जनी और भी उनके साथ हैं, इतने वर्षों का साहचर्य ,साथ में घूमने की इच्छा अब पूरी करेंगी .
मैंने यही चाहता हूँ शेष जीवन वे निश्चिंत हो कर आराम से रहें.
सोच में खलल पड़ा .मेरा नाम पुकारा जा रहा है .आकाश स्टेज पर बुला रहा है .मेरा बहुत साथ निभाया है उसने .अपने घर से आया हुआ सामान हमेशा बाँटता रहा ,छात्रावास के दो सालों में मेरे बहुत निकट आ गया -पर कल उससे कुछ नहीं कहा मैंने .मीता की बात उससे कभी नहीं की थी . डर था लड़कों की छेड़खानियों का सामना न करना पड़े . मैं उतना उद्धत नहीं हो पाता ,बोल्डली फ़ेस नहीं कर पाता .चुप्पा-सा रहा हूँ शुरू से.
आकाश केे साथ कुछ और लोग शामिल हो गए हैं,' अरे ,आता क्यों नहीं .यों ही छोड़ेंगे नहीं हम तुझे !..
जाए बिना छुटकारा नहीं .
*
बहुरंगी कार्यक्रम चल रहे थे ,एनाउंसमेंट हो रहे थे, रह-रह कर तालियाँ बज रहीं थीं .
मैं भी आगे की पंक्ति में ,फ़ाइनल के छात्रों के साथ बैठा था .कैंपस इंटरव्यू में जिन्हें जॉब मिल चुके थे ,उनमें से एक मैं भी .
जीवन-धारा दूसरी ओर मुड़ने का क्रम, वातावरण में बिदा की गंध ,प्रसन्नता और उदासी का विचित्र सा मिश्रण. जिनका भविष्य निश्चित हो चुका था, उनके मन उमंग से भरे ,एक दूसरे के पते-ठिकाने का लेन-देन चल रहा था. अब तो मुझे भी यहाँ से चल देना है .
पहले सीधा माँ के पास ,कुछ दिन रुक कर नये लगे काम पर.
माँ प्रसन्न होगी ,पुत्र योग्यता सिद्ध कर आजीविका कमाने लगा .
स्टेज पर क्या चल रहा है दिमाग़ रजिस्टर नहीं कर रहा था तभी कान में कुछ शब्द पड़े - ध्यान उधर ही केन्द्रित हो गया .
एक छात्र था मंच पर , गुरु गंभीर तार-स्वर में शब्द मुखरित हो रहे थे -
'धिक् जीवन जो पाता ही आया है विरोध ...'
सब ओर से ध्यान हट कर उधर ही केन्द्रित हो गया . सुनने लगा -
'धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध '
सुनता रहा ,साथ में जो वक्तव्य चल रहे थे समझता रहा .
पर वे दो छोटी पंक्तियाँ अंतर्मन पर लिख गईं हों जैसे.
मेरी ही व्यथा है यह - गहन मंथन, राम की हताशा का हो, या स्वयं रचनाकार का आत्म-भुक्त , पर यही है मेरा सच - जीवन का अब तक का सारांश .
बार-बार वही पंक्तियाँ मन में घूमती हैं -'धिक् जीवन...'
अंतर्मन से धिक्कार उठती है अपने लिए .
अवरोध और विरोध ही झेलता आया सदा ,कुछ नहीं कर पाया जो चाहा.
खुल कर बोल नहीं सका कभी . किससे कहूँ - माँ एकाकी जूझती रही. मेरे लिए ही तो , हाँ और वसु के लिए भी.
जी-जान से यत्न करता हूँ ,कोई कसर नहीं छोड़ता .पर जब फल की आशा बँधती है सब हाथ से फिसल जाता है .अचानक कोई झटका, जैसे निरभ्र आकाश से वज्रपात हो जाए . आशा का महल टूट कर बिखर जाता है .हत्बुद्ध देखता रह जाता हूँ .
छात्र जीवन के समापन पर यही दो पंक्तियाँ मन की स्लेट पर लिखे लिए जा रहा हूँ ,सुदूर प्रदेश के किसी अनजाने स्थल पर ,अजनबियों के बीच पैर जमाने.
एक अध्याय का समापन - माँ की प्रतीक्षा पूरी हुई .पुत्र अपने पाँव खड़ा हो गया.
जब से वसु का पत्र पढ़ा है ,मन बहुत विचलित है .कार्य क्रम में शामिल होने की बिलकुल इच्छा नहीं थी ,पर भार कर जाऊँ भी कहाँ !
सब कुछ कर के क्या मिला ?
मन बार-बार हटाता हूँ ,सिर घूमने लगता है .
सोचना नहीं चाहता ,चाहता हूँ एकदम ब्लैंक हो जाऊँ, बस .
लिखा है , आजकल कुछ अस्वस्थ चल रही हैं ,पहले वहीं जाना है .बीच का समय वहीं साथ बिताना है .
फिर ज्वाइन करने के बाद , वसु और माँ को अपने पास लाने की व्यवस्थाओं में कुछ समय तो लगेगा. माँ का बड़ा मान है वहाँ . उनके स्वच्छ और सादे परोपकारी जीवन ने सब को प्रभावित किया है .और सब सबसे बढ़ कर मीता का आसरा था , अब तक उसका आसरा रहा .पर अब ? अब वहाँ कैसा होगा सोच नहीं पाता .
वहाँ से सबका टिकट कट जाय वही अच्छा.पर माँ तैयार नहीं होंगी कहती हैं रिटायरमेंट को कुछ साल रह .गए हैं पूरे कर लूँ .चलो, कुछ समय और सही .अब वे कुछ यात्राएँ करना चाहती है दो जनी और भी उनके साथ हैं, इतने वर्षों का साहचर्य ,साथ में घूमने की इच्छा अब पूरी करेंगी .
मैंने यही चाहता हूँ शेष जीवन वे निश्चिंत हो कर आराम से रहें.
सोच में खलल पड़ा .मेरा नाम पुकारा जा रहा है .आकाश स्टेज पर बुला रहा है .मेरा बहुत साथ निभाया है उसने .अपने घर से आया हुआ सामान हमेशा बाँटता रहा ,छात्रावास के दो सालों में मेरे बहुत निकट आ गया -पर कल उससे कुछ नहीं कहा मैंने .मीता की बात उससे कभी नहीं की थी . डर था लड़कों की छेड़खानियों का सामना न करना पड़े . मैं उतना उद्धत नहीं हो पाता ,बोल्डली फ़ेस नहीं कर पाता .चुप्पा-सा रहा हूँ शुरू से.
आकाश केे साथ कुछ और लोग शामिल हो गए हैं,' अरे ,आता क्यों नहीं .यों ही छोड़ेंगे नहीं हम तुझे !..
जाए बिना छुटकारा नहीं .
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