*
नहीं, मीता से मेरा विवाह संभव नहीं हुआ
इस दुनिया के रास्ते कभी सीधे नहीं चलते ,एक बात के साथ दूसरी लगी चली आती है .हर कथा के साथ कुछ अवान्तर कथायें आ जुड़ती हैं.फिर ज़िन्दगी की राह मुख्य मार्ग के बीच ऐसी अटकती है कि गली-कूचों में भटक कर रास्ता ढूँढना पड़ता है
सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, हमें लग रहा था अब जीवन सही ढर्रे पर आ गया है .माँ समझ रहीं थीं लड़का लायक निकला , अपवादों की वैतरणी पार हो गई. चार साल मीता मेरी मित्र रही थी ,मेरा घर कॉलेज से बहुत दूर नहीं था .एकाध जब बार नोट्स लेन-देन के क्रम में मेरे घर आई .माँ से उसका खूब ताल-मेल बैठ गया .
उन्हीं से पता चला जब चार साल की थी तभी उसकी माँ की मृत्यु हो गई थी .एक विधवा बुआ ने साज-सँभाल की थी .उनका कहना मीता के पिता नहीं टालते .
मीता अक्सर ही हमारे घर आ जाती ,माँ की सहायता करती ,कहती ,'माँ से बहुत सीखने को मिलता है .'
कभी-कभी माँ बुलवा लेतीं - उससे कह देना आज मैंने गाजर का हलुआ बनाया है .
अपनी बहन से मेरी माँ की मैत्री जान कर पिता मीता के उनके पास आने में कोई रोक नहीं करते .
मैं कॉलेज से लौटता तो वह हलुआ खाती मिलती .कभी कढ़ी-चावल का स्वाद खींच लाता .वह अपनी महाराजिन का बनाये खाने से ऊबती थी .कहती थी माँ के हाथ में निराला स्वाद है . हो मेरी माँ चाहे कुछ बना दें स्वाद ही अलग होता था -कहते हैं किसी-किसी की उंगलियों में रस होता है कि जो छू लें वह स्वाद से भर जाता है.
लग रहा था अब जीवन की सारी कमियाँ पूर्ण हो जाएँगी .लेकिन मेरे लिए कुछ भी पाना आसान होता तो बात ही क्या होती.
मेरे पिता बीच में आ खड़े हुए और जीवन का प्रवाह फिर चक्कर खा गया .
उसकी बुआ जीवित होतीं तो अपने भाई को अनुकूल कर लेतीं .शादी के दो साल बाद ही विधवा हो जाने पर उन्होंने बहुत कुछ झेला था.उनकी एक बहिन ने पति और ससुरालवालों की प्रतारणा से ऊब कर आत्म-हत्या कर ली थी. वे माँ की विवशता समझतीं थीं .
बिना माँ की लड़की पर माँ की ममता उमड़ पड़ती थी. छोटी बहन भी दीदी-दीदी कह उसके पीछे लगी रहती .मीता की बुआ से माँ की भेंट मंदिर के उत्सव में हुई .थोड़ा सहेलापा हो गया -वैसे माँ की रिज़र्व रहने की आदत थी किसी से अधिक मेल-जोल नहीं देखा मैंने.
मैंने कभी नहीं कहा उनसे पर माँ मेरा मन जानतीं थीं -बहू बनाना चाहती थीं उसे .भरे-पुरे घर की लड़की को हमारे यहाँ किसी कमी का अनुभव न होगा उन्हें मेरी योग्यता पर पूरा विश्वास था .
उसके पिता माँ से मिलने भी आए थे .हमारी पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी पा कर चुपचाप चले गए थे .और बात आगे नहीं बढ़ी
उन्हें जब विदित हुआ माँ पिता से अलग रहती हैं तो उनके विषय में पूछ-ताछ करते रहे .उन्हें यह गले से उतारना मुश्किल लगा था कि कोई महिला पति अपने आप अलग ,बिलकुल अकेली रहे .और रिश्तेदारों के विषय में भी उन्होंने पड़ताल की थी.
माँ के आने के बाद सबने आ-आकर समझाया था ,पति का घर छोड़ कर मत जाओ. स्त्री को हर हालत में सहन करना चाहिये यही उनका कहना था.आश्वासन देते थे कि वे पिता से बात करेंगे पर कोई बीच में पड़ने नहीं आया .सब यही कहते रहे धीरे-धीरे समय के साथ सब ठीक हो जाएगा .
नाते-रिश्तेदार हैं बहुत पर समय पर साथ देने कोई नहीं आया , अकेली स्त्री से सब कन्नी काट जाते हैं, सारे इष्ट-मित्र ,और संगी-साथी किनारा कर लेते हैं. उस क्षेत्र के बाहर आने के बाद हमें उनके परिवार में कैसे गिना जाता.
रिश्तेदार कहने को ,मां के सिवा मुझे कोई नहीं दिखाई देता .मामा हैं पर उन्हें कौन पूछता है .प्रश्न यही उठता कि पिता साथ नहीं तो क्या कोई चाचा-ताऊ-आदि भी नहीं परिवार में, जो साथ खड़ा हो !
उनके मन में यही आया कि कुछ कारण तो होगा ही .पति से अलग रह रही अकेली महिला कैसे सम्माननीय हो सकती है !किसी का सहारा लिए बिना दुनिया चलती है कहीं?
और मेरी माँ के लिए जिसके मन में ऐसी भावना हो उससे समझौता करना मेरे बस बस में नहीं था.
मीता ने मुझसे कहा था उन्हें कहने दो मैं तैयार हूँ . मान जाएगे धीरे-धीरे ,वे अनुकूल हो जाएँगे ,मुझे बहुत प्यार करते हैं .
पर मेरे मन ने गवाही नहीं दी
बिना माँ की बच्ची को पिता ने ही सँभाला था .मीता उनसे बहुत जुड़ी थी.उनका बहुत ध्यान रखती थी .वे दोनों इस प्रकार अलग हों यह मुझे गवारा नहीं हुआ , मीता का मन सदा अपराघ बोध से ग्रस्त रहता कि असहाय पिता को इस हाल में अकेला छोड़ दिया. घरवालों का विरोध ले कर हमें अपनी गृहस्थी नहीं बसानी.अभी और प्रतीक्षा करें, संभव है उनका मन अनुकूल हो जाय.
मेरे निर्णय को माँ का मौन समर्थन प्राप्त था.
*
(क्रमशः)
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नहीं, मीता से मेरा विवाह संभव नहीं हुआ
इस दुनिया के रास्ते कभी सीधे नहीं चलते ,एक बात के साथ दूसरी लगी चली आती है .हर कथा के साथ कुछ अवान्तर कथायें आ जुड़ती हैं.फिर ज़िन्दगी की राह मुख्य मार्ग के बीच ऐसी अटकती है कि गली-कूचों में भटक कर रास्ता ढूँढना पड़ता है
सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, हमें लग रहा था अब जीवन सही ढर्रे पर आ गया है .माँ समझ रहीं थीं लड़का लायक निकला , अपवादों की वैतरणी पार हो गई. चार साल मीता मेरी मित्र रही थी ,मेरा घर कॉलेज से बहुत दूर नहीं था .एकाध जब बार नोट्स लेन-देन के क्रम में मेरे घर आई .माँ से उसका खूब ताल-मेल बैठ गया .
उन्हीं से पता चला जब चार साल की थी तभी उसकी माँ की मृत्यु हो गई थी .एक विधवा बुआ ने साज-सँभाल की थी .उनका कहना मीता के पिता नहीं टालते .
मीता अक्सर ही हमारे घर आ जाती ,माँ की सहायता करती ,कहती ,'माँ से बहुत सीखने को मिलता है .'
कभी-कभी माँ बुलवा लेतीं - उससे कह देना आज मैंने गाजर का हलुआ बनाया है .
अपनी बहन से मेरी माँ की मैत्री जान कर पिता मीता के उनके पास आने में कोई रोक नहीं करते .
मैं कॉलेज से लौटता तो वह हलुआ खाती मिलती .कभी कढ़ी-चावल का स्वाद खींच लाता .वह अपनी महाराजिन का बनाये खाने से ऊबती थी .कहती थी माँ के हाथ में निराला स्वाद है . हो मेरी माँ चाहे कुछ बना दें स्वाद ही अलग होता था -कहते हैं किसी-किसी की उंगलियों में रस होता है कि जो छू लें वह स्वाद से भर जाता है.
लग रहा था अब जीवन की सारी कमियाँ पूर्ण हो जाएँगी .लेकिन मेरे लिए कुछ भी पाना आसान होता तो बात ही क्या होती.
मेरे पिता बीच में आ खड़े हुए और जीवन का प्रवाह फिर चक्कर खा गया .
उसकी बुआ जीवित होतीं तो अपने भाई को अनुकूल कर लेतीं .शादी के दो साल बाद ही विधवा हो जाने पर उन्होंने बहुत कुछ झेला था.उनकी एक बहिन ने पति और ससुरालवालों की प्रतारणा से ऊब कर आत्म-हत्या कर ली थी. वे माँ की विवशता समझतीं थीं .
बिना माँ की लड़की पर माँ की ममता उमड़ पड़ती थी. छोटी बहन भी दीदी-दीदी कह उसके पीछे लगी रहती .मीता की बुआ से माँ की भेंट मंदिर के उत्सव में हुई .थोड़ा सहेलापा हो गया -वैसे माँ की रिज़र्व रहने की आदत थी किसी से अधिक मेल-जोल नहीं देखा मैंने.
मैंने कभी नहीं कहा उनसे पर माँ मेरा मन जानतीं थीं -बहू बनाना चाहती थीं उसे .भरे-पुरे घर की लड़की को हमारे यहाँ किसी कमी का अनुभव न होगा उन्हें मेरी योग्यता पर पूरा विश्वास था .
उसके पिता माँ से मिलने भी आए थे .हमारी पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी पा कर चुपचाप चले गए थे .और बात आगे नहीं बढ़ी
उन्हें जब विदित हुआ माँ पिता से अलग रहती हैं तो उनके विषय में पूछ-ताछ करते रहे .उन्हें यह गले से उतारना मुश्किल लगा था कि कोई महिला पति अपने आप अलग ,बिलकुल अकेली रहे .और रिश्तेदारों के विषय में भी उन्होंने पड़ताल की थी.
माँ के आने के बाद सबने आ-आकर समझाया था ,पति का घर छोड़ कर मत जाओ. स्त्री को हर हालत में सहन करना चाहिये यही उनका कहना था.आश्वासन देते थे कि वे पिता से बात करेंगे पर कोई बीच में पड़ने नहीं आया .सब यही कहते रहे धीरे-धीरे समय के साथ सब ठीक हो जाएगा .
नाते-रिश्तेदार हैं बहुत पर समय पर साथ देने कोई नहीं आया , अकेली स्त्री से सब कन्नी काट जाते हैं, सारे इष्ट-मित्र ,और संगी-साथी किनारा कर लेते हैं. उस क्षेत्र के बाहर आने के बाद हमें उनके परिवार में कैसे गिना जाता.
रिश्तेदार कहने को ,मां के सिवा मुझे कोई नहीं दिखाई देता .मामा हैं पर उन्हें कौन पूछता है .प्रश्न यही उठता कि पिता साथ नहीं तो क्या कोई चाचा-ताऊ-आदि भी नहीं परिवार में, जो साथ खड़ा हो !
उनके मन में यही आया कि कुछ कारण तो होगा ही .पति से अलग रह रही अकेली महिला कैसे सम्माननीय हो सकती है !किसी का सहारा लिए बिना दुनिया चलती है कहीं?
और मेरी माँ के लिए जिसके मन में ऐसी भावना हो उससे समझौता करना मेरे बस बस में नहीं था.
मीता ने मुझसे कहा था उन्हें कहने दो मैं तैयार हूँ . मान जाएगे धीरे-धीरे ,वे अनुकूल हो जाएँगे ,मुझे बहुत प्यार करते हैं .
पर मेरे मन ने गवाही नहीं दी
बिना माँ की बच्ची को पिता ने ही सँभाला था .मीता उनसे बहुत जुड़ी थी.उनका बहुत ध्यान रखती थी .वे दोनों इस प्रकार अलग हों यह मुझे गवारा नहीं हुआ , मीता का मन सदा अपराघ बोध से ग्रस्त रहता कि असहाय पिता को इस हाल में अकेला छोड़ दिया. घरवालों का विरोध ले कर हमें अपनी गृहस्थी नहीं बसानी.अभी और प्रतीक्षा करें, संभव है उनका मन अनुकूल हो जाय.
मेरे निर्णय को माँ का मौन समर्थन प्राप्त था.
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(क्रमशः)
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