सोमवार, 25 दिसंबर 2017

सप्ता धाये का फल पावै --


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हिन्दी भाषा में परम्परा से चले आते कुछ ऐसे शब्द हैं जिनका ,समय के प्रवाह और परिस्थितियों के फेर में , अपने पूर्व अर्थ से बहुत अपकर्ष हो चुका है.सामाजिक परिवर्तनों और सांस्कृतिक अवमूल्यन के कारण शब्द भी अपनी व्यञ्जना शक्ति और प्रभावशीलता खो कर सामान्य और रूढ़ हो जाते हैं.
ऐसा ही एक प्रचलित शब्द है - सुहाग ,जिसका तात्पर्य अहिवात या विधवा न होना,  अर्थात् पति का जीवित होना, यही सुहाग के लिये पर्याप्त है.फिर एक नई व्यंजना सामने आई  -जिसको पिया चाहे वही सुहागिन .
मूल रूप में  -सुहाग एक शब्द -मात्र नहीं यह व्यापक अर्थ से परिपूर्ण एक व्यंजक पद है. एक सांस्कृतिक अवधारणा है जिसमें नारी के सर्वांग-संपूर्ण जीवन की परिकल्र्पना -समाई है.सफल-सुखी नारी-जीवन का बोधक है यह छोटा-सा शब्द, 
सुहाग की परिभाषा कर उसे किसी सीमा में बाँधना संभव नहीं, पीढ़ियों की मान्यताओँ और आचार-व्यवहार  से पोषित धारणाएँ  लोकमन पर गहरी पकड़ रखती हैं और सदियों के संस्कार-संचित ऐसे शब्दों की अनूभूति-प्रवणता मंद नहीं होती (फ़ालतू की बौद्धिक  कसरतों से उसमें अर्थ -अनर्थ की संभावना कर ले ,कोई तो बात दूसरी है.)इस प्रकार के शब्दों का किसी दूसरी  भाषा में उचित अनुवाद संभव नही होता , क्योंकि किसी भाषा के शब्द ,जिन  मूल्य-मानों को वहन करते हैं वह उसकी समाजिक-सांस्कृतिक धरोहर है जिसे  दूसरी भाषाएँ स्वाभाविक रूप में ग्रहण और व्यक्त नहीं कर पाती .
इस शब्द का सही अर्थ समझने के लिये एक लोक-प्रचलित पद्यमय कथन 'आरी-बारी' दृष्टव्य है,जो स्त्रियाँ अपनी व्रत-पूजाओं में अक्षत-पुष्प हाथ में ले कर श्रद्धापूर्वक कहती- सुनती हैं . सुहाग की कामना करती कुमारी कन्या ,अपने भावी जीवन की परिकल्पना में देवी से कृपा-याचना करती है -
आरी-बारी -
' आरी-बारी ,सोने की दिवारी ,
तहाँ बैठी बिटिया कान-कुँवारी .
का धावै ,का मनावै ?
'सप्ता धावै,सप्ता मनावै .
सप्ता धाये का फल पावै ?
पलका पूत ,सेज भतार ,
अमिया तर मइको ,महुआ तर ससुरो .
डुलियन आवैं पलकियन जायँ .
भइया सँग आवें ,सइयाँ सँग जायँ .
चटका चौरो ,माँग बिजौरो ,
गौरा ईश्वर खेलैं सार .
बहुयें-बिटियाँ माँगें सुहाग-
सात देउर दौरानी ,सात भैया भौजाई,
पाँव भर बिछिया ,माँग भर सिंदुरा ,
पलना पूत, सेज भतार ,
कजरौटा सी बिटियां सिंधौरा सी बहुरियाँ ,
फल से पूत, नरियर से दमाद.
गइयन  की राँभन,घोड़न की हिनहिन .
देहरी भरी पनहियाँ ,कोने भर लठियाँ ,
अरगनी लँगुटियाँ
चेरी को चरकन ,
बहू को ठनगन
बाँदी की बरबराट,काँसे की झरझराट,
टारो डेली,बाढ़ो बेली,
वासदेव की बड़ी महतारी .
जनम-जनम जनि करो अकेली .'
मैं जानी बिटिया बारी-भोरी ,
चन मँगिहै ,चबेना मँगिहै ,
बेटी माँगो कुल को राज .
पायो भाग,
सप्ता# दियो सुहाग !
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(#सप्तमातृका) 
  सांसारिक जीवन में अपनी बहुमुखी भूमिका  निबाहती ,सुखी समृद्ध  गार्हस्थ्य  की धुरी के रूप में कल्याणमयी नारी का स्वरूप ही सुहाग की मूल अवधारणा है.
 - प्रतिभा सक्सेना.

शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2017

श्रीकृष्ण चरित्र का यथार्थ : एक दृष्टि .


पुरोवाक् -
भारतीय जन-मानस में श्रीकृष्ण की छवि, ईश्वर का पूर्णावतार होने के साथ परम रसिक नायक एवं प्रेम तथा करुणा के आगार के रूप में विद्यमान है .अपनी रुचि के अनुसार उसे इन दोनों के अलग-अलग अनुपातों में ढाल लिया जाता है.इन्हीं दोनों का गहरा आवरण उनके कठोर चुनौतियों भरे जीवन की वास्तविकताओं को गौण बना देता है .लेकिन गीता के गायक का व्यक्तित्व ,ठोस वास्तविकता से परिपूर्ण रहा है. 
      श्रीकृष्ण ने जिस धर्म की अनुशंसा की वह किसी परलोक के लिये नहीं , इसी लोक-जीवन के लिये ,शान्ति आनन्द और कल्याण का विधान है,जो समाज और व्यक्ति के जीवन को सुन्दर संतुलित और सरस बनाने का संदेश दे कर संगति ,समता एवं सहिष्णुतामय  जीवन की अपेक्षा करता है. वे सच्चे कर्मयोगी थे, जिन्होंने जो स्वयं जिया उसी का उपदेश दिया.जन्म से लेकर परमधाम प्रस्थान तक उनका जीवन संघर्षो में बीता. जनहित के लिये विषम स्थितियों से निरंतर जूझे, सब के प्रति जवाबदेह बन कर स्वयं में नितान्त निस्पृह,निर्लिप्त और निस्संग बने रहे.
       लोक कल्याण के लिये जो अपना ही अतिक्रमण कर गया वह व्यक्ति श्रीकृष्ण हैं . अनीति और अन्याय के विरोध में ,अपना मनोरथ सिद्ध करने को , किसी के या स्वयं के वचन का बहाना नहीं लिया .विषम स्थितियों को किसी भी तरह सम बनाना, समाज और व्यक्ति के लिये जो संगत और हितकारी हो वही करने को प्रेरित करते रहे . आगे का सारा भविष्य जिससे प्रदूषित हो जाये, जिसका निराकरण कभी न हो सके  उस स्थिति को टालने के लिये वे हर मूल्य पर तत्पर रहे.ऊपरी आदर्शों का आडंबर उन्होंने कभी नहीं पाला .उनका धर्म लोक-जीवन को सहज-स्वाभाविक एवं सुखमय बनाने की परिकल्पना लेकर चला था, नृत्य-गान आदि कलाओं से जीवन  में सरस ता का संचार होता रहे  वैयक्तिक विकृतियों का शमन और  मन का प्रसादन हो , जीवन आनन्द और कृतार्थता का अनुभव कर सके
       मानसिकता के उच्चतम स्तर पर प्रतिष्ठित उनका अदम्य व्यक्तित्व मानव-मात्र की मुक्ति का विधान कर गया . कंस के आतंक और षड्यंत्रों के बीच पल कर मानवता की रक्षा के लिये , प्रचलित मान्यताओं से विद्रोह की सीमा तक जा कर ,वे अन्याय एवं रूढ़ परिपाटियों का प्रतिकार करते रहे.
नारी को खाँचों की घुटन से निकाल कर ,उसकी मनुजोचित निजता और गरिमा को प्रतिष्ठित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . पशुबल से पराभूत की गई स्त्री को कलंकित मान कर त्याग देने की समाज-प्रचलित मानसिकता के निराकरण हेतु भौमासुर द्वारा अपहृता सोलह हज़ार नारियों को बंदी जीवन से मुक्त ही नहीं कराया उन्हें ,तिरस्कार से बचाने के लिये उनसे स्वयं विवाह करने का साहसिक कदम उठा कर , सामाजिक स्वीकृति और सम्मान प्रदान किया. नारी-पुरुष संबंधों का चिर-विवादित समाधान उनके संतुलित एवं उन्नयनकारी मैत्री-भाव में प्रतिफलित हुआ .
        मेरे मन में एक बात बार-बार आती है - अर्द्धांगिनी सहित छत्र-छँवर धारे, सिंहासनासीन ,बंधु-बाँधवों से सेवित प्रभुतासंपन्न भूपति के रूप में श्रीकृष्ण का चित्र मैंने कहीं नहीं देखा .देखा तो चक्र लेकर दौड़ते हुये ,रथ संचालित करते , गीता का उपदेश देते और देखा है ग्रामों के सहज-सरल परिवेश के बीच, गोप-परिवार के चपल बालक की कौतुक-क्रीड़ाओं वाली चर्या की झाँकियों में . श्रीकृष्ण का लोक-रंजक किन्तु अदम्य  कभी रूढ़ प्रतिमानों में नहीं बँधा - जूठन खाई,पीतांबर में पाञ्चाली के पदत्राण समेटे , युद्ध छोड़ भागे , स्वयं अपनी प्रतिज्ञा भंग करने में संकोच नहीं किया,मित्र से भगिनी का अपहरण करा दिया, हँसकर वंशनाश का शाप सिर धर लिया, अपने हित-साधन हेतु नहीं ,अनर्थों के निवारण के लिये अनिष्टों के निस्तारण के लिये . सबके कल्याण के लिये जो अपने ,यश-अपयश,सुख-दुख , हानि-लाभ से निस्पृह रहा हो , वही उच्चाशयी , श्रीकृष्ण के समान स्वयं अपना अतिक्रमण करने में समर्थ एवं सिद्ध-मति हो सकता है .
          अब थोड़ी चर्चा उनकी सखी ,मनस्विनी पाञ्चाली के संदर्भ में - इस नारी की प्रखरता और विदग्धता से हत पुरुष-वर्ग कितने रूपों में उस के विखंडन का, उसके गौरव को क्षीण करने का प्रयास करता है ,उसे अपमानित करने और नीचा दिखाने से कभी चूकता नहीं और विषम समय में सिद्धान्तों की आड़ ले कर स्वजन और गुरुजन भी किनारा कर जाते हैं .तब पग-पग पर विशृंखलमना होती है पाञ्चाली ,पर समेटती है अपने आप को  .कैसा कड़वा सच है कि अपने कर्तव्य पूर्ण करने के लिये , अपने दायित्व -निर्वहन के लिये नारी को स्वयं के प्रति कितना निर्मम होना पड़ता है , इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है- द्रौपदी .
               लेकिन कृष्ण जैसा सखा है उसके साथ - क्षीण होता मनोबल साधने को ,विश्वास दिलाने को कि तुम मन-वचन-कर्म से अपने कर्तव्य-पथ पर डटी रहो तो कोई बाधा सामने नहीं टिकेगी .तुम उन सबसे बीस ही रहोगी क्योंकि तुम्हारी बुद्धि, बँधी नहीं है ,विवेक जाग्रत है, निस्स्वार्थ भावनायें और निर्द्वंद्व मन है . पाञ्चाली के विषम जीवन की सांत्वना बने कृष्ण, उसे प्रेरित करते हुए आश्वस्त करते हैं कि दुख और मनस्ताप कितना ही झेलना पड़े , अंततः गरिमा और यश की भागिनी तुम होगी.और कृष्ण-सखी के जीवन में कृष्ण के महार्घ शब्द अपनी संपूर्ण अर्थवत्ता के साथ चरितार्थ होते हैं.
              मित्र के रूप में एक जीवन्त प्रेरणा बराबर  पाञ्चाली के साथ रही, जो प्रत्यक्ष कर गई कि विरोधी परिस्थितियों की निरंतरता में भी, असंपृक्त रह कर किस प्रकार व्यक्ति अपने निजत्व को अक्षुण्ण रख सकता है .
जाने कितने जन्मों के पुण्य जागते हैं तब ऐसे व्यक्ति का सान्निध्य मिल पाता है, जिससे जीवन कृतार्थ हो जाये. विपदाओँ से उबारने में सदा सहयोगी, सामाजिक विषमताओं को अपने नीति-कौशल से सम की ओर ले जाने वाला निष्काम कर्म-योगी कृष्ण और बिडंबनाओं से निरंतर जूझती तेजस्विनी पाञ्चाली की मित्रता एक उदाहरण है आज के देहधर्मी नर-नारियों के लिये कि संसार में बहुत-कुछ ऐसा है जिसकी अवधारणा, मानसिकता को उच्चतर स्तरों पर प्रतिष्ठित कर, जीवन को श्रेष्ठतर बना कर ,सांसारिक व्यवहारों का संचालन करती रहे . गिरावट और आक्रामक होती कामनाओँ से ग्रस्त आज की मनुष्यता को उबारने के लिये इससे बड़ा अवदान और क्या हो सकता है!
 नर-नारी के संबंध सदा से विविध रूपों में सामने आते रहे हैं .पारस्परिक संबंधों का जो  उज्ज्वल  रूप यहाँ चित्रित है वह बिंब-प्रतिबिंबवत् एक दूसरे की मनोभावनाओं को निरूपित करते हुये पारस्परिक प्रेरणा का स्रोत बनता है .देह के आकर्षण से परे दोनों की आत्मीयता जिस विश्वास पर आधारित है वह  सारे संबंधों को पीछे छोड़, मानव-जीवन के उच्चतर मान स्थापित करती है.  यह उपन्यास - कृष्ण-सखी .पूर्णावतार श्रीकृष्ण और याज्ञसेनी पाञ्चाली की मैत्री को आधार बना कर ऐसे ही घटनाक्रम की  मर्मकथा है. पूर्ण  आश्वस्ति और गहन निष्ठा से पूर्ण यह मैत्री जिसे मिल सके  उसका जीवन सचमुच धन्य हो जाता है . 
- प्रतिभा सक्सेना.






सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

कृष्ण सखी - एक प्रतिक्रया

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डॉ. प्रतिभा सक्सेना एक ऐसा नाम है जिनके नाम से जुड़े हैं उत्कृष्ट खण्ड-काव्य, लोक गीत, हास्य-व्यंग्य, निबंध, नाटक और जुड़ी हैं कहानियाँ, कविताएँ तथा बहुत सारी ब्लॉग रचनाएँ. विदेश में रहते हुए भी हिन्दी साहित्य की सेवा वर्षों से कर रही हैं. बल्कि यह कहना उचित होगा कि चुपचाप सेवा कर रही हैं. सीमित पाठकवर्ग के मध्य उनकी रचनाएँ अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं. इनकी प्रत्येक रचना उत्कृष्टता का एक दुर्लभ उदाहरण है और भाषा वर्त्तमान में लुप्त हो चुकी है. “कृष्ण-सखी” डॉ. प्रतिभा सक्सेना का नवीनतम उपन्यास है, जिसकी प्रतीक्षा कई वर्षों से थी.
विगत कुछ वर्षों से यह देखने में आया है कि पौराणिक उपन्यासों के प्रकाशन की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. इनमें से कुछ उपन्यास/ ग्रंथ पौराणिक पात्रों और घटनाओं को लेकर काल्पनिक कथाओं के आधार पर लिखे गये हैं तथा कुछ उन घटनाओं की अन्य दृष्टिकोण से व्याख्या करते हैं. यह सभी उपन्यास अत्यंत लोकप्रिय हुए. किंतु ध्यान देने की बात यह है कि सभी उपन्यास मूलत: अंग्रेज़ी में लिखे गये तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए उनका हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित किया गया, जो अंग्रेज़ी पाठक-वर्ग से इतर अपना स्थान बनाने में सफल हुआ.
कथानक
“कृष्ण सखी”, जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, कृष्ण और उनकी सखी मनस्विनी द्रौपदी के कई अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालता है. उपन्यास की कथा मूलत: महर्षि वेदव्यास रचित ग्रंथ “महाभारत” की कथा है. किंतु इसमें महाभारत की उन्हीं घटनाओं को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है जहाँ कृष्ण अथवा द्रौपदी की उपस्थिति है. अन्य घटनाओं का विवरण सन्दर्भ के रूप में अथवा उस रूप में उल्लिखित है, जिस रूप में वह घटना इनकी चारित्रिक विशेषताओं को रेखांकित करती है. मत्स्य-बेध, पाँच पतियों के मध्य विभाजन, वन गमन, सपत्नियों व उनकी संतानों का उल्लेख, कर्ण के प्रति मन में उठते विचार व द्विधाएँ, चीर हरण, कुरुक्षेत्र का महासमर, भीष्म से प्रश्न, पुत्रों की हत्या और अंतत: हिमाच्छादित पर्वत शृंखलाओं के मध्य हिम समाधि... यह समस्त घटनाक्रम पांचाली के सन्दर्भ में तथा कारागार में जन्म, मातुल द्वारा वध किये जाने की आशंका में भगिनी के जीवन के दाँव पर जीवन दान पाना, राधा तथा अन्य गोपियों के साथ रास रचाना, फिर उन्हें छोड़कर द्वारका प्रस्थान करना, सखा अर्जुन को प्रेरित कर निज बहिन का अपहरण करवाना, युद्ध में सारथि तथा एक कुशल रणनीतिज्ञ की भूमिका निभाना, गान्धारी का शाप स्वीकार करना, अश्वत्थामा को शापित करना तथा एक वधिक के वाण द्वारा मृत्यु को प्राप्त होना जैसी घटनाएँ कृष्ण के सन्दर्भ में प्रस्तुत की गयी हैं.
भाषा:
उपन्यास की भाषा पाठकों को संस्कृतनिष्ठ प्रतीत हो सकती है, किंतु मेरी दृष्टि में यह हिन्दी साहित्य की एक सुग्राह्य भाषा है. उपन्यासकार स्वयं एक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं.  उनकी समस्त रचनाओं में हिन्दी साहित्य की एक सुगन्ध पाई जाती है और जिन्होंने उन्हें नियमित पढा है, उनके लिये इस भाषा की मिठास कदापि नवीन नहीं हो सकती. व्यक्तिगत रूप से मेरा यह मानना है कि जिन उपन्यासों का उल्लेख मैंने इस आलेख के प्रारम्भ में किया है, उनके हिन्दी में अनूदित संस्करण के समक्ष “कृष्ण सखी” कैलाश के शिखर सा प्रतीत होता है. मौलिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक मूल्यों के आधार पर उपन्यास की भाषा एक गहरा प्रभाव छोड़ती है.
डॉ. प्रतिभा सक्सेना एक कथाकार, कवयित्री, नाटककार, गीतकार और उपन्यासकार हैं. इसलिये यह उपन्यास पढते हुए पाठक को इन सभी विधाओं की यात्रा का अनुभव प्राप्त होता है. जहाँ भाषा की सरसता और बोधगम्यता इसे एक काव्य का प्रवाह प्रदान करती है, वहीं दृश्यांकन एवं सम्वादों की सुन्दरता एक नाटकीय चमत्कार से कम नहीं है.

शैली:
प्लेटो की महान रचना “रिपब्लिक” में जिस प्रकार प्लेटो ने अपने गुरु सुकरात के साथ हुये सम्वादों के माध्यम से एक दार्शनिक एवं राजनैतिक विचारधारा का प्रतिपादन किया है, ठीक उसी प्रकार इस उपन्यास में भी कृष्ण और पांचाली के सम्वादों के माध्यम से उन दोनों के कुछ अप्रकाशित चारित्रिक पहलुओं को प्रकाश में लाने की चेष्टा की गयी है. कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर तथा कुछ नयी व्याख्याएँ भी इन सम्वादों के माध्यम से मुखर होती हैं. ऐसा प्रतीत होता है मानो कृष्ण और पांचाली मूल ग्रंथकार एवं वर्त्तमान उपन्यासकार के प्रभाव से मुक्त होकर अपने मन की बात एक दूसरे से व्यक्त रहे हैं और एक दूसरे के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हों. रचनाकार का प्रवेश मात्र उन परिस्थितियों में है जहाँ पाठकों के समक्ष पात्रों से विलग होकर कोई बात कहानी हो. द्रौपदी और कृष्ण के प्रश्नों के माध्यम से प्रतिभा जी ने उन सभी प्रश्नों के उत्तर और भ्रांतियों के स्पष्टीकरण प्रस्तुत किये हैं जो भिन्न भिन्न कालखण्ड में हम सबके मस्तिष्क में जन्म लेते रहे हैं.
उपन्यास एक रोमांचक चलचित्र का प्रभाव उत्पन्न करता है और दृश्यों का समायोजन इतना उत्कृष्ट है कि घटनाएं शब्दों के नहीं, चित्रों के माध्यम से मस्तिष्क में स्थान बनाती जाती हैं.

केन्द्रीय भाव:
उपन्यास का मुख्य उद्देश्य योगेश्वर कृष्ण और मनस्विनी द्रौपदी के विषय में जन साधारण में प्रचारित भ्रांतियों का उन्मूलन करना है. सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी ने अपने एक प्रवचन में कहा है कि भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम इस कारण नहीं कहा जाता कि उन्होंने पिता की आज्ञा मानी, युवराज होते भी राज्याभिषेक से वंचित रहे, वन के दुःख सहे, पत्नी का त्याग किया, संतान का वियोग सहा, अपितु इस कारण कहा जाता है कि जीवन में इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों को सहकर भी उन्होंने कभी दुःख का भाव अपने मुख पर नहीं आने दिया.
“कृष्ण सखी” में भी कृष्ण की प्रचलित छवि को खंडित किया गया है. प्रतिभा जी ने बताया है कि गोपियों के वस्त्र छिपा लेने के पीछे यह कारण था कि वे उन्हें उनके शील की रक्षा और उनकी तबिक भी त्रुटि से सम्पूर्ण समाज अभिशप्त न हो जाए (जैसा कि कंस के जन्म से हुआ) का पाठ पढ़ाना चाहते थे, सोलह हज़ार राजकुमारियों को मुक्त करवाकर उनसे विवाह कर समाज में उन्हें सम्मान दिलाया. यही नहीं वह कृष्ण जिनको कारागार में जन्म के साथ ही माता से विलग कर दिया गया और गोकुल में लालन पालन मिला, उसके जीवन के लिये भगिनी का जीवन बलिदान किया गया, निज बहिन सुभद्रा का अपहरण उसे योग्य वर दिलाने के लिये और दुराचारी से बचाने के लिये किया, युद्ध में शस्त्र न उठाने का प्रण भी भंग करना पड़ा. स्वयं लेखिका के शब्दों मे – उनका जीवन संघर्षों में बीता. सबके प्रति जवाबदेह बनकर भी नितांत निस्पृह, निर्लिप्त और निस्संग बने रहे.
दूसरी ओर मनस्विनी द्रौपदी एक आदर्श नारी का प्रतिनिधित्व करती है. प्रश्न करती है, उत्तर मांगती है और भीष्म तथा धर्मराज से अपने प्रति हुए व्यवहार का न्याय चाहती है. और इन सबके लिये वो भिक्षा नहीं मांगती, बल्कि अधिकार चाहती है. मनस्विनी द्रौपदी के चित्रण में लेखिका ने कहीं भी आक्रामक नारीवादी अभिव्यक्ति का प्रयोग नहीं किया है, अपितु स्वाभाविक एवं न्यायसंगत प्रश्नों और तर्कों का सहारा लिया है. “कृष्ण जैसा मित्र है उसका टूटता मनोबल साधने को, विश्वास दिलाने को कि तुम मन-वचन-कर्म से अपने कर्त्तव्य पथ पर डटी रहो तो कोई बाधा सामने नहीं टिकेगी.” पांचाली का चरित्र एक गौरवमयी ,यशस्विनी और समर्थ नारी को रूप में कृष्ण सखी के अर्थ को चरितार्थ करता है.
भाषा:
उपन्यास की भाषा पाठकों को संस्कृतनिष्ठ प्रतीत हो सकती है, किंतु मेरी दृष्टि में यह हिन्दी साहित्य की एक सुग्राह्य भाषा है. उपन्यासकार स्वयं एक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं.  उनकी समस्त रचनाओं में हिन्दी साहित्य की एक सुगन्ध पाई जाती है और जिन्होंने उन्हें नियमित पढा है, उनके लिये इस भाषा की मिठास कदापि नवीन नहीं हो सकती. व्यक्तिगत रूप से मेरा यह मानना है कि जिन उपन्यासों का उल्लेख मैंने इस आलेख के प्रारम्भ में किया है, उनके हिन्दी में अनूदित संस्करण के समक्ष “कृष्ण सखी” कैलाश के शिखर सा प्रतीत होता है. मौलिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक मूल्यों के आधार पर उपन्यास की भाषा एक गहरा प्रभाव छोड़ती है.
डॉ. प्रतिभा सक्सेना एक कथाकार, कवयित्री, नाटककार, गीतकार और उपन्यासकार हैं. इसलिये यह उपन्यास पढते हुए पाठक को इन सभी विधाओं की यात्रा का अनुभव प्राप्त होता है. जहाँ भाषा की सरसता और बोधगम्यता इसे एक काव्य का प्रवाह प्रदान करती है, वहीं दृश्यांकन एवं सम्वादों की सुन्दरता एक नाटकीय चमत्कार से कम नहीं है.

शैली:
प्लेटो की महान रचना “रिपब्लिक” में जिस प्रकार प्लेटो ने अपने गुरु सुकरात के साथ हुये सम्वादों के माध्यम से एक दार्शनिक एवं राजनैतिक विचारधारा का प्रतिपादन किया है, ठीक उसी प्रकार इस उपन्यास में भी कृष्ण और पांचाली के सम्वादों के माध्यम से उन दोनों के कुछ अप्रकाशित चारित्रिक पहलुओं को प्रकाश में लाने की चेष्टा की गयी है. कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर तथा कुछ नयी व्याख्याएँ भी इन सम्वादों के माध्यम से मुखर होती हैं. ऐसा प्रतीत होता है मानो कृष्ण और पांचाली मूल ग्रंथकार एवं वर्त्तमान उपन्यासकार के प्रभाव से मुक्त होकर अपने मन की बात एक दूसरे से व्यक्त रहे हैं और एक दूसरे के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हों. रचनाकार का प्रवेश मात्र उन परिस्थितियों में है जहाँ पाठकों के समक्ष पात्रों से विलग होकर कोई बात कहानी हो. द्रौपदी और कृष्ण के प्रश्नों के माध्यम से प्रतिभा जी ने उन सभी प्रश्नों के उत्तर और भ्रांतियों के स्पष्टीकरण प्रस्तुत किये हैं जो भिन्न भिन्न कालखण्ड में हम सबके मस्तिष्क में जन्म लेते रहे हैं.
उपन्यास एक रोमांचक चलचित्र का प्रभाव उत्पन्न करता है और दृश्यों का समायोजन इतना उत्कृष्ट है कि घटनाएं शब्दों के नहीं, चित्रों के माध्यम से मस्तिष्क में स्थान बनाती जाती हैं.

केन्द्रीय भाव:
उपन्यास का मुख्य उद्देश्य योगेश्वर कृष्ण और मनस्विनी द्रौपदी के विषय में जन साधारण में प्रचारित भ्रांतियों का उन्मूलन करना है. सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी ने अपने एक प्रवचन में कहा है कि भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम इस कारण नहीं कहा जाता कि उन्होंने पिता की आज्ञा मानी, युवराज होते भी राज्याभिषेक से वंचित रहे, वन के दुःख सहे, पत्नी का त्याग किया, संतान का वियोग सहा, अपितु इस कारण कहा जाता है कि जीवन में इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों को सहकर भी उन्होंने कभी दुःख का भाव अपने मुख पर नहीं आने दिया.
“कृष्ण सखी” में भी कृष्ण की प्रचलित छवि को खंडित किया गया है. प्रतिभा जी ने बताया है कि गोपियों के वस्त्र छिपा लेने के पीछे यह कारण था कि वे उन्हें उनके शील की रक्षा और उनकी तबिक भी त्रुटि से सम्पूर्ण समाज अभिशप्त न हो जाए (जैसा कि कंस के जन्म से हुआ) का पाठ पढ़ाना चाहते थे, सोलह हज़ार राजकुमारियों को मुक्त करवाकर उनसे विवाह कर समाज में उन्हें सम्मान दिलाया. यही नहीं वह कृष्ण जिनको कारागार में जन्म के साथ ही माता से विलग कर दिया गया और गोकुल में लालन पालन मिला, उसके जीवन के लिये भगिनी का जीवन बलिदान किया गया, निज बहिन सुभद्रा का अपहरण उसे योग्य वर दिलाने के लिये और दुराचारी से बचाने के लिये किया, युद्ध में शस्त्र न उठाने का प्रण भी भंग करना पड़ा. स्वयं लेखिका के शब्दों मे – उनका जीवन संघर्षों में बीता. सबके प्रति जवाबदेह बनकर भी नितांत निस्पृह, निर्लिप्त और निस्संग बने रहे.
दूसरी ओर मनस्विनी द्रौपदी एक आदर्श नारी का प्रतिनिधित्व करती है. प्रश्न करती है, उत्तर मांगती है और भीष्म तथा धर्मराज से अपने प्रति हुए व्यवहार का न्याय चाहती है. और इन सबके लिये वो भिक्षा नहीं मांगती, बल्कि अधिकार चाहती है. मनस्विनी द्रौपदी के चित्रण में लेखिका ने कहीं भी आक्रामक नारीवादी अभिव्यक्ति का प्रयोग नहीं किया है, अपितु स्वाभाविक एवं न्यायसंगत प्रश्नों और तर्कों का सहारा लिया है. “कृष्ण जैसा मित्र है उसका टूटता मनोबल साधने को, विश्वास दिलाने को कि तुम मन-वचन-कर्म से अपने कर्त्तव्य पथ पर डटी रहो तो कोई बाधा सामने नहीं टिकेगी.” पांचाली का चरित्र एक गौरवमयी ,यशस्विनी और समर्थ नारी को रूप में कृष्ण सखी के अर्थ को चरितार्थ करता है.
भाषा:
उपन्यास की भाषा पाठकों को संस्कृतनिष्ठ प्रतीत हो सकती है, किंतु मेरी दृष्टि में यह हिन्दी साहित्य की एक सुग्राह्य भाषा है. उपन्यासकार स्वयं एक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं.  उनकी समस्त रचनाओं में हिन्दी साहित्य की एक सुगन्ध पाई जाती है और जिन्होंने उन्हें नियमित पढा है, उनके लिये इस भाषा की मिठास कदापि नवीन नहीं हो सकती. व्यक्तिगत रूप से मेरा यह मानना है कि जिन उपन्यासों का उल्लेख मैंने इस आलेख के प्रारम्भ में किया है, उनके हिन्दी में अनूदित संस्करण के समक्ष “कृष्ण सखी” कैलाश के शिखर सा प्रतीत होता है. मौलिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक मूल्यों के आधार पर उपन्यास की भाषा एक गहरा प्रभाव छोड़ती है.
डॉ. प्रतिभा सक्सेना एक कथाकार, कवयित्री, नाटककार, गीतकार और उपन्यासकार हैं. इसलिये यह उपन्यास पढते हुए पाठक को इन सभी विधाओं की यात्रा का अनुभव प्राप्त होता है. जहाँ भाषा की सरसता और बोधगम्यता इसे एक काव्य का प्रवाह प्रदान करती है, वहीं दृश्यांकन एवं सम्वादों की सुन्दरता एक नाटकीय चमत्कार से कम नहीं है.

शैली:
प्लेटो की महान रचना “रिपब्लिक” में जिस प्रकार प्लेटो ने अपने गुरु सुकरात के साथ हुये सम्वादों के माध्यम से एक दार्शनिक एवं राजनैतिक विचारधारा का प्रतिपादन किया है, ठीक उसी प्रकार इस उपन्यास में भी कृष्ण और पांचाली के सम्वादों के माध्यम से उन दोनों के कुछ अप्रकाशित चारित्रिक पहलुओं को प्रकाश में लाने की चेष्टा की गयी है. कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर तथा कुछ नयी व्याख्याएँ भी इन सम्वादों के माध्यम से मुखर होती हैं. ऐसा प्रतीत होता है मानो कृष्ण और पांचाली मूल ग्रंथकार एवं वर्त्तमान उपन्यासकार के प्रभाव से मुक्त होकर अपने मन की बात एक दूसरे से व्यक्त रहे हैं और एक दूसरे के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हों. रचनाकार का प्रवेश मात्र उन परिस्थितियों में है जहाँ पाठकों के समक्ष पात्रों से विलग होकर कोई बात कहानी हो. द्रौपदी और कृष्ण के प्रश्नों के माध्यम से प्रतिभा जी ने उन सभी प्रश्नों के उत्तर और भ्रांतियों के स्पष्टीकरण प्रस्तुत किये हैं जो भिन्न भिन्न कालखण्ड में हम सबके मस्तिष्क में जन्म लेते रहे हैं.
उपन्यास एक रोमांचक चलचित्र का प्रभाव उत्पन्न करता है और दृश्यों का समायोजन इतना उत्कृष्ट है कि घटनाएं शब्दों के नहीं, चित्रों के माध्यम से मस्तिष्क में स्थान बनाती जाती हैं.

केन्द्रीय भाव:
उपन्यास का मुख्य उद्देश्य योगेश्वर कृष्ण और मनस्विनी द्रौपदी के विषय में जन साधारण में प्रचारित भ्रांतियों का उन्मूलन करना है. सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी ने अपने एक प्रवचन में कहा है कि भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम इस कारण नहीं कहा जाता कि उन्होंने पिता की आज्ञा मानी, युवराज होते भी राज्याभिषेक से वंचित रहे, वन के दुःख सहे, पत्नी का त्याग किया, संतान का वियोग सहा, अपितु इस कारण कहा जाता है कि जीवन में इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों को सहकर भी उन्होंने कभी दुःख का भाव अपने मुख पर नहीं आने दिया.
“कृष्ण सखी” में भी कृष्ण की प्रचलित छवि को खंडित किया गया है. प्रतिभा जी ने बताया है कि गोपियों के वस्त्र छिपा लेने के पीछे यह कारण था कि वे उन्हें उनके शील की रक्षा और उनकी तबिक भी त्रुटि से सम्पूर्ण समाज अभिशप्त न हो जाए (जैसा कि कंस के जन्म से हुआ) का पाठ पढ़ाना चाहते थे, सोलह हज़ार राजकुमारियों को मुक्त करवाकर उनसे विवाह कर समाज में उन्हें सम्मान दिलाया. यही नहीं वह कृष्ण जिनको कारागार में जन्म के साथ ही माता से विलग कर दिया गया और गोकुल में लालन पालन मिला, उसके जीवन के लिये भगिनी का जीवन बलिदान किया गया, निज बहिन सुभद्रा का अपहरण उसे योग्य वर दिलाने के लिये और दुराचारी से बचाने के लिये किया, युद्ध में शस्त्र न उठाने का प्रण भी भंग करना पड़ा. स्वयं लेखिका के शब्दों मे – उनका जीवन संघर्षों में बीता. सबके प्रति जवाबदेह बनकर भी नितांत निस्पृह, निर्लिप्त और निस्संग बने रहे.
दूसरी ओर मनस्विनी द्रौपदी एक आदर्श नारी का प्रतिनिधित्व करती है. प्रश्न करती है, उत्तर मांगती है और भीष्म तथा धर्मराज से अपने प्रति हुए व्यवहार का न्याय चाहती है. और इन सबके लिये वो भिक्षा नहीं मांगती, बल्कि अधिकार चाहती है. मनस्विनी द्रौपदी के चित्रण में लेखिका ने कहीं भी आक्रामक नारीवादी अभिव्यक्ति का प्रयोग नहीं किया है, अपितु स्वाभाविक एवं न्यायसंगत प्रश्नों और तर्कों का सहारा लिया है. “कृष्ण जैसा मित्र है उसका टूटता मनोबल साधने को, विश्वास दिलाने को कि तुम मन-वचन-कर्म से अपने कर्त्तव्य पथ पर डटी रहो तो कोई बाधा सामने नहीं टिकेगी.” पांचाली का चरित्र एक गौरवमयी ,यशस्विनी और समर्थ नारी को रूप में कृष्ण सखी के अर्थ को चरितार्थ करता है.
अंत में:
उपन्यास का कलेवर आजकल जिस प्रकार के उपन्यास बाज़ार में उपलब्ध है उसके समकक्ष रखने का प्रयास प्रकाशक “शिवना प्रकाशन” द्वारा किया गया है. आवरण चित्र मनस्विनी द्रौपदी को पारम्परिक रूप में दर्शाता है, जबकि उपन्यास की माँग उसके सर्वथा विपरीत है. चित्रकार द्रौपदी की विशेषताओं से नितान्त अनभिज्ञ है, उसकी विपुल केश-राशि के स्थान पर दो-चार लटें दिखा कर दीनता में और वृद्धि कर दी है, केशों से आच्छादित हो कर वह अधिक गरिमामयी और वास्तविक लगती . ग्राफिक्स की मदद कम ली गई है जिसके   आवरण थोड़ा फीका दिखता है.
पौने तीन सौ पृष्ठों के इस उपन्यास का मूल्य रु.३७५.०० हैं, जो बाज़ार के हिसाब से अधिक है. मैंने इस उपन्यास की मूल पांडुलिपि पढ़ी है, इसलिए दावे के साथ कह सकता हूँ की प्रकाशक ने पुस्तक “प्रकाशित” नहीं की है बल्कि “छाप दी है”. क्योंकि अनुमानतः ९०% पृष्ठों में वाक्य एक पंक्ति में बिना विराम चिह्न के समाप्त होता है तथा दूसरी पंक्ति में विराम चिह्न से आरम्भ होता है. टंकण की त्रुटियाँ जैसी पांडुलिपि में थीं हू-ब-हू उपन्यास में भी देखी जा सकती हैं. संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि प्रूफ-रीडिंग की ही नहीं गई है.
उपन्यास में सबसे निराश करने वाली बात यह है कि रचनाकार की ओर से कोई वक्तव्य नहीं है – यथा उपन्यास की रचना प्रक्रिया, रचना के सृजन का मुख्य उद्देश्य, पाठकों के नाम सन्देश, आभार आदि. लेखिका की ओर से यह पुस्तक कृष्ण भगवान को समर्पित है. पुस्तक के प्रारम्भ में उपन्यासकार का परिचय या भूमिका या किसी अन्य साहित्यकार, मित्र अथवा सहयोगी द्वारा नहीं दिया गया है.
आजकल जितने भी उपन्यास “बेस्ट सेलर” की श्रेणी में आते हैं, उनसे यह उपन्यास कहीं भी उन्नीस नहीं है, लेकिन अप्रवासी लेखक के लिये एक प्रबंधन टीम द्वारा पुस्तक का विज्ञापन अथवा मार्केटिंग करना संभव नहीं, इसलिए यह उपन्यास, उपन्यास न होकर एक शृंखलाबद्ध ब्लॉग पोस्ट का पुस्तक संस्करण भर होकर न रह जाए इसका दुःख होगा मुझे व्यक्तिगत रूप से.
- सलिल वर्मा.
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मंगलवार, 26 सितंबर 2017

श्री सलिल वर्मा द्वारा कृष्ण-सखी - एक प्रतिक्रिया ,पर मैं जो कहना चाहती हूँ -

श्री सलिल वर्मा द्वारा कृष्ण-सखी - एक प्रतिक्रिया ,पर मैं जो कहना चाहती हूँ -
कृष्ण -सखी का यह मूल्यांकन ऐसा लगा जैसे पूरी तरह रचना के गहन में प्रविष्ट होकर सम्यक् दृष्टि को साक्षी बना कर क्रम-बद्ध आकलन किया गया हो .
रचनाकार के साथ जुड़ कर अंतरंग का ,और सजग-सचेत मस्तिष्क से बाह्य पक्षों का संतुलन जहाँ संभव हो जाये वहाँ रचना का होना अर्थपूर्ण हो जाता है ..सलिल ,तुमने यह संभव कर दिया.
यह बौद्धिक-श्रम-साध्य कार्य तुमने जिस निपुणता से किया मैं विस्मित हूँ ,तुम्हारे विश्लेषण ,विवेचन और निर्धारण की कुशलता से प्रभावित हूँ ,साहित्य की तुम्हारी परख पर गर्वित भी हूँ .
हाँ,मैं तुमसे सहमत हूँ कि कवर-पेज के चित्र के साथ उपन्यास के घटनाक्रम और चरित्र की संगति नहीं बैठती. बस ,होता यह है कि श्रीकृष्ण और द्रौपदी का नाम सुनते ही साधारणतया लोगों का मन चीरहरण और द्रौपदी की पुकार पर पहुँच जाता है .मुखृपृष्ठ के अंकन में यही हुआ है. उपन्यास के कथा-क्रम में न चीरहरण का दृष्य है न पाँचाली के दैन्य का चित्रण,वह अनन्य रूपसी विपुल केश राशि की धारणकर्त्री थी यह भी उस चरित्र का सत्य है- तुम्हारी सूक्ष्म दृष्टि धन्य है . तुमने हर तथ्य पर ध्यान दिया और दिलाया.
एक और बात- प्रूफ़ पढ़ने को मैं तैयार थी ,उनसे कहा भी था पर वे अपने यहां ही वह काम करना चाहते थे. भूमिका भी मेरी मान्यताओं को स्वर देती , तैयार थी -उसे भी सामने आने का अवसर नहीं मिला . उपन्यास में प्रकाशन के लिये उसकी आवश्यकता नहीं समझी गई इस आधार पर कि कथाक्रम स्वयं अपनी बात कह लेगा .
यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक समझती हूँ
उन दिनों मेरे पति को स्ट्रोक पड़ा था. मैं प्रकाशन से भी नितान्त उदासीन थी. मेरी मित्र शकुन्तला जी प्रारंभ से ही इस उपन्यास को प्रकाशित करवाने को उत्सुक थीं ,अपने प्रयासों से उन्होंने सारी व्यवस्था की -उनके मन में अपार लगन और मेरे लिये शुभाशंसा ही उन्हें प्रेरित कर रही थी .इस बड़े काम का सारा श्रेय शकुन्तला जी को ही है कि उन्होंने आगे रह कर सब-कुछ कराया. मैं तो सोच भी नहीं सकती थी कि इतनी शीघ्रता से उपन्यास छप जायेगा ('छप गया' प्रकाशन की ओर से यह सूचना पाकर मैं सचमुच विस्मित हो गई थी).मैं उन की आभारी हूँ कि आज मेरी एक पांडुलिपि पुस्तकाकार रूप में सामने है और हमलोग उस पर संवाद कर सके हैं .और भी बताऊ -उन्हीं ने बहुत उत्साहपूर्वक ,अपनी विशेष पहुँच और प्रयत्नों से उसका विमोचन भी,सैन- फ्रान्सिसको स्थित भारत के कांउसल जनरल द्वारा सुप्रसिद्ध बर्कले वि.वि. में संपन्न होना संभव कििया. उपन्यास मेरे हाथ में भी नहीं आया था - तब तक मैने देख भी नहीं पाया था..और पहले ही शकुन्तला जी ने किसी प्रकार एक्सप्रेस मेल से प्रतियां मँगा कर विमोचन कार्य भी संभव करा दिया - मैं उनकी चिर-ऋणी हूँ.
इन दिनों भी मैं अपनी समस्याओँ से मुक्त नहीं हूँ ,सलिल का यह आलेख पढ़ उसी दिन लिया था ,लिख आज पाई हूँ .बहुत शान्ति से नहीं बैठ पा रही हूँ अभी भी , जब तक श्री मान जी घर नहीं आ जाते .जो लिख पाई उससे ही मेरी बात समझ लेना ,जो छूट गया उसके लिये क्षमा माँगती हूँ
तुम सलिल ,उसका मूल्यांकन कर मुझे गौरवान्वित कर रहे हो .साथ में और भी कितने सहृदयजन अपने उद्गार दे कर मेरा मान बढ़ा रहे हैं.
मैं सबकी आभारी हुई .
- प्रतिभा सक्सेना.

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

जहँ-जँह चरण पड़ें ....

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              इंसानी कारस्तानियों से तो अब सारी दुनिया पनाह माँगने लगी है .एक छोटा सा उदाहरण अभी हाल ही में सामने आया है.अमेरिका का, अपनी विविधता के लिये विख्यात येलोस्टोन नेशनल पार्क , जो इतना विशाल है कि  तीन राज्यों में - मोंटाना,व्योमिंग और आइडाहो -फैला है . इसे  धरती मां की जीवंत प्रयोगशाला कह सकते हैं जिस में विकास और विनाश के रहस्य अध्ययन करने का पूरा पूरा अवसर है.पृथ्वी के निर्माण और संचालन प्रक्रिया को समझने के लिए यह क्षेत्र आदर्श है , यही नहीं यहाँ ११,००० वर्षों से मानवीय गतिविधियां निर्बाध रूप से चल रही हैं इस लिए जैाविक और भूतलीय विविधताओं का सिलसिलेवार लेखा मौजूद है.  
                    ये मनुष्य नामक जीव हर जगह अपनी टाँग अड़ाने पहुँच जाता है .प्रकृति के सारे  सुनियोजित कार्यों और सार्थक व्यवहारों को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है -बिना जाने कि परिणाम क्या होगा .नेशनल पार्क सर्विस की स्थापना के बाद से १९१६ में इसे उसके अधीन कर दिया गया. और  जंगल के प्राकृत नियमों की जगह इंसानी व्यवस्था के प्रभाव में आने लगा.उसे सिर्फ़ अपनी पड़ी है.प्रकृति को सब का सब-कुछ
आगे भविष्य तक का सोच कर आगे बढ़ना होता है. होता है .एक पूरी शृंखला पड़ी है उसके लिये - जड़ से लेकर चेतना के उच्चस्तरों तक .जिन्हें हम जड़ समझते हैं ,भू-तल,नदी पर्वत से लेकर  उद्भिज अंडज,योनिज सब अपने संपूर्ण भाग-अनुभागों  विभागों सहित .और सब में  ताल-मेल बैठाने का दायित्व सँभालती है .सारे एक दूसरे को प्रभावित करते हुये और होते हुये.पशु-पक्षियों से लेकर वनस्पतियाँ ,नदियाँ मिट्टी तक आपसी तालमेल से जुड़े रहते हैं ,एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं और करते हैं.सब में ऐसी   घनिष्ठता कि एक कड़ी में व्यवधान पड़ेतो सारी शृंखला हिल जाये.सच में तो यही उसका कारॆॆॆ कार्यक्षेत्र है, उसकी प्रयोगशाला है जहाँ अनगिनती प्रयोग लगातार चलते  हैं -न समय की कोई सीमा  न सामग्री की .अतुल भंडार है उसका ,जब जो चाहती है उगा लेती है.एक पेड़ के लिये सैकड़ों बीज एक फल के लिये अऩगिन फूल . और  मूर्ख आदमी समझे बैठा है उसके सुख  के लिये हैं ये सब.यह आयोजना बड़ी लंबी-चौड़ी है.लयबद्धता के साथ ऋतु-क्रम में सारे संतुलन बैठाने की सामर्थ्य प्रकृति के मदरबोर्ड की जीवन्त प्रोग्रामिंग से ही हो सकती  है ..
                 प्राकृतिक जीवन के सामान्य कार्य संपादन तक की अक्ल या  तो है नहीं चल पड़ता है  अपना फ़ितूर लेकर .यहाँ भी सुनियोजित  शृंखला की घनिष्ठ कड़ियों में तोड़-मोड़ करने लगा .जंगल का सारा संतुलन बिगाड़ कर  रख  दिया. सब गड़बड़ होने लगा - नदियाँ विध्वंस पर उतारू हो गई ,भूमि कटने  लगी जंगल  तरुहीन होने लगे,पक्षी पलायन कर गये. हरा-भरा प्रदेश  उजाड़ होने लगा.प्रकृति की योजना में सेंध लगा  सारी व्यवस्था भंग हो गई .
               उसने किया ये  कि बेकार की आफ़त समझ कर जंगल से भेड़ियों का  सफ़ाया कर दिया -70 साल तक भेड़िया रहित बनाये रखा रहा  जंगल को . परिणामतः  हिरणों की भरमार हो गई ,दुर्लभ और उपयोगी वनस्पतियाँ उनके चराव से नष्ट होने लगीं.छोटे पौधे पत्रहीन हो सूख गये ,नये वृक्ष उगना बंद ,पुराने जर्जर.  पक्षी आश्रयहीन हो पलायन कर गये.बीवर जो नदियों में बाँध  बना कर उन्हें संयमित करते थे पलायन कर गये.नदियों का प्रवाह अनियंत्रित हो मनमानी करने लगा.पशु-पक्षियों के बिना बीजों का बिखराव कैसे हो  ,ऊपर से बढ़ता जाता हिरणों की चराव ,हरा-भरा वन उजड़ कर मरुथल बनने लगा
                यह सब  था आदमी के दिमाग़ी फ़ितूर का नतीजा. खिड़कियाँ कुछ खुलीं तो 1995 में फिर से  भेड़ियों का झुंड  जंगल में भेजा गया .जीवन व्यवस्थित होने लगा  नवागतों के  शिकार से हिरणों की संख्या घटी ,धरती पर वनस्पतियाँ पनपने लगीं .पौधे पनपने बड़े होने से पक्षियों की चहक फिर गूँजने लगी . उन्होंने फल कुतर-कुतर कर दूर-दूर तक बीज बिखेरे, नई वृक्षावियाँ सज गईँ . छः-सात वर्षों में जंगल लहलहा उठा.
बीवर लौट आये नदियों पर बाँध बनाने लगे ,नदियाँ संयत हुईं.जलपक्षी बिहार करने लगे.सियारों को भी मारा भेड़ियों ने ,परिणामतः  खरगोशों और चूहों की संख्या बढ़ी ,लोमड़ियाँ ललचाईं ,फिर उनके खाने से बचे अवशेषों पर बाज़-गिद्धों को आमंत्रण मिला.फलदार पेड़ों ने भालुओँ को दावत दी, जिनके आने से हिरण और भेड़ियों पर नियंत्रण हुआ.बीवरों के बाँधों से नदियों की मनमानी नहीं चली ,मिट्टी का कटान रुक गया.सारा क्रम व्यवस्थित हो गया.भेड़ियों की आवक क्या हुई  जंगल का जीवन फिर गुलज़ार हो गया .
               यहाँ कहीं कुछ भी व्यर्थ या असंबद्ध नहीं.यों देखा जाय तो मनुष्य भी उसी शृंखला की एक कड़ी है ,उसका भी शेष सबसे घनिष्ठ संबंध है .एक ही ऋत सबका संचालक - पर कैसा दुर्मति  है , इंसान प्रकृति के तारतम्यमय जीवन में दखलंदाज़ी कर  सारी समरसता विकृत कर डालता है. 
   आदमी नाम का ये प्राणी कब क्या करेगा कोई ठिकाना नहीं , दिमाग़ हमेशा किसी खुराफ़ात के चक्कर में रहता -रातों में नकली  रोशनी में काम करता है , दिन में रोशनी के रास्ते बंदकर आराम करता है.न समय पर जागता है न समय से सोता है .खाने को जाने क्या अल्लम-गल्लम ,पीने को कुछ विचित्र मिश्रण ,पहनने को अजीब ढंग के चिपके ,ढीले,बेतुके ,बनावटी कपड़े . हवा-पानी ,ज़मीन-आसमान हर जगह कुछ न कुछ लफड़े. अपनी सारी  सहजवृत्तियाँ कुंठित कर ली ,लगता है कुछ समय में ये भी भूल जायेगा कि जीवों में किस जाति का प्राणी है .किताबें खोल कर पता करना पड़ेगा कि सृष्टि के विकास क्रम में कहाँ खड़ा है.
यही सब देख कर अब तो  विश्वास हो चला है   -
                'जहँ जहँ चरण पड़ें मनुजन के तहँ-तहँ बंटाढार '.
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शनिवार, 29 जुलाई 2017

हम भी हैं पाप के भागी -

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रात्रि आधी से अधिक बीत चुकी थी ,हमलोगों को लौटने में बहुत देर हो गई थी ,उस कालोनी में अँधेरा पड़ा था.कारण बताया गया कि रात्रि-चर और वन्य-प्राणी भ्रमित न हों इसलिये रोशनियाँ बंद कर दी गई हैं.मन आश्वस्त हुआ .
पिछले दिनों एक समाचार बहुत सारे प्रश्न जगा गया था-  ऋतु-क्रम में होनेवाली अपनी प्रव्रजन यात्रा में दो हज़ार पक्षी टोरेंटो से जीवित नहीं लौट सके. जी हाँ ,दो हज़ार पक्षी . प्रव्रजन  क्रम में काल का ग्रास बन गये. प्रकृति के सुन्दर निष्पाप जीव मनुष्य के सुख-विलास के, उसकी असीमित सुख- लिप्सा की भेंट चढ़ गये.दो हज़ार पक्षी !वहीं के वहीं दम तोड़ गए. रात में मानवकृत रोशनियों से भरमा कर उड़े ,ऊंची इमारतें अड़ी खड़ी थीं ,खिडकी के शीशों में खुले आकाश और वनस्पतियों के प्रतिबिंब, जिन्हें देख अच्छा खासा आदमी भरमा जाये ,पूरे वेग से उडान भरी .अगले ही क्षण  ज़ोरदार टक्कर खाकर टूटे पंख और घायल शरीर ले  होश-हवास गुमा धरती पर आ गिरे .कैसी यंत्रणामय  मृत्यु रही होगी !
गगनचुंबी इमारतें ,बनावटी रोशनियाँ और शीशेदार खिड़कियाँ - बेचारे पक्षी विवश और भ्रमित होते रहे - ठंडी हवाओं में ,राह रोकती इमारतों के कारण उड़ न सके ,शीत से जम गये, रात को कृत्रिम रोशनी उन्हें भरमा  देती ,दिन में खिड़कियों के शीशों में वृक्ष-वनस्पतियोंवाले आकाश के प्रतिबिंबों से भ्रमित  वेग से उड़ते , टकराते ,घायल हो  गिरते, तड़पते मरते  रहे .उन्होंने प्रकृति के अनुकूल आचरण किया था - काहे की सज़ा मिली ?मनुष्य अपनी खुराफ़ातों से बाज़ नहीं आता ,अपने स्वार्थ के लिये दूसरों की बलि चढ़ा देता है .

घटना टोरेंटो की है पर उसके पीछे का कटु यथार्थ ,किसी न किसी रूप में सारी दुनिया की असलियत सामने रख रहा है. हम भी उसी  दुनिया के भोगी हैं - इस पाप के भागीदार !अपने भीतर झाँक कर देखें -क्या सबकी आवश्यकताओं का ध्यान रख हम अपनी ज़रूरत भर का ले रहे हैं या सबका हिस्सा हड़प रहे हैं.अपने छोटे से स्वार्थ पूरने को  निसर्ग के तत्वों को प्रदूषित किये जा रहे हैं.दूसरों का जीवन अँधेरा कर रहे हैं. अन्य जीवधारियों का हक छीन कर ,उन्हें जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित कर ,आज का सभ्य कहलानेवाला आदमी अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाये चला जा रहा है . नदियाँ इतनी प्रदूषित कर डालीं कि जल जीवन के योग्य नहीं रहा,  बेबस प्राणी कहाँ जा कर अपनी प्यास बुझायें .धरती, आकाश, सागर कोई ठौर निरापद नहीं रहने दिया. अंतरिक्ष में कूड़े का ढेर इकट्ठा कर दिया .सरल जीवन को जटिल बना कर रख दिया .न शान्ति से रह पाता है न दूसरों को चैन लेने देता है. 
अपनी बेलगाम ज़रूरतों के कारण कितने स्वार्थी हो गया मानव समाज , तृष्णाओँ की कोई सीमा रही ही नहीं .प्रकृति ने जीव-मात्र की तुष्टि और पुष्टि का विधान किया था .इसी क्रम में मनुष्य़ को सर्वाधिक विकसित ,समर्थ और बुद्धिमान बनाया कि वह सबका संरक्षक-सहायक बन अपना दायित्व निभाए . पर वही अब सब के संताप का कारण बन गया है.इस अति का प्रतिफल प्रकृति देगी ज़रूर ,किसी न किसी रूप में,आज नहीं तो कल .
         हमें लौटना होगा प्रकृति की ओर ,सहजताकी ओर . यह बोध जागना बहुत ज़रूरी है कि सब के साथ सहभागिता निभा कर ही हम इस संसार को रहने योग्य बना सकते हैं ,अन्यथा हमारे लिये भी कहीं सुरक्षित ठौर नहीं बचनेवाला .
प्रकृति की योजना का अनुसरण करते निरीह जीवधारियों की प्यास ,तृप्ति पाती रहे ,साँसें निरापद रहें. रात्रियाँ ,काल का ग्रास बने भ्रमजाल का पर्याय न बन विश्राम-प्रहर बनी रहें. चेत जाना है हमें कि सृष्टि की विविधता और निरंतरता बनी रहे. 

बुधवार, 19 जुलाई 2017

आगे-आगे देखिये होता है क्या ...

* जन्म से लेकर मृत्यु तक हम वस्त्रों में ही लिपटे रहते हैं.
वस्त्र-विन्यास का यह तीसरा युग है . पहला युग - प्राकृतिक उपादानों से निर्मित बाह्य तत्वों से ,शरीर के संरक्षण के लिये,
दूसरा - फ़ैशन के लिये .परिधानों  का चयन - .रुचिपूर्ण ढंग से अच्छा लुक देकर सजाने,दिखाने के लिये .
इसी क्रम में  1935 से सिंथेटिक फ़ाइबर चलन में आया ,जो प्राकृतिक वस्त्रों से अधिक दमदार,अधिक क्षमता-संपन्न, विशेष कार्यो के लिये उपयोगी-,स्ट्रानट्स के लिये ,एंटी वेलेस्टिक वेस्ट्स,,अधिक तापरोधी,अग्निशामकों और कार रेसर्स के लिये विशेष उपयोगी.
ये तो आपने सुन ही लिया होगा कि दूध से कपड़े बनाने में सफलता मिल गई है. जी हाँ ,दूध का प्रोटीन-नीले काले भूरे रंगों में टेक्सटाइल रेशम की तरह मुलायम -सूँधने में दूध की कोई महक नहीं. इसका श्रेय है आंके डोमास्के को जो डिज़ाइनर हैं और माइक्रोबायोलॉजिस्ट भी.ये कपड़े एकदम ईको फ़्रेंडली हैं , खाया भी जा सकता है.
और अब तीसरे क्रम में सचेत बोध वाले वस्त्र -- यह वस्त्र-विन्यास निष्क्रिय होकर शरीर को केवल  ढाके न रह कर .पहननेवाले की सुरक्षा के लिये जुम्मेदारी से संपन्नभी निभाएगा.
तीसरा चरण निरंतर आगे बढ़ता जा रहा है.
न्यूयार्क की सेंसटेक्स एक स्मार्ट टीशर्ट के लिये प्रयत्नशील हैं जो कांडक्टिव फ़ाइबर्स से रचित है ,जिनसे छोटे ट्रांसफ़ार्मर फ़ीड होते हैं ,हृदय की धड़कन,रक्त में आक्सीज़न,साँस की गति,तापमान आदि को मानिटर करते रहते हैं - इन शर्ट्स को पहनने-योग्य मदर बोर्ड कहा जा सकता है.शर्ट में बुने हुये कांडक्टिव रेशों के द्वारा बेतार के ट्रांसमीटर को सूचनाएँ जाती हैं जो इंटरप्रेट होकर अस्पताल के मानीटरिंग स्टेशन पहुँचती हैं.
इसके आविष्कारक जार्जिया के टेक्नालाजी के प्रोफेसर सुन्दरेसन जयरामन हैं
यह ,टी शर्ट देखने में साधारण टीशर्ट जैसी लगती है ,मेटीरियल थोड़ा-सा मोटा ,Ace bandage जैसा,.जिसमें कई पोर्ट्स , फ़ोन के जैक समान संयोजकों से युक्त हैं.  उन्होंने यह भी बताया कि सेंसर्स रोशनी में वीडियो का काम करते हैं ,वैसे ही जैसे एक GPS के सिग्नल्स में,
तो अब भविष्य की पोशाकें   शरीर पर अपनी सक्रिय भूमिका निबाहेंगी
शिशु मृत्यु सिंड्रोम, अग्निशामक-दस्तों आदि की ज़रूरत के अनुसार  विशेष संचालकों की व्यवस्था भी होने लगी है.
ब्रिटिश रिटेलर Mark&Spencer के टेक्नालाजी प्रमुख, इयान स्काट का कहना है कि कुछ वर्षों में हम इंटेलिजेंट ब्रा बाज़ार में ला सकते हैं .ये स्पोर्ट ब्रा जो स्ट्रेस , झटकेआदि को सेंस कर अपनी डायमेंशन एडजस्ट कर लेगी और अंगों का पूरा सहारा  बनेगी ,जैसे  खेल दौड़ आदि के झटकों भाँप कर  अपने आप अनुकूलता बना कर शरीर को संरक्षित रखना.
लंदन में फ़िलिप्स डिज़ाइन नामक यूरोपियन व्यवसायी की  लैब में पहनने योग्य इलेक्ट्रानिक्स का स्वप्नागार है .यहाँ पोशाकें तैयार की जाती हैं..इसमे लिनन के ऐसे एप्रन बनते हैं जिनमें पावर प्वाइंट और बिल्ट इन माइक्रोफोन संलग्न हैं ,जिनसे रसोई के एप्लीएंसेज़ बिना हाथ लगाये संचालित हों.जैसे हाट प्लेट आन-आफ़ करना ,कोई रेसिपी स्क्रीन पर दिखाना आदि.लेकिन अभी यह विक्रय के लिये नहीं  केवल ्प्रदर्शन  के लिये.. बाज़ार के आइटम में एक इलेक्ट्रानिक जैकेट (ICD +) जिसेमें  MP3 ऑडियो प्लेयर और सेलफ़ोन ,कालर में माइक्रोफ़ोन,आदि संलग्न हैं. इसमें और एक snazzy लुकिंग पाकेट्स और सिले हुये तारोंवाली जाकेट में थोड़ा ही फ़र्क है.
इसी प्रकार संगीत की लय और धुन से ताल और प्रकाश के प्रभाव देना भी गायिका या नर्तकी की वस्त्र-योजना में सम्मिलित हो जायेगा.  लंदन की एक अग्रदर्शी डिज़ाइनर कैथेरीन से जब पूछा कि क्या वह बोलने वाले कपड़े पसंद करेगी ?
वह बोली," बिलकुल नहीं , कहीं ऐसा न हो कि कपड़े झ़ट् से हमीं को टोक दें  -  हट,झूठे कहीं के ..कह कर'
अब विकसित टेक्नालाजी वाले उत्पादों पर काम हो रहा है,जहाँ कपड़े में ही इलेक्ट्रानिक्स अनुस्यूत  हैं. वस्त्रों की भूमिका बदलती जा रही है.
जीवन में आने वाली समस्याओं के लिये प्राकृति के भंडार में   समाधानों की अपार शृंखला विद्यमान है. बस, ज़रूरत है तो समझने और उचित ढंग से उपयोग करनेवाले  की.
मांट्रियल की नेक्सिया बाइटेक्नालाज़ी कंपनी के संचालक जेफ़ टर्नर, स्पाइडर सिल्क  उत्पादन योजना पर कार्यरत हैं. 42 वर्षीय टर्नर मांट्रियल में उस कंपनी के हेड हैं जहाँ स्पाइडर सिल्क का उत्पादन होता है .उनकी कंपनी  मकड़ी से सबक ले रही है .मकड़ी के जाले का रेशा स्टील के से पाँच गुना मज़बूत होता है.  उसमें खिंच जाने की भी क्षमता होने के कारण वस्त्र-विन्यास के लिये अधिक उपयुक्त है .अत्यंत उत्साही टर्नर का कहना है प्रकृति के पास जीवन की समस्याओं के समाधान की पूरी शृंखला है .उसकी अपार लीला का करिश्मा कब से चला आ रहा है. इसके मूल आधार 20 तरह के अमीनो एसिड्स हैं.         
मकड़ी ने अपने तंतुओँ के लिये जिनका का प्रयोग किया वही हमारे बालों ,त्वचा और शरीर में कार्य रत  हैं .कितनी कुशलता से मकड़ी उनसे लंबा अटूट रेशा खींच कर बुनाई करती है ,  जिसमें इतनी  मज़बूती और पारदर्शिता है.और यह पूरी तरह बायलोजिकल है ,हानिरहित है.
मकड़ियों को तो हम पाल नहीं सकते ,उसने उपाय निकाला मकड़ी के
तंतु  का प्रोटीन-जीन  को बकरी से जीन संयुक्त किया जाय ( जो उस के केवल mammary gland को प्रभावित करता है)फिर उसके दूध से वह तंतु प्रोटीन अलग कर लिया जाय. उस को  प्रोसेस कर उसे कातने पर वही तंतु तैयार हो जायेगा.ऐसे जीनवाली बकरी सामान्य रहती है .जेनेटिकली माडिफ़ाइड बकरी में 70,000 सामान्य बकरी के जीन्स और केवल एक मकड़ी का जीन है, जिससे उसे कोई हानि नहीं पहुँचती.इस नये तंतु को उसने बायोस्टील नाम दिया .यह नायलान से अधिक मज़बूत और बायोडिग्रेडेबिल भी होगा.
सभ्यतायें अपने द्वारा प्रयुक्त सामग्री से परिभाषित होती हैं. जैसे स्टील से औद्योगिक और सिलिकान से कंप्यूटर क्रान्ति हुई ऐसे ही अब  बायो मिमिक्री का युग आ रहा है ,जो प्रकृति की कार्यशाला के प्रयोगों को अपने हिसाब से नियोजित करेगा.
ब्रूनल वि.वि. (दक्षिणी इंगलैंड)के डिज़ाइन फ़ार लाइफ़ सेंटर की आशा थाम्सन ने  पत्रिका के आकार का एक चमकदार पीला तकिया दिखाया -बहुत सारे वाल्यूम कंट्रोल आइकंस से कढ़ा हुआ ,जिनका स्विच ताँबा चढे नायलोन की दो  तहों के बीच दबा था
उसका काम विकलांगों की कई असमर्थताओँ का निवारण करना था.
मानवोपयोगी उपादानों के स्वप्न बुनती आशा थाम्सन जैसे लोगों से मिलकर  इन संवेदनशील वस्त्रो से कौन उदासीन रह सकता है?
आगे-आगे देखिये, किन-किन रेशों से भविष्य अपने ताने-बाने पूरता है !
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शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

आवहि बहुरि वसन्त ॠतु -

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 बड़ी तेज़ गति से  चलते चले जाना  -  वांछित तोष तो मिलता नहीं ,ऊपर से मनः ऊर्जा का क्षय !
तब लगता है क्यों न अपनी मौज में रमते हुये पग बढ़ायें ; वही यात्रा सुविधापूर्ण बन ,आत्मीय-संवादों के आनन्द में चलती रहे ......

उस छोर की अनिवार गति और विदग्ध अति  से मोह-भंग के बाद ,सहृदय जनों का ब्लाग-जगत के  सहज  आश्वस्तिमय क्रम में  पुनरावर्तन  होगा -  इसी आशा  में, मैं तो  यहाँ से कहीं गई ही नहीं -

   इहि आसा अटक्यो रह्यो अलि गुलाब के मूल, 
  आवहि बहुरि वसन्त ॠतु, इन डारन वे फूल॥ 
   ( बिहारी )
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रविवार, 18 जून 2017

मैं कौआ नहीं बनना चाहती

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बाहर लान में खुलनेवाली हमारी खिड़की के शेड तले एक भूरी चिड़िया ने घोंसला बनाया है.अब तो अंडों में से बच्चे निकल आये हैं .चिड़िया दूर तक उड़ कर उनके लिये चुग्गा लाती है और वे चारो उसके आते ही चीं-चीं कर अपनी चोंचें बा देते हैं.
मैंने  थोड़ा दाना-पानी यहीं पास में रख दिया .पर चिड़िया ने छुआ तक नहीं, तीन-चार  दिन यों ही रखा रहा . बच्चों के लिये दूर-दूर से चुग्गा लाती है.,घास  झाड़ियों -पेड़ों आदि अपने संसाधनो से अपना खाद्य चुनती हैं.
यहाँ देखती हूँ अनेकानेक पक्षियों को -  चहचहाते हुए,आसमान में उड़ते हुये पेड़ों पर ,लान में फुदकते हुये - पर सब कुछ बड़े करीने से.कोई मौसम हो मुझे तो पत्तों पर मुड़ेरों पर या कहीं भी बीटों का गंदगी नहीं दिखाई देती .बड़े डिसिप्लिंड  लगते हैं .खुले आसमान के नीचे अन्न ,भोजन आदि रखा रहे ,मुगौरियाँ खुली थाली में सूखती रहें चोंचें डालना तो दूर भूखी निगाहों से  देखते तक नहीं.अपने खाने ,अपने दाने से मतलब .मुझे लगता है जैसे जहाँ के लोग होते हैं ,वैसे ही वहाँ के जीव भी हो जाते हैं .
दादी कहती  हैं ,मुँह आई बात रोक लो तो कौए का जनम मिलता है ,और मुझे कौआ नहीं बनना. इसलिये मुँह आई बात कहे डाल रही हूँ .
हाँ ,तो यहाँ खुले में खाने का सामान पड़ा रहे पक्षी चोंच लगाना तो दूर, ललचाई निगाह तक नहीं डालते .उनके लिये अलग से जो दाना होता है वही ग्रहण करते हैं .ये नहीं कि किसी ने खाद्य पदार्थ बाहर या धूप में रखा और मुफ़्तखोरों जैसी इनकी नियत लग गई - खायें सो खायें और बिखेरते हुये उसी में गंदगी मचाते उड़ जायें .न खाने का ढंग ,न बीट करने का..
मैं अमेरिका की बात कर रही हूँ ,भारत का उल्लेख अपने आप हो जाये तो मेरा दोष नहीं.  - हर बात सापेक्ष होती है न.एक के साथ दूसरी लगी-लिपटी .किसी पर दोषारोपण करने का  मेरा इरादा नहीं.बस , मैं कौआ  बन कर जनम नहीं लेना चाहती .
 हाँ ,तो बात गंदगी मचाने की हो रही थी.मुझे लगता है  वातावरण में ही खोट आ जाता है  .देखिये न ,हमारे यहाँ  लोग भी तो पब्लिक के या पराये माल को , मुफ़्त का माल समझते हैं-और हर जगह गंदगी बिखेरना जन्म-सिद्ध अधिकार .वही आदतें पक्षियों में उतर आई
 .पेड़ों के ऊपर के पत्ते तो बीट से पुते ही रहते नीचे की ज़मीन छिंटी हुई - आते-जाते लोगों के कपड़ों और बालों का भी कल्याण हो जाता है कभी-कभी . आजकल सब जगह फ्लैटों वाली  बहुमंज़िली इमारतें खड़ी हैं.बाहर की दीवारों और खिड़कियों के छायादानों पर घने-घने छपके और जमे हुये थक्के जरूर देखे होंगे आपने .पक्षियों की ढेर की ढेर बीट जम कर चिपकी हुई ..  सायबानो के नीचे, मोखों में कितने कबूतर बस जाते हैं कोई गिनती नहीं .रात दिन गुटर-गूँ तो हई .ऊपर से खिड़कियों के शेड बालकनियाँ और छतों की मुँडेरे हर जगह बीटों की सफ़ेदी छाई मिलेगी.खुले में  खाद्य पदार्थ डालकर धूप दिखाना मुश्किल - चोंचें मार-मार कर बिखरायेंगे .खायेंगे सो खायेंगे उसी में अपनी गंदगी छोड़ जायेंगे .बात वहीं आ जाती है , लोगो को जो करते देखते हैं ,वही सीखेंगे.देखते तो होंगे ही  पब्लिक टॉयलेटों,ट्रेनों का हाल,नदी के किनारों पर ,कहाँ तक बताये हर खुली जगह पर .पराये फलों के पेड़ों पर फूलों की क्यारियों पर कैसे हमला बोलते हैं.कोई ढंग की चीज़ देख नहीं सकते अपने सिवा किसी के पास .किसी के घर आम या अमरूद का पेड़ हो ,पत्थर चले आयेंगे बाहर से .दीवार नीची हुई तो फाँदने में कोई परहेज़ नहीं.
मौका मिलते ही दूसरे के उगाये फूल तोड़ लेना स्वभाव में है .बच्चे नहीं बूढ़े तक भगवान के नाम पर परायी फुलवारियों पर हाथ साफ़ करने से चूकते नहीं .उलटा कोई आपत्ति करे तो उसे ही पाप का भागी बनाने पर उतारू..
मुझे लगने लगा है स्वच्छता के भी संस्कार होते हैं जो स्वभाव में बस जाते हैं
और सामाजिक अनुशासन आदत बन कर सहज-व्यवहार में उतरता है.इन चीज़ों का धार्मिकता से कोई लेना-देना नहीं.बल्कि अधिकतर तो धर्म के नाम पर ..., अब आगे क्या कहूँ -जो होता है ,सब को पता है.
*

शुक्रवार, 5 मई 2017

ज्ञान की आँधी -

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 बाह्य संसार से जब कोई परेशान हो जाता है, उबरने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता   तो उस झींकन के साथ  उसके अंतःचक्षु खुलने लगते हैं.नई-नई बातें सूझती हैं॒. अगर कहें सहज ज्ञान उत्पन्न होने लगता है तो भी गलत न होगा. नवोत्पन्न  ज्ञान बाह्य जगत की अनेक गर्म-ठंडी स्थितियों से गुज़रते सघन होता जाता है. व्यक्ति में नये बोध जागते हैं ज्ञान चेतता है . उसकी उमड़न तेज़ हो तो आँधी जैसे झकोरे उठने लगते हैं .ऐसा अक्सर कबीर , पलटू दास जैसे अकाम लोगों के साथ होता है और वे सांसारिक जीवन से विरक्त हो ,आत्म-कल्याण की राहें खोजने चल पड़ते हैं .ज्ञान की आँधी उन्हें झकझोरती है, नया चेत स्फुटित होता है और नये पंथों की नींव पड़ती है. 
ऐसे ही बोध के पलों में सिद्धार्थ बुद्ध हुए होंगे. 
तब उन्हें दिखती है एक ही बाधा .ठीकरा स्त्री के सिर फूटता है .और किसी पर तो उनका बस नहीं - धर्म-संकट एक ही -स्त्री. वह आई कि धर्म का आधार खिसका. 
बुद्ध ने स्पष्ट कह दिया था -आनन्द, स्त्री आ गई, अब सद्धर्म केवल 500 वर्ष ही रह पायेगा! 
कितने त्याग-तप-साधना के बाद सद्धर्म विकसता है ,और एक अनचाही वस्तु उसे संकट में डाल देती है. सन्मार्ग की  चाहवाले आदमी के लिये भगवान ने भी कैसी-कैसी -बाधायें रच दी हैं. .स्त्री के मारे धर्म संकट में पड़ा रहता है . 
अपने तुलसी दास ये सब भोगे बैठे थे,उनके अपने अनुभव का सार , या भव पारावार को उलँघि पार को जाय, तिय छबि छाया ग्राहिनी गहै बीच ही आय  - बेचारा बेबस आदमी . करे तो क्या करे?
ईश्वर पर अपना बस नहीं ,कसर स्त्री से निकालो ,पूरी तरह वश में रखने के उपाय खोजो.इसके बस दो उपयोग ठीक -जन्म दे कर पाल-पोस दे ,और भूख लगे तो पेट भर दे -माँगने पर भिक्षा देती रहे . (संतों,भिक्षा तो वह देगी -ऐसा कंडीशंड कर रखा है-कहीं आत्म कल्याण की बात उसके भी मन में आ गई, उसने भी सांसारिकता को गौण समझ लिया तो ग़ज़ब ही हो जायेगा )-देगी ,अपने लिये रखा होगा उसमें से भी देगी- कम खाना गम खाना ,अपनी किस्मत समझ कर. 

स्त्री ही है जो माया-जाल में फँसाती है .भटकाती है ,दुख का कारण है.छोड़ दो सारी चिन्तायें उस पर.   
ओह, कितने-कितने रूप धरती हैं यह, नटिनी है न, नचाना चाहती है हमें भी. 
हमारे मतलब का सिर्फ माँ का रूप है .  बच्ची-बूढ़ी जवान सब में वही रूप मानेंगे .अरे दुनिया है. यहाँ फिसलता कौन नहीं .जब बोध जागे सब छोड़-छाड़ के निकल आओ.साथ रखो यह जादू की छड़ी है 'माँ' शब्द .  तुम बालिका या युवती से माँ कह दो और आशा लगाए लगो उससे कि वैसी ही ढल जाएगी . हाँ, किसा छोटे लड़के से पिता कहना या ,उसमे पितृत्व की संभावना करना  सोच कर ही हँसी आती है न!
तुलसी जब नारी से दूर आगये तो सारी कमियाँ याद आने लगीं. घर-परिवार से वंचित रहे थे ,दुनियादारी में पड़े नहीं पर नारी की अस्लियत पर प्रामाणिक वचन कह गये - 'अवगुन आठ सदा उर रहहीं '.हाँ , नर तो परफ़ेक्ट है. 
अपने  पलटू जी तो किसी महावृद्धा तक का विश्वास नहीं करते ,  साफ़ कहते हैं- अस्सी बरस की बूढ़ी सो , पलटू ना पतियाय !
कारण  है-
साँप बीछि को मंत्र है , माहुर झारे जात ,
विकट नारी पाले परी , काटि करेजा खात
देखा,साँप-बिच्छू से भी ज़हरीली महासंकटा को? सबसे गई-बीती है स्त्री -
नारी की झांई पडत,
अंधा होत भुजंग ।
कह कबीर तिन की गति,
जो नित नारी संग ।।
आगे अपनी कुशलता की चिन्ता ,हरएक को  खुद करनी चाहिये .मलूकदास ने इसी की पुष्टि की है -‘‘एक कनक और कामिनी, यह दोनों बटमार। मिसरी की छुरी गर लायके, इन मारा संसार।। 
संत सुन्दर दास ने इस के प्रत्येक अंग को नरक के समान कहने में भी तनिक संकोच नहीं किया है- 
‘उदर में नरक, नरक अध द्वारन में, कुचन में नरक, नरक भरी छाती है। 
कंठ में नरक, गाल, चिबुक नरक किंब, मुख में नरक जीभ, लालहु चुचाती है 
नाक के नरक, आँख, कान में नरक ओहै, हाथ पाऊँ नख-सिख, नरक दिखाती है। 
सुन्दर कहत नारी, नरक को कुंड मह, नरक में जाइ परै, सो नरक पाती है’। 
नारी की बुराइयों के अनुभवी ये संत लोग किसी और तत्व के होते होंगे ,इनकी देहें इऩ सब तत्वों से परे रहती होंगी. हाँ ये बताओ संतों, उसी पर गुर्राओगे .फिर उसी गृहस्थिन के दुआरे भीख माँगने पहुँचोगे .. हाथ फैलाओगे ,उसका राँधा खाओगे ?
पर करें क्या ?उनका आदर्श वाक्य है -
अजगर करे न चाकरी .पंछी करे न काम,
दास मलूका कह गये सबके दाता राम .पेट भरने का श्रेय भिक्षादात्री को नहीं राम को.
वैसे संत लोग बहुत भले हैं. 
खूब अच्छी-अच्छी बातें करते हैं लेकिन नारी की बात आते ही  एकदम कांशस हो जाते हैं. ऐसी भड़कते हैं, सारा संयम बिला जाता है.तो आपा खो कर  गाली-गलौच पर उतारू हो जाते हैं ,ये ऐसी है वैसी है ,इससे दूर ही रहो ,तुम्हारा जाने क्या-क्या अनिष्ट कर देगी .. इस विषय पर सहज रूप से बात नहीं कर पाते.कुछ-कुछ होने लगता हो जैसे.वे संतई से च्युत नहीं होना चाहते ,पर स्त्री उनके पीछे पड़ी है .सो बेचारे बमक पड़ते हैं.  स्त्री नाम की बला संसार की सारी बुराइयों की जड़ है .पर इससे बचा नहीं जा सकता. कबीर के शब्दों में कहें तो'रुई पलेटी आग' है
पहले तो वे उससे दूर भागने का प्रयास करते हैं ..फिर  बार-बार उझक कर देख  लेते हैं -अब ये क्या कर रही है?अरे, ये ऐसे क्यों कर रही है?इसे ऐसे नहीं वैसे रहना चाहिये .संत जी, तुम दूर चले गये तो छुट्टी करो. मन काहे उसके आस-पास ही मँडराता रहता है? संत हो संतई करो ,दुनिया से तुम्हें क्या मतलब  अपने काम से काम रखो .तुमने नारी-मात्र को सुधारने का ठेका ले रखा है ? क्या संत क्या भक्त दोनो के यही हाल.
 मुझे लगता है यह भारतीय स्त्रियों की विशेषताएँ हैं. विदेशी साहित्यों में  ऐसी शिकायतें मेरे सुनने में नहीं आई. .हाँ, इस्लाम का पूरा पता नहीं  पर उनने तो पूरी घेराबंदी कर रखी है औरत की - पर नहीं मार सकती.भारत के पुरुष जितने त्यागी  महात्मा, आदर्शवादी,सहनशील महान् आदि आदि होते हैं  ,स्त्रियाँ उतनी ही ..अब .आगे क्या बताऊं, संतजन औऱ भक्तलोग इतना धिक्कारते हैं ,उपदेश देते हैं - लेकिन औंधे घड़े पर कभी कुछ टिका है जो अब टिकेगा?
बाकी आप खुद समझदार हैं.
- प्रतिभा सक्सेना.
*

सोमवार, 20 मार्च 2017

एक बार फिर ...

*

     हे अपार करुणामय अमिताभ बुद्ध ,क्षमा करना -मैं एक मंद-मति  नारी हूँ, जो नर के समान  सहज मानव के रूप में तुम्हें भी स्वीकार्य नहीं थी. तुम्हारा सद्धर्म  मेरे  
लिये निषिद्ध रहा ,और जब महाप्रजापति गौतमी के आग्रह पर स्त्रियों को  प्रवेश दे कर इस धर्म ने जो कुठाराघात झेला उससे उसकी जीवनावधि आधी रह गई -तुमने कहा था,“हे आनन्द! यदि मातुगण स्त्रियों ने गृहत्याग कर प्रवज्या अपना तथागत के बताये धम्म और विनय का मार्ग अङ्गीकार न किया होता तो ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचरिय) चिरजीवी होता, सद्धर्म एक हजार वर्ष तक बना रहता। किंतु हे आनन्द! चूँकि स्त्रियाँ इस मार्ग पर आ गयी हैं इसलिये ब्रह्मचर्य चिरजीवी नहीं होगा और सद्धर्म केवल पाँच सौ वर्षों तक चलेगा।“
 राजपुत्र सिद्धार्थ ,
बहुत सुख-विलास में पले थे तुम ,जीवन के दुखों से, कष्टों से नितान्त अपरिचित ,हर इच्छा पूरी होती थी तुम्हारी .संसार की वास्तविकताएँ तुम्हारे लिये अनजानी थीं
 , किन्तु जीवन के कटु यथार्थ से कौन बच सका है .राजपुत्र होने से यहाँ अंतर नहीं पड़ता .सच सामने आयेंगे ही -झेलने भी पड़ेगे .जब वे सामने आए तुम दहल गए .उनसे छुटकारा पाने का उपाय खोजने का विचार बहुत स्वाभाविक था .अच्छा किया मार्ग ढूँढ लिया तुमने - साधना सफल हुई, बुद्ध हुए तुम! 
  हे प्रबुद्ध,
 संसार को दुखों से मुक्त करने का निश्चय तुम्हारे जैसे महामना ही कर सकते हैं. हे ज्ञानाकार, दुख और कष्ट क्या केवल पुरुषों को ही व्यापते हैं, नारी को नहीं ?आत्म-कल्याण के पथ पर बढ़ने के लिये सहधर्मिणी को झटक कर , गृहस्थी के सारे दायित्व त्याग अपनी मुक्ति का मार्ग पकड़ ले यही थी सद्धर्म की पहली शर्त .स्त्रियों की मुक्ति पुरुष के लिये बाधक बन जाती है इसलिये उन्हें अपनी मुक्ति की चाह न कर, उसे पुरुष का अधिकार मान, सारी सुविधायें देना अपना कर्तव्य समझना चाहिये.वृद्धावस्था रोग और मृत्यु नारी पुरुष का भेद नहीं करते. मुझे लगता है स्त्री-पुरुष दोनों को समान चेतना-संपन्न मान कर वांछित न्याय कोई कर्मशील कृष्ण ही दे सकता है, वही अपने व्यवहार से भी सुख-दुख दोनो को समान भाव से ग्रहण करने ,कर्ममय संसार में डटे रहने का संदेश  दे सकता है.
 सर्वदर्शी,
 तुम्हारा वक्तव्य पढ़ कर (चूँकि स्त्रियाँ इस मार्ग पर आ गयी हैं इसलिये ब्रह्मचर्य चिरजीवी नहीं होगा और सद्धर्म केवल पाँच सौ वर्षों तक चलेगा.“)पहले तो मैं यह समझने का यत्न करती रही कि इसके लिये दोषी किसे मानें -स्त्रियों को, सद्धर्म में दीक्षित ब्रह्मचर्य निभानेवाले को , या मानव की स्वाभाविक वृत्तियाँ को ?
सोच लेना कितना  चलेगा वह धर्म जिसमें सहधर्मिणी की भी  सहभागिता न हो .जो प्राकृतिक स्वाभाविक जीवन के अनुकूल न हो जो समाज के केवल एक  वर्ग के कल्याण का ही विधान करता हो . 
हे सुगत,
 ऋत सृष्टि के नियमन का,उसके सुव्यवस्थित संचालन का हेतु है, प्रकृति की अपनी योजना है रचना-क्रम एवं पोषण -संरक्षण की, प्राणी  की मूल वृत्तियों का अपना महत्व है. इनसे विमुख होना विकृतियों का कारण बनता है अतः शोधन  के द्वारा  वृत्तियों का ऊर्ध्वीकरण  -संयम और नियमन -जिसके संस्कार हमारी संस्कृति में प्रारंभ से विद्यमान हैं .उनके दमन के बजाय उनका नियमन जो व्यक्ति और समाज  दोनों के उन्नयन में सहायक हों. 
सिद्धार्थ, 
मेरे पापी मन में कौंधता है  अगर स्त्रियों के लिये  भी ऐसे धर्मों या संप्रदायों का चलन होने लगे जिनमें सबसे निरपेक्ष रह कर अपना ही कल्याण देखें तो...
पर उन्हें छूट देने के पक्ष में तुम हो ही कहाँ ?कभी कोई नहीं रहा .गृहस्थ जीवन का पूरा अनुभव था तुम्हें.चिन्तक भी थे तुम. स्त्री- कुछ माँगे नहीं,पूरी तरह समर्पित हो , कभी शिकायत न करे तो उसके हित का विचार किस का दायित्व है? तुम्हारी करुणामय दृष्टि  भी नर का दुख देखकर विचलित हो गई, नारी तक उसकी पहुँच नहीं हुई .
   किसी पीपल तले एक बार फिर ध्यानस्थ होकर बैठो सिद्धार्थ, शायद मानव-मात्र(जिसमें नारी की सहभागिता हो) के लिये सम्मत,समाज के लिये कल्याणकारी , कोई पूर्णतर मार्ग कौंध जाये जो एक सहस्त्र या पाँच सौ वर्षों की सीमा से बहुत  आगे जा सके और तुम्हारी तथागत संज्ञा सार्थक हो सके.
*



रविवार, 29 जनवरी 2017

लिये लुकाठी हाथ !

  
*
बहुत समय बाद कबीर भारत आये  तो  देश में अंगरेजी की शान देख कर चकित हो गये  .
गुण-गान सुनते रहे  .... कैसा साहित्य -कैसी अधिकारमयी, ज्ञन-विज्ञान के क्षेत्र में में सबसे बढ़ी-चढी दुनिया की निराली  भाषा - पढ़नेवाले का दिमाग़ भी झक्क कर देती है .
 जानने  की इच्छा बलवती हुई . -भाग-दौड़ कर एक शिक्षक ,अरे हाँ मास्टर , जुगाड़  लिया.

कबीर से खार खाये बैठे  कुछ लोग मास्टर को भड़काने लगे ,
' ये आदमी बड़ा खुड़पेंची है ,मार बहस कर कर के दिमाग़ चाट डालेगा.अपने आगे किसी की सुनता नहीं .'.
लेकिन मास्टर भी एक ही राढ़ा .कहने लगा , 'एक से एक उजड्ड लड़कों से पाला पड़ चुका .ठीक करके छोड़ा है .
. पर ये है कौन ?'
'अरे, वही कबीर  .'
'तुम कैसे जानते हो ?'
'हम नहीं जानेंगे ? .हमारे बाप-दादे   और उनके भी बाप दादे जमाने से जानते आए हैं.'
'अच्छा !'
'हमेशा अपनी  लगाये रहता है ..कहता था पोथी-पढ़ि पढ़ि जग मुआ ,और  पुस्तक देओ बहाय...वो तो 
राम-राम रट के  स्वर्ग पहुँच गया था. '
'...तो अब कहाँ से प्रकट हो गया .'

'वहाँ भी चैन नहीं पड़ा . हमेशा अपनी तीन-पाँच लगाता  सो यहाँ ठेल दिया गया -जाओ बच्चू बदली हुई दुनिया की हवा खा आओ  .' ,
' हाँ ,लग  तो एकदम ठेठ रहा है .  पर  पहले से काहे हार मान लें ..जो होयगी देखी जायगी . ..'
और  बैठा लिया अंग्रेजी पढ़ाने .

चेता पहले ही दिया  ,'देखो कबीर,
 बहसबाज़ी मत लगाना .ये जैसी है वैसी है. नई भाषा की बाराखड़ी शुरू कर रहे हैं  अंगरेजी के अक्षर हैं ,
उनके हिसाब से चलना पड़ेगा तुम्हारे हिसाब से वो नहीं हँकेगे. '
हुँकारा भर लिया कबीर ने . 
दो दिन में सारे आखर सीख डाले. 
थोड़ा बिचके थे एकाध बार, 
पूछ बैठे थे,'ये एच डबलू ,वाई ज़ेड इनमें कई आवाज़ें हैं कौन सा सुर निकलेगा ?'.
'वो सब बाद में पता चलेगा .अंग्रेजी है कौनो देसी भाषा नहीं कि तुम अपने हिसाब से चला लो.'
जब आये कैपिटल लेटर, बड़े अक्षऱ .
कबीर बोले ,'गुरू जी, इहै अच्छर बड़े करके लिख दें तो ..?'

'अपनी टाँग बीच में मत अड़ाओ , जानते नहीं का बड़ेन का  का ढंग ही अलग होता है.सारा नकशा  बदल जाता है .'
कांप्लेक्स तो शुरू से रहा था कबीर में . सुन कर सिर झुका लिया,
'हम छोटे आदमी -बड़ेन के लच्छन का जाने !'
फिर शब्दों की बारी आई .
'ये स्पेलिंगें है -रटनी पड़ेंगी .'.
रट्टमपट्टा करना पड़ता है संस्कृतवालों को देख चुके थे कबीर .

 रैट मैन रैन  से आगे डाग पाट कार फ़ार तक आते कैच सुन सोच मे पड़ गए  ये फ़लतू का टी कहाँ से आय गया ? .थोड़ी के बाद - वूमेन,वीमेन में गड़बड़ा गए ,'ये  ई आवाज  पीछे वाले अच्छऱ पर है, पहले वाले से कैसे जोड़ी जाई ?'
 'ऐसा  ही होता हैं .'
'कइस बोलना है  ई कौन तय करता है ?'
'पता नहीं, पर सब मानते हैं.'
'किसउ ने तो तय किया ही होयगा .वाकी बात दुनिया भर ने मानी .तभै काहे नाहीं साफ़ बात कर ली,जिसकी आवाज़ लगी उहै बोले ... ?'
 मास्टर ने धमका दिया .लिहाज़ कर गये गुरु का . 

फिर  आगये ,वी -डबलू ई,नी -के एन ई ई ,,ज़ू ज़ेडओओ. वी डबलू ,बी बीई और बी ईई. आई दो तरह से . ई वाई ई औऱ अकेली वाली सिर्फ आई
हे राम जी, चकराय गये बे तो .
'इन सब अच्छरन की स्पेलिंग भी अलग से सीखै के परी .?'
 'अब का अच्छरन की भी स्पेलिंग रटन का परी .एक-एक अच्छर की इत्ती बड़ी पूँछ -ई भासा है कि तमासा.!'
'अरे, चुप बे जाहिल !'
उस समय तो अचकचा कर चुप हो गये.पर मन ही मन कुलबुलाते रहे.
 थोड़े उद्दंड शुरू से रहे थे .सोचा , गुरू जी जरा गुस्साय ही तो लेंगे , बात तो पता चल जायेगी.
'गुरू जी ,मान लो कोई अच्छर सीख के पढ़ना चाहे तो लिखना सीखै के बाद उसे पढ़ना अलग से सीखना पड़ेगा 
?अइसा नहीं कि एक बार अच्छर आय जायँ तो अपने आप पढ. लें जैसे अपनी हिन्दी  ?'
'अरे .हिन्दी का क्या !कोई ऐरा-ग़ैरा नत्थूखैरा सीख ले, फिर ज़िन्दगी भर पढ़ता रहे .ये अंगरेजी ठहरी ,हमेशाअकल लगानी पड़ती है. ' .
'तो इसके स्पेलिंग और उच्चार कौन तय करता है ?'
'काहे ?'
'उसई से बात करें . लिखने-बोलने में कोई तालमेल नहीं .  कोई नियम-कनून होय तो उसके हिसाब से चलें .'
'ये रानी भाषा है अपने हिसाब से चलाती है .'

परेशान हो गये वो तो , लोगन को ई भासा सीखन की जरूरत काहे आन पड़ी ?
दुनिया में चलन है इसका ,इसे जानके विद्वान कहाओगे ,सब तुम्हारी सुनेंगे आदर-मान देंगे .        
कैसा चलन है दुनिया का -निश्वास लेकर रह गये 
मास्टर ने समझाया था
 कबीर देखो कानूनबाज़ी बीच में मत लाओ .ई जानकारन की भासा है, गँवार, कुँआ के मेढ़क जैसन की नहीं 

*
बड़ी मुश्किल में हैं कबीर , कैसेीअच्छर-माला है,
 कुछ तो अइसे कि  आवाज़ ही नहीं निकाल पाते ,जहाँ डाल देओ बेदम-से पड़ जाते  हैं .

 अजीब बात  talk Walk  दोनों में एल चुप्पा . इतना दब्बू कि आवाज़ नहीं निकलती. बहुत बार   बेकार पड़े रहते हैं . know  हो चाहे knot, दोनों में k बुद्धू सा बैठ गया .! knowledge लिखा है है कि कनऊ लद गे ,मनमाने आखऱ  ठूँस दिये , कैसे अवाक् बैठे हैं जगह घेरे  .एकदम बेआवाज़.ऐसी कैसी बाराखड़ी जिसके आखर जब दखो गूँगे हो  जायेँ !  अक्षर अपनी आवाज़ नहीं उठा सकते तो बेकार भर्ती  से क्या लाभ  ?
बजट शब्द सुना तो लिखने लगे -  budget होता है .अरे ये डी बीच में कहाँ से आ गई ?
.अड़ गये - ये फ़ालतू का अच्छर नहीं लिखेंगे    इससे कोई फ़रक नहीं पड़नेवाला .

इस भासा का कोई ठिकाना नहीं   ,चाहे जो लिख लो चाहे जो बोलो -पता नहीं कौन तय करता है ?
पता होता तो उस से बात करते .
लिखेंगे कोलोनल ,पढ़ेंगे कर्नल .टी बेचारी अक्सर ही साइलेंट मिलती है .एम.सी लिख कर मैक पढ़ेंगे .मात्रायें बोलेंगे पहलेवाले में ,बादवाले में वूमेन ,वीमेन .
ऊब कर कह उठे 
 ई नटनी का काहे घुसाय लिया घऱ में   ढंग की कोई बात नहीं, हर तरफ़ से बेतुकी  .अपनी घरवाली बानी,अच्छी खासी ,नियम-कानून मानैवाली .अपना असलीपन बरकरार रखनेवाली कैसी सुघर -सुलच्छनी.
 .लोग अचरज  मैं - अब तक तो  तो देसी आदमी अंगरेजी की चार किताब पढ़ ले तो अपने आप को तीसमारख़ां  समझने लगता है ,ई तो सबसे निराला है. कमियाँ निकाल रहा है .
कोई हँसा किसी ने  समझाया , किसी ने खब्ती बताया.
 पर कबीर  धुन के पक्के,
तुल गये - .उठा ली लुकाठी और चल पड़े बाज़ार की ओर..

 चौराहे पर खड़े लाठी चटकाने लगे .
लोगों ने  उत्सुकता से देखा . कुछ आकर वहीं खड़े हो गये,' क्या हो गया ,भई ?
 और लोग आगये ,फिर और  लोग. 
वहाँ तो मजमा लग गया .

बोलने लगे कबीर-


'सुनो  ,लोगन सुनो ,  अपनी भासा , जिसने जनम से गोद  खिलाया,तोतले बोलों पे लाड़ लुटाया, दिल-दिमाग के रेशे-रेशे में अपना नूर समाया ,  उसमें कितनी  ममता माया .जरा अकड़ नहीं   प्यार से भरी  देस-देस के ढाँचे में  ढल गई कहीं राजस्थानी  ,कहीं अवधी कहीं ब्रज कितनी बोलियाँ बोल - सबसे नाता निभाने .को तैयार .
उसई को बेदखल किये दे रहे हैं.
जो गलत है वो काहे सहते हो ,चिल्लाओ ,शोर मचाओ ,दुनिया जाने कि अपनी सुघर -सुलच्छनी अनुशासित घरवाली बानी  बेदखल हो रही है ,  और बाहरी लोगों के साथ भागी आई बहुरूपिन को  घर में बिठा लिया ,सिर चढ़ाये हैं . उसके पीछे पुरखों की अमानतें लुटाये दे रहे हैं.उसी के नचाये  नाच रहे हैं .
जरा भी ग़ैरत  बची है कि नाहीं ?.'
 कुछ लोगो ने सुना ,फिर औरों ने सुना .
कबीर बोलते रहे  -
'ई कैसी साजिश चल रही है?देखो तो , सच्चे नेम नियमवाली , चाकर बन गई और वो  जो  घर में घुस आई उसके ठाठ हो गये .उसके लच्छन ही निराले हैं ,कौल-फ़ेल का कोई इत्मीनान नहीं .'

'बात तो ठीकै कह रहा है .हमारी पहचान मिटाय के रट्टू  तोता बनाय रहे हैं -'
पर कुछ को लगा - यह तो  ख़ब्ती है.

 पराये घर  में जो रानी बनी बैठी  उसके टुकड़खोरों को  खबर हो गई .
ये तो सारी बखिया उधेड़ी जा रही है ,सारे गुन-औगुन और  सच्चाई    सामने आने लगी  तो हम कहीं के ना रहेंगे.
 बाहरवाली का राजपाट गया तो हमें कौन पूछेगा?
  पीढ़ियों से अच्छे-अच्छे ओहदन  पर दूध-मलाई खाते आये .  ये लोग हम से रौब खाते थे,दब के रहते थे .लगता है अब   रूखी-सूखी नहीं पचती , 

 और देखो आज उसकी बात सुन कर उठाने लगे  .
वो मजमा लगा के चिल्लानेवाला मिल गया तो  हमारे खिलाफ़ हल्ला मचा रहे हैं.ये अक्खड़ देसी लोग ,क्या जाने अंग्रेजी की नफ़ासत ,कितनी पहुँच है ,कितना रुतबा है !ये सब इनके गले नहीं उतरेगा .
 ये देसी लोग हमारे  सुख-चैन में पलीता लगा देंगे  
. बताओ भला कबीर को अंगरेजी सिखाने की क्या  जरूरत थी ?वह  तो हई  उजड्ड  .अपना सुख-चैन भी नहीं देखेगा - जमीन-आसमान एक कर देगा 
करो भई, कुछ करो .
ये जाहिल लोग ,उसी भरम-जाल में उलझते  रहें . यहाँ की इन सब बानी-बोलियों को लड़ाओ .आपस में ये भिड़ी रहें ,और हमारा उल्लू सीधा होता रहे .
औरों को लड़ाओ ,दूध-मलाई खाओ !

पर अब कबीर  सामने आ खड़ा है - लिये लुकाठी हाथ!

गुरुवार, 12 जनवरी 2017

मन की लगाम -

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शाम को जब भ्रमण पर निकलती हूँ तो  बहुत लोगआते-जाते मिल जाते हैं.
अधिकतर फ़ोन कान से सटाये बोलते-सुनते चलते जाते हैं ,अपने आप में मग्न .सामना हो गया तो हल्का-सा हाय उछाल दिया या सिर हिलाने से ही काम चल जाता है . ऐसा भी  नहीं लगता कि जरूरत आ पड़ने पर अनायास चलती-फिरती बात हो रही हो .बाहरी दुनिया से बेखबर  पूरे मनोयोग से लंबे वर्तालाप. और अब तो यह कोई नई बात नहीं,  कोई मौसम हो ,आस-पास कुछ भी चल रहा हो -सबसे निरपेक्ष ..अपनी बातें ,वही दिनरात की वारदातें साथ लिए रास्ता पार कर लेते हैं . अपने से  परे  कुछ देखने का  न चाव है, न अवकाश .
रास्ते के दोनो ओर के  परिदृष्य ओझल रह जाते हैं अपनी वही दुनिया जो साथ लगा लाये हैं. वे परम संतुष्ट हैं, कि समय बेकार नहीं जा रहा . टहलना हो ही रहा है ,साथ  अपना काम भी चलता रहेगा  (बहुतों के हाथ में कुत्तें की डोर, उसकी ज़रूरतों का ध्यान रखते हैं .वह काम भी साथ चलता है. फ़ोन पर बोलते-बोलते उसे ढील देना ,कहीं ज़रा रुक जाना ,सब अनायास चलता है .)
प्रकृति  लीला-विलास का अपना पिटारा खोले बैठी है . वन प्रान्तरों की ध्वनियाँ ,पंछियों की चहक ,वनस्पतियों की महक चारों ओर बिखरी हैं .उसके सहज कार्य-व्यापार  अपनी लय में चल रहे हैं
दिशाएँ उन्मुक्त हैं , धरती आकाश   के बीच रूप-रंगों का खेल ,अबाध गति से चलता है  मेरा बस चले तो इस लीलामयी के निरंतर प्रसारित संदेश अपनी झोली में भर लूँ ,लहरों की रुन-झुन,,पंछियों की लय-बद्ध उड़ान,गिलहरी ,खरगोश जैसे प्राणियों की कौतुकी चेष्टाएँ  की ,हवा मे हिलते   फूलों-पातों की चटक,सब समेट कर धर लूँ . ये लोग क्यों घर की दीवारों से बाहर उन्मुक्त वातावरण में आ कर भी अपने  मन को लगाम दिये रहते हैं . कभी तो छुट्टा छोड़ दिया करें . इस विशाल पटल पर  बहुत-कुछ है ,चरने-विचरने के लिये . इस मुक्त वातावरण  में यह  लगाम  ढीली कर दें तो संभव है  अन्य  दिशाओं में इतना चलायमान न रहे .
 धरती और आकाश के परिवेश पल-पल परिवर्तित होते ,एक नयापन निरंतर रूपायित होता  है . पर उन्हें इस सब से कोई मतलब नहीं . पता नहीं  ये लोग भ्रमण के लिये क्यों निकलते हैं .जब उसी मानसिकता  में रहना है तो बाहर जाने की ज़रूरत क्या है !.व्यायाम की मशीने बाज़ार में उपलब्ध हैं.तन को स्वस्थ रखना आवश्यक है ,नहीं तो दुनिया में  काम कैसे चलेगा.मन बीच में कहाँ से टपक पड़ा !
 तो ,ये दीवारों से बाहर आकर ,सैर करनेवालों के हाल हैं  अब उनसे क्या कहें कि ऐसे भी लोग होते हैं जो पुलिया पर बैठे  भी जन-जीवन का मुजरा लेने से हिचकते नहीं  . रोज़मर्रा की चलती राहें हों  या अप-डाउन करती ट्रेन का सफ़र हो , जीवन केअविराम बहते प्रवाह को आँकते-परखते , उसकेसचल दृष्य, अपने विनोद-कौशल से रंजित कर सर्व -सुलभ कर देते हैं, बाह्य संसार से उदासीन   लैपटाप या फ़ोन में नहीं घुसे रहते .
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