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बोलते-बोलते हमारी बोली कितनी बदल जाती है कभी सोचा है? नये-नये शब्दो की भर्ती कहाँ से हो गई,पुराने कब,कहाँ बिसर गये पता ही नहीं चलता.
फ़िल्में और उनके गीत ,हमारे शयन-कक्षों और ड्राइँग रूम्स का हिस्सा बन चुके हैं .मुंबइया हिन्दी हमारी भाषा में छौंक लगाने लगी है (बिंदास ,मवाली,काय कू ,हमको नईं चलताआदि ). देर-सवेर .स्वीकारना पड़ेंगे ही
एक और वर्ग है जो अंदर घुस आनेकी फ़िराक में सड़कों पर पर घूम रहा है .खीसें निपोरते बार-बार अंदर तक चक्कर लगा भी जाता है ,वो तो हमीं लोग हैं जो टरका देते हैं ,इसलिये वेटिंगलिस्ट में खड़ा हैं.
इनकी रूप-रचना का काम हमारी कामवालियों ने किया है .घर में झाड़ू-पोंछा ,चौका बर्तन ,कपड़े धोना आदि काम ही नहीं सब देखती -समझती हैं .उनकी निरीक्षण क्षमता गज़ब की है और टीवी की कृपा से उनका मानसिक स्तर और विकसित होता जा रहा है ,रहन-सहन बोल-चाल सब पर दूरगामी प्रभाव !
आपने 'फ़र्वट' शब्द सुना है ?
हम तो इनके मुख से बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं .
अपनी कोई साथिन जब उन्हें अपने से अधिक चाक-चौबस्त लगती है तो चट् मनोभाव प्रकट करती हैं ,'अरे, उसकी मत पूछो ,क्या फर्वट है !'
इस युवा पीढ़ी का अर्थ-बोध और मौलिक उद्भावनाएं गज़ब की हैं
फर्वट - इसका मतलब है फ़ारवर्ड !
और फिरंट का मतलब जानते हैं ?
जो अपने से आगे बढ़ी हुई लगे उसे कहेंगी 'फिरंट'(फ़्रंट से बना है)-इसमें थोड़ा तेज़-तर्राक होना भी शामिल है.
'टैम' ने समय को विस्थापित कर दिया है ।और माचिस ! दियासलाई है भी कहीं अब ?
सलूका ,अँगिया आदि वस्त्र ग़ायब हो गये उनका स्थान ले लिया है ,ब्लाउज वगैरा ने ,और अब तो टाप ,टॉप करने लगा है.,
हमारे एक परिचित हैं अच्छे पढ़े-लिखे उनका कहना है स्टोर्स में लेडीजों का माल भरा पड़ा है. एक दिन बोले हमारा पप्पू शूज़ों का बिज़नेस करेगा .
शूज़ों का बिज़नेस - यह भी सही है! शू का मतलब तो एक पाँव का एक जूता जब कि जूते हमेश दो होते है- शूज़ : और उसका बहुबचन शूज़ों ठीक तो है .
लेडीज़ों भी सही -अकेली स्त्रियाँ कहाँ मिलती हैं अब? दो-तीन साथ में. एक झुण्ड में लेडीज़ और झुण्डों का बहुवचन लेडीज़ों ही तो .
थालियों में कौन खाता हैं सब पलेटों में खायेगे ,चाहे फ़ूलप्लेट हो या छोटी पलेट .
अपनी हिन्दी बदलती जा रही है अब तो.
अंग्रेज़ी भाषा की तो बात ही मत पूछो ।अनपढ़ लोग, गाँव के वासी यहाँ तक कि महरी ,जमादारिन मालिन सबके सिर चढ़ कर बोल रही है ।
हमारे यहां एक प्रकार का मिल का कपड़ा होता है जिसे.
अंग्रेज़ लोग लांग्क्लाथ कहते थे ,अपने देसी लोग 'लंकलाट' कहने लगेअब वही लट्ठे के नाम से चल रहा है .
इसी प्रकार कैंपों में जब अंग्रेज़ संतरियों को किसी के उधर होने का संदेह होता था तो ज़ोर की आवाज़ लगाते ,'हू कम्स देअर ?'
हमारे चौकीदारों ने अपने हिसाब से शब्द पकड़ लिये 'हुकम ,सदर !'
एक बार मुझसे किसी ने कहा - ये 'फ़ालतू' ''अफ़लातून' से बना है ..'
मेरे तो ज्ञान-चक्षु खुलने लगे .
और अपने बचपन की बातें भी कोई भूल सकता है भला !
हमें भी याद है - सुनते रहते थे उर्दू और हिन्दी में खास अंतर नहीं है. म.प्र में थे हम . वातावरण में हिन्दी अधिक थी ,उर्दू से दूर का वास्ता और संस्कृत पूजा-पाठ और विशेष अवसरों मंत्र-पाठ स्तुतियों आदि में सुनने को मिल जाती थी..तो हमने समझने का आसान तरीका निकाला था.--क,ख,ग,ज फ वगैरा के नीचे बिंदी (नुक़्ता) लगा दो ,और गले से ग़रग़रा कर बोलो तो उर्दू होती है .
स्कूल में कोई तर्जनी दिखा कर कह दे आइन्दा ...'तो दम खुश्क हो जाता था. कि जाने कितनी खतरनाक बात कही गई .
और संस्कृत ! हिन्दी शब्द के अंत में म या न लगा कर उस पर हल लगा दो हो गया काम (सुन्दरम्,आनंदम् ,वरम्,निकंदनम् सब हलन्त हैं).और उन्हें गा-गा कर पढ़ो तो संस्कृत हो गई .
पर ये तो पुरानी बातें है.
अब देखिए , अच्छे-पढ़े लिखे लोग सफ़ल लिखते हैं ? सफल लिख-बोल कर कोई अपनी हेठी क्यों कराये ?
और मालिनें भी फूल नहीं 'फ़ूल' बेचती हैं -फ बोलने से जीभ में झटका लगता है.फल नहीं फ़ल खाना सभ्यता का लक्षण है. वैसे कामवालियों को भी अब फ़ूल अधिक पसन्द आते हैं.
अभी से देखना-समझना शुरू कर दीजिए. नहीं तो ये जम कर बैठ जायेंगे. ये शब्द लोग,बड़े बहुरूपिये हैं. न जान पहचान,मैं तेरा मेहमान बन घुस आते हैं और बोली के साथ मिल बैठते हैं.
देखते जाइये,यहाँ से इनका साहित्य-प्रवेश होगा क्योंकि पुरानो को विस्थापित कर, ये जनता-दलवाले सब पर चढ़ बैठेंगे.
आपके आस-पास भी कुछ घूम रहे होंगे, सावधान हो जाइये !