रविवार, 27 फ़रवरी 2011

भानमती की बात - 2 (अरे,अरे,अरे !)

*


छूट माँगने में कोई शर्म नहीं हमारे यहाँ किसी को ! सिर पर चढ़ के माँगते हैं ,जैसे दूसरे इनका उधार खाए बैठे हैं.

छूट लेने की तो जैसे हमारी राष्ट्रीय आदत बन चुकी है .

अरे भई ,क्यों छूट लोगे ?अपाहिज हो ? लाचार हो ?जब ठीक-ठाक हो तो क्यों दूसरों के सिर सवार होना चाहते हो !

और हमारे यहाँ , बचपन से यही शिक्षा - लीजिये सुन लीजिये -

अगर सुनने से मन को चोट पहुँचे तो पहले ही क्षमा माँगे लेती हूँ .दूसरे देशों में मैंने एक चीज़ देखी -स्ट्रिक्ट हो कर बच्चों से माता-पिता वही करवाते हैं जो नियम के अनुसार है ,अनुशासन में रहने की शुरू से आदत पड़ती है .अपने पर नियंत्रण रखना सीखते हैं हमारे यहाँ मारे लाड़ के शुरू से नियम -भंग करवाने लोगों को कोई संकोच नहीं होता .

अरे, बच्चा है कह कर ,खुली छूट दे देंगे उसे .

कहाँ की बात है ये नहीं बताऊंगी. नहीं,कि कहीं मुझे ही न गरियाने लगें . अपने देश की महिमा के आगे .दूसरों की तारीफ़ सुनना हमें गवारा कहाँ !आचार-व्यवहार दो कौड़ी का रह गया हो चाहे ,पर अपनी डींग हाँकने में सबसे आगे !.हाँ दूसरों की फ़ालतू चीज़ों की नकल करने में पीछे नहीं रहेंगे. ढंग की आदतें अपनाने में तौहीन होती है .अब अधिक नहीं कहूँगी -फौरन कोई फ़तवा मिल सकता है

हाँ, तो हुआ यह कि जिस कांप्लेक्स में हम रहने गए ,वहाँ लॉन घास से सजे थे , साइकिल चलाने के लिए अलग से ट्रेलें बनी थीं ,माता-पिता शुरू से बच्चों को साध लेते.

बच्चे नीचे उतरते ,बाइक ट्रेल पर बाइक चलाते . लॉन की शोभा भी यथावत् बनी रहती थी .

कुछ नये भारतीय परिवारों का आगमन हुआ. माँ-बाप अपने बच्चों को बहुत प्यार करते थे .अब बात नीचे बाइक चलाने की ,उनने अपने प्यारे बच्चे से कहा,'जा बेटा चला ले यहीं सामने.'

'नहीं ,बाइक के लिए अलग से ट्रेल बनी हुई है ,इधर मत भेजिए .'

'अरे बच्चा है ,ज़रा चला लेगा तो क्या बिगड़ जाएगा !जाओ,बेटा ,बस एक चक्कर लगाना .हम देख रहे हैं.'

और उन्होंने उस उगी हुई घास पर बच्चे को बाइक चलाने भेज दिया .

फिर मुझसे बोलीं ,एकाध बार में कुछ नहीं होता .कौन हमेशा चलानी है! बच्चा ही तो है. इतने में कुछ नहीं होता. आप तो ज़्यादा ही सोचती हैं ?'

हाँ ,तुम्हारा ही तो प्यारा बच्चा है ,और सभी अगर एकाध बार करने लगे तो इस सुन्दर लॉन का तो सत्यनाश हो जाएगा !

अगर कोई टोक दे तो उन्हें लगता है हम कठोर हृदय हैं . उनके बच्चे के विशेषाधिकार का हनन हो रहा है.पीछे-पीछे ये भी कह देंगी .अपना बच्चा होता तो ...'

अब एक ने चलाई तो औरों के लिए रास्ता खुला. बच्चों को शुरू से समझ आने लगती है कि नियम ,मानना न मानना ,अपने पर निर्भर है जितनी हो सके छूट ले लो.

यहाँ तो लोगों को लगता है बड़े शान की बात है विशेषाधिकार माँगना .दूसरों के सिर पर चढ़ कर रहने में जो मज़ा है वह बराबरी से रहने में में कहाँ !

 मुफ़त खोरों का पूरा वर्ग का वर्ग है -जो खाता भी है और ग़ुर्राता भी है

छूट लेने में शान है ,,दूसरों के सिर पर चढ़े रहने में बड़प्पन है .मंत्री ,नेता सब सामान्यजन को दुविधा दे कर सुविधा-लाभ करते हैं .

क्यों उन्हें स्पेशल-क्लास ,क्यों ,विशेष व्यवहार ,लाल बत्ती ,उनका कोटा ?

अरे , कोटे की बात !कोटे वाले लोगों की बहुतायत हैं यहाँ - दूसरों के हिस्से पर  हमेशा नियत लगाये. अपने दम पर रहने की आदत शुरू से रही नहीं न !

सब की तरह रह कर काम करना पड़े तो एक दिन में दिमाग़ ठिकाने आ जाय ,,

कभी टोक दो तो उन्हें लगेगा उनके अधिकार में बाधा पड़ी .

जब और लोग बिना बिजली गर्मी में झुलस रहे हों , तब एसी. की हवा और शीतल लगती होगी !.

लोगों को टूटी सड़कों पर गड्ढों में गिरते देख ,अपने मुफ्त के बँगलों से जनता की कमाई के पैसों की कार से धूल उड़ाते सर्र से निकलने में कितनी तृप्ति होती होगी .

क्या और लोगों की  श्रमशीलता ,,नियमों का सम्मान, कार्य के प्रति निष्ठा , दोहरा व्यवहार या दिखावा नहीं ,ये गुण क्यों नहीं अपनाए जाते .अच्छी आदतें लेते ज़ोर पड़ता है .और मौज-मज़े की बातें फौरन सिर चढ़ा लो .

महिलायें तो और खास तौर से ,

मैंने देखा वहाँ खाली समय मे अस्पतालों में ,सहायता करने जाना ,सामाजिक सेवा के काम और हाँ अच्छी तरह रहती भी हैं अपनी रुचि से .

और यहाँ खाली हैं तो किटी-पार्टी ,टी.वी ,गहनों -कपड़ों का दिखावा दुनिया भर की फ़ालतू चर्चायें ,

हमारी भारतीय मातायें अपने ख़ुद के बच्चे को भी अपनी भाषा नहीं सिखा ,अंग्रेजी़ में जो शान है ,हिन्दी में कहाँ !

और पुरुष ,रँग जाते हैं उसी रंग में .क्या -क्या कहा जाय भाषा- भूषा ,संस्कार .त्योहार ,पता नहीं कुछ बचेगा भी कि नहीं .अपने देश में भी -पराए देश में भी

ऐसे से ही ,सड़कों पर .जहाँ रुकना है वहां रुकेंगे नहीं ,,गति पर नियंत्रण रखने में परेशानी .जहाँ मौका देखा .छूट ले ली कभी अपने मनमाने ढंग से ,कभी शोर मचा कर .

स्वतंत्र होने का पहला लक्षण - नियम मानने में हेठी होती है ,नियम को तोड़ना बहादुरी है !

अनुशासन में रहना कमज़ोरी का लक्षण है-(जहाँ मौका मिले समर्थ बनो )

रास्ते में थूकना ,सड़क पर कूड़ा डाल देना ,जहाँ तहाँ सड़कें रोक लेना और तमाम बातें जिन्हें सब जानते हैं . कहाँ तक गिनाई जायँ ? अगर ,कोई मना करे तो लड़ने पर आमादा , कहेंगे,' क्या तुम्हारे बाप की सड़क है ?'

हमारे नहीं , तुम्हारे पिता-श्री की होगी तभी न पुश्तैनी अधिकार है दुरुपयोग करने का.

अपनी कमियों पर ध्यान दिलाया है दूसरों की अच्छाइयों गिनाई हैं .दूसरों की कमियाँ बताती तो अपने लिए गौरव की बात होती ,उनकी अच्छाइयाँ सुनने में शायद लज्जा का अनुभव हो और संभव है मुझे कोई ज़ोरदार उपाधि प्रदान कर दी जाय !

अब जो हो - ओखली में सिर दे ही दिया तो मूसलों का डर क्या !

*

- भानमती

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

एक थी तरु - 6.& 7.


6
घर में घुसते ही बाहर वाले कमरे (बैठक) से महिलाओं के वार्तालाप के स्वर सुनाई देने लगे .गोविन्द बाबू कमरे में जाते-जाते रुक गये और आँगन की ओर चले आये.
रसोई में शन्नो प्याले प्लेटें सामने रखे पतीली के पानी में शक्कर घोल रही थी..चौके के दरवाजे पर खडे होकर उन्होने पूछा ,"कौन आया है ?"

"मथुरा परशादिन और उनकी भौजाई."

सामने-सामने तो वे लोग उनसे चाचीजी कहते हैं ,पर पीठ पीछे इसकी कोई ज़रूरत नहीं समझते -मथुरा परशाद की पत्नी ,इसलिये मथुरा परशादिन ,आपस मे वे लोग ऐसे ही काम चलाते हैं .

वे दूसरे कमरे मे कपड़े बदलने चले गये.आवाज़ लगाई ," गौतम."

"वह मिठाई लेने गया है. "

शन्नो चौके में बैठी भुनभुना रही है, 'अम्माँ की सहेलियों के मारे और मुश्किल !इनके घर जाओ तो हमेशा टालू मिक्शचर (चाय केसाथ जब कोई चलता-फिरता रोज़मर्रा का बज़ारू मिक्शचर चला कर छुट्टी पा ले उसे इन लोगों ने यह नाम दे रखा है) .'

कोई यहाँ आयें तो अम्माँ खातिरदारी में जुट जाती हैं.शन्नो को घुसा देती हैं चौके में -नमकपारे बनाओ ,पापड़ तलो ,चाय बनाओ ,और खुद उनके पास बैठी बतियाती रहेंगी .उनकी प्लेटों मे भरती चली जायेंगी,जिद कर -कर के खिलाती रहेंगी .और वो भी तो किसी न किसी को साथ लेकर हाज़िर हो जाती हैं -कभी बहन आई है कभी भतीजी आई है . आज भौजाई आई हैं.जो आता है लेकर सीधी यहां चली आती हैं-अपनापन दरशाती हुई .शन्नो फालतू है न बनाने- खिलाने को !

कहती हैं ,'अरे , मेहमान हैं .कौन हमारे यहाँ बार-बार आएँगे!'

गौतम से मिठाई का पैकेट पकड़ती,शन्नो ने बताया,"पता है आज क्या बोलीं?आते ही कहना शुरू किया ,'जिज्जी ,देखो तो कौन आया है !हम ने कहा हमारी जिज्जी बडी मोहब्बतिन हैं ,चलो मिला लायें .अरे एक ही तो घर है जहाँ अपना-सा लगे है.'...और यह तरु चुड़ैल कहां जाकर मर गई?काम के टाइम हमेशा ग़ायब ! गौतम, जरा आवाज तो लगा ."

आवाज के प्रत्युत्तर में पड़ोस के आँगन से जवाब आया ,"आती हूँ." और धूल भरे पाँव लिये भागती हुई तरु आकर खड़ी हो गई .

"आज फिर मथुरा परशादिन ! किसे लाई हैं इस बार ?"

"अरे हैं उनकी भौजाई .तरु तू प्याले -पोंछ कर ट्रे में लगा फिर बैठ कर नमकपारे बेल ."

शन्नो ने कढाही आँच पर रख दी.

" जिज्जी, पहले पिताजी को दे आऊँ ?"

नहीं. पहले उधर ,नहीं तो वे नाराज होंगी ."

शन्ने अम्मां से खीजी होती है तो 'वो' कहकर काम चला लेती है.

"वो लोग तो बातों में मगन हैं उन्हे क्या पता चलेगा ,जिज्जी ."

गोविन्द बाबू खाट पर बैठे चाय पी रहे हैं.शन्नो थोडे नमकपारे प्लेट में रख लाई.,"पिताजी ,नाश्ता!"

वे मुट्ठी में थोडे नमकपारे उठा लेते हैं.."तुम लोगों के लिये हैं या नहीं?"

"अभी तो काफी हैं."

अम्माँ कभी नहीं सोचतीं .घर में किसी के लिये बचे या नहीं , बस बाहरवाले संतुष्ट रहें और उनकी तारीफ़ करते रहें !

अँगीठी की आँच में शन्नो का मुँह तमतमा रहा है.पल्ला कंधे पर सिमटा पडा है.वह मुट्टी में नमकपारे भर कर तेजी से आई है,झुक कर पिता की प्लेट में रखने लगी .

"बेसरम कहीं की .बाप के सामने किस बेहयाई से गिरी जा रही है और उन्हें मजा आ रहा है."

अम्माँ नमकपारे की प्लेट लिये आँगन मे खडी हैं .शन्नो ने चौंक कर उनकी ओर देखा ,उसके ऊपर जैसे घड़ों पानी पड गया .पल्ला ठीक करती वह चौके में लौट गई.

गोविन्द बाबू ने धीमे से प्रतिवाद किया ,"काहे को तोहमत लगाती हो ,वह अभी नमकपारे देने आई थी ."

"मैं सब देखती हूँ अन्धी नहीं हूँ."

बाहर वाले कमरे से आवाज आई ,"जिज्जी ,अब कुछ और न लाना ,बस दो गिलास पानी ."

वे लौट गईं.

**
6.
शन्नो बहुत सुन्दर है- गोरा रंग ,गोल चेहरा ,धनुषाकार भौंहें,बड़ी-बड़ी काली आँखें ,माथे पर बिखरी घुँघराली लटें और सुगढ़ गुलाबी होंठ.मुँह धोकर पोंछती हैं तो लाली छा जाती है चेहरे पर .तरु छिप-छिप कर उन्हीं को देखती रहती है .उनके जगमगाते सौंदर्य से अभिभूत है वह .अपनी सहेलियों से तारीफ करते नहीं अघाती ,"देखो ,मेरी जिज्जी कितनी सुन्दर हैं. "


उसकी सहेलियों की बडी बहनों में किसी की नाक मोटी है ,किसी का मुँह बड़ा-सा,किसी के दाँत ऊँचे ,,अबारी चौडी या रंग रहरा .कोई शन्नो की तारीफ करता है तो तरु को गर्व होता है -मेरी जिज्जी हैं .अगर कोई कहे कि तरु की शकल कुछ-कुछ शन्नो से मिलती है,तो फूल उठती है वह .

शन्नो को सजने -सँवरने का भी बहुत शौक है.पर अम्माँ को उनका सजना जरा नहीं सुहाता .जहाँ वे सज कर खडी हुईं अम्माँ का डाँटना शुरू .

खिड़की के उसपार है विमली और तारा शंकर का घर .विमली की बड़ी बहिन मनोरमा से वे बात करती हैं तो भी अम्माँ एकाध चक्कर लगा जरूर जाती हैं..कभी काम में लगी होती हैं तो तरु से कहती हैं ,"तरु,देख ,उधर तारा तो नहीं खडा है ?"

कभी-कभी होता भी है तारा.वह अपने दरवाज़े पर डटा होता है ,शन्नो तो मनोरमा से ही बोलती रहती है. तरु जाकर खडी हो जाये तो वे भगा देती हैं,"क्या बड़ों के बीच सिर घुसाये खड़ी है .जा अपना काम कर ."

झिड़की खाकर तरु भाग आती है.

तारा बोलता कुछ नहीं, अभिभूत-सा देखता रहता है . बातें करने के बाद शन्नो अकेली - अकेली ही मुस्कराती रहती है.
.अम्माँ तरु से पूछती हैं या फिर भेजती हैं तो कह देती है ,"हम नहीं जाते, वे भगा देती हैं."

चौके से अम्माँ बार-बार पता करवाती हैं -शन्नो कहां है ? क्या कर रही है ? कभी-कभी तरु की सूचना उनकी डाँट का कारण बन जाती है .तब शन्नो गौतम से कहती है-"यही चुड़ैल जाकर उनसे जड़ आती है और मुझे डँटवाती है.,किसी से बात भी न करूँ क्या ?"

और गौतम की आँखें लाल, भौंहें टेढी .तरु से वे बात भी ठीक से नहीं करते ,जब बोलेंगे तिनक कर बोलेंगे .

अम्माँ की आदत है बहुत झींकती हैं .बात-बात में अपनी बड़ी बेटी को याद करती हैं.पर मन्नो तो विदेश जा बसी हैं पाँच -छः साल में कहीं एक चक्कर लगता है.अम्माँ की बातों से ही तरु को उनका ध्यान आता है.'हमारी मन्नो तो गऊ थी.जहाँ बैठाल दो उठना भी नहीं जानती थी.लड़की क्या साक्षात् देवी थी.--ये शन्नो हमेशा जी जलाती है.न ढंग से काम कर ना, न रहने का सहूर !'

शन्नो पीछे-पीछे मुँह बिचकाकर कहती ,'मन्नो जिज्जी की कोई कम डाँट पड़ती थी ? उन्हें भी खूब रुलाती थीं ये !"
**
7.

इस कमरे में उत्सव का वातावरण है.

अखबारों से काटी गई गांधी जी की तस्वीर बीच में लगी है ,दोनो तरफ नेहरू और सुभाष बोस के फोटो रक्खे हैं .घर का सिला एक तिरंगा झंडा बाँस पर लटक रहा है ,जिस पर शन्नो ने बडे यत्न से चरखा बनाया है .उत्सव की सूत्रधार भी वही हैं..गौतम कुर्सी पर शन्नो के बराबर में बैठे हैं.

तरु और संजू दर्शक हैं..वे जय बोलेंगे झण्डे को सलामी देंगे और शन्नो का भाषण सुनेंगे.कौतूहल से उनकी आँखें चमक रही हैं .

शन्नो पहले गांधी जी के चित्र को माला पहनाती हैं .बांस हिलाकर झण्डे का कपड़ा फहराती हैंऔर फूल फेंकती हैं.उनका इशारा पाते ही तरु-संजू तन कर सलामी देते हैं..

"वन्दे-मातरम् गा तरु ."

मुझे तो पूरा नहीं आता ."

"भूल जायेगी तो मै बता दूँगी.चल जल्दी शुरू कर--."

इसके बाद बढी हुई उत्तेजना को संयत कर ,गले की आवाज धीमी कर शन्नो बोलने खड़ी हुईं. --

"हम अपना ख़ून देकर आजादी लेंगे.अंग्रेजों ने हमारी भारत माँ को गुलाम बना रक्खा है.ये मुट्ठी-भर लेग हमारे देशवासियों पर अत्याचार कर रहे हैं .हमारे देश का धन विदेश ले जा रहे हैं.(बीच-बीच में वह एक कागज देखती जाती हैं जिस पर भाषण तैयार कर लिख रखा है) हमारी भारतमाता परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ी कराह रही है .वह हमें पुकार रही है .हम उसकी बेड़ियां काटेंगे उसे आज़ाद करेंगे .---।"

तरु चकित है जिज्जी कितनी विद्वान हैं.

शन्नो गले की आवाज दाब कर जोर से बोलने का अभिनय करती हुई कहती हैं,"इन्किलाब --."

तरु-संजू चिल्लाते हैं,"जिन्दाबाद "

इन दिनों अखबारों की खबरें बडे ज़ोर-शोर से पढ़ी जाती हैं.आस-पास के लोग चबूतरे पर इकट्ठे होकर पिताजी से बातें करते हैं.

उनके स्वरों मे उत्तेजना और आँखों में एक विषेश चमक होती है ,गांधी ,नेहरू सुभाष ,जिन्ना आदि के नाम बार-बार आते हैं.सत्याग्रह ,आन्दोलन जैसे शब्द सुनाई देते हैं.वैसे ही जिज्जी भी बोल रही हैं तरु अभिभूत -सी सुन रही है .समझ में कुछ नहीं आ रहा पर शन्नो के जोश भरे चेहरे को मुग्ध होकर देख रही है.

शन्नो बोल रही हैं -"हम सिर पर कफ़न बाँध कर निकल पडेंगे ,देश के लिये सब-कुछ बलिदन कर देंगे .हम अपना ख़ून देकर आजादी लेंगे..हमे आजादी चाहिये ."

वे रुकती हैं फिर कुछ सोचकर कहती हैं,"चलो हम भी अपने ख़ून से दस्तखत करेंगे.."

तरु मंत्र-मुग्ध सी सुन रही थी ,अचानक उसे लगता है ,खून निकालने में दर्द होगा .शन्नो खून निकालने के लिये सुई लेकर आई हैं.

"खून से दस्तखत कौन-कौन करेगा ?"

"मेरे सुई मत चुभाना ,मुझे खून नहीं निकालना है ." तरु सबसे पहले बोल पड़ी.

"कायर ,स्वार्थी ."शन्नो ने हिकारत से देखा .

संजू सुई चुभने के डर से चुपके से खिसक गया

शन्नो धुली हुई निब और सफेद कागज भी निकाल लाईं.सुई हाथ मे लिये उन्होने गौतम की ओर देखा -शायद वे ही पहल करें .गौतम तटस्थ दर्शक बने देखते रहे.

फिर हिम्मत कर के शन्नो ने ही सुई की नोक बायें हाथ की उँगली के पोर में चुभाई . मुँह से सी निकला और सुई हटा निकाल ली ,ज़ोर से नहीं चुभा पाई .पोर को दबाने से खून का लाल कण छलका.हिम्मत करके वे फिर चुभाने को हुईं.

अब तरु से नहीं रहा गया.

"जिज्जी ,अपने आप उँगली में घाव कर रही हो ,फिर काम के मौके पर अम्माँ से कहोगी कट गया.उन्हें तुम्हारे झूठ का पता लग गया तो बहुत नाराज होंगी ."

शन्नो ने क्रुद्ध दृष्टि से तरु को देखा,गौतम पर निगाह डाली और सुई रख दी .

"देखा कैसी चुगलखोर है ! "
**

"हुँह ,इन्हें आजादी चाहिये !अब खिड़की पर खड़े होकर उधर ताकते देखा तो टाँगें तोड़ दूँगी ."अम्मां ने खूब जोर से शन्नो को डाँटा था.


तरु को पूरी छूट है.स्कूल से आने के बाद चाहे सारे दिन मोहल्ले में घूमे ,लडकों के साथ गुल्ली-डंडा खेले ,पेडों पर चढ़ती फिरे !उसे कुछ करने से परहेज़ नहीं. इतना बड़ा तो पीछे का ही बाड़ा है,फिर उधर वालों का बगीचा.,बीच में एक छोटी-सी टूटी दीवार ही तो है.फलाँग कर उधर चली जाती है तरु.

पीछे बाडे में संघ की शाखा लगती है.शाम को खाकी नेकर पहने बहुत से लड़के इकट्ठे होते हैंऔर लाठी भाँजना सीखते हैं..एक स्वयंसेवक उनका मुखिया है उसे सब लोग अल्लमटोला कहते हैं.उनकी प्रार्थना 'नमस्ते सदा वत्सले मातृ भूमे --' सुनना तरु को बहुत अच्छा लगता है.,वे भगवे रंग का त्रिभुजाकार झंडा लगाते हैं -ध्वज ! झंडे की सलामी को कहते हैं ' ध्वज-वंदना ' और उसका उनका अपना अलग तरीका है.
बीच की दीवार फाँद कर तरु,दूसरेवाले बाड़े के पेड़ पर चढ़ कर यह सब देखा करती है.गौतम भी शाखा में शामिल होता है..एकाध बार तरु भी उसी के साथ गई थी. अल्लमटोला ने उसे प्यार से अपने पास बिठा लिया था. पर उन बड़े-बड़े लड़कों के बीच उसे बड़ा अजीब लगता है - बडी झेंप लगती है -समझ में नहीं आता कैसे बैठी रहे, कैसे बात करे .उसे पेड़ पर चढ़ कर देखना अधिक सुविधाजनक लगता है -वह सबको देख ले उसे कोई देख ही न पाये.

शाखा लगती है मुश्किल से घंटा भर.बाड़ा खाली होता है तो वह अपने साथियों के साथ गुल्ली-डंडा या कलामडाला खेलती है .पतली -पतली स्वर्ण-चंपाकी डालों पर वह चढ़ लेती है,घने पेड़ों की शाखाओं मे छिप सकती है और अमरूद तोडने में तो उसकी बराबरी ही नहीं.इमली की तरफ जाने में डर लगता है-कहते हैं वहां चुड़ैल रहती है.

अम्माँ कभी तरु को नहीं डाँटतीं.तरु-संजू छुट्टे बैल हैं. संजू तो अक्सर ही बीमार रहता है.और तरु शुरू से तंदुरुस्त .लड़ाई-झगडे में तरु की संजू से हाथा-पाई होती है..जब देखती है वह बराबर से पीट नहीं पा रहा है तो तरु को उस पर दया आ जाती है.लड़ाई-झगड़ा कितना भी हो एक दूसरे की शिकायत दोनों मे से कोई नहीं करता ..हाँ, दोनों के हाथ-मुँह पर खरोंचें देख कर सबको उनके झगड़े का पता चल जाता है. संजू जब कुछ नहीं कर पाता ,तो खिसियाता है और किचकिचा कर नाखूनों का प्रयोग करता है.पहले तो दाँतों से काट भी खाता था.,जब तरु ने 'कटखना कुत्ता' कहना शुरू किया तब बन्द कर दिया .

स्कूल से आने के बाद खेलने से छुट्टी नहीं मिलती .रात को जहाँ खाना खाकर किताबें लेकर बैठो ,बड़े ज़ोर से नींद आती है .

पिता आवाज़ लगाते हैं ," तरु पढ़ रही हो ?"

तरु रजाई में से मुँह निकाल कर जवाब देती , "हाँ,पिताजी."

"अभी बताती हूँ - तब से ये रजाई ओढे लेटी है",शन्नो धमकातीं .

"तुम कहोगी तो मैं चुप रहूँगी ? मैं भी तुम्हारी बातें कह दूँगी ."

"ऊँह ,मुझे क्या ! अपने आप फेल होएगी. "

पर तरु अच्छे नंबरों से पास हो जाती है .

"चुड़ैल है . बिना पढ़े पास हो जाती है," शन्नो चेताती ,"अभी क्या.अभी तो छोटी क्लास है ,हमारी क्लास में आयेगी तब पता चलेगा ."

"तुम्हारे जैसी किताब खोले ,खिड़की ताकती नहीं बैठी रहूँगी."

तरु कैसे समझाये कि एक बार स्कूल में पढने से जब याद हो गया तो दुबारा पढ़ना बेकार है .क्लास में पोएम और पहाड़े पूछे जाने पर फटा-फट सुना देती है. .पर पढ़ने से ज्यादा उसे घूमना पसंद है .

पिछली बार मन्नो के आने पर दो दिन स्कूल नहीं गई थी.खेल की धुन में किसी से यह भी नहीं पूछा कि याद करने को क्या दिया गया. वो तो क्लास मे बहन जी ने दो-तीन लडकियों से पहले सुना और उनकी गलतियाँ ठीक कराईं तो सुन-सुन कर उसे याद हो गया.अपनी बारी पर फटाफट सुना डाली .

कहीं बहन जी उसीसे पहले पूछ लेतीं तो !

अरे, तो क्या .दो-चार फुटे मार लेतीं हाथ पर .ऐसे क्या मार पड़ी नहीं है कभी !

पर वह सब बहुत पहले की बातें हैं .अब तो मन्नो ऐसी विदेश जा बसीं कि सालों नहीं आतीं .
**
"शन्नो , जे तुम्हारी निकली भई लटें बडी पियारी लगती हैं." मथुरा परशादिन ने हँसकर कहा था .

घर पर अम्माँ ने टोका था ,"और लड़कियां भी तो हैं ,तुम्ही सबसे निराली क्यों हो ?इतनी सौखीनी ,इतना बनाव-पटार ? सब लोग क्या कहते होंगे .तुम्हें ही अनोखी जवानी चढ़ी है !"
शन्नो की सहेलियों के सामने भी अम्मां उसे बुरी तरह झिड़क देती हैं,उसका मुंह जरा-सा निकल आता है .

जिज्जी जब खिलखिला कर हँसती हैं तो तरु को बहुत अच्छी लगती हैं ,पर अम्माँ चौंक कर उनकी ओर देखने लगती हैं .

शन्नो की सहनशीलता जवाब देने लगी है .

- पता नहीं इस घर से कब छुटकारा मिलेगा !
*


(क्रमशः)

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

भानमती की बात -1.

भानमती के कुनबे' (एक ब्लाग था मेरा)पर पोस्ट देना बंद करने के बाद से वह महिला विद्रोह पर उतारू हो गई है.
बहुत दिनों से उसे मना-मना कर रोके हूँ अब वह बिलकुल नहीं सुन रही.पूरे कुनबे के साथ सिर पर सवार है .कहती है -लोकतंत्र के युग में classes के हित के लिए masses को खारिज कर देना अन्याय है.
अब चुप नहीं रहेगी भानमती . मजबूरी में इस ब्लाग् पर बीच-बीच में उसे बोलने का मौका देना पड़ेगा .
लीजिए ,शुरू हो गई  वह -
कहीं धर्मपत्नी शब्द का प्रयोग सुनती हूँ तो ,मन का कौतूहल जाग उठता है .सोचती हूं धर्मपत्नी हैं यह, सचमुच की पत्नी नहीं होंगी, तभी ! यही देखा  है कि वास्तव में जो स्थिति नहीं होती उसे औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए 'धर्म' को साथ लगा देते हैं .जैसे धर्म-भाई /बहिन .वास्तविक जीवन में भाई/बहिन का नाता नहीं है लेकिन मन से मान लिया है .धर्म का नाता है .मतलब यह कि जो असली भाई /बहिन नहीं है वह धर्मभाई/बहिन बन सकता है .नहीं तो संबंध सहज-स्वाभाविक स्वयंसिद्ध हो तो  ,धर्म को बीच में लाने की ज़रूरत ही नहीं .अपनी बहिन से 'धर्म-बहिन' कह कर देखना ज़रा ,डंडा लेकर दौड़ा देगी .
 और माता-पिता से धर्म का वास्ता दे कर संबंध जोड़ सकते हैं ?-कहेंगे  धर्म-पिता या धर्म-माता ?
सावधान, धक्का दे कर  घर से निकाल देंगे १

मेरी समझ में नहीं आता कि पत्नी के साथ तो धर्म जोड़ दिया ,पति के साथ नहीं. .पत्नी तो पत्नी ,विवाहिता या जिस भी विधि से यह संबंध जुड़ा हो. हाँ,धर्म-पति अब तक नहीं सुना जब कि धर्मपत्नी शुरू से सुनते आए हैं.पति केवल पति होते होंगे ,उनके लिए धर्म-अधर्म का कोई विचार नहीं होता .
धर्म पति सुना नहीं ,पर उदाहरण देखे हैं. -विवाहित पति और व्यवहार या आवश्यकता के लिये जिससे जुड़ गई हो-उसे धर्मपति होना चाहिए .क्यों कि धर्म के  अनुसार यह बातविहित है .जैसे कुन्ती के लिए लिए धर्म,इन्द्र,वायु आदि धर्म पति और पांडु ,वैधानिक पति .- संतानें उन्हीं की कहलाएँगी ( सब पाँडव कहाए ) .

धर्म पति सामयिक होता है ,केवल काम चलाऊ, नाम पति का ही रहेगा .पाँडवों में तो पाँचो द्रौपदी के पति थे ,फ़ुलटाइम तो नहीं पर विधिपूर्वक विवाहित ,सर्व मान्य ! जहाँ तक पत्नी का सवाल है ,वह चाहे जितनी कर ले आदमी ,पर वहाँ कोई आपसी भेद नहीं होता कि ये तो धर्मपत्नी है, तुम केवल पत्नी. उपपत्नी - उपपति तो ठीक हैं ,वहाँ दर्जा प्रमुख और गौण होने का है पर पत्नी और धर्म पत्नी ! यह रहस्य मैं नहीं समझ पाई आज तक

वैसे नीति या विधि-विधान के हिसाब से जैसा और संबंधों में देखा गया है- जो असली पत्नी नहीं है वही धर्मपत्नी कही जा सकती है !

अगर कोई स्पष्टीकरण दे सके तो संशय दूर हो !

- भानमती

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

कृष्ण-सखी - 4.


4.

यहीं से विषम जीवन को झेलने की शक्ति मिलती है .

वनवास काल में कृष्ण के साथ उन्मुक्त व्यवहार - कोई रोक-टोक नहीं .जब पाँच-पाँच पति सिर झुकाये बैठे रहे थे और एक पर-पुरुष ने लाज बचाई ! संसार की दृष्टि में वह पर पुरुष होगा पर मेरे लिये वह इन पतियों से अधिक विश्वस्त है , मान्य है .
मान्य तो पहले भी था,अब अनन्य हो गया. किसी पति का कोई दखल नहीं वहाँ .जहाँ कृष्ण हैं वहाँ कोई संशय, कोई भ्रम नहीं .

अनमनी बैठी है पांचाली ,अपने ही सोच में मग्न .

'जीवन की स्वाभाविकता बनी रहे .' यही तो कहा था उसने

'और त्याग ?व्यर्थ में उसे ओढ़ने की जरूरत क्या है ?जीवन मिला है ग्रहण करने के लिये ,जो मिला है स्वीकार करो .भागो मत ,त्यागो मत.मत करो स्वयं को वंचित- प्रवंचित !

'पांचाली , मीत हो तुम मेरी !स्त्री-पुरुष की मैत्री दोनों को उठाती है . इन्द्रियातीत भावना अंतरतम की गहराइयों तक उतरती हुई आत्मा का उन्नयन करती है .तम्हारा हृदय जब मुझे पुकारता है ,जब भी सचमुच तुम्हें जरूरत होती है मैं दौड़ा चला आता हूँ .'

मन की द्विविधा मुख पर आ गई थी

'सामान्य नारी का जीवन कहाँ रह गया मेरा?.. लगता है मेरी बारी आते ही... जैसे सब कुछ बदल जाता है.सबकी एकदम अलग प्रत्याशाएँ ..मुझी से .. जो आदर्श घुट्टी में पिलाए गए हैं उन्हें उतार फेंकना भी क्या इतना आसान है?'

'समझती क्यों नहीं कृष्णे . तुम्हें चुना है नियति ने कुछ विशेष होने के लिए .'

'नहीं, प्रश्न निष्ठा का है '

'उसके होने न होने का प्रश्न ही कहाँ ?जो तुम पर लाद दिया गया है निभा रही हो . अपने सुख के लिये तुमने कुछ नहीं किया ,फिर यह कुंठा क्यों ?सबसे विवाह तुमने स्वेच्छा से नहीं किया .सोचने का ढंग बदलो ,ये सब बनाई हुई रीतियाँ हैं .'

'पर सबको बराबर हिस्सा ,सब से एक सा व्यवहार, एक-सा समर्पण ..कैसे..कैसे ? 'जैसे आत्मालाप कर रही हो -

'कुन्ती बुआ के मन की बात थी -उनके पुत्र इस विषम काल में बिखर न जायँ . वही तो कर रही हो तुम. साधे हो सबको .

अन्याय किसी पर न हो, इस किसी में तुम भी सम्मिलित हो .सहज होकर वही करो मन जिसकी गवाही दे . पांचाली, पाँचो तो उँगलियाँ भी बराबर नहीं होतीं !
.समझती क्यों नहीं तुम उनकी विवशता!,तुम्हारी बुद्धि कहां सो जाती है ?..

जानता हूँ यह अपराध- बोध क्यों - मन का विशेष अनुराग अर्जुन के लिये न ?

द्रौपदी चुप.

'स्वयंवरा थीं .उसे वरा था तुमने .बीच में कोई नहीं था . किसी के साथ अन्याय नहीं था ,.शंकित मत होओ .अगर पुरुष में छूत नहीं तो नारी में भी नहीं'.

'तुम कैसे निभा पाते हो इतना और फिर भी निश्चिन्त?'

.'आदर्श इतने भारी क्यों बना ले सखी,कि वे जीवन पर लदे रहें !व्यावहारिक जीवन में न्यायसंगत , और स्वयं संतोष देनेवाला व्यवहार उचित नहीं क्या?'

'पर मैं कितनी विभाजित हूँ किससे आशा करूँ ?सब एक दूसरे से बँधे हुये ,एक दूसरे का मुख देखते हुए।एकान्त भाव से न मैं किसी की पत्नी बन सकी न कोई मेरा पति --कहां है मेरी संपूर्णता .'

कृष्ण ने हाथ पकड़ लिया है,' गंभीरता से मत लो सखी !खेल समझ कर खेलो ,स्वयं को सहज रख कर कर जितना कर सको .आरोपित वस्तुएँ ऊपर -ऊपर से ही बीत जाएँ .विचार की प्रखरता दुख का कारण क्यों बने ?'

'और जब मुझ पर आरोप लगेंगे ?'

'कौन लगाएगा ?किसी ने तुम्हारे आरोपों का निराकरण किया?
यह जीवन के दाँव हैं सबके अपने .हर कोई खेल रहा है यहाँ .चालें चली जा रही हैं सब खत्म हो जायेगा खेल के साथ.'

द्रौपदी सोचती रह जाती है

कैसे समाधान करें कृष्ण !

 '....जो जैसा है वैसा ही रहने दो ,अपने पूर्वाग्रह मत थोपो. सत्य को जीना जीवन है . हम यहाँ सत्य को बदलने नहीं उसकी वास्तविकता के बीच अपने व्यवहार को माँजने आये हैं ,जिस भी रूप में वह सामने आता है जियो सबसे तटस्थ ,अपने अनुसार .
सौंप दो अपने को इन लहरों में ,बहे जाओ .सहज रूप से. क्योंकि इससे बचने का कोई उपाय नहीं .कहीं निस्तार नहीं .विराट् चेतना के अंश रूप में इस दृष्य-जगत की साक्षी बनती चलो .फिर कोई कर्म तुम्हें नहीं व्यापेगा .'

उसाँस भरी पाँचाली ने - कितना कठिन है निभाना !

कैसी -कैसी बातें कितना तटस्थ हो कर कह जाता है यह .और मैं लाचार सुनती हूँ .कोई उत्तर नहीं होता मेरे पास . लगने लगता है मैं स्वयं को भी उतना नहीं जानती जितना यह जानता है .मैं उससे हार जाती हूँ .

कैसा है यह मेरा मीत !
अंतर तक पढ़ लेता है .मेरा कुछ छिपा नहीं रहता उससे .
मुझे ही मेरे सामने खड़ा कर देता है ,मेरा सच उद्घाटित हो जाता है उसके आगे, नकार नहीं पाती मैं .उसके आगे मैं अपने सहज रूप में रह जाती हूँ - आडंबर-आवरण रहित.जैसे दर्पण में अपने आप को देख लिया हो .
भरी सभा में मेरी नग्नता पर आवरण डालनेवाला वही तो था .मेरी लाज का रखवाला वही तो था ,मेरा सखा ,मेरा मित्र !
क्यों याद आता है वही बार-बार - मैं उस दारुण क्षण को भूल जाना चाहती हूँ !
खो देना चाहती हूँ अपने आप को किसी बीहड़ में जहां स्वयं अपनी सुध न बचे .
बस तुम्हें याद कर आश्वस्ति मिलती है.
मीत मेरे , मैं स्वयं नहीं समझ पाती तुम्हें ,कैसे कलाधर हो- चंद्रमा की सारी कलाएं एक पंक्ति में खड़ी हो जाएँ तो भी तुमसे उन्नीस ही रहेंगी !
*
(क्रमशः)



रविवार, 13 फ़रवरी 2011

एक थी तरु - 4 & 5

4.

ट्रेन में चढ़ते ही तरु ने असित को देख लिया . वह अनदेखी कर अपनी बर्थ की ओर बढ़ गई.

उसके सहकर्मी के बडे भाई डॉ.रायज़ादा के घर दोनों का परिचय कराया गया तब भी नमस्ते कर वह वहाँ से खिसक ली थी.'उँह ,मुझे क्या करना ! दुनिया में सब तरह के लोग होते हैं.----और अकेली लड़की को देख कर कुछ लोग और धृष्ट हो उठते हैं .'

कहां इलाहाबाद कहां मेरठ ! लेकिन नौकरी जब यहाँ मिली तो क्या किया जा सकता है .उधर गौतम भैया के पास इलाहाबाद का चक्कर भी लगाना ही पड़ेगा .अम्माँ बहुत बीमार हैं ,न जाये तो भी नहीं चलता .

यह असित का एरिया है,गाज़ियाबाद और समीपवर्ती क्षेत्र . असित उधर है- चार बर्थ छोडकर .वह ज़रा खिसक कर एक ओर हो गई जिसमे सामना न करना  पड़े . मुझे उससे क्या मतलब ?

पर असित ने देख लिया ,वह उठ कर  चला आया और वहीं  बैठ गया.

 "आप भी अक्सर इस गाड़ी से जाती हैं?"

"हूँऊँ" बिना मुँह खोले उसने नाक से आवाज निकाली .

"मुझे भी यही गाड़ी सूट करती है .हफ़्ते में एक चक्कर तो लग ही जाता है."

वह चुप रही.

"आप मुझसे नाराज होंगी ? मुझे उस दिन के व्यवहार पर दुख है."

"नहीं आपका भला  क्या दोष ?" तरु  भरी बैठी थी,"जो महिलायें बाहर नौकरी के लिये निकलती हैं उनका भी कोई मान-सम्मान होता है? आपने कोई नई बात तो की नहीं.अब तो सुनने की आदत पड गई है ,नाराज काहे को होऊँगी ?"

असित का मुँह लटक गया.यह सब सुनने को मिलेगा उसने सोचा भी नहीं था.पर चुपचाप बैठा रहा. तरु होल्डाल उठाये इसके पहले ही उसने उठाकर रख दिया,अटैची एक ओर खड़ी कर दी,फिर बोला ,"थर्मस में पानी भर लाऊँ ?"

पानी लाकर खूँटी पर टाँग दिया.

होल्डाल खोल दिया.

आखिर कहाँ तक खिंची रहती  ,बोलने-चालने से  सफ़र   में कहाँ तक बचा जा सकता है !

फिर उसने चाय के लिये पूछा तो सिर हिला दिया.

"चलो ,आप बोलीं तो .मैंने तो सोचा था दुनिया भर से नाराज़ ही रहती हैं."

चाय पीते-पीते बात करने लगे दोनों .

शुरू में लगा था पर ऐसा बुरा है नहीं, तरु ने सोचा , और मुझे क्या करना ,उसकी अपनी परेशानियाँ होंगी!

*
दस-पन्द्रह दिनों में तरु का एक चक्कर लगता ही है - कभी कभी तो और जल्दी .
बात एक बार की हो तो इंसान तटस्थ रह ले .यहाँ तो ट्रेन में आते-जाते महीने में एक- दो बार आमना-सामना हो जाता हैंृ और अक्सर उसी कंपार्टमेंट में  .

इतने लंबे सफ़र में बात करना भी एक मजबूरी है .फिर जो आदमी सुविधा का इतना ध्यान रखे उससे मुँह भी कैसे फेरे रहे !

काफ़ी परिचय हो गया है आपस में .

"---अब तो अम्माँ का ठीक होना मुश्किल लगता है, मुश्किल क्या असंभव ! पैरालिसिस का ऐसा अटैक !बिल्कुल बिस्तर पर सीमित रह गई हैं.ज्वाइन करके मुझे फिर छुट्टी लेनी पडेगी."

छुट्टियों की बात चली तो असित ने अपना दृष्टिकोण बताया .तरु को ताज्जुब हुआ.

"अच्छा ! छुट्टियों में भी घर पर समय बिताना नहीं चाहते ?"

"एकाध दिन तो चल जाता है फिर ऊबने लगता हूँ."

"घर में कौन-कौन है ?"

"पिता हैं ,माँ हैं ,भाई-बहन सब हैं ."

"फिर भी--फिर भी--- ?."

"कुछ नहीं ,ऐसे ही.कहने लायक कुछ नहीं.शुरू से ही कुछ ऐसा हूँ ,सबसे अलग-अलग रह जाता हूँ.घर में और अकेलापन लगता है....आपको सुनकर अजीब लग रहा होगा ?"

अलग-अलग लोगों का ढंग कभी-कभी कैसा एक सा होता है ,तरु ने सोचा ,और सिर हिला दिया जैसे उसकी बात समझ रही हो .

वह पूछती रही ,वह बताता रहा.

"जाने कैसे जीवन बीता  . वह सब याद करने की इच्छा नहीं होती.मेरी मां बहुत पहले मर गईं थीं ,दूसरी माँ हैं ये .पहले उनसे मांजी कहना बड़ा अजीब लगता था.अम्माँ कहलाना उन्हें पसन्द नहीं आया.तब हम तीन भाई-बहन थे.सबसे बडी बहन अब नहीं हैं.वे डूब गईं थीं ,मर गईं. ...

"पन्द्रह वर्ष का था ,तब से एक दुकान पर नौकरी शुरू कर दी,साथ ही मैट्रिक की तैयारी भी.फिर वही क्रम आगे चला. सुधा दीदी के मरने के बाद घर से मन उचट गया था.बाहर के लोग अजीब निगाहों से देखते थे,नई माँ से बडा डर लगता था.तरह-तरह के इल्जाम और डाँट-फटकार.हमेशा अपमान और आरोप !बुरी तरह परेशान रहता था मैं."

"खाना-पीना?"

"किसी का कुछ ठिकाना नहीं.कभी खा लिया ,कभी यों ही रह गया."

तरु चुप बैठी है.

"इन्टर में कॉलेज ज्वाइन कर लिया .प्राइवेट होकर साइन्स नहीं ले सकता था.डॉक्टर बनने की इच्छा थी और तमाशा देखिये ,बन गया मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव."

वह जोर से हँसा .कैसी खोखली-सी लग रही है यह हँसी !

तरु को अजीब लगने लगा है . क्या बोले कुछ समझ में नहीं आ रहा .असित वहीं जमा बैठा है,तरु के होल्डाल से बची हुई जगह में.तरु होल्डाल पर खिडकी से लगी बैठी है, तिरछी होकर जिससे खिड़की से बाहर भी देखती रह सके .

कुछ तो बोलना  चाहिये, तरु ने पूछा" दुकान के काम के साथ पढ़ाई कैसे चल पाती होगी ?"

"हाई स्कूल मे फर्स्ट था न !दुकानदार ने काफी सुविधायं दे दीं थीं ,देर रात तक उसका हिसाब-किताब करवाता रहता था.परीक्षा के पहले तो उसने काम भी बहुत हल्का कर दिया था.,सिर्फ़ चार घण्टे की ड्यूटी . तभी अचानक प्रिन्सिपल साहब की कृपा हुई होस्टल में जगह मिल गई .इन्टर में भी फ़र्स्ट ले आया.फिर दुकान की नौकरी छोड़ ट्यूशनें पकड़ लीं..

"प्रिन्सिपल की कृपा की भी विचित्र कहानी है ..." तरु कुछ पूछ भी नहीं रही ,चुप बैठी है.

"....रहने का कोई ठिकाना तो था नहीं.एक बार प्लेटफार्म पर जा सोया.सोचा था आराम से चाय-वाय पीकर निकलूंगा पर वहँ फँस गया.कोई ट्रेन बहुत लेट आई थी.बाहर निकलने लगा तो टिकट की माँग हुई और यहँ प्लेटफार्म -टिकट भी पास नहीं था. पकड़ा गया .दुकनदार के यहाँ काम करता नहीं था वहाँ सोने की कोई तुक नहीं थी ,कुछ सामान जरूर उसके स्टोर में रख छोडा था .

"अजीब हालत हो गई मेरी .इतने में प्रिसिपल साहब उधर आ निकले- किसी को सी-ऑफ करके लौट रहे थे.मुझे अच्छी तरह जानते थे ,पढने में अच्छा था न ! कह-सुन कर अपने साथ निकाल लाये ,खाना खिलाया...."

तरु को कैसा-कैसा तो लग रहा है . विचित्र  है यह दुनिया ,जहाँ किसी की बहन ,किसी के पिता दूसरों के अत्याचार सह-सह कर मर जाते हैं या मार डाले जाते हैं और हत्यारे सबकी सहानुभूति बटोरते लम्बी आयु भोगते हैं !

" मैं सामान्य नहीं हूँ तरल जी , मुझे खुद को सम्हालना बडा मुश्किल लगता है .कभी-कभी इतनी उलझन ,इतना बिखराव कि मैं झेल नहीं पाता .मन इतना उद्विग्न  कि अपने आप से छुटकारा पाना चाहता हूँ.यह बाहरी चक्कर मन की भटकन से सामंजस्य बैठा लेता है इसीलिये पसन्द की है यह नौकरी .किसी से कुछ कह नहीं सकता ,कौन सुने-समझेगा ?मेरा कोई अपना नहीं है."

तरु हाथ पर सिर टिकाये वैसी -की -वैसी बैठी है.असित का ध्यान उधर गया .कोई स्टेशन आ रहा है शायद ,गाड़ी की गति धीमी पड़ने लगी है.

"मैं तो बोलता ही चला जा रहा हूँ ,आप भी क्या सोचती होंगी !"

कोई उत्तर नहीं.

इतने में स्टेशन की रोशनी तरु के झुके चेहरे पर पड़ी.

"अरे ,ये क्या ?...आप रो रही हैं....इतना लगता है आपको मेरे लिये .."

आवेश में बढकर उसने तरु का नीचे लटकता हाथ पकड़ लिया .वह सम्हली ,धीरे-से अपना हाथ छुडाकर आँसू पोंछ लिये.

"ग़लत मत समझिये ,आप कह रहे थे और मुझे अपने लिए लगने लगा था. बात आपकी थी पर जाने कैसे मैं अपने में चली गई ... "

सिर उठाकर असित ने ध्यान से उसकी ओर देखा

तरु चुपचाप बाहर देख रही थी
***
5.

तरु के मन में जो उमड़ता-घुमड़ता है, अगर सोचने बैठे तो सिलसिलेवार कुछ याद नहीं आता.सब कुछ जैसे खण्ड-खण्ड होकर बिखर गया है.भीतर-ही भीतर एक सैलाब -सा उठता है,जिसमें सारा का सारा बेतरतीब उतराता चला आता है.

पिता का चेहरा बार-बार उभरता है -अलग-अलग तरह से ,अनेक रूपों में, अनेक भंगिमाओं में. स्मृति की एक लहर लाती है दूसरी समेटती बहा ले जाती है.कुछ भी पकड़ में नहीं आता.उनके एक हँसते चेहरे ,एक प्रफुल्ल मुद्रा को बहुत प्रयत्न करके वह सामने रखने की कोशिश करती है,पर नहीं हो पाता !

बीच-बीच में दिख जाता है विपिन का किशोर-कोमल मुख,जिसकी नव-स्फुटित वय अनायास ही तरु से मैत्री जोड़ बैठी थी. वह किशोर कब युवा हो गया ,उसे पता ही न चला, और एक दिन समझ कर वह चौंक उठी . वह चला गया तब उसने रिक्तता का अनुभव किया था.फिर उसने मन-ही-मन कहा था,'अच्छा हुआ विपिन ,तुम चले गये.तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारा न होना मुझे खटकता रहा ,पर तुम्हारी नई उम्र को फूलों की जरूरत थी और मेरे पास सिर्फ काँटे थे.'

और पृष्ठभूमि में एक भीड़ ,जिसमें बहुत लोग हैं - भाई-बहिन ,नाते-रिश्ते,मित्र-परिचित; बहुत से चेहरे ,बहुत सी भंगिमायें.पर वह सारी भीड़ लहरों में बिखर कर गड्ड-मड्ड हो जाती है.

****

पिता से जुड़ी बहुत-सी घटनाएँ तरु को याद हैं.
 बहुत छोटी थी ,उनका नाम तरु ने दूसरों से सुनकर जाना था 'गोविन बाबू' .  यह तो  बाद में बड़े होने पर  समझी कि उनका नाम गोविन्द प्रसाद है .

 संजू तरु से  छोटा है , साथ का वही है  -मेल के लिए भी और लड़ाई के लिए  भी . शन्नो और गौतम काफ़ी बड़े ,उनसे  तरु का कोई ताल-मेल नहीं बैठता .
दोनों छोटे हैं अक्सर पिता के आस-पास रहते हैं .वैसे उनके पास  समय ही कितना ,सुबह से शाम तक दफ़्तर की नौकरी .

गोविन्द बाबू के लेटते ही संजू पहुँच जाता है.

"पिताई ,खन्ती -मन्ती, " वह बड़े लाड़ में आकर कहता है ,"फिर हम तुम्हारे पाँवों पर कूदेंगे. '

उनकी टाँगें बहुत दर्द करती हैं .एक-एक टाँग पर तरु-संजू को खड़ा कर रौंदवाते हैं तब चैन पडता है.

"अच्छा ,आओ."

पीठ के बल लेटकर उन्होनें तलवे जमीन पर टिकाये और दोनों पाँव घुटने खड़े कर जोड़ लिए.संजू ने घुटनो पर ठोड़ी जमा ली और टाँगों पर औंधा लेट गया . वे उसे ऊपर -नीचे झुलाने लगे और गाने लगे --

''खन्ती मंती खंत खताई .

कौड़ी पाई

कौडी घसियारे को दीन्हीं ,

घसियारे ने घास दीन्हीं ,

घास गाय को दीन्हीं ,

गाय ने दूध दीन्हा ,

दूध की खीर पकाई ,

सब घर ने खाई,

आरे धरी ,पिटारे धरी ,

आई घूस ,ले गई मूस,

(पाँव पूरी ऊँचाई तक उठाकर )

लडके-लडके नीम पे ,

लडकियाँ-लडकियाँ धम्म !

(पांव पूरे नीचे आ गये)

"पिताई और धम्म,धम्म .लक्कियां धम्म .''

लडकियाँ धम्म करने मे संजू बडा खुश होता है ,खिलखिलाकर हँसने लगता है .उसे लगता है वह नीम पर है तरु 'धम्म' हो गई. जीत की खुशी में उलकी आँखे चमक उठती हैं.

पहले तरु झूलती थी.तब पिता कहते थे ,"लड़कियाँ-लड़कियाँ नीम पे ,लड़के-लड़के धम्म,'तब तरु खुश होती थी संजू का मुँह बन जाता था.

अब तरु उतनी छोटी नहीं रही .

" अच्छा, अब तुम हमारे पाँव दबाओ ."

संजू पाँव पर खड़ा हो गया और चल-चल कर दबाने लगा .

"तरु, गौतम क्या कर रहा है?"

"भइया पढ़ रहे हैं ,पिताजी ." तरु आकर खडी हो गई.

"चौके मे क्या हो रहा है ."

"जिज्जी अम्माँ के लिये पानी गरम कर रही हैं ."

"जाकर शन्नो से कहो एक कप चाय बना दे ,मेरा सिर दर्द कर रहा है ."

शन्नो ने सुन लिया आकर बोली ,"पिताजी दूध बिल्कुल नहीं है.शर्माइन का लड़का माँगने आया था ,अम्मां ने सब दे दिया ."

**
पढ़ाई से बार-बार तरु का मन हट जाता है.

गौतम भैया कैसे लग रहे हैं - देख-देख कर उसे हँसी छूटती है.नाक के नीचे हल्की-हल्की मूछें उगने लगी है; उन पर पसीने की बूँदें अटक गई हैं. कैसी अजीब शकल लगती है .

तरु फिर देखती है ,ज़ोर से हँसी आती है उसे.शन्नो उसे हँसते देख रही हैं.

गौतम भइया को जिज्जी भी तो देख रही हैं ,इन्हें मज़ा क्यों नहीं आ रहा - उसने सोचा .वह भाई की ओर देखती है ,फिर शन्नो की ओर और जोर से हँस पडती है. अब गौतम की नाक पर भी पसीने की बूँदें चमक रही हैं.

ये जिज्जी क्यों नहीं हँसतीं ?अभी अम्मा ने डाँटा है .किसी बात पर नहीं हँसेंगी वे. उसने मन-ही-मन समाधान कर लिया.पता नहीं संजू कहां है ,क्या कर रहा है - इस समय वह भी होता तो कितना मज़ा आता .ऐसे मौकों पर दोनों में खूब पट जाती है .

शन्नो तीखी नजरों से तरु को देख रही हैं,और वह हँसे चली जा रही है.हँसी रुकती नहीं.वह अपनी किताब उठाकर आड़ में जा बैठती है.वहीं से झाँक-झाँक कर देख लेती है कि पसीने की बूँदें अभी मूछों पर ही अटकी हैं या टपक गईं.बार-बार हँस उठती है तरु.

शन्नो आकर गौतम के पास बैठ गई,वे तरु की ओर इशारा कर कुछ कह रही हैं..तरु के कानों में कुछ शब्द पडे,'देखा गौतम इस चुड़ैल को...'

"क्यों तरु, हमेशा ऐसे ही फ़साद खड़े किया करती है',गौतम दहाड़े.

शन्नो ने जोड़ा ,'चुगलखोर कहीं की ,झूठी ,बत्तमीज़!"

लाल-लाल आँखें किये गौतम तरु को घूर रहेा हैं .पसीने की बूँदों से भरा उनका चेहरा और अजीब लगने लगा है.पर अब तरु की हँसी समाप्त हो गई है.

"मैनें क्या किया?"

"और झूठ बोल-बोल कर अम्माँ से उनकी डाँट पड़वा , ऊपर से बैठ कर हँसी उड़ा.--अब से मत बैठाकर हम लोगों के कमरे में."

"मैनें क्या किया?"

"हमेशा अम्माँ से जिज्जी की चुगली लगाती है . भाग यहाँ से."

"झूठा नाम मत लगाओ ! मैं तो यहीं बैठूँगी.देखो अम्मां बेकार में मुझे--."

तरु को चिल्लाते देख शन्नो ने दखल दिया ,"चिल्ला क्यों रही है ?बैठ हमारे सिर पर "फिर गौतम की ओर घूमी,"मत कह गौतम,वह फिर शिकायत करेगी और वो मेरे पीछे पड जायेंगी ! "
गौतम कुछ कह नहीं रहे ,आग्नेय दृष्टि से तरु को घूरे जा रहे हैं.तरु वहीं अड़ी बैठी है.

"नहीं जायेगी .अच्छा जा, अब मुझसे मत बोलना."

"अच्छा, "तन कर उसने जवाब दिया,"नहीं बोलूँगी."

फिर तरु और गौतम की बोल-चाल बन्द - महीनों के महीनों.तरु भी एक ही अड़ियल है,अपने आप बोलेगी नहीं और कहीं बाहर जाकर अगर गौतम को ही बोलना पड़े तो ऐसे जवाब दे देगी जैसे दीवारों से बात कर रही हो .गौतम बड़े ठहरे उन्हे भी बोलने में अपनी हेठी लगती है.

"तरु, ऐसा नहीं करते. वो बडे भाई हैं,'अम्माँ समझाती हैं.

तरु अम्माँ से शिकायतत क्यों करे ! अपने आप निपट लेगी.उसे लगता है बड़े हैं तो क्या हमेशा मेरे ऊपर बेकार नाराज होते रहें?जिज्जी मेरे खिलाफ भरती हैं और वे बिगड़ना शुरू कर देते हैं.एक बार पूछ भी तो लें मैनें कुछ किया भी है या नहीं?जब पहले ही डाँट लेते हैं तो मैं काहे को असली बात बताऊँ?मैं क्या फ़ालतू हूँ जो बिना पूछे अपनी सफ़ाई देने पहुँच जाऊँ ?"

गौतम भइया अपनी किसी बात पर डाँटें तो भी ठीक,पर जहाँ जिज्जी ने चढ़ाया उनकी आँखें लाल ,जैसे खाने को दौड़ पडेंगे .और शन्नो जिज्जी भी !इतनी बड़ी हैं खुद नहीं कह सकतीं मुझसे ?हमेशा उनसे डँटवाती रहती हैं.मैं तो अपनी बात पर खुद निपट लूँ ,दूसरों को बीच में क्यों डालूँ?

तरु को गुस्सा तो यह है कि जो उसने किया नहीं उस के लिये सिर्फ जिज्जी के कहने में आकर डाँटना-बिगडना शुरू कर दिया ! नहीं मैं बिल्कुल नहीं बोलूँगी .

अम्माँ उसके हाथ गौतम के लिये कुछ भेजती भी हैं तो पास रख कर चली आती है.वे जबर्दस्ती कुछ कहलातीं तो पास खडी होकर ,बिना नाम लिये ,बिना संबोधन किये बोल देती है.

शन्नो बार-बार समझातीं हैं ,"तू छोटी है तरु .तुझे बोलना चाहिये.उसने अगर ज़रा सा डाँट दिया तो क्या हो गया ?"

"हाँ ,तुम दोनों बड़े हो तो मिल कर बेकार में डाँटोगे !नहीं, मुझे न डाँट सुननी है ,न बोलना है."

वाह ,जिज्जी दोनों ओर से भली बन गईं और मैं बुरी . उसे और खीझ लगती है.

" देखो जिज़्जी ,तुम्हीं ने मेरा झूठ नाम लगाकर डँटवाया.मै क्यों बोलूं?तुम लोगों का गलत काम भी ठीक ?बडे हो इसलिये?"

तरु को लगता है शन्नो खुद तो अलग हो जाती हैं,दूसरों को लड़वा देती हैं.भैया भी कभी मुझसे नहीं पूछते.--न पूछें !मैं क्यों अपने आप सफ़ाई देने पहुँचूँ?

एक तो कुछ किया नहीं ऊपर से अपने आप सफ़ाई !

 ऊँहुँक्.


***

(क्रमशः)
''

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

एक थी तरु - 1., 2., 3.

....
*

 एक थी तरु ...
1.
प्रकृति की रचना का कितना सुन्दर दृष्य है -भाई-बहिन का जोड़ा !निर्मल हास से प्रकाशित दो अनुरूप चेहरे जिनमे कहीं कुछ आरोपित नहीं ,सहज-स्वाभाविक ।समाज ने नहीं निसर्ग ने जोडा है इन्हें।दुनिया की कुरूपताओं और विकृतियों से बेख़बर ,निश्चिन्त । माता- पिता- पुत्र,पति -पत्नी भाई-भाई सबके संबंधों पर कवियों की लेखनी चली है पर भाई-बहिन के संबंध की सहजता और सुन्दरता पर किसी कवि की उक्तियाँ याद नहीं आ रहीं तरल को ।

उस कोठी के मालिक ने पीछे की तरफ कई कोठरियाँ बनवा दी हैं ,एक मे महरी दूसरे मे माली और तीसरे मे एक रिक्शेवाला रहता है ।कोठी के मालिक और अडोस-पडोस के घरों में काम करते हैं ये लोग !नाटू रिक्शेवाला अधिकतर अकेला ही रहता है ।दिन भर रिक्शा चलाता है ,रात गये आता है तब उसकी कोठरी से खाँसने की आवाज सुनाई देती रहती है तरु को ।एकाद बार तरु को बैठा कर लाया है तब से पहचानने लगी है वह । गाँव में रह रहे अपने घर-परिवार के पास दो-तीन महीनों में चक्कर लगा आता है ।

महरी के दो बच्चे ब्रजमती और कन्हैया झिंझरीवाली ईंटों की दीवार पर चढ कर इधर ही झाँक रहे हैं ।ब्रजमती के रूखे भूरे बाल उसके साँवले-सलोने चेहरे के चारों ओर बिखरे हैं और आँखों मे काजल है-एक मे खूब गहरा ,दूसरी मे हल्का ।महरी के चारो बच्चे साँवले हैं पर सबसे अच्छी लगती है ये ब्रजमती ,खूब सुडौल नाक-नक्श और चेहरे पर भोलापन ,खूब सौम्य।तरु को देखते ही जाने क्यों काँशस हो कर झेंप जाती है और हल्के से मुस्करा देती है । पर कन्हैया उतना ही जंगली है ।चलेगा तो रास्ते के कंकडों को ठोकर मार -मार कर उछालता हुआ।साथ के लडकों से उसकी लडाई भी बहुत होती है ।अब तो किसी ठेलेवाले के साथ काम करने लगा है ,बडा चालाक हो गया है ।हमेशा कुछ-न-कुछ बोलता रहेगा । ब्रजमती तीसरे नंबर पर है ,उससे पाँच साल छोटी पर बडी शान्त। सबसे छोटी मुनिया बडी रूनी और जिद्दी है ,अक्सर ही जमीन मे लोट-लोट कर रोती रहती है ।और गोद का छोटावाला तो अभी किसी गिनती मे है ही नहीं ।

विवाह की धूमधाम ने कोठी की काया ही पलट दी है । पडोस के परिवार ने शादी के लिये उस कोठी का कुछ भाग महीने भर को किराये पर ले लिया है ।महरी यही है बिरजो की अम्माँ ।महरी की जडें भी गाँव मे ही हैं ,फसल कटने के दिनों मे महरा को छोड कर पूरा परिवार चला जाता है ।

इस कोठी की झाडियाँ रंगीन बल्बों की रोशनी मे चमक रही हैं।रंग-बिरंगी कनातें और पण्डाल ,कालीन और कुर्सियों की कतारें ,साइड मे लॉन से थोडा उधर मेजों पर खाने का प्रबंध -तीन सौ लोगों के खाने की ए-वन व्यवस्था वेज-नानवेज दोनो ।सजे सजाये बैरे ,हर मेज पर खाना गर्म रखने का पूरा इन्तजाम ।लोगों को कॉफी पहुँचाने और खाली कप बटोरने के लिये बैरे इधर उधर घूम रहे हैं ।

गेंदे और मोगरे की झालरों से मंच सजा है ,जयमाल पड चुकी है ।वधू मंच पर रखी सिंहासनाकार कुर्सी पर वर के पास बैठा दी गई है ।दोनो बहुत सज रहे हैं -सबके आकर्षण का केन्द्र।कैमरों की रोशनी बार-बार चमक उठती है ।दीवार के पार चेहरों की संख्या बढ गई है ।लोग खाने की मेजों की ओर बढ़ने लगे हैं ।मिसेज रायज़ादा ,जो मेज़बान घर की बहू हैं तरल से कह रही हैं ,'चलिये न ,खाना खा लीजिये ।"

इतने मे रायज़ादा आगे बढ आये ,' इनसे मिलिये तरल जी ,और ये हैं हमारे परम मित्र असित वर्मा ।'

दोनो के हाथ जुडते हैं ।

'आपको कहीं देखा है !'

'हाँ जरूर देखा होगा ।इसी शहर में रहती हूँ ।'तरल आगे बढ गई ।प्लेट हाथ मे उठाये किसी की पुकार सुन पीछे घूमी ,पता नहीं किसे बुलाया वह खाना परसने लगी ।

ट्रेन की घटना उसके ध्यान में फिर से आ गई ।स्लीपर मे अपनी सीट ढूँते समय अटैची किसी से टकरा गई थी । तेज सी आवाज आई -

'अभी हड्डी टूट जाती तो ..?'

'वह अचकचा कर देखने लगी ,'वेरी सॉरी !'

'हुँह, सॉरी !हमसे कुछ हो जाता तो आसमान सिर पर उठा लिया जाता ।और खुद ऐसे अंधाधुन्ध चलती हैं आगा-पीछा देखे बिना ।'

'देखिये बिगडिये मत ।ऐसा ही है आप मेरे पाँव पर अटैची पटक कर बदला ले लीजिये ,'वह रुक कर खडी हो गई ।

'जाइये,जाइये ,बस बहुत हो गया ।'

कह रहा है कहीं देखा है !देखा क्यों नहीं होगा !ट्रेन की बदमज़गी क्या इतनी जल्दी भूली जा सकती है!

'इन्तजार करेंगी तो करती ही रह जायेंगी ,आगे बढ चलिये ।'पास मे खडी एक सौम्य सी तरुणी ने तरल को आगे बढा दिया ।

'अरे असित दा ,आप यहाँ कहाँ से ?'

'सुमी तुम ?अकेली हो या वो भी हैं ?'

'आये हैं वो उधर ।'

तरु ने आगे बढ कर परसना शुरू किया ,और अपनी प्लेट लेकर साइड मे जाकर खडी हो गई ।अचानक उसकी निगाह दीवार के पार जा पडी ।एक साथ कई जोडी आँखें खाने की प्लेटों पर लगी हैं ।तरु का चम्मच पुलाव की ओर बढ रहा है ,शेरू की आँखों मे चमक आ गई है ,ब्रजमती और कन्हैया भी इधर ही देक रहे हैं । मेहमान चल फिर कर खाना खा रहे हैं बच्चों की और किसी का ध्यान नहीं है।

'अरे आप ये कोफ्ते लीजिये ,'किसी ने चमचा भर कोफ्ते उसकी प्लेट मे डाल दिये ।रसा बह-बह कह हलुये और सूखी सब्जी मे समाया जा रहा है ,घी उतराते शोरबे से सब कुछ सन गया है ।तरु को लग रहा है दीवाल पार से बच्चों की निगाहें खाने पर लगी हुई हैं ।सारी प्लेट कोफ्ते के चिकनाई भरे रसे मे डूबी है।।मुँह मे कौर रखना मुश्किल हो गया है ।

'अरे आप खाइये न।'

ढेर सा खाना सामने रखा है ,खाने की पूरी छूट है फिर बार-बार कहने की क्या जरूरत है !तरु को खीझ लग रही है पता नहीं लोग अपनी पसंद की चीजें दूसरों की प्लेटों मे क्यों भर देते हैं !

पास ही सुमी खडी है ।उसने सिर उठा कर तरु की ओर देखा ,'अपने हिसाब से अपने आप लेना अच्छा रहता है ।कोई परस न दे इसीलिये प्लेट लेकर मै दूसरी तरप खिसक गई ।"

दोनो की आँखें चार हुईं -यह कैसे मेरे मन की बात समझ गई तरल ने सोचा वह भी उसी ओर बढ गई ।

घी से तर शोरबे मे डूबी कोई चीज वह खा नहीं पायेगी ,एकाध कचौरी खाकर प्लेट को यों ही नीये रख देगी तरल ।और लोगों की प्लेटों मे भी आग्रहपूर्क जो डाला जा रहा है उसमे से भी बहुत सा वैसे ही फिंक जायेगा ,कुर्सी पर भरी प्लेटें लिये बैठे बच्चे थोडा खायेंगे और बहुत छोडेंगे ..और वे लोग दीवार के पार से देखते रहेंगे ।

'छोले मे थोडी चटनी और प्याज मिलाओ तो मजेदार लगेंगे ,दो बच्चे बातें कर रहे हैं ।दोनो उठे और अपनी-अपनी प्लेट लेकर मेज की ओर बढ गये ।दीवार के पार से आवाज आई ,'छोले हैं ,दहीबडे ,कचौडी ,पुलान...,'

'और चटनी भी ,'कन्हैया की आवाज ।

तरु को लगा उधर खडे बच्चे मुँह चला रहे हैं ।डेढ हाथ की दूरी पर दीवार के पार से शेरू ,कन्हैया ,ब्रजमती और दो और बच्चे सब देख रहे हैं ,मेज पर रखेी सामगरी ,को ,खाते हुये लोगों को ,और बर्बाद होते खाने को भी देख रहे हैं ।इस जगमगाती रोशनी मे सब साफ़ दिखायी दे रहा है ,बार-बार उनके मुँह चलने लगते हैं ।

महरी बीमार है छोटे बच्चे को लेकर कब की सो गई ।जब तरु इधर आ रही थी ,उसका छोटा बच्चा रो रहा था ब्रजमती कह रही थी ,'अम्माँ ,जे अऊर दूध माँगत है ।'

'अरे दुलाई मे दुबकाय के थपक दे ,भरक के अभै सोय जाई ।'

बडी देर तक बच्चा रिरियाता रहा था और महरी ब्रजमती को डाँट रही थी ,'धियान तो खेल मे लगा है ,नेक चुपाय नाहीं लेत है ।'



'भूखा है अम्माँ ,हमाल कपडन पे मुँह मार रहा है ।'

आग लगी है ओहिका पेट मे ।कहाँ से दूध लाई भर-भर के ?'

महरी बीमार है दूध उतरता नहीं ।बच्चा परेशान करता है तो गुस्सा उतरता है ब्रजमती पर ।

मिसेज कपूर साथ खडी महिला से कह रही हैं ,'बाबा रे बाबा ,हमारा बेटा तो मुश्किल कर देता है ।एक दिन पेपरवाला नहीं आया और ङी आसक्ड मी अ थाउजेन्ड क्वेश्चन्स ।हमें तो एक ही काफी है .वी कान्ट अफोर्ड अनदर।'

दूसरी बोली ,'बच्चे पैदा करना और पालना कोई आसान काम है ?हम तो इन दो में ही भर पाये भइया. उन्हे सम्हालते-सम्हालते रो देते हैं ।नौकर है,आया है फिर भी फुर्सत नहीं मिलती ।'

'पता नहीं लोग तीन-तीन चार-चार कैसे मैनेज कर लेते है ।'

'अरे आप ताज्जुब करेंगी ,हमारी कामवाली के छः हो चुके हैं और फिर फूली घूम रही है ,बिल्कुल तन्दुरुस्त।'

'लाइक वाइल्ड ग्रोथ ।,'मिसेज कपूर के शब्द थे ,'इन लोगों के हो भी जाते हैं पल भी जाते हैं ।नखाने को ,न पहनने को जाडे मे नंगे घूमते हैं ,फिर भी बीमार नहीं पडते ।' 'अरे कुछ पूछो मत ।हर साल एक पैदा कर के भी जस की तस धरी रहती हैं ।यहाँ तो पैदा करना मुश्किल और पालना तो और भी ..कुछ पूछो मत ।'

'यहाँ तो एक पैदा करके ही ढोलक सा पेट हो गया ,हुआ भी ऑपरेशन से ।अपनी तो अब हिम्मत नहीं ।'

मिसेज कपूर ने तीस की हो जाने के बाद शादी की है ।एक ही लडका वह भी सिजेरियन से ,बोलीं ,'हमे तो एक ही पालना मुश्किल है लोग जाने कैसे एफोर्ड कर लेते हैं ।आई वंडर ङऊ डू दे मैनेज ।'

'और बडी आसानी से इनके पैदा भी हो जाते हैं ,न तकलीफ़ ,न कोई खर्चा !बाबा रे बाबा, हमें तो देख कर ताज्जुब लगता है ।एक ही कुठरिया उसी मे बच्चे पैदा होते हैं ,,मरते हैं ,पलते हैं ।जिन्दगी के सारे काम उसी जगह मे ।ङऊ हॉरिबल!'वे सिर हिला कर काँपने का अभिनय करती हैं ।

यहाँ जितनी भी औरतें हैं उनने बच्चा पैदा करने में बडी तकलीफें उठाई हैं ।वैसे सब सुविधायें हैं उनके पास,नौकर ,वाहन ,बँगला ,फ्रिज .टीवी ।और ये महरी मालिन जो पैदा करनेऔर पालने मे माहिर हो गई हैं ,इनके अपने आप पैदा होते हैं ,बडे हो जाते हैं जैसे उन्हें किसी चीज कीअपेक्षा नहीं ।इतनी आसानी से जन्मते हैं जैसे धरती की कोख से अँकुर ।
*

टिप्‍पणियां:

  1. ''और ये महरी मालिन जो पैदा करनेऔर पालने मे माहिर हो गई हैं ,इनके अपने आप पैदा होते हैं ,बडे हो जाते हैं जैसे उन्हें किसी चीज कीअपेक्षा नहीं ...''

    ..यहाँ मेहरी और मालिन जिस स्त्री समूह का प्रतिनिधित्व कर रहीं हैं ...उनकी bebasi और ''अपने आप पैदा हो जाने वाले बच्चों की संख्या'' के पीछे की वजहें एक एक कर आँखों के आगे घूम गयीं......
    वैसे यथार्थ यही है..कि ये भी चाहें तो इन कारणों को समूल नष्ट कर सकतीं हैं.....मगर...उसके लिए चाहना पड़ेगा...लीक से हटकर एक उदारहण बनना पड़ेगा... ....हम्म विषय से मैं भटक गयी...मुआफ कीजियेगा...लिखते लिखते क्रोधित हो उठी थी...:(

    'इस जगमगाती रोशनी मे सब साफ़ दिखायी दे रहा है ,बार-बार उनके मुँह चलने लगते हैं '

    'भूखा है अम्माँ ,हमाल कपडन पे मुँह मार रहा है ।'

    ...बच्चे कितनी आसानी से इतनी बड़ी समस्या कह गए ...आज ही देखा था..घर में चाउमीन न बनाकर जगह चावल तल दिए गए थे तो मौसी के एकलौते १२ साल के बेटे को बहुत गुस्सा होते हुए...और ये कहते हुए...''मम्मी आप ऐसा क्यूँ करतीं हैं....अब मैं नहीं खा सकता कुछ...'' और घंटे भर तक इस समस्या पर बहस चलती रही माँ और बेटे में।कोई भी समस्या/या दुःख बनाने से बड़ा बन जाता है....अन्यथा आप हर तरह से जी सकते हैं बिना अपेक्षाओं के।



    khair...

    ''इतनी आसानी से जन्मते हैं जैसे धरती की कोख से अँकुर''

    ये तो...एकदम सच है...सिर्फ बच्चों की बात करें तो जैसे जैसे बैंक में पैसे बढ़ते जाते हैं....इंसान उतना ही नाज़ुक होता जाता है......शायद प्रकृति भी जानती है...कि कहाँ किसके हौसले आज़माने हैं....जैसे ये बात मेडिकल साईंस भी मानती है...लड़कियां प्रकृति से ही मज़बूत होतीं हैं...जी ही जातीं हैं...जन्मदायिनी कि उपेक्षा के बाद भी....और बेटों को आप मेडिकल कॉलेज भी refer कर दें...वे आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं के बावजूद अंत तक साँसों के लिए संघर्ष करते ही रहते हैं।
    बहुत देखा है के अगर आपके पास पैसा है...तो सामान्य रूप से होने वाली डिलिवरी भी आपको खटकती है..आप दस बार डॉक्टर से पूछते हैं....सब नोर्मल है ना...ऑपरेशन कि ज़रुरत तो नहीं आदि आदि।

    दूसरी बात....बहुत देर तो ख़ुशी सँभालने में ही लग गयी...:D...आपकी कहानी की नायिका का नाम तरु है...हमेशा से चाहती थी..अपना नाम भी कहीं देखूं इस तरह से...:) और उससे भी बड़ी अचरज की बात कि....उसकी भावनाएं भी एकदम मेरे जैसीं हीं हैं।

    आप सोच रहीं होंगी कि इतनी simple सी कहानी पर इतना क्यूँ लिख रही हूँ..?? :)
    अपने नाम की वजह से,रोज़मर्रा इस तरह के cases देखने और अपने पसंदीदा विषय के कारण बहुत सीधी सादी सी आपकी कहानी मेरे लिए ख़ास बन गयी थी।

    :)


    ''शुक्रिया''
    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  2. इतना बारीक वर्णन!!
    कभी किसी बंगाली उपन्यास में पढ़ा था कोई ४ साल पहले।
    जैसे प्लेटें, खाने के पकवान, बच्चों की आँखें सब जीवन हो उठीं हों, दृश्य-दर-दृश्य।
    तरल, यह नाम बहुत अच्छा लगा। बहुत अलग।
    अब तरल, तरु (वैसे एक ऊपर है), असित नाम कम ही आत़े हैं सुनने में, तो बहुत भले लगे।
    ऐसे मनोभाव, ऐसा चित्रण, ऐसा साहित्यिक शिल्प नहीं मिलता पढने को आसानी से अब।
    और प्रथम अनुच्छेद के सौंदर्य के लिए विशेष आभार!

    पहले पहला अंश पढना था, अब दूसरा पढूँगा... और की प्रतीक्षा रहेगी।
    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं

2 .
बाहर अथाह अंधकार ट्रेन भागी जा रही है.थ्री-टियर के इस डब्बे में सब सो गये लगते हैं .रह-रह कर उठती खर्राटों की आवाजें सन्नाटे को भंग कर देती हैं,नहीं तो वही एकरस पहियों की घड़घड़ाहट और भाप की सिसकारियाँ.
असित को नीचे की बर्थ मिली है.ठण्डी हवा के डर से मुसाफ़िरों ने सारी खिडकियों के दरवाज़े बन्द कर दिये हैं.इतने लोगों की साँसें और ताजी हवा बिल्कुल भी नहीं - उसे घुटन-सी लगने लगती है.सिगरेटों का धुआँ वातावरण मे घूम रहा है ,निकलने की राह ढूँढता-सा.
असित ने अपनीवाली खिडकी आधी खोल दी,सरसराती हुई ठण्डी हवा का झोंका भीतर घुस आया,रोंगटे खडे हो गये,उसने कंबल अच्छी तरह लपेट लिया.रात का डेढ़ बज रहा है,उसे वैसे भी नींद देर से आती है,ट्रेन मे तो ठीक से सो ही नहीं पाता
.पेड़ों के धुँधले आकार उल्टी तरफ दौडते चले जा रहे हैं.कहीं-कहीं रोशनी के बिन्दु चमक जाते हैं फिर शीघ्र ही आँखों से ओझल हो जाते हैं:रह जाता है वही अशेष अँधेरा और धुँधले आकाश में टिमटिमाते थोडे-से सितारे .
शीतान्त की सूखी,उजाड़ हवायें निर्बाध चल रही हैं -डाले़ं झकझोरती ,पत्ते गिराती ,जमीन पर पड़े सूखे पत्तों को खड़खड़ाती, बटोरती ,उडाती हुई.
ट्रेन में यों ही सफर करते अनगिनती रातें गुजर जाती हैं.कभी-कभी असित को लगता है,जैसे उसके पाँवों में सनीचर है जो कहीं टिकने नहीं देगा .यों ही चक्कर काटते सारी जिन्दगी बीत जायेगी .और ऐसा है भी कौन जो उसे रोक ले ,बाँध कर रख ले !अपनेपन की क्या परिभाषा है वह आज तक नहीं समझ पाया.परायों ने अपनापन दिया और जिन्हें दुनिया में अपना कहा जाता है,उनसे मिला सिर्फ शिकायतें,उलाहने ,नसीहतें !वे समझना नहीं चाहते सिर्फ समझाना चाहते हैं ,अपनी दृष्टि से उसे वह सब दिखाना चाहते हैं जिसे उसने खुली आँखों से देख कर अच्छी तरह समझ लिया है.उनकी बातें असित के गले नहीं उतरतीं इसलिये वह उनसे दूर भागता है ,अवकाश का कोई क्षण उनके साथ बिताना नहीं चाहता .उनके साथ बिताया गया समय उसके मन पर बोझ बन जाता है ,जो लम्बे समय तक उसे ढोना पडता है.उसने चुनी भी है यह घूमनेवाली नौकरी- एक प्रसिद्ध फर्म का मेडिकल रिप्रोजेन्टेटिव , महीने में जिसके बीस दिन टूर पर बीतते हैं.

कभी-कभी कैसी अजीब बातें करने लगते हैं घर के लोग !बडी बहिन का ब्याह हो गया,जब मिलती हैं शिकायत करने लगती हैं - "भइया तुम्हें तो किसी से लगाव नहीं ,मेरे घर से होकर निकल जाते हो!एकाध दिन रुकने का मन नहीं होता ?----हाँ,सोचते होगे भाञ्जे -भाञ्जी कुछ फर्माइश कर देंगे !"

बच्चों की फर्माइशें पूरी करने में तो आनन्द आता है पर बड़ों की दिन-रात की नसीहतें कहां तक झेले. वह सोचता है कहता कुछ नहीं .कोई भी बात होने पर सुनने को मिलता है-मामा हो और अच्छे-खासे कमाऊ !कर नहीं सकते क्या ?

फिर श्यामा की शिकायतें शुरू हो जाती हैं," मुझे तुम्हारे लिये कितना लगता है तुम समझ नहीं सकते !शुरू से कितना करती रही हूँ तुम्हारे लिये --अब तुम अच्छा- खासा कमाने लगे हो, मुझे तो बड़ी खुशी होती है !"

अच्छा-खासा कमाने वाला ! हाँ ,उनके हिसाब से तो अच्छा खासा ही है .ठाठ भी हैं.पर यह पेशे की जरूरत है . न चाहूँ तो भी मुझे ऐसा रहना पड़ेगा-अप-टू-डेट,एकदम कसा-कसाया ,चौकस.अपने फैशनेबुल होनेके बारे मे सुनकर उसे हँसी आती है मन-ही-मन,पर कुछ कहना बेकार है सो चुप लगा जाता है.

रिश्तेदार हमेशा समझाते हैं कि अब उसे क्या करना चाहिये .उनकी पसन्द की गई लडकी से शादी कर ले,दान- दहेज अच्छा मिलेगा पैसे की कमी नहीं रहेगी घर में !वे खोद-खोद कर पूछते हैं तुम्हारा खर्च क्या है?घर में कितना देते हो ,अलग एकाउन्ट खोला?

असित ऊब जाता है इस सब से.उन लोगों के पास जाने का मन नहीं होता .वैसे भी उसका रिजर्वेशन होता है -बीच  में उतरना संभव नहीं होता .सबके लिये करने की कोशिश करता है पर किसी को संतुष्ट नहीं कर पाता .कमाई का एक चौथाई रख बाकी सौतेली माँ के हाथ में पकडा देता है.उसकी अपनी जरूरतें टी.ए. वगैरा से ही पूरी हो जाती हैं.श्यामा से राखी बँधवाने जाता है,बाबूजी और राहुल की शर्ट का कपडा खरीद लाता है.घर के छोटे-मोटे काम जो उसके बस के हैं करता रहता है,छोटे भाई-बहिन की पढाई के बारे में पूछता रहता है ,,रश्मि की चुटिया पकडना भी नहीं भूलता .कहाँ कोई कमी रह जाती है?
फिर प्यार किसे कहते हैं?क्या परिभाषा है उसकी ?उसे तो लगता है दुनिया के रिश्ते बदलते रहते हैं.इन्हीं  मां के सामने पहले बडी घबराहट होती थी ,अब कुछ नहीं लगता .सगी बडी बहिन श्यामा पहले बहुत ध्यान रखती थीं,अब शायद उसका बदला पाना चाहती हैं.पिता पितृत्व को भुनाना चाहते हैं ,छोटे भाई-बहन आते ही किस गिनती में हैं?

असित को याद है बचपन में उसके भूखे रहने पर श्यामा खाना नहीं खाती थी,सौतेली मां के उकसाने पर पिता उसे पीटते थे तो रोती थी.और अब?अब सुबह चाय पीकर निकल जाता है.फिर किसी को उसकी, चिन्ता नहीं होती.सब सोच लेते हैं बाहर खा-पी लेता होगा पैसा है जेब में.हाँ खाना तो पड़ता ही है पर क्या जी भरता है उससे !
सौतेली माँ चाहती हैं वह  उनकी पसन्द की हुई लडकी से विवाह कर ले जो आयेगा उससे रश्मि का दहेज पूरा होगा .पर असित वहाँ करने को बिल्कुल तैयार नहीं.उस पर लादे गये एहसानो का ब्यौरा पहले ही वहां पहुँच चुका होगा, इसलिये वहां सहज संबंध नहीं बन पायेंगे .
माँ जो हैं सो तो हैं, पर असित को अपने पिता पर सोच लगता है .कितने क्रूर हो गए थे वे !क्या जवान पत्नी के तुष्टीकरण के लिएउससे भी अधिक निर्दय हो कर पहली के बच्चों पर अत्याचार करते थे?सुधा तो तीनों में सबसे बडी थी ,पूरा घर सम्हालती थी लेकिन कितना क्रूर व्यवहार होता था उसके साथ !.
सुधा को मारने-पीटने के बाद युवा पत्नी के साथ उनकी वे कामुक चेष्टाएँ .उन्हें दरवाज़ा बंद करने का भी होश नहीं रहता था या सौतेली माँ को इसमें अधिकसंतोष मिलता था?
उनके तलुये सहलाना उनके बालों में तेल डालना .एक अधेड़ आदमी का यह सब करना उन्हें यह भी नहीं लगता था ,बड़े-बड़े बच्चे सब देख -सुन रहे होंगे .
कहाँ भाग कर चला जाए समझ में नहीं आता था.
श्यामा और असित छोटे थे -उन्हें अक्सर ही हफ़्तों के लिए रिश्तेदारों के पास भेज दिया जाता था और सुधा उनकी चाकरी करने को रोक ली जाती थी .ज़रा सा चूकने पर दुत्कार-फटकार,मार-पीट और खाना बंद. हमेशा सहमी-सहमी सी रहती थी.इतनी दुर्बल होकर वह इतना काम कैसे कर लेती थी असित आज भी सोचता रह जाता है.

घर का माहौल जिस अजनबीपन से भरा है उसमें उसकी गृहस्थी बसे वह यह सोच नहीं पाता .

ऐसी अजीब परिस्थितियों में बचपन कटा है,इसीलिये स्वभाव भी विचित्र हो गया है .उसे लगता है वह कैसे पल गया !पला या जबरदस्ती बड़ा होता गया ?
पहले श्यामा के मन में उसके लिये ममता थी पर ममता का स्रोत भी धीरे-धीरे सूख जाता है.

कोई स्टेशन आया है ,गाडी रुक रही है .
सुबह पड़ेगा गाज़ियाबाद -शायद दो-चार दिन रुकना पड़े.फिर यात्रा,यात्रा और यात्रा .

"गरम चाय,चाए ए गरम --."
एक कुल्हड़ चाय पीने की इच्छा हो आई..

साइड की बीचवाली बर्थ से कोई उठ रहा है ,नीचे उतर कर पूछ रहा है ",मनो ,एई मनो ,चाय पियोगी ?"

"अरे बाबा ,यहाँ कहाँ मिलेगी ढंग की चाय ?"

बोलनेवाली मनो ही होगी .रजाई हिली ,,बिखरे बाल और टेढी बिन्दीवाला चेहरा बाहर निकल आया .बीच की बर्थवाले ने मनो की लटकती रजाई को सीट के ऊपर किया .

"न पियो ,मुझे तो मिट्टी के कुल्हड़वाली चाय बड़ी सोंधी लगती है."

"हाँ,उसमें घुला गुड़ और सोंधा लगेगा ."

"चलेगा ,वह भी चलेगा ."

आसित ने सिर आगे बढ़ा कर आवाज दी ,"एई, चायवाले !"

बीच की बर्थवाले ने कहा ,"भाई साहब, एक चाय इधर भी."

मनो ने रजाई मुँह तक खींच ली है.
**
3.
एक से एक अजीब लोग भरे पड़े हैं दुनियां में . और डाक्टर ! डाक्टरों की तो कौम ही निराली है !कोई दो प्राणी एक से नहीं .
असित घूमता फिरता है हाथ में बैग लटकाकर - स्मार्ट बना .और जीभ जैसे टेपरिकार्डर -हिन्दी अंग्रेजी दोनो फर्राटे से.डॉक्टरों के सामने बैठ कर टेप चल गया तो चल गया .फिर पूरा बजे बिना कैसे रुक जाए. बस चालू हो जाता है,"यह गोली है हमारी फार्मेसी की नई ईजाद !जुकाम हो ,बुखार हो सिर में दर्द हो,बदन में दर्द हो बस गुनगुने पानी से एक गोली मरीज को दें .ज्यादा सीरियस हो थोडी देर में रिपीट कर दें ,फिर देखिये दर्द छू-मन्तर !.....पन्द्रह मिनट में असर करने लगेगी ,घन्टे भर मे पूरा आराम .कोई बुरा साइड इफेक्ट नहीं ,और बच्चे तक के लिये मुफीद है . इसका फार्मूला बडी खोज-बीन के बाद हमारे केमिस्टों ने तैयार किया है .इन्टरनेशनल लेविल तक पहुँचे हुये केमिस्ट हैं हमारे ! हर स्टेज पर टेस्ट किये हैं,साल भर तक खूब आजमा चुके हैं.ये सैम्पुल !मुस्तैदी से सैम्पुल निकाल कर पकडाता हुआ कहता -ट्राई करके देखिये "

और अंग्रेजी में शुरू हो जाये तो ऐसा गोल-गोल मुँह बना चबा-चबा कर उच्चारण करेगा जैसे हिन्दी का अक्षर तक मुँह में न गया हो.कुछ डाक्टर तो सिनिक समझते हैं इन मेडिकल रिप्रेज़ेन्टेटिव्ज़ को,सोचते हैं अच्छा उल्लू फँसा न.इधर-उधर के दर्जनों टॉपिक निकाल लेंगे ,दवा पर कोई टिप्पणी नहीं .असित को पीछा छुड़ाना मुश्किल. फिर चाय का दौर चलेगा और पेमेन्ट करेगा बेवकूफ असित.

दूसरी तरह के डाक्टरों से भी पाला पडता है -हर कम्पनी की आलोचना और बुराइयाँ .हर दवा में नुक्स निकालना उनकी हॉबी हो जैसे !अरे, जब एलोपैथी में विश्वास नहीं था तो काहे पढ़ी डाक्टरी?बेकार इत्ता समय बर्बाद किया ,बाप का पैसा खर्चा सो अलग .इससे तो पान की दूकान खोल बैठते कोई साइड इफ़ेक्ट भी नहीं होता और मुफ्त में दुनिया भर की पॉलिटिक्स डिस्कस करते, चूना लगाते मौज की जिन्दगी गुज़रती !
एक तीसरी किस्म और भी है -बडे प्रेम से बात सुनते हैं और सैम्पुल लेकर रख लेते हैं फिर वह टॉपिक क्लेज.और चौथी प्रकार का डॉक्टर बड़ा दुर्लभ है -अच्छाई-बुराई पर रीजनेबल ढंग से चर्चा करते हैं, इन्टरेस्ट लेकर सीरियसली बात करते हैं -क्या फ़ार्मूला है इस पर भी विचार-विमर्ष हो जाता है.

हर जगह थोडी-बहुत दोस्ती पाल रखी है असित ने.

पर लेडी डॉक्टरों के पास बड़ा अजीब-सा माहौल!पहली बात तो अधिकतर उनके पास वही केस आते जो पुरुष डॉक्टरों को बताते संकोच लगता है और ऐसी दवाओं से वास्ता नहीं रखती गुडसन फार्मेसी .जी मिचलाने ,चक्कर आने की दवा चाहिये! एक से एक एनीमिया की पेशेन्ट,झुर्रीदीर ,धब्बेदार पेशेन्ट गर्भ धरण किये चली आरही हैं. किसी को दुई महीना चढे हैंकिसी को छठा है ,कोई एडमिट होने को तैयार.पूछो कौन सा बच्चा है तो पहलौठी से लेकर ग्यरहवाँ और चौदहवाँ तक .असित बेकार है इन मामलों में,उसकी कम्पनी को इस सब से कोई मतलब नहीं

शुरू में कई बार लेडी डॉक्टरों के पास पहुँचा पर वहां के मरीजों का हाल ही कुछ और देखा.अब तो अस्पतालों की डॉक्टरनियों के पास चला जाता है या साफ़ बचा जाता है.वे कहती हैं," हाँ ,ये दे जाइये .पर हमारे मरीज दूसरी किस्म के होते हैं."औरउसकी ओर देख कर मुस्करा देतीं .
असित बेवकूफ सा बैठा रह जाता.शुरू-शुरू मे वह आँखें झुका लेता था अब तो धृष्ट बना देखता रहता है.कभी-कभी मुस्करा भी देता है.

"फिजीशियंस सैम्पल " की मुहर लगी दवायें बाँट आता है.पर कुछ डॉक्टर तो उन्हें भी बेंच लेते हैं.मेडिकल स्टोर्स से खूब पटाये रखता है-असली खपत तो वहीं होती है.इसीलिये केमिस्टों से दोस्ती गाँठने मे विषेश रुचि लेता है.उसने सोच लिया है जहाँ अधिक सप्लाई हो वहीं के लिये फार्मेसी के थर्मामीटर और शो-पीसेज ,बाकी जगह कैलेण्टर और की-रिंग से काम चलाना है.अधिक कुछ कहनेवालों को पेन-स्टैँड और पेपर-वेट तक सीमित रखना है.खास-खास गिफ्ट्स हरेक को कैसे दी जा सकती हैं ! जहाँ माल की माँग और खपत हो वहीं दाना डालता है ,हरेक को मुँह नहीं लगाता.

सुबह से रात तक की दौड़ और थकान !मन ऊबने लगता है तब चाह होती है मनोरंजन की -ऐसा मनोरंजन जिसमे तन-मन डूब जाय और तरो-ताजा होकर बाहर निकले.

असित कोई अकेला तो है नहीं इस लाइन में ,और बहुत से हैं एक-दूसरे को समझनेवाले ,कम्पनी देनेवाले.

अच्छी कमाई ,ठाठ का रहन-सहन, सारी टीमटाम है. लड़कीवाले दौड रहे हैं.हाँ कहने भर की देर है.लडकियों की तो भरमार है इस देश में,साथ में अच्छा-खासा दहेज भी !माँगने जरूरत नहीं अपने आप देंगे वे.जितेन्द्र का विवाह तय हो गया है.दोनों कई बार साथ घूमते देखे गये हैं.सुहास चन्द्रा को भी घेरा जा रहा है.

"क्या बतायें यार घर पे सब लोग पीछे पडे हैं ,हाँ कहना ही पडा .बडी स्मार्ट और ब्यूटिफुल है .सारी गृहस्थी मिलेगी साथ में."

"अच्छा है ," असित प्रत्युत्तर में कहता है,फँसना तो हई फिर अच्छी तरह देख कर फँसो.अपने यहाँ तो घरवालों को लगता हैकि मैनें भी कहीं चक्कर चला रखा है.,इसीलिये तैयार नहीं होता ."

"तो चला लो चक्कर.कमी क्या है?---या मोटा आसामी ढूँढ रहे हो?"

असित मुस्करा देता है.

''अभी जल्दी क्या है,चार-पाँच साल तो यों ही निकल सकते हैं:और फिर अभी तो लोग लिफ्ट देते हैं फिर घास भी नहीं डालेंगे."

"लिफ्ट देनेवाले बहुत मिलेंगे,खुद में दम होना चाहिये .फर्म पैसा दे रही है,काम ले रही है.डट कर काम करो ,जम कर इनज्वाय करो.क्यों असित ,क्या खयाल है ?"चन्द्रा ने आँख मारी .

"दुरुस्त है. ये डिमाण्ड -सप्लाईवाली बात ठीक है .टेम्परेरी तौर पर सब चलता जाता है . पर मुझे लगता है जब तक किसी के बारे में कुछ पता न हो कैसे जिन्दगी भर के लिये  बँध जाया जाय .अनजानी लडकी के साथ शरीर के संबंध जोड़ना कैसा अजीब लगता होगा !"

ठहाका मार कर हँसे वे लोग.

" जैसे कभी जोड़ा नहीं होगा किसी से !अरे ऐसे जोड़ा वैसे जोड़ा बात एक ही है.आदमी को हर जरूरत पूरी करनी है.क्यों होटलों-रेस्तराओं में क्या-कुछ नहीं होता ?"

एक और आवाज उठी,"अरे ,पहचानी से जोड़ लो.पहले संबंध जोड़ लो फिर शादी कर लो."

"जिस-जिस से जोड़ें सब से कैसे की जा सकती है?"जितेन्द्र की आवाज थी.

फिर हँसी का एक दौर.

"बत्तमीजी मत करो,अभी मैं सीरियस नहीं हूँ.गृहस्थी चलाना मेरे बस का नहीं है .पाँव में चक्कर है,जिन्दगी भर घूमना पडेगा .किसे-किसे गले से बाँध लूं?"
''गले से बाँधो ,ये किसने कहा   .......?'',
सम्मिलित हँसी से काफी-हाउस गूँज उठा.कुछ लोग चौंक कर देखने लगे ,

"सुहास चन्द्रा की एक यहाँ भी है,आज उसने कमरा रिजर्व कराया है.चाहो तो असित तुम भी शेअर कर लो."

"सुहास को ही मुबारक हो!"


***
(क्रमशः)