ब्रह्मांडीय ध्वनियों का दृष्यात्मक रूप - देवनागरी लिपि .
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लिपि के विषय में यजु तैत्तरीय संहिता में एक कथा दृष्टव्य है -
देवों के सामने एक बड़ी कठिनाई आ गई ,वे जो बोलते वह वाणी अदृष्य हो जाती है ,फिर उसका कोई चिह्न नहीं बचता .अपनी समस्या उन्होंने इन्द्र के सामने रखी . वाणी को आकार देने के लिये इन्द्र ने वायु देव का सहयोग माँगा.तब वह अक्षरों में साकार होने लगी (दक्षिण में लेखन विद्या 'इन्द्र वायव्य व्याकरण' नाम से जानी जाती है .)
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लिपि के विषय में यजु तैत्तरीय संहिता में एक कथा दृष्टव्य है -
देवों के सामने एक बड़ी कठिनाई आ गई ,वे जो बोलते वह वाणी अदृष्य हो जाती है ,फिर उसका कोई चिह्न नहीं बचता .अपनी समस्या उन्होंने इन्द्र के सामने रखी . वाणी को आकार देने के लिये इन्द्र ने वायु देव का सहयोग माँगा.तब वह अक्षरों में साकार होने लगी (दक्षिण में लेखन विद्या 'इन्द्र वायव्य व्याकरण' नाम से जानी जाती है .)
ब्रह्मांडीय ध्वनियों के अनुसरण पर रचित होने के कारण यह लिपि ,उस (देव) वाणी का दृष्यात्मक रूप है .
वरिष्ठ अंतरिक्ष वैज्ञानिक डॉ. ओमप्रकाश पांडे के अनुसार
' इसे अपौरुषेय इसलिए कहा जाता है कि इसकी रचना ब्रह्मांड की ध्वनियों से हुई है। उन्होंने बताया कि गति सर्वत्र है. गति होगी तो ध्वनि निकलेगी और ध्वनि से शब्द सौर परिवार के प्रमुख, सूर्य के एक ओर से नौ रश्मियां निकलती हैं, और ये चारों और से अलग-अलग निकलती है. इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गई। इन 36 रश्मियों के ध्वनन पर भाषा के 36 स्वर बने. इस तरह सूर्य की जब नौ रश्मियां पृथ्वी पर आती है तो उनका पृथ्वी के आठ बसुओं से टक्कर होती है। सूर्य की नौ रश्मियां और पृथ्वी के आठ बसु की आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुई वे के 72 व्यंजन बन गये.'
ब्रह्मांड की ध्वनियों से तात्पर्य है जो शब्द-ब्रह्म व्यापक नाद के रूप में सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है.(ध्यानावस्था में यह सर्वव्याप्त नैसर्गिक संगीत, साधक को सुनाई देता है ). यूरोप के प्राचीन दार्शनिकों को भी इसके अस्तित्व में विश्वास था उन्होंने इसे ."म्जूज़िक ऑव दि स्फ़ियर्स' (विश्व का मधुर संगीत) कहा था यही(अनहद नाद)जो किसी टकराहट के बिना बजता है और निरंतर गुंजित होता है.
तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना कि कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांति अनुभव करती है.
ऋषियों ने अपनी स्थिर-चित्तता और ध्यान के द्वारा उन संगीतमय तत्वों को समझा था , जिसे आज के भौतिक शास्त्री विज्ञान के माध्यम से समझ पाते हैं.उनके अनुसार सभी प्राकृतिक रूपाकार और दृश्य-जगत का स्वरूप संगीत-लहरियों की सारणियों के समान है. जो कुछ ऊपरी तल पर सघन (ठोस) दिखता है, वह गहरे स्तर पर लहरों और तरंगों से युक्त है.
ब्रह्मांड की ध्वनियों के रहस्य के बारे में वेदों से ही जानकारी मिलती है. इन ध्वनियों को नासा ने भी माना है. स्पष्ट है कि वैदिक काल में ब्रह्मांड में होने वाली ध्वनियों का ज्ञान ऋषियों को था. तभी स्वरों के सहारे वे पिंड को ब्रह्मांड से जोड़ सके.
ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों को ले कर संस्कृत की रचना हुई और इन्हीं के आधार पर इसकी वर्णमाला रची गई । इसी भाषा में ऋषि मुनियों ने मन्त्रों की रचना की क्योंकि ब्रह्मांडीय ध्वनियों के अनुसरण पर रचे गये इन वर्णों का उच्चारण मस्तिष्क में उचित स्पन्दन उत्पन्न करने के लिये अति प्रभावशाली था . इसका, प्रकृति और पर्यावरण से गहरा संबंध है. इसकी ध्वनि के स्पर्श से पर्यावरण सात्विक होता है.सृष्टि की इन मूल ध्वनियों को पकड़ कर स्वरों में बाँधना और उनका नियमन कर लेना किसी साधारण व्यक्ति की सामर्थ्य में नहीं .पिंड को ब्रह्मांड से संयोजित करने का यह अनूठा प्रयास था.
उन्होंने वाणी -विज्ञान पर भी गहन विचार किया ,और आत्मा में झंकृत होने से लेकर मुखर होने तक उसके चार स्तर निर्धारित किये (परा ,पश्यंती, मध्यमा और वैखरी). वैखरी में आने पर वाणी ध्वनित होती है ,जिस मुखावयव से वह उच्चरितण उस के आधार पर उसका वर्गीकरण किया .प्राचीन संस्कृत के स्वरों और व्यंजनों में ,उन्हीं ध्वनियों को क्रमानुसार आबद्ध किया गया है .
यह क्रम आगे चला और श्रुति-परंपरा में चलती हुई भाषा का रूप विकसित होने पर -उसमें अनेक परिवर्तन आने लगे थे. पाणिनि ने भाषा को व्यवस्थित रूप में व्याकरण-बद्ध कर कर उसका संस्कार किया ,वह संस्कृत कहलाई .संस्कृत पूर्व वैदिक भाषा पूर्व भाषा के अपौरुषेय वर्णों को आकृति रूप देने के लिये वे मनीषी उतनी ही समर्थ और सतर्क लिपि की संरचना में प्रवृत्त हुये होंगे .पूर्व प्रचलित ब्राह्मी लिपि का परिष्कार कर जो रूप रचना की गई - वही है यह देवनागरी .
वरिष्ठ अंतरिक्ष वैज्ञानिक डॉ. ओमप्रकाश पांडे के अनुसार
' इसे अपौरुषेय इसलिए कहा जाता है कि इसकी रचना ब्रह्मांड की ध्वनियों से हुई है। उन्होंने बताया कि गति सर्वत्र है. गति होगी तो ध्वनि निकलेगी और ध्वनि से शब्द सौर परिवार के प्रमुख, सूर्य के एक ओर से नौ रश्मियां निकलती हैं, और ये चारों और से अलग-अलग निकलती है. इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गई। इन 36 रश्मियों के ध्वनन पर भाषा के 36 स्वर बने. इस तरह सूर्य की जब नौ रश्मियां पृथ्वी पर आती है तो उनका पृथ्वी के आठ बसुओं से टक्कर होती है। सूर्य की नौ रश्मियां और पृथ्वी के आठ बसु की आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुई वे के 72 व्यंजन बन गये.'
ब्रह्मांड की ध्वनियों से तात्पर्य है जो शब्द-ब्रह्म व्यापक नाद के रूप में सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है.(ध्यानावस्था में यह सर्वव्याप्त नैसर्गिक संगीत, साधक को सुनाई देता है ). यूरोप के प्राचीन दार्शनिकों को भी इसके अस्तित्व में विश्वास था उन्होंने इसे ."म्जूज़िक ऑव दि स्फ़ियर्स' (विश्व का मधुर संगीत) कहा था यही(अनहद नाद)जो किसी टकराहट के बिना बजता है और निरंतर गुंजित होता है.
तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना कि कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांति अनुभव करती है.
ऋषियों ने अपनी स्थिर-चित्तता और ध्यान के द्वारा उन संगीतमय तत्वों को समझा था , जिसे आज के भौतिक शास्त्री विज्ञान के माध्यम से समझ पाते हैं.उनके अनुसार सभी प्राकृतिक रूपाकार और दृश्य-जगत का स्वरूप संगीत-लहरियों की सारणियों के समान है. जो कुछ ऊपरी तल पर सघन (ठोस) दिखता है, वह गहरे स्तर पर लहरों और तरंगों से युक्त है.
ब्रह्मांड की ध्वनियों के रहस्य के बारे में वेदों से ही जानकारी मिलती है. इन ध्वनियों को नासा ने भी माना है. स्पष्ट है कि वैदिक काल में ब्रह्मांड में होने वाली ध्वनियों का ज्ञान ऋषियों को था. तभी स्वरों के सहारे वे पिंड को ब्रह्मांड से जोड़ सके.
ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों को ले कर संस्कृत की रचना हुई और इन्हीं के आधार पर इसकी वर्णमाला रची गई । इसी भाषा में ऋषि मुनियों ने मन्त्रों की रचना की क्योंकि ब्रह्मांडीय ध्वनियों के अनुसरण पर रचे गये इन वर्णों का उच्चारण मस्तिष्क में उचित स्पन्दन उत्पन्न करने के लिये अति प्रभावशाली था . इसका, प्रकृति और पर्यावरण से गहरा संबंध है. इसकी ध्वनि के स्पर्श से पर्यावरण सात्विक होता है.सृष्टि की इन मूल ध्वनियों को पकड़ कर स्वरों में बाँधना और उनका नियमन कर लेना किसी साधारण व्यक्ति की सामर्थ्य में नहीं .पिंड को ब्रह्मांड से संयोजित करने का यह अनूठा प्रयास था.
उन्होंने वाणी -विज्ञान पर भी गहन विचार किया ,और आत्मा में झंकृत होने से लेकर मुखर होने तक उसके चार स्तर निर्धारित किये (परा ,पश्यंती, मध्यमा और वैखरी). वैखरी में आने पर वाणी ध्वनित होती है ,जिस मुखावयव से वह उच्चरितण उस के आधार पर उसका वर्गीकरण किया .प्राचीन संस्कृत के स्वरों और व्यंजनों में ,उन्हीं ध्वनियों को क्रमानुसार आबद्ध किया गया है .
यह क्रम आगे चला और श्रुति-परंपरा में चलती हुई भाषा का रूप विकसित होने पर -उसमें अनेक परिवर्तन आने लगे थे. पाणिनि ने भाषा को व्यवस्थित रूप में व्याकरण-बद्ध कर कर उसका संस्कार किया ,वह संस्कृत कहलाई .संस्कृत पूर्व वैदिक भाषा पूर्व भाषा के अपौरुषेय वर्णों को आकृति रूप देने के लिये वे मनीषी उतनी ही समर्थ और सतर्क लिपि की संरचना में प्रवृत्त हुये होंगे .पूर्व प्रचलित ब्राह्मी लिपि का परिष्कार कर जो रूप रचना की गई - वही है यह देवनागरी .
ब्रह्मांडीय ध्वनियों के अनुसरण पर रचित होने के कारण देव वाणी उसका दृष्य रूप है .
स्वर और व्यंजन में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक क्रम-विन्यास - देवनागरी के वर्णों का क्रमविन्यास उनके उच्चारण के स्थान को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है।जिसके अत्यन्त तर्कपूर्ण ध्वन्यात्मक क्रम होने के कारण ही अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक संघ (IPA) ने अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला के निर्माण के लिये आंशिक फेरबदल स्वीकार कर लिया.
स्वर और व्यंजन में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक क्रम-विन्यास - देवनागरी के वर्णों का क्रमविन्यास उनके उच्चारण के स्थान को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है।जिसके अत्यन्त तर्कपूर्ण ध्वन्यात्मक क्रम होने के कारण ही अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक संघ (IPA) ने अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला के निर्माण के लिये आंशिक फेरबदल स्वीकार कर लिया.
इसके स्वर और
व्यंजनो की संख्या इतनी है कि सभी प्रकार की आवाजों को वैज्ञानिक तरीके से
बोला तथा लिपिबद्ध किया जा सकता है . इन स्वरों को भी दीर्घ, ह्रस्व और
प्लुत तीन रूपों में बाँटा गया .इस लिपि की वर्णमाला तत्वत:
ध्वन्यात्मक हैजिसमें एक ध्वनि के लिये एक ही निश्चित संकेत-चिह्न है.
शोध से ऐसा पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है.
देवनागरी एवं संस्कृत ही दो ऐसे साधन हैं जो क्रमश: अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाते हैं. इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएँ ग्रहण करने में सहायता मिलती है.
नासा के एक कार्यक्रम में वेदों में निहित ध्वनि-विज्ञान के बारे में डॉ. ओमप्रकाश पांडे ने एक व्याख्यान दिया था, जिसे आधार मान कर न्यूलैंड के एक वैज्ञानिक स्टेन क्रो ने एक डिवाइस विकसित कर लिया. ध्वनि पर आधारित इस डिवाइस से मोबाइल की बैटरी चार्ज हो जाती है. इस बिजली की आवश्यकता नहीं होती है.
उन्होंने बताया कि इस डिवाइस का नाम भी 'ओम डिवाइस' रखा गया है.
वैज्ञानिक मानते हैं कि आधुनिक समय में संस्कृत व्याकरण कंप्यूटर की सभी समस्याओं को हल करने में सक्षम है.
( अमेरिका संस्कृत को ‘नासा’ की भाषा बनाने की कसरत में जुटा है क्योंकि वही ऐसी प्राकृतिक भाषा है, जिसमें कोई भी संदेश कम से कम शब्दों में सूत्र के रूप में कंप्यूटर के द्वारा भेजा जा सकता है.)
ए एल बाशम, "द वंडर दैट वाज इंडिया" के लेखक और इतिहासविद् के अनुसार -
'प्राचीन भारत के महत्तम उपलब्धियों में से एक उसकी विलक्षण वर्णमाला है जिसमें प्रथम स्वर आते हैं और फिर व्यंजन जो सभी उत्पत्ति क्रम के अनुसार अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकृत किये गए हैं. इस वर्णमाला का अविचारित रूप से वर्गीकृत तथा अपर्याप्त रोमन वर्णमाला से, जो तीन हजार वर्षों से क्रमशः विकसित हो रही थी, पर्याप्त अंतर है.'
शोध से ऐसा पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है.
देवनागरी एवं संस्कृत ही दो ऐसे साधन हैं जो क्रमश: अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाते हैं. इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएँ ग्रहण करने में सहायता मिलती है.
नासा के एक कार्यक्रम में वेदों में निहित ध्वनि-विज्ञान के बारे में डॉ. ओमप्रकाश पांडे ने एक व्याख्यान दिया था, जिसे आधार मान कर न्यूलैंड के एक वैज्ञानिक स्टेन क्रो ने एक डिवाइस विकसित कर लिया. ध्वनि पर आधारित इस डिवाइस से मोबाइल की बैटरी चार्ज हो जाती है. इस बिजली की आवश्यकता नहीं होती है.
उन्होंने बताया कि इस डिवाइस का नाम भी 'ओम डिवाइस' रखा गया है.
वैज्ञानिक मानते हैं कि आधुनिक समय में संस्कृत व्याकरण कंप्यूटर की सभी समस्याओं को हल करने में सक्षम है.
( अमेरिका संस्कृत को ‘नासा’ की भाषा बनाने की कसरत में जुटा है क्योंकि वही ऐसी प्राकृतिक भाषा है, जिसमें कोई भी संदेश कम से कम शब्दों में सूत्र के रूप में कंप्यूटर के द्वारा भेजा जा सकता है.)
ए एल बाशम, "द वंडर दैट वाज इंडिया" के लेखक और इतिहासविद् के अनुसार -
'प्राचीन भारत के महत्तम उपलब्धियों में से एक उसकी विलक्षण वर्णमाला है जिसमें प्रथम स्वर आते हैं और फिर व्यंजन जो सभी उत्पत्ति क्रम के अनुसार अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकृत किये गए हैं. इस वर्णमाला का अविचारित रूप से वर्गीकृत तथा अपर्याप्त रोमन वर्णमाला से, जो तीन हजार वर्षों से क्रमशः विकसित हो रही थी, पर्याप्त अंतर है.'
इतनी
समर्थ लिपि के स्थान पर किसी अपर्याप्त और अनेक दृष्टियों से अक्षम लिपि को
ग्रहण कर अपनी अनेक सांस्कृतिक धरोहरों से वंचित हो जाना ,और उन उपलब्धियों को काल के गह्वर में समाने
के लिए छोड़ देने का विचार ही कष्टदायक लगता है .
'यदि हम भारत में संस्कृत की अवहेलना करते रहे तो हम अपने मूल को स्वयं ही नष्ट कर देंगे जो सृष्टि के निर्माण काल से वर्तमान तक की अटूट कडी है. नहीं तो फिर हमें संस्कृत सीखने के लिये विदेशों में जाना पड़ेगा।'
- चाँद शर्मा.
और तब हमें अपनी पहचान के लिये दूसरों पर निर्भर होना पड़ेगा क्योंकि व्यक्ति, जाति तथा राष्ट्र की पहचान उस की वाणी से होती है.
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'यदि हम भारत में संस्कृत की अवहेलना करते रहे तो हम अपने मूल को स्वयं ही नष्ट कर देंगे जो सृष्टि के निर्माण काल से वर्तमान तक की अटूट कडी है. नहीं तो फिर हमें संस्कृत सीखने के लिये विदेशों में जाना पड़ेगा।'
- चाँद शर्मा.
और तब हमें अपनी पहचान के लिये दूसरों पर निर्भर होना पड़ेगा क्योंकि व्यक्ति, जाति तथा राष्ट्र की पहचान उस की वाणी से होती है.
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( गूगल से मिली जानकारी के लिए आभार ),
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