सोमवार, 31 दिसंबर 2012

हम चाहते हैं ..



"...I have tried to keep the memory alive.I have tried to fight those who would forget because if we forget we are guilty, we are accomplices...we must take sides-- neutrality helps the opresser , never the victim. Silence encourages the tormenter, never the tormented. Sometimes we must interfere when humans lives are  endangered, when human dignity is in jeopardy, national borders and sensitiveness become irrelevant..."
- Elie Wiesel
( Winner of the Nobel Peace Prize)


त्वरित न्याय की पुकार करते हुये भी मैं नहीं समझ पा रही.कि  हमारा तंत्र  अपने नियम कानून उन जानवरों पर कैसे लागू करेगा (जब अब तक नहीं कर पाया). वह यह  भाषा समझते ही नहीं!. .
और सवाल यह कि अपराध स्वयं सिद्ध है तब औपचारिकताएँ और विलंब काहे को ?
न्याय किसे चाहिये -बर्बर पशुओं को  या  पीड़िता को ?उसे फिर-फिर अंगारों पर क्यों धकेला जाय?न्यायाधीश  की पूछ-ताछ और वकीलों की बहसबाज़ी में यही तो होगा . घृणित अपराध  किया गया खूब समझ-बूझ, कर कोई नादान नहीं थे वे लोग .पीड़िता और उसके घरवाले क्षण-क्षण जो दाह झेलते रहे हैं .उसका तुरंत उपाय होना चाहिये था. 
  जघन्य अपराध  सिद्ध है  .पहले वे पापी  सरे आम चिह्नित हों जिससे ऐसी पीड़िता की दुस्सह मनोवेदना को कुछ तो चैन पड़े . वह अंग काटकर कुत्तों को डाल दें और उसके सिर पर दाग दें कि उसने क्या किया ,उसे सबके सामने एक उदाहरण बना कर जीने दें  .यही एक कारगर. इलाज  ऐसी मनोवृत्तिवालों की समझ में आ सकता है .
सभ्यता का आचरण मानवों के लिये ही विहित हो !
-प्रतिभा सक्सेना.

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

एक क़िस्सा

*
दो मिले-मिले घर थे ,इधर ज़रा मुँह खोल कर बोलो  तो उधर सुनाई दे .
एक दूसरे के घर से आनेवाली आवाज़ों में  रुचि लेने लगे दोनों परिवार.
इधऱवालों की हँसी कभी उधरवालों को सुनाई दे गई होगी .उधर कुछ दिन सन्नाटा रहा फिर 
 बोल सुनाई देने लगे .
इतने दिन बाद ! ये लोग कान लगा कर सुनने लगे -
उधरवाला आदमी कह रहा था
, 'लो ,मैंने कपड़े धो दिये अब तुम बाहर सुखा दो ,और देखो भीगना मत बिलकुल .
अरे हाँ ,तब तक मैं चाय बना देता हूँ .'
फिर -
'महरी नहीं आई ओहो,चलो मैं पोंछा लगाये दे रहा हूँ .'
'अरे,अरे बर्तन धोने की क्या जरूरत ?आज बाहर ही  खा लेंगे' .
 चाय पी लो ,आराम से बैठ कर .बाद में तैयार हो जाना तुम .'
इसकी पत्नी ने उलाहना दिया-
'देखा ,कितना ध्यान रखता है ,और एक तुम!'
रोज़ का यही धंधा !
इसे  बड़ी खीझ लगती  ,पर  करे क्या.
दोनों ओर से  सुन-सुन कर यह परेशान .और आवाज़ें?रोज़ के रोज़, बेरोक-टोक.
उफ़,कितना बोलता है उधऱवाला!
ये वाला भी घर के काम में बहुत हाथ बँटाने लगा है, मजबूरी में ही सही  .
पर वह आदमी? हद कर दी उसने तो , बर्दाश्त करना मुश्किल है अब तो.

  उधर से रोज़ उसका बोलना और इधर मियाँ-बीबी की झाँय-झाँय.
इनकी आवाज़ें उधऱ भी जाती ही होंगी .
इसका मन करता जा कर झंझोड़ डाले पूछे ,'क्यों  गाथा गा-गा कर हमारा जीना हराम किये है.'
उधर वह कहे जा रहा था ,'रहो, रहो.मैं तुम्हारे पाँवों में  तेल मल देता हूँ ...'
ताव खा कर  दनदनाता उसके घर में जा घुसा.
घर में कोई और था ही नहीं.
वह आराम से खा़ट पर लेटा-लेटा कह  रहा था ' बस,बस. तुम लेटी रहो .मैं हूँ न ..'

इन्हें आते देख हँसता हुआ उठ बैठा,'आइये,आइये.जानता था कभी आयेंगे 
ज़रूर. महीने भर को पत्नी मायके गई है ,बोर हो जाता हूँ, क्या करूँ ..!'

्रे आइये .जब से अकेला हुआ अपने-आप से बात  कर जी बहला लेता हूँ.आप तो कभी ख़बर लेते नहीं.क्या करूँ .पर जानता था आप आएँँगे जरूर .इतने दिन लगा दिये .. खूब जमेगी ,आइये आइये  
 भकुआया खड़ा है ये बेचारा!
*

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

हिन्दी के ब्लागों की क्या यही नियति है?


*
कुछ अख़बारों द्वारा  विभिन्न ब्लागों से सामग्री लेकर नियमित रूप से प्रकाशित की जाती है .पूरे के पूरे आलेख और साहित्यिक रचनायें वे अपनी ओर से अपने अख़बार में छाप लेते हैं .
मैं जानना चाहती हूँ कि  इसके लिये लेखक से अनुमति लेने या पूछने-बताने की कोई ज़रूरत है या नहीं ? किसी भी ब्लाग से ,चाहे वह लॉक किया हुआ हो, मैटर ले कर छाप  लेना उचित है या अनुचित ?
जब मेरे लेखन के साथ यह शुरू हुआ तो मुझे औरों से सूचना मिलती रही कि मेरी फलाँ रचना फलाँ जगह प्रकाशित है .मुझे विस्मय हुआ .
मुझसे न किसी ने प्रकाशित करने के लिये स्वीकृति ली ,न बाद में सूचित किया .तब मैंने अपने ब्लाग से कॉपी कर लेने पर रोक लगा दी .उन्होंने फिर अपना कौशल दिखाया और कुछ पूछने की ज़रूरत फिर भी उन्हें नहीं हुई . मेरे दूसरे ब्लाग पर से भी एक लेख उड़ा कर (भास्कर भूमि में )छाप लिया.मुझे फिर अन्य सूत्रों से पता चला. तब मैंने अपने दोनो सक्रिय ब्लागों पर यह सूचना लगा दी -© Pratibha Saksena and शिप्रा की लहरें, 2009-2012. Unauthorized use and/or duplication of this material without express and written permission from this blog’s author and/or owner is strictly prohibited.
उन्हें यह रोक रास नहीं आई सो उन्होंने रचना पर ही कैंची चलाना शुरू कर दिया .
 मेरी एक कहानी 'टीस' लालित्यम् नामक ब्लाग से लेकर ,मनमाने ढंग से उसका शीर्षक ही बदल डाला .(किसी की कहानी का  संदेश विकृत करने का अधिकार?)मैंने 16 दिसंबर को जो कहानी ब्लाग पर डाली थी ,दो दिन बाद देखा  किसी दूसरे शीर्षक से  भास्कर भूमि में प्रकाशित है (ब्लाग का उल्लेख था पर उसमें उस नाम की कहानी कहाँ से होती ) उसमें निहित संदेश पर तो उन्होंने अपनी ही बुद्धिमानी पोत दी थी.
  हिन्दी के ब्लाग-जगत के सामने मैं यह स्थिति लाना चाहती हूँ .हो सकता है कुछ और  जन भी इससे गुज़रे हों.  
हिन्दी के ब्लागों की क्या यही नियति है कि जो चाहे उनके साथ मनमाना व्यवहार करे?
 ऐसी स्थिति में क्या किया जाय कि इस मनमाने आचरण पर रोक लगे-
मैं आप सब ब्लागर मित्रों के विचार जानना चाहती हूँ . अतः आप सबसे  विनम्र अनुरोध करती हूँ  !
वे महोदय तो लेखक से परिचित नहीं ही होना चाहते होंगे,उन्हें ज़रूरत भी क्या है, उनका काम तो चले ही जा रहा है ,स्वनियुक्त संपादक जो बन गये हैं. (आजकल दबंगई का ही ज़माना है,रोज़ की ख़बरें इसकी पुष्टि करती हैं ).पर ऐसा करनेवाले व्यक्ति का नाम और परिचय ,मैं जानना चाहती हूँ किसी को पता हो तो कृपया बताये . भविष्य के लिये उन्हें सावधान भी करना चाहती हूँ .
यह भी संभव है कि इससे मुझे या मेरे ब्लाग को ही कोई खतरा हो !और यह भी हो सकता है कि अपने ऊपर ख़तरा भाँप कर हमारा कोई हिन्दी-ब्लागर- बंधु डर कर चुप्पी साध जाये !
फिर भी मैं प्रयत्न करूँगी .
आप सब का सहयोग चाहती हूँ .
- प्रतिभा सक्सेना

रविवार, 16 दिसंबर 2012

चीख़ .

टीस -
 *
 कुछ दिनों से ,जब से यह नया लड़का ऑफ़िस में आया है, मैं स्थिर नहीं रह पाता .
 ज़रा शऊर नहीं, न कपड़े पहनने का न चार लोगों में बात करने का. मुझे तो उसकी हर बात में बेतुकापन नज़र आता है. सामने होता है तो बड़ी उलझन होने लगती है .
कल ही चाय में ब्रेड के पीस डुबो-डुबो कर खाने लगा .
मैंने इशारे से धीर को दिखाया .
'उँह ,चलता है,'.उसने कह दिया .
लंच टाइम में उँगलियाँ तक सान लेता है ,ठीक से खाना भी नहीं आता - फिर चाट लेता है बीच-बीच में . किसी से परिचय की बार बुद्धू सा खड़ा ,ताकता रहेगा या फिर झपट कर शेकहैंड को तैयार.
मैं तो गाहे-बगाहे उस पर कमेंट कर देता हूँ .
क्या करूँ. कोई एक बात हो तो कहूँ. मैनर्स  बिलकुल हैं ही नहीं .
पर आज तो मुझसे बिलकुल रहा नहीं गया  झिड़क दिया मैंने,
'बेशऊर कहीं के ,रहने का ढंग सीखो,जाओ पहले हाथ धोकर आओ .'
 प्रसन्न चेहरा फक्क पड़ गया था . उसे यों घबराया सा देख कर बड़ा मज़ा आया .
वह चुपचाप उठ कर चला गया था.
इतने दिनों से देख रहा था जब चाहे कर मुँह चियारे हँसने लगना,
जोर से जमुहाई लेना ,बीच-बीच में सिर खुजाने लगना .
 ..अरे, देख कर तो सीखे,किन लोगों में बैठा है ,कैसा व्यवहार करना है .
कोई बात कर रहा हो ,बीच में अचानक टपक पड़ता है.
बिना पूछे अपनी राय ज़ाहिर करने लगता है.
आखिर कहाँ तक बर्दाश्त करे कोई?
  अपने साथी को बताया ,'एकदम जंगली,देख कर कोफ़्त होती है !'
उधर से कोई उत्तर नहीं, पर मैं कहे चला गया ,'पेट भर खाना मयस्सर नहीं ,मैनर्स कहां से आएँ ?'
मेरे साथी ने बात खत्म कर दी ,'अरे छोड़ो भी ,कहाँ चक्कर में पड़े हो ।'

 बुझा-सा चेहरा लिये वह आकर चुपचाप बैठ गया था ,सिर झुकाये काम करता रहा.
मेरा ध्यान बार-बार उसकी ओर जा रहा था.
 बिलकुल मन नहीं लग रहा था .
अचानक बड़ी हुड़क उठी ब्रेड का पीस चाय में डुबो कर खाने की  .
ओह, वह स्वाद लिये कितने दिन हो गये!
एक बार सबको अजीब तरह से देखते नोट कर लिया .छोड़ दिया तब से .अब बटर लगा कर,चबा,चबा कर  खाता हूँ .
वैसे दाल-चावल हाथ से मिला कर खाने का मज़ा ही और है .उंगलियों से
मिला मिला कर कौर बनाने से जैसे स्वाद ही और हो जाता है !
पर अब सब कुछ चम्मच से खाता हूँ, समोसा भी . उँगलियों से छू न जाय कहीं -
बैड मैनर्स !
 इतना चाक-चौबस्त मैं !
कहीं कोई ज़रा सी कमी निकाल दे .बोल-चाल ,व्यवहार ,चाल-ढाल सब नपा-तुला. तभी तो कोई बेतुकी चीज़ एकदम खटकती है.
सुरुचि संपन्न ,संस्कारशील ,अभिजात लगता हूँ न !
वैसे .कभी -कभी अपने को खुद  लगता है ओवर-रिएक्ट कर गया हूँ .जब लोग देखने लगते हैं मेरी ओर.तब कांशस हो जाता हूँ एकदम .
समय लग जाता है प्रकृतिस्थ होने में.
*
यों तो अभी भी कभी-कभी समझ में नहीं आता कि कहाँ क्या बोलना चाहिए .पर अब मेरा रहन-सहन बदल गया है इतना तो समझने ही लगा गहूँ कि अपनी तरफ़ ध्यान हो तब अपनी बात कहूँ . बेतुकी बात मुँह से न निकल जाय ,इसलिए अधिकतर चुप रहता हूँ .क्या करूँ न शकल-सूरत ,न गुन-ढँग .पर दुनिया को काफ़ी समझने लगा हूँ .

जब लगे कोई देख रहा है तो सहज होना बड़ा कठिन हो जाता है.और मेरे साथ तो यह होता कि जित्ता सँभालने की कोशिश करूँ उतना ही बस से बाहर होता जाता.
हर समय विचलित-सा ,सामने पड़ने से कतराता .
हाँ, रॉ था ,एकदम ठेठ.कौन ,सँवारता काट - छांट करता?
वह सब याद कर एक उसाँस निकल गई .
अरे,बात तो उसकी है , मैं अपने बारे में क्यों सोचने लगा !
सिर झटक देता हूँ --क्या फ़ालतू ख़याल !
अब तो  वह सब सोच कर हँसी आती है .मैं और बिल्कुल ठेठ ?छिः...
कभी-कभी टीस उठता है अंतर .बचपन से  किशोर अवस्था बीत जाने तक लोगों की नज़रे पढ़ते-पढ़ते मेरे मन का चैन समाप्त हो गया था . निश्चिंत होकर नहीं रह पाता ....अपनी हर कमी पहाड़-सी नज़र आती. पता नहीं मेरे बारे में कोई क्या सोचता होगा -ऊपर से गरीबी की मार - न ढंग के कपड़े, न रहने की तमीज़ .

कितने अपमानों की कड़वाहट भरी है मुझ में ,कितने उपहास और व्यंगों की चुभन!  कपड़े पहनने का शऊर कहाँ था?एक तो पास में थे ही कितने ,ऊपर से कैसे ,क्या किसके साथ पहनना चाहिए,अकल ही नहीं .
कुछ भी आसान नहीं रहा था .
बदल डाला मैंने अपने आप को ,वह बिलकुल नहीं रहा जो था .
यह सब अर्जित करने में क्या-क्या पापड़ बेले हैं !
 आज कोई देख कर कह तो दे .लगता हूं पीढियों से पॉलिश्ड परिवार में जन्मा हूं .बेढंगे-बेशऊर लोगों को ऐसी हिकारत से देखता हूं जैसे उनकी मानसिकता से कभी पहचान ही न हो .
जो कुछ संभ्रांत है उस पर सहज अधिकार है मेरा .फटाफट अंग्रेज़ी ,और शिष्टाचार में कोई ज़रा-सी कमी तो निकाल दे .कहीं कोई झिझक नहीं कोई संकोच नहीं ,
.अब हूँ ऐसा -एकदम रिफ़ाइंड, सुरुचि-संपन्न!
 ये सब बातें बचपन से  सिखाई जाती हैं या अपने वातावरण से सीखता है आदमी .
सहानुभूति उमड़ती है अपने लिये. फ़ौरन उन लोगों पर ध्यान जाता है जो ऐसे हैं , पर निम्नवर्ग के वे दाग़ छुटा डाले हैं धो-धो कर .उस जीवन के अंश मिटा कर बड़ी मेहनत से ये ढंग विकसित किए हैं मैंने .

'मैनर्स सीखने की बात ?जिसे पेट भर खाने को न मिलता हो उससे ?'
अपने ही  शब्द कानों से टकराते हैं .अंदर ही अंदर कुछ उमड़ता है .
चैन नहीं पड़ रहा  किसी तरह .
कोई पुरानी चुभन सारे वर्तमान को पीछे छोड़ती  शिद्दत से उभर आई हो जैसे . जैसे उसे नही,मुझे हड़का दिया हो किसी ने .
हाँ , झिड़का गया था मैं कितनी बार !
इसी लायक था - न मौका देखता न मुहाल .जो बात मन में आई मुँह पर दे मारी .
 न किसी का लिहाज़ ,न शर्म . सुननेवाला भी भड़क उठे .
खूब बड़ों-बड़ों से लड़ जाता .उमर में कितने बड़े हों ,ज़ुबान लड़ाता रहता .वे कुछ कहें तो उन्हीं से बत्तमीज़ कह देने में संकोच नहीं .
पर कैसा सँभाला  अपने आप को. कहीं  कोई निशान बाकी नहीं .कोई दूसरा क्या पहचानेगा ,अक्सर मैं स्वयं अपने को नहीं पहचान पाता .

एक चीख-सी उठी ,'कितनी बनावट ?  कहाँ तक निभाओगे ?'
चौंक पड़ा मैं - यह कौन ?
 'तुम कहाँ से आ गये ,मैं तुम्हें बीती गहराइयों में गाड़ आया था ?'
'बीतता यहाँ कुछ नहीं ,साथ चला आता है. कैसे रह पाते हो ऐसे?'
' क्या मतलब तुमसे ?.'
'मैं  अलग कहाँ तुम्हारा एक हिस्सा हूँ ?''
'वह पीछे रह गया ,मेरे साथ नहीं .'
'स्वाभाविक कैसे रह पाओगे ऐसे ?
झुँझला कर बिफ़र पड़ा -
हाँ ,हाँ, मैं मिसफ़िट हूँ ,हर जगह ,मिसफ़िट.इन लोगों के साथ बिलकुल अकेला ,अलग - ?
उसके मुख पर छाई व्यंग्य भरी मुस्कान ,मैं कट कर रह गया .
 'क्यों आ गये तुम ?किसने बुलाया था तुम्हें ?'
'मैं  गया ही कहाँ कभी ?तुम्हीं मुझसे बचते हो ,सामने पड़ने से घबराते हो ..'
'नहीं ,तुम नहीं मेरे साथ.'
'एक सिक्के की दो सतहें हैं हम .अलग कर पाओगे ?
कुछ नहीं सूझ रहा ,बड़ा बेबस ,उदास ,कपड़े बदले उतार कर फेंक दिए काउच पर .
बुरी तरह थकान लग रही थी .
बिस्तर पर पड़ गया ,सामने ड्रेसिंग टेबल के शीशे में दिखाई दे गई अपनी ,विकृत ,खिसियाई शक्ल.
तकिया खींच कर मुँह औँधा लिया .
आँखों से बहते आँसू और कहाँ समाएँगे !

 *


रविवार, 9 दिसंबर 2012

वाह रे कंप्यूटर !

*
  कल्पना भी नहीं थी कि कंप्यूटर जैसी चीज़ का कभी प्रयोग करूँगी .लिखने-पढ़ने के मामले में अपना हाथ जगन्नाथ लगता था .लेकिन यह भी यह सच है कि नहीं सीखा होता तो बहुत-कुछ से वंचित रह जाती .जितना लिख लेती हूँ उतने का तो सोच भी नहीं सकती थी .
बेटा भारत से बाहर चला गया था .
 हम दोनों अक्सर ही उसके पास जाते थे.
 रिटायर होने पर उसने कहा,' आप कंप्यूटर सीख लीजिये.वैसे यहाँ आप बोर हो जाती हैं.'
सब को उस पर काम करते देखती थी,उत्सुकता जागी, ' अच्छा देखती हूँ '.
 फ़ुर्सत में थी ही .ज्वाइन कर ली क्लास .
पर  वे जाने क्या-क्या सिखा रहे हैं -डायरेक्ट्री- फ़ाइल्-ट्री ,इधर का इधर , आदि .
उसे बताया तो बोला ,'उससे आपको कोई मतलब नहीं .छोड़िये मैं बता दूँगा .'

पहली मुश्किल - हाथ रखते ही  फर्र्र से तीर की नोंक इधऱ से उधर पहुँच जाय,
हार कर मैने कहा ,'यह चूहा एकदम भागता है मेरे बस में नहीं आता.'
वह चिल्लाया ,'मम्मी फिर चूहा .,चूहा नहीं माउस है वह,माउस कहिये.'
'क्यों माउस मानेई तो चूहा ,और क्या कहें इसे ?'
'नहीं बस ,माउस कहिये .'
क्यों, हिन्दी में बोलना मना है?.
मैने सिखाया था माउस माने चूहा और आज ये उलटी पट्टी पढ़ा रहा है.

अगली परेशानी, देखो , ज़रा सी उँगली बहकी तो फिर एक खिड़की खुल गई .'.
फिर वही टोकना उसका - वह विंडो है, खिड़की मत कहो .
मुझे तो याद ही नहीं रहता एकदम हिन्दी हो जाती है.
वह टोकता है तो मुझे हँसी आती है .इसने मुझे कितना झिंकाया था अंग्रेजी याद करने में !
मेरे आगे तो ढेर लगा है- कैरेक्टर, एपल, बुकमार्क,बाइट,कैश मेमरी ,सर्वर, बिट,की ,मानिटर, स्पैम,कुकी और जाने क्य-क्या.जो पढ़े भी हैं उनके अर्थ सब बदले हुये!
जहाँ मैने पुराना अर्थ बोला वह चीखता है ,'आप सुनती क्यों नहीं ...'
'फिर वही कहा , कर्सर है वह तीर नहीं .'
अब मैं उसे ठीक करूँ कि ख़ुद को !

लो ,अब उसमें टेबलेट और जुड़ गया
'आपको टेबलेट चाहिये बहुत हल्की है?'
 मुझे लगा इस सब गड़बड़ के ,बीच(नॉर्मल रहने को ) गोली लेनी पड़ती होगी .
हे भगवान !
ये बात तो है- इन लोगों के दिमाग़ गुठला गए हैं ,एकदम कुंठित ! याददाश्त ज़ीरो.  
ज़रा-सा गुणा-भाग हो, दौड़ते हैं- कहाँ केलकुलेटर? कहाँ,कंप्यूर?
जो गिनती-पहाड़े ज़बान पे रखे थे, सब चौपट !

पर टेबलेट तो कुछ और ही करिश्मा निकला !
समझ में नहीं आता कहाँ अंग्रेज़ी चलेगी  ,कहाँ हिन्दी .
ख़ैर जो हुआ सो हुआ. उसने मुझे इतना कंप्यूटर  सिखा दिया कि मैं लिख पढ़ लेती हूँ और भी कई काम कर लेती हूँ !
इतना पढ़ने को मिल जाता है और लिखने को भी कि और कुछ सीखने का अवकाश ही नहीं  .बहुत आसान हो गया है अब सब कुछ.
 यह नहीं होता तो मेरी तो  बड़ी मुश्किल हो जाती .
वैसे मुझे आता-जाता कोई खास नहीं, और ऊपर से यह विचित्र ग्लासरी ! गड़बड़ कर जाती हूँ हमेशा.अपना बहुत तैयार माल उड़ा चुकी हूँ इस के चक्कर में.
चलो, जित्ता सीख लिया ,काफ़ी है मेरे लिये!
*
 - प्रतिभा सक्सेना.

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

दुखी हो लेना ही पर्याप्त नहीं है.


*

आज मल्हार ब्लाग का आनन्द ले रही थी .वहाँ 8सितंबर 2012 की एक पोस्ट है -
अवन्तीपुर (कश्मीर).जिसमें 14वीं शती के एक  सुल्तान सिकंदर बुतशिकन द्वारा
क्रूरता की सभी हदें पार कर बड़े व्यापक रूप से धर्मांतरण हुए और साथ ही कत्ले आम भी.
 चुन चुन के सभी मंदिरों को धराशायी कर दिया गया . अवन्तिपुर का विष्णु मंदिर भी इसी कारण अन्य मंदिरों की तरह  वर्तमान अवस्था में है. यहअद्भुत एवं अद्वितीय मंदिर इतना मजबूत था कि उसे तोड़ने में एक साल लग गया था. अनंतनाग (इस्लामाबाद) से ८ किलोमीटर की दूरी पर ललितादित्य द्वारा ८ वीं सदी में निर्मित  मार्तंड सूर्य मंदिर के खँडहर हैं.
यह सब पढ़ कर और अपनी संस्कृति के इन पुरावशेषो को देख कर दुखी हो लेना ही पर्याप्त नहीं लगा. इस भू.पू.महादेश की समृद्ध संस्कृति,  ,(जिसमें धर्म ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन एवं प्रयोगशालायें आदि ,तथा स्थापत्य महत्व के स्थल भी शामिल है ) के ऐसे बेजोड़ उदाहरण धार्मिक विद्वेष के कारण  किस-किस के द्वारा भग्न किये गये.इसका पूरा विवरण होना चाहिये .
एक सांस्कृतिक पर्यवेक्षण कर सारे विवरण एक जगह एकत्र किया जाएँ जो
उन कालों के सांस्कृतिक इतिहास का निरूपण करे .अपने प्राचीन(सांस्कृतिक) इतिहास को जानना भी ,हर भारतवासी का अधिकार है .
यह जानने की भी उत्सुकता है कि ,उस धर्म में क्या कोई विचारशील संतुलित व्यक्ति नहीं था जो इस धार्मिक उन्माद ,और आतंकवाद को सही मार्ग दिखाता .सब उसकी खूबियों के कसीदे पढ़ने वाले जमा थे, और वास्तव में क्या हो रहा है उस ओर से पीठ फेर लेना ही उनकी खासियत थी ?
*

शनिवार, 24 नवंबर 2012

भानमती का लोक-जाल ..

*
'आज तो खूब पहन-ओढ़ कर आई हो. जम रही हो ."
वह मुस्कराये जा रही है .
'क्या हुआ, भानमती ?'
'बस  पूछो मत .शादियों के तमाशे  हैं ,क्या बतायें ..'
'पर हुआ क्या?
'रिश्तेदारी में शादी थी वहीं का  ध्यान आ गया. '
'अब बताओ भी..'
'हम लोगों के यहाँ शादी में आप लोगों की तरह शार्टकट नहीं होता कि दो दिन को बरात-घर, धरमशाला ली ,और सबको वहीं से निपटा कर चले आये.या होटल में एक रात के कमरे ले कर अलग-अलग मेहमान टिका दिये .
हमारे सब साथ रहते हैं हाथ बटाते हैं, सोना चाहे अलग कमरों में  हो . हफ़्ता भर पहले और तीन दिन बाद तक रीति-रिवाज , नेग-चार चलते हैं .तेल-हल्दी ,मातृ-पूजन ,इन्हीं से तो रिश्तेदारी का मजा है साथ मिकर कुंआ पूजना, आम महुआ ब्याहना, कुम्हार का चाक , देवी-देवताओं से लेकर ब्रहृस्थान की पूजा सब .'
सुनती रही मैं .
'और देखो तो, अलग-अलग कितने प्रोग्राम ,कहीं लड़के-लड़कियन की अंताक्षरी ,सिनेमा के नहीं- सच्ची कविताई रामायण और दूसरे . मेहरुओं का ढोलक पर गीत ,असली देवी के ,तेल के, भात के, मेंहदी के ,भाँवर के सब  देसी गीत .यही तो मजे हैं शादी-ब्याह के .मिल के खाना, मिल के गाना ,हँसना-हँसाना. कहीं ताश .कहीं लिस्टें बन रही हैं ,कहीं बंदनवार ,माली नाइन ,कुम्हारिन सब की  झाँय-झाँय.लगता है घर में शादी हो रही है .अब क्या ,अब तो न मंडप छवाना ,न खंब गाड़ना ,न ननदोइयों की पीठ पे सलहजों के  हल्दी वाले धमाके!
अब तो सब रेडी-मेड .दो दिन में निपटाया और भागे .पैसे का खेल दिखा लों भले, वो रस कहाँ ?
'भानमती,ये सब पहलेवाली बातें हैं.अब कहाँ वह सुविधा..'
'कोई ना ,अब भी जा के देखो, इन शहरों से दूर. वहाँ मिलेगा असली मज़ा .
शादी क्या !उत्सव होता है उत्सव ,पूरे हफ़्ते का ,खुले मन से  .कम खर्चें आनन्द बड़े .अब तो कमरे में से सज-धज के निकले और आकर बैठ लिये .खा-पी लिये .चल दिये'
'अरे हमने भी वो शादियाँ खूब देखी हैं ,हमसे क्या कहती हो.'

मेरी बात वह सुनती कहाँ है .
'एक कहीं की चाची आईं थी .उनकी आदत है चलते चलते किसी की भी हों दो-एक चादरें अपने साथ बाँध लेने की.' ताली पीट कर हँसी वह,' हमारे जेठ के बेटे ने उनके नहाने जाते ही उनका सामान खोल के चादरें निकालीं और जैस का तैस बाँध दिया .'
'हाँ ,अक्सर ऐसे लोग आ जाते हैं .ताश की गड्डियाँ ,किताबें ,वगैरा तो अक्सर ही .और कभी तो बराती भी कुछ न कुछ बाँध ले जाते हैं .'
'पर  अब तो झंझट टालते हैं किसी तरह !'
'हमें सब पता है. पहले हमारे यहाँ भी महीने भर पहले से अपने सगे आने लगते थे
नाज बीनना -फटकना ,दाले ,बड़ी-मुँगौड़ी ,,डिबिया का सामान एक संदूकची में खिलौने,दूध पिलाने की बोतल ,झबले ,फ़्राकें .,स्त्रियों के अंतः वस्त्र,बटुये ,रूमाल,सुहाग की चीज़े कंघा-शीशा आदि भर दिया जाता था .जो वरके घर की स्त्रियाँ खोलती थीं और हँसी मज़ाक के बीच आपस में बाँटती थीं.)'
 उसे लगता है जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं .
'सारे काम घर में होते थे .पर अब किसे इतनी फ़ुर्सत और कहाँ इतना पसारा .सब झटपटवाले काम.'

'हमारे लोगों के तो अब भी होता है .रीति-रिवाज मानने में कौन पैसा खरच होता है !'

'तो चूल्हा ,चक्की ,मूसल-ओखली  भी?'
'हाँ ,हाँ, पूरी मरजाद से. हमारी तरफ़ अब भी हफ़्ता भर तो लग ही जाता है .रिस्तेदारों को ठैराने के लिये पास-पड़ोस के घरों में कमरों  का इंतज़ाम कर लेते हैं .'
' पर हँसने की बात क्या है, वो बताओ .'
'सुनो तो ..' उसने कहा . पूरी भूमिका बाँधे बिना बता दे तो भानमती कैसी !
 '...तो इनने पड़ोस का एक खाली घर ले लिया था ,वहीं पचीसेक लोग ठहरे थे. बाकी घर में .कल रात क्या हुआ ?साथ  के कमरे में मामा,चाचा फूफा के बच्चे इकट्टे थे .कुछ झायँ-झायँ चल रही थी.
फुआ की मीना ,और मौसी के लड़के में बहस हो रही थी.
पूरा विवरण देने लगी वह -
हाँ तो ताऊ जी के बेटे ने पूछा,वही सबसे बड़े थे  दो बच्चन के बाप !
' बात कहाँ से शुरू हुई  ,पहले ये बताओ .'

मैं बताती हूँ -मीना तैयार .
गोपाल बोलने लगा ,'नहीं, मैं बता रहा हूँ .दिन भर बाज़ार की भाग-दौड़ से थका ,आराम करना चाहता था . मैं ज़रा सो गया , कि इनने  मेरे मुँह पर समेटा हुआ कपड़ा फेंक के मारा ..'
'मुझे क्या पता था  उन बिस्तरो में कोई दबा पड़ा है.. '
'पूरी बात बताओ ,शुरू से ..'
वह फिर बोलने लगा ,
'मैं अपने कमरे में गया . बिस्तरों का ढेर लगा था . कौन उठा-उठा कर जगह बनाए सो एक साइड से थोड़ा धकिया कर उसी में घुस गया.मुँह पर एक कंबल का कोना तान लिया. ख़ूब भरक गया था ,हल्की सी नींद आई थी कि इनने खींच कर मारा  , चौंक कर जग गया मैं तो ..'
'बस-बस चुप करो .मैं बताती हूँ असली बात - कपड़े बदलने थे मुझे . कोई कमरा नहीं .मिला .  एक खाली दिखा जहाँ लहदी की तरह बिस्तरों का अंबार लगा था. चलो यहीं सही, मैंने सोचा. वो तो ये कहो कि साड़ी उतार के बिस्तरों के ढेर पर  फेंकी थी ,बस .'
'नहीं ,झूठ बोल रही हो..' वह बीच में बोला ,' आगे शुरू हो गईँ थीं ..'
' मेरी बात सुनिये और कपड़े  नहीं  ..'
'गलत !..उतारे .,साड़ी मेरे ऊपर फेंकने के बाद  ..'.
 'तो तुम जान बूझ बने पड़े थे?'
'चौंक कर जागा तो पलकें झपकाना भूल गया, आँखें फाड़े देखता रह गया .'
'बत्तमीज़ कहीं के ..'
'बत्तमीज़ मुझे कहा ,खुद ने ही तो आकर शुरू किया '
कुछ लोग बीच-बचाव करने लगे .एक ने कहा,
' ये तो पता लगे , फिर क्या हुआ !'
'होता क्या इनने एक चादर खींच कर लपेट ली और मुझे मारने लगीं .'
'तुम्हें पकड़ कर तो मारा नहीं होगा, भाग जाते  बाहर .'
'कमरे की कुंड़ी तो इनने पहले से लगा ली  थी .'
'कपडे बदलने आई थी तो..'
'तो मारा काहे से?'
 'तकिये फेंक-फेंक कर मारे .'
'क्यों इसके ऊपर तकिये फेंके तुमने ?'
'और कुछ था नहीं क्या करती , बिस्तरों के तकिये पड़े थे बस .'
'वह  मेरा कमरा था ,'
' शादी के घर मेंअलग से तुम्हारा कमरा ?'
'हाँ हाँ ,मैं वहीं टिका था .वहाँ घुस कर तुम..'
'बस,बस, चुप रहो तुम दोनो. अब हल्ला मत मचाओ. आगे एक दूसरे से दूर-दूर रहना.बोलने की बिलकुल जरूरत नहीं  !'
ताऊ जी के बेटे ने मुस्करानेवालों को आँखें दिखाईँ और दोनो को चुप कर दिया ,
 धीमें से बुदबुदाये थे -'अब शादी का घर है इतना तो चलेगा! '
यह भानमती भी एक ही है, इंटरनेट से निकाल कर लोक-जाल में फँसा देती है !
*

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

पीला गुलाब - समापन सत्र.

*
10
'एक तो दो-दो लौंडियाँ ,ऐसी चढ़ा के रक्खीं बिलकुल अपने मन की हो रही हैं .ऊपर से अंग्रेजी इस्कूल में दाखिल करवा दीं' - जिठानी की शिकायत पर रुचि समझा देती -
बदलते हुये समय के साथ नहीं चलेंगे अपने बच्चे पिछड़ जायेंगे , दीदी,लड़कियाँ हैं तो क्या. वे भी खुश रहें ,आप  भी  तो यही चाहती होंगी ..'
' हमारे कौन जमापूंजी धरी है .इत्ता चढ़ जायेंगी तो कहाँ लड़का मिलेगा .हम तो इसी में परेशान हैं कि शादी कैसे होयगी .' किरन कहती रही .

कर्नल साहब अपनी बेटियों को किसी से कम नहीं देखना चाहते .होस्टल में रह कर पढती रहीं दोनों .
'और क्या करते दीदी, जहाँ उनकी पोस्टिंग हुई वहाँ ,अच्छे स्कूल नहीं थे ,कैसे साथ रखते बच्चों को !'
'तो क्या  वहाँ की लौंडियाँ पढ़ती नहीं .अरे, पैसे जोड़ते शादी के लिये .'
किरन को  याद आता है कित्ता दबा रखा गया था उसे.
'रुचि ,तुम्हीं अच्छी रहीं ..हम तो गाय थे,जहाँ हाँक दिया चले आये !'
शिब्बू कहते हैं,'  किस्मत सराहो भाभी , ऐसा घर-वर पाने को तरसते हैं लोग .'
' तो  फिर इनने ...कोई अकारन ही तो आई बरात वापस नहीं करता ...? ' इशारा रुचि की ओर
अब, इसका जवाब किसके पास !
 *
पिछली बार जब शिब्बू ,दादा के पास आये थे तब की बात .
इस लड़ाई के कोई आसार नहीं थे तब .यों ही बातें चल रहीं थीं.
अचानक अभिमन्यु कह उठे -
तुम भी बी.ए कर लेतीं किरन तो मुझे संतोष हो जाता .परिस्थितियाँ बदलते देर नहीं लगती .और फिर सेना में होने का मतलब ..'
किरन से रहा नहीं जा रहा ,'मत कहिये, नहीं ,कुछ भी मत कहिये .भगवान ऐसे  दिन न दिखाए .
 सब चुप हैं .
कर्नल सा. कह उठे थे, ' अपनी बेटियों को क़ाबिल बनाना चाहता हूँ ,उन्हें कभी बेबस न होना पड़े ..'
'दादा, तुम बेकार परेशान होते हो .हम लोग भी तो हैं न .'
'अरे शिब्बू ,तुम्हारी  ढंग की कमाई होती तो ..'
'मैं नहीं हूँ क्या ? रुचि बीच में बोल पड़ी,' निश्चिन्त रहिये आप .'
 ' पर  कल को तुम्हारे अपने भी तो  ....'किरन बीच में बोल पड़ी.
 '  हमारे न सही ,लाला तुम्हारे एक लड़का हो जाता .वंश का नाम  तो चलता .'
सात साल में दो बार आस बँधी पर निष्फल चली गई .
'यहाँ  अपना बस कहाँ चलता है, भाभी ."
'अपने अलग नहीं चाहिये हमें. निश्चिंत रहिये  .इनके लिये जो  अरमान हैं दिल में ,ज़रूर पूरे होंगे .'
वे चुप उसका मुँह देख रहे हैं.
'कुछ मत सोचिये ... , मेरे होते इनके सामने कोई बाधा नहीं आयेगी .'वह कहती चली गई ,'जीवन में और चाहे  कुछ न कर सकी होऊँ, पर यहाँ पीछे नहीं हटूंगी.'
आज पहली बार जेठ के सामने रुचि इतना बोल गई .
कर्नल ने उसकी ओर  आँख भर कर देखा था -परितृप्त दृष्टि!
'अपना भी जीवन जीना साथ में, सुरुचि ,बिलकुल अकेली मत पड़ जाना .'.
देवर -भाभी चकित .आज पहली बार दोनों को बोलते सुना .
'और कुछ कहाँ कर सकी , इतना तो संतोष रहे .'
चाय के बर्तन उठा कर चलती रुचि की आँखें भर आईँ थी .
 *
दिन बहुत धीरे-धीरे बीत रहे हैं.
इस साल तो पिछले ग्यारह सालों का रिकॉर्ड टूटा है. बहुत सर्दी पड़ रही है .उड़ाने कैंसिल ,ट्रेने  सब लेट .धुंध के मारे दिखाई नहीं देता . एक्सीडेंट भी तो कितने हुये हैं .
जीवन जड़-सा हो उठा है. क्या करे कोई-
  कैसे-कैसे कुविचार उठते हैं !
निश्चिंत कहाँ रह पाता है मन .
इधर कोई खबर नहीं आ रही .
रेडियो की ख़बरों पर ध्यान लगा रहता है सबका .सीमा पर एक विमान दुश्मन ने गिरा दिया .झटका-सा लगा था सबको
शीत-लहरके कारण स्कूलों में छुट्टी. लड़कियाँ घर आ गई हैं ..
पर्वतों पर हिमपात और कोहरा ,
हेलिकाप़्टर और प्लेन यथास्थान लौट आयें तभी निश्चिंत हो पाते हैं सब.
कभी -कभी पता ही नहीं मिलता .खोजना भी मुश्किल .
अभिमन्यु कहाँ हैं, कैसे हैं, किसी को पता नहीं .
इस कठिन समय में वह  जिठानी के पास बनी है.
*
11.
अचानक एक दिन   सेना की वर्दी में कुछ अधिकारी  उपस्थित हो गये .
सब सन्न !
 क्या हो रहा ह किसी की समझ में नहीं आ रहा .बस यह समझ में आया कि अब बड़के भैया  कभी घर नहीं लौटेंगे .
रंजना-निरंजना सहमी खड़ी हैं ,
'हमारे डैडी..'
'बेटा तुम्हारे डैडी,' ऑफिसर ,'उठ कर उन तक गया ,थपकता हुआ बोला ,'बड़े बहादुर आदमी थे ...देश के लिये बलिदान किया ... उन्होंने ...'
किरन सपाट स्वर में कह उठी 'वे अब कभी नहीं लौटेंगे ..' 
 रो उठी वह,मुख  पर आँचल दबाए ,दुर्वह वैधव्य का  घुटा  हुआ रुदन ,विचित्र सी ध्वनि में उस मौन अशान्ति  को  तोड़  गया . सब के ह़दय  तल तक काँप उठे.  .
लड़कियाँ माँ से आ लिपटीं .
वे लोग बहुत कुछ कहते रहे ,बहुत तारीफ़ करते रहे कर्नल अभिमन्यु की ,पर कुछ भी ,किसी के मन तक नहीं  पहुँच रहा .
यह सबको सुनाई दे गया कि कर्नल अभिमन्यु ,की पार्थिव देह पूरे सैनिक सम्मान के साथ आ रही है .

*
लोग आ-जा रहे हैं .मिलिट्री का बैंड बज रहा है .
गूँज आ- आ कर हृदय से टकराती है . अपना कर्तव्य निभा रही रुचि .

रो-रो कर निढ़ाल हुई जिठानी एक कुर्सी खींच कर बिठा दिया किरन के साथ होकर साध लिया उसने .
दोनो पुत्रियाँ एकदम विमूढ चिपकी खड़ी है.
बहुत लोग आ गये हैं .व्यवस्थायें हो रही  है .
 'अब हम क्या करें ?'
उसके कंधे पर सिर रख निरंजना अचानक रो उठी .
एक व्यक्ति बढ़ आया,
'बेटा ,तुम्हारे पिता मरे नहीं अमर हो गये .घबराना मत मैं हूँ .'
' हम हैं तुम्हारे साथ .,'
सांत्वना देनेवालों की कमी नहीं है .
रुचि ने आगे बड़कर दोनों को गले लगा लिया. वे रोती हुई सिमट आईं,'चाची, अब आप ही अम्माँ को समझाओ .'
वे जानती हैं ,माँ के लिये यह सब कितना भारी पड़ रहा है .

व्याकुल सा भरभराता स्वर फिर उठा,'अब हम कैसे क्या करेंगे?'
'दीदी , हम हैं .बच्चों के लिये आप चिन्ता मत करिये .'
'वो हमारी जिम्मेदारी हैं ,हम करेंगे उनका सब कुछ .' शिब्बू ने साथ दिया.
दोनों अपने से लगाये रुचि कह रही है -
'आज से ये मेरी बेटियाँ .सारी जिम्मेदारी मेरी .दीदी ,अब आप कुछ नहीं कहेंगी इनके लिये!'
*
किरन कह रही है ,'सब चले जायेंगे,सब  भूल जायेंगे ,बस मैं रह जाऊँगी  बेबस अकेली .क्या करूँगी ?कैसे बिताऊँगी ज़िन्दगी ?'
'रास्ता मिलेगा दीदी ,जरूर मिलेगा.'
शिब्बू बेचारे समझ नहीं पा रहे क्या कहें .
'हाँ, और क्या हम लोग हैं ,फिर दादा की पेंशन भी तो  .और हमारी जिम्मेदारी भी .'
'अरे ,आगे की भी सोचनी है ,ऐसे ही थोड़े बैठी रहेंगी ..'
' क्या मतलब ?'
'मतलब,बेकार बैठे दुखी होंगी .,' उनकी ओर घूम कर बोली ,'दीदी ,आप तो शादी के बाद इन्टर कर चुकी हैं ?'
' हाँ ,उनका बहुत मन था मैं आगे पढ़ूँ ,ट्यूशन रखवा दी थी,'
 किरन को अब पछतावा हो रहा  है.

'..कितना अच्छा होता उनकी सुन लेती .कुछ करने लायक हो जाती .वहाँ  तो हमें घर के काम में लगा देती थीं मामी .अम्माँ हमारी बेबस थीं .टीचरें हमसे हमेसा खुश रहीं पर हमें पढ़ाता कौन ! फिर बाद में तो मेरा मन नहीं लगता था पढ़ने में.'
'  अब ..किसके सिर पड़ूँ  .  पहाड़ सी ज़िन्दगी कैसे कटेगी  ? कहीं लग जाऊं . ढंग का काम कौन देगा मिुझे किसी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने का न सही पानी पिलाने का और ऊपर का काम ही सही ..'
'कैसी बातें करती हैं दीदी ,चलिये मेरे साथ बी.ए का फ़ार्म भरिये .दो साल में बी.ए. '
' कुछ कर पाऊंगी क्या ?'
'हो गया सो हो गया , आप में कोई कमी थोड़े न.तब  ध्यान नहीं दिया अब तो कर सकती हैं  .खूब कर सकती हैं अगर चाहें तो .'
चुपचाप सोच रही है किरन .
'अब इत्ती उमर में?सब हँसेंगे हमारे ऊपर  .'
' तो क्या ..?पता है हमारे यहाँ एक पचास साल से ऊपर की महिला ने एडमिशन लिया .किसी की परवाह नहीं की ,और पता है ,सबसे अच्छे नंबर उसी के आये .
हम लोगों ने खूब तारीफ़ की उसे हिम्मत दी . वो हमारे यहाँ लाइब्रेरी में है अब.'
*
अभि के व्यक्तिगत सामान का बड़ा-सा बंडल आया है .
रुचि पर सारी जुम्मेदारी आ पड़ी है .
 खोल कर देख रही है .
 ड्रेस ,मेडल ,रोज़ के उपयोग का सामान .
देखती रही आँखें धुँधला आईँ .
एक लिफ़ाफें में बड़ा सहेज कर रखा हुआ कुछ!
क्या है यह ?
रुचि खोल कर देखती है .
एक रुमाल में लपेटा हुआ पीला गुलाब - सूख गया था पर आकार लिये था .
 .दोनो हाथों में रूमाल सामने किये  रुचि देखे जा रही है .
बीती हुई  बातें अंतस् में टीस भरती उभर आईं

'दादा भी एक ही निराले हैं .'शिब्बू ने कहा था. 
बराम्दे में बैठे शेव कर रहे थे, बग़ीचे में माली ,गुलदस्ता बनाने को फूल छाँट रहा था .
'और सब रंग हैं बस एक  कमी - पीले गुलाब की बेल यहाँ बहुत जमेगी '
' नहीं लाला,' भाभी ने चट् जवाब दिया था ,'पीला गुलाब बिलकुल नहीं चलेगा यहाँ  .माली ने चाव से लगाया पर ,तुम्हारे दादा ने हटवा दिया था .'
कर्नल साहब को पीला रंग बिलकुल पसंद नहीं !'
खूब याद है रुचि को .
और आज समेटे खड़ी है वही फीकी पड़ गई पीली पंखुरियाँ !
हथेली में भर लेती है नाक के पास लाकर वास  लेती है .बहुत मंद-सी गंध-शेष . यही है क्या - बहकी हुई प्रीत की महक !
 उस प्रथम परिचय की भेंट , अनायास जुड़े  प्रेम-बंधन की स्मृति ,नये जुड़े संबंध का साक्षी वह पीला गुलाब ,जिसे उन नेह भरे हाथों ने उसके केशों में टाँक दिया था.
उस सज्जा में सबके सामने कैसे जाती ?
 बगीचे से लौटती बार उसने  खींच कर  निकाला ,अभि ने तुरंत हाथ बढ़ा कर थाम लिया था.
डंण्डी पकड़े नचाते हुये सबके सामने कहा था उसने  ,'आपके बग़ीचे के ये पीले गुलाब बहुत दिलकश  हैं , लिये जा रहा हूँ एक  .'
उसी  फूल के अवशेष देखे जा रही है रुचि ..
 'क्या है इसमें?' शिब्बू आ कर खड़े हो गये थे.
' पूजा के फूल लग रहे हैं, कहीं का प्रसाद, उन्हीं के सामान में  रक्खे दे रही हूँ ..'
बिखरी  पंखुरियाँ उसी रुमाल में सहेज दीं उसने .
अभि ,तुम नहीं हो , अब तुम मेरे जेठ भी नहीं हो .उस संबंध से मुक्त हो .पर मैं बँधी हूँ वचन की डोर में ,दो-दो  वचनों की डोर .मैं दोनो ओर से बँधी हूँ .
एक बार की चूक  का परिताप सदा को पल्ले से बँध जाता है .
गालों पर बह आए आँसू पोंछ लेती है वह.
 जो करणीय है वही करूँगी- राह बहुत बाकी है अभी !
(समाप्त)
*

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

पीला गुलाब - 8 & 9.



8 .
'आजकल दादा की पोस्टिंग कश्मीर  साइड में  है ,अच्छा मौका है ,' शिब्बू ने कहा ,'चलो हम लोग उधर भी घूम आते हैं .'
 और रुचि की गर्मी की  छुट्टियों में अर्न्ड लीव ले ली.बस, आ पहुँचे दादा के पास .
वैसे भी छुट्टी लेना है, तो लेना है ,पैसे काट लेंगे, काट लें .चिन्ता काहे की !
सात सल बीत गये रुचि की शादी को . दादा की पोस्टिंग के साथ कितनी जगहें घूम लीं .शिब्बू नई जगह जाये बिना रह नहीं सकते -चलो !चाहे हफ़्ते भर को ही सही .
नई जगह का नयापन ,अभ्यस्त होने में समय लगता है .
रुचि की नींद बीच में कई बार टूटती है.
रात के डेढ़ बजे हैं .
सिगरेट की महक ?कहाँ से ,इस समय ?
 पानी  लेने जाते  देखा ,उधर के अधखुले दरवाज़ों से धुएँ की कुछ भटकती लहरें बाहर आ रही हैं .
ठिठक गई .कुछ क्षण खड़ी देखती रही .फिर लौट गई .
जिठानी ने बताया था कुछ बताते नहीं.जब परेशान होते हैं तो यही करते हैं .
कभी-कभी चुपचाप अकेले टहलते हैं- कुछ सोचते-से .
'आजकल जाने क्या हो गया है इन्हें .कान पड़ी बात सुनाई नहीं देती .'
गति-विधि से लगता है कुछ गंभीर समस्या में पड़े हैं .'.
हाँ ,वह देख रही है -अपने में डूबे से .
पर क्या कहे सुरुचि !
'लगता है कुछ गंभीर समस्या में पड़े हैं ,आप परेशान होंगी इसलिये कुछ कहते नहीं होंगे . दीदी ,पर आप ही पूछिये न ! नहीं, जब सब खाना खाने बैठें तब पूछिये .हम सब होंगे न आपका साथ देनेवाले !'
 अख़बार में खबरों पर बात छेड़ दी रुचि ने .बात पर बात निकलने लगी .सीमाओं पर आसार अच्छे नहीं हैं.लगता है कुछ हो कर रहेगा .
'हाँ,  रंग-ढंग ऐसे ही बन रहे हैं . मेरा मन अजब सी चिन्ता से भरा रहता   है.जाना  तो है ही बुलावा आयेगा तो. ये लड़ाई लगता है बहुत आसान नहीं होगी .'
शिब्बू बोल पड़े,'पाकिस्तान के सिर उठाने की बात कर रहे हैं ?'
वे मुँह में रखा कौर चबाते रहे .
' पिद्दी सा तो है .कितना खींचेगा पाकिस्तान ! हमारे जवान ही धूल चटा देंगे ..'
'किसी  बल-बूते पर ही हिम्मत किये है ....दुश्मन को कभी कम मत समझो ,पता नहीं क्या दाँव खेल जाय. हम लोगों को तो तैनात रहना ही है .' '
 लड़ाई में जाने से पहले, इधर की जिम्मेदारियों का ख़याल हर फ़ौज़ी को आता है .
वे कह रहे थे-
'सैनिक की बीवी को अपने बल पर खड़ा होने को तैयार रहना होता है.  मुझे चिन्ता होती है अपने बच्चों की .किरन पढ़ी-लिखी होती तो सम्हाल ले जाती .'
अंजना -निरंजना दस और ग्यारह की हो गईं , कान्वेंट में पढ़ रही हैं .कब कहाँ पोस्टिंग हो जाय ,उनकी पढ़ाई में ज़रा भी व्यवधान नहीं देखना चाहते वे .
लड़कियाँ भी पास नहीं रहतीं .किरन अकेली पड़ जाती है .
'कौन हमारे बस में रहा कुछ.न पढ़ना-लिखना न और कुछ .बहू को देखो ,अपना भला-बुरा ख़ुद सोच लिया .'
.शिब्बू बोल पड़े ,'बात सेना में होने की नहीं ,सराब पीने की थी ,क्यों न ?'
'क्या शिब्बू ,फ़लतू बातें ले कर बैठ जाते हो .'
रुचि सिर झुकाये बैठी है .'
किरन व्याकुल हो बोल उठी -
मत करो ऐसी-वैसी बातें, मैं तो जनम की बेबस ,.ऐसी बातें सुन कर मेरा तो दिल बैठ जाता है .'

'सब आलतू- फ़ालतू बातें ..सूत न कपास ..' शिब्बू को बड़ी उलझन होने लगी थी .
'अंदर-अंदर लड़ाई तो चल रही है ,कुछ ठिकाना नहीं कब खुल कर होने लगे ..'
रुचि चुप बैठी  सुन रही है .

9 .
 सीमा पर तनाव कम नहीं हुआ .युद्ध की नौबत आ गई .
उधर घमासान मचा है .
 कर्नल अभिमन्यु जा चुके हैं फ़्रंट पर .

परिवार अपने निवास पर भेज दिया गया .
बड़े मुश्किल  दिन .
किरन झींकती है .'मरे ठीक से पूरी खबरें भी नहीं आने देते .हमें तो ये भी नहीं पता चलता आजकल किधर हैं .कोई पता हीं .नंबर लिख कर चिट्ठी डाल दो ,जाने मिलती भी होगी कि नहीं !'
हाँ, सारी बातें सेंसर होती हैं .
रुचि समझाती है ,'आप चिन्ता मत कीजिये दीदी,कर्नल हैं वे ,उन्हें कुछ नहीं होगा .'
'और ,जो ये ख़बरें रोज-रोज आती हैं. कितना क्या-क्या हो रहा है ..,मेरी तो जान सूखती रहती है .'

जानती है वह पूरी ख़बरें देते भी नहीं .त्रस्त रहता है मन .पर खुल कर कोई कुछ नहीं कहता .
किरन ने रुचि को जाने नहीं दिया -
'नहीं ,तुम कहीं मत जाओ .मैं बिलकुल अकेली पड़ जाऊँगी .'
'पता नहीं कितने दिन लड़ाई चलेगी .हमारा पलड़ा भारी है ,पर '... पर के आगे गहरा मौन .
'मुझसे अकेले  नहीं रहा जायेगा.और कौन बैठा है मेरा .अब तो मायके में माँ भी नहीं . .'
'नहीं आपको अकेला नहीं छोड़ेंगे दीदी,हमारे साथ चलिये मन लगा रहेगा .'
' कहीं नहीं .यहाँ छोड़ गये हैं, यहीं रहूँगी , इन्तजार करूँगी उनका .'
 हफ़्ते  भर की छुट्टी और ले ली उसने .

ख़बरों पर सबका ध्यान रहता है .
सुन-सुन कर  जान सूखती रहती है. 
किरन कभी-कभी कह उठती है ,'यें दो-दो धींगड़ियाँ . मेम साब बनती हैं .कहाँ गुज़र होगी इनकी ?मेरी सुनती  नहीं .एक लड़का होता तो निश्चिंती होती .'
रुचि समझाती है ,' आप क्यों चिन्ता करती हैं? ये पढ़ी-लिखी लड़कियाँ  लड़कों से किसी तरह कम नहीं. देखना ,ये ही नाम रोशन  करेंगी .'
'हमने जब जब लड़के की बात उठाई वो भी ऐसे ही कहते थे .'
'ठीक कहते थे .'
कुछ रुक कर बोली,' उनकी बेटियों के लिये कुछ कहो ,उन्हें अच्छा नहीं लगता था .'
'बेटियाँ होती ही हैं प्यारी .दीदी,सिर्फ़ आपकी नहीं हमारी भी हैं वो .'
' वो भी तो ,मुझसे जियादा ,तुम्हें मानती हैं .'
*
मन में अजीब-अजीब बातें उठती हैं.कुछ बात निकाल कर रुचि का  रोने का मन होता है.
 याद आया घर की महरी कुंजा ,जिसकी बेटी को  किताबें खरिदवा देती थी ,पढ़ा देती थी .चौथी पास कर ली थी उसने ने .'दीदी-दीदी' कह कर उसके चारों ओर मँडराती थी .
 उस की बिदा की शाम काम करते-करते गा रही थी - 
'मैया कहे- धिया नित उठि अइयो ,
बाबा कहे ,तीज-त्योहार,
भैया कहे बहिनी, काज-परोजन .
भौजी कह - कौने काम !'

एक दिन में जीवन का सारा प्रबंध बदल जाता है - क्यों होता है ऐसा ? जनम के संबंधों का सारा मोह अचानक छूट सकता है क्या ?
पर होता यही  है .विवाह के बाद अगली बिदा तक वैसा कुछ नहीं रहता .उस घर  उस तरह नहीं रह पाती जैसे पहले रहती थी . औपचारिकता आ जाती है ,या मुझे ही ऐसा लगता है !वह बेधड़क मुक्त व्यवहार नहीं रहता. मर्यादा की एक अदृष्य लकीर- सी खिंच गई हो जैसे ,कुछ अलगाव -सा ,परायापन सा .
अब तो वहाँ भी मन नहीं लगता .
उमड़-उमड़ कर रोना आ रहा है .
और किरन दीदी ? उनका तो कहीं मायका भी नहीं !
ज़िन्दगी बड़ी मुश्किल चीज़ है !
*
(क्रमशः)




























सोमवार, 5 नवंबर 2012

तमिल और संस्कृत का अंतःसंबंध.


तमिल और संस्कृत का अंतःसंबंध - वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में .

तमिल भाषा के प्रथम व्याकरण की  रचना  वैदिक काल के अगस्त्य मुनि द्वारा की गई थी, जो उन्हीं के नाम से अगस्त्य व्याकरण जाना गया। तमिल भाषा की ध्वनियों  में उसकी परिणति अगन्तियम हो गयी । अगन्तियम में तमिल के तीन  भाग सम्मिलित हैं । प्रथम है इयल अर्थात् पाठ साहित्य, दूसरा इसै अर्थात गेय साहित्य और तीसरा नाटकम् अर्थात नाटक साहित्य। अगस्त्य ऋषि को "तमिल का पिता" भी कहा गया है।इधर ऋग्वेद के पहले मंडल में सूक्त संख्या 165 से लेकिर 191 तक कुल मिलाकर 27 सूक्त अगस्त्य के नाम से मिलते हैं .
राम-अगस्त्य मिलन के प्रसंग में वाल्मीकि रामायण का सारा विवरण बहुत ही सजीव है।अगस्त्य से मिलने से पहले अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ राम  सुतीक्ष्ण मुनि से मिलने गए थे और वहीं से उनको अगस्त्य के प्रसिद्ध आश्रम जाने का मार्ग मालूम पड़ा था। तो इस आधार पर तय यह माना जा सकता है कि अगस्त्य ऋषि राम के समकालीन थे और वैदिक मंत्र-रचना के दूसरे सहस्त्राब्द के अन्तिम चरण में हुए थे।
वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा काण्ड सर्ग 47, श्लोक 19 में सुग्रीव ने सीता की खोज में वानरों को भेजते समय कहा था-
ततो हेममयं दिव्यं मुक्तमणि विभूषितम्।
युक्तं कपाटं पांडयानां द्रक्ष्यथ वानरा:।।
इससे सिद्ध होता है कि त्रेतायुग में न दक्षिण भारत के कपाटपुर के पांड्य नरेश थे
प्रारंभिक तमिल भाषा साहित्य के 3 संघमों के वर्णन में द्वितीय संघम का आधारभूत "कपाटपुर" रहा है, जिसका उल्लेख  महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में प्रस्तुत किया है।
महाभारत में भी महर्षि वेद व्यास पांड्य नरेश सागरध्वज का उल्लेख किया है, जो पांडवों की ओर से कौरवों से लड़ा था, वह  कपाटपुर शासक रहा था।
  तमिल में अगस्त्य को अगत्तियंगर भी लिखा गया है और उसी के अनुसार उनके व्याकरण को अगत्तियम। इसी आधार पर वैयाकरणा तोलकाप्पियर ने ग्रंथ लिखा तोलकाप्पियम। इससे स्पष्ट है कि अगस्त्य मुनि से ही तमिल इतिहास शुरु होता है। तमिलनाडु में कार्य करके अगस्त्य मुनि कम्बोडिया गए। कहा जाता है कि कम्बोडिया को मुनि अगस्त्य ने ही बसाया है। तमिल के प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ में भी यह प्रसंग है।
तमिल के "मलय तिरुवियाडल पुराणम" में तो यहां तक तमिल भाषा की प्राचीनता और ऐतिहासिकता का उल्लेख है कि शिव जी ने जब मुनि अगस्त्य को दक्षिण भारत जाने को कहा तो उन्हें तमिल भाषा में ही निर्देश दिए थे। भगवान शिव ने ही उन्हें तमिल भाषा की शिक्षा दी थी।
 वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड के 30वें सर्ग में अशोक वृक्ष के नीचे शोकमग्ना सीताजी से हनुमान जी की प्रथम वार्ता संस्कृत की बजाय तमिल में बतायी गई है। इससे पूर्व हनुमान जी ने देखा था कि रावण सीता जी से संस्कृत में ही वार्ता कर रहा था। उन्हें शक था कि यदि संस्कृत में बात की तो सीताजी उन्हें रावण का भेजा अनुचर न समझ लें। उस प्रयुक्त भाषा को वाल्मीकि जी ने "मधुरां" विशेषण प्रदान किया है। संस्कृत के बाद भारत में सबसे प्राचीन भाषा तमिल ही मान्य है।
 महामुनि अगस्त्य सारे भारत में  अपनी बौद्धिकता और कर्मठता के लिये विख्यात थे.
उन्होंने ही उत्तर और दक्षिण के बीच विंध्य के आर-पार आवागमन सुलभ किया था .इस विषय में एक कता है .-
 एक बार विंध्य पर्वत को गुस्सा आ गया कि क्यों नहीं सूर्य मेरी भी वैसे परिक्रमा करता जैसे वह मेरू पर्वत की किया करता है। सूर्य ने कोई ध्यान नहीं दिया तो विंध्य ने ऊपर आकाश की तरफ अपना आकार बढ़ाना शुरू कर दिया। इतना बढ़ा लिया कि सूर्य की गति रुक गई। त्राहि-त्राहि करते लोगों ने  अगस्त्य से पुकार लगाई.ऋषि  विंध्य के पास
पहुँचे .वह प्रणाम करने नीचे झुका
आशीर्वाद दे कर बोले ,'वत्स ,अभी मैं उस पार जा रहा हूँ ,मैं लौटूँ तब तक झुके रहना .'
और वे कभी लौटे  नहीं। तब से विंध्य नीचे झुका हुआ है .है।
तमिल-परंपरा के अनुसार संस्कृत और द्रविड़ भाषाएँ एक ही उद्गम से निकली हैं.. इधर भाषा-तत्त्वज्ञों ने यह भी प्रमाणित किया है कि आर्यों की मूल भाषा यूरोप और एशिया के प्रत्येक भूखंड की स्थानीय विशिष्टताओं के प्रभाव में आकर परिवर्तित हो गयी, उसकी ध्वनियां बदल गयी, उच्चारण बदल गए और उसके भंडार में आर्येतर शब्दों का समावेश हो गया..
भारत में संस्कृत का उच्चारण तमिल प्रभाव से बदला है, यह बात अब कितने ही विद्वान मानने लगे हैं.. तमिल में र को ल और ल को र कर देने का रिवाज है.. यह रीती संस्कृत में भी 'राल्योभेदः' के नियम से चलती है.. काडवेल(Coldwell) का कहना है की संस्कृत ने यह पद्धति तमिल से ग्रहण की है..
 विश्व के विद्वानों ने संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं के समान तमिल को भी अति प्राचीन तथा सम्पन्न भाषा माना है। अन्य भाषाओं की अपेक्षा तमिल भाषा की विशेषता यह है कि यह अति प्राचीन भाषा होकर भी लगभग २५०० वर्षों से अविरत रूप से आज तक जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यवहृत है।
तमिल का लगभग 2,500 वर्षों का अखण्डित इतिहास लिखित रूप में है। मोटे तौर पर इसके ऐतिहासिक वर्गीकरण में प्राचीन- पाँचवी शताब्दी ई. पू. से ईसा के बाद सातवीं शताब्दी, मध्य- आठवीं से सोलहवीं शताब्दी और आधुनिक- 17वीं शताब्दी से काल शामिल हैं। कुछ व्याकरणिक और शाब्दिक परिवर्तन इन कालों को इंगित करते हैं, लेकिन शब्दों की वर्तनी में प्रस्तुत स्वर वैज्ञानिक संरचना ज्यों की त्यों बनी हुई है। बोली जाने वाली भाषा में काफ़ी परिवर्तन हुआ है,
'बहुत प्राचीन काल में भी तमिल और संस्कृत के बीच शब्दों का आदान-प्रदान काफी अधिक मात्रा में हुआ है, इसके प्रमाण यथेष्ट संख्या में उपलब्ध हैं.. किटेल ने अपनी कन्नड़-इंगलिश-डिक्शनरी में ऐसे कितने शब्द गिनाये है, जो तमिल-भंडार से निकल कर संस्कृत में पहुँचे थे.. बदले में संस्कृत ने भी तमिल को प्रभावित किया.. संस्कृत के कितने ही शब्द तो तमिल में तत्सम रूप में ही मौजूद हैं.. किन्तु, कितने ही शब्द ऐसे भी हैं, जिनके तत्सम रूप तक पहुँच पाना बीहड़ भाषा-तत्त्वज्ञों का ही काम है.. डा.सुनीतिकुमार चटर्जी ने बताया है की तमिल का 'आयरम' शब्द संस्कृत के 'सहस्त्रम' का रूपांतरण है.. इसी प्रकार, संस्कृत के स्नेह शब्द को तमिल भाषा ने केवल 'ने'(घी) बनाकर तथा संस्कृत के कृष्ण को 'किरूत्तिनन' बनाकर अपना लिया है.. तमिल भाषा में उच्चारण के अपने नियम हैं.. इन नियमो के कारण बाहर से आये हुए शब्दों को शुद्ध तमिल प्रकृति धारण कर लेनी पड़ती है'..-दिनकर जी द्वारा लिखा 'संस्कृति के चार अध्याय' से .
दक्षिण भारत की कुछ गुफ़ाओं में प्राप्त तमिल भाषा के प्राचीनतम लेख ई.पू. पहली-दूसरी शताब्दी के माने गए हैं और इनकी लिपि ब्राह्मी लिपि ही है।
सातवीं शताब्दी में पहली बार कुछ ऐसे दानपत्र मिलते हैं, जो संस्कृत और तमिल दोनों ही भाषाओं में लिखे गए हैं। संस्कृत भाषा के लिए ग्रन्थ लिपि का ही व्यवहार देखने को मिलता है। तमिल भाषा की तत्कालीन लिपि भी ग्रन्थ लिपि से मिलती-जुलती है।
पल्लव शासक, अपने उत्तराधिकारी चोल और पाण्ड्यों की तरह, संस्कृत के साथ स्थानीय जनता की तमिल भाषा का भी आदर करते थे, इसीलिए उनके अभिलेख इन दोनों भाषाओं में मिलते हैं। नौवीं-दसवीं शताब्दी के अभिलेखों को देखने से पता चलता है कि तमिल लिपि, ग्रन्थ लिपि के साथ-साथ स्वतंत्र रूप से विकसित हो रही थी।
 इन दो चोल राजाओं का शासन दक्षिण भारत के इतिहास का अत्यन्त गौरवशाली अध्याय है। इन्होंने संस्कृत के साथ-साथ तमिल भाषा को भी आश्रय दिया था। इनकी विजयों की तरह इनका कृतित्व भी भव्य है। इनके अभिलेख संस्कृत भाषा (ग्रन्थ लिपि) और तमिल भाषा (तमिल लिपि) दोनों में ही मिलते हैं। राजेन्द्र चोल का ग्रन्थ लिपि में लिखा हुआ संस्कृत भाषा का तिरुवलंगाडु दानपत्र तो अभिलेखों के इतिहास में अपना विशेष स्थान रखता है। इसमें तांबे के बड़े-बड़े 31 पत्र हैं, जिन्हें छेद करके एक मोटे कड़े से बाँधा गया है। इस कड़े पर एक बड़ी-सी मुहर है।
तमिल लिपि में राजेन्द्र चोल का तिरुमलै की चट्टान पर एक लेख मिलता है। उसी प्रकार, तंजावुर के बृहदीश्वर मन्दिर में भी उसका लेख अंकित है। इन लेखों की तमिल लिपि में और तत्कालीन ग्रन्थ लिपि में स्पष्ट अन्तर दिखाई देता है।
15वीं शताब्दी में तमिल लिपि वर्तमान तमिल लिपि का रूप धारण कर लेती है। हाँ, उन्नीसवीं शताब्दी में, मुद्रण में इसका रूप स्थायी होने के पहले, इसके कुछ अक्षरों में थोड़ा-सा अन्तर पड़ा है। शकाब्द 1403 (1483 ई.) के महामण्डलेश्वर वालक्कायम के शिलालेख के अक्षरों तथा वर्तमान तमिल लिपि के अक्षरों में काफ़ी समानता है।
'सदियों पहले भारत को एक करने की कोशिश भक्ति काल में हुई थी, जब दक्षिण के गुरुओं ने उत्तर का रुख किया था। उससे भी सदियों पहले शंकराचार्य ने इस धरती को जोड़ने के लिए हदबंदी की थी। वक्त ने उन कोशिशों को भुला दिया। अब वक्त बदलने के साथ जो सिलसिला चल पड़ा है, उसे आगे ले जाने की समझदारी नॉर्थ को दिखानी चाहिए। और इसका सबसे कारगर तरीका है तमिल या मलयालम को तालीम में शामिल करना। स्कूलों में पुरानी भाषाओं की तकलीफदेह रटंत की जगह त्रिभाषा फॉर्म्युले में साउथ की भाषाओं को जगह देने भर से वह कच्चा पुल तैयार हो जाएगा, जो विंध्य पर्वत को इतना बौना कर देगा, जितना अगस्त्य मुनि भी नहीं कर पाए थे।' -संजय खाती का ज़िन्दगीनामा.
(कुछ तथ्यों को साभार गूगल से लिया गया है )
*
- प्रतिभा सक्सेना.

शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

पीला गुलाब -6 & 7.


6.

जहाँ दादा की पोस्टिंग नई जगह में हुई ,शिब्बू उत्साह से भर जाते हैं .
उनके के घर जाकर रहना बड़ा अच्छा लगता है उन्हें .शादी के बाद नई दुलहिन को ले कर वहीं पहुँच गये .
देवर-भाभी में पटरी भी खूब  बैठती है .
दोनो बतियाते रहते है ,रुचि सुनती रहती है बीच में बोल दी तो बोल दी ,नहीं तो चुप .सबको स्वाभाविक लगता है .अभी नई-नई है थोड़ा तो समय लगेगा .
वैसे भी इन बातों में दखल देने से रही -बोले तो क्या बोले !
कर्नल साहब घर में बहुत कम टिकते हैं .कई कार्यक्रम रहते हैं उनके बहुत व्यस्त रहते हैं .
बड़ी तारीफ़ है उनकी ,लोक-प्रिय हैं .जन-कल्याण और सैनिकों के परिवारों के हित के लिये कुछ करने में कभी पीछे नहीं रहते . धाक है उनकी .
 रुचि ने कमरे से सुना जेठ जी कह रहे थे 'आज क्लब में चेरिटी शो के टिकट लिये बड़ा अच्छा संगीत का प्रोग्राम है शिब्बू ,तुम लोग  देख आओ .'
'क्यों दादा टिकट लिये हैं, जाओगे नहीं ?'
'मुझे तो आज कुछ खास का निपटाने हैं और तुम्हारी भाभी का इस सब मैं कोई इन्टरेस्ट नहीं ,ये रखे हैं टिकट .'
भाभी बोलीं थीं 'और क्या! मार दो घंटे बैठो और कुछ मजा भी न आए .अरे ,फड़कते हुए सिनेमा के गाने होते तो बात और थी .हमारे यहाँ तो लोग आर्टिस्ट के साथ सुर मिला कर स्टेज पर नाचने भी लगते थे .'
' बहुत देखे हैं ऐसे पहुँचे हुये प्रोग्राम जब पढ़ते थे .किसका मन लगता है .सब गप्पों में मगन रहते हैं .' देवर ने सुर में सुर मिलाया .
रुचि कमरे से बाहर निकल आई .
जेठजी आश्चर्य से शिब्बू को देख रहे थे .
'कैसी बात करता है मुन्ना.कहाँ स्कूलों के चलताऊ प्रोग्राम और कहाँ ये इन्टरनेशनल फ़ेम के आर्टिस्ट?'
रुचि ने कार्ड पर लिखे संगीतज्ञों के नाम देखे ',इन के प्रोग्राम के लिए तो हमारे यहाँ सिर फुटौवल होती थी .'
'ऊँह वही आलाप जैसे कोई सुर भर भर कर रोये जाये, ये गाना है क्या !
 हमें तो बोरियत होती है . हमें नहीं जाना .तुम चाहो दादा के संग चली जाओ .'
दादा पत्नी की ओर देख कर बोले,' तुम तो जाओगी नहीं . हमारी आज जरूरी मीटिंग है .हमें जाना होता तो तुम्हें क्यों देते ?
रुचि तटस्थ है - जाओ तो ठीक न जाओ तो ठीक.
क्यों बीच में दखल देती फिरे !
*
शिब्बू मगन हो रहते हैं -क्या ठाठ हैं .एकदम साहबी ढंग !
'कुछ भी कहो भाभी,आर्मीवालों का रंग ही अलग है . रहन-सहन पहनना-ओढ़ना सब निराला .सबसे अलग चमकते हैं .'
'सो तो है ..देखने वाले पर रौब पड़ता है .पर हमें सुरू-सुरू में बड़ा अजीब लगता था .बड़ी मुस्किल से इत्ता कर पाये हैं .उहाँ तो सब साथ में बैठ कर सराब पीती हैं ..'
अरे भाभी, शराब मत कहो .ड्रिंक कहो, ड्रिंक !'
'हाँ ,वाइन पीती हैं ऊ कोई शराब थोरे है .'
' अउर का ?'
'तुमने कभी नहीं पी .'
'अरे पी ,.सबके साथ में पी थी .'
'अच्छा नहीं लगी ?'
'मार कडुई ,अजीब सा सवाद. पर पी ली सबके साथ .'
फिर रुक कर बोलीं ,'अब बहू को ही देखो ,ड्रिंक करते देखा तो बरात लौटा दी और हम इनके यहां की पार्टी में वाइन पीने लगे .हमने अपने को ढाल लिया .'
शिब्बू गौरवान्वित अनुभव करते हैं , 'हाँ देखो न ,दद्दा के मुकाबले हमें पसंद किया.'
दोस्तों में मौका मिलते ही बताने से चूकते नहीं .
'भाभी ,भइया तो तुमसे स्लिम हैं .'
'आर्मी में हैं न .हमेला चाक-चौबंद रहने की आदत .हम तो भई, आराम से रहने में विश्वास करते हैं .'
'हाँ और क्या ?क्यों बेकार काया को कष्ट दिया जाय .' शिब्बू ने कहा और हो-हो कर हँस दिये - बड़ी मज़ेदार बात कही है न !
भाभी ने समर्थन किया .
'...और डांस,भाभी '?
देवर पूछे ही जा रहा है .क्या सभी कुछ पूछ कर दम लेगा !
अरे लाला ,.सब पूछ के ही रहोगे ?पहले सुरू-सुरू में तो इनकी बाहों में डांस भी अजीब लगा -फिर तो धीरे-धीरे आदत पड़ गई .'
'अब तो मज़ा आता होगा भाभी ?
'बेसरम !अपनी सोचो लाला "!
  ' कोई ऐसा-वैसा शौक ही नहीं इन्हें , ऊँचे आदर्शोंवाली ,गंभीर ये  उस टाइप की नहीं हैं . और  दादा की लाइफ़ ही अलग है !'
'हाँ सो तो हैं .'भाभी पूरी तरह सहमत.
*
7.
'बिट्टू आ रहा है .कोई टेस्ट देना है उसे .'
दादा के नाम आया ,चाचा का पोस्टकार्ड शिब्बू के हाथ में है .
'अच्छा वोह, बिट्टू ! हमारी शादी में आया था .हमारी बहन से बातें कर रहा था .'
'तुम्हारी कौन सी बहन है भाभी ?'
'वही विनीता .हमारे मामा की लड़की .'
'हाँ ,समझ गये .दादा के जूते उसी ने छिपाये थे ,बड़ी तेज़ लड़की है भाई .हमे उससे और बात करनी थी ,पर भाग गई .कहे - हम नहीं रुकते यहाँ पे अम्माँ बकेंगी...  '
बकेंगी !सब हँसने लगे .
भाभी ने स्पष्ट किया ,' हाँ  ,वो सबसे बोलने पहुँच जाती है .मामी गुस्सा होती हैं .'

' तुमसे तकरार हो गई थी न ! मामी कह रही थी इसी से ब्याह देंगे विनीता को .'
' फिर काहे नाहीं की ?'
'उसे क्लर्क नहीं अफ़ीसर चाहिये था.बैंक में अच्छे ओहदे पर है उसका दूल्हा.'
'जाने दो हमें तो उससे अच्छी मिल गई . कदर करनेवाले भी मिल जाते हैं, आदमी में अपने गुन होने चाहिये . क्लर्क हैं ,तो क्या....''
 इतवार को आ पहुँचा  बिट्टू , शिब्बू की शादी में नहीं आ पाया था .कहीं बाहर पढ़ रहा था . अब तो खूब लंबा  हो गया है .
 दादा अख़बार पढ़ रहे थे ,चाय चल रही थी..
नई भाभी को देखा तो चौंक गया .
'अरे ,शिब्बू दा की दुल्हन ये हैं .'
'हाँ, क्यों ?'
'हम इनकी पहली बरात में गये थे .मुन्ना दादा ,तुम्हें याद है न ? हाँ.यही तो थीं  ?' .
शिब्बू तौलिया बाँधे उधर ही चले आये थे ,बोले
'हाँ ,हाँ यही थीं .अब देखो आ गईं इसी घर में .तुमने क्या देखा था इन्हें ?'
उस दिन दादा ने  कहलाया था - जा के कह दो एक बार लड़की  हमसे आकर बात कर लें,. .वह मना कर देगी तो  हम चुपचाप लौट जायेंगे .
तब हम भी चच्चा के  साथ चले गये थे. इनके घर के लोग मार गुस्साये जा रहे थे .
जब चच्चा ने कहा,  वो लोग हैरान !एक दूसरे का मुँह देखें,और  ये चट्टसानी उठ के खड़ी हो गईं .चल भी दीं थीं हमारे संग आने के लिये .पर इनके मामा ने और लोगों ने नहीं आने दिया.एकदमै मना कर दिया कि वो शराब पिये हैं .तुम्हें अब सामना करने  की कोई जरूरत नहीं .हम लोग हैं न .'
बिट्टू ने  पूरा दृष्य सामने ला दिया.
सब ताज्जुब से  सुने जा रहे हैं .
'ये भाभी होतीं न  हमारी, सो इच्छा हो रही थी ,सबको हटा के हाथ पकड़ के आपके सामने ला के खड़ा कर दें .दादा ,सच्ची में हमें लग रहा था ये ...' कहते-कहते वह एकदम चुप हो गया .
अभिमन्यु रुचि की ओर देख रहे हैं सिर झुकाये बैठी है वह .
'लो ,हमें  पता ही नहीं. 'बिट्टू ,तुमने आ के हमें नहीं बताया ?'
 'वहाँ तो कोहराम मचा था .आप को बताने से कोई फ़ायदा नहीं था. '
तो अब बताने क्या फ़ायदा !
 क्या कहें अभिमन्यु ,चुप रह गये .
*
चार साल पहले अपनी नई-नई नौकरी छोड़ने को नोटिस  दिया था रुचि ने .पर लौट कर तुरंत वापस ले लिया था.
अब शादी हो जाने पर  सब को लगा रिज़ाइन कर देगी . पर इस बार  उसी ने  साफ़ कर दिया 'खाली नहीं बैठा जायेगा मुझसे ..
और वह लड़कियों को पढ़ाती रही .
नौकरी छोड़ देती तो करती क्या .शिब्बू तो कहीं टिक कर काम करते नहीं  .दो बार लगी-लगाई छोड़ चुके हैं .स्कूल की क्लर्की रास नहीं आई थी आये दिन झगड़े .सो छोड़कर बैठ गये. वो तो ये कहो किस्मत अच्छी जो शादी होते ही म्युनिसिपेलटी के दफ़्तर में क्लर्क लग गये.
 ऊपर से ,बीवी कमाऊ मिली ,फिर यहीं तबादला करा लिया . अब तो मौज से कट जायेगी .
आज हाफ़ सी.एल. लेकर घर आ गई है रुचि ,बिलकुल  अकेली रहने का मन है . कुछ भी नहीं करेगी ,बस खूब देर लेटी रहेगी यों ही चुपचाप .जब मन होगा उठेगी चाय बना कर खुले में बैठ कर पिेयेगी .कोई मन की किताब पढ़ेगी ,और जो मन में आएगा सोचती रहेती ,
आकर कपड़े बदले ,दो-चार शक्करपारे निकाल कर खाने लगी कि घंटी बजी .
' ये इस समय कौन आ गया ?'
दरवाज़ा खोला ,
'अरे ,तुम कैसे घर चले आए ?'
'तुम आ गईं थीं न .'
'तुम्हें कैसे पता?'
'फ़ोन किया था तुम्हारे यहाँ ,पता लगा आधी सी.एल .लेकर चली गई हो .तो हमने भी सोचा घर चलें आज मौज रहेगी .क्या सिर में दर्द है ?'
'नहीं.'
'फिर ठीक है ,पहले एक-एक कप चाय हो जाय .तुम क्या करने जा रहीं थीं .'
'चाय पीने.'
'बस ,तो फिर गरमा-गरम पकौड़ों के साथ .'
'आज शाम को कुछ ज्यादा मत करना भरवां करेले के साथ पराँठे काफ़ी हैं .'
बनाते खाते रात के ग्यारह बज गए .
दिन बीतते जा रहे हैं .
*
(क्रमशः)

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

'यो मां जयति संग्रामे.....'


नवरात्र !
कानों में गूँजने लगता है -

'यो मां जयति संग्रामे, यो मे दर्प व्यपोहति ।

यो मे प्रति-बलो लोके, स मे भर्त्ता भविष्यति ।।'

- बात दैहिक क्षमता की  नहीं - देहधर्मी  तो पशु होता हैं ,पुरुष नहीं . साक्षात् महिषासुर ,देवों को जीतनेवाले सामर्थ्यशाली शुंभ-निशुंभ उस परम नारीत्व को अपने  सम्मुख झुकाना चाहते हैं .
 वह जानती है यह विलास-लोलुप , भोग की कामना से संचालित ,सृजन की महाशक्ति को  शिरोधार्य कर समुचित मान नहीं दे सकता .जानती है अपनी सामर्थ्य बखानेगा , अहंकार में बिलबिलायेगा ,अंत में निराश हो 
देह-धारी पशु बन जायेगा .साक्षात् क्षमता रूपिणी .अनैतिक-बल के अधीन ,उसकी ,भोग्या नहीं बन सकती  ,वह अपने ही रूप में  लोहा लेने सामने खड़ी है.
शक्ति को धारण  करने में जो मन से भी समर्थ हो ,उसे स्वीकारेगी वह - उसे पशु नहीं , पशुपति चाहिये .जो  दैहिकता को नियंत्रित करने में समर्थ हो ,उसकी सामर्थ्य का सम्मान कर उच्चतर  उद्देश्यपूर्ति हेतु,माध्यम बन ,दौत्य-कर्म निभाने को भी  कर्तव्य समझे.

आज भी वही पशु-बल प्रकृति और नारीत्व दोनो पर अपने दाँव दिखा रहा है .

 नवरात्र की मंगल-बेला में नारी-मात्र का संकल्प यही हो कि हम पशुबल से हारेंगी नहीं !
अंततः जीत उन्हीं की होगी क्योंकि ,प्रकृति और संसृति दैहिकता-प्रधान न होकर मानसधर्मी सक्रिय शक्तियाँ  हैं .वहाँ देह का पशु कभी जीत नहीं सकता ,श्रेष्ठता का वरण ही काम्य है और उसी में सृष्टि का मंगल है !
*
इसी के साथ एक प्रकरण गौरा-महेश्वर के दाम्पत्य का -
शिव नटराज हैं तो गौरी भी नृत्यकला पारंगत !एक बार दोनों में होड़ लग गई कौन ऐसी कलाकारी दिखा सकता है जो दूसरे के बस की नहीं और इसी पर होना था हार-जीत का निर्णय ।नंदी भृंगी और शिव के सारे गण चारों ओर खड़े हुये ,कार्तिकेय ,गणेश -ऋद्धि,सद्धि सहित विराजमान ,कैलास पर्वत की छाया में हिमाच्छादित शिखरों के बीच समतल धरा पर मंच बना ।वीणा वादन हेतु शारदा आ विराजीं ,गंधर्व-किन्नर वाद्ययंत्र लेकर सन्नद्ध हो गये ।दोनों प्रतिद्वंदी आगये आमने-सामने -और नृत्यकला का प्रदर्शन प्रारंभ हो गया ।दोनों एक से एक बढ कर ,कभी कुमार शिव को प्रोत्साहित कर रहे हैं ,कभ गणेश पार्वती को ।ऋद्ध-सिद्धि कभी सास पर बलिहारी जा रही हैं कभी ससुरजी पर !गण झूम रहे हैं -नृत्यकला की इतनी समझ उन्हें कहाँ !दोनों की वाहवाही किये जा रहे हैं ।हैं भी तो दोनों धुरंधर !अचानक शिव ने देखा पार्वती मंद - मंद मुस्करा रही हैं।उनका ध्यान नृत्य से हट गया,गति शिथिल हो गई सरस्वती . विस्मित नटराज को क्या हो गया । बहुयें चौकन्नी- अब तो सासू जी बाज़ी मार nले जायेंगी .'
'अरे यह मैं क्या कर रहा हूँ ',शंकर सँभले ,
पार्वती हास्यमुखी ।
'अच्छा ! जीतोगी कैसे तुम और वह भी मुझसे ?'शंकर नृत्य के नये नये दाँव दिखाते हुये अचानक हाथों से विचित्र मुद्रा प्रदर्शित करते हुये जब तक गौरा समझेंऔर अपना कौशल दिखायें ,उन्होने ने एक चरण ऊपर उठाते हुये माथे से ढुआ लिया !
नूपुरों की झंकार थम गई सुन्दर वस्त्रभूषणों पर ,जड़ाऊ चुनरी ओढ़े ,पार्वती विमूढ़ !
दर्शक विस्मित ! यह क्या कर रहे हैं पशुपति !
 शंकर हेर रहे हैं पार्वती का मुख -देखें अब क्या करती हो ?
ये तो बिल्कुल ही बेहयाई पर उतर आये पार्वती ने सोचा .
वह ठमक कर खड़ी हो गईं -'बस ,अब बहुत हुआ ,' मैं हार मानती हूँ तुमसे !'
*
पीछे कोई खिलखिला कर हँस पड़ा .सब मुड़कर उधऱ ही देखने लगे .त्रैलोक्य में विचरण करनेवाले नारद जाने कब से आ कर वहाँ खड़े हो गये थे।
बस यहीं  नारी नर से हार मान लेती है ।
लेकिन यह गौरा की हार नहीं ,शंकर की विवशता का इज़हार है !
*

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

पीला गुलाब 4 & 5.


4

 मां-बाबू निश्चिंत ! ब्याह गई लड़की छुट्टी हुई . झटपट गंगा नहा लिये .
अम्माँ ने बोला था ,बियाह जाए लरकिनी तो हे ,महेस-भवानी ,सीता राम जी ,राध-किशन जी ,घर में अखंड रामायन का पाठ धरेंगी. वही  बाकी रह गई ,सो भी निबटाये दे रहे हैं
सारे काम सुलट गये ,निचिंत हो कर जियेंगे वे .पहली बिदा में लौट कर ब्याहली घर आई .
उस दिन अखंड रामायण का पाठ था
कोलाहल-हलचल . रामायण चलेगी कल दुपहर तक .चाय-पानी ,खाना-पीना होगा ही .बारी लगा ली है सबने दो-दो घंटे पढ़ने की .
उसी के कारण तो हो रहा है यह सब .आकर बैठ गई  .
सब ने कहा ,'तुम आराम करो .अबै ससुरार से आई हो ,थकी-थकाई होगी .'
विधि-विधान से चल रहा है पाठ .
लो ,शिव-विवाह का प्रकरण आ गया .गँजेड़ी-भँगेड़ी दूल्हा .ऊपर से सामाजिक विध-निषेध से कोई मतलब नहीं .फिर भी गौरा ने तप किया उसी के लिये .
बरात आई ,सब भौंचक !
हाय हाय मच गई - कहाँ हमारी गौरा और कहाँ यह विचित्र वेषी ! ज़िन्दगी  कैसे निभेगी !
माँ ,मैना  ने खुल कर  विरोध किया . बरात लौटाने को तैयार .
रोईं-गिड़गिड़ायीं .लाख मना किया .पर  उमा ने उन्हीं को  समझाया -
'माँ ,तुम दुखी मत हो .बेकार तुम्हीं को दोष देंगे लोग .किसी की जुबान पर कौन अंकुश लगा सका है ?'
फिर सौ बात की एक बात कह दी -
'सुख-दुख जो लिखा लिलार हमरे जाब जहँ पाउब तहीं, '
अड़ गईं इसी से विवाह करूँगी .
महिलाओं का मन भर आया है.इसे कहते हैं अटल- व्रत .किसऊ के कहे ते न टरीं ,हिरदे में अइस अचल प्रेम रहा.
भारतीय दाम्पत्य की आदर्श हैं पार्वती .हर तीज-तौहार पे उनसे सुहाग की याचना करती हैं सुहागिनें .  'पारवती सम पति प्रिय होऊ !'
इतना प्रेम और किसमें है पत्नी के प्रति ?
मृत शरीर को काँधे पर डाल विक्षिप्त से धरा-गगन मँझाते रहे .और तो और आधे अंग मे धारण किये हैं!
एक गहरी साँस निकल गई .
बार-बार धिक्कार उठती है, मन कचोटता है .
मैं  क्यों नहीं कह सकी थी .',मातु व्यर्थ जनि लेहु कलंका .'
कित्ती सच्ची बात .जो सहना है वो तो जहाँ रहें झेलना ही पड़ेगा .कौन मिटा सका भाग की रेखायें .
 कहा तो मैंने भी था.पर मैं  क्यों नहीं जमी रह सकी
कह देती पढ़ी-लिखी हूँ , इतनी लाचार नहीं हूँ ,माँ तुम पिता जी को समझा दो .
ये रिश्तेदार इस समय सब साथ हैं फिर सब अलग हो जायेंगे .
पर तब ..सब बोलने लगे थे  . माँ रो रहीं थीं .सब विरोध में खड़े थे .
मामा ने रौद्र रूप धर लिया था  .पढ़ी-लिखी ,कमाऊ लरकिनी का भाड़ में झोंक देंगे
अरे भैया ,रो-रो कर जिनगी काटे उससे अनब्याही अच्छी .
तो अभी कौन फेरे पड़े हैं .कुआँरी है कन्या .
हाँ ,और क्या, कँवारी को सौ वर .
पाठ चल रहा था -
'कत विधि सृजी नारि जग माँही ,पराधीन सपनेहु सुख नाहीं .'
 स्त्रियाँ चुप सुने जा रहीं  .ज्यों अपने भीतर उतर गई हों  ,जहाँ शब्द मौन रह जायें   !

उस दिन रुचि  भी तो हिम्मत कर  सामने आ बोल नहीं सकी थी.
यह  भी तो नहीं मालूम था कि ,आज की रात ही ,यहीं के यहीं किसी दूसरी के साथ भाँवरें पड़ जायेंगी .
बरात लौटने से गहरी  निराशा हुई थी  पर दूसरे मोहल्ले में अपने वर के साथ किसी लड़की के फेरे लेने से मर्मान्तक चोट पहुँची थी .
कौन लड़की ?
*
वही किरण बचपन में पिता मर गये थे .
माँ बिचारी क्या करती  मामा-मामी के घर पली .
हाई स्कूल पास थी किरन ,देने को दान-दहेज नहीं.
मामा कितना करते? अपनी भी तो दो लड़कियाँ हैं -पढ़ाने -ब्याहने को  .माँ बिचारी क्या बोलती ?
मामी ने कहा ,'जिया ,बढ़िया  लड़का मिल रहा है .माँग कुछू  नहीं. बस लड़की चाहिये .किरन के भाग से मौका हाथ आया है .फिर कहाँ  जमा-जोड़ रखा है जो माँगें पूरी करती रहोगी .काहे किसी दो-चार बच्चन के बाप दुहेजू से ब्याहो !भला इहै  कि अभी कर दो ...,अच्छा घर-परिवार ,राज करेगी .रही पीने की बात ?सो का पता कौन पीता है कौन नहीं .हाथ-के हाथ ब्याह दो .'
'अरे !' किरन के चढ़ावे में आया जेवर- कपड़ा देख मामी की तो आँखें फैल गईँ ,ऊपर से सास-ससुर का झंझट नहीं ,आजाद रहेगी लड़की .
एक बार पछतावा भी हुआ कि काहे नाहीं अपनी विनीता ब्याह दी .
अब जो है लड़की की किस्मत !
 और सुरुचि  की जगह किरन ,अभिमन्यु को साथ  फेरे डलवा कर  कर बिदा कर दी गई थी.
एक अखंड रामायण चलती रही रुचि के मन में .
अपना ही मन नहीं समेट  पाती . बार-बार विचार उठते  हैं -लगता है .किन्नू को अपने पास बुला लेती .कह देती चुप रह हल्ला मत मचा .उसे किसी तरह समझा देती !
रह-रह कर पछताती है ,मामा थे सबसे आगे .अपने मन की कह ,चुप कर लेती उन्हें .या फिर खड़ी हो जाती -मेरे पीछे तमाशा मत खड़ा करो .मैं तैयार हूँ .जो होगा सम्हाल लूंगी .
भीतर से  पुकार उठती है - क्या पता था अभी के अभी कोई और  लड़की दुल्हन बन बैठेगी   ..!
सोचती ही रह गई थी   किसी तरह बात सुलट जायेगी .
बार-बार समझाती है मन को ,अब कहीं कुछ नहीं .सोचने से कोई फ़ायदा नहीं .
 पर किसी का कहा कब सुना इसने ? बड़ी अजीब चीज़ है मन !
*
5.
चुप रहती है रुचि पर मन में चलता रहता है कुछ-न-कुछ -
यह कैसा आकर्षण  जो किसी भी उम्र में पीछा नहीं छोड़ता .अपने पर लाख नियंत्रण करो ,मन ऐसा अकुलाता है और संयत होते-होते  कुछ करने को विवश कर देता है .देखा है लोग वार्धक्य में भी इसकी चपेट में आ जाते है .बहक जाना कह लीजिए .नितान्त वैयक्तिक अनुभव .पता नहीं स्थाई या अचानक ही सिर सवार हो जाने वाला .
एक  कहानी पढ़ी थी कभी -
 कालेज के ज़माने में साथ मरने-जीने की कसमें खाईं .पर होनी को कुछ और मंज़ूर था .जिम्मेदारियाँ पूरी करते उमर बीत गई .लड़की को कहाँ छूट उसे तो अपनी मरयाद निभानी है .
बुद्धि सदा प्रश्न खड़े करती है औचित्य के प्रति सचेत करती है ,और अंतिम विजय उसी की होती है .पर अंतिम के पहले ,मन का रीतापन भरने की लालसा में जाने कितने पड़ाव अनायास पार हो जाते हैं. वह उद्दाम मोहकता ऐसा  बहकाती है ,कि सारी अक्लमंदी गुम ,ख़ुद पर लगाई रोक-टोक बेकार  !
और अंत में  शेष बचती है रह-रह कर कसकती टीस  !अनुचित कर दिया हो जैसे ,कुछ बराबर कचोटता है .न यों चैन ,न वों चैन !
हाँ ,तो वह कहानी ! मन का आवेग बार-बार जागता रहा  ,अपने को समेटते वर्तमान को  निभाता  गया लड़का भी, गले पड़ा दुनिया-जहान का ढोल बजाते-बजाते  रिटायर भी हो गया .एकदम खाली  .एक दिन बिलकुल नहीं रहा गया .उस नगर में पहुँच गया .उसके घऱ के पास .कुछ देर आस-पास घूमता रहा यों ही .
देखा ,घर से निकली , वह बदल गई पर वही थी ,बच्चे से बात कर रही थी . उम्र के साथ बदली नहीं थी वह आवाज़.
बरसों बीत गये थे जिसे सुने, पर कैसे भूल सकता था .खड़ा देखता रहा .पास से गुज़र गई वह . सोचता रह गया दो मिनट ,रोक ले, बात कर ले आगे निकल गई .कहाँ देखा होगा उसने ,क्या मालूम होगा उसे .
 . बहुत मन किया एक बार आगे बढ़ जाये 
एक बार पूछ ले ,'कैसी हो ?'
कह देंगे ,'इस नगर आया था इधर से जा रहा था ,तुम्हें देखकर पहचान लिया .'
बस, हाल-चाल ही तो पूछना हैं .
मन में उथल-पुथल चलती रही .पर नहीं कर सका.  हिम्मत नहीं पड़ी .सोच लिया, 'मैं हूँ यहाँ ' उसे बता कर क्या करना है.
ताल के शान्त जल में कंकड़ उछालने से क्या लाभ !
लौट आये चुपचाप वापस अपने घर .
होता है क्या ऐसा भी ?
 क्या पता ? होता ही होगा ,नहीं तो कोई लिखता कैसे !
कहते हैं जो मना किया जाय वही करने का चाव नारियों में अधिक होता है - वही आदम-हव्वा वाली बात !
एकदम स्वाभाविक है .वर्जित फल चखने का चाव नारी मन में ही तो जागेगा .पुरुष क्या जाने वर्जनाएं क्या होती हैं , और कैसी होती है उन्हें झटकने की छटपटाहट !
*
(क्रमशः)

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

पीला गुलाब - 2 & 3 .



*
चार साल बीत गए.
उस दिन शृंगार किए बैठी रह गई थी ,आज फिर विवाह-मंडप में उपस्थित है -किसी दूसरे के लिए .
वस्त्राभूषण का चढ़ावा सम्हालती भाभी रुचि को लिवा ले गईं.
कर्नल साहब फिर सोने नहीं गए .
वहीं साइड में पड़े काउच पर बैठ गए .किसी से कुछ बात-चीत नहीं .वैसे भी उनके  व्यक्तित्व से सब रौब खाते हैं .
दोनों पक्षों की हँसी ठिठोली चलती रही .उनके संयत गंभीर व्यक्तित्व के सामने किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि कुछ कहे .उन्होंने ने सूट की जेब से सिगरेट केस निकाल कर एक सिगरेट निकाली .छोटे बहनोई ने लाइटर से जला दी .वे चुपचाप शून्य में ताकते बैठे सिगरेट पीते रहे । ख़त्म होते ही दूसरी जला ली .
वर को लाकर बिठाया गया .रस्में पूरी की जाती रहीं . कन्या के पिता कन्या के भाई ,सबकी पुकार लगती रही ।सब आ-आ कर अपना रोल निभाते रहे .
'कन्या को बुलाइये .'
कन्या की सखियाँ उसे मंडप में ले आईं .
उन्होंने तीसरी सिगरेट जला ली थी .
'नहीं अभी कन्या वामांग में नहीं ,दाहिनी ओर बिठाइये .
फूल माला जल, अक्षत ,मधुपर्क ,खीलें ,कलावा -
सिगरेटें खत्म होती रहीं ,जलती रहीं .
पाँचवीं सिगरेट !
ट्रे घूमती रही ,कभी कोल्ड-ड्रिंक कभी चाय ,कॉफ़ी .
कर्नल साहब ,बिना देखे ,सिर हिला कर मना करते रहे .
इधर -उधर बैठे लोग शादी की मौज में रमे रहे .कन्या-पक्ष की लड़कियों को छेड़ते रहे .
छोटे -बड़े बहनोई अपने साथियों के साथ बैठे हँसी-ठिठोली करते रहे .कन्या-पक्ष की बहुयें और लड़कियाँ हँसती रहीं.
ये सातवीं सिगरेट है .
' हमारे लड़के से तो सब कहलवा लिया पंडिज्जी ,उनसे भी तो कहलवाओ .'
पंडिज्जी मुस्करा दिये -कन्या ज़ोर से कैसे बोलेगी ?'
'क्या पता उनने प्रतिज्ञा की या नहीं एक बार तो 'हाँ' कहला दीजिये .'
'हाँ और क्या धीरे से ही कह दें, हम कान लगाये हैं .'
  वर पक्ष के लड़के  , कौतुक भरे मुख से  ,दुल्हन की ओर कान  किये हैं .
'कह दो बिटिया - हाँ .'
आवाज़ नहीं आई .
'भई ,ये तो गलत है .एक से सब कबुलवाना ,दूसरे से कुछ नहीं ।'
'मौनं स्वीकृति लक्षणम् ',पडित जी ने व्यवस्था दी .
फिर हँसी मज़ाक हुआ .
सातवीं भी जल चुकी .
'लाजा होम के लिये कन्या का भाई आये ,' पंडित जी  ने पुकारा .
भाई ने आगे बढ. खींलो से भरी थाली उठा ली .'
' इधर  कन्या के पीछे रहना बेटा ,..हाँ, दोनों जन खड़े हो जाइये ,बस ऐसे थोड़ा आगे-पीछे.'
भाई ने खीलें बहिन के हाथ में दीं 
' वर के हाथ  में दे दो बिटिया .लाजा होम दो..'
लाजा होम ! रुचि ने सुना  - किसके हाथ? 
ओह ,चुप हो जा  मन !
 सिर झुकाये उसने  शिब्बू के फैले हाथ में ...लाजा सौंप दीं .तीनों बार !
कन्यादान ,फेरे, सिंदूर-दान , सब  कर्यक्रम चलते रहे, एक के बाद एक .
 ..दसवीं सिगरेट फुँक चुकी .
अभी रात के सिर्फ.
 दो बजे हैं .कितन सिगरेटें फूँकीं उन्होंने उस रात -गिनने की फ़ुर्सत किसे ?

*
रिश्तेदारों में वही चर्चा चल रही है .
चार साल पहले भी यही बरात आई थी इसी लड़की के लिए .
कोई कह रहा था -जा रही है उसी घर में ,पर चार साल बाद किसी दूसरे से गाँठ बाँध कर !
' अच्छा !'
'पर हो क्या गया था ?
हुआ क्या था ? बारात का स्वागत हो चुका था .जयमाल पड़ चुकी थी .
पर बारात लौटा दी .
किसने ?
लंबी कहानी है -होता वही है जो किस्मत में लिखा होता है ।जाना उसी घर में था पर बड़े के बजाय छोटे से गाँठ जोड़ कर ।'
कहानी वही सुन्दर पढी-लिखी लड़की -ब्राह्मण परिवार की.किस्मत से संबंध तय हो गया अच्छे घर में,लरिका सेना में बड़ा आफिसर रहे -कोई माँग नहीं.काहे से कि लरिका के मन भाय गई थी.
हवाई जहाज़ से बारात आई .तब तक सब ठीक- ठाक रहै .
पर ऊ फौज के लोग ,उनके दोस्त आये रहे .उन्हें कहाँ खाने-पीने से परहेज़ .
बोतलें खोल लीं ,बाज़ार से नॉनवेज मँगा लिया मस्ती कर रहे थे.किसी ने जाकर घर की औरतों को फूँक दिया .बस,हल्ला मच गया ,शराबी-कबावी हैं .कैसे गुजर-होगी लड़की की .
शराब की लत में बर्बादी के जाने कितने किस्से याद किए जाने लगे .रोना-धोना मच गया.
और नतीजा ये कि कहला दिया लड़की ब्याह से मना कर रही है .
वो लोग पहले तो कहते-बताते रहे . 
लड़के ने ख़ुद कहा  एक बार सुरुचि  को सामने बुला दो. वो आकर कह दे ,हम चुपचाप चले जायेंगे .
पर इन लोगों ने लड़की को सामने लाने से से साफ़ मना कर दिया .
क्या करते बिचारे !दो-दो पेग और चढ़ा लिए ,लौटने की तैयारी करने लगे .
*
पर होनी को कुछू और मंजूर रहै .बड़ेन को  लगा बिना बहू बरात कैसे लौटे ?
सोच-विचार होने लगा .बरात में जौन लोग हते ,सभै हल सुझावै लाग .एक संबंधी हते  तिनकी यहीं उनकी रिस्तेदारी में एक कुआँरी  लड़की रही, बिन माँ-बाप की,अच्छी रहै ,दहेज का भरना कौन भरे सो बियाह नाहीं होय पा रहा था . मामा के पास पली बढ़ी रहे ,
सँदेसा ले कर पहुँच गये ुउनके घर .भाग खुल गये उनके तो चट् तैयार हुइ गये
 आगे बढ़ के  के ब्याह दी  .आई है बरात में कर्नल पति के साथ !

और इहका  जब एक धब्बा लगा लग गया.जहाँ जायें ,बात चलायें सब इहै पूछैं बरात काहे लौट गई?बाम्हनन के दिमाग ठहरे .जरा में सनक जात हैं. बस इहैं बात अटक जात रही .
चार बरस बाद एक लरिका की खबर मिली  लड़का  मामूली क्लर्क रहे ,वइसे कुल परवार सब दुरुस्त  .सो का करते कब लौं लरकिनी बैठाए रखते .
बात चलाई ऊ तैयार हुइगे .कहे लाग हाँ,हाँ लरकिनी हमार देखी भई है .ई लरिका सराब छुअत भी नहीं .पक्का बिरहमन .
भवा का कि उहै आरमी ऑफिसर केर छोट भाई रहे .
अउर का !
' हाँ कर्नल साहब का छोटा भाई है ।'
उमर का कितना फ़रक है भाइयों में ?'
'डेढ साल का ।'
'अच्छा !पर जमीन -आसमान का फरक है दोनो में  ।'
'हाँ वो तो हई है ।'
'वो थोड़े साँवले लंबे हर चीज़ के शौकीन .और ये रंग थोड़ा साफ़ है पर उनसे बित्ते भर छोटे .घर में बैठे रहेंगे कहीं आने-जाने से भी जी चुरायेंगे .'
'इसीलिये न खेलने में रहे न पढ़ने में ।इस्कूल में किलर्क की
नौकरी लगी है ,उस इ में परम संतुष्ट !'
'महतारी तबैं नाहीं रहीं थीं . इलात-विलात फिरत रहा ,बड़ा हुइगा .कोऊ ध्यान न दिहा सो क्वाँरा रहै. उन्हका तो छप्पर फाड़ के मिला .सुन्दर लरकिनी, पढ़ी-लिखी जाने-बूझे घर की ऊपर से कमाऊ.काहे बारात लौटी रही, सोऊ सब जान रहे  .ई भी तो इन्टरै कालिज में पढ़ाती हैं पिछले तीन साल से .चट्ट हाँ कर दिहिन.'
'कहाँ कर्नल साहब और कहाँ ई किलर्कवा सब किस्मत की बात .'
' करनल  तो अब भवा ,ई सादी तय  होवन के बाद  .'
*
3 .

ससुराल में ननदें आईं उतारने .
एक ने ठिठोली की ,' वाह !चार साल पहले आनेवाली थीं ,अब आईं हैं आप ?'
दूसरी बोली ,'आना तो यहीं पड़ा न इसी घर में ?चलो अच्छा है पहले बड़ी बन कर आतीं अब छोटी बन कर आई हैं .'
एक लड़की बोली ,'क्या इनकी शादी चार साल पहले से तय थी ?''
ननद बोली ,'तय क्या ?बरात तक चली गई थी इन्हें लेने .तब बड़के दादा के लिये .'
' बड़के दादा के साथ ?अच्छा.... !'
,'अरे ,बक-बक बंद करो अपनी ,और ले जाओ इन्हें अंदर ,' सामान उतरवाते बड़के दादा बोले।
*
'परछन की तैयारियाँ हो रही हैं .अभी बहू को बाहर ही रोक कर रखना ,' जिठानी ने दरवाज़े पर आकर कहा .
पड़ोस के बाहरी कमरे में बहू के बैठने का इन्तज़ाम कर दिया गया.
' रात भर का सफ़र करके आई है बिचारी .तनिक फ़्रेश होले .चाय वग़ैरा वहीं पहुँचा देना .'
जिठानी ,बड़ी ठसकेदार ऊपर से कर्नल की बीवी .उनका कहा कोई टाल नहीं सकता .सारा प्रबंध उन्हीं को करना था .
बहू तैयार हो गई .
'अरे ,अब छुटके कहाँ ग़ायब हो गये '
'शिब्बू ,पहले ही घर में घुस गये .नहाय रहे हैंगे .'
' अकेले घर में घुसने किसने दया उन्हें ?निकालो जल्दी बाहर, निकरौसी के बाद तो दुलहिन के साथ ही गृह-प्रवेश होगा .'

दरवाजे के अंदर परिवार की सुहागिनें स्वागत को तैयार .लड़कियों को पीछे धकेल दिया .'यहाँ परछन में तुम्हारा क्या काम   ?तुम जाकर दरवाजा रुकाई करना .'
कोई नहीं हट रहीं ,आगे पीछे हो कर सब वहीं जमी हैं .
कुछ  लड़कियाँ बाहर आ गईं , दूल्हा-दुल्हन के आस-पास.
एक तरफ़ परजा-पजारू सिमट आये (नाउन बारिन महरी आदि)निछावर वसूली करनी है न !
ठोड़ी तक घूँघट लटकाये नवेली दुल्हन खड़ी है,शिब्बू से गाँठ  जोड़े.देहरी के
उस पार 
आरती का थाल लिये इस पार  महिलायें इकट्ठी .अगुआ हैं बूढ़-सुहागिन ताई.
'अरे, सिर पर  मौर नही धरा  !' ,
शिब्बू भिनके , 'अब नहीं लगाना मौर. ' .
बहू के तो पहले ही मौरी बाँध दी है लड़कियों ने .शिब्बू सुनते  नहीं.
'धर देओ सिर पे,  सगुन की बात है अउर का .'

बड़-बूढ़ियाँ बहू को घूँघट में से ही रोली -अक्षत लगाये दे रही हैं .मुँह -दिखाई के बिना कैसे  चेहरा खोलें 

आरती- निछावर होने लगी .
अब जाने क्या-क्या दिखाया जा रहा है नवागता बहू को .
 -ले बहू गुड़, गुणवंती हो .
ले बहू रुपया रूपवंती हो ,
इत्ते में कोई बोली,'और  सतवंती के लिये क्या ?
ताई ने सुझाया ,' नेक सत्तू लै आओ .'
ताई की बहू  हँस रही है  ,'अरे वाह , बहू को सत्तू दिखा के सतवंती बनाओगी ?' ..
 परिवार की पुरखिन ताई को कुछ याद आ गया ,आवाज़ लगाई ,'अरे ,तनी मूसर तो लै आओ, बहुयें-बिटियां सब भूल जाती हैंगी ....'
किरन ने दोहराया ,'अरे हाँ मूसल ..!'
महरी की लड़की तुरंत बखारे में दौड़ी
ऊपर से  बड़के भैया सीढ़ियों से  उतर रहे थे  .
'ये क्या हो रहा है ?'
वह मूसल घसीटते बोली, ' नई बहू की परछन के लै मँगाओ है .'
किसी महिला ने बताया ,' मूसल देख लेगी घर में ,तो दब कर रहेगी न !'
'ये कौन बात हुई ?
'अरे ,तुम काहे बोल रहे ये तो रीत है .'
'बेढंगी रीत...क्या तमाशा खड़ा किये हो  .' लड़की  की ओर घूम कर बोले .'ले जा मूसल .'
पति की बात सुन किरन चट् से बोलीं ,'
 'हमें मूसर दिखाओ तब तो कुछू नहीं बोले ,उनके लिये बड़ा तरस आय रहा है !'
लड़की दीवाल से मूसल टिकाये ठिठकी खड़ी है
'अपनी शादी में कौन बोल पाता है. अब  हम बड़ों में हैं .'
 कस के जो लड़की  को देखा ,वह मूसल घसीटती वहीं से लौट ली .
*

परछन के बाद मुँह-दिखाई  .किसने क्या दिया ,रुपया ज़ेवर सबका हिसाब रख रहीं थी पास बैठी बड़ी बहू .सब उठा-उठा कर चेक करती लिखती जा रही थी .बड़ी लंबी लिस्ट थी.
'पूछ तो सबका रही हैं ,आप क्या दे रही हैं बड़ी भाभी ?'
'मैने तो अपना देवर ही दे दिया .'
'हुँह ,ये भी कोई बात हुई ?'
देख लो ,लिखा है सबसे पहले .'
झाँक कर देखा - मिसेज़ अभिमन्यु के नाम पर लिखे हैं हीरे के टॉप्स !मिसेज़ अभिमन्यु माने कर्नल साहब की पत्नी .
अगले दिन बात उठी सब रिश्तेदारों से बहू का परिचय करवा दो -पता नही कौन कब चला जाय .
परिचय अर्थात् खीर खिलाई .बहू अपने हाथों बनाई खीर परस-परस कर सब को देगी ,उनके पास जाकर जैसे ननदोई से ,'जीजा जी लीजिये .'कह कर चरण स्पर्श करती .
और वे खीर लेकर उसे कुछ भेंट देंगे .
'अरे इतनी सी खीर ?भई बड़ी मँहगी पड़ी .'
उसे भेंट या रुपये पकड़ा देते .वह सिर झुकाये झिझकते हुये ले कर साथ परिचय देती चल रही ननद को पकड़ा देती .
'ये तुम्हारे ससुर जी हैं ?क्या कहोगी पापा जी या बाबूजी ?'
'जो सब कहते हैं वही तो कहेगी ,'जिठानी बोलीं .
'बाबूजी' कह कर उसने पाँव छुये .
उन्होंने सिर पर हाथ रखा ,'आज को तुम्हारी सास होतीं तो ...'
'अरे बाबू जी ,' अम्माँ नहीं हैं तो क्या बहू बड़ी आदर्शवादी है .कुछ कहने समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी .'
उन्होंने एक जोड़ कंगन पकड़ा दिये .'तुम्हारी सास ने दोनो बहुओं के लिये एक से बनवाये थे .'
उसने झुक कर दोनों हाथों से विधिपूर्वक चरण छू कर माथे से लगाये .
ये ताऊ जी ,ये चाचा जी -ये जीजाजी , बरेलीवाले जे ,ताऊ जी के मँझले बेटे .'
अरे ,नाम बताओ ।ऐसे कैसे याद रखेगी ?'
'हाँ इनका नाम सुरेन्द्र बहादुर .क्यों लल्ला जी ,क्या बहादुरी दिखाई आपने
.'
'कहाँ भौजी ,बहादुरी दिखाने का ठेका तो कर्नल साहब का है .हम तो आपके सामने कलेजा थाम कर रह जाते हैं .'
ज़ोरदार ठहाका .
लोग छँटते जा रहे हैं .
'काहे भौजी , कंडैल साहब को कहाँ दुकाय दिया ?कंजूस कहीं के ..'
'काहे गँवारन की तरह कंडैल-कंडैल कहते हो ?नई बहू तुम्हें अपढ समझेगी .'
'समझन देओ .बस तुम हमें समझती रहो ,हम उसई में खुस .'
''ये तुम्हारे जेठ प्रिन्सिपल हैं ,अपढ-गँवार मत समझ लेना .तुम्हें भी पढ़ाय देंगे !.
'चलो मनुआ हो !कहाँ खिसक लिये ?बड़े कंजूस आदमी हो भाई "' उन्होंने आवाज़ लगाई .
उसने सोचा था कर्नल साहब को अभि कहा जाता होगा पर घर उनका घर का नाम मनू है .
'हम तो आही रहे थे .'
'लल्ला जी ,वो खिसके नहीं थे माल लेने गये होंगे .'
' उन्हीं की ओरी लेंगी न!'
देख लो भाभी ,पहले तुम्हारी जगह यही आने वाली थीं .'
'तो हमने कौन रोक दिया था देवर जी !काहे नहीं आ गईं ?
' लिखी तो शिब्बू के नाम रहीं ,उन्हें कइस मिल जातीं ,' किसी बड़ी-बूझी की आवाज़ थी ,'तभी न दरवाजे से बरात लौट आई .'
'क्या बेकार की बातें लगा रखी हैं '  कर्नल साहब ने चुप कर दिया सबको .वे  रस्म के लिये आ कर खड़े हो गये थे 
'उन्हें ये सब बातें अच्छी नहीं लगतीं ,' जिठानी बोलीं ' क्या फ़ायदा ?जो हो गया खतम करो .'
खीर भरी कटोरी बहू के हाथ में पकड़ाती छोटी ननद बोली ,'तो भाभी ,अपने जेठ के पाँव छुओ कहो जेठ जी !'
'जेठजी कौन कहता है ?भाई साहब कहो ,नहीं तो दादा जी ...',जिठानी का सुझाव था .
सिर झुकाये ही खीर की कटोरी उसने उनके हाथ में पकड़ाई ,और झुक गई पांवों पर.कर्नल साहब ज्यों के त्यों सन्न से खड़े रह गये .
'अरे ,उसे खीर खिलाई तो दो ,'जिठानी ने टोका तो वास्तविक जगत में आये ।पत्नी ने जो हाथ में पकड़ा दिया लेकर उसकी ओर बढ़ा दिया और घूम कर चल दिये .लौटते-लौटते जेब से रूमाल निकाल कर पाँवों पर टपके दो बूँद आँसू उन्होंने धीरे से पोंछ दिये .
पीछे से आवाज़ आ रही थी ,'क्या दिया बड़के दादा ने ?
' जड़ाऊ पेन्डेन्ट.'
'अरे वाह ,लटकन में कन्हैया जी लटकाय दिये हैं ,ले ओ छोटी भाभी,मीरा बाई बन जाओ अब .'
' वाह !'
आँसुओं से धुँधला गई आँखों से वह कुछ देख नहीं पा रही थी .
घूँघट से कितनी सुविधा हो जाती है!
*
(क्रमशः)

टिप्पणियाँ -

  1. सुंदर कहानी के लिए साधुवाद! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!
    कहानी काफ़ी रोचक है
    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  2. बहुत सरल कहानी है प्रतिभा जी.....आपके शब्दों में बेहद सादगी थी..अच्छी लगी जो बहुत...:)
    मैंने तो नायक और नायिका अपने प्रिय संजीव कुमार और जया भादुड़ी को चुन लिया था......ऐसा लगा शब्दों के साथ साथ एक फिल्म भी देख ली.........अंत में घूंघट के अंदर से भरी भरी आँखें लिए जया जी का close-up और मुंह फेर कर जाते हुए संजीव कुमार जी के चेहरे की गंभीरता....वाह!!और तो और सह कलाकार भी सारे वासु दा,ऋषिकेश मुख़र्जी,और गुलज़ार की फिल्मों से लिए थे....:):)

    ''घूँघट से कितनी सुविधा हो जाती है''.....:)
    ....वाकई..!! कोई भी चीज़ नाकारा नहीं होती....कहीं न कहीं सबका कोई न कोई महत्व है ही..:)

    ''समझन देओ .बस तुम हमे समझती रहो ,हम उसई में खुस .''

    ये संवाद..सुबह से मेरे दिमाग से निकला नहीं....बार बार ''उसई में खुस'..'' याद आता और मैं हंसने लग जाती थी...:D
    वास्तव में आज सुबह सुबह ये कहानी पढ़ी..३ ४ बार 'टिप्पणी' पोस्ट की मगर तकनीकी गड़बड़ हो जा रही थी.......अब जाके हुई :)
    कहानी के नायक और नायिका आगे कैसे जिंदगी निर्वाह करेंगे.....काफी देर तक सोचती रही...फिर सोचा...कलयुग है..सब तरह के समझौते यहाँ संभव हैं....कोई मन मार लेगा..कोई ज़मीर..कोई आत्मा.....

    खैर..
    बधाई इस पीले गुलाब के लिए...:)