*
सुबह की गाड़ी से निकल जाऊँगा.
घर पर कह रखा था रात तक पहुँचूँगा .तब सोचा था अब सब अलग हो रहे हैं कोई कहीं जाएगा, कोई कहीं -फिर जाने कब मिलें .हो जाए थोड़ा और साथ .रात में सोने भी कौन देगा ! सुबह आराम से उठूँगा, थोड़ी शापिंग भी ...कुछ गिफ़्ट्स वगैरा सबके लिए ,मीता के पिता के लिए भी. लगा था .कोई बेटा नहीं उनके ,मैं ही उनके लिए कुछ करूँ.
पर अब कुछ करने का मन नहीं है .यहाँ रुकना किसी से बात-चीत करना भी अच्छा नहीं लग रहा.तय कर लिया बस, अब सुबह ही निकल जाऊँ.
चार बजे तक हंगामा होता रहा .कमरे में आकर बिस्तर पर पड़ जरूर गया पर नींद कहाँ आती !
सामान पहले ही समेट गया था .था ही क्या अधिकांश पहले ही घर पहुँचा आया था.
बीच-बीच में अजब सी गफ़लत, उड़ते सपनों जैसी .
फिर नहीं लेटा गया उठ कर बैठ गया ,सुबह की रोशनी फैल गई थी .
आँखें कड़ुआ रही हैं पाँव मन -मन भर के हो रहे हैं ...पर उठना तो है ही .
स्टेशन तक कुछ लोगों का साथ मिल गया .आगे अकेले ही जाना है
रास्ता चुपचाप कट गया .सोचता रहा क्या कहूँगा माँ से?
वे भी जाने कितनी बातें छिपा जाती हैं.
सच कभी नहीं बताएँगी .वसुधा से भी क्या आशा करूँ !किसका, कैसे विश्वास करूँ ?
मीता आएगी क्या ?क्या पता .कैसे सामना होगा ?
धूप तेज़ हो गई थी .वहाँ उन को पता था रात तक आ रहा हूँ. इन्तज़ार कौन करता!
दरवाज़ा खोलती वसु के मुँह से निकला था , ' अरे ,भइया .आ गये....'
सामान रख कर भाड़े के पैसे चुका दिए .माँ आगे बढ़ीं मैंने पाँव छुए .असीस की बुद्बुदाहट सुनी ,कंधे पर हाथ फिरा .
माँ उदास लगीं, वसु चुप .
फिर वह रसोई में चली गई - लस्सी ले कर आई .
' नहीं, मैंने कुल्ला तक नहीं किया है.'
माँ के मुँह से निकला 'अभी तक !'
मैं क्या कहता !
'वसु, बस पानी दे दे.'
पानी का गिलास ,शीतल जल .माटी के नये घड़े की सोंधी गंध , अनोखा तोषता स्वाद, सूखते गले को कुछ चैन पड़ा.
हर गर्मी में माँ पीने के पानी के लिए मिट्टी का घड़ा ज़रूर रखती हैं.
'भइया ,बहुत तप गए हो , लस्सी पी लो न !'
लस्सी लिए खड़ी है .
वसु का उतरा-सा चेहरा देखा नहीं गया .इस बेचारी ने क्या किया !
ले ली उसके हाथ से ,वहीं पड़ी चौकी पर रख दी,नल से कुल्ला कर आया .बैठ कर पीने लगा .
माँ दूसरी ओर कुछ कर रहीं थीं .
कितनी चुप्पी फैली है घर में.
'कब है वसु, तेरा प्रोग्राम ?'
'शनिवार को .'
बैग से कपड़े निकाले, वसु तौलिया पकड़ा गई .
नहा कर आईने के सामने खड़ा हूँ ,अपना चेहरा अनपहचाना-सा लग रहा है ,बालों में कंघा फेरकर हट आया .मन कर रहा है रहा है आँखें बंद कर ,चुपचाप लेट जाऊँ .
असली बात कोई नहीं बताएगा .कैसे किसका विश्वास करूँ ?
होस्टल से बिदा की भेंट-सी वह पंक्ति बार-बार उजागर हो जाती है - जैसे मन की करियाई स्लेट पर उजली खड़िया से लिख गया हो कोई - 'धिक् जीवन ...'.
'धिक् ...'
माँ किसी काम से इधर आई थीं ,मैं वसु से पूछ रहा था, ' ..तो यहाँ बड़े-बड़े काम हो गए ! '
उन्हें देख कर पूछा .'तुम भी तो उसका हिस्सा रहीं ?'
माँ ने सिर उठा कर देखा था,कहा कुछ नहीं .
'और वसु, तू उस खास मौके पर नहीं गई ?
' कोई प्रोग्राम कहाँ था ?मुझे तो पहले से मालूम भी नहीं ......'
मैं सुनता रहा, वही बोलने लगी -
'मेरा तो बहुत बिज़ी टाइम रहा .दीदी ने म्यूज़िक कंपीटीशन में नाम लिखवा दिया ,अपनी प्रेक्टिस से ही छुट्टी नहीं .घर पर भी बहुत कम रुक पाती थी .'
माँ अल्मारी से कुछ निकाल रहीं थीं.
'वसु बता रही थी तुम्हारे लिए तो राय साब के यहाँ खास तौर से बुलावा था - रीत-नीत पूछने-बताने के लिए... .'
आज मेरे मुँह से पहली बार मीता का घर न निकल कर राय साब का घर निकला. उन्हें धनपत राय कोई नहीं कहता .नेम-प्लेट पर लिखा है - डी.राय ! मैंने तो मीता के फ़ार्म पर पढ़ लिया था ,पहला नाम शायद ही कोई जानता हो ,राय ही चलता रहा - राय साब !
वे कुछ बोलें उसके पहले ही वसु बोलने लगी -
'उसी दिन सुबह कहलाया था, और माँ जाने क्या समझीं , खुश-खुश पूजा कर उतावली सी चली गईं .'
माँ की वह मनस्थिति कैसे बता पाती वह !
वहाँ से रीत-नीत पूछने बुलाया गया है सुन कर कैसी पुलक उठी थीं वे - मन के आँगन में कितनी संभावनाओं की दस्तक सुनाई देने लगी थी. ..लड़का लायक निकला ,तो ये दिन देखने को मिला. विचार-शृंखला उन्मुक्त हो चली थी.
'हाँ ,भैया माँ को जाने क्या क्या लग रहा था. ,मिलने .और.. जरूर कुछ खास बात करने बुलाया होगा !'
उसके शब्दों का आशय भासित कर मैं अपना आवेग रोक न सका -
'तू चुप कर, झुट्ठी !'
वह अचकचा कर चुप हो गई .
माँ ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा - पहचानने की कोशिश कर रहीं होंगी कि यह वही है, जिसे जन्म देकर इतना बड़ा किया !
फिर वे बिना कुछ बोले रसोई में चली गईं .
अध-भीगा तौलिया अभी तक कंधे पर पड़ा था .
बाहर अरगनी पर डालने गया देखा - रसोई में खड़ी माँ , भाप से बार-बार सीटी देते और वेट के साथ ऊपर तक छींटे उछालते कुकर को मूर्तिवत् देखे जा रहीं हैं.
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सुबह की गाड़ी से निकल जाऊँगा.
घर पर कह रखा था रात तक पहुँचूँगा .तब सोचा था अब सब अलग हो रहे हैं कोई कहीं जाएगा, कोई कहीं -फिर जाने कब मिलें .हो जाए थोड़ा और साथ .रात में सोने भी कौन देगा ! सुबह आराम से उठूँगा, थोड़ी शापिंग भी ...कुछ गिफ़्ट्स वगैरा सबके लिए ,मीता के पिता के लिए भी. लगा था .कोई बेटा नहीं उनके ,मैं ही उनके लिए कुछ करूँ.
पर अब कुछ करने का मन नहीं है .यहाँ रुकना किसी से बात-चीत करना भी अच्छा नहीं लग रहा.तय कर लिया बस, अब सुबह ही निकल जाऊँ.
चार बजे तक हंगामा होता रहा .कमरे में आकर बिस्तर पर पड़ जरूर गया पर नींद कहाँ आती !
सामान पहले ही समेट गया था .था ही क्या अधिकांश पहले ही घर पहुँचा आया था.
बीच-बीच में अजब सी गफ़लत, उड़ते सपनों जैसी .
फिर नहीं लेटा गया उठ कर बैठ गया ,सुबह की रोशनी फैल गई थी .
आँखें कड़ुआ रही हैं पाँव मन -मन भर के हो रहे हैं ...पर उठना तो है ही .
स्टेशन तक कुछ लोगों का साथ मिल गया .आगे अकेले ही जाना है
रास्ता चुपचाप कट गया .सोचता रहा क्या कहूँगा माँ से?
वे भी जाने कितनी बातें छिपा जाती हैं.
सच कभी नहीं बताएँगी .वसुधा से भी क्या आशा करूँ !किसका, कैसे विश्वास करूँ ?
मीता आएगी क्या ?क्या पता .कैसे सामना होगा ?
धूप तेज़ हो गई थी .वहाँ उन को पता था रात तक आ रहा हूँ. इन्तज़ार कौन करता!
दरवाज़ा खोलती वसु के मुँह से निकला था , ' अरे ,भइया .आ गये....'
सामान रख कर भाड़े के पैसे चुका दिए .माँ आगे बढ़ीं मैंने पाँव छुए .असीस की बुद्बुदाहट सुनी ,कंधे पर हाथ फिरा .
माँ उदास लगीं, वसु चुप .
फिर वह रसोई में चली गई - लस्सी ले कर आई .
' नहीं, मैंने कुल्ला तक नहीं किया है.'
माँ के मुँह से निकला 'अभी तक !'
मैं क्या कहता !
'वसु, बस पानी दे दे.'
पानी का गिलास ,शीतल जल .माटी के नये घड़े की सोंधी गंध , अनोखा तोषता स्वाद, सूखते गले को कुछ चैन पड़ा.
हर गर्मी में माँ पीने के पानी के लिए मिट्टी का घड़ा ज़रूर रखती हैं.
'भइया ,बहुत तप गए हो , लस्सी पी लो न !'
लस्सी लिए खड़ी है .
वसु का उतरा-सा चेहरा देखा नहीं गया .इस बेचारी ने क्या किया !
ले ली उसके हाथ से ,वहीं पड़ी चौकी पर रख दी,नल से कुल्ला कर आया .बैठ कर पीने लगा .
माँ दूसरी ओर कुछ कर रहीं थीं .
कितनी चुप्पी फैली है घर में.
'कब है वसु, तेरा प्रोग्राम ?'
'शनिवार को .'
बैग से कपड़े निकाले, वसु तौलिया पकड़ा गई .
नहा कर आईने के सामने खड़ा हूँ ,अपना चेहरा अनपहचाना-सा लग रहा है ,बालों में कंघा फेरकर हट आया .मन कर रहा है रहा है आँखें बंद कर ,चुपचाप लेट जाऊँ .
असली बात कोई नहीं बताएगा .कैसे किसका विश्वास करूँ ?
होस्टल से बिदा की भेंट-सी वह पंक्ति बार-बार उजागर हो जाती है - जैसे मन की करियाई स्लेट पर उजली खड़िया से लिख गया हो कोई - 'धिक् जीवन ...'.
'धिक् ...'
माँ किसी काम से इधर आई थीं ,मैं वसु से पूछ रहा था, ' ..तो यहाँ बड़े-बड़े काम हो गए ! '
उन्हें देख कर पूछा .'तुम भी तो उसका हिस्सा रहीं ?'
माँ ने सिर उठा कर देखा था,कहा कुछ नहीं .
'और वसु, तू उस खास मौके पर नहीं गई ?
' कोई प्रोग्राम कहाँ था ?मुझे तो पहले से मालूम भी नहीं ......'
मैं सुनता रहा, वही बोलने लगी -
'मेरा तो बहुत बिज़ी टाइम रहा .दीदी ने म्यूज़िक कंपीटीशन में नाम लिखवा दिया ,अपनी प्रेक्टिस से ही छुट्टी नहीं .घर पर भी बहुत कम रुक पाती थी .'
माँ अल्मारी से कुछ निकाल रहीं थीं.
'वसु बता रही थी तुम्हारे लिए तो राय साब के यहाँ खास तौर से बुलावा था - रीत-नीत पूछने-बताने के लिए... .'
आज मेरे मुँह से पहली बार मीता का घर न निकल कर राय साब का घर निकला. उन्हें धनपत राय कोई नहीं कहता .नेम-प्लेट पर लिखा है - डी.राय ! मैंने तो मीता के फ़ार्म पर पढ़ लिया था ,पहला नाम शायद ही कोई जानता हो ,राय ही चलता रहा - राय साब !
वे कुछ बोलें उसके पहले ही वसु बोलने लगी -
'उसी दिन सुबह कहलाया था, और माँ जाने क्या समझीं , खुश-खुश पूजा कर उतावली सी चली गईं .'
माँ की वह मनस्थिति कैसे बता पाती वह !
वहाँ से रीत-नीत पूछने बुलाया गया है सुन कर कैसी पुलक उठी थीं वे - मन के आँगन में कितनी संभावनाओं की दस्तक सुनाई देने लगी थी. ..लड़का लायक निकला ,तो ये दिन देखने को मिला. विचार-शृंखला उन्मुक्त हो चली थी.
'हाँ ,भैया माँ को जाने क्या क्या लग रहा था. ,मिलने .और.. जरूर कुछ खास बात करने बुलाया होगा !'
उसके शब्दों का आशय भासित कर मैं अपना आवेग रोक न सका -
'तू चुप कर, झुट्ठी !'
वह अचकचा कर चुप हो गई .
माँ ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा - पहचानने की कोशिश कर रहीं होंगी कि यह वही है, जिसे जन्म देकर इतना बड़ा किया !
फिर वे बिना कुछ बोले रसोई में चली गईं .
अध-भीगा तौलिया अभी तक कंधे पर पड़ा था .
बाहर अरगनी पर डालने गया देखा - रसोई में खड़ी माँ , भाप से बार-बार सीटी देते और वेट के साथ ऊपर तक छींटे उछालते कुकर को मूर्तिवत् देखे जा रहीं हैं.
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