*
वसु की बिदा के बाद पापा ने मुझसे कहा था ,'मैं जा रहा हूँ ,अपनी माँ को भेजने की तैयारी कर रखना.'
उनकी बात सुन कर चौंक गया ,मैं ,माँ को अपने पास रखने का सोचे था.
'उनकी तैयारी ? आपने बात कर ली ?'
'उसमें बात क्या करना ,जायेंगी क्यों नहीं ?वहाँ घर है फिर मै भी अब ठीक नहीं रहता.... '
'अभी तो उनकी सर्विस बाकी है ..'
'अरे क्या सर्विस !प्री-रिटायरमेंट लीव ली जा सकती है. वैसे लोग पहले भी रिटायरमेंट भी ले लेते हैं .अब तुम भी चले जाओगे तो....'
इतने में चाय ले कर माँ आ गईँ ,' किसके जाने की बात?
'तुम्हारी ..चलो अब. अकेली यहाँ कहाँ पड़ी रहोगी ?'
'पड़ी हूँ यहाँ मैं ?ये मेरा घर है ..यहाँ से कोई मुझे निकाल नहीं सकता .वहाँ क्या है मेरा ?'
' मैं तो ख़ुद कह रहा हूँ - अपने घर चलो .इस उमर में सबको सहारा चाहिए होता है.'
'किस उमर में नहीं चाहिए होता ? तुमने बिना औरत के काम चला लिया क्या ? और मैं जब भरी जवानी में यहाँ पड़ी रही -ऊपर से बच्चों को सँभाला तब किसी ने सोचा ?तब भी मैंने पूरी कोशिश की थी ,वहाँ तुमने नहीं रहने दिया .अब मेरा घर यही है .दिन-रात एक कर जड़ें जमाईं हैं .मैं यहीं रहूँगी..'
'मान रहा हूँ गलती हो गई पर अब सब ठीक हो जायेगा..'
'और वह कहाँ है ?'
'मुझे उससे कोई मतलब नहीं ,ऐसी फ़ालतू औरतें ....'
'देखो, बेकार दोष मत दो उसे .कोई ब्याहता तो थी नहीं .जो तुम्हारा पट्टा पहने रहती '
'तभी तो तुमसे कह रहा हूँ अपने घर चलो '
'मेरी अब कहीं और जाने इच्छा नहीं . फेरे लिए थे उसका भरना अब तक भरती रही .कभी अपना ध्यान भी नहीं आया कि मेरी अपनी ज़रूरतें भी हो सकती हैं .अब निश्चिन्त हुई तो फिर....'
'तुम समझती क्यों नहीं ..? '
लगा अभी चिल्ला पड़ेंगे ,माँ के ऊपर गुस्सा होने की पुरानी आदत !
ओह ,अब भी अपना ही अधिकार समझे बैठे हैं ,माँ के चेहरे पर वितृष्णा झलक उठी. ..
वे बीच में बोलीं ,'बेकार गुस्सा मत दिखाना ,यहाँ कोई तमाशा खड़ा नहीं किया जाएगा .चार लोगों में मेरी इज्ज़त है.. .'
वे चुप हो गए थे
'वहाँ मेरे लिए क्या है जानती हूँ .यहाँ मेरा काम है, मेरी पहचान है ,.और तुम ?..किसी को बता कर आए हो कि बेटी की ब्याहने जा रहा हूँ ?"
कुछ बोले नहीं , कुछ किया हो तो बताएँ भी .
वे अपनी ही कहती रहीं ,' हाँ, तुम हमारे साथ आ कर रहना चाहो तो यहीं चले जाओ . '
तभी महरी की पुकार आई .वे चली गईं थीं
बाद में मौका देख कर मैंने पूछा था ,'माँ मेरे साथ तो चलोगी न ? '''आता-जाती रहूँगी मुन्ना, पर रहना यहीं चाहती हूँ . अजानी जगह ,कुछ करने-धरने को नहीं, किसी से जान-पहचान नहीं . नई नई जगहों के नये ढंग . अब नहीं कर पाऊंगी . यहाँ पुराने लोग हैं - सब देखा जाना है ,साथ के हैं सब .समझते हैं ,अब तक साथ दिया है माधुरी है,हरषी है मेरी ही उमर की .तीरथ करूँगी,और जो भी अपने को भाए .'
फिर पूछ बैठीं ,
'तुझे भी यही लगता है कि मुझे साथ चली जाना चाहिये था.'
'नहीं माँ .तुम्हारा मन न माने तो बिलकुल नहीं ...?'
'मुन्ना, ये सब बातें मैने वसु के आगे कभी नहीं खोलीं .उसके सीधे-सरल मन में क्यों बाप के लिए कड़ुआहट भर दूँ .उसने अभी देखा ही क्या है ..उसके साथ निभा लें तो अच्छा ही है .ससुराल में लड़की के बाप के नाम को जानते-पूछते हैं सब.'
*
उस दिन माँ का मन बहुत संतप्त था.
पिता ने जिस अधिकार से उनके जाने की बात उठाई , उन्हें गहरे चुभी थी.
.बेटी की बिदा से उत्पन्न रिक्तता में उनका अतीत उमड़-घुमड़ कर टकरा रहा था .
उस रात पहली बार वे मेरे सामने रोई थीं .
वसु चली गई थी. घर में खालीपन छाया था. उनका संताप से भरा मन कुछ कहने को आकुलाया होगा .
बेटी का ब्याह एक बड़े अनुष्ठान के समान संपन्न किया था उन्होंने ,पूरी निष्ठा से कि, कहीं कोई त्रुटि न रह जाय .
कन्या-दान में बाप आ गए थे . माता-पिता गठबंधन से बैठे - पूरी विहित भूषा में रहीं वे ,सिंगार के साथ विधि-विधान से सिन्दूर-टीका उसी का उपादान रहा था.सच में उनका मन प्रसन्न था .कहीं कोई कसर न रह जाये पूरी कोशिश रही थी .उनके ही शब्दों में ,'बेटी को किसी बात की जवाबदेही न करनी पड़े .मैंने पूरी ड्यूटी निभाई.'
अब तक का किया-धरा सफल हुआ था . बेटी को ऐसा घर- वर मिला जैसा उनकी स्थिति में सोचना भी मुश्किल था .उनकी खुशी का पार नहीं .सारी औपचारिकताएँ तुष्ट मन से पूरी करती रहीं.
पर सब कुछ अच्छी तरह निबटाकर भी उनका मनउन बोलों से बिंध गया था जो बाद में सुनने को मिले .वसु नहीं थी ,घर ,उस स्निग्ध माधुर्य से रहित जैसे काटने को दौड़ रहा था .
माँ अकेली रह गई थीं .उनका मौन रुदन मुझसे देखा नहीं जा रहा था. पर मैं विवश ,कुछ नहीं कर पाया.धीरज देने को कुछ बोलता रहा पर उन्हें सांत्वना हो ऐसा कुछ नहीं था मेरे पास कहने को .
अब तक कभी ध्यान नहीं गया था ,उस दिन माँ बहुत थकी लगीं ,बहुत शिथिल -सी !
वसु की बिदा के बाद पापा ने मुझसे कहा था ,'मैं जा रहा हूँ ,अपनी माँ को भेजने की तैयारी कर रखना.'
उनकी बात सुन कर चौंक गया ,मैं ,माँ को अपने पास रखने का सोचे था.
'उनकी तैयारी ? आपने बात कर ली ?'
'उसमें बात क्या करना ,जायेंगी क्यों नहीं ?वहाँ घर है फिर मै भी अब ठीक नहीं रहता.... '
'अभी तो उनकी सर्विस बाकी है ..'
'अरे क्या सर्विस !प्री-रिटायरमेंट लीव ली जा सकती है. वैसे लोग पहले भी रिटायरमेंट भी ले लेते हैं .अब तुम भी चले जाओगे तो....'
इतने में चाय ले कर माँ आ गईँ ,' किसके जाने की बात?
'तुम्हारी ..चलो अब. अकेली यहाँ कहाँ पड़ी रहोगी ?'
'पड़ी हूँ यहाँ मैं ?ये मेरा घर है ..यहाँ से कोई मुझे निकाल नहीं सकता .वहाँ क्या है मेरा ?'
' मैं तो ख़ुद कह रहा हूँ - अपने घर चलो .इस उमर में सबको सहारा चाहिए होता है.'
'किस उमर में नहीं चाहिए होता ? तुमने बिना औरत के काम चला लिया क्या ? और मैं जब भरी जवानी में यहाँ पड़ी रही -ऊपर से बच्चों को सँभाला तब किसी ने सोचा ?तब भी मैंने पूरी कोशिश की थी ,वहाँ तुमने नहीं रहने दिया .अब मेरा घर यही है .दिन-रात एक कर जड़ें जमाईं हैं .मैं यहीं रहूँगी..'
'मान रहा हूँ गलती हो गई पर अब सब ठीक हो जायेगा..'
'और वह कहाँ है ?'
'मुझे उससे कोई मतलब नहीं ,ऐसी फ़ालतू औरतें ....'
'देखो, बेकार दोष मत दो उसे .कोई ब्याहता तो थी नहीं .जो तुम्हारा पट्टा पहने रहती '
'तभी तो तुमसे कह रहा हूँ अपने घर चलो '
'मेरी अब कहीं और जाने इच्छा नहीं . फेरे लिए थे उसका भरना अब तक भरती रही .कभी अपना ध्यान भी नहीं आया कि मेरी अपनी ज़रूरतें भी हो सकती हैं .अब निश्चिन्त हुई तो फिर....'
'तुम समझती क्यों नहीं ..? '
लगा अभी चिल्ला पड़ेंगे ,माँ के ऊपर गुस्सा होने की पुरानी आदत !
ओह ,अब भी अपना ही अधिकार समझे बैठे हैं ,माँ के चेहरे पर वितृष्णा झलक उठी. ..
वे बीच में बोलीं ,'बेकार गुस्सा मत दिखाना ,यहाँ कोई तमाशा खड़ा नहीं किया जाएगा .चार लोगों में मेरी इज्ज़त है.. .'
वे चुप हो गए थे
'वहाँ मेरे लिए क्या है जानती हूँ .यहाँ मेरा काम है, मेरी पहचान है ,.और तुम ?..किसी को बता कर आए हो कि बेटी की ब्याहने जा रहा हूँ ?"
कुछ बोले नहीं , कुछ किया हो तो बताएँ भी .
वे अपनी ही कहती रहीं ,' हाँ, तुम हमारे साथ आ कर रहना चाहो तो यहीं चले जाओ . '
तभी महरी की पुकार आई .वे चली गईं थीं
बाद में मौका देख कर मैंने पूछा था ,'माँ मेरे साथ तो चलोगी न ? '''आता-जाती रहूँगी मुन्ना, पर रहना यहीं चाहती हूँ . अजानी जगह ,कुछ करने-धरने को नहीं, किसी से जान-पहचान नहीं . नई नई जगहों के नये ढंग . अब नहीं कर पाऊंगी . यहाँ पुराने लोग हैं - सब देखा जाना है ,साथ के हैं सब .समझते हैं ,अब तक साथ दिया है माधुरी है,हरषी है मेरी ही उमर की .तीरथ करूँगी,और जो भी अपने को भाए .'
फिर पूछ बैठीं ,
'तुझे भी यही लगता है कि मुझे साथ चली जाना चाहिये था.'
'नहीं माँ .तुम्हारा मन न माने तो बिलकुल नहीं ...?'
'मुन्ना, ये सब बातें मैने वसु के आगे कभी नहीं खोलीं .उसके सीधे-सरल मन में क्यों बाप के लिए कड़ुआहट भर दूँ .उसने अभी देखा ही क्या है ..उसके साथ निभा लें तो अच्छा ही है .ससुराल में लड़की के बाप के नाम को जानते-पूछते हैं सब.'
*
उस दिन माँ का मन बहुत संतप्त था.
पिता ने जिस अधिकार से उनके जाने की बात उठाई , उन्हें गहरे चुभी थी.
.बेटी की बिदा से उत्पन्न रिक्तता में उनका अतीत उमड़-घुमड़ कर टकरा रहा था .
उस रात पहली बार वे मेरे सामने रोई थीं .
वसु चली गई थी. घर में खालीपन छाया था. उनका संताप से भरा मन कुछ कहने को आकुलाया होगा .
बेटी का ब्याह एक बड़े अनुष्ठान के समान संपन्न किया था उन्होंने ,पूरी निष्ठा से कि, कहीं कोई त्रुटि न रह जाय .
कन्या-दान में बाप आ गए थे . माता-पिता गठबंधन से बैठे - पूरी विहित भूषा में रहीं वे ,सिंगार के साथ विधि-विधान से सिन्दूर-टीका उसी का उपादान रहा था.सच में उनका मन प्रसन्न था .कहीं कोई कसर न रह जाये पूरी कोशिश रही थी .उनके ही शब्दों में ,'बेटी को किसी बात की जवाबदेही न करनी पड़े .मैंने पूरी ड्यूटी निभाई.'
अब तक का किया-धरा सफल हुआ था . बेटी को ऐसा घर- वर मिला जैसा उनकी स्थिति में सोचना भी मुश्किल था .उनकी खुशी का पार नहीं .सारी औपचारिकताएँ तुष्ट मन से पूरी करती रहीं.
पर सब कुछ अच्छी तरह निबटाकर भी उनका मनउन बोलों से बिंध गया था जो बाद में सुनने को मिले .वसु नहीं थी ,घर ,उस स्निग्ध माधुर्य से रहित जैसे काटने को दौड़ रहा था .
माँ अकेली रह गई थीं .उनका मौन रुदन मुझसे देखा नहीं जा रहा था. पर मैं विवश ,कुछ नहीं कर पाया.धीरज देने को कुछ बोलता रहा पर उन्हें सांत्वना हो ऐसा कुछ नहीं था मेरे पास कहने को .
अब तक कभी ध्यान नहीं गया था ,उस दिन माँ बहुत थकी लगीं ,बहुत शिथिल -सी !
उन्हें अब मन का चैन चाहिये, विश्राम चाहिये! जीवन-क्रम में थोड़ा बदलाव, कुछ नयापन आए तो फिर से चेत जागेगा -मुझे उनके लिए लग रहा था .
पर मैं तो दो दिन और हूँ , फिर चला जाऊंँगा . माँ को तो यहीं रहना है !
इनके लिए कुछ परिवर्तन ज़रूरी है .कुछ दिनों के लिए कहीं घुमाने ले जाने से, मन बदलेगा यही सोचता रहा .
पर मैं तो दो दिन और हूँ , फिर चला जाऊंँगा . माँ को तो यहीं रहना है !
इनके लिए कुछ परिवर्तन ज़रूरी है .कुछ दिनों के लिए कहीं घुमाने ले जाने से, मन बदलेगा यही सोचता रहा .
*
बाद में मीता ने उनसे पूछा था,'उस दिन आपको देख कर बहुत अच्छा लग रहा था ..अब ऐेसे ही खुश-खुश रहिये, माँ '
वे मुस्करा दीं .
उन्होंने कहा था -लोगों का एक ही प्रश्न- पति ले जा रहे थे उनके साथ क्यों नहीं गईँ?कुछ ने पूछ भी लिया सुहागिन हो कर रह रही हो ,फिर अकेली काहे के लिए?
वे मुस्करा दीं .
उन्होंने कहा था -लोगों का एक ही प्रश्न- पति ले जा रहे थे उनके साथ क्यों नहीं गईँ?कुछ ने पूछ भी लिया सुहागिन हो कर रह रही हो ,फिर अकेली काहे के लिए?
' दूसरे के लिए कहने में किसे ज़ोर पड़ता है माँ ,उनकी चिन्ता ही किसे है ?'
'औरतें तो और भी...मंडप में पाँव धरते ही मैंने देख लिया था - आँखें फाड़-फाड़ कर देखती स्त्रियाँ एक दूसरी दूसरे से कानाफूसी रहीं थीं . वही जो पराये औगुन खोज कर अपने गुन दिखाने में पीछे नहीं रहतीं-अच्छी ,पढ़ी-लिखी, औरों पर अपने ही निष्कर्ष लादने को तुली दूसरी औरत पर आक्षेप करने से कब चूकती हैं ? उद्देश्य ये कि उसे नीचा दिखा कर अपनी श्रेष्ठता जताना !'
'औरतें तो और भी...मंडप में पाँव धरते ही मैंने देख लिया था - आँखें फाड़-फाड़ कर देखती स्त्रियाँ एक दूसरी दूसरे से कानाफूसी रहीं थीं . वही जो पराये औगुन खोज कर अपने गुन दिखाने में पीछे नहीं रहतीं-अच्छी ,पढ़ी-लिखी, औरों पर अपने ही निष्कर्ष लादने को तुली दूसरी औरत पर आक्षेप करने से कब चूकती हैं ? उद्देश्य ये कि उसे नीचा दिखा कर अपनी श्रेष्ठता जताना !'
और पति ? हाँ ,फेरे लिए थे , .मेरी बेटी के बाप -लाचार थी .निभा दिया मैंने.'
'समझ रही हूँ माँ ,और कोई समझे न समझे .मैं आपको समझती हूँ .आपने ठीक किया .'
पारमिता के अपनत्व भरे व्यवहार से माँ को सदा मनोबल मिलता है .
एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि स्त्री हो तो उसके वैवाहिक परिप्रेक्ष्य पर ध्यान क्यों टिक जाता है ?अगर विवाह-चिह्नों की बात न हो ,तो आजीविका हेतु कार्य करनेवाली स्त्रियों में विधवा,विवाहिता और सुहागिन में क्या कोई भेद रहता है?
एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि स्त्री हो तो उसके वैवाहिक परिप्रेक्ष्य पर ध्यान क्यों टिक जाता है ?अगर विवाह-चिह्नों की बात न हो ,तो आजीविका हेतु कार्य करनेवाली स्त्रियों में विधवा,विवाहिता और सुहागिन में क्या कोई भेद रहता है?
यह भी कि पति की हर ज़रूरत पत्नी के पल्ले बाँध दी
जाय या समर्थ हो कर भी संतान का माँ पर निर्भर हो रहने का चाव उमड़ता रहे ,यह उसके प्रति
प्यार नहीं केवल अपना सुख देखने का स्वार्थ लगता है मुझे .वह कहे नहीं चाहे , और सबके
सुख में अपनी सार्थकता खोजती रहे , पर एक व्यक्ति होने के नाते,अपने लिए भी
थोड़ा जी सके इतना अवकाश कोई क्यों नहीं छोड़ता ?
- पर यह मेरी सोच है ,दुनिया अपनी सुविधा से चलती है
हाँ,उसकी बात पर माँ ने कहा था-
'अब अपने हिसाब से जीना चाहती हूँ . किसी के कहने का डर नहीं .बच्चे सँभल गए ,वे खुश रहें !मेरे जैसे और लोग भी हैं ,कुछ और मत सोचना, .मेरे साथ की टीचर्स ,जिनने जीवन को झेला है ,उनकी अपनी कहानियाँ है .एक-दूसरे को समझते हैं और एक दूसरे का सहारा है .अब दुनिया देखने का चाव जगा है .कुछ तीर्थ आदि भी . ..'
उनमें एक परिवर्तन लक्षित था .माथे पर धीमी रह जानेवाली बिंदिया चमकने लगी थी.
*
'चलो माँ ,कहीं चलें कुछ दिनों के लिए ,कहीं सैर कर आएँ .'जाने से पहले ,मैंने प्रस्ताव रखा था.
'अब अपने हिसाब से जीना चाहती हूँ . किसी के कहने का डर नहीं .बच्चे सँभल गए ,वे खुश रहें !मेरे जैसे और लोग भी हैं ,कुछ और मत सोचना, .मेरे साथ की टीचर्स ,जिनने जीवन को झेला है ,उनकी अपनी कहानियाँ है .एक-दूसरे को समझते हैं और एक दूसरे का सहारा है .अब दुनिया देखने का चाव जगा है .कुछ तीर्थ आदि भी . ..'
उनमें एक परिवर्तन लक्षित था .माथे पर धीमी रह जानेवाली बिंदिया चमकने लगी थी.
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'चलो माँ ,कहीं चलें कुछ दिनों के लिए ,कहीं सैर कर आएँ .'जाने से पहले ,मैंने प्रस्ताव रखा था.
'चलूँगी मुन्ना, पर अभी तो यहाँ का सारा पसारा समेटना है .'
लगा जैसे अपने से ही बात कर रही हों,' अभी पूरी निश्चिंती कहाँ ? तेरा जीवन भी ढर्रे पर आये तो चैन पड़े मुझे.'
'जरूर आएगा माँ '
'सच में ! ' उनके तो चेहरे का भाव बदल गया ,'तू तैयार है शादी को ?'
'सब कुछ करूँगा जो करना चाहिये .'
तब अपने मन की बात कह डाली उन्होंने,' हाँ , मेरा नर्मदा मैया की परिक्रमा का मन है .इधर से निपट कर वही करना चाहती हूँ .'
'अकेली ?'
'अकेली कहाँ ? साथ होते हैं कितने यात्री . समान भाव ,समान चर्या .अपना-पराया कुछ नहीं -यहाँ का बीता यहीं छोड़ ,आगे बढ़ चलते हैं ... उतने दिन दुनिया के झंझटों से मुक्ति मिलती हो शायद ... !'
लगा जैसे अपने से ही बात कर रही हों,' अभी पूरी निश्चिंती कहाँ ? तेरा जीवन भी ढर्रे पर आये तो चैन पड़े मुझे.'
'जरूर आएगा माँ '
'सच में ! ' उनके तो चेहरे का भाव बदल गया ,'तू तैयार है शादी को ?'
'सब कुछ करूँगा जो करना चाहिये .'
तब अपने मन की बात कह डाली उन्होंने,' हाँ , मेरा नर्मदा मैया की परिक्रमा का मन है .इधर से निपट कर वही करना चाहती हूँ .'
'अकेली ?'
'अकेली कहाँ ? साथ होते हैं कितने यात्री . समान भाव ,समान चर्या .अपना-पराया कुछ नहीं -यहाँ का बीता यहीं छोड़ ,आगे बढ़ चलते हैं ... उतने दिन दुनिया के झंझटों से मुक्ति मिलती हो शायद ... !'
चकित -सा उनका मुख देखे जा रहा हूँ.
' ..पुष्पी और सुधा दोनों साथ चलने को कह रही हैं, और दो-एक जन भी...'
'मैं भी चलूँ ?'
अभी नई नौकरी है ,..इतनी छुट्टी कहाँ ?'
हाँ , ठीक कह रही हैं वे .
'मैं भी चलूँ ?'
अभी नई नौकरी है ,..इतनी छुट्टी कहाँ ?'
हाँ , ठीक कह रही हैं वे .
मैं भी तो जाना चाहता हूँ , कब से सोच रहा हूँ .
जाऊँगा !
पर जाऊँगा अकेला ही , मुझे किसी का साथ नहीं चाहिये अब !
*
(क्रमशः)