शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

कथांश - 23 .

*
वसु की बिदा के बाद पापा ने मुझसे कहा था ,'मैं  जा रहा हूँ ,अपनी माँ को भेजने की  तैयारी कर रखना.' 
 उनकी बात सुन कर चौंक गया ,मैं ,माँ को अपने पास रखने का सोचे था.
'उनकी तैयारी ? आपने बात कर ली ?'
'उसमें बात क्या करना ,जायेंगी क्यों नहीं ?वहाँ घर है फिर मै भी अब ठीक नहीं रहता....  '
'अभी तो उनकी सर्विस बाकी है ..'
'अरे क्या सर्विस !प्री-रिटायरमेंट लीव ली जा सकती है. वैसे  लोग पहले भी रिटायरमेंट भी ले लेते हैं .अब तुम भी चले जाओगे तो....'
इतने में चाय ले कर माँ आ गईँ ,' किसके जाने की बात?
 'तुम्हारी ..चलो अब. अकेली यहाँ कहाँ पड़ी रहोगी ?'
 'पड़ी हूँ यहाँ मैं ?ये मेरा घर है ..यहाँ से कोई मुझे निकाल नहीं सकता .वहाँ क्या है मेरा ?'
' मैं तो ख़ुद  कह रहा हूँ - अपने घर चलो .इस उमर में सबको सहारा चाहिए होता है.'
'किस उमर में नहीं चाहिए होता ?  तुमने बिना औरत के काम चला लिया क्या ? और मैं जब भरी जवानी में यहाँ पड़ी रही -ऊपर से बच्चों को सँभाला  तब किसी ने  सोचा ?तब भी मैंने पूरी कोशिश की थी ,वहाँ तुमने नहीं रहने दिया  .अब मेरा घर यही है .दिन-रात एक कर  जड़ें जमाईं हैं .मैं यहीं रहूँगी..'
'मान रहा हूँ गलती हो गई पर अब सब ठीक हो जायेगा..'
'और वह कहाँ है ?'
'मुझे उससे कोई मतलब नहीं ,ऐसी फ़ालतू औरतें ....'
'देखो, बेकार दोष मत दो उसे .कोई ब्याहता तो थी नहीं .जो तुम्हारा पट्टा पहने रहती '
'तभी तो तुमसे कह रहा हूँ अपने घर चलो '
'मेरी अब कहीं और जाने इच्छा नहीं . फेरे लिए थे उसका भरना अब तक भरती रही .कभी अपना ध्यान भी नहीं आया कि मेरी अपनी ज़रूरतें भी हो सकती हैं .अब निश्चिन्त हुई  तो फिर....'
'तुम समझती क्यों नहीं ..? '
लगा अभी चिल्ला पड़ेंगे ,माँ के ऊपर गुस्सा होने की पुरानी आदत !
ओह ,अब भी अपना ही अधिकार समझे बैठे हैं  ,माँ के चेहरे पर वितृष्णा झलक उठी. ..
वे बीच में बोलीं ,'बेकार गुस्सा मत दिखाना  ,यहाँ कोई तमाशा  खड़ा नहीं किया जाएगा .चार लोगों में मेरी इज्ज़त है.. .'
वे चुप हो गए थे
'वहाँ मेरे लिए क्या है जानती हूँ .यहाँ मेरा काम है, मेरी  पहचान है ,.और तुम  ?..किसी को बता कर आए हो कि बेटी की ब्याहने जा रहा हूँ ?"
कुछ बोले नहीं , कुछ किया हो तो बताएँ भी .
वे अपनी ही कहती रहीं ,' हाँ, तुम हमारे साथ आ कर  रहना चाहो  तो यहीं चले जाओ . '
  तभी महरी की पुकार  आई  .वे चली गईं थीं
बाद में मौका देख कर मैंने पूछा था ,'माँ  मेरे साथ  तो चलोगी न ? '''आता-जाती रहूँगी मुन्ना, पर  रहना यहीं चाहती हूँ . अजानी  जगह ,कुछ करने-धरने को नहीं, किसी से जान-पहचान नहीं . नई नई जगहों के नये ढंग . अब नहीं कर पाऊंगी . यहाँ पुराने लोग हैं  - सब देखा जाना है ,साथ के हैं सब  .समझते हैं  ,अब तक साथ दिया है माधुरी है,हरषी है मेरी ही उमर की .तीरथ करूँगी,और जो भी अपने को भाए .'
फिर पूछ बैठीं ,
'तुझे भी यही लगता है कि मुझे साथ चली जाना चाहिये था.'
'नहीं माँ .तुम्हारा मन न माने तो बिलकुल नहीं ...?'
'मुन्ना, ये सब बातें मैने वसु के आगे कभी नहीं खोलीं .उसके सीधे-सरल मन में क्यों बाप के लिए कड़ुआहट भर दूँ  .उसने अभी  देखा ही क्या है ..उसके साथ निभा लें तो अच्छा ही है .ससुराल में लड़की के बाप के नाम को जानते-पूछते हैं सब.'
*
उस दिन माँ का मन बहुत संतप्त था.
पिता ने जिस अधिकार से उनके  जाने की बात उठाई , उन्हें गहरे चुभी थी.
.बेटी की बिदा से उत्पन्न रिक्तता में उनका अतीत उमड़-घुमड़ कर  टकरा रहा था .
उस रात पहली बार वे मेरे सामने रोई थीं .
वसु चली गई थी. घर में  खालीपन छाया था. उनका संताप से भरा  मन  कुछ कहने को आकुलाया  होगा  .
 बेटी का ब्याह एक बड़े अनुष्ठान के समान संपन्न  किया था उन्होंने ,पूरी निष्ठा से कि, कहीं कोई त्रुटि न रह जाय .
कन्या-दान में बाप आ गए थे . माता-पिता गठबंधन से बैठे - पूरी विहित भूषा में रहीं वे ,सिंगार के साथ  विधि-विधान से सिन्दूर-टीका  उसी का उपादान रहा था.सच में उनका मन प्रसन्न था .कहीं कोई कसर न रह जाये पूरी कोशिश  रही थी .उनके ही शब्दों में ,'बेटी को किसी बात की जवाबदेही न करनी पड़े .मैंने पूरी ड्यूटी निभाई.'

अब तक का किया-धरा सफल हुआ था . बेटी को  ऐसा घर- वर मिला  जैसा उनकी स्थिति में  सोचना भी मुश्किल था .उनकी खुशी का पार नहीं .सारी औपचारिकताएँ तुष्ट मन से पूरी करती रहीं.
 पर सब कुछ अच्छी तरह निबटाकर भी उनका मनउन बोलों से बिंध गया था जो बाद में सुनने को मिले .वसु नहीं थी ,घर ,उस स्निग्ध माधुर्य से रहित  जैसे काटने को दौड़ रहा था .

माँ अकेली रह गई थीं .उनका मौन रुदन मुझसे  देखा नहीं जा रहा था. पर मैं विवश ,कुछ नहीं कर पाया.धीरज देने को कुछ बोलता रहा पर उन्हें सांत्वना हो ऐसा कुछ नहीं था मेरे पास  कहने को .
अब तक कभी ध्यान नहीं गया था ,उस  दिन माँ बहुत थकी लगीं ,बहुत शिथिल -सी !
 उन्हें अब  मन का चैन चाहिये, विश्राम चाहिये!  जीवन-क्रम में थोड़ा बदलाव, कुछ नयापन आए तो फिर से  चेत जागेगा -मुझे उनके लिए लग रहा था . 
पर मैं तो  दो दिन और हूँ , फिर  चला जाऊंँगा . माँ को तो यहीं रहना है !
इनके लिए कुछ  परिवर्तन ज़रूरी है .कुछ दिनों के लिए कहीं घुमाने ले जाने से, मन बदलेगा यही सोचता रहा .
*
बाद में मीता ने उनसे पूछा था,'उस दिन आपको देख कर बहुत अच्छा लग रहा था ..अब ऐेसे ही खुश-खुश रहिये, माँ '
वे मुस्करा दीं .
 उन्होंने कहा था -लोगों का  एक ही प्रश्न- पति ले जा रहे थे उनके साथ क्यों नहीं गईँ?कुछ ने पूछ भी लिया  सुहागिन हो कर रह रही हो ,फिर अकेली काहे के लिए?
' दूसरे के लिए कहने में  किसे ज़ोर पड़ता है माँ ,उनकी चिन्ता ही किसे  है  ?'
'औरतें तो और भी...मंडप में पाँव धरते ही  मैंने देख  लिया था - आँखें फाड़-फाड़ कर देखती स्त्रियाँ एक दूसरी दूसरे से कानाफूसी  रहीं थीं . वही जो पराये औगुन खोज कर अपने गुन दिखाने में  पीछे नहीं रहतीं-अच्छी ,पढ़ी-लिखी, औरों पर अपने ही निष्कर्ष लादने को तुली  दूसरी औरत पर आक्षेप करने से कब चूकती हैं ? उद्देश्य ये कि उसे  नीचा दिखा कर अपनी श्रेष्ठता जताना !'
  और पति  ? हाँ ,फेरे लिए थे   , .मेरी बेटी के बाप  -लाचार थी  .निभा दिया मैंने.'
 'समझ रही हूँ माँ ,और कोई समझे न समझे .मैं आपको समझती हूँ .आपने ठीक किया .'
पारमिता के अपनत्व  भरे व्यवहार से  माँ को सदा  मनोबल मिलता है .
एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि स्त्री हो तो  उसके वैवाहिक परिप्रेक्ष्य पर ध्यान क्यों टिक जाता है ?अगर विवाह-चिह्नों की बात न हो ,तो आजीविका हेतु कार्य करनेवाली स्त्रियों में  विधवा,विवाहिता और सुहागिन में क्या कोई भेद रहता है?
यह भी कि पति की हर ज़रूरत पत्नी के पल्ले बाँध दी जाय  या समर्थ हो कर भी संतान  का माँ पर निर्भर हो रहने का चाव उमड़ता रहे ,यह उसके प्रति प्यार नहीं केवल अपना सुख देखने का स्वार्थ लगता है मुझे .वह कहे नहीं चाहे , और सबके सुख में अपनी सार्थकता खोजती रहे , पर एक व्यक्ति होने के नाते,अपने लिए भी थोड़ा जी सके इतना अवकाश कोई क्यों नहीं छोड़ता ?
- पर यह मेरी सोच है ,दुनिया अपनी  सुविधा से चलती है 
हाँ,उसकी बात पर माँ ने कहा था-
'अब अपने हिसाब से जीना चाहती हूँ . किसी के कहने का डर  नहीं .बच्चे सँभल गए ,वे खुश रहें !मेरे जैसे और लोग भी हैं ,कुछ और मत सोचना, .मेरे साथ की टीचर्स ,जिनने जीवन को झेला है ,उनकी अपनी कहानियाँ है .एक-दूसरे को समझते हैं और एक दूसरे का सहारा है .अब  दुनिया देखने का चाव जगा है .कुछ तीर्थ आदि भी . ..'
उनमें एक परिवर्तन लक्षित था  .माथे पर धीमी रह जानेवाली बिंदिया चमकने लगी थी.
*
 'चलो माँ ,कहीं चलें  कुछ दिनों के लिए ,कहीं सैर कर आएँ .'जाने से पहले ,मैंने प्रस्ताव रखा था.
'चलूँगी मुन्ना, पर अभी तो यहाँ का सारा पसारा समेटना है .'
लगा जैसे अपने से ही बात कर रही हों,' अभी पूरी निश्चिंती कहाँ ? तेरा जीवन भी ढर्रे पर आये तो चैन पड़े मुझे.'
'जरूर आएगा माँ '
'सच में ! ' उनके तो चेहरे का भाव बदल गया ,'तू  तैयार है शादी को   ?'
'सब कुछ करूँगा जो करना चाहिये .'
तब  अपने मन की बात कह डाली उन्होंने,' हाँ , मेरा नर्मदा मैया की परिक्रमा  का मन है .इधर से निपट कर वही करना चाहती हूँ  .'
 'अकेली ?'
'अकेली कहाँ ? साथ होते हैं कितने यात्री . समान भाव ,समान चर्या .अपना-पराया कुछ  नहीं -यहाँ का बीता यहीं छोड़  ,आगे बढ़ चलते हैं  ... उतने दिन दुनिया के झंझटों से मुक्ति मिलती हो  शायद ...  !'
चकित -सा  उनका मुख  देखे जा रहा हूँ.
' ..पुष्पी और सुधा  दोनों साथ चलने को कह रही हैं, और दो-एक जन भी...'
'मैं भी चलूँ ?'
अभी नई नौकरी है ,..इतनी छुट्टी कहाँ ?'
हाँ , ठीक कह रही हैं वे .
 मैं भी तो जाना  चाहता हूँ , कब से सोच रहा हूँ .
 जाऊँगा !
पर जाऊँगा अकेला ही , मुझे किसी का साथ नहीं चाहिये अब ! 
*
(क्रमशः)

सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

कथांश - 22.

*
 वसु के विवाह की तारीख तय होने पर माँ ने कहा था
'मुन्ना, मेरा एक कहा मानेगा ?
मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि के उत्तर में बोलीं
'शादी में पिता का होना बहुत ज़रूरी है उन से बात कर.'
 'वे अब वहाँ नहीं रहते ..'
'तुझे कैसे पता?
'पता लगाया था मैंने ..मकान में कब से  ताला पड़ा है. '
'जरूर आते होंगे मकान है तो  ,पड़ोस में पता किया? .'
'नहीं.'
'मुझे जाना होगा.'

 ' ऐसी-वैसी कोई बात न निकल आए  ,बोलनेवालों की कोई  कमी है यहाँ ?बेटी  ब्याहने जा रही हूँ .  उसका मुख उजला रहे और मेरा भी . पिता हैं तो उन्हें ,होना चाहिये .मंडप में बैठी बेटी का हाथ सौंप जायें. उनके हाथ से कन्यादान हो जाये तो सारा किया-धरा सकारथ हो जाये .'
' पर तुम वहाँ जा कर क्या कर लोगी ?"

' पहचानवालों से मिलूँगी , पता करूँगी ,उनके साथ के लोगों को जरूर पता होगा . सिर उठा कर जी सकें मेरे निर्दोष बच्चे ... मैं  जाऊँगी. उनसे कुछ नहीं चाहती  पर उसके लिए बुलाना होगा  .'
गईँ थीं माँ .
ऑफ़िस के पुराने दोस्त से उनका पता मिल गया .उन्हीं से  'कोई खास बात हो तो ख़बर दे देना 'कह गए थे..
माँ को पता चलीं  तमाम बातें .. वह औरत उन्हें चाट गई .खूब पीने लगे हैं  आते हैं छठे -छमाहे .सभी  से कटे-कटे रहते हैं .
माँ ने ही चिट्ठी-पत्री की  .
मुझे दी थी चिपका कर डालने को ,मुझसे रहा नहीं गया   खोल कर देख  ली .
कुछ खास नहीं .ऊपर ' श्री मान जी '

एकाध औपचारिक लाइन के बाद लिखा था -
दुनिया की आँखों में जो प्रश्न होते हैं ,क्या उत्तर दें ?इन  निर्दोष बच्चों को कैसा कुंठित जीवन मिला है  .लड़के ने  मेरी लाज रख ली .लायक निकला .
अब बेटी ब्याही जा रही है किस्मत से  घर-वर अच्छा  है पर वह सिर उठा कर जी सके ,कोई दाग उसके माथे पर न  रह जाए . शान्ति से जी सके बस, यह चाहती हूँ .मेरी तो निकल गई अब इन बच्चों को वो सब न झेलना पड़े.

 एक बार आकर शकल दिखा जाओगे तो सब को भरोसा हो जायेगा ,मैं लाख करूँगी तो भी लोगों के मनों में शंका रहेगी.तुम सामने  खड़े भी हो जाओगे तो सब विश्वास कर लेंगे .मेरी मजबूरी है, इन बच्चों के लिए ही ज़िन्दा हूँ ,..
कुछ नहीं चाहूँगी ,कुछ नहीं कहूँगी ,मेहमान बन रहना अपनी मर्जी से .बस एक विनती -उसे मत लाना यहाँ .उस अतीत को सबसे दबाए हूँ .वह मुझसे नहीं सहन होगा .तुम्हारी ये बातें किसी से कह भी नहीं सकती ,कि कहीँ तुम्हारा बेटा होने के नाते उसके आचरण पर भी लोगों को शंका रहे ... . '
आगे कुछ विशेष नहीं
नीचे केवल  'ललिता '- माँ का नाम !
माँ के लिए बहुत लगता रहा था ,अब भी लगता है.
*
वे आए थे ,विवाह से  एक दिन पहले  .

पहचान में नहीं आ रहे थे , देह घिस गई थी -एकदम हाड़-हाड़ .
रस्में शुरू हो चुकी थीं .वसु मंडप तले पटे पर बैठी थी ,  सुहागिने तेल चढ़ाने का उपक्रम कर रहीं थी . जैसे ही सुना  - 'पिता जी आए हैं ' - मामा की लाई  पचिया पहने ही उठ कर भागी .'पापा ,मेरे पापा..'..आगे गला रुँध गया , आवाज़ नहीं निकल रही आँखों से आँसू बह रहे हैं .
 आँखें धुँधला गईं पर जो नया व्यक्ति आया है उसे पहचानने की जरूरत किसे ? 

वही आया है आज  है जिसके लिए अंतर से  टेर उठती रही . जा कर लिपट गई .' आ गये पापा,
कितना तरसी हूँ  ...अब मत जाना ,पापा ..' हिलक-हिलक कर रो उठी.

'सब लोग हमें  कैसे देखते  थे ,हमारे पास कोई जवाब नहीं ..' था वह हिचकी ले-ले कर बोल रही थी, ' कितना बुरा लगता था पापा...'
'मैं भी बहुत पछताया हूँ बेटा '

ध्यान से देखते रहे  बेटी का मुख,'' अपनी माँ  की पूरी छाप ,न कोई कहता तो भी पहचान लेता. '
'माफ़ करना  बेटा , तुम सब के साथ बड़ी नाइंसाफी की .फल भुगत रहा हूँ ....' सीने से लग गई थी वसु रोए जा रही थी लगातार .
मुझसे देखा नहीं जा रहा था.मन का रोका हुआ  बाँध सबके सामने फूट न पड़े !
आँखें छिपाता चला आया वहाँ से .

अरे ,पारमिता क्यों यहाँ खड़ी रो रही है ?हाथ में  कटोरी लिये .
आँसू पोंछती बोली,' मैं खुश हूँ ,कितना अच्छा हुआ !'
मंडप में जा कर बोली,' ये उबटन , दूल्हे का  छुआ हुआ दुल्हन के लिए . हमारे यहाँ यही  लगता है  तेल के बाद .'..
नाउन आईं थीं बुलाने,' बिटिया चलो, तेल को मुहूरत निकरो जात है..'

सब ने कहा -अब तो आ  गये हैं. इत्मीनान से मिलना बात करना .

किसी ने  देखा नहीं था, उत्सुकता  सभी को थी . 
'बिटिया का कन्यादान  करने आए हैं ,आखिर को बाप हैं !'
 बड़ी मुश्किल से समझा कर वसु को भेजा गया  ,भीगी आँखों के साथ धुली हुई मुस्कान उसके मुख पर खिल उठी थी.
*
 उन्होंने कहा था.' कैसा दिमाग फिर गया था मेरा. ..'
 नाउन आकर पंडिताइन से बोली .'.आज कबूले हैं बाबू. उन पे कौनो टोना कर दिया गया रहे ! ।"
 महरी कैसे चुप रहतीं  ,'अइस  चूस लेती हैं ,ई कहो बचि गए .आय गए  ..'
 सुना-सुनी में बात फैली ' बिरजू के बाबू  आय गए ,उन पर जौन टुटका भा रहे ,अब निकरिगा ... '
' तभै तो हम कहें ,इत्ती सुघर मेहरिया अउर आपुन औलाद कइसे बिसराय गए ?'

'कुछू पूछो मत अइस मंतर फुँकती हैं कि मानुस भेड़ा बन के रहि जात है .
मंतर की पता नहीं हमें तो पता है कुछ ऐसा-वैसा खबाय देती हैं और उनहिन के बस में हुई जात है मरद का और कुछू दिखाई सुनाई नाहीं देत'.
वाह ! गया सारा दोष किसी  अनजान मेहरिया पर , और वे बन गए बेचारे !
*
पिता दो हीरे जड़ी अँगूठियाँ लाये थे .माँ को देकर बोले,' एक तो इस विवाह के लिए  हमारी अँगूठी थी न ,बहुत ढीली हो गई थी.अब कौन पहनेगा !एक और तुम्हारे लिए ..." कह कर माँ का मुख देखने लगे .
'अब मैं क्या ....मुन्ना की बहू के लिए रख लेती हूँ. आकर  दे देना अपने हाथों .'
'मैं  बहुत शर्मिन्दा हूँ .'
'यहाँ आ गए यही बहुत है हमारे लिए ' माँ ने कहा था .


मंडप में रमन बाबू को देख  कर पहचान लिया उनने ,'अरे रमन ?"
 तुम ..माधो हो  .दसवीं के बाद आज देखा ..?
 पिता का नाम माधव प्रसाद है न !
दोनों गले लग गए,' कैसी शकल निकल आई है .क्या हो गया तुम्हे ?'
कहते क्या .शराब ने पी लिया था उन्हें .
अधिक खोज-बीन फिर किसी ने नहीं की ,

विवाह की कार्यवाहियों  में सब व्यस्त हो गए , रायसाब का उत्साह बढ़ गया था .
*
जयमाल संपन्न हुई  .खान-पान के साथ हँसी-ठिठोली चल रही थी
 किसी समधी ने  फर्माइश की -
' वो वाला गाना लगाओ हमारी शादीवाला '
'कौन-सा? कौन सा ?'
के बाद गाना लगा -
'समधिन तेरी घोड़ी चने के खेत में .
..चने को लग गया पाला ,समधिन को ले गया बरात का बाजेवाला '
.'फिर . काई ...  नाई ,
'अरे, ये तो बड़ा ज़ोरदार गाना है .'
'इतना पुराना गाना वाह !'
हुँह,  आज के गाने क्या बराबरी करेंगे पहले होते थे असली  गाने '
खूब मज़े लिए सब ने .
समधिन की बात आते ही ,माँ की ओर नज़रें उठ जाती थीं ,
'हाँ ,हाँ, वर के फूफा को भी दुल्हन की माँ बहुत पसंद आईं !'
पिता छिपी दृष्टि से माँ का मुख देख रहे हैं .
शुभ कामों में पहनी जानेवाली लाल पाड़ की साड़ी पहने हैं वे ,
 सफ़ेद हो आये केशों में सिन्दूर की गहरी लाल रेखा आज ही देख रहा हूँ .अब तक कभी ध्यान नहीं गया लगाती भी थीं कि नहीं ,और माथे पर बड़ी सी लाल बिन्दी .
 मुख जगमगा रहा है !
मैंने फ़ोटोग्राफ़र से कहा , 'माँ  की एकाध फ़ोटो अलग से भी ,और हाँ ,पापा के साथ ज़रूर ले ले.'
 मेरी माँ को आज कहीं किसी की  नज़र न लग जाय !

*
(क्रमशः)

बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

भूख का तमाशा.

*
पीछे वाले  क्रीक के दोनों ओर बाजरे  जैसी कलगी वाली लंबी-लंबी घासें उग आई  हैं.फिर ऊँचे पेड़ों की पाँत, साइकिल और पैदल वालों की  लेन के बीच के ढाल को , कवर करती हुई . सड़क की सतह लेन से भी कुछ ऊँची और बीच में फिर वनस्पतियों का भराव .ऊँचे पेड़ों के साथ  रोज़मेरी और अन्य झाड़ियों की पूरी शृंखला साथ चलती है .कहीं-कहीं  काँटेदार ब्लैक-बेरीज़ भी हैं .
आगे जाकर क्रीक का प्रवाह  ताल में परिणत हो गया है.अच्छा जीवन्त  है ताल - मछलियाँ ,बगुले ,सुना है कछुए भी हैं .पर बतखें तो खूब हैं ,'क्वेक-क्वेक' करती जल में तैरती रहती हैं .अब तो लोगों ने वहाँ मछलियाँ पकड़ना भी शुरू कर दिया है.
 आसमान में  बक-पंक्ति की उड़ान जब-तब लहरा जाती  है  .ताल में भी एक टाँग पर खड़े ध्यानस्थों के  दर्शन सुलभ हैं .जल-पक्षियों की क्रेंकार से परिवेश मुखरित रहता है.पेड़ और झाड़ियाँ तो चारों ओर हैंं ही , दो ओर खुली जगह भी, जिन पर पड़े बड़े-बड़े पत्थरों पर आराम से बैठा जा सकता है.अब दो  बेंचें भी आ गई हैं  . हरे भरे पेड़ों के नीचे बैठने का अपना ही आनन्द है.पहले अक्सर से खाली रहती थीं . अब लोग आने लगे हैं ,अपने बच्चों को भी लाते हैं, जल-पक्षी दिखाने. 
 खेल-खेल में बच्चे  खाने की चीज़ें बतखों को भी डालने लगे.
जब से बच्चों ने खाने की चीज़ें डालना शुरू किया वे परच गईं,  लोगों को देखते ही  सजग हो जाती हैं  हैं , लोग भी उन्हें चुगाने का आनन्द उठाने लगे .जब बतखें  चोंचें फैला कर लपकती हैं , बच्चे उछलते हैं.
 सब ख़ुश हो कर देखते हैं वह तमाशा !
      इस साल ताल को काफ़ी सँवारा गया.जाड़े बीतते ही  चहल-पहल भी बढ़ने लगी -बच्चों के साथ बड़े भीउन्हें  खिलाने को  दाने या ब्रेड के पीसेज़ आदि लाने लगे .वे भी खूब हिल  गईँ , जल से बाहर आने लगीं .शुरू में दो-चार आईँ  ,देखा-देखी  हिम्मत बढ़ने लगी . अब तो 20-20,25-25 के झुंड निकल आते हैं .खाना डालने बाले बच्चों के हाथ से भी झपटने की कोशिश कर लेती हैं, कोई- कोई तो . जब वे ब्रेड के टुकड़े फेंकते हैं और वे फ़ुर्ती से बीच हवा में लपक लेती हैं.
पहले  बतखें मुझसे डरती थीं .पानी के समीप जाऊँ  तो एक ओर सिमट जाती थीं .
सब को देख कर मैं भी  खाने की चीज़ें लाकर डालने लगा . थोड़ा-थोड़ा फेंकता रहता ,वे पास आ जातीं उछल-उछल कर खाती रहतीं .एक क्रम-सा बन गया था.वे भी खुश ,हम भी खुश !
मौसम ने करवट ली .दिन छोटे होने लगे ,सब अपने में व्यस्त होने लगे  गए .झील पर आना कम हो गया
फिर आईँ बड़े दिन की  छुट्टियाँ .क्रिसमस की हलचल, मनोरंजन के नये विषय. सब अपने आयोजनों-प्रयोजनों में लीन हो गए .
बतखों को कौन याद रखता !
हवाओं में ठंडक घुल गई.ताल पर आने का क्रम भंग होने लगा .बतखों पर मौसम का कोई असर नहीं था,उनकी शामें अब सुनसान हो गईं. झटका लगा होगा ज़रूर .सोचती होंगी कैसे होते हैं आदमी लोग ?
 तब सब खुश हो-हो खिलाते थे ,उत्साह से बतखें दौड़ी चली आती थीं .एकदम सब बंद हो गया .पर उनकी खाने की आदतें बदल गईं .
हम लोग भी तो - पहले कैसे थे , और अब ?
 वे आशा लगाए प्रतीक्षा करती , निराश होती रहीं .
इधर कुछ दिनों से घर पर अकेला हूँ .ताल पर आना कम हो गया है.बच्चों की भी छुट्टियाँ .झील के किनारे कोई नहीं होता .कभी-कभी अकेले ऊब लगने पर वहीं  बेंच पर जा बैठता हूँ .आज फिर निकल गया .उधरवाली बेंच पर बैठ गया .सन्नाटा पड़ा था . अक्सर ही घर से नहीं आता .वैसे भी अकेला होने पर  ध्यान नहीं रहता, खाली हाथ चला आता हूँ
अब  शाम होते-होते यहाँ सन्नाटा पसर जाता है .
मुझे देख ताल में तैरती बतखों की गतिशीलता बढ़ गई .वे इधर ही तैरती आ रही हैं .किनारे तक आकर ठहर गईँ हैं.
इसी ओर देख रही हैं ,मेरी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं .
एकाध  झिझकती सी मेरी ओर आने लगी .मैं चुप  देखता रहा .
 वे  इस ओर सूखे में आ गईँ. मेरी ओर ताके जा रहीं  ,वे आशा लगाए हैं कुछ मिलेगा.पर मेरे हाथ खाली हैं.
'क्वेक-क्वेक' की आवाज़ें उठ रही हैं . वे खाना माँग रही हैं .
'लाओ ,लाओ खाना .हम भूखे हैं...' ,उनकी शिकायतें जारी हैं.
उन्हें  खाना चाहिये पेट भरने को !
लगा जैसे कह रही हों-और कुछ नहीं चाहिये हमें, न कपड़े न घर ,न कोई साज सामान ,सिर्फ़ खाना!..
सारा समेट लिया तुमने हमारी भूख का तमाशा बनाए हो -कैसी मन मानी !'
एकाध बेंच के पास तक चली आई  .छोटीवाली बढ़ कर मेरे पांवों तक आ गई .जैसे कह रही हो  ,'खाना लाओ, लाओ' .
लगातार मेरी ओर देख रही है.
पीछे-पीछे  दूसरी आ कर खड़ी हो गई .अरे, एक और, फिर और. उधर से वे सब इधर चली आ रही हैं-  पूरा झुंड का झुंड.
उन्हें खाना चाहिये -वे इकट्ठी हो गई हैं .
'क्वेक-क्वेक,  क्रें-क्रें, ' के स्वरों में  तीखापन आता जा रहा है  ,जैसे क्रोध से भरती जा रही हों .
 मैं चुपचाप बैठा हूँ . कुछ नहीं लाया हूँ उनके लिए .एक  बढ़ती हुई मेरे पाँव तक चली आई .दूसरी उसके पीछे है .पास में  दो-तीन और शिकायत भरी निगाहों से देखे जा रही है .
मैंने,' हुश-हुश ' कर भगाना चाहा .वह थोड़ा हटी पर वहीं डटी रही .पीछेवाली के बराबर में खड़ी है वह .
वह निराश हो गई , हटने के बजाय और पास आ गई .
उसने गर्दन बढ़ा कर मेरे पाँव पर चोंच मारी ,मैंने पाँव पीछे खींच लिया .
 बड़ी तीखी है चोंच !
 वह फिर  आगे बढ़ आई . मैं चुप , न पुचकार न सत्कार! दुत्कार रहा हूँ बार-बार हाथ हिला कर धमका रहा हूँ!
उस पर असर नहीं पड़ा,बढ़ कर फिर चोंच मारने लगी . तभी  एक और  बढ़ आई ,वह भी  प्रहार करने लगी .फिर तो दो-तीन और ,तीन- चार और!
वे सब चोंचें उठाये मारने को तैयार. एकाध झपट रही है - हुश्-हुश् करते हाथ की ओर.
कुछ उड़-उड़ कर बेंच के हत्थे पर आ बैठीं .हाथ पर ,गले पर जहाँ जगह मिलेी चोंचों  से वार कर रही हैंं
एकदम घबराया हुआ मैं खड़ा हो गया. दोनों हाथ पूरे ज़ोर से चलाने लगा  .
वे पहुँच भर प्रहार करती रहीं -जैसे कह रही हों ,'धोखेबाज़ !'
हाथ लहू-लुहान हो रहे हैं, गर्दन पर भी चोंच के वार .
दहशत से भर मैं उठ कर भागा.पीछे लग गईं वे.पगडंडी से सड़क की ओर अंधाधुंध दौड़ा  .
उस दिन किस तरह निकल पाया  मैं ही जानता हूँ.
एक बार पलट कर देखा था - 
लगा जैसे दिशा में  आग लगी हो.साँझ के बादलों का  नारंगी रंग गहरा सिंदूरी और जलता लाल  हो उठा था,और ताल के  पानी में वही छायायें , बतखों के फड़फड़ाते आकार जिनसे उठती तीखी कंठ-ध्वनियाँ !
फिर सारे रास्ते उधर सिर घुमा कर उधर नहीं देखा.

आपको असंभव लग रहा है यह सब ?

*

बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

कथांश - 21 .

*
 मेहमान को बोर नहीं होने दिया था विनय ने .  मेहमान ही तो था मैं वहाँ ,घूम कर लौटने का बाद  देर रात तक बातें चलती रहीं.
वे ही सूचनाएँ देते रहे -तनय अपने ताऊ जी के यहाँ है,शुरू से लगाव रहा है उनसे .जुटा है कुछ न कुछ करके ही दम लेगा .स्कूल कॉलेज में पढ़ाना उसके बस का नहीं ,कई जगह हाथ-पैर मार रहा है .
फिर पूछा था, ' बंधु-बांधवों में एक आप ही का नाम लेती हैं वह, तो ..शादी में नहीं आए आप ?
'उन्ही दिनों मेरी ट्रेनिंग शुरू हुई थी .फिर मैंने ये भी सोचा ,मैं कोई सगा या रिश्तेदारों में तो हूँ नहीं.इस मौके पर बहुत से अपने भाई-बंधु, आएँगे उनमें हमारी पैठ कहाँ  ..?'
'ये तो है .हमें भी लगता है रिश्तेदारों के घेरों से अपना अलग अच्छे ! लगता है जैसे इनमें हम फ़ालतू फँस गए हों. बेकार में  उनकी निगाहें क्यों झेलो. ...पर हाँ  असली ज़रूरत पर आप ही खड़े रहे.'
'असली ज़रूरत ?'
  'कॉलेज के छोकरों  से उसकी ढाल बने चोटें खाते रहे रहे ,और हमारे सुपुर्द कर दिया.ये एहसान कैसे भूल सकते हैं हम !'
'अरे  ,कॉलेज में तो ये सब चलता है .'
'बता रही थी आपके कारण लोगों की ऐसी-वैसी  हिम्मत नहीं पड़ती थी ,जानते थे ब्रजेश से पंगा लेना महँगा पड़ेगा.'
पारमिता ने विनय को बता रखा था कि विषम स्थितियों में उसे मैं ने  ही साधा .अकेली थी ,किसी से बोलती -चालती नहीं तो लड़कों को लगता अपने आप को जाने क्या समझती है ,घमंडी कहीं की  - इसे सबक़ सिखाना चाहिये .
  'उस समय स्थिति को आपने सँभाला नहीं तो पता नहीं क्या होता !'
मैं क्या कहता ,चुप रहा .
विनय कहे जा रहा था ,'  हमें सब मालूम है ,एक बार तो   चार-चार  से अकेले निपटे थे .वो सबक सिखाने पर तुले थे .झगड़े में उन्हें तो समझा  दिया पर ख़ुद ने  मार खाई .किसी को क्या ,मीता तक को बताया नहीं ,वो तो इसकी सहेली वाणी से पता लगा उसे ,तब तुम्हें देखने गई थी .'
'जिसे जानता हूँ उस लड़की के लिए मेरा  फ़र्ज़ बनता है .कोई दूसरी होती तो भी कोशिश भर बचाता .'
'फिर भी तुमने अपना हक़ नहीं जमाया सुरक्षित मुझे सौंप दिया.कौन कर  पाता है ऐसा !'
'रिश्तेदारी जुड़ गई थी , इनकी बुआ जी ने माँ को बहिन मान लिया था '
'असली रिश्ता तो वही जो ज़रूरत पर काम आए. सच्ची ब्रजेश ', फिर अटक गया विनय , 'नाम ले सकता हूँ न तुम्हारा ,मेरी पत्नी के बंधु ,मेरे दोस्त ही तो ..'
'नहीं ,नहीं ,विनय बाबू मैंने ऐसा कोई बड़ा काम नहीं किया.मैं इस योग्य था भी नहीं .'
'यह मत कहिये .कहीं कोई कमी नहीं .कैरियर की भी इतनी अच्छी शुरुआत !मीता तो करती ही है मैं भी आपका बहुत सम्मान करता हूँ . यहाँ तो तन्नू -कह देता है हमें नहीं बनना टीचर- फटीचर .'
'आप मेरी बांधवी के पति हैं मेरे माननीय.हमारी तो नौकरी है ,ज्ञान की  यह प्यास कहाँ !'
'अरे ,छोड़ो यार हम दोनों दोस्त हुए आज से -लाओ हाथ मिलाओ !' 

'जो आपसे पढ़ ले सच में बन जायेगा विनय बाबू ,उल्लू बनाने की टालू विद्या आपके बस की नहीं .सच में विद्यानुरागी हैं आप !'
तभी पारमिता आ गई ,'ये कैसा हथलेवा हो रहा है ,भई?'
'तुम्हारा साथ और इनका हाथ दोनों मेरे, '
मुझे हँसी आ गई .

' हाँ,हाँ, क्यों नहीं ?'
'माँ ने तो कभी अलग समझा नहीं.' 
'उन्हें इनका  बड़ा सहारा था .'
'उन्हें अपनी माँ कहती हैं ये,.और था ही कौन इन का.... '
'सच में ..'
 *
खाना खा कर बराम्दे के वाशबेसिन पर हाथ धो रहा था कान में उन लोगों की आवाजें आ रहीं थीं-
विनय के शब्द ,' झोंका हवा का, पानी का रेला.मेले में रह जाए जो अकेला. इसे छुट्टा मत छोड़ना  अकेला रहा तो बिखरता चला जाएगा.हिल्ले से लगा दो इसे भी.'
'इसे भी से क्या मतलब ?'
'जैसे मुझे लगाया है .'
तुम्हें हिल्ले से लगाया मैंने !ये क्यों नहीं कहते कि मुझे रेस्ट्रिक्ट कर दिया तुमने ?'
'अरे, रस्सी को तो बँधना ही पड़ता है .'
'अपनी ऊलजलूल फ़िलासफ़ी अपने पास रखो .'
'देखो .और तो  कोई है नहीं एक तुम्हीं उसकी बाँधवी हो ,भला-सा लड़का है सो चेता रहा हूँ ..'
'तुम्हीं समझाओ न !मेरी माँ जैसी थीं वे .उनके दुख में मैं भी, इन्वाल्व हो जाती हूँ .फिर कुछ कहते नहीं बनता .'
' प्रेक्टिकल बनाने की कोशिश करता हूँ मैं तो  ..पर खूंटे वाली रस्सी गले पड़ेगी नही तो  सिर उठाए जहाँ-तहाँ भागता फिरेगा .'
बड़े पते की बातें करते हो तुम तो ..काफ़ी तेज़ आदमी हो.'
'दिमाग से काम लेता हूँ न ..'
आते-आते तारतम्य में मैंने अपनी ठोंक दी ,'ये दिमाग की बात कहाँ से आ गई .'
'इन्हें समझा रहा हूँ ,ये दुनिया को अपनी ही तरह देखती हैं .'


सब कुछ बड़ी आसानी से चल रहा था लेकिन उसी रात को एक गड़बड़ हो गई -
भोजन और गप्पबाज़ी से छुट्टी पा कर अपने कमरे में आया .सोने के पहले  ब्रश करने चला गया था .वहाँ से बाहर सड़क दिखाई देती है. जाने क्या सोचता खड़ा रह गया वहाँ  .कमरे में जा रहा था,बत्ती नहीं जलाई -कमरों की रोशनी की उजास, बरामदा पार करने को काफ़ी लगी.कुछ कदम चला था कि  अचानक दिख गया -मीता की गोद में सिर रखे विनय लेटा-लेटा कुछ कह रहा था, वह उसकी ओर देख कर हँस रही थी .
उनके शयन कक्ष की

 खिड़की के आधे हिस्से में  पर्दा लगा है .नीचे का स्प्रिंग बीच से कुछ ऊपर खिंच गया था, नीचे से गैप बनाता हुआ . अनायास दृष्टि उधर चली गई  मुझे नहीं पता था उन लोगों का शयन कक्ष है ये .नाइट गाउन पहने  वह .गोद में लेटा उसका चेहरा देखता विनय कुछ कहता जा रहा है .वह हँस रही है उसका टेढ़ावाला दाँत रोशनी में चमक गया .
 मैं स्तब्ध - सा ,आँखें फाड़े वहीं के वहीं खड़ा रह गया !फिर सँभला और  आँखें फेर कर तुरंत आगे चल दिया 
 अपने आप पर शर्मिन्दा हो उठा .जितना हटाता हूँ उतना ही ध्यान आता है .उफ़् नहीं सोचूंगा..बिलकुल नहीं . कौन सी गलत बात  ? वह उसकी पत्नी है . मुझे नहीं सोचना चाहिये .
 नहीं, मैंने कभी नहीं चाहा था .उनके शयन-कक्ष में झाँकना, मुझे अनुमान भी नहीं था .अब इधर बिलकुल  नहीं आऊँगा .
नहीं मुझे बुरा नहीं लगा .क्यों लगेगा? 

एकदम अजीब सा लगा- ऐसे- कभी देखा नहीं था न . नाइट गाउन पहने और वह  ...जाने दो ...मुझे क्या करना .... नहीं ,नहीं,मुझे नहीं सोचना चाहिये .
पर कहीं कोई देख लेता तो ... ?
हे भगवान् , ये क्या हो गया !

*
(क्रमशः)