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खुले आकाश की झरती रोशनी में नहाए, ये कृतार्थता के क्षण और मेरा कृतज्ञ मन - लगता है नारी-जीवन का प्रसाद पा लिया मैंने!
कितनी नई फ़सलें फूली-फलीं मेरे आगे ,पुत्री में पहली बार अपना अक्स पाया था.आज, वही मातामही बन गई - और नवांकुर को दुलराने का सुख तन्मय मानस में समो लिया.अपनी निजता की यह व्याप्ति उसकी गोद में प्रतिरूपित होते देखना रोम-रोम को पुलक से भर रहा है.
बीतते जाते समय के तार कैसे परस्पर जुड़ जाते हैं, पता ही नहीं चलता कौन तन्तु एक नई बुनावट को रूप देता किस दिशा में बढ़ चलेगा. एक मैं, कितने रूपों में विस्तार पाती जा रही हूँ.
वर्षों के अंतराल को जोड़ते ये संबंधों के तार - कितने व्यवधान पार कर नित-नवीन रूप धरते कहाँ से कहाँ पहुँच रहे हैं. यह है ,मेरी निजता की व्याप्ति ,यहाँ से वहाँ तक ,व्यवधानहीन अटूट यात्रा.
नवजीवन के सुकुमार अंकुर में प्रतिफलन पायी यह नई सृष्टि,मेरा ही तो अंशागमन, मेरा पुनरागमन ,मेरे चित् का नव-नव प्रस्फुटन, हर बार परंपरा को आगे तक ले जाने की आश्वस्ति प्रदान करता मन-प्राङ्गण उद्भासित कर रहा है .
अपने बोये बीजों की फ़सल हर बार नये रूप में अँकुआते देख, अंतर्मन गहन संतृप्ति से आपूर्ण हो उठा है
मैं विद्यमान हूँ अभी , और मेरे कितने प्रतिरूप ,कितने-कितने आकार लिये ,भिन्न नामों में, भिन्न देहों में साकार हो उठे हैं. यहाँ से वहाँ तक मेरा ही स्वत्व नये रूपों में अस्तित्ववान हो प्रकट हो रहा है.मेरे निजत्व कोअमित विस्तार मिल गया.
नतशीश तुम्हें शत-शत प्रणाम करती हूँ,
हे सृष्टि के नियन्ता,
तुम्हारा अनुपम आदान शिरोधार्य कर धन्य हो गई हूँ मैं !
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खुले आकाश की झरती रोशनी में नहाए, ये कृतार्थता के क्षण और मेरा कृतज्ञ मन - लगता है नारी-जीवन का प्रसाद पा लिया मैंने!
कितनी नई फ़सलें फूली-फलीं मेरे आगे ,पुत्री में पहली बार अपना अक्स पाया था.आज, वही मातामही बन गई - और नवांकुर को दुलराने का सुख तन्मय मानस में समो लिया.अपनी निजता की यह व्याप्ति उसकी गोद में प्रतिरूपित होते देखना रोम-रोम को पुलक से भर रहा है.
बीतते जाते समय के तार कैसे परस्पर जुड़ जाते हैं, पता ही नहीं चलता कौन तन्तु एक नई बुनावट को रूप देता किस दिशा में बढ़ चलेगा. एक मैं, कितने रूपों में विस्तार पाती जा रही हूँ.
वर्षों के अंतराल को जोड़ते ये संबंधों के तार - कितने व्यवधान पार कर नित-नवीन रूप धरते कहाँ से कहाँ पहुँच रहे हैं. यह है ,मेरी निजता की व्याप्ति ,यहाँ से वहाँ तक ,व्यवधानहीन अटूट यात्रा.
नवजीवन के सुकुमार अंकुर में प्रतिफलन पायी यह नई सृष्टि,मेरा ही तो अंशागमन, मेरा पुनरागमन ,मेरे चित् का नव-नव प्रस्फुटन, हर बार परंपरा को आगे तक ले जाने की आश्वस्ति प्रदान करता मन-प्राङ्गण उद्भासित कर रहा है .
अपने बोये बीजों की फ़सल हर बार नये रूप में अँकुआते देख, अंतर्मन गहन संतृप्ति से आपूर्ण हो उठा है
मैं विद्यमान हूँ अभी , और मेरे कितने प्रतिरूप ,कितने-कितने आकार लिये ,भिन्न नामों में, भिन्न देहों में साकार हो उठे हैं. यहाँ से वहाँ तक मेरा ही स्वत्व नये रूपों में अस्तित्ववान हो प्रकट हो रहा है.मेरे निजत्व कोअमित विस्तार मिल गया.
नतशीश तुम्हें शत-शत प्रणाम करती हूँ,
हे सृष्टि के नियन्ता,
तुम्हारा अनुपम आदान शिरोधार्य कर धन्य हो गई हूँ मैं !
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