59.
परीक्षित का राज्याभिषेक धूम-धाम से संपन्न हो गया . मणिपुर नरेश और कौरव्य नाग के परिवारों का समर्थन था ही,उलूपी और चित्रांगदा के साथ सभी पांडव-बंधुओं की अन्य पत्नियों के परिवार भी सादर आमंत्रित थे.सबका समुचित सत्कार किया था पांचाली ने .पौत्र को निर्देश दिया था इस विस्तृत परिवार की शाखायें अलग जा कर भी परस्पर जुड़ी रहें ,अपने मूल से संबद्ध रहें .एक दूसरे की संपद्-विपद् में सहयोगी बनी रहें .आस-विश्वास का संबंध कभी न टूटे . परीक्षा की घड़ियों में एक दूसरे को साध कर ही वे अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं.
पितामही के रूप में सभी संततियों को नेह से सींचती रही थी वह .
पर भीतर ही भीतर एक विरक्ति घेरती जा रही थी .कभी जब अकेली होती ,चुपचाप बैठी कुछ सोचती रह जाती .परम मीत चला गया ,मन उमड़ आता है किससे कुछ कहे .बार-बार उसके शब्द कानों में झंकारने लगते हैं .वह उपस्थित हो कर भी वर्तमान में नहीं रह जाती .
ऐसी अन्यमनस्कता देख ,पार्थ ने पूछा था ,'प्रिये ,सबसे तटस्थ होती जा रही हो ,सबसे विच्छिन्न सी .क्या हुआ तुम्हें?'
'पार्थ ,अब मन उचाट हो गया .कितना लंबा जीवन जी लिया ,कैसी-कैसी विचित्र स्थितियाँ घेरती रहीं ...'
'जो बीत गया सो गया उस पर क्या सोचना .'
आगे भी क्या है -कहना चाहती थी पर कहते-कहते रुक गई.
समारोह समाप्ति के पश्चात् एक खालीपन पसर गया था ,जैसे खुमार उतर जाने के बाद अवसन्न-सी विरक्ति तन-मन को घेर ले . आगे कुछ करने को नहीं रहा .
प्रिय सखा के प्रस्थान के बाद पार्थ का व्यक्तित्व भी बदला-बदला लगता है. तेजस्वी धनंजयका वह सव्यसाची रूप उदासीनता के आवरण से ढँक गया .युद्ध के बाद के घटना-क्रम ने हृदय में स्थाई ग्लानि-भाव की छाया डाल दी. नकुल-सहदेव के लिये कोई क्षेत्र नहीं बचा ,जहाँ अपने को लगा सकें .अवस्था में छोटे होने पर भी वार्धक्य का प्रभाव उन पर कम नहीं था .
नित्यसुन्दरी ,चिर-यौवना, पांचाली अपने आप में सिमटी हुई -जीवन की सारी रुचियाँ, सारे चाव हवा हो गये..उसे देख कर लगता जैसे कोई मनोरम चित्र मन को भाये पर थिरता में थम नूतनता का बोध गुम जाये .'
भीम का वेग शान्त पड़ गया ,युधिष्ठिर की धर्म और नीति की दमक को तो तभी से ग्रहण लग गया था जब बर्बरीक ने औचित्य पर प्रश्न उठाया था.रही-सही कमी कर्ण के वृत्तान्त ने पूरी कर दी .
पांडव -बंधुओं को लगने लगा कि अब यहाँ उनका कोई काम नहीं .योग्य उत्तराधिकारी सब सँभाल लेगा. युगान्तर के आचार-विचार में आया परिवर्तन कभी -कभी उनके वार्तालाप का विषय बन जाता था .
'आगे क्या' का प्रश्न सिर उठाने लगा .
व्यास देव के शब्द याद आये . 'हमारी नीति-अनीति हमारे साथ !अब नई पीढ़ी को अपने समय के साथ जीने दो .काल-कथा की नई भूमिकाओं में नये पात्रों का आगमन ,पुरानों का पृष्ठभूमि में पदार्पण ;यही जीवन का क्रम है...'
सब गहन सोच में पड़े रहे ,किन्तु समाधान खोजना ही था .और उन्होंने निश्चय किया कि अब यहाँ से प्रस्थान करना ही उचित है ,
पूरा प्रबंध करने के पश्चात् परीक्षित को समझा-बुझा कर उन्होने सुभद्रा और उत्तरा को प्रबोधित किया, पुत्र के गृहस्थाश्रम में प्रवेश हेतु परामर्श दिया. पांचाली ने उत्तर नरेश की पुत्री इरावतीके साथ पौत्र के विवाह हेतु अपना मत प्रकट कर दिया .
*
प्रस्थान की पूर्व-संध्या वे प्रणाम करने व्यास देव के आश्रम गये .
स्नेह से आसन दे समुचित सत्कार किया उन्होंने.
प्रस्थान की बात जान कर बोले ,'उचित है . सारे कार्य संपन्न कर चुके ,तुम्हारा निर्णय सर्वथा उचित है .'
कुछ रुक कर उन्होंने कहा,' अब तक के सांसारिक संबंध अब नहीं ,सब समानरूपेण स्वतंत्र हैं .किसी पर किसी का अधिकार नहीं .'उन्होंने युधिष्ठिर की ओर देखा था
' सब अपने निजत्व में रमें , सबका व्यक्तित्व स्व के अधीन रहे.'
बिदा समय साथ हो लिये थे वे ,आश्रम-द्वार पर रुक कर खड़े हो गये ..'जाओ वत्स ,पंथ कल्याणमय हो तुम्हारा !अब पीछे लौट कर मत देखना .'
पीछे खड़े वे उन्हें जाते हुये निहारते रहे .श्वेत श्मश्रुओं और रजत भौंहों के नीचे किंचित ढके नेत्र अर्ध निमीलित हो उठे थे..
60.
और फिर प्रस्थान की बेला आ गई .
नगर-सीमा के आगे , जहाँ तक संभव हो सके , रथारूढ़ रहें - परीक्षित का अनुरोध था.
प्रजाजनों और परिजनो के उद्गारों से , चलते समय व्यवधान न पड़े ,वे शान्ति से गृह त्याग सकें इसलिये रात्रि की सुनसान ,अंतिम बेला में पाँचो पाँडव द्रौपदी के साथ उत्तर- यात्रा पर चल पड़े.
जीवन भर संघर्ष से थके प्राणी ! अंत में विजय मिली , पर उसके लिये क्या-क्या मूल्य चुकाना पड़ा !
अपने दुष्कृतों के प्रायश्चित हेतु हिमालय की देव-धरा पर जा कर साधना करने का विचार मन में पाले ,वे निरंतर बढ़ते गये.जीवन में दीर्घकाल तक वनवासी रहे उन छः जनों के लिये पर्वत के तल-तक चलते जाना कोई बड़ी बात नहीं थी.
गिरि पर आरोहण का श्रम या अपने आप में डूबे ,वे अधिक तर मौन ही चलते जा रहे थे .बीच-बीच में कुछ वार्तालाप हो जाता था .
'कितना गहन वन .'पांचाली बोल उठी ,'यहाँ तो वन्य-जीव रहते होंगे ?"
अर्जुन आगे बढ़ आये ,' हाँ छोटे-बड़े सब.यहीं तो वन-शूकर के कारण भगवान पशुपति से झड़प हुई थी मेरी ,और फिर पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति .'
'अच्छा !'
पार्थ के चले हुये रास्ते हैं ये ,इधर ही तपस्या करने इन्द्रकील पर्वत पर आये थे .
अपने अनुभव बताने लगते है .दोनों छोटे ,कुछ कह-सुन कर परस्पर मन बहला लेते हैं .वे भी चर्चा में सम्मिलित हो गये .
हिमालय के भव्य और दिव्य परिवेश में आगे और आगे, ऊँचाइयों पर चढने लगे वे .पर्वत के शिखरों का विस्तृत क्रम प्रारंभ हो चुका था.
युधिष्ठिर चुप चल रहे हैं ,यों भी मौन ही रहते आये थे ,उनकी विचार-लीनता स्वाभाविक लग रही है .
व्यास देव के कथन बार-बार स्मरण हो आते हैं .
'यह मात्र बाहरी यात्रा नहीं ,एकान्त अंतर-यात्रा भी हो ,जो मन के गहन से परिचित कराये !'
आशीष था या वानप्रस्थ के लिये संदेश ?
उन्होंने कहा था -'किसी का किसी पर अधिकार नहीं '
युधिष्ठिर को लग रहा है उन्हीं के लिये कहा,और तो किसी ने किसी को कहीं अटकाया नहीं ...मैंने ही कितनी बार.. .और द्यूत में .भी...सोचा था केवल क्रीड़ा है,पर कहाँ रहा था वहाँ मनोरंजन!एक दुरभिसंधि थी जैसे ..,मनोमालिन्य ही बढ़ा ,एक बार नहीं बार-बार ...' पश्चाताप से भर उठे .'स्वयं को धिक्कारते-से पग बढ़ाये जा रहे हैं.
और भी बहुत कुछ याद आ रहा है.तब कुछ नहीं लगा .पर अब ..जब तटस्थ हूँ तो खटक लगने लगी..अनुज-वधू थी, माँ ने समझ ली होगी मेरी दुर्बलता .,.
मुझे सचेत होना था . मैं धर्मराज ?..कैसा विद्रूप कथनी और करनी का !एक बार नहीं कितनी-कितनी बार ..अपने आपको ही बहलाता रहा .पांचाली ने कितनी बार सचेत किया था ..पर मैं ! ओह, अपनी ही अहंता में डूबा रहा .. .
मुझे लगता था सबसे बड़ा हूँ ,सब नीतिज्ञ मानते हैं मुझे !जो करूँगा परिस्थितियों के अनुसार उचित कहलायेगा .
उस दिन बर्बरीक ने झटक दिये सारे आवरण !
और अब स्वयं से सामना !
आज मुखर हो उठे युधिष्ठिर-
'बहुत अकार्य कर डाले हैं ,तब विचार नहीं किया... अब पश्चाताप ही शेष रहा..'
के प्रत्युत्तर में याज्ञसेनी बोली -
'जीवन भर जो करना पड़ा ,अपनी समझ भर किया ,अब सारी गठरी ही सौंप आई तो अपना क्या ? रिक्त हूँ ! उस सबसे मुक्त हूँ ...'
वे क्या कहें !
वही कहती रही .'देख रही हूँ चारों ओर का असीम विस्तार ,डूब जाती हूँ इस में..'
'तुम नारी हो सहज समर्पित हो सकती हो .हमारा अहं हमारा कर्तृ-भाव हमें जगाये रखता है.'
सब चकित हैं ,आज युधिष्ठिर बोल रहे हैं -
'हर पुरुष में एक नारी निहित है ,उससे बचता रहता है पर, उससे भिन्न हो कर वह रिक्त रह जाता है ,बस अपने भीतर उसे जगा रहा हूँ .उससे समन्वित हो कर संभव है यह कोलाहल शान्त हो जाये ,अंतर की उद्विग्नता से मुक्ति मिल जाये.अब तक उसे दबाता रहा अपने अहं में उसे सुना नहीं .पर अब उसके बिना निस्तार नहीं.साधना के पथ में केवल पुरुष होना पर्याप्त नहीं. यह पुरुष-भाव कहीं समर्पित होने नहीं देगा .
.उस निष्ठा ,उस विश्वास और समर्पण के बिना अध्यात्म का मार्ग खुलेगा नहीं.'
सब मौन सुनते रहे .
'आज मैं समझ पाया, सारे संबंध सामाजिकता और सांसारिकता के निर्वाह हेतु जुड़ते हैं प्रत्येक का व्यक्तित्व अक्षुण्ण रहे यही उचित है .'
'संबंधों को भावना मधुर बनाती है बुद्धि या तर्क तो.. ,' सबको अपनी ओर देखते पा सहदेव सकुचा कर बीच में ही चुप हो गये .
नकुल ने जोड़ा,'बौद्धिकता से पूरा नहीं पड़ता ,भावना की फुहार बिना लगाव कैसे विकसे !
और कहते हैं ,सात जनम का बंधन होता है...'
भीम, चुप न रह सके ,'.हे भगवान ,सात जनम !एक को ही ईमानदारी से निभा दे .'
पांचाली कैसे चुप रहती, 'सात जनम वही सारे पति ..नहीं रे, नहीं ,सोच कर ही जान सूख जाती है .'
फिर स्पष्ट करने लगी -'नहीं ,ऐसा नहीं,जनार्दन ने कहा था,ये नहीं होता कि पति ,पति ही हो या पुत्र ,पुत्र ही हो .,बंधु ,भगिनी पिता कुछ भी .जन्म लेंगे, मिलेंगे संस्कारवश .'
सहदेव ने एक और मोड़ दिया ,' सात जन्मों की बात है तो ऐसा होता होगा कि इस जन्म में जो पति बन कर सेवा-समर्पण ले ,अगले में वह उसी की पत्नी बन कर उसका उधार चुकाये .'
सब हँस पड़े .
'तुम भी इतने ज्ञानी नहीं रहोगे .'
'पांचाली तुमसे कब जीता मैं ?'
भीम का प्रश्न ,'फिर सात जनम क्यों ?'
'जिसमें तुम जैसे लोग एक दूसरे के अनुकूल होने के प्रयास करते रहें ,विमुख न हों .'
चैन की सांस ली भीम ने ,'वही तो मैं कहूँ ..'
'क्यों हिडिंबा भाभी का ध्यान आ गया ?'
सबकी विनोदभरी दृष्टियाँ भीम पर .
'वे अगले जनम में नया रूप लेंगी ,अपने संस्कारों के अनुरूप.क्यों भीम के पीछे पड़े हो !तुम भी नकुल, आवश्यक नहीं कि इतने सुन्दर ही बने आओ.सदा करेणुका से तुलना करते रहते हो .'
कुछ खिसियाता सा बोला ,'तुमसे तो नहीं करता न !'
युधिष्ठिर सुन रहे थे अब तक ,बोल उठे,'अब यहाँ वे सब चर्चायें नहीं करनी चाहियें .'
'भइया, हम तो केवल हँस बोल रहे हैं ,मन से कोई लिप्त नहीं .'
*
आरोहण का क्रम जारी रहा ।भयंकर शीत ,पग-पग पर धमकाती उद्दंड हवायें -पल-पल विचलित करती जीवनी-शक्ति खींचे ले रही हैं.लड़खड़ाते ,एक दूसरे को सहारा देते बढ़े जा रहे है धीरे-धीरे !
सर्व प्रथम द्रौपदी की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया .अग्नि-संभवा पाँचाली जीवन भर ताप झेलती रही .उसके जीवन का उपसंहार हो रहा था चिर-शीतल हिम-शिखरों के बीच .
गिर पड़ी द्रौपदी .
द्रुत गति से अर्जुन आगे बढ़े .वही लाए थे उसे, कितने चाव से भरे , अपने पौरुष की परीक्षा देकर .प्रिया को अंतिम क्षणों में बाँहों का सहारा देने आगे आए .
''नहीं .' युधिष्ठिर ने रोक दिया .
,'अब उसे किसी की आवश्यकता नहीं बंधु,उस ओर अकेले ही जाना है .'
जिस नारी ने जीवन भर हमारा साथ दिया आज हम उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं .क्या कभी कुछ कर पाए ?आज भी इतने विवश क्यों हैं -पार्थ का हृदय विकल हो उठा.
द्रौपदी ने क्षण भऱ को नेत्र खोले .पाँचो पर दृष्टिपात किया ,अर्जुन पर आँख कुछ टिकी - जैसे बिदा मांग रही हो .बहुत धीमें बोल फूटे 'हे कृष्ण,गोविंद,माधव ,मुरारे... '
जाने कहाँ से एक मोरपंख याज्ञसेनी के समीप आ गिरा .
देखा उसने ,ईषत् हास्य अधरों पर खेला और जीवन भर जलनेवाली वह वर्तिका शान्त हो गई.
भीम के आगे बढते पग थम गए .भीम धम्म से वहीं बैठ गए .नकुल,सहदेव स्तब्ध.अर्जुन ने आँसू छिपा लिए .
युधिष्ठिर स्थिर हैं .कुछ क्षण देखते रहे एकदम चुप ,अगम से.
फिर बोले ,' कहीं रुकना नहीं है अब कुछ नहीं है यहाँ ,बस ,चलो आगे !'
अर्जुन कह रहे थे ,'..अब तक उसमें प्राण थे ,वह सबका हिस्सा थी .अब निर्जीव है किसी की नहीं रही .अब केवल मेरी ,'
व्याकुल हृदय आज हर मर्यादा भूल गया ,' नित्ययौवना ,याज्ञसेनी , छोड़ कर अभी मत जाओ .. मैं जीवन भर भटकता रहा ...कहाँ रह पाया तुम्हारे साथ . रुक जाओ ,पांचाली मत जाओ ..! '
देखते रहे उस निष्चेष्ट देह को .झुक आये उसकी ओर,'ओ पांचाली ,थक गई तू ,नहीं झेल पाई ,चली गई तू ..'
वहीं बैठे रहे अर्जुन ,पांचाली के शान्त निर्विकार श्यामल मुख को निष्पलक ताकते .
'वह किसी की नहीं .केवल मेरी .सब जाओ अब .मैं देख लूँगा..'
सब भाई शोकाकुल विमूढ़.
युधिष्ठिर आगे बढ़े ,'अब कुछ देखने को नहीं बचा .पागल हुये हो बंधु ,अब पांचाली कहाँ !मृत देह , माटी ,मोह छोड़ो ,उठो .'
अर्जुन ने सुना कि नहीं सुना ?
'वह सौभाग्यशालिनी थी ,चली गई .'
कुछ रुक कर बोले युधिष्ठिर, 'हमें भी उसी राह जाना है.रुकना नहीं है अब ,उठो बंधु, उठो .'
भीम को संकेत किया, वे अनुज को हाथ पकड़ उठाने लगे .
अर्जुन विवश यंत्र-चालित-से उठे .
भीम और युधिष्ठिर ने बीच में ले लिया .
युधिष्ठिर ने कुछ विचार कर सीधे आगे न बढ़ कर, चढ़ाव के घूम पर मोड़ की ओर पग बढ़ाये ,बंधु साथ देते रहे ,
अचानक लौट पड़े अर्जुन .
बड़े पांडव ने टेरा, 'कहाँ ,कहाँ जा रहे हो, बंधु?.'
कोई उत्तर नहीं .
सब ठिठके खड़े
पार्थ बिना कुछ बोले चलते रहे .पांचाली की देह के निकट पहुँचे.जा कर अर्जुन ने अपना उत्तरीय उतारा और झुक कर पत्नी की देह आवरित करने लगे .
'बंधु,अब उसे शीत-ताप कुछ नहीं व्यापेगा .' युधिष्ठिर पीछे चले आये थे.
पार्थ नहीं मान सके अग्रज का तर्क जीवन भर पाले गये अनुशासन भंग हो गये ,
'उत्तरदायी मैं-गृह हूँ ,पितृसे उसे अर्धांगिनी बनाने को मैं लाया था,दायित्व मेरा था. क्या किया मैंने उसके साथ ?जब वह पूछेगी ,मुझे अनावृत्त कैसे भेज दिया तुमने ? मैं क्या कहूँगा ...'
युधिष्ठिर ने कुछ कहा .शब्द उनके कानों तक नहीं पहुँचे .
उनके हाथ ठिठक गये, दृष्टि उस चिर -परिचित मुख पर टिक गई ,
नील-कमल की सुपरिचित गंध कुछ देर चतुर्दिक मँडरा कर वायु-मंडल में विलीन हो गई .
युधिष्ठिर बोल रहे थे -
'पांचाली तुम समर्पित रहीं. जीवन भर किसी को अपना माध्यम नही बनाया .अंत में स्वयं को विसर्जित कर दिया .मैं अधिकार भावना से ग्रस्त रहा ,पांचाली ने निःस्व भाव में स्वयं को ढाल लिया था.तुम्हारी साधना तक हम कहाँ पहुँचे?हमारी यात्रा अभी शेष है .'
भाइयों से बोले 'माधव की शरण में रही ,उसकी मुक्ति सर्व प्रथम होनी ही थी.'
बहुत अस्पष्ट थे स्वर - 'और मेरी , संभवतः सबसे बाद !'
किरीटी ने वह देह यत्न-पूर्वक ढाँक दी.
'वह जीवित थी तब तक सबका अधिकार था .अब वह नहीं है ,यह देह मात्र , वह केवल मेरी .कोई लज्जा नहीं अब. अंतिम बिदा लेने में कोई आड़े नहीं आ सकता .'
'जाता हूँ प्रिये ,जीवन भर भागता रहा ,तुम्हें पाने को व्याकुल .आज तुम चली गई हो .मैं यहीं रह गया .अब भटकने को है ही क्या ?हर तरह से निभा गईं तुम .हम स्वार्थी तुम्हें कुछ न दे सके ....' कंठ वाष्पित हो रहा था .
आगे पार्थ क्या बोल रहे हैं ,कोई समझ नहीं पा रहा था.
कुछ क्षण खड़े रहे अर्जुन टक लगाये ,भीम ने आगे बढ़ हाथ पकड़ा. वे विवश से पलटे और चलने लगे ,
भयंकर शीत भरी हवायें अबाध चली आ रही हैं, रह-रह कर तुषार-कणों की वर्षा ,वनस्पतिविहीन दुर्गम प्रदेश ,हिम-चट्टानें रोर करती फिसल रही हैं ,एक-एक पग दूभर , विषम झोंके झेलते लड़खड़ाते किसी तरह बढ़ रहे हैं ,एक दूसरे को साधते -सँभालते .
आगे पंचचूली शिखर तक जाने को राह पर्वत के किनारे घूम जाती है .उसी ओर जाना है ,मोड़ आ गया था.
कुछ आगे बढ़े वे ,
मुड़ने से पहले अर्जुन ठिठके पलट गये ,उनके साथ शेष चारों भी देखने लगे उस ओर ,जहाँ पांचाली को छोड़ आये थे .
तल की हिमशिला पर वह श्यामल देह एकदम शान्त .हवाएँ उत्तरीय का छोर बार-बार उड़ा रहीं थीं.सघन केश-राशि की कुछ बिखरी लटें उस अनिन्द्य मुख पर आ पड़ी थीं .
हिमालय की उठती हुई धवल श्रेणियाँ , मंदिर के भव्य शिखरों सी दिशा व्याप्त करती हुई .वहीं नीचे हिमाच्छादन युक्त तल पर निश्चल पड़ी याज्ञसेनी की देह, ज्यों शुभ्र वेदिका पर अर्पित, जल से विच्छिन्न नीलोत्पल !
आगे मोड़ था , युधिष्ठिर ने कंधे पर हाथ रखा ,भीम बाँह से सहारा दिये आगे बढ़े . सब पीछे छूट गया . हिमपात से धुँधलाते परिवेश में दूर जाती , प्रचंड पवन झोंकों में हिलती -डोलती वे पाँच आकृतियाँ दृष्टि-पथ से ओझल हो गईं !
****
- प्रतिभा सक्सेना.-
निवेदन-
कृपया ध्यान दें ,
माननीय पाठकों की
समापन - टिप्पणियाँ 57-58 वें अध्याय पर (जहाँ पहले समापन था) अंकित हैं .
कारण यह कि इस शृंखला के अध्याय अलग-अलग लिखे गये थे . समग्र-कथा-क्रम के रूप में .संपादित करते समय , अध्यायों को सुनियोजित करने में अनेक स्थानों पर कुछ और जोड़ना पड़ा .-अध्यायों की संख्या 57-58 से बढ़ कर समापन तक 59 - 60 पर पहुँच गई .
वे टिप्पणियाँ यहाँ भी प्रस्तुत कर रही हूँ -
bahut sundar marmik chitran ..hardik badhai पांचाली - 57.& 58. पर
पांचाली के अंत का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है दिल को छू गई आपकी ये पोस्ट हार्दिक बधाई के उत्तर में, Rajesh Kumariद्वारा.
shashi purwar
9/13/12 को
आभारी हूँ घुघूती जी , एक साथ पूरा पढ़ेंगी आप,कर अच्छा लगा . प्रतिक्रिया जानने को मिलेगी न ! पांचाली - 57.& 58. पर
प्रतिभा जी, बहुत अच्छा लगा पांचाली को पढ़ना. एकबार इकट्ठे सभी किस्तें पढ़नी पड़ेगीं. तब अधिक आनन्द आएगा. घुघूतीबासूती के उत्तर में, Mired Mirageद्वारा.
प्रतिभा सक्सेना
9/12/12 को
प्रतिभा जी, बहुत अच्छा लगा पांचाली को पढ़ना. एकबार इकट्ठे सभी किस्तें पढ़नी पड़ेगीं. तब अधिक आनन्द आएगा. घुघूतीबासूती पांचाली - 57.& 58. पर1 जवाब.
Mired Mirage
9/10/12 को
निर्मला जी ,आपने इतनी खोज-ढूँढ कर इसे पढ़ा, और अपनी बहुमूल्य टिप्पणी से उपकृत किया(जिसमें आपका स्नेह और सहृदयता अधिक मुखर है)अपना लेखन सार्थक लगने लगा है. ऐसे पाठक पा कर मन प्रसन्न हो जाता है .स्नेह बनाये रखें. पांचाली - 57.& 58. पर
प्रतिभा सक्सेना
9/8/12 को
स्नेहमयी प्रतिभा जी ! "पांचाली "क्या पढ़ा क़ि आनंद के सागर में डूब गई , प्रारंभ कर के आद्योपांत पढ़ कर ही श्वास लिया आपकी जीवंत और प्रवाहमयी भाषा का यह जादू है !इससे पूर्व मैंने दो ग्रन्थ" श्रीमती चित्रा चतुर्वेदी" का" वैजयंती " तथा "शिवाजी सावंत " का" युगंधर "पढ़े थे ,पाचाली पढ़ते समय सतत वही अनुभूति होती रही प्रतीत होता है सम्पूर्ण" महा भारत " दृष्टव्य है !५१ और ५२ श्रृंखला ने मुझे विशेष प्रभावित किया जहाँ पांचाली अपनी उदासी से उभर कर "गोविन्द और मह्रिषी व्यास" के बताये पुनर्निर्माण के कार्य में समस्त प्रजा को साथ ले कर उत्साह से जुट जाती है , वैसे समूर्ण कृति प्रतिभाजी प्रशंसनीय है ! आप इसी भांति अपने पाठकों को स्वस्थ लेखन से मनोरंजन करवाती रहे ! साधुवाद प्रतुत्तर दें पांचाली - 57.& 58. पर
nirmal arora
9/8/12 को
बहुत ही शानदार और सराहनीय प्रस्तुति.... बधाई इंडिया दर्पण पर भी पधारेँ। पांचाली - 57.& 58. पर
सामग्री निकालें | हटाएं | स्पैम
India Darpan
8/28/12 को
प्रतिभा जी, पहली बार पांचाली को पढ़ा, एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद पढ़ती ही चली गयी, कह नहीं सकती कैसा लगा..शब्द कम पड़ जाते हैं..आभार ! पांचाली - 57.& 58. पर
Anita
8/28/12 को
प्रतिभा जी, आपने अपने अतिशय औदार्य एवं विनम्रता वश मेरे संबंध में राई का पर्वत बना दिया है,जिसे मेरा मन स्वीकार नहीं कर पा रहा है। किन्तु उससे आपकी महिमा-मंडित कृति का महत्त्व कम नहीं होता। मेरे साथ "पांचाली" के सभी पाठक इसकी उत्कृष्टता के साक्षी हैं। मेरे शब्दों के लिये मुझे क्षमा करें। पांचाली - 57.& 58. पर
शकुन्तला बहादुर
8/26/12 को
तरु,अनामिका ,अविनाश एवं आ. शकुन्तला जी , तरु,अपने लेखन के साथ तुम्हारा तादात्म्य पाकर ,मुझे कितनी तृप्ति होती है बता नहीं सकती .अपनी मानसिकता के साथ इस प्रकार तुम्हारा जुड़ जाना, तुम्हारी अनुभूति प्रवणता या मेरा कौशल? अनामिका , हाँ ,तुम्हारी सहज उत्सुकतायें मुझे आनन्द देने के साथ ही लेखनी को सजग कर देती हैं.इतना विश्वास कर लेती हो,मेरा सौभाग्य ! अविनाश, बात केवल इस अंक की नहीं ,इस ब्लाग की(अन्य ब्लागों की भी)है.टिप्पणियों के शब्दों में निहित अर्थों से आगे ,निहित भाव को मै हर बार अनुभव करती हूँ . शकुन्तला जी , जितना मान दे रही हैं उसमें काफ़ी-कुछ आपका हिस्सा है.सदा आपसे सहयोग और सद्भावना पाती रही हूँ .और जिस निस्पृह भाव से मेरी भाषा की त्रुटियाँ निपटाती हैं(नहीं तो पाठकों को कितने झटके लगते ?).अपनी बातों की पुष्टि आपसे पाकर उत्साह बढ़ जाता है लेखनी बेधड़क चल जाती है. आप सब की टिप्पणियाँ ,इस बार ही नहीं हर बार,मेरा मनोबल और विश्वास दृढ़ाती रहीं.इस उपन्यास की अनुभव-यात्रा में अपने सहयात्रियों का साथ सहारा देता रहा .मैं सचमुच इतने नेह-भरे शब्द पढ़ कर फिर-फिर उन्हें ग्रहण करने से पांचाली - 57.& 58. पर
प्रतिभा सक्सेना
8/26/12 को
सदा जी ,रविकर जी ,वीरेन्द्र जी,सुशील जी ,वाणी जी,राजेश जी,संध्या जी, आप सब ने 'पांचाली' पर अपनी टिप्पणी दे कर इस लेखन को सार्थक किया - मैं उपकृत हुई ! पांचाली - 57.& 58. पर
प्रतिभा सक्सेना
8/26/12 को
आपने जिस समय इस अंक को ब्लॉग पर डाला मैंने उसी समय पढ़ा था, संभवतः पहले ऑनलाइन पाठक के तौर पर। तब से कई बार पढ़ चुका हूँ और अंतर से रिक्तता का अनुभव कर रहा हूँ। ठीक कहतीं हैं तरु दीदी- कल ही की बात लगती है जब तरल-असित वाले उपन्यास का अंत हुआ था और आप पूरी तरह पांचाली लिखने लगीं थीं। और अब आज है। आज सुबह से कई बार लौट-लौट के अपने प्रिय दृश्यों का अनुभव कर आया- बर्बरीक संवाद, कृष्ण-कृष्णा के अनेकानेक संवाद, वसुषेण-भीष्म और कई और भी। आपकी इस अद्भुत एवं मार्मिक किन्तु सुखद यात्रा में मैं भी यात्री रह सका इसका हर्ष एवं गर्व लिए हुए आपका अतिशय धन्यवाद! शकुन्तला जी की ही बात दोहराऊंगा इस आशा में कि आगे हमें ऐसी और भी अनुपम रचनाएँ मिलें आपसे। आनंद से भरे मन को सादर विनत कर आपका हार्दिक आभार! पांचाली - 57.& 58. पर
Avinash Chandra
8/25/12 को
sach me panchali ki jiwan yatra me ham barabar yaatri rahe. aur aseemit aanand aur gyan prapt kiya. aur iske samapan par swarthvash yahi kehna chahungi ki udasi si man par chha gayi hai. aapne apni prabuddh lekhni se sada hi mujhe prabhavit kiya aur mere anurodh par anchhue pahlu bhi ujagar kiya jisSe hamari agyan ke kapat khule aur mastishk me ghoomte bahut se prashno ke jawab mile. ye kehna jaruri nahi ki jb jb antas me kuchh prashn uthenge me is shrinkhla ko padhne aati rahungi aur apki samarth lekhni se jo sashakt sahity/shabd bhandar mila unhe aatmsaat karti rahungi. aage bhi aise kathankon ka intjaar rahega. bahut bahut aabhaari hun. sadar naman. पांचाली - 57.& 58. पर
अनामिका की सदायें ......
8/24/12 को
"पांचाली"की इस शृँखला के साथ एक बृहत् सारस्वत यज्ञ के अनुष्ठान का समुचित समापन हो गया।पांचाली की जीवन-यात्रा के सहयात्री बन कर हमने उसके जीवन के हर रंग को देखा और जिया।अब सब कुछ एक बारगी समाप्त होने से मन में रिक्तता सी आ गई है।अंतिम वेला का चित्रण अत्यन्त मार्मिक है,जो मन को बाँध सा लेता है। शोक-विह्वल अर्जुन के मनोभावों की करुण अभिव्यक्ति में लेखिका की समर्थ लेखनी पाठक के मन को भी करुणा से आप्लावित और नेत्रों को सजल कर जाती है।मोरपंख का उड़ कर आना अद्भुत अनुभूति कराता है। पांचाली मेंआद्योपान्त एक गद्यकाव्य जैसा आनन्द आता रहा।भाषा,प्रस्तुति,कथ्य,जीवन-दर्शन सभी दृष्टियों से ये एक अत्यन्त सशक्त, सार्थक, उत्कृष्ट एवं प्रभावी कृति है।प्रकाशन के माध्यम से इसे उच्चकोटि के साहित्यकारों के समक्ष लाना चाहिये। प्रतिभा जी की ऊर्जस्विनी मेधा और यशस्विनी लेखनी की जितनी भी प्रशंसा की जाए,कम होगी।हार्दिक बधाई!!!विश्वास है कि भविष्य में भी ऐसी अनुपम रचनाओं से वे हिन्दी-साहित्य के भंडार को समृद्ध करती रहेंगी। आनन्द की इस अवधि के लिये आभार!!! पांचाली - 57.& 58. पर
शकुन्तला बहादुर
8/24/12 को
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है. पांचाली - 57.& 58. पर
Taru
8/24/12 को
श्रीकृष्ण और पांचाली के संवाद पुन: उसी पीड़ा को जगा देते हैं..जो कृष्ण के जाने पर अनुभव की थी।पांचाली की रिक्तता देख भान होता है..शायद हम सदा ही परमात्मा इतने रिक्त रहते हैं..यद्यपि पांचाली के अंत:करण में उठते अदृश्य सूक्ष्म विचारों में प्रेरणा बनकर उभरता श्रीकृष्ण का स्वर और उसके अधरों की मुस्कान मन को सहलाने के साथ साथ विश्वास भी दिलाते है ..कृष्ण के सदा आत्मा के समीप होने का। माटी की देह और ताप वाली बात मुझे भी बहुत भायी।आगे और सोचती रही..जितना तपेगी उतना ही देह की माटी से मुक्त सकेगी आत्मा...ताप जितना अधिक होगा उतनी ही अधिक सांसारिकता भस्म होगी..आसक्ति ही नहीं रहेगी तो अपना लक्ष्य पा ही लेगी जीवात्मा। श्रीकृष्ण के जाने के बाद जो शुष्कता आई होगी पांचाली और पांडवों के जीवन में..उसकी अनुभूति कर पाती हूँ। ''वृषाली '' ये नाम सुनकर नेत्र मूँद लिए दो क्षण को..मन एक बार 'मृत्युंजय' होकर आना चाह रहा था।युद्ध शिविर में कर्ण और वृषाली के मध्य का संवाद याद करकर ही आगे पढ़ना पुन: प्रारम्भ किया।पांचाली का चरित्र कितना अधिक निखरकर मेरे सामने आया है ..और उसे समझकर जानकार मन आदर से भर उठता है। पांचाली 55.& 56. पर
Taru
8/24/12 को
बहुत संतोष मिला मनोज जी, बीच-बीच में जो कमेंट्स आते रहे ,उनसे भी लेखनी को ऊर्जा मिलती रही. लेखन सफल लगने लगा है.आपके और अन्य सबके प्रति आभार का अनुभव करती हूँ. पांचाली - 57.& 58. पर
एक महान श्रृंखला का समापन हुआ। आप निश्चय ही बधाई की पात्र हैं, इस अद्भुत कार्य के सम्पन्न करने के लिए। आपकी इस रोचक यात्रा में हम भी साथ थे। के उत्तर में, मनोज कुमारद्वारा.
प्रतिभा सक्सेना
8/24/12 को
एक महान श्रृंखला का समापन हुआ। आप निश्चय ही बधाई की पात्र हैं, इस अद्भुत कार्य के सम्पन्न करने के लिए। आपकी इस रोचक यात्रा में हम भी साथ थे। पांचाली - 57.& 58. पर1 जवाब.
मनोज कुमार
8/24/12 को
बहुत मार्मिक चित्रण किया है आपने एक बार पढना शुरू की तो पूरा समाप्त कर ही रुकी पांचाली - 57.& 58. पर
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Dr. sandhya tiwari
8/24/12 को
पांचाली के अंत का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है दिल को छू गई आपकी ये पोस्ट हार्दिक बधाई पांचाली - 57.& 58. पर1 जवाब.
Rajesh Kumari
8/24/12 को
आह पांचाली ...एक विदुषी का ऐसा कारुणिक अंत ...कृष्ण का मोरपंख ही रहा साथ ! बार बार पढ़े जाने योग्य उत्कृष्ट रचना ! पांचाली - 57.& 58. पर
वाणी गीत
8/23/12 को
बहुत सुंदर मन को बाँधे रखती हैं आपकी लेखनी ! पांचाली - 57.& 58. पर
सुशील
8/23/12 को
समिधा बन गई पांचाली बेहतरीन काव्यात्मकता संपन्न हुई ......कृपया यहाँ भी पधारें - ram ram bhai शुक्रवार, 24 अगस्त 2012 आतंकवादी धर्मनिरपेक्षता "आतंकवादी धर्मनिरपेक्षता "-डॉ .वागीश मेहता ,डी .लिट .,1218 ,शब्दालोक ,अर्बन एस्टेट ,गुडगाँव -122-001 पांचाली - 57.& 58. पर
Virendra Kumar Sharma
8/23/12 को
पांचाली का अंत .... बहुत मार्मिक चित्रण किया है .... पांचाली का पूरा जीवन ही यज्ञ बना रहा । पांचाली - 57.& 58. पर
संगीता स्वरुप ( गीत )
8/23/12 को
उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवार के चर्चा मंच पर ।। पांचाली - 57.& 58. पर
रविकर फैजाबादी
8/23/12 को
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है. पांचाली - 57.& 58. पर
सदा
8/22/12 को
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