बुधवार, 28 अप्रैल 2021

राग-विराग - 10.

*      

            उस दिन हड़बड़ा कर तुलसीदास बड़े भिनसारे ही काशी से निकल पड़े थे. अंतर्मन से पुकार उठ रही थी - 'हे राम , अपनी शरण में ले लो!' 

'अपने ऊपर बस नहीं रह गया. कुछ सोचना चाहता हूँ कुछ ध्यान में चला आता है. मन थिर नहीं होता, कहाँ-कहाँ भटक जाता है .

'ऐसा उचाट मन ले कर कैसे रहूँ मैं? अधिक परीक्षा मत लो प्रभु!'

 बहुत अशान्त हो उठते है वे - हर समय लगता है कुछ छूट गया,कुछ रह गया. 

फिर भी पग चलते चले जा रहे हैं.

    रास्ते के ग्राम-नगर उजाड़ हुए-से पड़े हैं, सर्वत्र भूख और अकाल की गहरी छायायें डोल रही हैं.सब कुछ श्री-हीन हो उठा है.

देश में घोर दुर्भिक्ष का ताण्डव.गाँवों से उमड़-उमड़ कर लोग नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं ,पर सब साधनहीन हो गये. खोजने पर आजीविका नहीं मिलती,.कैसे जियेँ?

 व्यापार ठप्प पड़े हैं, कारीगर बेकार -कोई उपाय नहीं. चाकरी तक का जुगाड़ नहीं हो पाता. किसी को अपना ही पूरा नहीं पड़ता, दूसरे को क्या दे? इस दुष्काल में भिक्षा भी सहज नहीं. कैसा समय आ गया है, हर व्यक्ति असन्तोष से भरा, अभाव, स्थाई-भाव बन कर मनों में बस गया है. हर जगह वही हाय-हाय!

कैसा विषम काल है!


       संतप्त मन ले आगे चल पड़ते हैं अंतर्मन पुकार उठता है-

'हे राम, कहाँ हो ?अपनी करुणा-दृष्टि इधर फेरो? कृपा करो, प्रभु!'

  अनेक नगर-ग्राम घूमे,.कहीं विश्राम नहीं. 

मार्ग में कितने जनों से मिलना हुआ. सबकी अपनी दुख गाथा. मिथिला के एक साधु से मन कुछ मिला.उसी से बातें होने लगीं,

.'कलयुग में हमारे अधिकांश धर्मस्थल दूषित कर दिये गये ,बड़ा दुख होता है देख कर,' तुलसी ने कहा, 'आस्थाहीन जीवन हो गया,  धर्म-कर्म सब भ्रष्ट. सब-कुछ भूल कर मनुष्य अंधाधुन्ध दौड़ में लगा है.

'धरती संतप्त. बारंबार महामारी और, अकाल का फेरा. कितने तीरथ ,कितने देस, नगर देखे, मन को कहीं चैन नहीं.' 

वह बताने लगा, 'ऐसा ही अकाल मिथिला में पड़ा था ,तब राजा जनक थे वहाँ थे. मैं जा रहा हूँ वहीं, जहाँ भूमि से सीता देवी प्रकटी थीं, प्राकट्य तो वास्तव में भूमिजा का हुआ था और सब ने अपनी-अपनी माताओँ के उदर से जन्म लिया था.' 

माँ जानकी के प्राकट्य-स्थल दर्शन के लिये वे उसी के साथ सीतामढ़ी चल दिये. 

अपने स्थान पर पहुँच कर वह अपने समाज से जा मिला.

उसने तुलसी से पूछा था,'तुम कहाँ रहोगे ?हमारे समाज में शामिल हो जाओ.' 

तुलसीदास किसी नियंत्रण में नहीं रहना चाहते थे ,

मन ही मन सोचा -

'माँ जानकी की  भूमि है ,जैसा रखेंगी, रहूँगा.'  

 एक दिन मन्दिर के चबूतरे पर बैठे-बैठे अपने आराध्य के साथ माँ सीता के विवाह की कल्पना करने लगे. उस दिन सुबह से भिक्षान्न नहीं मिला था, शरीर शिथिल होने लगा, पलकें मुँद गईं.

अचानक कानों में आवाज़ आई,'लो प्रसाद ,ले लो.'

तुलसी सजग होते उससे पहले ही उस नारी-मूर्ति ने उनके हाथ में एक दोना थमाया और पलट कर चल दी. दोनों हाथों से प्रसाद का दोना माथे से लगाया. 

 उन्होंने देखना चाहा पर दृष्टि में केवल नीली साड़ी की सुनहरी किनारी से झलकती महावर रंजित एड़ियाँ देख सके, नूपुरों की हल्की सी खनक वातावरण में समाई थी.

नारी-मूर्ति  मन्दिर में प्रविष्ट हो गई थी .

प्रसाद पर दृष्टि गई - दोने में दो पुए!

.मन पुलक उठा, 'वाह, पुए !'

 कितने दिनों बाद वह स्वाद उन्हें याद आ गया .

      पहली बार नीमतलेवाली ताई ने पुआ दिया था - कितना स्वाद! कितना रस!

छः-सात बरस के रहे होंगे ,पुनिया-माँ भी राम जी के पास सिधार गईं थी ,अकेला गलियों में भटकता बालक, जो मिल जाय खा लिया. कोई मुँह लगाने को तैयार नहीं. सब जानते हैं यह बालक अशुभ है, जिसके पास रहेगा उसी का अनिष्ट करेगा.

इतनी बड़ी दुनिया, पर अपना कोई नहीं- अकेला, अनाहूत, त्याज्य!

'राम्बोला' कहते थे सब उसे

नीमतलेवाली ताई कहतीं,' अरे बेचारा ब्राह्मण बालक ,काहे दुरदुराते हो!जियेगा तो वह भी न!' ,

प्रायः वही दिन में एक बार खाने को कुछ दे देतीं.

अरे हाँ पुआ ?

सारी स्मृतियाँ पृष्ठभूमि में जमा हो गई हैं, मौका मिलते ही झाँक जाती हैं.

         नवरात्र जैसे कुछ गिने-चुने दिन होते थे जब भूख से अकुलाता बालक पेट भर स्वादिष्ट भोजन पाता था..

      ऐसा ही एक बस्योढ़ा का पर्व था, सुहागिन  महिलाएँ वस्त्राभूषणों से सज कर नीमवाले चबूतरे पर एकत्र हो, शीतला माता को पूजती थीं. वृक्ष के थाँवले में कुछ मूर्तियाँ और सुगढ़-अनगढ़ प्रस्तर पिंडियाँ रखी रहती थीं . 

वही उनकी पूजनीय थीं. देवी के गीत गाती वे प्रसाद की डलियाँ जिसमें पूड़ी, पुए काले चने आदि का प्रसाद होता, थाँवले से सटा कर रख देतीं. और पूजा की वस्तुएँ रख कर बैठ जातीं, माँ को प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रशंसा में गीत गातीं. उनके कण्ठों से निकले देवी के गीतों के बोल वातावरण में गूँजने लगते. 

माँ से प्रार्थना करते हुये धूप-दीप जला कर पूजतीं ,आँचल पसार कृपा की याचना हेतु, चरणों में झुकतीं. 

चबूतरे के एक कोने में बैठा रामबोला रुचिपूर्वक देखता रहता.,

ताई एक पूरा पुआ और चने के साथ हलवा-पूड़ी का प्रसाद उसे बुला कर देतीं .अन्य,स्त्रियों से भी प्रसाद पा कर वह अपना भरा हुआ दोना ढककर रख देता. जानता था  नीम पर बैठे कौए ताक लगाए हैं.

वे सब थोड़ी देर बैठतीं. उनके बच्चे प्रसाद खाते  चारों ओर मँडराते रहते.  दूध-पूत के असीस अपने आँचल में समेट, वे धोक दे पूजा का समापन करतीं. 

सब चले जाते, तब नीम तले के उस एकान्त में रामबोला निःशंक हो कर थाँवले के समीप आ बैठता.

       हल्दी-कुंकुम लिपटी पिण्डियाँ विराजी रहतीं, धूपबत्ती से उठता धूम  लहराता हुआ हवा में गमक भरता, पूजा के दीप थोड़ी देर जल कर बुझने लगते. हर दिये की बात्ती बुझने से पहले, सारा तेल खींच कर लौ उठाती फिर एक चिंगारी छोड़ शान्त हो जाती. अंतिम धूम-रेखा के साथ जो सोंधी गन्ध नासापुटों में समाती वह रामबोला को बहुत भाती थी, दीपों के बुझने तक वह वहीं बैठा रहता. फिर अपना प्रसाद उठा कर .देवी माँ के फैले आँचल तले, नीम की छाँह में फसक कर बैठ जाता और परम सन्तुष्ट भाव से  वह विपुल प्रसाद जीमता. पेट भर कर वह अभी-अभी सुनी हुई लय-तान वाला कोई गीत गाते-गाते परम तृप्ति से वहीं सो जाता. 

बरसों बाद आज फिर भूख से शिथिल रामबोला तुलसीदास बना, पुओं का प्रसाद  पा गया है!.

कुएँ पर जाकर दोना आड़ में रख हाथ धोये और पुए का टुकड़ा तोड़ कर मुँह में चाला .

'अहा!' 

निराला ही स्वाद था उन पुओं का, जैसे अमृत घोल कर बनाए हों.

परम सन्तोष से खाता रहा वह. लगा जन्म-जन्मान्तर की क्षुधा शान्त हो गई. मन अनूठी तृप्ति पा गया.लगा तन में नई ऊर्जा लहरा उठी.

हृदय अपार कृतज्ञता से भर आया.

       चलते समय मन्दिर के खुले द्वार से दृष्टि भीतर गई, हल्की रोशनी में आसन पर विराजमान माँ की झलक मिली. उन्होंने शीष झुकाया विनती की - 'माँ, इस दीन अनाथ पर अपनी करुणा-दृष्टि बनाए रखना!' 

  चलने के लिेए मुड़ने लगे तो, लगा कोई कह रहा है - 'यहाँ क्या कर रहा है, वे तो अवधपुरी में हैं.'

    * .

 वे अयोध्या चले आये.

तभी वसन्त-पञ्चमी का पर्व पड़ा. दुष्काल की मार ऐसी कि अन्नदान कर पुण्य बटोरने के अवसरों पर भी जब लोग स्नान कर पुण्य कमाना चाहते हैं तो लाई गई खिचड़ी आधे याचकों के लिये भी पूरी नहीं पड़ती. अनगिनती हाथ फैले रह जाते हैं.

      खिन्न मन से वे घाट पर बैठे सरयू का प्रवाह देखते रहे - 'प्रभु, इस सरयू में प्रवेशकर तुम अपने धाम चले गये, इन दुखी जीवों को क्या चिरकाल इसी प्रकार दग्ध होते रहना है?'

मन ही मन सोच रहे थे - जिसने आपना सारा जीवन लोक-रक्षा और कल्याण के लिये अर्पित कर दिया, उसके भक्त, लोक से विमुख हो अपने लिये सुख खोज रहे हैं.धर्म पर आधात पर आघात हो रहे हैं  और वे अन्याय और अनीति का चारों ओर बोलबोला देखते हैं और अपने रस-रंग में मग्न हो जाते हैं,स्वाभिमान का क्षरण हो गया है. अपमान और दुर्दशा झेलते रह कर जीना जैसे नियति बन गया हो,समर्थ जन भी जातीय पराभव से उदासीन अपनी सुख-लालसा पूरी करने में लगा है.

 तट पर मेला लगा था स्नानार्थियों से दक्षिणा पाने के लिये अनेक कथा-वाचक अपनी चौकियाँ सजाये बैठे थे.

तुलसीदास वहीं आँखें मूँद कर प्रभु का स्मरण करने लगे , लोक-दशा  देख मन उद्विग्न हो रहा था.

 वे आँखें मूँदे गुनगुनाने लगे - उस भाव-लीन अवस्था में अनायास उनका स्वर मुखर होता गया ,जैसे अंतर्मन से अनवरुद्ध पुकार उठ रही हो  गहन-गंभीर स्वर गूँज उठा -

'खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,बलि, 

बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी। 

जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस, 

कहैं एक एकन सों, ‘कहाँ जाई, का करी?’ 

बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत, 

साँकरे सबै पै, राम! रावरे कृपा करी। 

दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु! 

दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी॥'


अंतिम पंक्तियाँ उन्होंन दोहरा कर गायीं,जैसे जन के दुख सुनाकर राम को अनवरत टेर रहे हों .

       आसपास के लोग शान्त हो कर सुनने लगे थे. सामयिक दशा का सहज लोक-भाषा में चित्रण जिसके कानों में पड़ा खिंचा चला आया .

.स्वर थमने के बाद कुछ क्षण चुप्पी छाई रही. फिर कुछ लोग समीप आ गए.

'महाराज आप बहुत गुणी लगते हैं.'

'रामप्रभु का साधारण सा सेवक हूँ, उन्हीं के गुण गाता हूँ .सब कुछ देखता हूँ और उन्हीं से कृपा की याचना करता हूँ.' 

'फिर तो हमें आपको सुनने का आनन्द मिलता रहेगा?'  

'अवश्य, यह तो मेरा प्रिय कार्य है'. 

'वैसे आप क्या करते हैं महाराज?'

'कथावाचन करता रहा हूँ ,ज्योतिष की भी थोड़ी जानकारी है वही करता था अब सांसारिकता से वैराग्य ले कर अपने प्रभु के चरणों में चला आया.'

'तब तो हमारा भी भला हो जायेगा.'

       और तुलसी रामघाट पर कथा सुनाने लगे. अपने वर्णन-कौशल से साक्षात् चित्रण करने मे सिद्धहस्त थे,.पर्वों के अनुरूप कथायें और अपने रचेी स्तुतियों एवं आत्म-निवेदन के पदों का सुमधुर गायन उनके कथ्य में  प्रामाणिकता का संचार कर देता था.


उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली था .

 संगीत का ज्ञान था,कंठ में स्वर था जो बरबस ही मन को खींच लेता था.संवेदनशीलता और विद्वत्ता ,के साथ,श्रेष्ठ गुरुओं से मिले संस्कार उनके औदात्य को उजागर करते थे. व्यक्तित्व सुदर्शन था ही.अपने वस्त्रों के लिये कभी सचेत नहीं रहे थे तुलसी पर विवाह के बाद रत्ना ही उनकी सँवार का ध्यान रखती थी, कहती थी - कथावाचक की वेष-भूषा का प्रभाव पड़ता है , व्यास पीठ पर बैठें तो सुवेश धारण कर माथे पर तिलक-चन्दन से सज्जित हो कर.पवित्र रुचिर वेष सुननेवालों को प्रभावित करता है.  

.दस वर्ष से भी अधिक  रत्ना के साथ रह कर वे इस ओर भी सावधान रहने लगे थे. 

उसी ने काँधे पर उत्तरीय सँवारना सिखा दिया था.

एक बार उन्होने नन्ददास से कहा था-

'सच कहूँ नन्दू ,तुम्हरी भौजी ने सिखा दिया कि वाणी के अनुकूल भूषा भी सुरुचिपूर्ण होना वांछित है..

'मुझे कपड़े की पहचान आज भी नहीं है ,दूकानदार ठग ले तो पता भी न  चले ,पर मुझे खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ती, यजमानी में मिल जाते हैं,' 

         कथावाचक बहुतेरे थे पर नोन-चून के लिए दक्षिणा की आग्रही और निस्पृह-निष्ठा से प्रेरित वाचन में ज़मीन-आसमान का अन्तर होता है.

प्रथम दिवस से ही तुलसीदास लोक-प्रिय होने लगे थे. 

जब व्यासपीठ से कथा का प्रारंभ हुआ ,गणेश-वन्दना के स्वर गूँजने लगे -'गाइये गणपति जग वंदन...'

श्रोताओं का हृदय आनन्द से भर गया .एकदम नई स्तुति!

 किसी ने कहा,हाँ, वे अपनी स्तुतियाँ और निवेदन स्वयं रचते है.'

लोगों की दृष्टियों में उनका सम्मान बढ़ गया.

फिर कथा की भूमिका बँधने लगी.

 सर्वप्रथम राम-कथा किसने -किसे सुनाई - शंकर-पार्वती का उल्लेख कर तुलसी रुच-रुच कर काकभुषुण्डि,की कथा सुनाने लगे. पूरे मनोयोग से रसास्वादन करते श्रोता सुन रहे थे. भक्तिरस से भावित.गहन-गंभीर स्वर, और पुराण-सम्मत विद्वत्तापूर्ण व्याख्या से विभोर थे

अनायास तुलसी ने नई बात कह दी ,'लगता है हमारे भुषुण्डि जी को दही पुआ बहुत प्रिय है.

माँ जानकी के प्रसादामृत का स्वाद तुलसी कैसे भूलते?

 बोले,' पुआ कैसा लगता है आप लोगों को?'

श्रोताओं का कौतूहल जाग उठा.

 एक साथ अनेक स्वर उठे -'हमें तो बहुत भाता है'.

तुलसीदास मुस्कराये.सब के मुखों पर स्मिति छा गई. 

'बालरूप प्रभु राम को माता कौशल्या ने गाढ़ा-गाढ़ा दही रख कर पुआ पकड़ा दिया .'

'और हमारे भुषुण्डि जी? काग-देह तो थी ही, भरी उड़ान और प्रभु के हाथ से छीन लाये.

देखा आपने, भक्त कैसे अपने को अपने आराध्य की लीला से जोड़ लेता है?'

'और जब उन्होंने कृष्णावतार लिया तब भी चूके नहीं ,उसी काग-रूप में बालकृष्ण के हाथ से माखन रोटी झपट लाये.'

श्रोताओं को संबोधित कर बोले,' कल्पना कीजिये उस दृष्य की ,काग महाराज आनन्द से सामने बैठे स्वाद ले ले कर, मानो कह रहे हों, 'लो प्रभु हम हैं तुम्हारे भक्त ,उच्छिष्ट पा कर तृप्त हो रहे हैं,'

और प्रभु चकित-विस्मित भाव से हाथ से इशारा कर माँ को दिखा रहे हैं - 'वो मेरा पुआ .ले गया..!'

आनन्दित श्रोता झूम उठे..

अंत में समापन -- तुलसीदास जी के स्वर गूँजने लगे - 

'मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।

गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥

प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी

भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥ '

और श्रोताओं ने पंक्तियाँ दोहराते हुए उस स्तुति में अपना स्वर मिला दिया! .

पूरा रामघाट और सरयू के दोनों तट श्रीराम के महिमा-गान से गूँजने लगे ..

*

(क्रमशः)

मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

राग-विराग - 9.

*

वापसी में रत्ना बहुत चुप-चुप थी .

 नन्ददास बत करने का प्रयत्न करते, तो हाँ,हूँ में उत्तर दे देती.

वे उसकी मनस्थिति समझ रहे थे..

कुछ देर चुप रह कर उन्होंने नया विषय छेड़ा -

'क्यों भौजी,तुम्हारे पिता ने तुम्हारी शिक्षा पर खूब ध्यान दिया?'

रत्नावली उनकी ओर देखने लगी

'वैसे तो लोग लड़कियों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं देते ,जानते हैं पढ़-लिख कर क्या करेगी, अंततः गिरस्थी करना है सो थोड़ा-बहुत पढ़ा कर छुट्टी करते हैं.पर भौजी तुम्हारे पिता ने तो तुम्हें कितना आगे बढ़ा दिया, पूरी विदुषी बना दिया.' .

रत्ना  के मुख पर चमक आ गई थी  

'हाँ, देवर जी, मेरे पिता का विचार था लड़की की रुचि है तो उसको पूरी शिक्षा मिलनी चाहिये..'कुछ रुक कर बोली, 'माँ कहती भी थी उसे गृहस्थी ही तो करनी है कौन शास्त्रार्थ करना है .उनका उत्तर होता ,क्यों शास्त्रार्थ नहीं कर सकती क्या?भारती का नाम नहीं सुना ?मण्डन मिश्र से कम थी क्या! उसका चाव भी देखो ,उसकी बुद्धि देखो ...'

''तो तुम शुरू से तीव्र बुद्धि रहीँ.. ..'

'मेरा बचपन कुछ अलग-सा रहा. गुड़ियों के खेल मेरा मन नहीं बाँध पाते थे. घर में ग्रंथों पर विवेचन होता मैं ,खेलना छोड़ कर वहाँ जा बैठती थी. देवर जी, बचपन का जीवन में बहुत महत्व होता है ...,संस्कारों की नींव पड़ती है ,सबंधों को पहचानना आता है..मुझे तुम्हारे दद्दा के लिए बहुत लगता है - उन्हें तब भटकना पड़ा. अपनापन पाने को कितना तरसे हैं. वे दुःखद यादें अब भी उनके मन को विचलित करती हैं.' . ..

नन्ददास को सब याद है ,यह भी याद है कि दीनबंधु पाठक अपनी पुत्री को तुलसी से ब्याह कर परम संतुष्ट थे. ,बोले थे -जैसे मण्डन मिश्र और भारती ,ऐसे ही ये युगल- तुलसी और रत्ना .हाँ, कितने अनुरूप ,रूप-गुण विद्या-बुद्धि में सब प्रकार समतुल्य.

कैसी फबती है जोड़ी!

 नज़र लगी थी लोगों की उस पर .

रत्ना से संवाद का तारतम्य जोड़ते हुए बोले.

'हाँ भौजी, लेकिन फिर भी उनने बहुत कर लिया.' 

'बहुत अध्यवसायी हैं वे,क्या स्मरणशक्ति पाई है ,और बुद्धि कितनी तीक्ष्ण .पर कुछ संस्कार बचपन से मिलते हैं...परिवारजनों के साथ रह कर और भी बहुत कुछ..'  कहते-कहते  रत्ना चुप हो गई.

कुछ देर दोनों चुप रहे..नन्ददास ने फिर उनके पीहर की बातें छेड़ दीं. 

रत्ना को याद है, पिता ने कहा था,' अपनी दीप्तिमती कन्या के लिये तुलसी जैसा वर पाकर मैं  संतुष्ट हूँ.'

उसके गौना होने तक उसकी शिक्षा में कोई कसर नहीं रहने दी. 

रत्ना भी पूरे मनोयोग से पढ़ती और ग्रहण कर लेती ,माँ कहतीं उसे गृहस्थी के काम सीखने दो.' 

पिता का उत्तर था ,'सब सीख लेगी .कौन सास-ननद बैठी हैं उसका कौशल देखने को? जमाई के साथ रहना है उन्हीं के अनुरूप बन कर रहे.'

रत्ना बताये जा रही थी

'मेरे पिता! हाँ, मेरे पिता ने मुझ पर बहुत ध्यान दिया. कहते थे मेरी बेटी किसी से कम नहीं है.मेरी रुचि भी थी, ईश्वर कृपा से याद भी जल्दी हो जाता था ..बड़े प्रसन्न होते थे जब मैं धड़ाधड़ उनके सामने पाठ सुनाती थी.

वे कहते थे प्रारंभ से बीज पड़ा है तो फलेगा जरूर ,और मनचाहे पात्र के रूप में अनुकूल परिस्थितियाँ उन्होंने खोज भी लीं.'

रत्ना ही बोलती रही ,' पति, लाखों में एक मिले. उनके सान्निध्य में, उनकी विद्वत्ता और ज्ञान का अंश मैं भी पाना चहती थी. पर उन्हें इतना अवकाश कहाँ रहा!' एक गहरी साँस निकल गई .

 नन्ददास ने कहा, ' मुझे तुम्हारे ब्याह की याद है -

'कुँवर-कलेवा पर तुम्हारी सखियाँ छेड़ रहीं थीं,जमाई राजा ,गुमान मत करना हमारी रतन भी कम नहीं है. कविताई करती है ,छंद-पिंगल जानती है.

वो भूरी आँखोंवाली लड़की थी न खूब बोल रही थी.'

'अच्छा ,गौरी. हाँ, उसे भी पढ़ने-लिखने का चाव था .'..

.'अब कहाँ है वह?' 

'बड़ी दूर ब्याह गई. एक बार मिली थी. बहुत मन करता था मिलने का पर, मै मायके जा ही कहाँ पाती थी.' 

नन्ददास ने टूटती कड़ी जोड़ी, 'कह रही थी ,'दायज में अपने साथ पुस्तकें भी ले कर आयेगी हमारी रतन. तुम्हारे घऱ.

'इस पर कोई बोला - अच्छा है दोनों पढ़ते-पढ़ाते रहेंगे.'

'अरे, इतने साल हो गये ब्याह को.  तुम तो इतने छोटे थे, अभी तक याद है?'

'इतना भी छोटा नहीं था और तुम्हारी शादी तो मेरे लिए खास थी. '

' तुम्हें पता है भौजी, किस ने टोका था - कोहबर के खेल में सावधान रहना दोनों वहीं शास्त्रार्थ न करने लगें!'  

सब लोग खूब हँसे थे.

'सखियाँ मेरे भाग्य पर सिहाती थीं. कहतीं रतन, तुझे तो खुला आकाश मिल गया.' 

रत्नावली का ध्यान अपने विवाहित जीवन पर चला गया -

दस बरस से अधिक पति के साथ अंतरंग रही थी, सोचती थी ,बचपन से तरसा हुआ मन संतुष्ट हो जाये ,अन्य सारे सम्बन्धों की कमी पूरी करना चाहते हैं. विद्वद्चर्चाएं करने का अवकाश कहाँ है उनके पास?  मैं चाहती थी प्रसन्न रहें वे. सुस्वादु भोजन और  प्रेम भरा व्यवहार उन्हें तुष्ट रखे ,तन-मन को तृप्त हो लेने दो,कहाँ भागे जा रहे हैं?'

पर मन तृप्त हुआ है कभी?

प्रतीक्षा ही करती रही रत्ना और समय हाथ से निकल गया.

'क्या सोच रही हो?

देवर जी, थोड़ा-सा अवकाश चाहा था मैंने जिसमें मन के हाथपाव फैला सकूँ. ' 

समझने के प्रयत्न में नन्ददास ने अपना सिर झटका. पल भर में कौंध गया ,दद्दू भौजी से दूर बिलकुल नहीं रह सकते थे.

'थोड़ा अवकाश चाहती थी, लेकिन पूरी छुट्टी हो गई, वे चले गये. यह तो कल्पना भी नहीं की थी कभी.'

नन्ददास क्या कहें? 

उदास-सी चुप्पी छा गई.

घर पहुँच कर रत्ना ने कहा था,' देवर जी, बड़ी बेर हो गई ,भोजन कर के जाना, और हाँ ,चन्दू को भी बुला लो.' 

मर्यादा का कितना ध्यान रखती हैं- नन्ददास ने सोचा था.

उन्हें याद आया रत्ना ने काशी में रहने की इच्छा प्रकट की थी, कहा था,' अपनी रिक्तता भरने के लिए, मन करता है काशी में निवास करूँ, जीवन सार्थक कर लूँ.  परिवार के दायित्व होते तो अपना ध्यान भी न आता. अब यहाँ रहूँ कि काशी में, किसे अंतर पड़ेगा?.. और मैं तर जाऊँगी.'

लेकिन दद्दू को यह उचित नहीं लगा. उन्हें लगा यहाँ सब जाना-पहचाना है, पुराने सम्बन्ध है. नई जगह पता नहीं कैसा क्या हो? रत्ना घर में ही रही है बाहर की दुनिया में कैसे क्या करेगी? और काशी में रह कर करेगी क्या? नहीं-नहीं, वहीं ठीक है वह. व्यर्थ की बातें सोचती है.' 

 फिर कह उठे, ' और मेरी तो सारी  निश्चिंती समाप्त समझो! नहीं नन्दू, मना कर देना, समझा देना उसे!'

नन्ददास के मन में पछतावा जागा,' ओह, भौजी के मन में काशी-सेवन की लालसा मैंने ही जगाई थी. 

'जब जाता था, सुना आता था, दद्दू की कैसे लोगों में पहुँच है, कैसे-कैसे विद्वान, पण्डित,शास्त्र के ज्ञाता हैं जिनकी बातों से मन को समाधान मिलता है.  उनसे कहता था- भौजी ,मैंने भी काशी में रह कर विद्याध्ययन किया है. दद्दू की तो बात ही क्या! गुरु नरहर्यानन्द और शेष सनातन जैसे, जिसे मिल जायँ वह तो लोहा भी कंचन बन जाये, फिर दद्दू तो सजग-सचेत तीव्र बुद्धि-संपन्न हैं, समर्थ हैं. सच में जो ऐसे महापुरुषों के संसर्ग में आये, उसका कल्याण हो जाये!

'कभी गंगा, कभी माँ अन्नपूर्णा और बाबा विश्वनाथ और भी बहुत कुछ सुना-सुना कर पुण्यपुरी काशी का माहात्म्य सुनाता रहता था. और अब, जब कामना जाग गई तो सारी राहें बन्द पड़ी हैं. ज्ञान की पिपासा है उनमें ,गृहस्थी में रमी होतीं ,संतान होती तो ध्यान उधर बँट जाता.

दद्दा कुछ सोचते क्यों नहीं? 

'बुद्धिमती पत्नी भाती है, पर उसका भी अपना व्यक्तित्व अपनी वाँछाएँ हो सकती हैं यह भान क्यों नहीं होता?'

 वे सोच में पड़े थे.

रत्नावली रसोई समेटने का उपक्रम कर रही थी.

रात्रि की अँधियारी घिर आई थी.  

नन्ददास उठते-उठते बोले .'ये चन्दू कहाँ ग़ायब हो गया?'

उसे आवाज़ लगा दी. जाने को खड़े हो गए. जैसे एकदम कुछ याद आया हो , रत्ना की ओर उन्मुख हो पूछा,' अरे हो भौजी, विश्वनाथ बाबा से क्या माँगा तुमने?'

'मुझे कुछ अधिक नहीं चाहिये.'

'फिर भी कुछ प्रार्थना तो की होगी. सच्ची-सच्ची बताना. देखो,भगवान की बात पर

झूठ मत बोलना.' .

'मेरी प्रार्थना? सुनोगे - हर बार एक ही प्रार्थना करती हूँ.'

'बताओ ना.' 

'तो सुनो ,मैं अपने ईश्वर से माँगती हूँ - अनायासेन मरणम्, बिना दैन्येन जीवनम्, देहान्ते तव सानिध्यम्, देहि मे परमेश्वरम्!'

*

(क्रमशः)