गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

एक जानकारी

"...न ही इस बात की कोई जानकारी है कि लड़कपन के उस दौर के बाद फिर कभी राधा से उनकी मुलाकात भी हुई या नहीं।"


चंद्रभूषण जी (पहलू)की 26 नवंबर की पोस्ट में उपरोक्त पंक्ति पढ़ी और अपना कमेंट देना चाहा ,पर इतना बड़ा हो गया कि वहाँ देना उचित नहीं लगा .अपने ही ब्लाग पर लिखे ले रही हूँ -

भारतीय- मानस इतना भी अनुदार नहीं ,कि लंबी तपन के बाद कुछ शीतल छींटे भी वर्जित कर दे .सूर ने कई पदों में यह आभास दिया है - सूर्यग्रहण के अवसर पर ,प्रभास तीर्थ आई, ब्रज की टोली को देख रुक्मिणी पूछती हैं - 'तुम्हरे बालापन की जोरी?' और कृष्ण दिखाते है ,'वह युवति-वृन्द मँह नील वसन तन गोरी ,.'

फिर राधा-रुकमिनि कैसे भेंटीं - 'बहुत दिनन की बिछुरी जैसे एक बाप की बेटी '.

कथाओं में यह भी कि रुक्मिणी राधा को आमंत्रित करती हैं . रुक्मिणी स्वयं शयन- पूर्व उनके लिए दूध लेकर जाती है- गर्म दूध ,राधा चुपचाप पी लेती है किन्तु छाले कृष्ण के चरणों में उभऱ आते हैं .

इसी को पल्लवित करते हुए मैंने उस भेंट की झाँकी  प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया था -

तुम्हरे बालापन की जोरी.

रुकमिन बूझति सिरी कृष्ण सों कहाँ गोप की छोरी ?'

'उत देखो उत सागर तीरे नील वसन तन गोरी ,

सो बृसभान किसोरी !'

सूरज ग्रहन न्हाय आए तीरथ प्रभास ब्रिजवासी ,

देखत पुरी स्याम सुन्दर की विस्मित भरि भरि आँखी!

'इहै अहीरन करत रही पिय, तोर खिलौना चोरी ?'

हँसे कृष्ण ,'हौं झूठ लगावत रह्यो मातु सों खोरी !

एही मिस घर आय राधिका मोसों रार मचावे ।

मैया मोको बरजै ओहि का हथ पकरि बैठावे ।'

उतरि भवन सों चली रुकमिनी ,राधा सों मिलि भेंटी ,

करि मनुहार न्योति आई अपुनो अभिमान समेटी !

महलन की संपदा देखि चकराय जायगी ग्वारी

मणि पाटंबर रानिन के लखि सहमि जाइ ब्रजबारी !

**

ऐते आकुल व्यस्त न देख्यो पुर अरु पौर सँवारन ,

पल-पल नव परबंध करत माधव राधा के कारन ! !

'मणि के दीप जनि धर्यो ,चाँदनी रात ओहि अति भावै ,

तुलसीगंध ,तमाल कदंब दिखे बिन नींद न आवै !

बिदा भेंट ओहिका न समर्पयो मणि,मुकता ,पाटंबर ,

नील-पीत वसनन वनमाला दीज्यो बिना अडंबर !

राधा को गोरस भावत है काँसे केर, कटोरा ,

सोवन की बेला पठवाय दीजियो भरको थोरा !'

**

अंतर में अभिमान, विकलता कहि न सकै मन खोली

निसि पति के पग निरखि रुकमिनी कछु तीखी हुइ बोली ,

'पुरी घुमावत रहे पयादे पाँय ,बिना पग-त्रानन ,

हाय, हाय झुलसाय गये पग ऐते गहरे छालन ?'

'काहे को रुकमिनी ,अरे ,तुम कस अइसो करि पायो ?

ऐत्तो तातो दूध तुहै राधा को जाय पियायो ?

दासी-दास रतन वैभव पटरानी सबै तुम्हारो ,

उहि के अपुनो बच्यो कौन बस एक बाँसुरी वारो !

एही रकत भरे पाँयन ते करिहौं दौरा -दौरी

रनिवासन की जरन कबहूँ जिन जाने भानुकिसोरी !'

**

खिन्न स्याम बरसन भूली बाँसुरिया जाय निकारी,

उपवन में तमाल तरु तर जा बैठेन कुंज-बिहारी /!

बरसन बाद बजी मुरली राधिका चैन सों सोई

आपुन रंग महल में वाही धुन सुनि रुकमिनि रोई !

*

रह-रह सारी रात वेनु-धुन ,रस बरसत स्रवनन में ,

कोउ न जान्यो जगत स्याम निसि काटी कुंज-भवन में !

**
जन-मानस कृष्ण को राधा के साथ ही देखना चाहता है .राज-भवनों के ऐश्वर्य में उनके साथ पटरानियाँ रहती होंगी .पर मंदिरों में माधव के साथ सदा राधा विराजती हैं .
- प्रतिभा .

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

द्वाभाओँ के पार

*
अभी मेरे कमरे को डूबते सूरज की किरणें आलोकित किये हैं .सांध्य-भ्रमण के लिए तैयार होकर नीचे उतरी हूँ ..

' देखो सूरज डूब गया, शाम होने लगी है' ,पति कहते हैं.वे अपने पाँवों की परेशानी कारण साथ नहीं जा पाते .

नीचे रोशनी काफ़ी कम है .छायायें घिर आई हैं.

'अब सूरज पाँच बजे से पहले डूब जाय तो मैं क्या कर सकती हूँ.'(वैसे मुझे पता है कि यहाँ घड़ी एक घंटा पीछे कर दी गई है-डे लाइट सेविंग).जानती हूँ न, वे कुछ कहेंगे नहीं इसलिए बोल देती हूँ.

उनका कहना है जल्दी निकलो और रोशनी रहते घूम कर लौट आया .मेरा प्रयत्न यह रहता है कि घर से निकलने में देर कर दूँ.और साक्षात् देखूँ कि किस विधि प्रकृति का मुक्त एकान्त सजाती द्वाभाएं अपना ताफ़्ता रंगोंवाला झीना आंचल सारे परिवेश को उढ़ाती हैं .जब कहीं कोई नहीं होता सड़कों पर भी ,भ्रमणकर्ता अधिकतर लौट चुके होते हैं कभी एकाध मिल जाता है तो एक 'हाइ' फेंककर अपनी राह बढ़ जाता है. अब जब,यौवन को कोसों पीछे छोड़ आई हूँ मुझसे किसी को या किसी से मुझे ऐसा-वैसा कोई खतरा नहीं -निश्चिन्त हो कर मनचाहा घूम सकती हूँ ,

निविड़ एकान्त का , इस गहन शान्त बेला का कितनी व्यग्रता से इंतज़ार करती हूँ.यह एक घंटा सिर्फ़ मेरा . अगर कोई बाधा आ जाए,तो कहीं व्यस्त रहते हुए भी हुए मन घर की खिड़कियों से बाहर निकल भागता है ,जहाँ रंग-डूबी वनस्पतियों में मुक्त विहार करती द्वाभाएँ आकाश से धरती तक जादुई रंग उँडेलती रहती हैं .नवंबर का मध्य और दिसंबर का अधिकांश- यहाँ सुन्दरता चारों ओर बिखरी पड़ती है है.फ़ॉल- कलर्स की कारीगरी -सारी प्रकृति सजी-धजी . बिदाई - समारोह का आयोजन हो रहा है ,निसर्ग में रंगों के फव्वारे फूट पड़े हों जैसे .सिन्दूरी ,पीले लाल ,सुनहरे, बैंगनी कत्थई ,वसंती नारंगी ,कितने रंगों के उतार-चढ़ाव सब ओर उत्सव का उल्लास ,सारी वनस्पतियाँ मगन. जीवन के चरम पर अपने-अपने रंगों में विभोर.पूरी हो गई है अवधि, आ रही है प्रस्थान की बेला ,खेल लो जी भर रंग . वर्ष बीतते सब झर जायेगा ,सन्नाटा रह जाएगा .कबीर ने जिसे कहा था -दिवस चार का पेखना'

ये चार दिवस का पेखना ही तो जीवन है - चित्प्रकृति का मुक्त क्रीड़ा कौतुक ! निसर्ग के इस महाराग पर अपनी कुंठाएँ लादना शुरू करोगे तो शिकायतें ही करते रह जाओगे .ये जो हमारे बनाये खाँचे हैं -आत्म को बहुत सीमित कर देते हैं . कभी इससे बाहर भी निकलो . और कबीर तुम सोचते कभी कि अनगिनत युगों से ये सरिता-जल कहाँ से बहता चला आ रहा है?न कोई आदि न अंत - एक अनंत क्रम .जीवन भी तो अनवरत प्रक्रिया है - अनंत क्रम .कौन बच सका इस आवर्तन से !इसी क्रम में कहीं हम भी समाए हैं . अगर आगमन समारोहमय है तो प्रस्थान भी उत्सवमय क्यों न हो !

नवंबर का महीना! इन सुरंजित संध्याओँ में साक्षात् हो रहा है निसर्ग की गहन रमणीयता से . सारे पश्चिमी तट को विशाल बाहुओं में समेटे रॉकी पर्वतांचल की किसी सलवट में सिमटा छोटा -सा नगर .केलिफ़ोर्निया की राजधानी का एक उपनगर .अभी अपने में प्रकृति के सहज उपादान समेटे है. कोलाहल-हलचल से दूर ,मुक्त परिवेश ,पर्वतीय तल पर समकोण बनाते ऊँचे-ऊँचे वृक्ष, धरती पर दूर-दूर तक फैला वनस्पतियों का साम्राज्य.कभी ओझल हो जाता कभी साथ चल देता क्रीक जो आगे ताल में परिणत हो गया है !

उदय और अस्त बेलाएँ अपने संपूर्ण वैभव के साथ प्रकट होती है .अभिचार रत द्वाभायें अभिमंत्रित जल छिड़कती -टोना कर रही हैं .

संध्या की धुँधलाती बेला ,न चाँद न सूरज -केवल एकान्त का विस्तार !ऐसा अकेला पन जब अपनी परछाँईं भी साथ नहीं होती ,लगता है मैं भी इस अपरिमित एकान्त का अंग बन इसी में समाती  जा रही हूँ .चारों ओर पतझर का पीलापन छाया है .वृक्षों के विरल पातों से डूबते दिन की रोशनी झलक कर चली गई है . .हवाएं चलती हैं धुँधलाती रोशनी में रंग प्रतिक्षण बदल रहे हैं है ,साँझ ने चतुर्दिक अपनी माया फैला दी है . पतझर की अबाध हवाएं पत्तों को उछालती खड़खड़ाती भागी जा रही हैं. साँझ का रंगीन आकाश ताल में उतर आया है .इस पानी में झाँकते बादल लहराते हैं ,किनारे के पेड़ झूम-झूम कर झाँकते हैं.

हर रात्रि अभिमंत्रित सा निरालापन लिए आसमान से उतरती है . क्षण-क्षण नवीनता, पल-पल पुलक शाम का ढलना ,रात का आँचल पसार -धीमे-धीमे उतरना , सारी दिशाओँ को आच्छन्न कर लेना ..धुँधलाते आसमान में बगुलों की पाँतें बीच-बीच में कुछ पुकार भरती इस छोर से उस छोर तक उड़ती चली जाती हैं ,उनकी आवाज़ें मुझे लगता है कहीं दूर रेंहट चल रहा है. पर यह मन का कोरा भ्रम -यहाँ अमेरिका में रेंहट कहाँ .

गहन एकान्त के ये प्रहर .इस साइडवाक से ज़रा हट कर चलती सड़क के वाहनों से भागते प्रकाश से आलोकित ..नहीं तो वही सांध्य-बेला .आकाश में रंगीन बादलों के बदलते रंग धीरे-धीरे गहरी श्यामता में डूबने लगते हैं. ,जिसमें जल-पक्षियों की का कलरव-क्रेंकार रह रह कर गूँज जाती है .साइडवाक और सड़क के मध्य वृक्षावलियाँ ,और घनी झाड़ियाँ ,-रोज़मेरी और अनाम सुगंधित फूलों से वातावरण गमकता है .बीच-बीच में सड़कों पर गाड़ियों का आना-जाना,रोशनी और परछाइयां बिखेरते गुज़र जाना .उन दौड़ती रोशनियों में पेड़ चमक उठते हैं .अपनी ही परछाईँ प्रकट हो मेरे आगे-पीछे दौड़ लगा कर ग़ायब हो जाती है .

जब चांद की रातें होती हैं तो पीला सा चाँद उगता है ,हर दिन नया रूप लिए ,धीरे -धीरे साँझ रात में गहराती है ,आकाश की धवलिमा धूसर होने लगती है ,.अभी कुछ दिनों से पानी बरसने लगा है ,वातावरण में ठंडक आ गई है .झील के जल में किनारे एक भी पक्षी नहीं दिख रहा .क्वेक-क्वेक की आवाज़ें आ रही है ,कहीं दुबके बैठे होंगे .उधर झील के बीच में कुछ आकृतियां हैं .किनारे झाड़ियाँ और बीच-बीच में श्वेत ऊंची-ऊंची काँसों के झुर्मुट .आकाथ श्यामल जल में प्रतिबिंबित हो रहा है .ताल कैसे अँधेरे में अपने को छिपा कर बाहर के सारे प्रतिबिंब अपने में धार लेता है . रात को सारे चाँद-तारे जल में उतर आते हैं

ये हल्के अँधेरे मुझे बहुत अच्छे लगते हैं देर हो जाती है तो और अच्छा ,अँधेरे और चाँदनी की मोहक माया .जैसे दूर-दूर तक इन्द्रजाल फैला हो .धरती पर झरे हुए पीले पत्ते ,ऊँचे-ऊँचे श्वेत काँस झुण्ड बनाए सिर हिलाते बतियाते रहते हैं .,,
विशाल वृक्षों की टहनियाँ धरती तक और ऊपर आकाश तक श्यामता को और गहरा देती हैं

आकाश के छोर पर एक तारा झाँकता है पहला तारा ,यही तो है ,साँझ को संध्यातारा (ईवनिंग स्टार) और प्रातः मार्निंग स्टार.रोज़ इस चमकते तारे को देखती हूं ,दृष्टि घुमाती हूँ चतुर्दिक व्याप्त सूना आकाश , कहीं कोई सितारा नहीं .
याद आता है माँ का कथन -

एक तरैया पापी देखे दो देखे चंडाल

और मैं पूरे आकाश में उगा यह अकेला तारा रोज़ देखती हूँ .

झील में डूबती.साँझ बेला और सूने आकाश का पहला तारा. यह दोष भी कितना लोभ-मोह भरा है . झील का रंग गहरा जाता है लहरें चमकती रहती हैं .इस अँधेरे ताल में नक्षत्रयुत आकाश सारी रात झाँकेगा .,किनारे पर ऊंची-ऊँची सुनहरी घास .बीच में लंबे-लंबे धवल काँस समेटे हवा में लहराती रहेगी .आती-जाती रोशनियाँ ताल पर बिखरती है थाह लेती परछाइयाँ अपरंपार हो उठती हैं .ये साँझ भी अब ताल में समाई जा रही है चारों ओर गहरे श्यामल आकार,रात की परछाइयाँ थाहता ताल खूब गहन होता जा रहा है.

.इन फ़ुटपाथों पर हवाओं ने जगह-जगह रंगीन पत्ते बिखेर दिये हैं- लाल-पीले पत्ते -बीच-बीच में और रंग भी जैसे राँगोली रची हो ,कोनों और मोड़ों पर ढेर के ढेर .उन्हीं पर पाँव रखते चलते कभी कभी सब-कुछ ,बिलकुल अजाना- सा लगने लगता है. चलते-चलते रुक जाती हूँ जैसे सारा परिवेश अजाना हो. कहाँ जा रही हूँ किन राहों पर चलने आ गई कैसे आ गई , ,ठिठकी-सी खड़ी ,कैसे कदम बढ़ें आगे ,किस तरफ़ मुड़ूँ! .उस परिवेश में डूबी ,अपने से विच्छिन्न ,विमूढ़ .लगता है इन्द्रियातीत हो गई हूँ. अनगिनती बार चली राहें ,अनजानी हो उठती हैं छलना बन बहकने लगते हैं अपने भान ,सब कुछ  अवास्तविक-सा . देह में  कैसा हल्कापन कि धरती पर न टिक पांव उड़ाये लिये जा रहे हों .बिना प्रयास चलते जाना .कहीं का कहीं लिये जाते हैं स्वचालित हो पग,एक बार तो... नहीं , छोडें उस चर्चा को .

विराट् प्रकृति में छाया और प्रकाश की क्रीड़ा . द्वाभाओं के आर-पार दिवस-रात्रि का मौन गाढ़ालिंगन घटित होता और अनायास गहनता के आवरण में विलीन . मेरा निजत्व डूब जाता है ,सब से -अपने से भी विच्छिन्न हो इस महाराग में डूबे रहना -यही हैं - मेरे तन्मय आनन्द के क्षण जिन्हे किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती , अंश मात्र भी गँवाये बिना ,पूरा का पूरा आत्मसात् कर लेना चाहती हूँ .उस तन्मयता में और कोई बोध नहीं रहता , .इस अपरिसीम का एकान्त का अंग बन सबसे अतीत हुई सी .अवकाश उन सबसे, अन्यथा ,जो मुझ पर छाये रहते हैं हर तरफ़ से घेरे रहते हैं . उनके न होने से मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता ,काम्य हैं यही मुक्ति के क्षण, जब मन विश्राम पा सृष्टि के अणु-परमाणुओं में गुंजित अनहद में विलीन हो जाए ..
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मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

ट्राई कर देखिये ...

बाज़ार घूमते हमने एक दुकान पर नाम देखा - "रणजीत चप्पल्स' .

बड़ा ताज्जुब हुआ !चप्पल का रण जीतने से क्या संबंध ?
कुछ ग़लत पढ़ गये क्या -चरणजीत चप्पल्स होना चाहिये था .हो सकता है चरण का 'च' मिट गया हो किसी तरह. फिर से देखा- नहीं कोई निशान नहीं 'च' का .साफ़ रणजीत लिखा है .
चक्कर में पड़ गए हम! अरे, चप्पल की दुकान है नाम रखना था "चरणजीत चप्पल्स" जो चरण की सेवा कर उसे जीत लें. और ये हैं कि युद्ध जीतने के लिए उकसा रहे हैं .
रणजीत चप्पल्स ?
लेकिन ये ठहरे व्यवसायी लोग . बेमतलब तो नाम देंगे नहीं .
फिर सोचते रहे . एकदम ध्यान आया - रण का एक प्रकार चप्पलबाज़ी या जूतम-पैजार भी तो है- जो आजकल काफ़ी कॉमन है .और अक्सर ही जूता फेंकने की घटनाएं सामने आ रही है . जूता फेंका तो आसानी से जा सकता है पर उससे मारा-मारी नहीं की जा सकती .गया तो गया .ऊपर से,बनावट ऐसी कि कस पकड़ पाना मुश्किल -ग्रिप नहीं बनता(ट्राई कर देखिये) ,उतारने में समय लगे सो अलग. ताव आते ही फ़ौरन दे मारें, ये संभव नहीं. ज़्यादा से ज़्यादा दो बार फेंक लो ,और जूते कहां से लाओगे .पर चप्पल कितनी भी बार चला लो ,हाथ से कहीं नहीं जाएगी!
मतलब खरीदने के पीछे का उद्देश्य पहनना नहीं लड़ कर जीतना है. चप्पल चट् से उतारो और दे तड़ातड़! पकड़ने में छूट जाने का कोई डर नहीं. चाहे जितने वार करो . रण में आसने-सामने वार चलते हैं ,नहीं ,जूता वहां नहीं चलेगा .
रणजीत चप्पलें खरीदी हैं .पहन कर उसे टेस्ट करने की इच्छा बहुत स्वाभाविक है .अब तो मौका ढूँढेंगे कि डट कर प्रयोग हो .तो यह नाम दुकानदार ने सोच-समझ कर रखा है .लड़ाई में डट कर चप्पलें चलेंगी टूटेंगी ,जीत का सेहरा बँधेगा तो वो फिर यहीं से खरीदेगा .हो सकता है चप्पलों में कुछ ऐसा प्रयोग हो. जो प्रतिद्वंद्वी को चित्त करके ही छोड़े. तभी तो जीत की गारंटी दी है.
अच्छा है, दुकान की बिक्री हमेशा होती रहेगी .
सही नाम रखा है, अच्छी तरह ठोंक-बजा कर - रणजीत चप्पल्स .
देखना खूब चलेंगी चप्पलें !