वर्णमाला का सच -
अपनी देवनागरी लिपि के वर्ण बड़े मस्त जीव हैं. इनकी एक निराली दुनिया है, जिसमें रिश्तेदारियाँ, रीति-रिवाज़ मेल-जोल,प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े. अतिक्रमण, दूसरे पर रौब जमाना, उसे चुप कर खुद हावी हो जाना,सब चलता हैं. इनके कुछ नये संबंधी भी बन गये हैं.जिनके बिना वर्णों का काम नहीं चलता.यों कहें कि इन नये लोगों द्वारा सुसेवित होकर ही ये वर्णलोग सार्थकता पाते हैं. इनके साथ जुड़ गए हैं मात्राएँ और विराम-चिह्न! सगे रिश्तेदारों की भूमिका निभाते हैं ये नये लोग- जब मात्राओं से विभूषित और विराम चिह्नों से सेवित हों तभी वर्ण मुखऱ हो पाते हैं.
ये नवागत चुप्पे से हैं ,काम करने में विश्वास करते हैं, ढोल नहीं पीटते. परिणाम यह हुआ कि वर्णों में सुपीरियरटी कामप्लेक्स आ गया. उन्हें लगा उनके पास वाणी है -जब चाहे अपनी आवाज़ उठा सकते हैं. अब उन्हें कौन समझाए कि व्यर्थ में आवाज़ उठाने से कुछ नहीं होता जो बोला जाय वह सार्थक,सुनियंत्रित-सुनियोजित हो तब बात बनती है.ये मात्राएँ और विराम चिह्न बोलें चाहे कुछ न, भाषा में इन तीनो गुणों का संचार करते हैं. वर्णो की वाणी पर अपना पूरा नियंत्रण रखते हैं.
यों कहने को लिपि की वर्णमाला में बावन अक्षर हैं ,पर केवल इनके होने से काम नहीं चलता इनका व्यावहारिक उपयोग आवश्यक हैं. अकेले वर्णों के बस का नहीं कि अभिव्यक्ति की पूरी भूमिका निभा लें.उन्हें सक्रिय होने के लिए सहायकों की आवश्कता होती है उनके काम में साथ खड़े रहने वाले ये मात्राएँ और विराम-चिह्न तन मन से परमानेन्ट सहायक रुप में विद्यमान हैं. पर वर्ण-परिवार में इनका नंबर तब आता है जब स्वयं वर्णाक्षर मुँह लटकाए हतबुद्ध से खड़े रह जाते हैं कि अब कैसे-क्या करें, तब यही लोग आगे आते हैं और जड़ से खड़े वर्णों मे सक्रियता का संचार करते हैं. इनके सहारे बिना वर्ण लोग आगे बढ़ ही नहीं सकते. और भलमनसाहत देखिये इन प्राणियों की! पुकारते ही मात्रायें दौड़ कर साथ खड़ी हो जाती हैं, विराम-चिह्न बढ़ कर सबको अनुशासित कर देते हैं .इन लोगों ने अपने-अपने स्थान निश्चित कर रखे हैं दौड़ कर जम जाते हैं.तभी भाषा अर्थ प्रतिपादन मे समर्थ हो पाती हैं. बड़े ही सचेत-सावधान हैं ये भाषा के निष्ठावान अनुचर!
किसी भी वर्ण को काम पर लगना होता है तो उसे तय्यार करने के लिए मात्रा की पुकार लगती है .बिलकुल इन्सानों के जैसा बिन पहने-ओढ़े कोई व्यक्ति घर से बाहर नहीं निकलता वही वर्णों का हाल है. ये वर्ण लोग भी एक-दूसरे को साथ लिये बिना नहीं चलते..ये जो छोटावाला 'अ' है न ,बड़ा परोपकारी जीव है.हर वर्ण को अपना स्वर दे देता है.सबका जीवनदाता है अफ्ना स्वर न दे तो किसी वरण मे इतना दम नहीं कि मुँह से बाहरआ सके ,अंदर ही अंदर बन्द रह कर चुक जाय. वैसे ये सारे सह अस्तित्व में विश्वास करते हैं , आवश्यक होने पर कभी भले ही इक्का-दुक्का मिल जाएँ आपस में भले लड़-भिड़ लें लेकिन अकेलापन इन्हें काटने दौड़ता है.बोल कर देख लीजिए आपको कुछ करना-कहना है तो साथी अक्षरों को इकट्ठा किये बिना अपनी बात नहीं कर सकते कुछ नहीं कर सकते..जैसे भूख लगी है तो कहेंगे 'खाना'. खाली खाना कहने से भी काम नहीं चलेगा, आगे स्पष्ट कहना पड़ेगा लाओ. किसी वर्ण के लिए आवश्यक है कि सज्जित होकर आए. और ये भली लुगाइयाँ पुकार सुनते ही प्रकट हो जाती हैं, वर्ण लोग झटपट अपनी पसन्द की चुनकर पहन-ओढ़ आगे बढ़ आते हैं.
माना जाता है भाषा वर्णों पर आधारित है ,लेकिन मात्राएं और विराम-चिह्नों की अनुपस्थिति में भाषा निरर्थक रह जाती है. इन लोगों की सहायता के बिना उच्चारण तो दूर की बात है. वर्ण अपना मुँह भी नहीं खोल पाते. सतत प्रयत्नशील रहते हैं कथन को अर्थपूर्ण बनाने के लिए ये लोग भाषा के मूडानुसार चलते हैं.
मान लिया वर्णमाला है यह, हाँ वर्णौं की माला है जैसे पुष्पमाला,या मुक्ता माला! अब विचार कीजिए जिन उपकरणों वह गुम्फित की है है गई उनमें से कुछ निकाल दें तो माला बचेगी? वे माला का अवयव बन कर रहेंगी.
अन्याय देखिय़े , जैसे परिवार के फ़ोटो से परिचारक और सहायक ग़ायब रहते हैं. वैसे ही वर्णमाला निरूपण में ये दोनों वर्ग किनारे कर दिये जाते हैं. माला के सारे उपकरण माला के अवयव है; उन से ही पूर्णता है ,शोभा है. पर क्या कहा जाय!
मति का फेर है, और क्या?
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक और ज्ञानवर्धक
जवाब देंहटाएंसच में...."मति का फेर ही तो है"
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