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'कनक-बिन्दु दइ-चारक देखे, सिर धरि जनक सुता सम लेखे'
- तुलसीदास जी ने रामचरित मानस मेंं उल्लेख किया है ,भरत जी ने वन में कुश-किसलय की साथरी पर दो-चार स्वर्णबिन्दु झलकते देखे और उन्हें सीताजी की उपस्थिति का आभास हो गया.
आज घर में मुझे जगह-जगह कनक-बिन्दु बिखरे दिखाई दे रहे हैं..
महाअष्टमी का पर्व है - बहू ने विशेष रूप से भारतीय वेष-भूषा धारण की है . उसने लाल रंग की किरन लगी साड़ी पहनी है. बार्डर में लगी सुनहरी किरन के नन्हें कण जो घर में उसके चलते-फिरते झर गए हैं जगह-जगह दमक जाते हैं. और मेरे मन में तुलसीदास जी की पंक्ति गूँजने लगती है 'कनक-बिन्दु दइ-चारक देखे -भऱत जी ने सीता जी के जड़ाऊ वस्त्रों से झरे ऐसे ही सुनहरे-कण देखें होंगे जो उनका मन श्रद्धा से भऱ गया. सीताजी के वस्त्र सोने की गोटा-किनारी से मण्डित होंगे ,मेरी बहू के कपड़ों में साधरण गोटा और किरन टँकी है .लेकिन उन्हीं से घर झिलमिला उठा है .पूजा के समय सिर ढाँकने पर किरनवाली कोर मुख के चारों ओर सुनहरा आभा-मण्डल निर्मित कर रही है.मैं अभिभूत सी देखती हूँ. फिर अपनी दृष्टि हटा लेती हूँ. पूजा देवी की हो रही है.मेरा ध्यान क्यों बँटा जा रहा है!
मुझे लगता है तुलसीदास जी ने रत्नावली को किरन लगी साड़ी में देखा होगा -तब तो महिलाएं सिर पर पल्ला लिये रहती थीं ,सो किरन के आभामण्डल से सिन्दूर मण्डित मुख दमक रहा होगा,एक तो रत्ना परम सुन्दरी ,ऊपर से सुनहरी द्युति .वैसे भी तुलसीदास जी की रत्ना के प्रति आसक्ति अकारण ही तो नहीं थी,और ऊपर से ऐसा अनोखा शृंगार!
मुझे विश्वास हो चला है भरत जी को भाभी की उपस्थिति का आभास होने के मूल में तुलसी की यही स्मृति रही होगी .
हाँ, तो मैं अपने घर की बात कर रही थी .किरनवाली साड़ी तो बहू ने एक ही दिन पहनी ,लेकिन वे स्वर्ण-बिन्दु
घर में कई दिनों तक दमक भरते रहे!.
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सच है|
जवाब देंहटाएंवाह ... कितना जीवंत वर्णन .
जवाब देंहटाएंअति सुंदर
जवाब देंहटाएंमेरा तो बंगाल के साथ बड़ा गहरा सम्बन्ध रहा है माँ... इसलिए महा-अष्टमी के पर्व के साथ पारंपरिक वेशभूषा के विषय में यही कहूँगा कि इस दिन हर नारी के अन्दर देवी का स्वरुप परिलक्षित होता है| दूसरी बात कि इस विशाल राष्ट्र में हर घर में एक रत्ना की उपस्थिति है, जिसे प्रायः नकारा गया.
जवाब देंहटाएंआपने बहू को पारम्परिक वेश में वहाँ के परिवेश में भारतीय पृष्ठभूमि से हटकर देखा तो आपको एक रत्ना भी दिखी और देवी माँ का स्वरुप भी दिखा. और चूँकि आप अभी भी "राग-विराग" के सम्मोहन से बाहर नहीं निकली हैं, इसलिए आपको मानस जी की यह पंक्तियाँ याद आ गयीं जो बहू पर सर्वथा सटीक और उचित ठहरती है!
मेरी और से बहू को सौभाग्य का आशीर्वाद और आपकी अभिव्यकि के समक्ष नाताग्रीव!!
बहुत दिनों बाद तुम्हे देखा ,खूब अच्छा लगा.
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