(रतन समुझि जिन विलग मोहि ,जेहि सुमिरत रघुनाथ.'
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जब से रत्ना ने प्रिय देवर के हाथों तुलसी का पठाया सन्देश पाया है,मनस्थिति बदल गई है.कागज़ पर सुन्दर हस्तलिपि में अंकित वे गहरे नीले अक्षर जितनी बार देखती है. हर बार नये से लगते हैं .'रतन समुझि जिन विलग मोहि ..' -,नन्हा-सा सन्देश रत्ना के मानस में उछाह भर देता है, मन ही मन दोहराती है. फिर-फिर पढ़ती है.
- कितना विरल संयोग कि समान बौद्धिक स्तर के, एक ही आस्था से संचालित समान विचारधारा के दो प्राणी पति-पत्नी बने .एक सूत्र से संयोजित दोनों ,गार्हस्थ धर्म का अनुसरण कर एक नया क्षितिज खोजते जीवन अधिक समृद्ध होता. अंतर से पुकार उठती है. ‘चल, मिल कर समाधान कर ले, सारे भ्रम दूर हो जायें.’
उनका तो विद्वानों से वर्तलाप होता होगा ,संत-समागम चलता होगा, अपने कुछ अनुभव मुझसे भी साझा कर लेते. मैं उनकी सहधर्मिणी हो कर, यहाँ सबसे अलग-थलग निरुद्देश्य पड़ी हूँ
मन में तर्क-वितर्क चलते हैं राम की भक्ति, संसार से विमुख नहीं करती, लौकिक जीवन के लिये एक कसौटी बन जाती है. सांसारिकता से कोई अंतर्विरोध नहीं. गृहस्थ के लिये तो राम-भक्ति ही ग्रहणीय है संयम और संतुलन रखते हुए आदर्शों के निर्वाह का संकल्प. राम की भक्ति सदाचार और निस्पृहता का सन्देश देती है. सांसारिक संबंधों रमणीयता ,नैतिकता का उत्कर्ष भावों की उज्ज्वलता, परस्पर निष्ठा और विश्वास और भी कितनी कोमल संवेदनाएँ समाई है ..
एक बार उनसे भेंट हो जाय. मन को समाधान मिल जाय.
सियाराममय जग को असार कैसे माना जा सकता है! वह तो विस्तृत कर्मक्षेत्र है.
पति से पूछना चाहती है रत्नावली कि राम-भक्ति संसार से विरत करने के लिये,या उसमें रह कर उसे अधिक संगत ,संतुलित और सुनियोजित की आयोजना हेतु ?
रत्ना का प्रबुद्ध मन तुलसी से विमर्श करना चाहता है .लेकिन समय व्यर्थ बीतता चला जाता . क्या ऐसे ही जनम बीत जाएगा ? नारी को कैसा बनाया प्रभो,एक ओर बहुत समर्थ और दूसरी ओर एकदम बेबस. बाहरी संसार में कोई पैठ नहीं औरों पर निर्भर रहना ही नियति बन गया है. .
नन्हा-सा सन्देश रत्ना के मानस में फिर-फिर उछाह भर देता है .''रतन समुझि जिन विलग मोहि ..' एक सूत्र दोनों को निरंतर जोड़े है. मगन मन गा उठता है -
'राम जासु हिरदे बसत, सो प्रिय मम उर धाम।
एक बसत दोऊ बसै, रतन भाग अभिराम।।'
मनोबल बढ़ चला है. अपनी बात किससे कहे!! तुलसी से संवाद करना चाहती है. पर कहाँ मिलेंगे वह!
निरन्तर उठते हुये अनेक प्रश्न रत्ना के मन में हैं पर ऐसा कोई नहीं जिससे पूछ सके. अकेले समझ नहीं पाती, कहाँ सही हूँ कहाँ गलत. कौन बताए! काश,एक दूसरे के पूरक बन बन सके होते. दोनों की एक ही लगन -फिर यह अंतराल क्यों? वह भी खुल कर अपने मन की कहें, खाई भर जाये. उनकी उपलब्धियों का कुछ अंश मुझे भी मिले.
बार-बार रत्ना के मानस में गूँजता है ''रतन समुझि जिन विलग..'
और कुछ देर को मन सघन आश्वस्ति से भर उठता है. नन्ददास के प्रति कृतज्ञ है वह.
उन्हीं से कभी-कभी समाचार मिल जाते हैं .पर उनका आना ही कितना होता है .
चंदहास से प्रायः ही मिलना हो जाता है.
विदित हुआ तुलसी का डेरा इन दिनों काशी में है,
मिलने की लालसा तीव्र होती जा रही है. एक बार मिल कर अपना समाधान करना चाहती है. मन की शंकाएँ दूर करना चाहती है.
रत्ना ने नन्ददास से पूछा था -
‘मेरे लिये पूछते हैं कभी?’
‘उन्हें चिन्ता रहती है ,तुम्हारी कुशलता बताता हूँ तो उनके मुख पर कैसा भाव छा जाता है भौजी, मैं बता नहीं सकता.’
नन्ददास और चन्दहास जानते हैं उसके मन की इच्छा. पूरी सहानुभूति भी है उन्हें.लेकिन द्विधा में पड़ जाते हैं
नन्ददास सोचते हैं इस विषय में दद्दा से बात करें . लेकिन डरते हैं कहीं मना कर दिया तो..!
उन्हें याद है एक बार तुलसी ने कहा था,' नन्दू यह मन ऐसा ही है ,कस कर रखना पड़ता है नहीं तो जरा ढील पाते ही अपने लिये कहीँ कोई सँध खोज लेता है.
‘जिस जीवन को पीछे छोड़ आय़ा हूँ अब उस जीवन के विषय में सोचना नहीं चाहता....
'राम की लौ में वह सब छोड़ आया हूँ ,नन्दू ,अभिमानवश या सुख की -आनन्द की खोज में नहीं.'
दद्दा का मन वे नहीं समझ पाते,.सोच में पड़ जाते .हैं
.रत्नावली एकदम चुप है.
नन्ददास ने बताया था -
‘मैंने उनसे पूछा था दद्दा, कुछ दिन शान्तिपूर्वक एक स्थान पर निवास क्यों नहीं करते?
कहने लगे जहाँ जहाँ राम के चरण पड़े वहाँ की धूल सिर धर राम के चरित को गुन रहा हूँ.’
अपने ही कहे बोल रत्ना के कानों में बज उठे.अन्तर चीत्कार कर उठा, हाँ, हाँ,तूने ही कहा था उनके चरण अनुसरे बिना, चरित गुने बिना कैसे राम की थाह मिले !
आशा-निराशा में दिन बीतते जाते हैं.
एकान्त उदासी के प्रहरों में निराशा घिर आती है. मन में गहरा पछतावा उठता है, और स्त्रियों को पति के अपने प्रति प्रेम का ,अभिमान होता है कि मेरे प्रेम में किस सीमा तक जा सकते हैं ? उन्हीं बातों से मैं अनखाने लगती हूँ .
मैं ऐसी क्यों हूँ ? .
.और फिर अजानी शंकाएँ उठने लगती हैं.
अपने को समझाती है - रतन समुझि जिन विलग मोंहि.
मैं उनसे अलग नहीं हूँ
सूचनाएं मिल रही हैं रत्ना को. लगा अनुकूल अवसर आ गया .
भौजी का आग्रह और चंदहास का सहयोग ,नन्ददास की अनुकूलता भी उन्हें प्राप्त है.
रत्नावली के काशी पहुँचने का डौल बन गया.
*
उस दिन तुलसी ने जब खीझ कर कह दिया -
'तो अब तुम्हीं जानो.'
एकदम नन्ददास का .चेहरा उतर गया था.
फिर मन ने समझाया -
ये मुझे हड़का रहे हैं ,ऐसा कैसे कर सकते हैं भौजी के साथ ?
इतना कठोर हिया नहीं हो सकता!
हो लें मुझ पर गुस्सा ,पहले पूछा नहीं न! इसीलिए...
मन में खटका फिर भी बना रहा.
सुबह-सुवह चक्कर लगाया. डेरे में सन्नाटा पड़ा था.
ओह , चले गये !
रत्नावली के यहाँ आने में अप्रत्यक्ष रूप से उनकी भूमिका रही थी. पर क्या सोचा था और क्या हो गया!
उलझन में पड़े वहीं चक्कर काट रहे हैं...
इतने में देखा हाथ में थैली लिये भौजी चली आ रही हैं.उन्हें देख समीप चली आईँ
पालागन कर नन्दू बोले,’ रास्ता ठीक रहा?’ .
‘हाँ ,यहाँ सब ठीक है ?’
चारों ओर देख रही हैं.
नन्ददास समझ गये ,कहने लगे,
‘वैसे भौजी ,यह स्थान आपके लिये ठीक नहीं .कहने को साधु संत हैं लेकिन इनके कुण्ठित मनों में दुनिया की कुत्सायें भरी हैं.’
‘कौन मुझे यहाँ रहना है!’
क्या कहें .कुछ तो भी बोले जा रहे हैं,
‘दद्दा कहते हैं जितना समझ में आता है उतना ही समझने को को रह जाता है. आत्म-शुद्धि हेतु तीर्थों का सेवन करता हूँ साधु-संगति का लाभ पाने का प्रयास करता हूँ.
कैसे एक जगह टिक सकता हूँ?’
रत्नावली मौन सुन रही है.
असहाय से खड़े रहे कुछ देर
‘भौजी, दद्दा को जाना था.’
हत्बुद्ध-सी बोल उठी,' क्या ?वे यहाँ नहीं है?’
‘वे चले गये.’
वैसी की वैसी खड़ी रह गई, एकदम सन्न!
फिर बोल फूटे,
‘देवर जी सच्ची बताओ तुमने उन्हें कब बताया था ?’
कबूल दिया – ‘कल.’
‘और वे चले गय!. मुझे अपने मार्ग की बाधा समझ कर?.....
क्या बोले थे वे?’
‘वे ऐसी जगह नहीं मिलना चाहते थे जहाँ लोगों की कुत्सा भरी निगाहें हर पल देखती रहें .तुम्हारे लिये दस तरह की बातें उठें .
‘इतनी बड़ी नगरी में छोटी-सी भेंट के लिए कहीं निरापद स्थान नहीं रहा?’
‘यहाँ के अधिकतर साधु-सन्न्यासी , जानती हो –दद्दा अच्छी तरह समझ गये हैं.'नारि मुई गृह संपति नासी, मूड़ मुड़ाए भए सन्न्यासी'. मानसिकता वही है.’
‘जिसकी जैसी वृत्ति होगी उसी राह जायेगा -उन सब के लिये पत्नी के न होने से कोई रास्ता बंद नहीं होता ,और भी राहें खुल जाती हैं पर अकेली स्त्री के लिए सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं , वहीं पड़े-पड़े दिन काट दो.उनके लिये सब विहित, उसके लिये सब वर्जित ..
‘हमारा संबंध ऐसा कच्चा तो नहीं था कि सामने आ कर
मन की बात सीधे कह क्यों नहीं सके.
‘मेरे लिये यहाँ तक आ पाना कितना कठिन था और वे जान कर एकदम चले गये!
कुछ तो होगा उनके मन में मुझसे कह जाते.
एक ही मार्ग के राही -सहयोगिनी बनना संभव नहीं हो सका,तो ,उनकी दुर्बलता नहीं बनूँगी.’ ,नन्ददास असहाय से हो उठे. मुख से निकला ,’अरे हाँ, कहीं और मिल लेते.’
‘नहीं, नहीं उन्हें दोष मत दो ,मानव स्वभाव बड़ा विचित्र होता है.’
‘अपनी गृहस्थी के सपने देखना तो कब का छोड़ दिया था,थोड़ा मानसिक संबल ..मिल जाता ,.
उनके सत्संग की, ज्ञान की ऊँचाइयों की थोड़ी छाँह मिल जाती.मेरा जीवन सफल होता
पर....मुझे तो वहीं का वहीं पड़े रहना है.’
‘अरे भौजी,मैने तुम्हें अब तक पानी को भी नहीं पूछा.’
‘नहीं , मेरा व्रत है आज.’
‘ऐसा कैसे? माँ अन्नपूर्णा के द्वारे से कोई रीता नहीं जाता. प्रसादी तो ग्रहण करनी ही पड़ेगी .
यहाँ तक आई हो तो तो माँ अन्नपूर्णा, और बाबा विश्वनाथ के दर्शन बिना चली जाओगी?
चलो भौजी, माँ के दरबार में हाज़िरी दिला कर ,तुम्हें घर पहुँचा आता हूँ.’.
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(क्रमशः)
तुलसीदास और रत्नावली के जीवन का एक मार्मिक प्रसंग, रत्नावली का त्याग कम नहीं है, इसलिए जब तक तुलसी का रामचरितमानस है रत्ना भी याद आती रहेगी
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-3-21) को "नई गंगा बहाना चाहता हूँ" (चर्चा अंक- 4,001) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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कामिनी सिन्हा
आभार,कामिनी जी.
हटाएंबहुत सुन्दर और उपयोगी।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंरत्नावली और तुलसी दास जी के चरित्र के बारे में विस्तृत जानकारी मिल रही है ।रत्ना के मनोभावों का सटीक चित्रण किया है ।इस श्रृंखला का इन्तज़ार रहता है ।
जवाब देंहटाएंप्रणाम
बहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंरत्नावली और तुलसीदास जी के बारे में बहुत ही सुंदर प्रसंग...
जवाब देंहटाएंलाजवाब।
रत्नावली और तुलसीदासजी के बारे में पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा, सुंदर प्रसंग, अति उत्तम नमन, बधाई हो
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार १२ मार्च २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आभारी हूँ,श्वेता जी.
हटाएंबहुत दिनों बाद कुछ ऐसा पढ़ा, जिससे ठहराव की अनुभूति हुई.
जवाब देंहटाएंआनंदित और उद्वेलित हुआ मन.
नमस्ते.
वाह अदभुद।
जवाब देंहटाएंआपका यह अनुपम लेखन जीवन में एक सुंदर भाव का बीज उगा रहा है कि तुलसीदास जी और रत्नावली के जीवन का इतना सुंदर सार्वभौमिक प्रसंग पढ़ने को मिल रहा है ..आपकी लेखनी यूं ही चलती रहे और हम आनंद उठाते रहें यही ईश्वर से कामना है सादर नमन..
जवाब देंहटाएंआदरणीया दीदी, कितना सुंदर शब्द चित्रण !!!
जवाब देंहटाएंरतन समुझि जिन विलग मोहि ... क्या ही सुंदर और शालीन अभिव्यक्ति है प्रेम की !
दुबारा पढ़ रही हूँ। दृश्य आँखों के सामने जिवंत हो उठा। सादर।
इस कड़ी के विषय में कुछ भी कहना असम्भव है, माँ! जहाँ कथा के दो महत्वपूर्ण पात्र बिना एक दूजे से मिले और अपनी बात कहे बिना ही एक दूसरे से विदा हो जाते हैं, वहाँ एक पाठक के तौर पर कुछ भी कहना उनकी पवित्र भावनाओं का अपमान होगा।
जवाब देंहटाएंदेवर और भावज के मध्य कथोपकथन के माध्यम से कितनी व्यथाएँ अव्यक्त रह गईं, कितने प्रश्न अनुत्तरित रह गये और कितने ही शब्द अप्रकट रह गये। देखें आगे आगे कथा का सरित प्रवाह कौन सी दिशा में मुड़ता है!
मुग्धकारी ।
जवाब देंहटाएंमानस जैसी महान कृति के सृजन में रत्नावली ई विरह वेदना और तपस्या का योग तो है ही , तुलसीदास का तप भी कम नहीं इसका मूल्यांकन संकीर्ण दृष्टि से कोई कभी कर ही नहीं सकता . त्याग तप और उत्सर्ग बिना श्रेष्ठता व सम्पूर्णता आ ही नहीं सकती . आनन्द आ रहा है पढने में .
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