बुधवार, 30 अप्रैल 2014

कथांश -3 .

*
नहीं, मीता से मेरा विवाह संभव  नहीं हुआ
इस दुनिया के रास्ते कभी सीधे नहीं चलते  ,एक बात के साथ दूसरी लगी चली आती है .हर कथा के साथ कुछ अवान्तर कथायें आ जुड़ती हैं.फिर  ज़िन्दगी की राह मुख्य मार्ग के बीच  ऐसी अटकती है कि  गली-कूचों में भटक कर  रास्ता ढूँढना पड़ता है
सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, हमें लग रहा था अब जीवन सही ढर्रे पर आ गया है .माँ समझ रहीं थीं लड़का लायक निकला , अपवादों की वैतरणी पार हो गई. चार साल मीता मेरी मित्र रही थी ,मेरा घर कॉलेज से बहुत दूर नहीं था .एकाध जब बार नोट्स लेन-देन के क्रम में मेरे घर आई .माँ से उसका खूब ताल-मेल बैठ गया  .
उन्हीं से पता चला  जब चार साल की थी तभी उसकी माँ की मृत्यु हो गई थी .एक  विधवा बुआ ने साज-सँभाल की थी .उनका कहना मीता के पिता नहीं टालते .
मीता अक्सर ही हमारे घर आ जाती ,माँ की सहायता करती ,कहती ,'माँ से बहुत सीखने को मिलता है .'
कभी-कभी माँ बुलवा लेतीं - उससे कह देना आज मैंने गाजर का हलुआ बनाया है .
अपनी बहन से मेरी माँ की मैत्री जान कर पिता मीता के उनके पास आने में कोई रोक नहीं करते .

मैं कॉलेज से लौटता तो वह हलुआ खाती मिलती .कभी कढ़ी-चावल का स्वाद खींच लाता .वह अपनी महाराजिन का बनाये खाने से ऊबती थी .कहती थी माँ के हाथ में निराला स्वाद है . हो मेरी माँ चाहे कुछ बना दें स्वाद ही अलग होता था -कहते हैं किसी-किसी की उंगलियों में रस होता है कि जो छू लें वह  स्वाद से भर जाता है.
लग रहा था अब जीवन की सारी कमियाँ पूर्ण हो जाएँगी .लेकिन मेरे लिए कुछ भी पाना आसान होता तो बात ही क्या होती.
मेरे पिता बीच में आ खड़े हुए  और जीवन का प्रवाह फिर चक्कर खा गया  .

उसकी बुआ जीवित होतीं तो अपने भाई को अनुकूल कर लेतीं .शादी के दो साल बाद ही विधवा हो जाने पर उन्होंने बहुत कुछ झेला था.उनकी एक बहिन ने पति और ससुरालवालों की प्रतारणा से ऊब कर आत्म-हत्या कर ली थी.  वे माँ की विवशता समझतीं थीं .
बिना माँ की लड़की पर माँ की ममता उमड़ पड़ती थी. छोटी बहन भी दीदी-दीदी कह उसके पीछे लगी रहती .मीता की बुआ से माँ की भेंट मंदिर के उत्सव में हुई .थोड़ा सहेलापा हो गया -वैसे माँ की रिज़र्व रहने की आदत थी किसी से अधिक मेल-जोल नहीं देखा मैंने. 
मैंने कभी नहीं कहा उनसे पर माँ  मेरा मन जानतीं थीं -बहू बनाना चाहती थीं उसे .भरे-पुरे घर की लड़की को हमारे यहाँ  किसी कमी का अनुभव न होगा उन्हें मेरी योग्यता पर पूरा विश्वास था .
  
उसके पिता माँ से मिलने भी आए थे .हमारी पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी पा कर चुपचाप चले गए थे .और बात आगे नहीं बढ़ी
उन्हें जब विदित हुआ माँ पिता से अलग रहती हैं तो उनके विषय में पूछ-ताछ करते रहे  .उन्हें यह गले से उतारना मुश्किल लगा था कि कोई महिला पति अपने आप अलग ,बिलकुल अकेली रहे .और रिश्तेदारों के विषय में भी उन्होंने पड़ताल की थी.
माँ के आने के बाद  सबने आ-आकर समझाया था ,पति का घर छोड़ कर मत जाओ. स्त्री को  हर हालत में सहन करना चाहिये यही उनका कहना  था.आश्वासन देते थे कि वे पिता से बात करेंगे  पर  कोई बीच में पड़ने नहीं आया .सब यही कहते  रहे धीरे-धीरे   समय के साथ सब ठीक हो जाएगा .
नाते-रिश्तेदार हैं बहुत पर  समय पर साथ देने कोई नहीं आया  , अकेली स्त्री से सब  कन्नी काट जाते हैं, सारे इष्ट-मित्र ,और संगी-साथी किनारा कर लेते हैं. उस क्षेत्र के बाहर आने के बाद हमें उनके  परिवार में कैसे गिना जाता.
 रिश्तेदार  कहने को ,मां के सिवा  मुझे कोई नहीं दिखाई देता .मामा हैं पर  उन्हें कौन पूछता है .प्रश्न यही उठता  कि पिता साथ  नहीं तो  क्या कोई चाचा-ताऊ-आदि भी  नहीं परिवार में,  जो साथ खड़ा हो !
 उनके मन में यही आया  कि कुछ कारण तो होगा ही .पति से अलग रह रही अकेली महिला कैसे सम्माननीय हो सकती है !किसी का सहारा लिए बिना दुनिया चलती है कहीं?
और मेरी माँ के लिए जिसके मन में ऐसी भावना  हो उससे समझौता करना मेरे बस बस में नहीं था.
मीता ने मुझसे कहा था उन्हें कहने दो मैं तैयार हूँ . मान  जाएगे धीरे-धीरे ,वे  अनुकूल हो जाएँगे ,मुझे बहुत प्यार करते हैं .
पर मेरे  मन ने गवाही नहीं दी
बिना माँ की बच्ची को पिता ने ही सँभाला था .मीता उनसे बहुत जुड़ी थी.उनका बहुत ध्यान रखती थी .वे दोनों इस प्रकार अलग हों यह मुझे गवारा नहीं हुआ , मीता का मन सदा अपराघ बोध से ग्रस्त रहता कि असहाय पिता को इस हाल में अकेला छोड़ दिया.  घरवालों का विरोध ले कर हमें अपनी गृहस्थी नहीं बसानी.अभी और प्रतीक्षा करें, संभव है उनका मन अनुकूल हो जाय.

मेरे निर्णय को माँ का  मौन समर्थन प्राप्त था.
*
(क्रमशः)

*

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

कथांश -2.

*
बस दो लोग बार-बार मन में जागते हैं. माँ और मीता .यही मेरे अपने, चिर दिन साथ रहेंगे - दोनों .
माँ तो माँ है ,और मीता ?
मीता मेरी सहपाठिन .चार साल साथ पढ़े थे दोनों .केवल चार बरस .पर लगता है जाने कितनी पुरानी है पहचान .
 पहली बार लाइब्रेरी में ध्यान गया था. वह कोई फ़ार्म भर रही थी,मेज़ पर झुकी हुई.चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था .अचानक सिर उठा कर इधर-उधर देखा  उसने ,अपने पेन को झटका, हिला-डुला कर देखा .चलते-चलते रुक गया था ,किसी तरह चला नहीं .
'बड़ी मुश्किल है .'उसके मुख से निकला . मैे शेल्फ़ से किताबें निकाल लाया था, सामने खड़ा था.
 किताबें मेज़ पर रख कर जेब से पेन निकाल कर दे दिया .
'बस थोड़ा-सा बचा है ,मुश्किल से पाँच मिनट लगेंगे.'
'आप आराम से भर लीजिये. '
वह फिर फ़ार्म पर झुक गई
केश-संभार के पीछे चेहरा गुम गया .
'आप आराम से भरिये, दूसरा है मेरे पास .'
मैं चला आया था .
दो दिन बाद कॉरिडोर में जा रहा था ,पीछे से आवाज आई ',जरा सुनिए ...रुकिए ..'
पीछे घूम कर देखा वही लड़की  रुक गया मैं.
मेरा पेन निकाल कर दिया उसने, 'धन्यवाद.'
'आपका शुभ नाम जान सकती हूँ ?'
'मैं ?ब्रजेश कहते हैं मुझे .'
मैंने पूछा नहीं था.उसका नाम मुझे बाद मे पता चला - पारमिता !
फिर क्लास में बैठे देखा लेक्चर-थियेटर था .उस ओर की बेंच पर हाथ में पेन पकड़े तिरछी घूमी लेक्चर पर ध्यान लगाए थी.
ध्यान से देखा .नेत्र बँध से गए.
चकियाया सा  देखे जा रहा है युवक.
पहली बार देख रहा है किसी नारी को ?
नहीं बचपन से देखा है, देखता आया हूँ . माँ बहिन , बुआ भी थीं पहले. चाची मामी उनकी पुत्रियाँ -कई बहनें . साथ भी रहा हूँ -   सब हैं
 कभी कोई कौतूहल नहीं जागा .सहज रूप से उन संबंधों में बँधा रहा . 
माँ -वो तो माँ हैं! कुछ और सोचा नहीं कभी. जन्मदात्री ,पयपान किया, गोद में सोया ,पोष-तोष पाता रहा .सब अनायास मिलता रहा , कभी विचार नहीं आया ये नारियाँ  हैं.
बहिन छोटी है मुझसे ,बच्ची-सी लगती है, हमेशा स्नेह -संरक्षण की अधिकारिणी .कभी इससे अधिक मन में आया  नहीं. किसी दूजी ओर ध्यान  गया  नहीं .कोई प्रवृत्ति नहीं जागी मन में, स्मृतियों में कोई आवृत्ति नहीं हुई .
परिवार की कितनी नारियाँ .सब संबंधों की पीठिका बनी-बनाई मिलती है,उसी अलिखित संहिता के अनुसार किस भाव  से देखना है पहले ही तय रहता है .बिना किसा द्विधा के  व्यवहार चलने लगता है .अलग-अलग खाँचे, उसी में जम जाते हैं सारे नाते .
पर यह?
नितान्त नई  लड़की से पाला पड़े तो मन  कुछ निराली ही संहिता रचने लगता है.
आज ही देख रहा हूँ इस देह-यष्टि के साथ -एक नया रूप .मन में  कभी ऐसा नहीं जगा था .आश्चर्य, कौतूहल ,देखने की कामना ,कुछ खींचता -सा .अपने को भूला सा ,कुछ नए बोध उदित हेने लगे.
 - तिरछी गर्दन की लास्यपूर्ण भंगिमा, घूमे हुए मुख की आत्मलीन मुद्रा को  विजड़ित कौतूहल से ताकता रह गया.
साथ बैठे लड़के ने टहोका दिया ,'क्या देखे जा रहा है..साले.. ?
मैं एकदम चौंक गया, दृष्टि हटा ली .रोकता रहा उधर न जाए .
ध्यान बार-बार उचटता रहा.

 कानों में शब्दों की  गूँज जागी, 'बेटा, मन लगा कर पढ़ना!'
जानता हूँ इसके बिना निस्तार नहीं .
नहीं देखूँगा उधर , लेक्चर से ध्यान बार-बार  हट जाता है .
क्लास चल रही है .बोर्ड पर  समीकरण लिखे जा रहे हैं उन्हीं में डूबने की कोशिश करता रहा.

*
(क्रमशः)

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

कथांश -1.

*
जीव ,  जब विगत संस्कार समेट संसार-यात्रा पर निकलता है तब अंदाज़ तो होता होगा किस-किस राह गुज़रना है - जनम तीर्थ-यात्रा बनेगा या वृथा चक्कर ?पता नहीं कितने-कितने स्थलों से हो कर जाना है .यहाँ आ कर भले ही विस्मृत कर बैठे, पाथेय तदनुसार पहले ही साथ धर दिया गया होगा - कब क्या झोली से निकल आए ख़ुद को पता नहीं .
मूंज की खरारी खाट पर  चित्त लेट कर आसमान को ताकना  अच्छा लगता है. संध्याओं के नित नये  रूप, रात्रियों में मखमली श्याम रंग पर टँके ,चमकीले सितारे.हर रात का अपना संभार .अमावस की मखमली श्यामता धीर-धीरे उजलाने लगती है .दूज की तनु चंद्र-रेखा ,शंकर के सघन जटा-जूट पर शोभायमान ज्योति-रेखा सी ,पंचमी की श्यामा सुन्दरी ,अष्टमी की सहज सहनीय सिन्दूराभ सौम्या  , दशमी की चंदनवर्णी तरुणा और पूर्णिमा की दुग्ध-धवल गौरांगना  ,सबका अपना पृथक् व्यक्तित्व .शुक्ल और कृष्ण पक्षों की आचार-संहिता के अनुरूप  वेष -भूषा धारण किए - हर ऋतु में एक नई रूप-सज्जा  से अलंकृत. 
 अष्टमी की  रात्रियों में गौर और श्यामता के मध्य  की सहज सहनीय उज्ज्वलता मुझे माँ की याद दिलाती है ,  उनके शीतल आँचल का आभास मिलता है, माँ की वात्सल्यमयी दृष्टि
नहलाती सी ,मन एक विलक्षण शान्ति से भर जाता है .
मैं जब पाँच वर्ष का था, मुझे ले कर  वे चली आईं थीं .कुछ दिन भाई के पास रह कर काटे .घर की सम्हाल की ,ट्रेनिंग की ,और प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका लग गईं.तब माँ ,मामा के साथ रहती थीं .मामी काम-धाम में निपुण नहीं थीं .माँ ने सब संभाल लिया था,और  मामी निश्चिंत  .मुझे अजीब लगता ,पहले हम लोग आते थे तो मामी दौड़-दौड़ कर खातिरदारी करती थं -पिता दो-चार दिन रह कर लौट जाते. हम लोग दस-पन्द्रह दिन बाद तक आराम से रहते.चलते पर मनुहार करते मामा-मामी फिर आने का आग्रह करते बिदा करते.


बाद में वैसा कुछ नहीं. माँ दिन-रात काम में जुटी रहतीं ,मामी आराम से बैठी रहतीं या पड़ोस में बतियाने चली जातीं.मामी के बच्चों को भी उन्हें ही सँभालना पड़ता.वे कुछ नहीं कहतीं शान्त भाव से काम में लगी रहतीं अपने खाने का ध्यान भी नहीं . मुझे वे  बहुत थकी  लगतीं  . रात को अक्सर बेचैनी में हाथ-पाँव पटकते देखता था  मैं उन्हें.     आज समझ में आता है ,तब इतना नहीं सोच पाता था.
सात बरस का था तब एक बार आए थे पिता .मुझ से पूछा था चलोगे मेरे साथ ,वहाँ अच्छी तरह पढ़ पाओगे ?

मेरा जाने का मन नहीं हुआ .मैंने कहा था ,'बापू तुम यहीं आ जाओ न. '
पर वे नहीं रुके .
कैसे बहिन-भाभियों के बहकावे में आकर माँ पर इल्ज़ाम लगाया होगा पिता ने !इतने अविश्वासी थे वे ?
विश्वासहीनता की स्थिति बड़ी दुखदायी होती है .जो जानता है क्या सच है क्या झूठ और जो नहीं जानता वह भी मन ही मन व्याकुल रहता है .सबसे अदिक उत्ताप उन्हीं को झेलना होता है जो अपने होते हैं .जिनके साथ बहुत से दुख जिेये होते हैं उनसे कभी नाता टूटता नहीं .
 असहनीय होते हैं वे पल जब कोई आत्मीय लगता संबंध सारी कुरूपताएँ ओढ़े पूरी निर्ममता  के साथ अचानक सामने आ जाय ,जब कुछ सोचो और कुछ निकले. उस समय की हताशा झेलना कितना भारी पड़ता होगा.सारा विश्वास ज़रा में टूट जाए तो क्या बीतती है किसी पर! सारी दुनिया को लात मार कर पलट देने का मन करता है .

' बेटा ,मन लगा कर पढ़ना, ' कैसे कहती थीं ,आज समझ में आता है. उन्हें लगता होगा कोई कहने न पाये कि पिता से अलग कर बेटे का जीवन बिगाड़ दिया .

 दिन में वे कुछ घंटों को चली जाती थीं कोई कोर्स ज्वाइन किया था उन दिनों.
एक बार गईं तो दो-तीन दिन नहीं आईं ,फिर लेकर आईं थीं एक नन्हा-सा शिशु .लाल-लाल हाथ-पाँव उछाल कभी रोता कभी किलकता.

मेरा बिगड़ा हुआ मुख देख कर  माँ ने कहा था,'ये तुम्हारी बहिन है.'
'ये कहाँ से आ गई?'
'भगवान ने भेजी है ,तुम्हें राखी बाँधने के लिए .'
दिन भर पड़ी-पड़ी कपड़े गंदे करती ,रात में भी चिल्ला-चिल्ला कर रोती .मुझे देख कर हँसने लगती थी .
पर थोड़ी बड़ी होने पर मुझे अच्छी लगने लगी थी.
बाद में हम लोग दूसरी चले आये थे ,माँ ने स्कूल में बच्चों को  पढ़ाना शुरू कर दिया था .

*

(क्रमशः)



सोमवार, 14 अप्रैल 2014

धरती सजी रहे - बाल-कहानी.

*
'माँ ,देखो ,ये कबूतर इस पानी में घुस कर पंख फड़फड़ा रहा है- सारा पानी उछाल-उछाल कर चारों तरफ़  कीचड़ कर दिया '
'रोज़ भगाती हूँ,और जब देखो तब चले आते हैं ..', अम्माँ थोड़े गुस्से में थीं. मुकुल ने और शिकायत की,'और ये चिड़ियाँ तोता, गिलहरी मौका लगते ही फल और डालें कुतरती रहती हैं .'
'अब जाल लगवा देंगे चारों ओर ..' मम्मी ने कहा.
मुकुल बड़ा-सा बाँस लेकर सारे पक्षियों और गिलहरी को दूर तक खदेड़ने लगा.
उसी रात उसे सपना आया -कि तोता ,गौरैया ,गिलहरी , कबूतर, खरगोश आदि बहुत से लोग आये हैं .कह रहे हैं ,'हमें तुमसे बात करनी है.
सपने में मुकुल ने सोचा 'अरे ,इन सब को भी बोलना आता है ..'.
 उसे याद आया कितोता तो हमारी बोली अच्छी तरह बोल लेता है .'
वह बाहर निकल आया
'आओ बैठो .'
वे रंग-बिरंगे नन्हें -प्यारे लोग उसके आस-पास बैठ गये .मुकुल के मन में खुशी की लहरें उठने लगीं .उसे लगा खूब सुन्दर-सुन्दर बहुत तरह के खिलौने उसके पास इकट्ठे हो गए हैं .
उसने सोचा ,'कितने प्यारे , जानदार खिलौने जैसे हैं ये सब .'
उसे बड़ा आश्चर्य हुआ उसने पूछा, 'क्या हुआ?'
'तोता आगे आया बोला ,'आप लोग क्या चाहते हैं .हम पशु-पक्षी यहाँ नहीं रहें ? .'
'नहीं क्यों , रहो न .हमने कब मना किया आराम से रहो ,बस हमारी जगह पर गड़बड़ मत करो .'
' आपकी जगह कौन सी  ?
'यही, जहाँ हम रहते हैं .,  पाँच साल में हमने इसे कितना अच्छा कर लिया पर तुम लोग समझते नहीं ..'     '
 ,'हाँ ,पाँच साल से आप लोग यहाँ आ गये .पहले हज़ारों सालों से ,हम सब यहाँ रहते थे ,धीरे-धीरे आप लोगों ने हमें भगा कर सब अपने कब्ज़ें में कर लिया . ये तो खुली जगह थी खूब पेड़ थे दूर-दूर तक खुला आसमान था, धूप-हवा-पानी किसी चीज़ की कमी नहीं थी .लेकिन ये सारी जगह आपकी कैसे हो गई .?.'
'ज़मीन ले कर पापा ने ये बड़ी-सी कोठी बनवाई है न, अपने रहने के लिये .'
' और हम सब को उजाड़ दिया .हम लोग लड़ नहीं सकते और आदमी लोग हमेशा मनमानी करते हैं.'
वे बोलने लगे-
'पेड़ कटवा दिये..हमारे घोंसले तोड़-फोड़ दिये अंडे-बच्चे निकाल फेंके .न हमारे रहने को जगह न खाने को फल कहाँ जाये हम '
'हम तो आपसे कुछ नहीं लेते .न हमें कपड़े चाहियें ,न बड़े-बड़े घर ,और सामान तो बिलकुल नहीं'
छोटी-सी गिल्लो बोली ,' हम तो धरती के खिलौने हैं ,सबको खुश रखते हैं. यह सब प्रकृति ने सब जीवों के लिये रचा है .आप लोगों ने सब-कुछ   छीन लिया. सब के  हिस्सों को अपने लिये समेट लिया ....'   
'कैसे ?'
.,देखो न ,सब जगह दीवारें खिंच गई ,ये लो सुनो .ये छोटी-सी गौरैया क्या कह रही है..'
वह आगे फुदक आई ,'हमने तो घरों के मोखों में घोंसला बनाना शुरू कर दिया था.तुम्हारे आँगन में खेलना हमें बड़ा अच्छा लगता था .पर तुम लोगों ने हर जगह जाली और तार लगा दिेये .
'अम्माँ कहती हैं तुम लोग खूब कूड़ा और तिनके फैलाती हो ..'
मुकुल को ध्यान आया अभी कुछ दिन पहले अम्माँ सफ़ाई कर रहीं थीं ,झाड़ू के धक्के से  बराम्दे की साइड से एक तिनकों का घोंसला नीचे आ गिरा .दो बिलकुल नन्हें बच्चे ज़मीन पर पड़े चीं-चीं कर रो रहे थे ,दो अंडे टूटे पड़े थे उनका पीला पदार्थ ज़मीन बिखरा पड़ा था. जन्म लेने के पहले ही उस जीव की हत्या हो चुकी थी .'
' अपने घर तो बढ़ाते जा रहे हो और हमारा छोटा-सा घोंसला ,जरा सी जगह में, उसे नहीं रहने दिया..हमारे अंडे-बच्चे मर जाते हैं हमें भी दुख होता है ..'
मुकुल सिर झुकाये सुन रहा था .समझ नहीं पा रहा था क्या उत्तर दे .
गिलहरी बोल पड़ी,'
तुम-लोग घऱ बनाते हो तो कितना सामान पड़ा रहता  है ,और कितनी  गंदगी फैलाते हो तुम लोग हर जगह थूकना ,कूड़ा फैलाना और भी जाने-क्या-क्या..   ,'
नन्हा खरगोश अब चुप न रह सका ,'भगवान ने इन्हे सब के साथ मिल कर रहने की अक्ल क्यों नहीं दी? अरे, ये आदमी लोग बड़े स्वार्थी हैं.. .बड़े लालची हैं.'
'हम लोग तो ज़रा सी जगह में गुज़र कर लेते थे .तुम लोग चार-जनों के लिये  कितनी-भी जगह घेर लो मन नहीं भरता .हमारे लिय न नदी का पानी पीने लायक रहा .सब गंदगी बहा-बहा कर खराब कर दिया. हवा में तमाम धुआँ और अजीब सी महकें .सांस लेते तक नहीं बनता-कभी-कभी तो ..'
कौवे का कहना था   ' धरती माता का दुलार सब प्राणियों के लिये है . हमारे न होने पर इनका जीवन भी  कितना कठिन हो जायेगा ये नहीं जानते ये लोग .!
मुकुल को याद आया कि पशु- पक्षी इस धरती के लिये बहुत उपयोगी हैं ,और पेड़-पौधों के बिना दुनिया उजाड़ हो जायेगी ..'.
इतने में उसकी नींद खुल गई .
सपना उसके ध्यान में था. .कभी पढ़ा हुआ एक  कथन उसके मन में कौंध गया -' यह धरती  एक कुटुंब है जिसमें सभी जीव-धारी एक दूसरे पर निर्भर हैं .'
उसने सोचा कुछ -न कुछ करना ज़रूर पड़ेगा जिससे कि यहाँ सबका जीवन सुखी हो सके .इन प्यारे-प्यारे खिलौनों से  धरती
हमेशा सजी रहे !
*

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

भानमती चुप थी..


*
 भानमती से मैंने सिर्फ़ इतना पूछा था,' वैसी औरतों को छिनाल कहा जाता है तो वैसे आदमियों को क्या कहते हैं ?'
'मरदुअन को ?उनका कउन कहि सकत है सारे लैसंस (लाइसेंस) तौन उन्हई के पास हैं...' कहते-कहते  रुक गई वह .
उसका मुँह तमतमा आया था.
समझ गई मैं काँटा कहीं-न कहीं खटक रहा है. इस बार मिली भी तो बहुत दिन बाद है.मुझसे अपने मन की कह डालती है, किसी से कहती नहीं हूँ न.
' क्या हुआ भानमती ? कुछ खास बात हो गई क्या ?'
'खास का, उहै हमेसा जो होवत है .बल(बलि) का बकरा बनन के लै तो बनी है औरतजात.' 
बातों में लगाए रही कि अपनी बात कह सके.
 उसने कहा था ,' जामें नेकऊ झूठ नाहीं .सब  हमार देखी है .हमारी ननद के तएरे ससुर रहैं , सहर में आय बसे. अभै पिछले दिनन को किस्सा है .ताई को सिगरे जन अजिया बुलावत हैं
.ताऊ सत्त नाराइन की कथा कराए रहे . पूजा की चौकी की ढूँढ परी.
अजिया कहिन,' हमका पता है कहाँ धरी है, अभै लाए देत .'
'अरे अजिया ,तुमसे ना उठी,' सो हम उनके साथ हुइ गै  '
अजिया उस कमरे में बहुत कम जाती थीं घर की सारी अंगड़-खंगड़ चीज़ें यहीं डाल दी जाती थीं.उस दिन महीनों बाद चौकी ढूँढने अजिया को वहाँ जाना पड़ा
इधरवाला कमरा पिंकी का .बचपन की दोस्त विनती और नीरजा के साथ  मशगूल थी वह.
बातों का एक टुकड़ा कान में पड़ा
' ऐसा जी घिना जाता है ...' 
अजिया के आगे  बढ़ते पाँव रुक गए, भानमती साथ में. 
..'इच्छा होती है वो झापड़ रसीद करूँ कि हिलती हुई दाढ़ें भी बाहर निकल पड़ें,' आवाज़ नीरजा की थी.
पिंकी बोली थी,'जानवर होते हैं सब के सब ,अपने घरों में असली चेहरों पर अच्छेपन की नकाब डाले रहते हैं,  बाहर वही कुत्तापन .'
'ऐसे मरगिल्ले, अधेड़ उमर के लोग ,मरते भी नहीं..सोचो ज़रा, हमारे दादाजी की उमर के . भीड़ में घुस कर ऐसी उंगलियाँ चुभाते हैं
 बड़ी मुश्किल से अपने को काबू में कर पाई मैं,' उसकी बोली में वितृष्णा छलक रही थी.
'अच्छा किया काबू कर लिया नहीं तो लोग तुझे ही बेवकूफ़ बनाते .'
वह कह देता', ऐ लड़की, क्या कह रही हो? ठीक से देखा करो कौन कर रहा है ,तुम्हारे बराबर की हमारी पोतियाँ हैं ',
'और सब उनकी हाँ,में हाँ मिलाते.  उलटे तुम्हीं को दोष देने लगते .'

'.... अभी बाहर दादाजी को नमस्ते करते फिर से याद आ गया . लोग दादा बन जाते हैं पर ..'
पिंकी ने कहा था,'अगर यही लोग बुज़ुर्ग बन कर  बसों वगैरा में थोड़ी निगरानी रखें तो किसी की  छेड़खानियों की हिम्मत न पड़े.कितनी अच्छी हो जाए दुनिया हमारे लिए! पर ये तो खुद ही...'
चुपचाप सुन रही हैं , बात को समझ रहीं हैं दोनों .
भानमती मुनमुनाई ,'दादा बन जाने से का चरित्तर  बदलाय  जात है..?'
 दोनों महिलाएँ अनुभवी हैं ,घर-बाहर आती-जाती सब देखती हैं.
 दोनों के सामने प्रश्न है -आदमी में उमर का गरुआपन कब आता है?
मन की बरजोरी के आगे सही-गलत सब  हवा हो जाता है?भीतर ही भीतर ताव खाती रहीं.
एकाध वाक्य बोल पाईं आपस में .
पहले सोचा लड़कियों के पास चलें ,फिर लगा उनकी बातें सुनाई दे गईं, पर अब जाकर बीच में बोलना ठीक नहीं .
'टार्च ले कर आयेंगे, 

अंदर अँधेरा है ,'अजिया ने कहा ', चलो, भानमती.'
'आदमी कुत्ता होता है '  कह रहीं थी लड़कियाँ - विचार चलते रहे .
भानमती बोली थी,'सही कहती हैं बिटियाँ .माँस की गंध पाय के  कूकर अस ललात हैं ,निगाह मक्खी अइस मँडरात रहत है....;'
 ताव में आकर जब वह गाँव की वर्जनाहीन आक्रामक भाषा पर उतर आती है तब उसकी खुली अभिव्यक्तियाँ सुननी तो पड़ती हैं, पर वह सब लिखना वाणी को अपमानित करना लगता है . भानमती के शब्द नहीं दोहरा सकूँगी.
उसने जो  बताया,  बस उसका सारांश -
दामाद बहुएँ बेटे सब इकट्ठा थे. डाइनिंग टेबल वाली कुर्सी पर दोनों दामाद बैठे चाय पी रहे थे ,
सुमिता नाश्ता दे रही थी .  अजिया आगे बढ़ गईं थीं ,दादाजी बेडरूम वाले गलियारे से इधर ही चले आ रहे थे.
भानमती आँगन के नल पर रुकी थी हाथ धोने ,
किचन के स्टोर तक आ पहुँची अजिया ने देखा टोकरी में  धनिए की पत्ती लौकी से दबी पड़ी है. इन लोगों को इतना भी ध्यान नहीं कि सब्ज़ी ठीक से  रखें दें ,लौकी को अलग करने वे नीचे झुकीं.
आधे झुके शरीर पर पीछे कुछ सरसराहट - बड़ी अरुचिकर अनुभूति .
चौंक गईं!
घुटनों पर हाथ धर सीधी खड़ी हुईँ ,पीछे मुड़ीं .
दादाजी थे - आँखों में विचित्र-सी कौंध और चेहरे पर टोहती-सी मुस्कान लिए .
 अजिया ने तमक कर देखा आँखों से आग बरसाते ,'सब कुत्ते होते हैं..' .कहती आगे बढ़ गईं.
पीछे से आ रही भानमती सन्न!
दादा जी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रहीं थीं.
 दोनों दामाद हाथ में चाय का कप पकड़े रह गए .सुमिता मूर्तिवत् जैसे कुछ समझने का प्रयास कर रही हो.
सुनकर  स्तब्ध मैं भी !
कहने-सुनने को अब बचा ही क्या ?
*

रविवार, 6 अप्रैल 2014

वे कौन थीं - शायद एक वायवी-अनुभूति !

*
वे  कौन थीं, मैं नहीं जानती.एक दिन अचानक मिली थीं.
 परिचय जानना चाहा तो हँस कर टाल गईं. कहने लगीं - कोई एक परिचय होता है किसी का ?सबके लिए अलग-अलग ,पात्रता बदल जाती है ,हर एक से एक अलग प्रासंगिकता....
मैं क्या बोलती ?
वही कहती रहीं -
सोचो ज़रा,पक्षी पिंजड़े को स्वीकार करता है कभी ? पर करे क्या ,उसकी सीमा वही. रहना उसी में है - मन से या बे-मन .फिर भी पिंजड़े से जो मुक्त आकाश दिखाई देता है ,उसमें उड़ने की कल्पना से ही उसके पंख फड़क-फड़क जाते होंगे .जब तक साँस चले ,जो है उसे स्वीकारे बिना कोई चारा नहीं.
यह कैसी पहेली?- मेरे मुख से निकला था .
हाँ, पहेली ही है.
दिन भर साथ रहे थे.ऋषिकेश से आगे नीलकंठ की राह में 10-12 घंटों का उनका साथ मिला था - तभी.
वे कहती रहीं मैं सुनती रही .कैसे, किन शब्दों में कहा कि मुझे प्रत्यक्ष लगता - अंतर्मन तक समाता गया .
 कितने बरस बीत गए - वह विचित्र कथा तब से मन में उमड़ रही है.अब कहे बिना रहा नहीं जा रहा उनके कहे शब्द  तो नहीं दोहरा पाऊंगी.पर मुझमें ऐसी समाहित है    अभिव्यक्ति मेरी होते हुए भी अंतर्निहित अनुभव, सारे उनके .
इसीलिये कह भी उन्हीं की ओर से रही हूँ , एक और बात - जहाँ क्रम नहीं जोड़ पाई अपनी कल्पना का ईंट-गारा लगा लिया.
 शुरुआत उन्होंने इन्हीं शब्दों में की थी -
बहुत घुमक्कड़ी की है ,पर एक अनुभव मेरी अंतर्चेतना में बड़ा गहरा समाया है.
वह महाबलेश्वर की यात्रा थी !पाँच दिन उन सुरम्य-सुरभित वनालियों के बीच कैसे बीत गये कि दिन-रात का भान नहीं रहा .जैसे धरती पर न हो कर किसी रमणीय लोक कि में आ गई होऊँ.बड़े भोर पक्षियों की श्रुति-मधुर ध्वनियों से नींद खुलती  दूसरे मंज़िल की बालकनी से हरे-भरे वृक्ष और पुष्पित लताओं  से पूरित गहन वन-खंडों की घनी हरीतिमा को निहारती, भ्रमण को निकलती तो सुवासित समीरण साथ चलता. मेरे मगन मन में जिस अवर्णनीय सौंदर्य की वृष्टि होती रही ,उसे पूरी तरह सँजो लूँ यह चेत कहाँ था.आज व्यक्त करने की व्यकुलता में बार-बार वे क्षण पकड़ पाने को यत्नशील हूँ .
निर्मल चैत्र मास! शीत  समाप्ति पर था. आद्या-शक्ति के अवतरण के स्वागत आयोजन होने लगे थे संपूर्ण प्रकृति में विराट् हवन की तैयारी. .ऋतु की उत्सवी आँच धीमे-धीमे  सुलगने लगी . सूर्य की किरणों में ताप का संचार प्रारंभ हुआ .अपर्णा वनस्पतियों में अग्नि-रेखाएँ नवांकुर बन  जागने लगीं .नव-पल्लव  अरुणाभा से  दहकने लगे. आकुल हवाएं धरती पर गिरे जीर्ण पात समेटने को तत्पर .भोर से ही रास्तों के किनारों पर एकत्रित सूखे पत्तों की सुलगन .चतुर्दिक् वायु-मंडल उन सुवासित  धूमकणों को चुरा-चुरा अपनी तहों में समा लेता  प्रातःकाल  वही गंध-बोझिल कण झीने कुहासे  का पट बुन दिशाओं  के अनावृत्त होते तन को छा लेते .हव्य-गंध से दिग्-दिगंत व्याप्त  ... ,वनस्पतियों की सोंधी गंध से गमकते पवन झोंके  बेरोक चले आते .यह चैत की अपनी गंध है, जब उस अवतरित होती  दिव्य ऊर्जा का अभिनन्दन करने वसुधा नवांबरा हो जाती है.
नित्य-प्रति के सारे क्रिया-कलापों का निर्वाह करते लगता था ,इनकी कर्ता मैं नहीं .मेरा अस्तित्व स्थूल में सीमित न रह कर सुदूर दृष्यों तक व्याप्त हो गया है .लगता  नित्य-कृत्य करनेवाला कोई और सारे कर्तव्य निभाए जा रहा है मैं अलग रह गई हूँ. मन में  कहीं कोई अकेलापन नहीं.  कोई  सहस्र-सहस्र नेत्रों से मुझे देख रहा हैं  .आशीषमय आकाश  से झरती  प्रकाश-किरणें उसी  दृष्टि का विस्तार हैं .प्रफुल्ल दिशाएँ उसकी प्रसन्न मुद्रा .शीतल-सुगंधित पवन उनके लहराते आँचल की छुअन - स्नेह और  शान्ति से परिपूर्ण वह सतत मेरे साथ है.मैं अकेली कहाँ !
 उसी की एक निर्मिति मैं भी हूँ .यह जीवन,यह मन उन्हीं का प्रसाद है जिसमें वे आभासित होती हैं
 वे परम चैतन्यमयी अपने सृजन में आनन्द लीन , सारी सृष्टि में चित्-कण बिेखेरती हुई  .. संपूर्ण विश्व उस आनन्द का भोक्ता है - नारी-नर का भेद नहीं यहाँ ,यहाँ पृथकत्व नहीं  ,दोनो समान - क्यों कि प्राणी न मात्र नारी है न मात्र पुरुष .पुँ-स्त्री भाव  समन्वित रूप में सर्वत्र विद्यमान है -अर्द्धनारीश्वर में परम संतुलित! परस्पर अनुभवन करते हुए, एकात्म स्थिति  .शेष सृष्टि में  वही मिश्रण भिन्न-भिन्न अनुपातों में .इस असमता को प्राणी सम्यक् भावेन ग्रहण नहीं कर पाता.  संतुलन गड़बड़ाता है , मन में अहं पोषित 'स्व' का  वैषम्य जागता है - यही है सारे विग्रह का मूल .

छोड़ो , ये सब फ़ालतू बातें.
हाँ ,सान्ध्य-भ्रमण को निकली थी पतझर के बिखरे विविधवर्णी पातों पर पांव धरती ,खोई सी चली जा रही थी -  प्रातः काल के पाठ की पंक्ति मन में गुंजरित होने लगी - विद्याः समस्तास्तव देवि भेदः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु. मन विचार उठता है  मैं भी तुम्हारी अंशभूता हूँ,'
 लगा किसी ने आवाज़ दी..पग थम गए भटकी-सी देखने लगी .खड़े-खड़े पाँव विश्रान्त हुए ,निकटस्थ वृक्ष का झुका हुआ द्विभाजित तना जैसे बैठने का आमंत्रण दे रहा हो .घूम कर बैठ गई.
 इस जगह कभी आई नहीं थी पर अपरिचित कुछ नहीं लग रहा .नहीं बिलकुल भय नहीं,सहज रूप से बैठी हूँ . चारों ओर दृष्टि डालने लगी.
 विलक्षण शान्ति छाई थी .विचित्र सुगंधों से पूरित समीरण,एकाध लाल माटी की पगडंडी की छोड़ कर सारी भूमि तृणदलों से आच्छादित  पुष्पों से पूरित लता -गुल्म और कहीं-कहीं ऊंचे-ऊंचे वृक्ष.पर्याप्त समतल भू-भाग .मन में उठा.यहाँ तो कोई आयोजन हो सकता है.अकेले घूमते कैसे निराले  विचार घेरने लगते हैं   
  उठने का मन नहीं.बैठे-बैठे अलसा गई ,मस्तिष्क शिथिल  जैसे  तंद्रा छा रही हो 
अनायास सारे आभास बदलने लगे.नेत्रों के आगे नया दृष्य-पट खुलता चला जा रहा था जैसे किसी आयोजन का संभार .
दूर-दूर तक कलापूर्ण बहुरंगी अंकनों से युक्त  कालीन .चलने के लिए मार्गों की रिक्तियाँ कोमल लाल गलीचे से आवृत्त .पीठिकाओं युक्त सुन्दर आसन पर छाये तरु-लताओं के सुरंजित-पुष्पित वितान .सारे तत्व जैसे सजीव हो उठे हों ,कुछ ऊँचाई पर एक अतिसुन्दर वितान युक्त सिंहासन .चारों ओर कैसी रंग-रचनाएँ .कल्पना से परे .शीतल-सुखद .
वाद्य-यंत्रों की मंद झंकार.
 किसी अतीन्द्रिय लोक में जा पहुँची !
*
 अरे, किसका आगमन हो रहा है.
  अनुपम रूप-संपन्ना ,विचित्र वस्त्राभूषण धारे योगिनियां पधार रही हैं .अवर्णनीय आभा चतुर्दिक् छा गई
 और लो ,उस लता-वितान में सुन्दर आसनों पर वे विराज गईं.
संगीत के सातों स्वर वातावरण में गुंजरित हो उठे .
कुछ  कोलाहल उठा फिर शान्ति ,सब सजग हो गए थे.
 दिव्य सखियों से सेवित अपरूप श्री-सुषमा मंडिता  दिव्यवस्त्राभरण भूषिता, परम ज्योतिष्मती स्वयं प्रज्ञा पारमिता, दिशाओं को दीप्त करती हुई भव्य सिंहासन पर आ विराजीं , मुख का तेज ?दृष्टि सम्मुख हो नहीं पा रही .नेत्र झँपे जाते .वह आकार ,उस अरुण परिधान की झलक! एक आभास ही इतना प्रखर  ओह, नहीं .नेत्रों की सामर्थ्य नहीं .शब्दों  में वह शक्ति कहाँ कि व्यक्त कर सकें.
अभिभूत,स्तब्ध विजड़ित-सी मैं .
कुछ पल उनके परस्परिक  विनिमय के .
कोई स्वर -'आज यहाँ कोई है ?'
'हाँ, जो है उसे  होना था .'
आभास दे दिया था?
'स्वप्न में अनेक बार भान कराया है .यही अवसर उपयुक्त पाया .
हाँ .हाँ .ठीक है .प्रस्तुति हेतु उपचार हो. .
कुछ हलचल हुई .कोई उठा,
मेरे निकट आया है कोई .

 मेरा अपने आप पर कोई वश नहीं. स्वप्न सा घटता रहा . अतीन्द्रिय-सी अनुभूति ..निर्देशित सी  मैं पेड़ से उठी . जो आईँ थीं वे मेरे साथ .चल रहे हैं हम  .प्रयत्न नहीं करना पड़ता स्वचालित गति- स्वयमेव नियंत्रित .
एक कक्ष में आ गए हम लोगस विविध सुविधाओं और अनेकानेक प्रसाधनों से सजा, वहीं स्नानागार. सुगंधित जड़ी-बूटियों से युक्त जल बड़े-बड़े गंगालों में भरा.  भारहीन तन ,बिना आयास सारे क्रिय-कलाप. जैसे  मैं वायवी हो गई होऊँ .वहाँ कुछ और जन बड़ी कोमलता से विविध उपचार करते दिखाई देिये .

और मैं ? 
जैसे अवश शिशु को माँ अपने संरक्षण में संचालित कर रही हो .
सुवासित उबटन का आलेपन. पुष्पों से सुगंधित सुस्पर्शी शीतल जल  कलश  भर-भर मुझ पर उँडेल-उँडेल कर अति मृदुता से स्नान संपन्न कराया गया  तन के भीगेपन को जैसे शुभ्र  हंस-पंख  फिरा कर सुखा रहा हो ,कंठ-वक्ष-कटि आदि संधि-स्थलों पर प्रीतिकर अंगराग-चूर्ण का सुशीतल परस  .
लो , रोग-दोषों से निवारित हुई काया  .
प्रश्न उठा - कब तक?
चिहुँका-सा प्रतिप्रश्न - ये उपचार एक जनम सीमित रहते हैं क्या ?
पुहुप पँखुरियों से कोमल अंतःवस्त्र अंग-अंग साधते सजा दिए.
 परिधान ! ओह, कल्पना से परे , मन-भावन!
 नितान्त अपरिचित नहीं लग रहे ,पर मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी पहना हो इन्हें .
बिन बोले बिन पूछे  अनायास समाधान कर देता है कोई .

 .यहाँ के नियम हैं .महामाया के सम्मुख उन वस्त्रों में कैसे उपस्थित होगी ?
बिल्कुल हल्का हो गया तन-मन, रोम-रोम पुलकित.
रत्नाभूषणों की झिल-मिल .अरे नेत्रों को यह कैसा आँजा  -जैसे दिव्य दृष्टि धर ली हो .मैं चल रही हूँ ,या कोई लिये जा रहा है ,कोई प्रयास नहीं ,सब कुछ अनायास
विस्मित हूँ ,यह सब क्या है ?
- उस परम ऊर्जस्विता से योजन का आयोजन !
*
 वहीं पहुँच गई
किसी ने सूचना दी - प्रस्तुत है .

 मैं ? हाँ मैं ही तो . प्रस्तुत हूँ उस भव्य सिंहासन के तले.
नहीं, मुझे उस प्रताप से कोई आतंक नहीं ,मंद-स्मित पूरित वह स्निग्ध  दृष्टि मुझे आश्वस्त कर रही है.
वही हैं ,हाँ ,वही - सब के मूल में स्थित - परमात्मिका,परमा.
 बूझने का यत्न किया था. कोई एक संज्ञा है क्या - .महामाया, चिन्मयातीता, प्रज्ञापारमिता? संपूर्णता से व्यक्त कर सके ऐसी कोई अभिधा पर्य्याप्त नहीं. 
अंतर में अनुगूँज उठी - मूल प्रकृति में त्रिगुणों के आरोह-अवरोहों के अनगिनती क्रम.कितने रूप,कितने नाम !
वही ,हाँ ,हाँ ,वही ,स्वप्न में दर्शनाभास मिला था जिनका. मुग्ध सी मैं.
 हाथ जुड़ गये शीष झुक गया - 'अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति..' 
 मंद स्मिति कुछ और खिली.
विलक्षण शान्ति!
अद्भुत अनुभूति- वृत्तियां एकाग्र हो गईं,तन के बोध खो गये उस इन्द्रियातीत  अनुभव के लिए  कोई शब्द नहीं .
समय बीतता रहा या थम गया था ?
एक स्वर -अरे,इसकी स्मृति ..!
पता नहीं कैसा विभ्रम !
लगा मेरे ऊपर से चेत देता हुआ -सा  रेशमी स्निग्ध स्पर्श गुज़र गया हो !
उस अर्द्ध-चेत में भी चौंक उठी - अरे , सब भूल जाऊंगी क्या ?
अंतर में टीस-सी उठी .नहीं भूलना चाहती , रहने दो मेरे साथ.  स्मृति ही सही .
आज का यह विलक्षण परम दुर्लभ अनुभव क्या सदा को खो जायेगा स्मरण के सुख से भी वंचित रहूँगी ?
मधुर-सी हँसी.
वे मौन हैं .पर लगा कह रही हैं -विस्मृत हो जाये तो क्या. जो अनुभव आत्मा का अंश बन गया  ,संस्कारों में बस गया . विलीन होना कहाँ संभव.. !
उलझन फिर भी नहीं सुलझी .पुनः समाधान मिला - सजग चेतना में एक बार पहुँच गया जो ,उसे कैसे कोई मिटा पायेगा !गहन अनुभव का अंश बन गया जो उस स्मृति का पूर्ण विलय संभव नहीं.कौंध बार-बार उठेगी मानस में  पुनः-पुनः बोध जागेगा . किसी अनुकूल अवसर पर जब स्मृति उद्बुद्ध होने लगे ,खंड-खंड जागने लगे, समझ जाना कि  मेरे बहुत पास हो .'
समग्र नहीं, बिखरी हुई .खंड-खंड ?
जैसा उचित समझो माँ ,शिरोधार्य है मुझे , इन स्मृतियों का कण-कण समेटती रहूँगी ,जोड़ती रहूँगी तुम्हारा अवदान समझ कर .
नेत्र  उठे,  उनके आयत नयनों की दृष्टि में विनोद का आभास. कानों ने सुना,' हाँ, तो कहो जो कहना है ?'
विस्मित मैं - मुझे क्या कहना, जब कुछ पता ही नहीं!
स्पष्टीकरण हुआ
जो चाहो माँग लो !

मैं ? मैं तो चकित!
'दर्शन निष्फल नहीं होते .क्या चाहिये तुम्हें ? '
मुझे क्या चाहिये ? उलझन में पड़ गई .
ऊहापोह की स्थिति - मन थिर नहीं होता.
विचार उठने लगे - माँ के सामने हूँ अभी तो मन-चाहा मिलेगा.
पर क्या ?
ऐसा क्या है जो माँगने पर कुछ और पाने की कामना  न हो?
 मुझे क्या चाहिये? क्या चाहिए जो पाकर मैं पूर्ण तृप्त हो जाऊं,.क्या?..क्या?
 सुख?
क्या है सुख? मन की स्थिति ही तो, बहुत परिवर्तनशील ,अस्थाई .
यश ,धन,बल ? सब ऊपरी वस्तुएँ .चलायमान .टिकनेवाला कुछ नहीं. समय के साथ सब बीत जायेंगे . एक अतिरिक्त रिक्तता छोड़ जाएँगे .ऐसी भंगुर वस्तु माँग कर क्या करूँ?
मन स्थिर नहीं कर पा रही .
मैं क्या बोलूँ, माँ?
तुमसे उधिक कौन समझेगा मुझे? मेरे अंदर जो भी चल रहा है, हे घटवासिनी, तुम जान रही हो  .मेरी सीमित बुद्धि अक्षम है.
ऐसा क्या है जो माँगने पर कुछ और पाना शेष न रहे?
उनके मुख पर मंद स्मिति.
मेरी उलझन तुम्हीं सुलझा दो न !
    शब्दों की आवश्यकता नहीं थी. मौन में संवाद संपन्न होते रहे.
जन्म-जन्मान्तर तक मेरा कल्याण हो जिसमें, महामंगले, मति-गति तुम्हारे सदांश से  नियंत्रित रहे .नहीं जानती मैं क्या बोलूँ ..तुम्हीं जानो  ..
नयन उठा कर देखा उन्होने . अंतर परम स्वस्ति से भर उठा.
मेरा शीष अनायास झुक गया था.

अच्छा  पुत्री ,बस अब !
पुत्री?
 पुत्री कहा?
 उन्होंने ? मुझसे ?
क्या शेष रह गया अब !
अभिभूत मैं, कृतार्थ !
 उसी आत्म-विस्मृति में अंतर्मन पुकार उठा - बस, आश्वस्त करती रहना,
हर विचलन में , माँ ,कि सिर पर हाथ तुम्हारा है!'
 स्वस्ति कर उठता दिखा.
आविष्ट मैं. नयन-पलक मुँद गए थे.
आगे की सुध नहीं मुझे.
बड़े भोर नींद खुली थी -अपने कक्ष में शैया पर .भ्रमित सी चारों ओर देखती रह गई थी.
*
बहुत खोजा था उन्हें , बहुत-कुछ पूछना था,
 पर फिर कभी नहीं मिलीं वे !

इस नवरात्र-बेला में  रहस्य-कथा  अनायास ही अक्षरित हो गई - वाङ्माया की इच्छा रही होगी !

*


शनिवार, 5 अप्रैल 2014

इंसानी फ़ितरत -

             ये कौए लोग इतने बेवकूफ़ नहीं कि कोयल के अंडे फ़्री मेल में सेते रहें . वे अपना फ़ायदा देखते हैं. स्पेन के ओविएडो वि.वि. में डॉ. डेनिएला और उनकी टीम द्वारा  एक अध्ययन किया गया. उन्होंने आकार में बड़ी ,चित्तीदार कोकिलाओं की, वहाँ की एक प्रजाति और केरियन कौओं के व्यवहार पर प्रयोग किये .पाया यह गया कि कौए अपना हित देखते हैं,इतने भोले नहीं कि कोयल के अंडों को अपना समझ कर व्यर्थ में सेते रहें.कोयल के बच्चों का होना उनके बच्चों की परवरिश के लिए लाभकारी है .
कोयल के चूजें एक विषैला स्राव छोड़ते हैं ( बड़े होने के बाद नहीं ). जिसके रसायनों और क्षारीय तत्वों के कारण ,आक्रान्ता उनसे दूर भागते हैं और वे सुरक्षित रहते हैं .
 इन लोगों ने जब  उस स्राव से युक्त मांस ,जिस घोंसले में केवल कौए के चूज़े थे, रखा तो जंगल की बिल्लियों और अन्य पक्षियों  ने छुआ भी नहीं .अन्यथा तो वे अंडे-बच्चे सब गड़प् जाते . 
   कौए अपनों  की सुरक्षा के लिये कोयल- शावकों का प्रयोग करते हैं ,उन पर कोई एहसान नहीं करते .न कोयल चालाक है न कौआ मूरख !  प्रकृति की 'पेइंग गेस्ट' प्रणाली है - सह-अस्तित्व का सिद्धान्त!
कुछ भी कह देना तो इंसानी फ़ितरत है - खुराफ़ाती दिमाग़ की सूझ !
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