बुधवार, 14 जुलाई 2010

प्राइवेसी कहाँ !

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(व्यंग्य)
प्राइवेसी कहाँ !

हमारे देश के कवियों का भी जवाब नहीं ।नारी से संबद्ध रीति-नीति का जितना ज्ञान उन्हें है और किसी देश के कवि में मैने नहीं पाया ।वैसे अन्य देशों के कवियों के बारे में मेरा ज्ञान सीमित है ,किसी को पता हो तो सूचित करे । हाँ, तो नारी तन के समग्र-वर्णन और उसके क्रिया-कलापों के सूक्ष्म-चित्रण में एक से एक पहुँचे हुये मर्मज्ञ यहाँ मिलेंगे ।यह परंपरा संस्कृत से शुरू हो जाती है ,उसके पहले से भी हो सकती है ,पर मुझे पता नहीं । वैसे कवि और नारी का संबंध जन्मजात है -किसी अच्छे-खासे व्यक्ति के भीतर कवि तब जन्मता है जब उसका नारी से साबका पड़ता है ।और यह संबंध हर चरण में किसी न किसी प्रकार व्यक्त होता रहता है । अपने महाकवि कालिदास, गोस्वामी तुलसीदास किनकी प्रेरणाओं  से कवि बने कोई छिपी बात नहीं है ।जिन्हें कविकुल-गुरु की उपाधि प्राप्त है उन कालिदास के सूक्ष्म वर्णनों की दाद देनी पडेगी। पार्वती तपस्या में लीन हैं,वर्षा का जल उन्हें भिगो रहा है ।जल की बूँदें कहाँ-कहाँ कैसे -कैसे गिर कर कहाँ -कहाँ तक क्या रूप ले रही हैं ,कवि की दृष्टि-.यात्रा में कोई ब्योरा छूटा नहीं है,इतना सब तो स्वयं पार्वती को अपने बारे में पता नहीं होगा ।सचमुच सूरज की भी जहाँ पहुँच नहीं कवि वहाँ भी ताक-झाँक करने की धृष्टता पर उतारू रहता है ।अभिज्ञान शाकुन्तल में कुमारी कन्या की साँसों का शारीरिक चित्रण तो  रसिक राजा दुष्यंत के मुख से करवाया है ,गनीमत है।आगे के कवियों की क्या कहें गुरु गुड़ ही रह गये चेले शक्कर हो गये- कम से कम इन मामलों में ।
बचपन से मेंरा मन अपने कोर्स की किताबें पढने में नहीं लगता था ।बडे भाई-बहिन की किताबें चुपके से उठा लाती थी (सामने लाने की हिम्मत नहीं थी )और पढा करती थी ।किसी से समझाने को कहूँ इतना साहस कहाँ था मनमाने अर्थ लगाया करती थी ।तब विद्यापति की सद्य-स्नाता नायिका का वर्णन पढा ।मुझे बड़ा विस्मय हुआ -ये कवि लोग क्या छिप-छिप कर महिलाओं के स्नानागारों में झाँकते थे ।और नहीं तो इतना सांगोपांग चित्रण कैसे कर पाते ? इसके बाद तो वर्षों मैं बड़े ऊहापोह में रही ।कहीं जाती थी तो बाथरूम में घुस कर सबसे पहले दीवारों -दरवाज़ों का निरीक्षण करने के बाद स्नान करने का उपक्रम करती थी।मन बराबर भय- संशय में पड़ा रहता था कि कहीं कोई कवि टाइप आदमी सँधों से आँखे चिपकाये तो नहीं  खड़ा है !
उससे आगे चलिये और देखिये -एक बालिका ,जिसे हमारे यहाँ कन्या कह कर मान दिया जाता है । पर इनकी खोजी निगाहें उसे भी नहीं बख्शतीं ।क्या कपड़ा-फाड़ दृष्ट पाई है -
'पहिल बदरसन पुनि नवरंग ।
मैंने नख-शिख वर्णन पढे और दंग रह गई ।सब स्त्रियों के शरीर पर आधारित थे ।बहुत खोजा पुरुषों का नख-शिख वर्णन कहीं नहीं मिला । नारी के'नख-शिख' वर्णन की परंपरा में निष्णात कवि पुरुष के प्रति इतने उदासीन क्यों रहे मैं कोशिश करके भी समझ नहीं पाई ।किसी से पूछने की हिम्मत पड़ी नहीं ।मन में एक काम्प्लेक्स सा समाया हुआ है। लड़कों और आदमियों के विषय मे जानने को बेहद उत्सुक होने पर भी कभी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी ।अपनी सखियों से बात की पर उनका भी वही हाल था जो मेरा ।मन मार कर रह गये ।
अधिकार पूर्वक स्वयं को प्रस्तुत करने का साहस करते तो पुरुष तन और मन में पैठने का अवसर सबको मिलता ।वय के साथ होनेवाले शारीरिक-मानसिक परवर्तनो में नर का चित्रण भी उतनी ही रुचिपूर्वक करना साहित्य और समाज के लिये उपादेय सिद्ध होगा ।मैं आशा करूंगी कि अब कोई पुरुष आगे बढ़ कर इस शुभ-कार्य का श्रीगणेश करेगा ।
उधर बिहारी भी शैशव से यौवन तक होनेवाले परिवर्तनों पर अपनी  'गृद्धदृष्टि' जमाये बैठे हैं ।इन लोगों से कुछ भी बचा नहीं रहता ,नारी की प्राइवेसी खत्म । उनके  'बडो इजाफाकीन 'जैसे रुचिबोध पर मुझे बडी कोफ्त होती है ।ऐसे तो नीति के पद लिखने में भी माहिर हैं पर वैसे रीतिनीति सब ताक पर रख आते हैं।
कवियों की उक्तियाँ समाज की बहुत सी समस्याओं का हल भी प्रस्तुत कर देती हैं । बिहारी ने अपने एक दोहे में बताया है -
'वधू अधर की मधुरता कहियत मधु न तुलाय ,
लिखत लिखक के हाथ की किलक ऊख ह्वै जाय ।'
धन्य है ऐसी वधू और धन्य है ऐसा कवि !जिससे कलम बनती है वे सारे किलक अगर ऊख हो जायँ तो देश की चीनी की आवश्यकता तो पूरी हो ही ,इतनी बची रहेगी कि उसके निर्यात से विदेशी मुद्रा के भंडार भर जायेंगे ।और भी --
 ' पत्रा ही तिथि पाइये वा घर के चहुँ पास ,
नित प्रति पून्यो ही रहे आनन ओप उजास ।'
हर मोहल्ले में ऐसी दो-चार नायिकायें बस जायँ तो बिजली का संकट खत्म
उनके सौंदर्य-बोध का क्या कहना ! दुनिया भर के लुच्चे-लफंगे उनकी दृष्टि में रसिक हैं।श्लीलता ,शालीनता ,शोभनीयता सब बेकार की बातें हैं । प्रस्तुत है एक बानगी -
'लरिका लेबे के मिसन लंगर मो ढिग आय ,
गयो अचानक आँगुरी छाती छैल छुआय।'
बताइये भला लडकी ,भतीजे को गोद में खिलाती -बहलाती बाहर निकल आई है।यौवन का प्रारंभ है ।बच्चे को उछाल उछाल कर खिलखिला रही है।वह लफंगा बाहर खड़ा है। ताक लगाये रहता है लड़की कब बाहर निकले ।बच्चे से बोलने के बहाने पास आ गया ।बोल रहा है बच्चे से निगाहें लड़की पर हैं। बस मिल गया मौका ।बच्चे को गोद लेने के बहाने हाथ बढाया उद्देय़्य था लड़की के शरीर से छेड़खानी ।दाद देनी पड़ेगी कवि के मन में क्या-क्या भरा पड़ा है।
इस समय  बिहारी का नीति-बोध कहाँ बिला गया ? जरूर उस लफंगे को लडकी से लिफ्ट मिली होगी ,नहीं तो इतनी हिम्मत नहीं पडती ।पडती भी तो दुत्कार खाकर भागता ।बिहारी जानते होंगे कि कुछ लगा-लिपटी चल रही है ,नहीं तो वह बेहया लडकी भी इतना रस लेकर लफंगे को छैल कह कर उन्हं न बता पाती ।चलो, मान लिया ऐसा कुछ था तो कवि का क्या कोई दायित्व नहीं बनता !
 पर जब घर की महिलायें अपने कार्य में व्यस्त हैं ,उन पर भी ये कवि महोदय अपनी लोलुप दृष्टि डाल रहे हैं --
'अहे,दहेडी जिन धरे ,जिन तू लेइ उतारि ,
नीके छींके ही छुयै,ऐसी ही रहु नारि !'
इनके आगे तो भले घर की औरतों का काम करना चलना-फिरना मुश्किल ।उससे कह रहे हैं ऐसे ही खडी रह ।कहीं के राजा -महाराजा होते तो चारों ओर छींके लटकवा कर सुन्दरियों को उसी तरह खडा रखते ।
मुझे याद है ,जब मै ब्याह कर ससुराल आई तो सबसे छोटी बहू होने के कारण ,मुझे बहुत छूट मिली हुई थी।रसोई में देखलें तो ससुर जी फ़ौरन टोकते थे ,' अरे,उसे कहाँ चौके में घुसा दिया?
सास जी चिल्ला कर कहती थीं ,  'नहीं चूल्हे के पास बैठाय रही हैं ।सबसे पहले नहाय कर तैयार हुई जात है सो  अदहन में दार  डारै अपने आप चली गई है। महराजिन आय रही हैंगी।'
और किसी बहू से नहीं बोलेते थे पर मुझे पास बिठा कर बात करते थे ।सास जी ने भी सिर्फ़ एक रोक लगाई थी -जब  रिश्तेके एक विशेष ननदोई ,उम्र पचास से ऊपर ही रही होगी उनकी,आँगन में बैठे हों तो अपने कमरे में रहा करूँ ।
मैने अपनी जिठानी से पूझा था,मेरी तीनों जिठानियाँ ,मुझसे 10 से 25 साल तक बड़ी थीं ।उन्होंने हँसते हुये बताया,'बे मन्दिरऊ जात हैंगे तो  भगवान की बनाई की मूरतन को निहारत रहत हैं।
उन्होंने एक बार किसी से कहा भी था ,'उसकी गढ़ी सूरतें देखते हैं।'
बाद में मेरी समझ में आ गया विधि की रची मूरत- अर्थात् भगवान की बनाई नारी देह! इन कवियों की रसिकता उनसे किस अर्थ में कम है?भगवान की बनाई मूरत उनके लिये अधिक स्पृहणीय है,आदमी ने पत्थर से जो मूर्ति गढ़ी उसमें ऐसा लीला-लालित्य कहाँ !
 हाँ ,आज की विज्ञपनबाजों के लिये उपरोक्त  मुद्रा बहुत आकर्षक और उपयोगी  सिद्ध हो सकती है ।
'नासा मोरि सिकोरि दृग ,करत कका की सौंह '
क्य कह रही है यह सुनने की फ़ुर्सत कहाँ ,अपने बिहारी कवि को लड़की के चेहरे से आँखें हटाना गवारा नहीं।सोचने समझने की जरूरत किसे है।
गोरी गदकारी हँसत परत कपोलन गाड़,
कैसी लसति गँवारि यह सुनकिरवा की आड़ !
नागरी हो या गँवारी क्या फ़र्क पड़ता है ,आँखों को चारा दोनो से मिलेगा ।
एक और दृष्य देखिये !युवती नदी किनारे आई है, स्नान करना है ।पर नदी का पानी ठंडा है ।स्पर्श करती है तो शरीर में फुरहरी उठती है पानी में घुसने की हिम्मत नहीं पडती ,तट पर खडे लोगों को देखती है(हो सकता उन में उसका प्रेमी भी खड़ा हो,कवि को ज्यादा पता होगा ) सोचती है क्या करूँ स्वयं पर हँसी आ रही है,घर भी ऐसे कैसे चली जाये!.
 नहिं नहाय नहिं जाय घर ,चित चिहट्यौ उहि तीर ,
परसि फुरहरी लै फिरति ,विहँसति धँसति न नीर!
इन कवियों की महिमा अपार है ।लिखने बैठो को ग्रंथ के ग्रंथ भर जायें ।
पर बाकी फिर कभी ।

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सोमवार, 12 जुलाई 2010

भगवान जाने

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संदीप बाबू बड़ी तेज़ी में बढ़े जा रहे थे ।जल्दी से आगे बढ़ कर मैंने आवाज़ लगाई ,'संदीप बाबू ,रुको ज़रा ।'
रुके नहीं वे ,बस चाल ज़रा धीमी कर ली ।
'ये आज क्या हो गया इन्हें 'सोचा मैंने और अपने कदम तेज़ कर लिये ।
'क्या हुआ ?कुछ खास बात है ?'
'आज मंगल है न !बजरंगबली को प्रसाद चढ़ाना है ।आज देर हो गई ।'
हाथ मे प्रसाद का डब्बा था ,बोले बस अभी दस मिनट में लौटता हूँ ,तुम घर चलो ।'
पता लगा लड़के ने किसी प्रतियोगिता का फ़ार्म भरा है ।हर मंगल और शनि को मंदिर में लड्डू चढाते हैं ।
*
आजकल इम्तहानों का मौसम है । मंदिरों में बड़ी भीड रहने लगी है।भगवान को प्रसन्न करने के चक्कर में हैं सब लोग ।बिना उसकी मर्जी के कुछ नहीं होता !छात्र तो छात्र उनके माता पिता भी अधिक आस्तिक होकर भक्ति प्रदर्शित करने लगे हैं ।कोई हनुमान जी को लड्डू चढ़ा रहा है कोई शुक्रवार व्रत रख रहा है कोई वृहस्पतिवार को पीले खाने की तलाश में है ।श्रद्धा की बाढ आ गई है चारों तरफ़ । अंतःकरण शुद्ध हुये जा रहे रहे होंगे,सारी मलीनता धुल जायेगी।
पर कहां? यह सब तो अपना मतलब साधने को हो रहा है। नहीं यह वह असली श्रद्धा नहीं है उस पवित्र भवना को भी प्रदूषित कर डाला है इन लोगों ने । रिश्वतें दी जा रही है भगवान को अपने अनुकूल बनाने के लिये ।
भगवान से अपने मन की चाह पूरी कराने के सारे हथकंडे अपनाये जा रहे हैं।,रिश्वत पूरी , मेहनत अधूरी !
और भगवान ?वह क्या समझते नहीं ?सब जानते हैं वह !अंतर्यामी है न - इसलिये खूब मज़े लेते हैं ।
हर चीज़ को अपने हिसाब से मोल्ड कर लेते हैं ।
पूछिये वह कैसे ?
नहीं मालूम न ?
दैत्यराज बलि का नाम सुना है ?
,महादानी ,परम श्रेष्ठ इन्सान ,विष्णु भक्त ,प्रजा को अति प्रिय ।दक्षिण में तो लोग अब तक उसके नाम पर दीवाली मनाते हैं ,उनकी मान्यता है कि उस दिन वह अपनी प्रिय प्रजा का हाल लेने आते हैं ।
हाँ ।वही बलि ।अपने इन भगवान महोदय ने क्या किया उनके साथ ?
दान माँगा था ,बावन अँगुल का बन कर ।
हाँ ।बौने बन कर दान माँगने पहुँच गये ।उसने याचक का पूरा सम्मान किया और उसकी इच्छा पूछी ।इनने तीन पग धरती माँगी ।राजा बालि को हँसी तो आई होगी -क्या जरा सा बौना ,मुझसे माँगा भी तो क्या तीन पग ज़मीन ।शायद संदेह जागा हो कि ज़रूर दाल में कुछ काला है ।पर व्रती था ,व्रत तो पूरा करना ही था । आगे जो हो मंजूर ! बिल्कुल वही जो आगे कर्ण के साथ हुआ।और इन महाशय ने चाल खेल डाली ।रूप विस्तार कर दो पगों सारी धरती आकाश माप लिया और तीसरी बार उसके सिर पर पाँव रख उसे पाताल भेज दिया ।
असल में यह इन्द्रासन का झगड़ा था ।इन्द्र बड़ा कपटी है इन्द्रासन को किसी भी कीमत पर हाथ से जाने नहीं देना चाहता ।उसी ने तो गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या से कपट किया था ।फिर भी ये उसका हमेशा फ़ेवर करते हैं ।
इन्द्र ने तो हद कर दी भी फिर भी पद नहीं छीना गया !
पद न छिन जाये इसीचिये तो इन्हें हमेशा पटाये रखता है ।और ये दूसरे की अच्छाई और सज्जनता को हथियार बना कर उसी के खिलाफ़ स्तेमाल करते हैं ।
इनकी कुछ मत पूछो ।पाँण्डवों को तो जानते ही हो पाँचों के पिता अलग अलग थे इसीचिये वह चिन्तित रहती थी क कहीं कि कहीं आपस में फूट न पड़ जाये ।तभी द्रौपदी को कॉमन पत्नी बना दिया ।कुन्ती का एक पुत्र उसकी कौमार्यावस्था में सूर्य से उत्पन्न हुआ था ।कुन्ती ने उसे नदी में बहा दिया था अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने उसका पालन-पोषण किया था ।वह कौन्तेय से राधेय बना और जीवन भर अपमान झेलता रहा ।दुर्दम,अपराजेय योद्धा ,परम श्रेष्ठ धनुर्धर ! लेकिन जीवन भर विडम्बनायें झेलता रहा ।कुन्ती ने जानते हुये भी कुछ न किया,बल्कि उसने भी अपने विहित पुत्रों की सुरक्षा के लिये उससे उस मातृत्व की कीमत माँग ली कृष्ण के कहने पर , जिसने उसे सदा वंचित रख कर जीवन अभिशप्त बना दिया था ।
और स्वार्थी इन्द्र की करतूत और स्वार्थपरता देखो, अपने पुत्र अर्जुन की कुशलता के लिये अपने ही सहयोगी देवता सूर्य के पुत्र कर्ण से उसके शरीर से चर्मवत् संयुक्त कवच - कुण्डल दान में माँग कर उसकी मृत्यु का प्रबन्ध कर दिया ।सद्भावना ,औचित्य , न्याय सबको अँगूठा दिखा दिया ।वह तो इन्द्र ने किया । विष्णु का जालंधर को शक्तिहीन बनाने के लिये उसका परम साध्वी पत्नी तुलसी को उसी के पति का रूप धर कर छलपूर्वक अपनी अंकशायिनी बनाना नैतिकता की किस श्रेणी में गिना जाय ?!
वह यह सब अपने लोगों के इन्टरेस्ट में करते हैं ।
इसीलिये तो ! इसीलिये तो हम हमेशा भगवान को याद करते हैं ।बस वह अपने बने रहें और किसी के साथ कुछ होता रहे हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।उचित हो अनुचित हो कोई अन्तर नहीं पड़ता ।बस , अपना उद्देश्य सिद्ध होना चाहिये ! भगवान को अनुकूल बना लो -येन केन प्रकारेण !चाहे प्रसाद बोल कर ,भजन-पूजन कर ,या और किसी कर्म काण्ड के सहारे !और फिर दुनिया को रक्खो ठेंगे पर !
कर्मों का फल मिलता है न?
कर्मों का फल ?हो सकता है वह भी उनकी सुविधा पर निर्भर है ।तपस्या का फल हमेशा कल्याणकारी नहीं होता यह तो हम प्रमाण दे सकते ।
क्या कहा तप का फल हमेशा अच्छा ही मिलेगा ?
यह मत कहो।रामकथा की ताड़का का नाम सुना है ?वह सुकेतु यक्ष की पुत्री थी ।उसके पिता ने संतान के लिये घोर तप किया ।ब्रह्मा जी प्रसन्न हुये । उसे ऐसी पुत्री प्राप्त होने का वर दिया जिसमें हज़ार हाथियों का बल हो और यही उसके लिये शाप बन गया। बताओ भला सहज जीवन कहाँ रह गया?।फिर उसे और उसके पति को मुनियों ने शाप दे दे कर चैन से जीना दुश्वार कर दिया ।अगर यह वरदान है तो शाप क्या है ?
फिर तो हम इन्हीं की आराधना करेंगे ।हम गलत हों चाहे सही हमारे फ़ेवर में रहेंगे तो फ़ायदा हमारा ही होगा ।औरों से हमें क्या ?
सच्ची उसकी माया हम नहीं जान सकते ,वही जाने ।
हम भारतवासी उसकी आदत से अच्छी तरह परिचित हैं ।जब देखते हैं काम नहीं निकला तो --
और किसी दूसरे देवता को मनाना शुरू कर देते हैं । इतने सारे देवता हैं कोई तो झाँसे में आ ही जायेगा !
यही तो मुश्किल है ।इतने सारे देवता हैं ।
एक को खुश करो और दूसरा बीच में टाँग अड़ा दे तो गये काम से ।कभी कभी बड़ा गड़बड़ हो जाता है उनके आपसी चक्कर मं ।
हुआ ऐसा कि एक हिन्दू ,एक मुसलमान और एक ईसाई नाव में जा रहे थे नाव बीच भँवर में फँस गई ।हिन्दू राम-राम करने लगा ,मुसलमान अल्ल्ह अल्लाह ,और ईसाई ईशू ईशू टेरने लगा ।अल्लाह दौड़े अपने भक्त को बचा लया ,ईशू दौड़े अपने भक्त को बचाया ,हिन्दू की पुकार सुन राम आ ही रहे थे कि वह अधीर होगया कि अभी तक आये क्यों नहीं और कृष्ण ,हाय कुष्ण चिल्लाने लगा ।कृष्ण दौड़े पर वे पहुँचें इसके पहले ही वह बेसब्रा भोलेनाथ भोलेनाथ पुकारने लगा ।कृष्ण बेचारे जहाँ थे वहीं रुक गये ।और भोले नाथ पहुँचते उसके पहले ही बजरंगवली की पुकार लगा दी ।भोलेनाथ ने सोचा हनुमान दौड़ेंगे और हनुमान ने सोचा शंकर जी पहुँच ही रहे हैं हम बेकार जा कर क्या करें और इस बीच वह पानी में गुड़ुप हो गया ।
दिन पर दिन मेरा विश्वास बढता जा रहा है कि भगवान अपनी शरण में आने वालों का कल्याण करता है -चाहे वे लोग उचित मौकों पर ,या जब जरूरत पड़े तब थोड़ी देर के लिये ही शरण में जायें।रोज़ देखती हूँ ,ऑफ़िसों में जो लोग प्रार्थना पत्र पर पूजा-पत्र चढवाये बिना आगे नहीं बढने देते ,अपना हिस्सा वसूले बिना किसी का काम नहीं करते शनिवार या मंगलवार को भगवान के दरबार में उपस्थित हो टीका लगा कर गिड़गिड़ा कर क्षमा मांग लेते हैं ,ऊपर की वसूली का दशमलव ज़ीरो एक परसेन्ट प्रसाद में व्यय कर उसे जायज़ बना लेते है ,दिन पर दन मोटे और सर्व- सुविधा सम्पन्न होते जा रहे हैं।कैसे संभव होता है यह? हर हफ़्ते भगवान से माफ़ी माँग कर ,प्रसाद प्रार्थना से ही तो ।अगर पाप ही न करें तो ये सब करने की ज़रूरत ही क्या ?
मुझे याद आगया ,बड़ी पुरानी बात है ,आठवीं कक्षा को रहीम दोहे पढा रही थी । समझाने के बाद बीच बीच में बच्चों से अर्थ पूछ लेती थी ।उस दिन ' क्षमा बड़ेन को चाहिये छोटेन को उत्पात' का अर्थ पूछने पर बच्चा बोला -बड़ों को क्षमा और छोटों को उत्पात करना चाहिये !छोटों को उत्पात क्यों करना चहिये पूछने पर बोला चाहिये शब्द दोनों के लिये है ।अगर छोटे उत्पात नहीं करेंगे तो बड़े क्षमा कैसे करेंगे ?उसके तर्क का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था ।ऐसे ही हत्बुद्धि मैं रह गई थी जब 'सूर दास तब विहँसि जसोदा लै करि कंठ लगायो' का अर्थ एक लड़की ने बताया -तब सूर दास जी नें हँस कर यशोदा जी को गले से लगा लिया । मैं उसे समझाती रही ,पर बाल बुद्धि ठहरी ।सामने तो कुछ नहीं बोला पर उसे लगा कि एक बात साफ़-साफ़ लिखी है और ये टीचर उसे घुमा-फिरा कर बता रही हैं । कभी कभी तो मैं भ्रम में पड़ जाती हूँ कि मैं ही तो गलत नहीं हूँ !वैसे सब का अपना-अपना सोच !सबको भगवान बुद्धि देते हैं ।
हमारे एक अभिन्न मित्र हैं,लोगों की जेब से पैसा कैसे खींचा जाता है यह बताते रहते है ।एक दिन मैंने पूछा ग़रीबी में जिनका आटा वैसे ही गीला है उन को ते बख़्श दिया करो ।बड़े दार्शनिक अन्दाज़ में बोले -गरीब अमीर ऊँच-नीच हमारे लिये सब बराबर। हम ये भेद-भाव नहीं करते!भगवान की बनाई दुनिया सब अपना अपना भाग्य लेकर आते हैं ,इसके लिये हम क्या कर सकते हैं ?
ऐसे ऐसे फ़ितरती लोग कि भगवान को ही चपत लगा दें ! भगवान भी क्या करें, उन को भक्तों का सहारा है !दोनों के काम चलते हैं ।कितनी भी अति करो उसकी आड़ ले लो ,वही रक्षा करेगा !
जय हो ,जय हो भगवान ,तुम्हारी जय जयकार हो !

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

और अम्माजी जीत गईं --

अम्माँ जी को आते देख मैने सिर पर पल्ला डाला ही था कि उन्होने टोक दिया ,' बहू ,सिर ढाँकने की कोई जरूरत नहीं । अरे ,सिर ढाँकने के दिन अब हमारे हैं कि तुम्हारे ? '
मैं एकदम अचकचा गई , क्या कुछ गलती हो गई मुझसे ?
पूछ बैठी ,' हम तो शुरू से ढाँकते आ रहे हैं ,अम्माँ जी ! पहले तो घूँघट --- ।'
' कहा न अब कोई जरूरत नहीं है ।'
लगता है बहुत नाराज हैं !
मै तो हमेशा ध्यान रखती हूँ । हाँ ये कनु जब गोदी मे होता है तो हाथ- पाँव चलाता रहता है और मै खुला सिर ढँक नहीं पाती ।
' अम्माँ जी ,मै तो यहाँ घर के बाहर भी सिर पर पल्ला लिये रहती हूँ ।आप के पोते के मारे भले ही कभी ---।'
' सो सब हमे पता है, पर अब दताए देती है कि इस सब की कोई जरूरत नहीं ।'
' लेकिन अभी तक तो आपको कायदा पसन्द था --?'
भहुओं के सिर ढके रहने ,सबके सामने चारपाई पर न बैठने , दब ढँक कर रहने आदि को कायदा कहा जाता है ।
' ज्यादा इन्दरा गान्धी बनने की कोसिस मत करो बहू ,इतना तो तुम भी समझती हो कि सिर ढाँकने का क्या मतलब है ।'
मेरी कुछ समझ मे नहीं आया । सिर ढाँकने का भला क्या मतलब हो सकता है ? आदि काल से भरतीय बहुएँ यही सब करती आई हैं । अभी तक तो अम्मा जी को कायदा पसंद था ,खुद भी साड़ी की किनार माथे से एक इंच आगे निकाले रखती थीं -कहती थी इससे चेहरे की आब बनी रहती है। ' बच्चों के मारे या काम -धाम मे हम बहुओं का कभी पल्ला इधर-उधर हो जाय़ तो कहती थीं ,' हमें का ,तुम उघारी नाचो !'
और आज ?
मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा । वे समझ गईं । स्पष्ट करने लगीं ,' देखो बहू ,पालिटिक्स करने के दिन तुम्हारे हैं कि हमारे ? अरे तुम कल की आई अभी से सिर ढँक कर पालिटिक्स करोगी और हम सिर खोले देखते रहेंगे ?'
मै चकित सी उनका चेहरा देख रही थी । उन्होने आगे समझाया ,' इन्दरा जी जब पालिटिक्स मे आईं ,उनका सिर ढँका रहने लगा ।अब सोनिया जी को ही देख लो ,सिर पर पल्ला डाले कैसी शालीनता की मूरत लगती हैं !जनम से विदेसी पर पालिटिक्स का पूरा कायदा करती हैं ।'
अम्मा जी की प्रखरता मैं आज देख पाई थी ।
वे आगे बताने लगीं ,' कायदा पसन्द था जब की बात और थी । सबन के घर यही होता था । तब मेहरारुन के लै तैंतीस परसेन्ट रिजरवेशन की बात नहीं थी ।'
मेरे ज्ञान चक्षु खुलने लगे! अम्मा जी के सिर का पल्ला धरे-धीरे खिसकता हुआ ढाई इ़ञ्च पीछे यानी कानों तक आ गया था !शरीर पर हल्के-फुल्के गिनती के आभूषण रह गए थे ,अब तक वे पहनने-ओढ़ने की बड़ी शौकीन थीं ! मै उसी पुरानी दुनिया मे खोई रही ,बाहर तो बाहर , घर मे क्या परिवर्तन हो रहा है यह भी मुझे नहीं दिखाई दिया ? अम्मा जी की तो इस बीच भाषा ही बदल गई थी १ इस परिवर्तन की शुरुआत काफ़ी पहले हो गई थी - वे चाय के साथ अख़बार पढने लगीं थीं ,मोहल्ले की महिलाओं के साथ बात-चीत के उनके टापिक बदल गए थे ।
हमारी अम्माजी आठवीं जमात तक पढ़ी है उस जमाने की जब लड़कियों को पढ़ाने की जरूरत नहीं समझी जाती थी ,उनके मामा की शादी निकल आई तो इम्तहान नहीं दे पाईं ।अपनी क्लास टीचर की चहेती थीं ,लड़कियों पर उनका रौब था ।
अब उनकी बातों के विषय होने लगे हैं -बिट्टन देवी को काला अक्षर भैंस बराबर ,पर अपने वार्ड से सभासद के चुनाव में खड़ी हो रही हैं -अपनी इसकूल जाएवाली बिटिया से अक्षर लिखना सीख रही हैं ,अब अपना नाम लिख लेती हैं । हमारे सामने बियाह के आई परसादी की बहू घूँघट उतार कर अपने लै वोट माँगने सारे दिन बाहर घूमती है ,भासण देना भी सीख गई है ।
अम्मा जी भी हैणडलूम की किनारीदार साड़ी खरीद लाई हैं ,कहती हैं ,'पब्लिक के बीच अइसे ही अच्छा लगता है ।'
'देखो दुलरिया अब सिरीमती सियादुलारी कहाती हैं ! ढंग से कपड़े पहनने का सहूर नहीं था - अब करारी सूती साड़ी पे मैचिंग ब्लाउज़ पहनती हैं -क्या ठसके हैं !
चुनाव का मौसम है ! नगर सभासद के चुनाव मे कई महिलाएँ खड़ी हुई हैं । बिट्टन देवी कल रास्ते मे मिल गईं बोलीं , 'हमका वोट देना १'
अम्माँ मुझसे बोलीं ,' न पढ़ी न लिखी !इनका कउन वोट देगा !'
अम्माजी के बेटे ने कहा ,' वो जीत जाएँगी तुम देख लेना !पार्टी की रिज़र्व सीट है ! राबड़ी देवी कौन लिखी-पड़ी है , मुख्यमंत्री बनी बैठी हैं ।'
हालात अचालक ऐसे बदले कि हमने कभी सोचा भी नहीं था । ।बिट्टन देवी सीढियों से लुढ़क पड़ीं , पाँव की हड्डी टूट गई । लोगों को हमारी अम्मा से योग्य कोई जँचा नहीं । तमाम कोशिशों कर उनकी जगह नामाँकन करवा दिया ।
जीतना तो था ही!अम्मा जी इलेक्शन जीत गईं । गट्ठर भर फूल मालाओं से लाद दिया गया उन्हें । उन्होने पहले ही मुझसे कह दिया था ,'बहू ममारे भासण लिखने की जुम्मेदारी तुम्हारी ।'
' हम तो तैयार हैं ,अम्मा जी , लेकिन पिताजी ज्यादा अच्छी तरह --'
' ना बहू ,अब उनका मुँह नहीं तकना.। सिर झुकाए-झुकाए घर की चाहारदीवारी मे इतनी जिन्दगी गुजार दी ,अब सिर उठाने का मौका आया है --- बस तुम नेक मदद कर देना , फिर तो धीरे- धीरे हम भासण भी सीख जाएंगी । पर सुरू से अपनी हँसी हो अइसा नहीं करेंगी ।'
अपने पहले वक्तव्य पर सफल होकर बहुत खुश हुईं ,मुझे गले लगा लिया ,' अब देखो,बहू हम कैसी मुस्तैदी ले काम कराती हैं ।अभै तक तो इनके असिस्टन बने रहे --'
'क्या ,अम्मा जी ?'
'अरे वही जो हमेसा काम कराते हैं ।'
'एसिस्टेन्ट ?'
'हाँ,हाँ ,वही ।'
देसी मुहावरों का तो पहले ही उनके पास भणडार था अब अंग्रेजी के शब्दों का भी खुल कर प्रयोग करने लगी हैं ।
हमारे सलवार- कुर्ता पहनने पर भी अब कोई रोक नहीं रही । लोगों से कहती हैं, 'हमने तो बहुअन - बिटियन मे कभी फ़रकै नहीं माना ।'
ताज्जुब तब ङुआ था जब उस दिन पूजा के मौके पर अम्मा जी ठेठ देसी लहज़े मे बोलने लगीं ,' अरे हमार बिटवा -बहुरिया नीक रहैं ! ऊ न करित तो हम ई सब कहां कर पाइत ?'
इनहोने फ़ौरन टोका ,'अम्मा ,अब तुम माननीय सदस्य हो ठेठ देसी भाषा भूल जाओ !'
'अरे ,बिटवा तुम लोगन के साथ इहै भासा बोल के हमार जिउ जुड़ात है ।'
हालात कितने भी बदल जायँ वे रहेंगी हमारी अम्माजी ही !
उनकी की पूछ बहुत बढ़ गई है । रोज ही से समारोहों के आमंत्रण मिलते हैं । दो-चार लोग उन्हे पूछते चले आते हैं । वे मुस्कराती हुई ,गौरव से भरी दालान मे कुर्सी पर जा बैठती हैं ।सबकी सहायता करने को तत्पर रहती हैं । कल ही कामवाली को समझा रही थीं ,'----देखो , कम तुम भी नहीं हो ।जाहिल औरतन की तरह उघटियाँ - पैचियाँ बन्द करो । काहे रोज लड़ाई पे तुली रहती हो ?'
और तो और अब बाबूजी की दृष्टि भी बदल गई है । अम्माजी के आत्म- विशवास भरे चेहरे को ऐसे देखते हैं जैसे किसी नई महिला के दर्शन कर रहे हों। अब कदर होने लगी है , घर की मुर्गी दाल बराबर नहीं रहेगी ।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

फ़ैसला सुरक्षित है

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अक्सर अख़़बारों में पढने को मिलता है और ख़बरों में भी सुनाई देता हैं, कि कोर्ट में किसी केस का फैसला सुरक्षित कर लिया गया ।हमें तो बड़ा ताज्जुब होता है ।बडा बहुमूल्य फ़ैसला होगा जो उसे सुरक्षित रखे बैठे हैं ।अभी तक हीरे जवाहरात ,पुरातत्व की चीजें, मरनेवाले की विल आदि सुरक्षित रखे होने की बात सुनी थी ।'फैसला सुरक्षित रखा गया' जब पहली बार सुना तो हम चौंके ।हमने तो सोचा था कि फैसले सुनाये जाने को होते हैं ,जिससे सब लोग जानें ,समझें , उससे कुछ सीख ग्रहण करें। फैसला किया गया और सुरक्षित रख दिया गया! किसी को दिया या बताया नहीं गया तो फैसला करने से क्या फायदा हुआ ?वैसे तो लोग इन्तजार करते हैं ,कब फैसला होगा,क्या होगा?सुनते हैं,जानते हैं तो लोगों पर असर पडता है। एक उदाहरण सामने रहता है कि ऐसा करने पर उसका यह नतीजा हो सकता है ।मेरा विचार था कि फैसले इसीलिये सुनाये जाते हैं कि जनता पर उसका असर पडे ,वह चेत जाये ।नहीं तो किया फैसला और दे दी सजा ,लोगों को इन्वाल्व करने की क्या जरूरत ! लेकिन अब मानसिकता बदल गई है ।हो सकता है पुरातत्व की वस्तु बन जाने पर उसे उद्घाटित करें ।
हमें जहाँ तक याद है पहले ऐसा सुनने में नहीं आता था कि फ़ैसला नहीं बतायेंगे । अल्मारी में सीलबन्द किया रख रहेगा ।हो सकता है होता हो ।पर सुरक्षित रखने का रिवा़ज अब बढता जा रहा है ।मैंने सोचा कि पब्लिकली न बतायें ,व्यक्तिगत रूप से पूछे जाने पर तो बता देंगे कि क्या निर्णय किया ।
हमने जाकर पता किया ।कोई कुछ बताने को तैयार नहीं ।बेकार दुनिया भर को क्यों बीच में डालें अकेले जाकर जज साहब से पूछ लें।हमने अर्दली से कहा कि इस मामले में हम उनसे बात करना चाहते हैं । उत्तर मिला -साहब सिर्फ मुजरिमों -अपराधियों से मिलते है ,वह भी कोर्ट-रूम में। कान खोल कर सुन लो वे सुनते हैं सिर्फ मुजरिमों ,वादियों ,प्रतिवादियों और अनुवादियों की !तुम जैसे लल्लू-पंजू , प्रवादियों से बात नहीं करते ।
'तो फ़ैसला कैसे पता लगे ?'
'नहीं जान सकते ।फ़ैसला सुरक्षित है ।'
'अरे हम जानना ही तो चाहते हैं ।कोई उनके फैसले को लूट थोडे ही लेंगे ।'
'यही तो खतरा है ।इसीलिये नही खुलासा किया ।'
'पर वह है कहाँ ?'
'कहा न, बता कर रिस्क नहीं लेना । लिफ़ाफे़ में सीलबन्द कर ,अल्मारी में लॉक कर दिया है ।ज्यादा हल्ला मचाओगे ,बहसबाजी करोगे तो कमरा बन्द करके उसमें भी ताला डाल देंगे ।सुरक्षित रखना हमारा काम है ।'
'पर मालूम तो पडॉना चाहिये ।जब केस सबकी जानकारी में हुआ ,तो फैसले का खुलासा क्यों नहीं ?'
' क्यों प्राण खाये जा रहे हो ?समझते क्यों नहीं जो चीज सुरक्षित है उसके पीछे क्यों पडे हो ?आखिर तुम्हारी मंशा क्या है ?'
'यह लोक- तंत्र है ,हमे जानने का हक है ।'
'अजीब लोगों से पाला पडा है !अरे उसी की नज़रों से तो बचाना है ।जनता के बीच हर चीज अरक्षित हो जाती है ।हमारा काम न्याय की सुरक्षा है ।फैसला न्याय है इसलिये बन्द कर दिया है ,जिसमें सुरक्षित रहे ।'
हमने फौरन उसके लिये चाय -नाश्ता मँगवाया ।थोडा ढीला पडा वह ।बताने लगा -जानते हो कितना टाइम लगता है एक -एक मुकद्दमें के फैसले में ?दस-दस,बीस-बीस साल तो मामूली बात है ।इतने सालों की मेहनत उनकी ।उसे भी सबके बीच अरक्षित छोड दें तो साहब की तो सारी मेहनत पर पानी फिर जायेगा ।'
हमारे एक संबंधी के रिश्तेदार न्यायाधिकरण में कार्यरत हैं।उनसे चर्चा हुई ।उन्होंने पहले ही सावधान कर दिया कि हम लोग वैसे ही जनता से बचते रहते हैं ।यह हमारी-उनकी आपसी बात है ,सार्वजनिक करने की जरूरत नहीं । अगर लोगों को पता लग गईं तो छीछालेदर होने लगेगी
।साराँश यह था -न्याय चुप रहता है ।पहले वारदातें होती हैं ।जब हो चुकती हैं तो पुलिस हरकत में आती है ।धर-पकड करती है ।फिर हमसे गुहार की जाती है ,शिकायत लाई जाती है .सबूतों सहित विधिपूर्वक वाद खडा किया जाता है ।तब हम न्याय का उपक्रम करते हैं ।न्याय करने के लिये पूरे प्रमाण चाहिये और वे तब मिलते हैं जब ,अपराधी का काम पूरा हो जाये ।जब माँगा जाता है तब न्याय दिया जाता है ।हमने सब बताया ,' हम कबसे माँग रहे हैं। फ़ैसला हो गया ,पर दिया नहीं गया ।'
वे कुछ ताव में आगये,'फिर वही धुन पूर दी ! न्याय कर दिया गया है।सुरक्षित रखी गई चीज,किसी के सामने नहीं लाई जा सकती ।'
हम सोचते रहे ,सोचते रहे ,जज साहब न्यायविद् हैं ।जानते है जनता के बीच न्याय अरक्षित है ।उसके बीच फ़ैसला गया तो उसे भी चोट पहुँचाने की कोशिश की जायेगी ।जज साहब को भी चोट पहुँचेगी ।चलने दो जैसा चलता है ।होने दो जो होता है ,होनी को कौन रोक पाया है
कभी तो यह फ़ैसला लोगों के सामने आयेगा ।आज नहीं तो कल ,कल नहीं तो परसों ,मेरा मतलब है ,लम्बे समय के उपरान्त यह उद्घाटित होगा ।होगा ,अवश्य होगा ! कल को हम नहीं होंगे ,जज साहब और वादी -प्रतिवादी भी पता नहीं कहाँ होंगे ।पर फ़ैसला रहेगा ।हम अरक्षित है पर वह सुरक्षित है ।अभी अल्मारी में बन्द है यह फ़ैसला इतिहास बनेगा । पुरातात्विक वस्तुओं के साथ रखा जायेगा ।और उस समय जो लोग होगे ,जानेगे कि हमारे यहाँ का न्याय कितना सजग सचेत है ।कितने अलभ्य फ़ैसले हैं और कितने सुरक्षित ।

रविवार, 4 जुलाई 2010

किसी को मत बताना

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मुझे बाजार में घूमना बडा अच्छा लगता है ।क्या करूँ सार दिन घर में बैठे-बैठे ऊब जाती हूँ ,तो शाम को इच्छा होती है घूमूँ -फिरूँ ,खूब चीजें देखूँ ,मन में आये तो थोडी बहुत खरीद भी लूँ।अभी तो बच्चों -कच्चों का भी झंझट नहीं।पर इनका अजीब हिसाब है ।कहते हैं,''क्या रोज-रोज बाजार घूमना ।वही दुकाने ,वही चाजें ,तुम्हें जाने क्या मजा आता है वही सब देखने में!'
क्या मजा आता है? अब इन्हें क्या बताऊँ ! अरे नई-नई बातें सुनाई पडती हैं,नये-नये लोग आतेजाते दिखाई पडते हैं।कैसी साडियाँ चल रही हैं,किस तरह के ब्लाउज सिले जा रहे हैं,स्वेटरों में क्या-क्या फैशन आये हैं,कौन सी पिक्चरें लगी हैं,इस सबका ज्ञान कितना बढ जाता है।दुकानों पर चीजों का भाव पूछने में भी फायदा ही है ।चार लोगों के बीच किसी चीज की चर्चा चले तो झट् से कह दो ,'नहीं फलानी चीज तो आजकल इतने की है' या ' अब तो इस तरह का चलन आ गया है ।' कितना रौब पडता है दूसरों पर । और, कोई चीज जब खरीदनी हो तो दुकानदार पर रोब मार सकते हैं ' अरे, यह तो इतने दाम की है ,या पिछले महीने तो इतने की थी ।फिर उसकी अन्धाधुन्ध दाम बताने की हिम्मत नहीं पडेगी ।चार जगह जीजें देखना अच्छा ही रहता है ,चाहे लेनी न भी हों ।
इसी बात पर मेरी इनकी अक्सर झक्-झक् हो जाती है ।इनका विचार है,जब दुकान पर चीजों के दाम पूछे हैं तो कुछ खरीदो जरूर ।ऐसा तो कोई नियम मैंने कहीं पढा नहीं ।और फिर दुकानदार होते किस लिये हैं ! जब दस चीजें दिखायोंगे तब कहीं एकाध बिकेगी ।
मजा तो तब आता है जब बीस पच्चीस दिन के लिये नुमायश लगती है।रात के एक-एक बजे तक भीड-भडक्का ,रोशनी ,गाने ! इस महीने में दिन रुकते कहाँ हैं भागते चलते हैं।पहले का एक महीना उसके इन्तजार में और बादवाला उसकी मीठी यादों के खुमार में निकल जाता है ।
पर इन्हें पटाना जरा मुश्किल काम है ।
अबकी तो नुमायश बडे गलत समय पर लगी । महीने की समाप्ति हो रही थी तब शुरू हुई ।इसे तो महीने की पहली तरीख से लगना चाहिये । बच्चे अभी नहीं हैं तो क्या हुआ,आने-जानेवाले तो हैं ही नाते रिश्तेदार भी काफी हैं।हमारा घर नुमायश के पास है ,तो लोगों का आना-जाना रोज ही लगा रहता है।खर्चा पूरा है -महीने के आखीर में वही ठन्-ठन् गोपाल ।
पच्चीस से नुमायश शुरू हो रही थी;मैने इनसे कहा ,'चलो आज उद्घाटन देख आयें!,खाद्य मंत्री आ रहे हैं ।'
' 'अरे, खाद्य मंत्री आ रहे हैं !उनका नुमायश से क्या संबंध ?'
ये तो मुझसे इतने ज्यादा पढे-लिखे हैं ! इन्हें कौन समझाये कि मंत्री पद ही ऐसा है,जिसका सब से संबंध है ।जब, जहाँ ,जो मंत्री मिल जाय उसका उपयोग करो ।कोई नियमावली तो है नहीं ,न ही विषय बँटे हैं।अगर खाद्य मंत्री नुमायश का उद्घाटन करेंगे तो ये क्या रोक लेंगे ?
पर इनसे कहे कौन?इनके सामने तो मूर्ख बन जाने में ही फायदा है ।जब ये अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते हैं तो मै प्रभावित होने का दिखावा करती हूँ.बीच में एकाध ऊलजलूल सवाल भी कर देती हूँ ,जिससे मेरी अनभिज्ञता टपके ।ये खूब रुचि ले-ले कर समझाते हैं,बीच -बीच में मेरी अल्प बुद्धि पर तरस खाते जाते हैं ।और इसके बाद कई ऐसे काम इनसे खुशी से करा लेती हूँ ,जो इनके बेमन के जोते हैं ।
नुमायश के उद्घाटन में इन्हें बिल्कुल मजा नजीं आया ।' पूरी दुकाने भी तो नहीं लगीं ' ,'इनका कहना है।पर एकदम से पूरी दुकाने लगी देख लो तो बाद के कई दिनों तक नुमायश देखने की उत्सुकता ही नहीं रहती ,बात करने के टॉपिक ही खत्म हो जाते हैं ।
कई स्टाल तो ऐसे हैं कि रोज देखो तो भी जी न भरे ।जैसे मछलियोंवाला ,और वो कई तरह के आईनोंवाला जिसमेंअपने ही रूप तरह-तरह के दिखाई पडते हैं -कहीं मोटा ,कहीं एकदम पतला ,कहीं टेढा-मेढा और ऐसी-ऐसी अजीब बेमेल सी शक्ल जो अपनी हो भी और अपनी नहीं भी लगे ।शादी के बाद जब ये पहली -पहली बार नुमायश दिखाने ले गये तो शीशे में निराली शक्लें देख-देख मेरी तो हँसी ही न रुके ।ये बार -बार मुझे आँखें दिखायें और इनकी शक्ल शीशे में और जोकरनुमा लगे तो मेरी हँसी थमने के बजाय और उमडने लगे ।ये एकदम नाराज हो पडे तो मोटे और गोलवाले शीशे में इनका नया रूप देख कर मेरी खिलखिलाहट बेकाबू हो गई ।मैं मुँह पर पल्ला रख कर बाहर भागी । ये बाद में बडी देर तक नाराज होते रहे ।
तो बार-बार मेरे कहने पर इन्होंने कहा,'देखो मेरे पास सिर्फ पच्चीस रुपये हैं ,और अभी महीने के पाँच दिन बाकी हैं ।नुमायश के मौसम में वैसे भी कोई न कोई रोज ही आ धमकता है।'
'मैं बाजार से कुछ नहीं मँगाऊँगी ,नाश्ता घर पर तैयार कर लूँगी ।और वैसे भी आज तो कुछ खरीदना भी नहीं -बस चूडी और चाट !चूडियाँ तीन-चार रुपये की आ जायेंगी ।और चाट का क्या ,एक ही एक पत्ता खा लेंगे ।मन ही मन मैं खुश थी -चलो पाँच दिन और पच्चीस रुपये !
बमुश्किल तमाम हम लोग घर से निकले ।बडी भीड थी ,मंत्री जी जो आ रहे थे ।उद्घटन भाषण में रक्खा ही क्या था।हमने घूमने का लग्गा लगाया ।
'भीड़ काफी है ,साथ-साथ चलो ,' इन्होंने कहा ,'नहीं तो एक दूसरे को ढूँढना मुश्किल हो जायगा ।'
''मुश्किल काहे की ?तुम्हें तो मैं मील भर दूर से पहचान लूँ ।और फिर घर भी तो बहुत दूर नहीं।ढूँढने से अच्छा जो अकेले रह जाय वो घर ही पहुँच जाय।'
घूमते-घूमते मैं ज़रा रंगीन बल्बोंवाला बिजली का चक्कर देखने रुक गई ,फिर जो सिर उठाकर देख तो ये नदारद !अरे अब क्या होगा !मैंने चारों ओर देखा ।वो रहे ,मैं तो बेकार परेशान हो गई ।देखा ?कह रहे थे स्वेटर पहनूँगा और चलतेचलते सूट डाँट आये !
'अरे रुकिये न,कहाँ भागे जा रहे हैं ,' मैंने आवाज़ लगाई ।
इन्होंने पलट कर देखा और चाल धीमी कर दी।मैं लपक कर पास पहुँच गई ।आगे चलते देखा ये फिर दूसरी तरफ चलने लगे हैं ।मैंने हाथ पकड कर खींचा ,'कहाँ जा रहे हो /चलो ,उस चावाले से चाट खायेंगे ।'
वे चुपचाप बढ़ आये ।मैंने ही चाटवाले से पत्ते बनाने को कहा ।वे बिजली के खंभे की आड में खडे चुपचाप खाते रहे ।मैं चाट खाती खाती चहलपहल देखती रही ।आज ये मुझसे इतना बच क्यों रहे हैं !कुछ फरमायश न कर दूँ इस डर से ?खैर एक-एक पत्ता चाट ही तय हुई थी ।
'अच्छा तुम इसका पेमेन्ट करो ,तब तक मैं उधर चूडियाँ देख लूँ ।'
मैने जल्दी से चाट खतम की और चूडीवाले की तरफ बढ़ी।चूड़ियाँ छाँट ही रही थी कि उनकी ओर ध्यान गया वे फिर दूसरी तरफ़ आगे लिकले जा रहे हैं ।आज इन्हे हो क्या गया है?मैं फुर्ती से बढ़ी और पीछे से जाकर कोट का कोना पकड़ लिया ।
ये आने लगे ।मेरी निगाहें अपनी छाँटी हुई चूडियों पर लगी हुईं थीं, कहीं चूडीवाला कुछ गडबड न कर दे ।'
'चूडियाँ छाँट कर रखी हैं ,देर नहीं लगेगी ।पैसे दे दो फिर आगे चलें ।'
उनेहोने चुपचाप सौ का नोट निकाला।
देखा, घर पर मुझसे कह रहे थे पच्चीस रुपये ही बचे हैं ।कैसा निकलवा लिया ! !छिपाये पडे थे।नाट देख कर तो मेरा हौसला दूना हो गया।मन ही मन कुढ रहे होंगे ,इसीलिये कुछ बोल नहीं रहे ।अभी तो अपने मन की कर लूँ,घर जाकर मना लूँगी ।
अरे,.ये क्या हुआ ?मेरी चप्पल ती तल्ली नीचे रह गई और पाँव ऊपर आ गया ।उफ़ , इसकी तो बद्दी टूट गई ।कब से जुडा-जुडा कर पहन रही हूँ ,आज बीच रास्ते में धोखा दे गई ।मैं वहीं रुक कर खडी हो गई-एक चप्पल पहन कर चलूँ दूसरी वहीं छोड दूँ ? टूटी चप्पल हाथ में उठा लूँ ?दोनो चप्पलें पकड़ कर नंगे पाँव चलूँ ?कुछ समझ में नहीं आ रहा था।चारो ओर लोग ही लोग और मैं टूटी चप्पल को घूरे जा रही थी ।
भीड़ आवाज देना बेकार समझ आगे बछते इनके कोट की बाँह पकड कर मैंने रोका ,'देखो न,मेरी तो चप्पल टूट गई ।अब क्या करूँ ?और तुम बढे जा रहे हो ।मेरे पास तो पैसे भी नहीं जो रिक्शा लेकर घर चली जाऊँ ।'
'खरीदनी हैं ?'इनने अजीबसी आवाज में कहा ।
'और कैसे चलूँगी फिर ?अच्छा तुम .ये ले जाओ और इसी नाप की ले आओ। ' मैंने अपनी टूटी चप्पल रूमाल में बाँध कर देते हुये कहा, 'तब तक मैं फव्वारे पास उस बेन्च पर बैठी हूँ।'
चलते-चलते मैंने आवाज दे कर कह दिया ,'जरा जल्दी आना ,मैं नंगे पाँव हूँ ।'
जूते चप्पल खरीदने के मामले में इनकी पसंद अच्छी है ।.खूब मन से खरिदवाते हैं ,दस पाँच रुपये का मुँह नहीं देखते;कहते हैं ,'ज्यादा चलेगी तो कीमत वसूल हो जायेगी ।'
खाली बैठे-बैठ मन नहीं लग रहा था ।चारों ओर फेरीवाले घूम रहे थे।मैंने चूहे-बिल्ली की दौडवाला खिलौना और तारों से बुना एक अगर बत्ती स्टैंड खरीद लिया।उससे कहा ,'पैक कर दो ,अभी बाबूजी आयेंगे तो पैसे मिल जायेंगे ।'
कण्डी ले आती तो अच्छा रहता।पैकेट मैने अपने पास रख लिये।उस ठेले पर कैसे बडे-बडे सेव बिक रहे हैं,सोचा ले लूँ अगर ठी भाव लगा दे ।फिर विचार बदल दिया -दागी टिका देते हैं ये लोग ! मुझे वैसे भी पहचान नहीं है ।
इतने में कपडों का ठेला निकला ,मुझे याद आ गया - भतीजे के मुंडन पर कुछ सामान तो देना ही पडेगा ,क्यों न मौके से कुछ न कुच करीदती चलूँ ।पन्द्रह रुपये में एक सूट तय किया।तभी इन्होने चप्पलों का पैकेट लाकर डाल दिया ।
'ले आये ?'मैने बडी खुशी से पैकेट खोला ।बहुत सुन्दर चप्पलें थीं ।मैंने पहन लीं और पुरानीवाली पैक कर दीं ।
'इन लोगों का पेमेन्ट और कर दो ,मैंने कुछ सामान खरीदा है-कुल बीस रुपये!'
बीस का नोट मेरे हाथ में आ गया ।
देखा, गुस्से के मारे मुँह से कुछ बेल नहीं रहे हैं ,सोच रहे होंगे ,कित्ता खर्च कर दिया ।अगरबत्ती रोज दरवाजे में खोंचते फिरते थे , ले लिया तो घर में एक चीज हो गई ।खुद भी तो सौ का नोट छिपाये पडे थे ।खैर, देखा जायेगा ।अभी रास्ते में न बोलें तो न सही ,बेकार चख-चख करने से क्या फायद !
तीनों पैकेट मैंने इनकी ओर बढा दिये ,इन्पोंने चुपचाप पकड लिये ।
'चलो अब रिक्श कर घर चलें ,' मैने कहा और रिक्शेवाले को इशारा किया ।
'पचहत्तर पैसे लगेंगे ।'
मैने स्वीकार के लिये सिर उठाकर इनकी ओर देखा ।अरे ये क्या !मेरी ते सिट्टी-पिट्टी गुम !ये तो कोई और आदमी है ।
'आप ?आप कित्ती देर से मेरे साथ हैं ?'
'आप ही ने तो बुलाया था।'
'तो आपने कहा क्यों नहीं /'
'आपने कुछ बोलने का मौका ही कहाँ दिया मुझे !ये कर दो ,वो कर दो कहती रहीं ।'
'तो आप चले क्यों नहीं गये ?'
'मैं खिसकने को होता था तो आप बाँह पकड कर खींच लेती थीं ...फिर लोग और तमाशा देखते ।'
'मै समझी ,मैं समझी....' आगे मैं कह नहीं पाई कि मैं उसे क्या समझी थी ।
'मुझे मालूम है।अच्छा अब मैं चलूँ?'
हाथ के पैकेट रिक्शे पर रख वह घूम कर चल दिया ।मैं भौंचक्की सी खडी थी ।उसे चलते देख मुँह से निकला ,'लेकिन यह सब !अरे सुनिये तो ..'
'क्या रिक्शे पैसे नहीं होंगे,' वह घूम कर बोला और एक रुपया रिक्शेवाले को पकडा कर तेजी से आगे बढ गया ।
'बैठिये न !', रिक्शवाला ताज्जुब से मुझे देख रहा था ।
क्या करूँ अब मैं ?सारे पैकेट फें दूँ ,लेकिन चप्पल कैसे ...।किसी तरह रिक्शे पर बैठ कर घर आई।रास्ते भर चिन्ता सताती रही ।ये क्या कहेंगे !पैसे तो मेरे पास थे नहीं ,इतनी चीजें कहाँ से खरीदीं ?हाय ,राम अब मैं क्या करूँ ?मैंने कुछ जानबूझ कर तो किया नहीं ।ये आदमी भी कितने अजीब होते हैं !पहले उससे कुछ नहीं बोला गया !
चाबी मेरे पास ही थी।रिक्शा रुका तो पडोस के घर से इनके बोलने की आवाज सुनाई दी ।रिक्श्वाले ने पच्चीस पैसे वापस किये तो मैंने उसे ही दे दिये । दूसरे के पैसे रखना मुझे ठीक नहीं लगा ।
जल्दी से घर खोलकर मैंने सारा सामान अल्मारी में छिपा दिया ।इनके सामने सारी बात कहने की हिम्मत तो मेरी है नहीं।
पता नहीं वह कौन आदमी था ,क्या सोचता होगा ?होगा ,मुझे उससे क्या मतलब !मैं तो अब उसके सामने भी नहीं पडना चाहती ।
सारा सामान अल्मारी में कपडों के पीछे छिपा रक्खा है,किसी को चाहिये तो मेरे घर आकर खुशी से ले जाय ।मैं भी निश्चिन्त हो जाऊँ।
लेकिन एक शर्त है- किसी को कुछ न बताये ; इन्हें तो बिलकुल नहीं।