बुधवार, 2 दिसंबर 2015

स्मॉग से ईंट !

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स्मॉग (धुँआसा शब्द  हो सकता है बिलकुल सही न हो) से  ईंट का निर्माण   -
आश्चर्य मत कीजिये .चीन के एक कलाकार ने वातावरण में छाये प्रदूषण को समेट कर उसे ठोस रूप में सामने ला दिया.हवा में समाये कटु-तिक्त कणों को समेट कर उनकी घनाकार ईंट बना कर प्रत्यक्ष कर दिया. कलाकार का नाम जिंगोऊ ज़ियाँग (मंडारिन भाषा में) पर वह अपने को Brother Nut कहलाना अधिक पसंद करता है.
 प्रारंभ में वह इससे बचने को सुरक्षा का आवरण ओढ़ता रहा फिर उसे लगा कि इस प्रकार के स्मॉग से छुटकारा संभव नहीं .उस ने विचार किया यद्यपि वह प्रदूषण के PM 2.5 (Particular Matter) के या उसके दुष्प्रभावों को विशेषज्ञ नहीं फिर भी कुछ तो करना चाहिये . और भाई नट ने रिचार्जेबिल बैटरीज़वाला बहुत शक्ततिशाली वैक्यूम क्लीनर खरीदा और उसे लेकर निकल पड़े.बीज़िंग के विशेष स्थानों पर सौ दिनों तक वेग से चला कर वातावरण का दूषण एकत्र करते रहे .जो भूरा जंक इकट्ठा हुआ उसमें  लाल मिट्टी मिला कर ईंट के ठोस रूप में तैय्यार कर लिया .
सड़कों पर क्लीनर लगा कर जब वे अपने कार्य में लगे थे तो कुछ लोग उन्हें हाइटेक क्लीनर समझकर कह उठे - वाह बीज़िंग में यह काम बढ़िया हो रहा है.
और कुछ ने तो उन्हें वैक्यूम क्लीनर विक्रेता समझ लिया था. पर   वे लगे रहे अपने काम में और उड़नशील कणों की  ठोस रूप देकर ही दम लिया .
धुन के पक्के निकले  Brother Nut ! 
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रविवार, 11 अक्तूबर 2015

बहुत-से स्वाद खो गये हैं -

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सहज-सरस , तोष और पोष देनेवाले बहुत से स्वाद खो गये है. नये निराले अटपटे-लटपटे स्वादों ने जगह ले ली उनकी.न परिचित रूप, न स्वाभाविक रंग .उनकी जगह लेने जाने कितने बनावटी रसायनी घाल-मेल मुख्यधारा में आते जा रहे हैं.अजीनोमोटो जैसा जीव भी  रसोई में प्रवेश पा गया .गहरी मंदी आँच पर सीझने का सोंधापन ,स्वाद का वह रचाव खो गया ,अब तो 'बस दो मिनट या चटपट काम होने लगा है - किसी तरह जल्दी निपटे ,जान छूटे !
भोजन का तो रूप ही बदल गया .समोसे समोसे न रहे -किसी में पनीर भरा ,कहीं मैगी से लेकर करमकल्ला तक. बीकानेरी भुजिया कितने रूप बदल गई -आलू भुजिया ,लहसुन वाली ,खारी और जाने कैसे-कैसे विचित्र स्वादों वाली- नाम लेते ही सामने एक पूरी एक शृंखला आ जायेगी .असलियत यह कि ज़माना है पैकिंग का ,और विज्ञापन का
कमाल . क्या चाहिये यह जानने को  भी गहरे उतरना पड़ेगा - किसमें क्या खासूसियत है .खोजते रहो,  टेस्ट करते रहो.पता नहीं क्या-क्या मिल जाये ,सिर्फ़ जो चाहिये उसके सिवा .
जाना-बूझा ताज़ा सामान मिला करता था , देख कर रुचि जागती थी -अब प्रयत्न करके जगानी पड़ती है .पचास तरह की चीज़ें, पचासों वेराइटीज़ में .चुनना भी मुश्किल ! खाने को क्या मिल रहा है इसका कोई पता-ठिकाना नहीं.जिह्वा कुछ खोजती रह जाती है .तुष्टि के स्थान पर कुछ और की चाह उमड़ आती है.बनाने-खाने-खिलाने की सरल परंपरा ,वह आश्वस्त करता का अंदाज़ कहीं बिला गया ,अब तो तमाम उपचार ,व्यवहार साथ चले आते हैं .तन-मन को सरसाता वह सोंधापन ग़ायब हो गया है . खटरागों  से भरा नया आचार असहज लगने लगता है कभी-कभी. घर भी जैसे बाहर होता जा रहा है . स्वाभाविकता सिमट गई है ,नये अंदाज़ों के नये मसाले,
स्वादों को भटकाये ले जा रहे है .कुछ चाहो मिलता है कुछ और.
नई पीढ़ी को शायद भान ही नहीं कि उसने क्या कुछ गुमा दिया और क्या-क्या गुमाती  जा रही है. कितने असली स्वाद ग़ायब हो गये हैं. बनावटी महकें और बाज़ारू स्वाद मुँह लगते जा रहे हैं.घाल-मेल मुख्य धारा में समाता जा रहा है ,कुछ खास पाने की चाह बढ़ती जा रही है. कितनी कीमत चुका कर इस मिलावट और बनावट को खरीदा गया है जिसमें ऊपरी बातों का रोल  भोजन से  अधिक हो जाता है .खा कर तोष और पोष मिले या न मिले अपने विज्ञापन से  मन और नेत्रों को आकर्षित कर लेने की कला में उसकी विशिष्टता है . इसी दौड़ में भाग रहे हैं लोग .पीढ़ियों का अनुभव लुप्त हो जाये. नया   अपना रास्ता चलता जायेगा .
जो अपना है उसे तो सैंत कर  रख लें.नए को स्वीकारने का यह मतलब तो नहीं कि पुराना  अपदस्थ हो जाये!
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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

सागर - संगम -11.

* 11.
(दृष्य - वही .सूत्रधार नटी और लोकमन .)
सूत्र -आपने ऐसी धारा बहाई कवि ,कि हम तो उसी में बहते चले गये ,भूल गये कि हम उस समय से कितना आगे बढ आये हैं .
नटी - कितनी -कितनी भिन्नतायें ,लेकिन कैसा सामंजस्य !पर मित्र ,इसके बाद यह कहानी क्या रुक गई ?
लोकमन - कहानी कभी नहीं रुकी ,रुकेगी भी नहीं .राजनीति और धर्म के अंधे ठेकेदार फूट के बीज बोते रहे लेकिन जन के स्तर पर समन्वय की प्रक्रिया निरंतर चलती रही .कश्मीर से केरल तक और बंगाल से गुजरात तक ये उदात्त संवेदनापूर्ण स्वर हमें वहाँ के कवियों की वाणी में सुनाई देते हैं .उनके उदार दृष्टिकोण संकीर्णता से ऊपर उठ गये हैं ,भाषा की दीवारें गिर गई हैं ,संप्रदाय के बंधन टूट गये हैंं और वे मानवता के स्तर पर मुखर हो उठे हैं . .
नटी - विस्तार से बताइये कवि ,संकेतों की भाषा में नहीं .
लोकमन -भारत  में हर युग में ऐसे साधक हुये हैं .उनके उदार दृष्टिकोण धार्मिक और भाषागत संकीर्णताओं से ऊपर रहे . सुनो ,गुजरात के जन कवि अखा की वाणी [1630-1715]--
'बहु विद्या बहु दिन पढे,खाली किनहा शीश ,
अखा वाद करतो गयो ,चिन्हे नहीं जगदीश !
जप तप संयम साधना ,सब देह का व्यापार ,
अखा आतम तो एक है,तहाँ दिवस नहीं तिथि वार !
और दादू दयाल का नाम सुना है आपने ?'
 नटी - हाँ , उन्हीं ने तो कहा था  ने कहा था- भाई रे! ऐसा पंथ हमारा
द्वै पख रहित पंथ गह पुरा अबरन एक अघारा
बाद बिबाद काहू सौं नाहीं मैं हूँ जग से न्यारा  !
वाद-विवाद काहू सों नाहीं याहि जगत से न्यारा !
सम दृष्टि ,सुभाइ सहज में आपहि आप विचारा !
मैं तैं मेरे यह मति नाहीं ,निरबैरी ,निर्विकारा !
मन ही मन तू समझ समाना आनँद अपारा 1
सूत्र - हाँ सुना था कहीं हमने भी कि जैन कवि आनन्द घट ने सभी धर्मों के आराध्यों को पर्यायवाची माना और कहा नाम अलग अलग हैं सत्ता एक है -राम कहो ,रहमान कहो ,कोउ कान्ह कहो महादेव री ,

सूत्र - वे  गुजरात के संत प्राणनाथ भी तो  ,जिन्होने प्रणामी समप्रदाय चलाया ,बुन्देलखण्ड में भूदेव नाम से जाने जाते हैं .उन्होंने सारे तीर्थों के साथ मक्का मदीना की यात्रा कीथी ,और सब धर्मों के ग्रंथों का गहन अध्ययन कर उनके तत्वों को ग्रहण कर प्रणामी संप्रदाय की स्थापना की.
सूत्र - उन का प्रभाव ,हमारे महात्मा गांधी पर भी पड़ा था.

लोकमन -
धारा बहती जाये ..
गुर्जर की धरती ने ऐसे विरल पूत उपजाये !

भेद-भाव से रहित वहाँ संतों के मधु स्वर गूँजे ,
जाति धर्म भाषा के सारे ही आडंबर डूबे ,
शुद्ध भावना के स्वर ,मानवता के प्रेम भरे स्वर ,
हिन्दू ,मुस्लिम .जैन ,पारसी जन के अंतस् के स्वर
अखा ,दीन दरवेश ,हरी सिंह ,नरसी काजी अनवर ,
वसुधा ही कुटुंब  चेतना मानव की अविनश्वर !
नटी - तो क्या अन्य प्रदेशों की  लोक-चेतना में यह गूँजें नहीं उठी ?
 लोक - इस भारत के हर प्रान्त में ऐसे ही मानवतावादी संदेश वाणी में गुंजार उठे .
 बुन्देलखण्ड में जो भूदेव नाम से अमर होगये उनकी आवाज सुनो --
कृष्ण, मुहम्मद ,देवचंद ,प्राणनाथ ,छत्रसाल ,
इन पंचन को जो भजे ,दुःख हरे तत्काल !
इन प्राणनाथ ने विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में कहा था -बोली जुदी सबन की ,और सबका जुदा चलन
सब उरझे नाम जुदे धर ,पर मेरे तो कहना सबन ,
बिना हिसाबे बोलियाँ गिने सकल जहान ,
सबको सुगम जान के कहूँगा हिन्दुस्तान !

सूत्र  -  जानता हूँ ,कोई दीन दरवेश उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक जीवित थे ,ये ईस्ट इंडिया कमपनी में मिस्त्री थे और हाथ कट जाने के बाद फकीर हो गये थे .[मुसलमान दरवेश का छायाचित्र
हिन्दू कहे सो हम बडे ,मुसलमान कहे हम्म ,
एक मूँग दो फाड हैं ,कौन जाद कौन कम्म !
 लोक -और सुनो ,जाति के कोली अर्जुन की भाषा गुजराती ,उर्दू और पंजाबी की खिचडी थी .उनने खुद कहा --सुनो मेरा साथी ,गाया गुजराती ,
मेरी जबान जरा उर्दू में आती ,
साहब तो सबै बूझे बोलत बिलाती ,
नीच पास नाणु होय शिर छाय थाती !
संस्कृत का पूत जो कपूत नीच नाती !
लोक -एक साध्वी थीं माता ओंकारेश्वरी उन्होंने समाज के निम्न वर्ग को ईश्वर के सबसे अधिक समीप पाया था -
नंगा आवे ,नंगा जावे ,नंगा जन नारायण पावै !

सबका साहब एक ,एक ही मुसलिम हिन्दू !
सूत्र -इन कवियों पर किसा विशेष प्रान्त की छाप नहीं है ,शब्द -शब्द पर भारतीयता की मुहर है .

 लोक -भाषा की दृष्टि से भी इन उदारमना संतों को कभी प्रान्तों की बाधा नहीं आई,उन्होंने वही भाषा अपनाई जो भारत के सामान्य जन की भाषा थी ,क्योंकि उन्हें सबसे जुड़ना था सबके साथ चलना था .
सूत्र - अच्छा इन कवियों पर किसी संप्रदाय -धर्म के प्रभाव नहीं रहे थे?
लोकमन - साथ रहने से प्रभाव तो अनायास आ जाता है -परस्पर प्रभावों  के कारण  भिन्न मतों को लोग एक मंच पर बोलते हैं, वाणी में उदारता और सामंंजस्य का क्रम आगे बढ़ता  हैं .

गुजरात के नभुलाल[1853 -1928]और कोली जाति के अर्जुन [1900-1976]पर सूफियों का स्पष्ट प्रभाव है -साधना मार्ग के चार पड़ावों का स्पष्ट उल्लेक है --पिछाना शीर दहीं मस्का ,लगा रोगान प्यारा है ,
सरीकत और तरीकत से हकीकत कू विचारा है ,
मारिफत में मिला अखा सबै दुख का पसारा है ,
नहीं सैतान ,नहिं बंदा सभी का सिरजनपारा है
पवन आतस जमीं आबे सबै साहब हमारा है !
नभू मुकररबडा रकीन ए मुरसद का इसारा है !
1955से 2024में रंग अवधूत पर बौद्ध धर्म का प्रभाव था  और अनेक भाषाओं में समान रूप से पारंगत थे -हिन्दी ,,गुजराती ,मराठी ,संस्कृत अंग्रेजी में इनका काव्य मिलता है .इनका कहना है -हिन्दू ,मुस्लिम ,पारसी ख्रिस्ती कहो तो हम ही हैं ,
ना नात है ना जात है ना बात है वहाँ हम ही हैं ,
सातवें आसमान पर है तख्त निरगुन हमपिंका ,बिन तार तंबूर ओम बजा के हम हमहीं में मस्त हैं !
लोकमन -इस धरती पर जो आया यहीं के रँग में रँग गया .कितने धर्म ,कितने मत-मतान्तर एक दूसरे में घुलमिल गये गंगा की धारा के समान भारत की संस्कृति अनगिनती जलधाराओं को आत्मसात् कर और प्रखर ,प्रबल गहन और व्यापक बनती रही  .
नटी -उर्दू के शायरों ने इस भाव का बड़ा प्यारा चित्र खींचा है 
लोक मन - ठीक कह रही हो .यही धारा बही है जाँनिसार अख्तर की इस शायरी में  -
'पिला साकिया बाद ए खाना साज ,
कि हिन्दोस्ताँ पर रहे हमको नाज!
मुहब्बत है खाके वतन से हमें ,मुहब्बत है अपने चमन से हमें ,
हमें अपनी सुबहों से शामों से प्यार ,हमें अपने शहरों से नामों से प्यार !
उठाये जो कोई नजर क्या मजाल ,तिरे रिंद लें बढ के आँखें निकाल !
निगाहें हिमाला की ऊँची रहें ,सदा चाँदतारों को छूती रहें ,
रहे पाक गंगोतरी की फबन ,मचलती रहे जुल्फ गंगो-जमन !
झलकती रहे यह अशोका की लाट ,ये गोकुल की गलियाँ ये काशी के घाट !
लुटाती रहे अने नयनों का मद ,ये सुबहे बनारस ,ये शामे अवध !
रहे आसमाँ पर दमकता हिलाल ,रहे ईद का मुस्कराता जमाल !'

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(क्रमशः)

बुधवार, 16 सितंबर 2015

हरमीत बिल्ला

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कई वर्ष मुज़फ़्फ़रनगर में रही थी.
जब वहाँ  से चलना पड़ा तो चिट्ठी-पत्री के लिये अपनी मित्र से उनके घर का डाक का पता पूछा . घर तो कई बार गई थी , बाहर के पत्थर पर निवास के नाम का अंकन भी देखा था -पर कभी गौर नहीं किया ,ज़रूरत नहीं समझी कि देख कर ठीक से पढ़ लूँ. सोचा भी नहीं था कि कभी इस पर भी कोई कौतुक खड़ा हो जाएगा .
अपना नाम और मोहल्ला बता कर निवास का नाम 'हरमीत बिल्ला' लिखाया उन्होंने .एक से एक अजीब नाम  सुने हैं ,लड़कियों का नाम बिल्लो भी सुना है .अपने को क्या अंतर पड़ता है ,सोचा मैंने .किसी के नाम पर होगा , हरमीत नाम और बिल्ला सरनेम-निकनेम .जो भी हो .
फिर एक बार मेरी  मित्र के पत्र में उनका पता अंग्रेज़ी में लिखा आया , निवास का नाम लिखा था - 'Hermit Villa', .मेरे तो ज्ञान-चक्षु खुल गये .अंग्रेज़ी के हिन्दीकरण का ऐसा प्रभावी रूप आज तक नहीं देखा था. यों भी देखा जाय तो अंग्रेज़ी में जो अक्षर लिखे गए उनका मुखर होना ज़रूरी नहीं ,लिखते कुछ हैं ,बोलते कुछ .और हिन्दी -  लोक-भाषा में अक्सर ही व का ब (कहीं-कहीं भ भी -यूनिवर्सिटी को
यूनिभर्सिटी ,सुना होगा आपने भी )हो जाता है .  यह तो स्थानीय जनता के द्वारा सहज-सरल रूपान्तरण है ,वह भी कितना सार्थक !अनायास चल पड़ा और बिना किसी विवाद के  शिरोधार्य कर लिया  सब ने .यह है असली जनता-जनार्दन की आवाज़ ! पोस्ट आफ़िस वालों ने भी माना ,तभी तो डाक सही जगह पहुँचती है .
कभी आप मुज़फ़्फ़र नगर जायँ, तो आर्यकन्यापाठशाला इन्टर कॉलेज से थोड़ी दूर एक भवन मिल जायेगा जिसके द्वार के निकट एक प्रस्तर-शिला पर अंग्रेज़ी में  अच्छे खासे अक्षरों में अंकित है - Hermit Villa ,अंग्रेज़ों के ज़माने का मज़बूत निर्माण है .अभी भी शायद वैसा ही खड़ा हो. वहाँ की बोली में किसी भाषा के शब्दों को अपने ढर्रे में ढाल लेने की अद्भुत क्षमता पाई है मैंने .बहुत से उदाहरण हैं जिनमें से एक यह - हरमीत बिल्ला !
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बुधवार, 9 सितंबर 2015

छुट्टी -

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छुट्टी ! मतलब नियमों- अनुशासनों से खुली  छूट , लादी गयी व्यवस्था  से मुक्ति , मनमाने मौज से रहने का दिन .सारी चर्या पर ख़ुद का नियंत्रण - नहाने ,खाने, बैठने-उठने सब में !
बल्कि छुट्टी का खुमार एक दिन पहले की शाम से चढ़ने लगता है . लगता है कल कौन ड्यूटी बजानी है और आराम-आराम से चलने लगते हैं शेष बचे रहे दिन के धंधे .  खाने  कोई जल्दी नहीं न सोने की  .फिर इधर उधर कुछ-न-कुछ करते काफ़ी रात हो जाती है .

असली छुट्टी का दिन शुरू होता है चौथाई दिन चढ़े जागने के बाद से. सोओ देर में, तो समय से कैसे उठ सकते हैं ? नींद खुल भी जाय तो बिस्तर पर पड़े रहने का अपना ही आनन्द है .और उठने की जल्दी भी क्या ? उठे तो पहले टीवी पर हाथ गया , एक छुट्टी का ही तो दिन मिलता है कुछ मन का करन को . पर इत्मीनान से देखने की फ़ुर्सत किये है ?दैनिक क्रियाओं के बिना चलता नहीं न ! कोई प्रोग्राम लगा कर छोड़ दिया , अपनी तान उठाता रहता है टीवी.जिसे मौका मिला कोई बटन उमेठ कर अपने हिसाब से एडजस्ट कर , वाल्यूम बढ़ा देता है .बीच बीच में आपसी मुँहाचाही तो चलनी ही है -कुछ कहने-सुनने को एक ही तो दिन मिलता है  .इन्हीं सब झंझटों में नाश्ते में देरी होते जाना स्वाभाविक है . भोजन के समय से ज़रा सा पहले हो जाय तो भी गनीमत है .
 अब तक पड़े बहुत से ऊल-जलूल काम निबटाना भी जरूरी - इधर का सामान उधर करना, किताबें अगर घर में हों तो उलटना-पलटना , कागज़-पत्तर समेटना ,कपड़ों के पचड़े सँभालना . कैलेंडर का पन्ना बदलना भी बीच में कहाँ हो पाया था . आज सारे बचे-खुचे काम दिखाई दे रहे हैं हैं .
रात देर में सोये  ,ऊपर से खाना देर में खाओ तो शरीर अलसायेगा ही . ज़रा लेटने का मन हो आता है - वैसे
मौका कहाँ  मिलता है इत्मीनान से बैठने का भी. मन करता है आज  ड्यटी से छूट मिली है ,ज़रा पाँव पसार कर लंबे हो लें .फिर कहीं कोई आ गया तो  उसके साथ बैठक ही सही. कहीं बाहर भी निकल सकते हैं  ,बाज़ार या कोई और कारण .लौटत-लौटते समझ में आने लगता है ' कल फिर वही ढर्रा !,सुबह जल्दी उठना है ड्यूटी पर हाज़िरी देनी है .'
वाह  ,सोचा था क्या-क्या कर डालेंगे. कुछ नहीं हो पाया - बेकार निकल गया दिन - बीत गई छुट्टी  !

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सोमवार, 18 मई 2015

उलनबटोर / झुमरीतलैया .

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जब पहली बार उलनबटोर का नाम सुना तो मन वैसे ही कौतुक से भर उठा था जैसे झुमरीतलैया का नाम सुन कर .आठ-दस साल बीत गए उस बात को , मन में बार-बार दोनों नामों की गूँज उठती रही .फिर एक बार और उलनबटोर के बारे में एक खास बात पढ़ी - वहाँ के लोग अपनी महिलाओँ को ,गर्दन में मोच के दर्द से छुटकारा दिलाने का, बड़ा नायाब तरीका अपनाते हैं - करना बस ये है कि दर्दवाली महिला घुटनों के बल बैठ कर किसी खूबसूरत पुरुष के घुटनों पर अपना सिर रख दे. कुछ ही देर में दर्द कम होते-होते ग़ायब!
हर्रा लगे न फिटकरी और रंग आए चोखा!' की तर्ज़ पर , सारी परेशानी उड़न-छू और महिलाएँ प्रसन्न-चित्त ! 
कमाल का उपाय है .मुझे लगा ,मानव-प्रकृति हर जगह एक सी - जो एक के लिये गुणकारी,  सब के लिये मुफ़ीद होना चाहिये .और दर्द से छुटकारा दिलाना यों भी बड़े पुण्य का काम है. सो मैंने 4-5 वर्ष पहले एक पोस्ट लिखी थी  'दर्द की दवा' - महिलाओं से खासतौर पर निवेदन किया था , कि जिनकी गर्दन में वास्तव में दर्द है, इस इलाज से फ़ायदा उठायें. देखा जाय तो  कुछ बीमारियाँ मानसिक होती हैं शारीरिक लक्षण बाद में दिखाई देते हैं.मैं चाहती थी प्रयोगकर्त्री अपनी शारीरिक-मानसिक स्थिति और भावनात्मक अनुभव हमें खुल कर लिख भेजें. उनके अनुभवों से बहुतों का मार्ग-दर्शन होता , एक नई पद्धति में प्रशंसनीय योगदान होता.पर मेरी बात को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया.'बरेली के झुमके' की तरह सब ने सुना, पर  चिन्ता किसी को नहीं ,वाटरप्रूफ़ हुए चलते बने .वास्तविकता  पता लगाने तक का नहीं सोचा किसी ने.
अब मंच पर मोदी जी का आगमन हुआ है ,लोक-कल्याण कामना को वांछित महत्व मिला है. उन्होंने स्वयं  जाकर प्रत्यक्ष कर दिया कि उलनबटोर इस धरती पर विद्यमान है, मंगोलिया की राजधानी है, उसकी अपनी खासूसियतें हैं .जाने क्यों मंगोलिया का नाम लेते ही मुझे मंगल ग्रह का ध्यान आने लगता है - बड़ा पराक्रमी ग्रह है ,बड़ा साहसी और सुविदित योद्धा - सब जानते-मानते हैं .पर बात हो रही है राजधानी उलनबटोर की .प्राचीनकाल से वहाँ की बात निराली रही और अब  अपने प्रधान मंत्री, मोदी जी के जाने से हमें वहाँ का और-और हाल मिल रहा हैं.उलनबटोर से सटे सोंगिनो खैरखान जिले में दो सौ साल पुराने एक बौद्ध भिक्षु का ममीकृत शरीर मिला है .जिसके लिए एक वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु ने दावा किया कि यह मृत नहीं बल्कि पद्मासन (ध्यान लगाने का आसन) की मुद्रा में हैं और गहन चिंतन में हैं.सब पहेली जैसा लग रहा है मुझे तो .अब तक कौन जानता था उलनबटोर की पुरातन कथा .मोदी जी ने जाकर नाम उजागर कर दिया.
बची अपनी झुमरीतलैया .बहुत बातें इस नाम के साथ जोड़ रखी हैं लोगों ने.उलनबटोर की ही तरह कभी-कभी मुझे लगने लगता था कि इस नाम का कोई स्थान है भी या बस ,विनोदी लोक-मानस की संकल्पना भर! एक की असलियत सामने आ गई . अब इसकी भी आशा बँधी है .मैं तो मना रही हूँ ,मोदी जी वहाँ का भी चक्कर लगा डालें कभी. उन के चरण पड़ें, इसके भी दिन बहुरें ,दुनिया के नक़शे पर पहचान बने .झुमरी तलैया का भी उद्धार हो जाए!

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सोमवार, 11 मई 2015

सागर - संगम -10 .

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नटी - युग की विषम स्थितियों को सम करने के लिये महापुरुषों का आविर्भाव होता है ।भक्ति जिस लहर ने सारे भारत की धरती को को सींच दिया ,आपके विचार में उसका श्रेय किसे जाता है  ?
सूत्र - गुरु रामानन्द को !समाज में दलितों और वंचितों के उन्नयन का पथ उन्हीं ने प्रशस्त किया ।क्यों मित्र ,लोक मन ,तुम्हारा क्या विचार है ?
लोक - भक्ति द्राविड ऊपजी ,लाये रामानन्द ,
 परकट किया कबीर ने सप्त द्वीप नव- खण्ड !

प्रत्यक्ष देख लो  .. जन के स्तर पर, विशेष रूप से समाज के वंचित वर्ग  के उन्नयन की संभावनाएँ   निर्गुण भक्ति के प्रसार  ने ही खोलीं .

(दृष्य - रामानन्द कबीर और रैदास का आगमन )
रैदास - गुरु महाराज एक जिज्ञासा है आज्ञा हो तो निवेदन करूँ?
रामा - कहो संत कहो .मन में शंका न रहने दो .
रैदास -महाराज आपके अनगिन शिष्य हैें .पर सब अपने-अपने ढंग से चलते हैं.ये कबीर और हम निर्गुण को ध्याते हैं ,पीपाजी सगुण को मानते हैं .क्या इससे कोई भेद नहीं उपजता ?

रामा - तुम समझे नहीं संत,मन को उस परम शक्ति के प्रति एकाग्र करने के लिये कोई साधन चाहिये.सारी इन्द्रियाँ जिसमें तन्मय हो जायें वह सगुण रूप मन एकाग्र करता है और बाह्य जगत से निरपेक्ष हो कर हृदय जिसमें लीन हो जाये वह निर्गुण भी उसी का भावन है.ये भेद ऊपर से प्रतीत होते हैं,उद्देश्य एक ही है और वह है भौतिक आकर्षणों से विरक्त कर मनुष्य में सतोगुण की प्रतिष्ठा करना.
कबीर - और महाराज गृहस्थ और बैरागी में कौन श्रेष्ठ है?रामा -सबसे श्रेष्ठ है गृहस्थाश्रम जो शेष सभी का भार वहन करता है.संसार के कर्तव्यों से उपराम होने पर वैराग्य भी उचित है -दोनों में परस्पर विरोध है ही कहाँ?
(एक अत्यंत विपन्न दुखी स्त्री का प्रवेश)
स्त्री -क्या गुरु जी यही हैं ?
रैदास - कौन से गुरु जी ?
स्त्री -नाम हमें मालूम नाहीं...पर नाम से क्या अंतर पड़ता है ?
कबीर -गुरु तो बहुतेरे घूमते पिरते हैं .किस गुरु को पूछ रही हो ?
स्त्री- किस गुरु को ? तुम भी तो गुरु हो .
ऐसा ही एक मेरे आदमी को ले गया .पर उसमें तुमसे थोड़ा फरक है.
उसकी लाल लाल आँखें ,कानों को फाड़तेपहने हुये कुंडल रुद्राक्ष की माला ,मांस -मछली -सराब छक कर लेनेवाले गँजेड़ी ...तुम्हें उनका पता तो होगा ..!
रैदास - ऐसे पाखण्डी ,बहुत घूमते हैं .
स्त्री - उधऱ बच्चे रटते हैं बप्पा कब आय़ेंगे. लोगन ने जीना मुस्किल कर दिया है मैं अब का करूँ ?न रहन का ठौर . न खाने -कपड़े का ठिकाना कोई पास फटकने भी नहीं देता ,दुई-दुई जवान होती लड़कियन का छोड़ के मर भी नहीं सकती .
रामा - तुम्हारा आदमी तुम्हें छोड़ कर क्यों चला गया ?
स्त्री -महाराज मरद के लिये सारे रास्ते खुले हैं औरत के लिये सब जगह ताले .आदमी बैरागी बन कर संसार से मुक्त हो सकता है ,औरत को मौत के सिवा कहीं छुटकारा  नहीं .
रामा - स्त्री संसृति धारा चलाती है वह प्रवृत्ति की ओर लाती है ,निवृत्ति उसका धर्म नहीं .
स्त्री -जिस संसार से मरद छुटकारा पाना चाहता है उसे चलाये भी रखना चाहता है ,और वो भी औरत के ऊपर जिम्मेदारी डाल के.उसकी क्या  कोई जुम्मेदारी  नहीं .चाहे जब पल्ला झाड़ के चल दे ..?
कबीर - स्त्री माया है .वह पुरुष को पतित करती हैउसे संसार के बंधनों में जकड़ती है .
स्त्री - तो महाराज छुटकारा सिरफ़ मरद के लिए है औरत हमेसा उस जंजाल में फँसी रहने को है ?
कबीर -नारी का ही फैलाया सारा जंजाल है .वह नरक का द्वार है.

स्त्री - तब तो महाराज नरक के द्वार को पैदा होते ही खतम कर देते .या ऐसा करते कि लड़का पैदा हो कर माँ को मार डालता क्यों कि पहला संपर्क उसी औरत से हुआ फिर को नरक का दुआर सदा को बंद हो जाता ,
(कुछ रुक कर )पर मुझे तो जिसने बंधनों में जकड़ा वह मरद था.नहीं तो मैं स्वतंत्र होती.
(कुछ देर चुप्पी)

स्त्री - कैसी अजीब बात !अपने ऊपर संयम नहीं और दोष-पाप की भागी सिरफ़ औरत !
रामा- का भया सो स्पष्ट कहो ?
स्त्री -नौ बरिस की उमर में बाप ने ब्याह दीना .तब तो मुझे कुछ अकल न थी.उस नादान उमर से ही तन पर अत्याचार शुरू हो गये.मैं तो उसके नाम से काँप-काँप जाती थी,पर खैर जाने दो ..,फिर हर साल बच्चे जनने मेरा काम, तीन बचे और सब मर गये.सारा दिन घर की चक्की में पिसने को मैं वो तो खाने और सेवा करवाने का अधिकारी.
 बच्चे पैदा करने का हकदार.पर दोष तो सिरफ मेरा .
रामा - क्यों ?वह कुछ करता नहीं था?
स्त्री - करता ?बाबाओं की संगत सुल्फ़ा-गाँजा का सेवन और मेरी पिटाई .
(तीनो लोग कानों पर हाथ रख लेते हैं)-हरे हरे .
रामा - राम राम .अब वह कहाँ है ?उसे मेरे पास लाओ .
स्त्री -वह तो काम फुँकवा कर बाबा बन कर निकल गया.सारा जंजाल मेरे सिर डाल गया.
रमा -बहन ,दोषी वह है तुम नहीं .
स्त्री -जब घर-गिरस्थी करने का बूता नहीं रहता तब आदमी ऐसे ही साधू बन कर औरत पर सब छोड़ कर चल देता है.
अब तो बच्चों को भी लोग जीने नहीं देते ,लड़कियों की और मुस्किल कहाँ ले जाऊँ .का करूँ ? ...ये नियाव होता है औरत के साथ?
रामा -(आवेश में आ जाते हैं ) नहीं यह अन्याय है .उसने गृहस्थ धर्म का भार लिया था वह निभाना था.
स्त्री - पर महाराज पाप की भागी तो सिरफ़ औरत होती है न!वह तो जानवर होती है,उसके मन-आत्मा कहाँ ..?अभी ये महाराज-(कबीर की तरफ़ इशारा)भी तो कुछ जदली-कटी कह रहे थे.
कबीर -माफ़ करो बहना मुझे यह  पता नहीं था...
.स्त्री - मुझसे अब सहन नहीं होता महाराज,इच्छा होती है तीनन को जहर खिला कर खुद अपनी भी भी जान दे दूँ .
रामा - भगवान की शरण में आओ बहन ,वही कल्याण करेंगे.
स्त्री -औरत के लिए भगवान के पास भी जगह कहाँ है?

रामा -(कुछ  सोच कर )भक्ति का अधिकार सबको है. स्त्री दलित है, विवश है , दीन है .उसे तो और भी अधिक.
रैदास -धन्य हो महाराज ! शूद्र को भक्ति का वरदान दिया ही था अब स्त्री का भी कल्याण हो !

रामा -संत रैदास, आप इस बहन को पीपा जी के पास ले जायें वे इनकी व्यवस्था करेंगे.
(रैदास और स्त्री जाते हैं )
8कबीर- महाराज स्त्रियों को भक्ति के मार्ग में स्वीकार कर लिया पर उसका परिणाम?

रामा- पुरुष स्वयं विचलित होता है और स्त्री पर प्रतिबंध लगा देता है.एक को वंचित कर दूसरा अपनी सुविधा चाहे यह कहाँ का न्याय है ?वह तो जननी है पालनकर्त्री है .स्वभाव से वह विकारों की ओर नहीं जाती उसे ले जाता है पुरुष अपनी कामना के लिए ,अपना अधिकार मान कर ..हमारे दक्षिणात्य समाज में नारी की बड़ी प्रतिष्ठा है.
रैदास - आपने शूद्रों को,जो पशुओँ से भी बदतर जीवन व्यतीत कर रहे थे,भक्ति का संदेश दे कर सही अर्थों में मानवता की प्रतिष्ठा की.और आज चिरकाल से वंचित और पीड़ित स्त्रियों को भी मानवी का दर्जा दिया,इससे सबका कल्याण होगा.
रामा - संत रैदास, मैं कुछ नहीं ,केवल एक माध्यम हूँ .जो लोग भगवान के समकक्ष बनते हैं ,अपने सारे कर्तव्य औरों पर डाल कर सुविधायें भोगते हैं वे समाज के दूषण हैं. उन्हीं ने व्यवस्था दी कि शूद्रों को केवल सेवा करनी चाहिये .स्त्री के लिये उन्नयन के सारे मार्ग रूँध दिये .हमारे यहाँ नारी को देवी स्वरूप माना गया है.-स्त्रियःसमस्ताःतव देवि रूपा .
तात्तविक रूप से स्त्री-पुरुष मानव योनि में समान भागी हैं ,जातिृगत भेद भी ऊपरी आरोपण हैं .अंततःसब मनुष्य हैं.
पीपा - धन्य हो महाराज !
कबीर - मैं बहुत घूमा हूँ महाराज पर दक्षिण नहीं जा पाया.आज आपने मुझे नई दृष्टि दी आप धन्य हैं.
रामा - संत कबीर कुछ सुनाओ .
कबरी
 -साधो एक रूप सब माँहीं ,
अपने माँहिं विचार के देखोऔर दूसरो नाहीं !
एकै त्वचा,रुधिर पुनि एकैविप्र सूद्र के माँहीं ,
कहीं नारि,कहिं नर हुइडोले गैब पुरिस वह नाहीं !
*
(क्रमशः)

शनिवार, 2 मई 2015

सागर-संगम -9 .



*

पूर्व-वक्तव्य - 
 संस्कृतियों का विकास, लोक-मन की अनवरत यात्रा है . लोक-मानस जब तक विवेकशील और सहिष्णु होकर समय की गति के साथ चलता है तब तक संस्कृतियों का विकास होता है अन्यथा विनाश हो जाता है .भारत एक सागर है जिसमें प्रागैतिहासिक युगों से लेकर ,आज तक अनेकानेक संस्कृतियों और धर्मों का संगमन होता आया है .विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियाँ जहाँ काल के प्रवाह में विलीन हो गईं वहीं भारतीय संस्कृति चिर -प्राचीना हो कर भी चिर-नवीना बनी रही - कारण कि सागर के समान अनेकानेक सरिताओं को आत्मसात् कर यह अपनी जीवनी-शक्ति को परिवर्धित करती रही ,साथ ही इसने विभिन्न  धाराओं को धारण कर अपनी विविधता और समग्रता को बनाये रखा .
 धर्मों और भाषाओं का उद्भव मानव समाज के सामंजस्य और कल्याण के लिये होता है ,वैमनस्य के लिये नहीं .आज जब धर्म और भाषा के नाम लेकर कुछ विकृत मन बर्बर्ताओं के नंगनाच में लगे हैं,हम पलट कर देखें कि जीवन-यात्रा के किन पड़ावों से गुज़र कर हम यहाँ तक पहुँच पाये हैं.इक्कीसवीं सदी के बदलते  परिवेश में , विश्व  के मंगल और स्वस्ति  लिये हम ऐसा  संतुलित और स्वस्थ वातावरण निर्मित करें ,जिससे कि आगत  पीढि़याँ समुचित दाय प्राप्त कर  जीवन की महाधारा में  अपना  स्थान निर्धारित कर  सकें .
 अविरल काल-धारा से,लोक-मन ,लोक की भाषा में जो वैश्वानर है ,युग-युग के घाटों का रस पान कर सूत्रधार को अनुभूतिमयी दृष्टि का दान देता  ,सतत प्रवहमान काल-धारा में समाधिस्थ होता है . नश्वर देहों में अनश्वर चैतन्य के सूत्र को धारण करनेवाला सूत्रधार ,चिर सहचरी ,जिज्ञासा नटी के साथ ,लोक मन के रस-ब्रह्म का साक्षात्कार करता चल रहा है  .
 आइये हम भी लोक-मन की रागिनी के अनहद नाद में गूँजते ' विविधता में एकता ' की तान को सुनने और गुनने की चाह में, पूर्व दृष्यों की निरंतरता के साथ  चलें, आगत क्रमों के संयोजन हेतु ...... 
 [ सूत्रधार ,नटी और लोकमन मंच पर - ]

सूत्र - अकबर ने मुस्लिम पक्ष की ओर से प्रयत्न किया ,लेकिन वह  राजनीति से संबद्ध था ,और उसके प्रयास बौद्धिक स्तर पर रहे थे अतः,दोनों धर्मों के लोगों की मानसिकता पर प्रभाव न डाल सके. 

नटी - हाँ ,वह आध्यात्मिक ,या सामाजिक स्तर का व्यक्ति नहीं था ,इसलिये उसकी बातें हवा में उड़ा दी गईं .लेकिन और प्रयत्न भी तो किये गये थे ?

सूत्र -गुरु नानक ने हिन्दू पक्ष की ओर से प्रयत्न किया था .उनका मत अपने सिद्धान्तों में सिद्धान्तों में सार्वभौम होने पर भी व्यवहार में एक सप्रदाय रह गया ..

नटी -[गहरी साँस लेती है ]हाँ प्रिय ,उस दिन सूफियों और सन्तों के प्रयत्नों की बात चल रही थी .वे भी संप्रदायों में सीमित होकर रह गये .और विरोंधों का शमन नहीं हो सका .

सूत्र - सुनो कवि कुछ कह रहे हैं .

लोक - किन्तु समन्वय जन स्तर पर कभी नहीं रुक पाया ,

एक दूसरे के प्रभाव को दोनों ने अपनाया!

एक देश में एक साथ रह इक दूजे को समझा ,

जीवन पद्धति का तब अभिनव रूप निखर कर आया !

 जीवन नदिया सब को ले लहराती बढती जाये !

नटी - कवि आपने शंकराचार्य की बात कही थी ,वे तो धर्मगुरु थे .भारत की एकता में उनका क्या योगदान है?

शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के स्थायित्व, प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में अपूर्व योगदान दिया. उनके व्यक्तितत्व में गुरु, दार्शनिक, समाज एवं धर्म सुधारक, विभिन्न मतों तथा सम्प्रदायों के समन्वयकर्ता का रूप दिखाई पड़ता है.

सूत्र - धर्म क्या है ?इतना सब पढ़ कर मैंने तो यही समझा कि यह जीने की पद्धति है -व्यक्ति और समाज की स्थिति,विकास और कल्याण के लिये जो विधि-विधान समय-समय पर बने वही धर्म है .लोक जीवन पर आचार्य शंकर का प्रभाव बड़ा दूरगामी था .जीवन के परम सत्य को व्यावहारिक सत्य के साथ जोड़ने के कारण ही अपरोक्षानुभूति के बाद आचार्य शंकर मौन बैठकर उसका आनन्द नहीं लेते, बल्कि समूचे भारतवर्ष में घूम-घूम कर उसके रूप-स्वरूप को निखारने में तत्पर रहे थे .

 उनका व्यापक प्रभाव  जन-जीवन में  बहुत गहरे तक समाया हुआ है जो लोक व्यवहार में स्पष्ट दिखाई देता है.


दृष्य -



दृष्य - एक वृद्ध-वृद्धा और एक युवती ,सामान में दो गठरियाँ एक बंडल लोटा-डोर एक संदूकची - जैसे किसी यात्रा से आये हों ]

वृद्ध - चलो लैट के बुद्धू घर को आये ,काहे सुमिरनी !

सुमि -घर तो तुम्हई लौट के आये हो दद्दा ,तब तो तुम्हईं बुद्धू भये .

वृद्धा -काहे ?बुद्धू तो गये हते .लौट के तो अकलमन्द बन के आये हैं .[अपनी पुटरिया खोलने का उपक्रम] ,
बाहर से आवाजें -
'अरे ताऊ ,तीरथ करके लैट आये का ?''आय गए का ?'आदि कुछ लोग आते हैं परस्पर पा-लागी आशीर्वाद होता है ]

वृद्धा- आओ, लल्लू ,अच्छे तो रहे ?

लल्लू -हम तो ठीक हैं ताई ,आप लोग बहु दिन लगाय के आये !

वृद्धा -सुमिरनी ,दुआरका के परसाद की पुड़िया तुमका दीन रहे ,कहाँ धरी है ?

सुमि - हम तो हुअईँ धर दीन रहै ,दद्दा से पूछो .

वृद्ध - तुम्हार भौजी को लोगन से बतियाबे का एतना सौक है कि कुछू ध्यान नहीं रहत .हमनेआपुन टोपी तरै धर दिया रहै .

वृद्धा - [टोपी के नीचे से प्रसाद की पुडिया निकालती है ,ताँके कलश को खोलती है ,आचमनी निकालती है] लेओ दुलहिन ,लल्लू लेओ परसाद .सब तीरथन का जल एक ही कलस में समाय गया है .

एक स्त्री -आप लोग बड़भागी हैं तीरथ कर आये हैं.इन चरनन को छूइ के हमउ पुन्न के भागी हुइ गये .

वृद्ध -तुम सब लोगन ने हिम्मत बँधाई ,गाँव के घरन ते पइसा कोड़ी की मदद भई ,तब हम जाय पाये .हमारो अकेलो बूता कहाँ हतो !

लल्लू -ताऊ - आप ही ने तो सिगरी उमर आपद्-विपद में गाँववालन को साथ दौ .....अऊर चारों धाम के तीरथ जैसो महन् कारज अकेले से थोरे ही न हुई जाय .

वृद्ध) -इहै तो पुरानो चलन है ,तीरथ जान वारै को सिगरो गाँव खरच देत है और वाके पुन्न को भागीदार बनि जात है .

स्त्री -जात्रा कैसी रही ताई ?

वृद्धा - बहुतैआनन्द रहो .ई धरती कित्ती बड़ी है अब समुझ पायेन .अब तक तो कुआँ के मेंढक बने भये थे .हमारी तो आँखी खुलि गईं लल्लू .आपन देस में कैसे कैसे आचार-विचार ,कित्ते पंथ ,कित्ते मारग - और सब एकै साथ ,मिले-जुले जैसे महा समुन्दर होय .

एक पुरुष - आपको अपने नेम धरम की बहुत चिन्ता रहै ताई ,तरह-तरह के लोग-लुगाइन में जानौ न परता होई कि कौन जात है कौन कुजात ?

वृद्धा -ऊ नेम धरम तो हम कन्या-कुमारी के समुन्दर में बहाय आईं ,पुत्तन .संकराचार्य को भगवान ने चंडाल को रूप धार के दरसन दिये रहे .अब तो इहै लगत है ,जो ईमान धरम से रहे उहै सुद्ध ,बाकी सब सुसरे चंडाल हैं .

सुमि -दद्दा -भौजी तो अभै लौटन को तैयार नाहीं हते ,पर हमने कही घर ते निकरे साल से ऊपर हुई गवा अब उहाँ की भी सुध लेओ .

एक व्यक्ति -अइसा उहाँ का मिलि गवा जौन  घर संसार बिसराय दिया .हमारी ताई तो घर की देहरी न छोड़त रही इत्ते दिन कैसे बाहर रही ?

 वृद्धा -अरे पुत्तन, कुछू पूछो मत .इत्ता पायो इत्ता पायो कि हमार छोटे मन में समाय नहीं पाय रहा है .उहाँ साथ भी इत्ता अच्छा मिलि गवा .उहाँ उज्जैन के रहे दोऊ पति-पत्नी .हमें तो अइस लगे जइसे आपुन सगे संबंधी होयँ .इत्ते परोपकारी ,इत्ते विद्वान और इत्ते सज्जन  !

वृदध -सच्ची में ,उनके साथ अइस लगत रहा ,जइस आपुन देस का पग-पग तीरथ होय .उनकी बातें तो हमारे हिरदै में पैठि गईं हैं .[इस बीच प्रसाद देने का क्रम चलता रहता है ]

सुमि -हमरा तो समझो जनम सकारथ हुई गवा .जी जुडाय गवा हमार तो .

 वृद्ध -ऊ संकराचार्य साच्छात् अवतार रहे जिनने चारों छोर तीरथ धाम बनाय के लोगन को सदा-सदा को जोड़ दिया .चारों दिसायें जाने बिना तो आदमी समुझ अधूरी ही रहि जावत है.

लल्लू - ताऊ ,अपने हिन्दुस्तान में अनगिनत पंथ हैं ,सैकडों देवता पुजते हैं ,कोई शैव ,कोई शाक्त ,कोई वैष्णव ,कोई किसी को माने कोई किसी और को ,फिर तीरथ में कैसे सबन की पटरी बैठ जात हैगी ?

वृद्ध -इसी लै तो संकराचार्य ने पंचदेवोपासना चलाई .शिव दुर्गा ,विष्णु ,गणेश और सूर्य जब पाँचों में निष्ठा है तो मन आपै आप जुड़ि जायेंगे .

 वृद्धा -उनने धरम को सुद्ध कर दिया .माँस मदिरा ,मसान-पूजा ,तंत्र ,बलि सब हटा दिया और कहा सच्ची भगती ही सच्ची पूजा है .भज गोविंदं ,भज गोविंदं ,भज गोविंदं मूढमते !

स्त्री - अउर का देखा ,सुमिरनी बहिना ?

सुमि -तरह तरह के लोग, तरह तरह के पहिनावा, तरह तरह की बोली.,उत्तर -दक्खिन ,पूरव-पच्छिम सब तरफ से चले आय रहे हैं .सब के अलग रं ग अलग ढंग पर मन में उहै सरधा,उहै भक्ति !अइस लगन लाग जौन हम सब एकै कुटुम  के परानी होयँ
वृद्धा - ई सुमिरनी तो रात मे सोय जात रहीं .हम लोग सबन से बोलत बतियात रहे ,सतसंग करत रहे .एक अउर मिले रहे..

सुमिरनी -  अरे हाँ ,दच्छिन में पांड्य देस के वासी रहें  ,आपुन नाम कब्भौं नाहीं बतावत,कहि देत हैं   बस एक यात्री हूँ . उनकी तो अइस बातें कि लिखि के धर लेउ... हमेसा के लै ...

पुत्तन - अच्छा !

वृद्ध -  कहत रहे -मनुष्य को आठ महीनों तक खूब परिश्रम करन का  चाही जिससे बरिसा भर सुख से  खाय सके.दिन भर परिस्रम  करै  जा सों रातन में निचिंत सोय सके .जवानी में बुढ़ापे के लै  संग्रह करै अउर  इस लोक में रहत पे परलोक के लै कमाय ले.

पुत्तन - परलोक के लिये कमाई?ई आपुन  सुमझ में नहीं आवा .

वृद्ध  -शरधा अउर बिसवास धारन करो.
कोरे ज्ञान  ते ऊहा बढ़त है .अपने को परमात्मा की सरन में छोड़न की बान धरै क चही.
सुमि - सारी दुनिया उनकी घूमी परी है .सबका गियान बाँटत रहे . 

 बरसन  पहले ईरान के एक संत मंसूर हल्लाज़ नाम वारे  रहे. सिन्ध में उनका मिले रहे   दोऊ साथै  मुल्तान और कसमीर घूमे.उनसे बहुत सीखन को मिला .बतावत रहे  इन्सानियत की जोत अब बाम्हनन में नहीं इन संत और भक्तन में अधिकै सच्ची  है.

आ.- सहीची बात  है आज के बाँभन सब भुलाय गए -आपुन पेट भरन के उपाय सीख गए हैं  .हु दच्छिन देस में    जिनका  सब नीची जात कहत हैं उन लोगन में भगवान के लै  सच्ची  लगन है.पर पर ऊँची जातवारै  उनके लै बड़े निरदयी हुइ रहे  हैं.

वृद्धा -  जिनका  दबाय  रहे हैं उनकी असलियत  एक दिन सामने आय के रहेगी .मन के सच्चे ,लगन के पक्के उहै लोग एक दिन समाज को सही रास्ता बताय देंगे .
आ .- दुनिया देखै ते गियान बढ़त है . एकै जगह पे तो मति बँधि जात है .

एक स्त्री - हमार मन भी  ललचाय रहो  है ,आगिल बेर हमहूँ चलिबे .

वृद्ध -मारग के नगर गाँवन में ,नदियन के किनारन पे ,परवतन के चरनन में घने वनन  की राहन में मंदिर मंदिर में सत्संग करते भजन गाते हम तो नई जिनगी पाय गये .

पुत्तन -तो चारों धाम करत-करत आप सारा देस घूमि आये ?

वृद्ध - उहै तो असली मतलब है चारों धाम घूमन को .गंगा और गोदावरी के जल का महातम हैं पर उससे भी बढ़ि कर उन के पास जाने की जातरा है  .उनके पास जाओ ,अपने पाँवन से जाओ ,राहन को बूझत- रमत जाओ तब उन्हें जानन की छमता आवत है .बाहर भी अउर आपने भीतर भी जोत जागत है  .देह का सारा छोटापन वो बहाय ले जायेंगी ,और मन हहर के लहराय उठेगा .

सुमि -तभै तो हमार छूत-पाक वाली भौजी भी ,बहि गईं और ई नई होय के आय गईं .

वृद्धा -हमारा कित्ता सुन्दर ,कित्ता निराला देस ,ऊपर हिमालय लहराती गंगा-जमुना ,नीचे कन्याकुमारी में तीन-तीन समुन्दरों का संगम और बीच मे ये वरदान जैसी धरती .हर तरह का मौसम ,फल-फूल अन्न -जल !इत्ता विसाल देस कि घूमते जनम बीत जाय फिर भी पार न मिले .

लल्लू -सब नया नया लगता होयगा ताई ?

वृद्धा -लल्लू सुननवारे को नया लगता है ,देखनवारे के तईं सब चीजें परसाद  जैसी सहज हुइ जाती हैं .देखो न ,कित्ती जातियां ,कित्ते आचार -विचार हमारी धरती पे आके  एक हुइ के रहि गईं जइस अलग अलग धारायें गंगा जी में समाज के सारे भेद एक रूप हुइ जाय़ँ .
सुमि - हाँ ,देखो न ,महावीर ,बुद्ध ,सभी को हमने अवतार मान लिया और यहाँ तक कि हजरत अली को भी विष्णु का दसवाँ अवतार मान लिया .

स्त्री - ई तो हम कबहूँ नाहीं सुना .

 वृद्धा -पंजभाई संप्रदाय में इस्लामी खोजा हजरत अली को दसवाँ अवतार मानित हैं .

वृद्ध -अरे ,एक दिन माँ समुझ में न आई लल्लू .सुरू में सब अजीब लगेगा फिर सब सहज लगने लगेगा .

लल्लू  -और भी आगे सुनन की इच्छा है ताऊ .

वृद्द -पूर्णिया के देहातन में मुसलमान लोग अल्लाह और काली माई दोउन को पूजत हैं और उनके बियाह-सादी भगवती के मंदिर में होवत हैं .

वृद्दा -और अल्लोपनिषद् की बात काहे न कहो !हमारे पंडितन ने अल्लाह को अपना मान के अल्लोपनिषद बनाय दिया .

पुत्तन -लेकिन इस्लाम धर्म तो बहुत बाद में आया रहे .

वृद्धा -नाहीं भइया ,ऊ तो संकराचार्य से भी पहले दच्छिन भारत में आय गया रहा .और फिन तो सूफी  लोग भी आवत रहे .

सुमि -हाँ ,ऊ बताये रहे कि सूफी फकीर और भारतीय साधक खूब मिलत-जुलत रहे .

वृद्ध -कोरे मिलत जुलत न रहे एक दूसर की अच्छी बातें मानत रहे और लोगन को सिखावत भी रहे .

स्त्री - हां ,जायसी की पदमावत हम पढ़े हैं .लगतै नहीं कि लिखनवाला मुसलमान है .का कहत हैं 'आपुन आपुन भासा लेहिं दैउ कर नाँव '

लल्लू - काहे ताऊ ,ई किरस्तान अँग्रेजन के साथ आये रहे ?

वृद्ध - ईसा की पहलीे सताब्दी में अपने धरम का परचार करन के लै इनके पादरी आय गये थे .सुनी तो यहै जात है कि ईसामसीह खुद हिन्दुस्तान  आये रहे.

वृद्धा - काहे नाहीं हुई सकत है .हमारे इहाँ तो सब धरमन को सुआगत होत रहो है .पारसी लोगन की अगिन पूजा तो वेदन के काल से होवत रही ..हमारा तो जीवन सकारथ हुइ गवा भारत माता के दरसन से .

स्त्र -का उनका भी कौनो मंदिर रहै ताई ,भारत माता का ?

वृद्धा - उनहिन के मंदिर में तो हम-तुम सब रहत हैं .हिमालय से कन्याकुमारी और बंगाल से गुजरात तक उन्हई को रूप व्यापित है .हम तो उनके आँचल मे पलनवाली उन्हई की संतान हैं ..जरा बाहर निकरि के देखो कैसो रूप है उनको कैसो नेह ,कैसी ममता .कोई उरिन हुइ सकत है का ?

सुमि -हाँ भौजी , इहै बात सब समुझ लें तौन सारो झगरौ खतम होय. ?

वृद्धा -हाँ ,कहत तो रहे ....याद आइ गवा .अगर तुम सीधे सुरग को मारग चाहत हो तो जगन्नाथपुरी को बेंत लै जाय के बद्रीनाथ में चढाओ ,और गंगोत्री का जल रामेश्वर मे अर्पित करो .

 वृद्ध -उज्जैनवारन ने खुलासा बात कही -कि जे अपनी जनमभूमि सुरग से बढ़ कर है .जहाँ उत्तर से दक्खिन और पूरव से पच्छिम मिल जायें समुझ लेओ स्वर्ग वहीं उतर आवत है .

लल्लू -बड़ी ज्ञान की बातें हैं ताऊ ,इनके कहे सुने से बडो पुन्न होवत है .

वृद्धा -कोरे कहिबे-सुनिबे से नहीं , अमल करै ते पुन्न मिलत है .

सुमि- लल्लू भैया -अब दद्दा भौजी का कौनो विसवास नहीं .ई तो सन्यासी हुइ जान को तैयार बैठे हैं .

पुत्तन -काहे ताऊ ,सच्ची ताई ?

वृद्ध -अब तक मोह परपंच में दिन काटे अब मन चेत गवा है .ई सुमिरनी हैं तो ननद हैंपर बिटिया अस पाली हैं . इनको ससुराल पठाय के मकान इनके नाम करके माया से मुक्त होवे की इच्छा है .तुम सबै लोग देखन सुनन के लै हो .हमार मन में अब इहै आवत है .

वृद्ध -हाँ अब ई घेरा से निकल के सच्ची पूजा ,मतलब  दीन-दुखियारन की सेवा  में लगाय के  पूरे देस की धरती को आपुन घर बनाय लें -ई मनुज तन सकारथ हुइ जाय.

लल्लू - हमका छोड के मत ना जायो ताई .

वृद्धा -कौन अभै निकरे जाय रहे हैं .अभी तो जात्रा का परसाद और जल  सबका बाँटे का है .
पुत्तन -   अब चलित हैं ,. निचीते हुइ कै अश्नान ध्यान करौ ताई ,भोजन के लै हमार घर पधारे का परी .
(पटाक्षेप)
(क्रमशः)

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

कोख का करार - समापन .

*
'ऐसे कब तक पड़े रहेंगे ,दोनों तरफ़ के खर्चे और आमदनी का ठिकाना नहीं ,' हैरिस परेशान हैं ,'उधर  मेरे न होने से कितनी गड़बड़ियाँ हो रही हैं .सब चौपट हुआ जा रहा है.'
ऐसे पलों में जूली का मनोबल टूटने लगता है
कैसी बेबसी है - यहाँ भी कोख ने लाचार कर दिया !
 सचमुच ,बड़ी मुश्किल है .
 जूली का अपराध बोध प्रबल हो उठा , सब मेरे ही कारण ! ..क्या करूँ मैं,मेरी इच्छा थी कि  बच्चा अपना हो.
बुझे-से स्वर में बोली,' मुझे लगा ,अगर अपना हो सकता है तो इधर भी कोशिश करें ..,.---जार्ज ने एडाप्ट किया था क्या नतीजा हुआ ज़िन्दगी भर का झिंकना .तभी ... अँधेरे में हाथ डालने को मन तैय्यार नहीं हुआ. ,अरे,दोनों का न सही, तुम्हारा सही.
'इतना आसान है यह सब क्या ..सुन लिया न ,डाक्टर ने क्या कहा?'
सब सुना ,सब देखा -क्या कहे जूली.
'डाक्टर क्या करे. कोई उसके हाथ में तो है नहीं. अब जो उठा है सवाल ,तुम्हीं तय करो .'
'मेरे तय करने को हई क्या ..?
क्या करे जूली ?
 

फिर प्रयोग !पता नहीं कब तक ..उधर सारा बिज़नेस फ़ेल हुआ जा रहा है..
नहीं..नहीं अब  जल्दी तय करना पड़ेगा .और कोई चारा नहीं .
पति ने खीझ कर कहा -
मैं तो हर तरह तैयार हूँ-.
 कहीं से कोई आसरा नहीं ,चिढ़कर बोल उठी ,' क्यों नहीं तैयार होगे.तु्म्हें मौका जो मिल रहा है,'
'तो फिर चलो यहाँ से! तुम्हारी तो चित भी मेरी पट भी मेरी . खुद अपने  घेरे से निकल पाती नहीं , भरोसा किसी के लिए है नहीं ?और ,बाद में मुझ पर  धर दोगी .'
जूली रुआँसी हो आई .
हैरिस सिर पर हाथ रखे बैठा है .
 '..हमारे ही बीच दीवार खड़ी हो जाये, तो सब बेकार है .'

 ' तुम तो एकदम उखड़ पड़ते हो .शंका क्यों करूँगी ?ये पापी मन तुम्हें दूसरी के साथ सोच नहीं पाता .मेरी बात को यों गाँठ मत बाँधो. जरूरत है इसलिये ही तो ,..'
कहते-कहते जूली का मन कसक उठा .
' बर्दाश्त करूँगी  . .और कोई चारा नहीं, फिर कहाँ वह ,कहाँ हम . .'
वह कुछ नहीं बोला .
 जूली ने फिर कहा -
' काम हो जाए ,फिर कभी वास्ता पड़े, सवाल ही नहीं उठता!
' बस तुमने कह दिया और हो गया ..'
'अरे हाँ ..' मोनिका के बुरी तरह चौंकने की घटना दिमाग में घूम गई .
- असली सवाल तो यही है .'
मँझधार से निकलने का उपाय नहीं सूझ रहा.
*
जूली ने मोनिका से कहा था,
' पता नहीं कितना और टाइम लगे, डॉक्टरों के प्रयोग  हैं.ये ट्यूब ,वो नली  सब फ़ालतू धंधे ..'
 बात स्वगत-कथन बन कर रह गई,मोनिका चुप है .
फिर पूछा,'कित्ता खिंचे क्या पता ,आपको तो कोई परेशानी नहीं ?'
'सबसे बड़ी परेशानी तो मुझे ही है पर मजबूर हूँ. ऐसी फँसी हूँ - पैसा लौटा नहीं सकती .यहाँ से कहीं जा नहीं सकती .'
 जूली  उसी को ताक रही थी.
'..सोचा था साल भर में सब हो जायेगा पर अभी तो पता नहीं कितना   ..'
' आज के बाद भी ,कम से कम भी ले कर चलो तो दस महीने प्लस चार जो निकल गए और कम से कम दो-दीन और..'...
'दो-तीन और किस हिसाब से ?'
' मासिक चक्र के हिसाब से कांसेप्शन के दिन तय करते हैं ये लोग  ..'.कहते-कहते जूली चुप हो गई .
मोनिका इशारा समझ गई  एक दम टेन्स हो गई.
'मेरा मतलब वो नहीं. मैं तो डॉक्टर की बात बता रही थी .कि कोई सीधा माध्यम मिल भी जाय तो भी इतना समय, कम से कम ...'
 सीधा माध्यम ?
बेतरह उलझ गई  मोनिका -सरोगेसी वाली औरतों में कोई भी तैयार हो सकती है.
और फिर मेरा क्या होगा ? कितना उधार सिर लिये बैठी हूँ - कैसे वापस जाऊँगी?
आजकल न नींद आती है, न चैन .उफ़ !
*
 सुबह-सुबह मोनिका का फ़ोन आया - आज आपका क्या प्रोग्राम है?'.
जूली ने कहा , अकेली हूँ .हैरिस को कहीं जाना पड़ गया ,शाम तक लौटेंगे .
आपको राइड चाहिये क्या ?'
'नहीं, आपसे मिलने आ रही हूँ. '
उसके लिए खाना बना लिया जूली ने .
आई तो कुछ देर थकी -अवसन्न सी बैठी रही .
फिर बोली', आप से कुछ कहना है .'
-अब क्या कहेगी जाने ..
'मुझे पुरुषों के साथ संबंध बनाने में कोई रुचि नहीं रही.वितृष्णा होती है उनसे.'
क्या मतलब है?  जूली चौंक गई .उसका मुँह देखने लगी .
कुछ क्षण एकदम चुप रही  ज्यों शब्द ढूँढ रही हो .
फिर बोली, 'आज तक किसी से नहीं कह सकी .मैं विवाहित नहीं हूँ पर..
'कहते-कहते  कुछ अटक गई
जूली विस्मित .मन में  अजीब आशंकाएँ जाग गईं - ऐसी लगती तो नहीं थी  .अच्छे घर की संस्कारशील लड़की लगी थी .
 'गलत मत समझिये ,मेरा कोई दोष नहीं था. एक बार फँस गई थी मैं . होस्टल जा रही थी .बस स्टाप पर रुकना पड़ा -पानी बरस रहा था .किनारे आड़ में खड़ी हो गई  15-16 साल की मैं अकेली .'
वह फिर रुकी ,गले में कुछ अटक गया हो ज्यों.
 '..वे तीन लड़के थे. कई बार का देखा एक लड़का भी था, ' आ जाओ गाड़ी में क्यों भीग रही हो? अभी पहुँचाये देते हैं .'
मैंनें मना किया.वे तुल गये . मेरा बस कहाँ चलता ?और फिर .
सिर नीचा किये बैठी है अपनी ही गोद में आँसू टपाटप गिर रहे हैं.
गला रूँधती सिसकी समेट ली उसने.
' रौंद डाला था उनने मुझे.'
 चेहरा एकदम उजाड़ ,
' क्या बताऊँ . याद नहीं करना चाहती, न किसी से कहना चाहती हूँ .मन में ज़हर भर जाता है . सिर्फ़ आपके लिए, आपसे कह रही हूँ ..कि आप समझ लें.'
जूली क्या कहे !
'आपसे पैसे लेकर खर्च कर चुकी ..   हिसाब कैसे पूरा करूँगी .
जूली का मन भर आया , मुँह से निकला -' मैं समझ रही हूँ .
ईश्वर ने कोख दी और दुनिया भर की दुश्वारियाँ हमारे नाम लिख दीं .'
बार-बार सिसकियाँ उठ रही हैं, 'इस सब से उबरना चाहती हूँ ...कोई रास्ता नहीं मेरे लिए.
 '..तब रूममेट की माँ ने बहुत सहारा दिया था.उन्ही ने शान्त किया
समझाया.कोई साथ नहीं .तुम्हारे माता-पिता साथ  होते तो भी सहारा रहता .उन लोगों को सज़ा दिलवाने में कौन साथ देगा तुम्हारा ? दुनिया भर की खींच-तान झेलोगी .पढ़ाई से जाओगी दस बातें बनेंगी उन लोगो से अकेली पार पाना आसान नहीं बेटा .तुम ठीक-ठीक चली आईँ यही बहुत है आगे का सोचो .  '
. वितृष्णा से भर जाती हूँ .बड़ी मुश्किल से सामान्य हो सकी .
'..जो आपने दिया था उसमें से बहुत खर्च हो गया. आगे भविष्य मुँह बाये खड़ा है  .उधार भरना है .जल्द से जल्द छुटकारा पाना है और आप को दिया वचन भी. .'
दुख की गहनता चेहरे पर लिख गई हो जैसे .

जूली सिहर उठी -
'मैं जा भी कहाँ सकती हूँ ?'
,'आदमी कैसा पशु बन जाता हैं अपने क्षणिक सुख के लिए क्या-क्या करता है ,' जूली का  गला भी भर आया .
'.. अपनी देह से घृणा होने लगती है क्यों मिला ऐसा शरीर जिस पर दूसरों की मनमानी चले , ज़िन्दगी भर, देह धरे का खामियाज़ा भुगतना पड़े. सच कहती हूँ  मुझे पुरुष मात्र से वितृष्णा हो गई है ... .'
गला रुँधने लगता है बार-बार '
जूली स्तब्ध बैठी है .
 'बहुत मुश्किल है पर कोशिश करूँगी ...'ज़लालतें झेलने को ही तो मिला  है औरत का जनम...'

आगे सुन नहीं पा रही  जूली, ' अरे उधर ..' कहती  उठकर किचेन में चली गई .
 मोनिका ने यह भी कहा था -
' ..पर अपने पति को किसी और को सौंप देना बहुत मुश्किल होगा. .आपके मन में कोई द्विधा रहे तब बिलकुल नहीं ....'
कुछ बोले बिना जूली ने उसकी पीठ पर हाथ रख दिया ,फिर सिर पर ..क्या कहे ,क्या करे ..?
'नदी-नाव संयोग है ,हमारा क्या बस ! मेरी ओर से निचिंत रहिये ...'
भोजन  के समय अधिकतर चुप्पी छाई रही .
चलती-फिरती बातों के बीच मोनिका कह गई ,' लोग जिस सुख लिए पगला जाते हैं मैं उसका अनुभव कर सकने में अक्षम हो गई हूँ .दिन-रात कचोटता मन कौन समझेगा , एक गहरी उसाँस ,'यह देह केवल साधन बनेगी आपकी आवश्यकता पूर्ति के लिए .एक तोड़े गए नारी शरीर की  सार्थकता यही सही! '

*
 
हैरिस की वापसी हो गई -अब निश्चिन्त हो कर अपना करोबार सँभालेंगे.
'वहाँ  मेरे न होने से  बहुत गड़बड़ हुआ है.' 
जाने के पहले मोनिका से कहा था. 'आप अपने खर्चों में संकोच न करें ,खूब मौज से  रहें ,मस्त रहें .'
मोनिका ने चैन की साँस ली- अच्छा हुआ ,अब सामना नहीं होगा . लाख निर्लिप्त रहने की कोशिश करे ,हैरिस के सामने पड़ते ही अजीब-सी बेचैनी घेरने लगती है.
जूली यहीं रुकी है, मोनिका से दूर रहना अभी उचित नहीं ,बीच में  लगा आएगी कनाडा का चक्कर .
जानती है इन दिनों की मनस्थिति बच्चे पर बहुत असर डालती है.
लड़का हो चाहे लड़की ,स्वस्थ हो और दीर्घजीवी हो -मोनिका सुरक्षित-संरक्षित रहे !
 'कहीं कोई भी परेशानी  हो तो हम हाज़िर हैं.'  
उस ने भी आश्वस्त कर दिया है -
चिन्ता मत कीजिये ,अपनी तरफ़ से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ूँगी. '
*
जूली अक्सर ही मोनिका को बुला लेती है .
उस दिन उसकी रसोई की एक-एक चीज़ मोनिका ध्यान से देख रही थी.
'मेरी आदत है ,सामान इकट्ठा मँगा लेती हूँ, बाद में आराम रहता है .'
'मैं तो देख रही हूँ आपको क्या-क्या पसंद है खाने-पीने में  ,ये भी कि आप की और क्या रुचियाँ हैं ?'
'उससे क्या होगा ?'
'इसलिये कि आपकी संतान आप की रुचि में ढले,' फिर पूछ बैठी, 'आप को खट्टी चीज़ें कम भाती हैं ?'
'हाँ, बचपन से खट्टे का शौक नहीं रहा. साथ की लड़कियाँ कैथ ,इमली ,कच्ची अमियाँ चबातीं थीं तो देख कर ही मेरे दाँत कसमसाने लगते थे .'
वह हँसने लगी,' मैंने तो ये सब खूब खाया है .अब भी बिना अचार मेरा खाना गले से नहीं उतरता रहा, पर अब छोड़ दूँगी .'
जूली विस्मित .
''.. और आपकी तरह चटपटा और मीठे का कंबीनेशन बनाऊँगी.
'अरे ,आप तो....'
'आपके स्वाद अपने में धारूँगी न .. वो जो कचौड़ियाँ आप खाती थीं मैं भी चाय के साथ खाने लगी हूँ .और हाँ ,आपके कॉस्मेटिक्स और कलर सेंस भी समझ लिया है .खरीद लाऊँगी '.
'मेरे पास हैं , साथ रख दूँगी.'
'..आपसे जितनी अनुकूलता रहेगी उसे नयापन नहीं लगेगा . वही रही-बसी दुनिया पायेगा तो फौरन एडजस्ट हो जायेगा .होगा तो आप ही का न! अच्छा है आपके रंग-ढंग में रचाव मिले .. '
जूली कहे भी तो क्या .
 'रात को लेटती हूँ तो आपकी पसंद के गाने सुनती हूँ ,आपकी पसंद का खाती हूँ .
कोई अनुमान नहीं सकता कितना बदला है मैंने अपने आपको .'.

'हाँ, इधऱ सच में बदली सी लगती हैं .मैंने समझा ,प्रेगनेंसी की वजह से..' .
'वो तो है .पर जो बदलाव मैं कर रही हूँ वो आपको ध्यान में रख कर. मेरा विचार है कि बच्चे पर माँ-पिता के संस्कार आना ज़रूरी है .तभी तो आपसे अपनापा होगा .मैंने मुँह माँगी रक़म ली है पूरी ईमानदारी बरतूँगी .'
क्या उत्तर दे जूली  .
'और हाँ ,अपनी पसंद की दो ड्रेसेज़ भेज दीजिएगा अपनी पहनी हुई.पर दो में क्या होगा   कुछ और भी कपड़े ,,नये नहीं , पुराने जिनमें आपकी गंध और परस बसा हो  .
.. प्रसाधन सामग्री जो खतम हो रही है वह भी .अभी से उन्हीं महकों उसी स्पर्श का आदी होने दीजिए उसे  .और रात के लिये अपनी पसंद के दो ढीले-ढाले  गाउन भी.'
'आपको बताती हूँ सब, अपना हिस्सेदार बनाने के लिये !रात में कभी मेरा मन लोरी गाने का करता है, ये वाली आप सीख लीजिये. कभी सुनाएँगी तो प्यार के वही बोल सुन कर मगन होगा न ..
इन  दिनों मुझे पता नहीं क्या हो रहा है .अपने को बिलकुल भूल कर आपके  बारे में सोचती रहती हूँ.'
'मेरी नहीं तुम सिर्फ़ बच्चे की चिन्ता करना.'
 'उसी के लिए तो मैंने अपने को दाँव पर लगा दिया .इतना पैसा लिया आपसे . उसे भी जस्टीफ़ाई करना था.' 

फिर धीमे स्वर में बोल गई,'अपने लिए अभी सारी उमर पड़ी है. '
जूली का जी कैसा-कैसा होने लगता है ,और वह बोले जाती है,
'मैं चाह रही हूँ उसे पिता के साथ असली माँ के भी संस्कार मिलें . देखिए मैंने अपने को आपकी आदतों में ढाला .सिर्फ़ इसलिए कि वह आपका रहे. .खाना-पीना, अपने रंग-ढंग सब बदलने की पूरी कोशिश मैंने की .और जानती हैं कभी-कभी भरमा जाती हूँ -  मैं हूँ कि आप हो गई ?
आईने मे अपना शरीर देखती हूँ आपका लगता है मैं तो छरहरी थी ,अब देखिये न आपकी तरह भरा-पुरा ,और रंगत भी मुझे लगता है आप जैसी उजली हो गई है.'
जूली  मानती है , 'हाँ बालों का स्टाइल ,चाल, बोलने का लहज़ा सब  .पहलेवाली लगता ही नहीं.' कितना बदल गई है लड़की .
उफ़, यह क्या कर रही है . जीवन को ही नाटक बना डाला है !
मुँह से निकल पड़ा -
  ,' मोनिका , कैसे तुम नाटक की पात्र हो गईं .'
'यह प्रेम ,ये भाव सब उसके रहें जो इस बच्चे की माँ है .माध्यम भर बनी हूँ मैं तो !
बस इधर से निपट कर अमरीका चली जाऊँगी .'
*
समय पूरा हो गया है .हैरिस उपस्थित .
 सब कुशल रहे, सारी सवधानियाँ बरती जा रही हैं.
तीनों डाक्टर- अमर,मानस ,रम्या साझीदार रहे इस घटना-क्रम के .उन्हीं के हाथों अंतिम-चरण संपन्न हुआ.
स्वस्थ शिशु  हैरिस पर गया है .मोनिका  का यही मन था, जूली तो चाहती ही थी .

और मिल गई अस्पताल से छुट्टी.
अब काहे की देर ,मोनिका बिलकुल तैय्यार है -
'लीजिये आपका बच्चा.' दोनों हाथों बढ़ा दिया उसने - अपनी टिमटिमाती आँखों की विस्मयभरीे दृष्टि से दुनिया देखते ,हिलता-डुलता एक नन्हा-सा  बंडल !
जूलीवाली नेलपॉलिश आज उन नखों में नहीं थी.
'...और ये अटैची - आपके कपड़े .सब इसी में हैं .'
बड़े तटस्थ भाव से शिशु को पकड़ा दिया .' बहुत समय हो गया , अब इस आरोपण से छुट्टी पाना चाहती हूँ . आज्ञा दें  ...'
जूली विमूढ़, बाहों में नव-शिशु.

मोनिका को घूम कर चलते देख भीतर से हूक उठी . उससे से रहा नहीं गया ,पुकार लिया ,'अरे, यों मत जाओ.रुको .'कहती उसके पीछे बढ़ी.
' मैं , निमित्त मात्र रही थी .शरीर  गिरवी पड़ा था अब तक. मुक्त हो गया. अब अपने उसी रूप में जा रही हूँ .'
जूली देख रही थी-  सचमुच वह छँट गई थी - देह वैसी ही सिमटी   जैसी थी,वही  ड्रेस पहने सामने खड़ी थी, पहले जैसी ..,बोल,चाल-ढाल सब वही जैसी पहली बार देखी थी. 

अरे हाँ, बोलेने  ढंग भी वही  जो उसका अपना था.जूली  की  आँखों में अनायास आँसू भर आए .अजीब सी व्याकुलता में ,चाहा रोक ले .बढ़ने को पग उठाया .
हैरिस ने बढ़ कर रोक दिया ,'पागल मत बनो .जाने दो अब. उसे अपना जीवन जीने दो.'
वह  कुछ कदम आगे चले आए ,' हम कनाडा में हैं ,आप अमेरिका रहेंगी .बिलकुल अकेली हैं. कभी आपकी कोई सहायता कर सकें तो  बहुत खुशी होगी.हम  हमेशा को एहसानमंद हो गये. '
वह थोड़ा मुड़ी,' आप चिन्ता न करें .अकेली नहीं रहूँगी .स्वाभाविक जीवन जिऊँगी .  ..
मैं भी कृतज्ञ हूँ ,समझ गई हूँ  सभी पुरुष  जानवर नहीं  होते !' 

जूली मुँह बाये देखे जा रही है .

*



शनिवार, 28 मार्च 2015

कोख का करार - 2 .


'नमस्कार डॉ.साहब, ये मेरी पत्नी जूली और ये मोनिका जी , संबंधी हैं हमारी  सहायता को तैयार हैं. '
कहते हुये हैरिस दोनों महिलाओं की ओर उन्मुख हुए,' ये डॉ.अमर. इस काम में यहाँ के माने हुए डाक्टर . '
आगे बढ़ आये डॉ.अमर अपने साथी को लक्ष्य कर बोले ,
 ' डॉ. मानस हमारे सहयोगी - सलाह के लिए इन्हें भी साथ  ले आया हूँ.'
औपचारिकताये पूरी कर काम की बातें शुरू हुईं.
पहला सवाल - 'कैसी सरोगेसी चाहिये ? '
इस बारे में सुनी-सनाई  के अलावा किसी को खास पता हो तो बोले.
हैरिस को विस्मय हुआ , 'वो भी क्या कई तरह की होती है ?
मोनिका को बड़ा अटपटा लग रहा है .
' तो समझ लीजिये. नंबर एक ,' दायें हाथ की तर्जनी बायाँ हाथ उठा कर उसकी तर्जनी पर रखे रहे ,' ट्रेडिशनल सरोगेसी - होनेवाले बच्चे का जैविक संबंध  सिर्फ पिता से . उसके शुक्राणु अन्य महिला के अंडाणुओं के साथ निषेचित किये जाते हैं.'
' दूसरी.' दो की गिनती में मध्यमा पर धर दी ,'जेस्‍टेशनल सरोगेसी में  माता-पिता दोनों से संबंध .पहले उन दोनों के अंडाणु व शुक्राणु का मेल परखनली  में कर , निषेचित भ्रूण को सरोगेट मदर की बच्‍चेदानी में रोप दिया जाता है.
जूली एकदम बोली ,'दूसरावाला. जिसमें दोनों से संबंध हो .'
'ठीक कह रही हैं ' हैरिस ने समर्थन किया .
 मोनिका को चुप देख डॉक्टर ने उसे संबोधित किया,
'हम पहले ही बता देना चाहते हैं मोनिका जी, आपको खास तौर से .क्यों कि आपका रोल बड़ा लंबा चलेगा .'
धीरे से सिर हिला - हाँ ही कही होगी .
जूली और हैरिस ने बीच-बीच में कुछ पूछा ,मोनिका सुनती रही .
डॉक्टर के  'आप भी अपने सवाल पूछ लीजिये ' का उत्तर ,'मैंने इस बारे में काफ़ी पढ़़ लिया है ..'
'वेरी सेंसिबिल.. ' मानस ने  प्रशंसाभरी दृष्टि से मोनिका पर डाली, हैरिस से कहा, 'यू आर सो लकी '
'दैट्स ट्रू.'
'जब परखनली में निषेचन हो जायेगा तो स्थापित करने के लिए आपका गर्भाशय तैयार रखना होगा.'
सिर झुकाए सुनती रही चुपचाप.
'उसके लिए आपका ओवुलेशन रोकना होगा .शिशु के जन्म तक .
'ओह ' अनायास मुँह से निकला .
मोनिका के  फक् पड़ गए चेहरे को देख कर बोले,' यह रोक उतनी पूरी अवधि के लिये .फिर आप सामान्य हो जायेंगी .'
उसने फिर भी कुछ नहीं कहा.
 डॉ.अमर उधर ही उन्मुख रहे -
' डरिये मत. यहाँ तो कुछ महिलायें तीन-तीन बार सरोगेसी कर चुकी है..
 आपके विवाहित जीवन पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा.बाद में सब सामान्य हो जायेगा .'
'उस सब की चिन्ता नहीं मुझे, विवाह करना ही नहीं है' - स्वर एकदम ठंडा.
 जूली बोल उठी, ' क्यों, ऐसा क्यों?'
'उस सब से वितृष्णा हो गई है .'
सबकी दृष्टि उधर उठ गई .
हैरिस उसके बचाव में बोले ,'अभी बहुत बड़े हादसे से गुजरी हैं और गुज़री भी कहाँ गुज़र रही हैं .'
संक्षेप में बता दिया सबको .
' प्लीज़ ,वो सब मत कहिये बार-बार . .'
डॉ.मानस से चुप नहीं रहा गया ,'
'क्या-क्या घटता है जीवन में लोगों को क्या पता !'
उसने सिर उठा कर , डॉ. मानस को देखा ,वे गंभीर हो गये थे.
डॉ. अमर फिर अपनी बात पर आ गए, 'हमारे ग्रुप में लेडी डॉ. रम्या बोस हैं .मनोविज्ञान से भी जुड़ी हैं .आगे उनसे काम पड़ेगा .
कई तरह के चिकित्सकीय तथा सामाजिक-मनोवैज्ञानिक परीक्षणों से गुज़रना पड़ेगा.
आज आप लोग बाकी फ़ार्मेलिटीज़ पूरी कर लीजिये. कल से तैयार हैं आप ?'
' शुभस्य शीघ्रम् ,'जूली की तत्परता मुखर हो गई !

मोनिका चुप बैठी बाहर देखती रही .
*
दो महीने निकल गये ,.
तीसरा भी जा रहा है
शुरुआत ही न हो तो आगे का सोचना बे-कार. बीतते समय के साथ धीरज क्षीण होता जा रहा है.मोनिका को तो अभी बस इन्तज़ार करना है .
वे लोग परेशान हैं -सात लाख उधर  दे चुके. इधर ऊपर के खर्चे भी क्या कम हैं !
और अभी आगे का पता नहीं कब तक!
अब ?
क्या करें अब ?
 डाक्टर भी चक्कर में पड़े  हैं - कुछ गड़बड़ है .
ज़रूर होगी. नहीं तो अब तक धरती बंजर पड़ी रहती .
हार कर कह दिया - कितना समय ? ये मत पूछिये . कोशिशें और प्रयोग करते जाने की कोई सीमा नहीं होती. हमारी ओर से कोई कसर नहीं रह रही. पर हम भी भगवान तो हैं नहीं .और यहाँ तो भगवान भी 12 बरस में कुछ नहीं कर पाये .'
कोई बोले भी, तो क्या बोले ?
'..यह केस हमारी प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है  - अब अपने  फ़ायदे की नहीं सोच रहे हम.'
'कुछ दिन और ट्राई करते हैं फिर दूसरा उपाय ...'
*
मोनिका क्या करे ?
सात लाख मिले ज़रूर पर सिर पर खर्च भी चढ़ा था .सहेली के माता-पिता कहाँ तक करेंगे?

अब तक सब करते आये हैं . पर उनकी भी अपनी सीमा है .
उसने उन्हें लिख दिया मेरी नौकरी लग गई ,अब आपके पास आ कर रहना संभव नहीं हो पायेगा. कुछ भेज सकूँ इतनी समर्थ भी हो गई हूँ .
वही लोग उधऱ का सब सँभाल रहे हैं... सारी व्यवस्थायें करना कोई आसान काम है ! अब से तो हर महीने उन्हें भी ...'
पैसे खर्च हुए चले जा रहे हैं.
और कोई चारा नहीं , यह काम तो अब कैसे भी पूरा करना पड़ेगा !
 *
उस दिन डॉ. रम्या ने अपने ट्रीटमेंट के लिये बुलाया था.
दोनों साथ आईं .
'अभी डा.बोस बिज़ी है आप लोग थोड़ा इन्तज़ार कीजिये .'
कॉरिडोर में हो कर वे प्रतीक्षा-कक्ष में जा रहीं थीं कि डॉ.अमर की आवाज़ सुनी,'मानस, तुम डाक्टर बेकार बन गये.' 
बाहर से दिखा डक्टरों के विश्राम-कक्ष में वे लोग हैं.
मानस की बात कानों में आ रही थी ,
 'जीवन के बीजारोपण हेतु प्रकृति की कितनी मधुर योजना रही ,लेकिन
 अपने स्वार्थसिद्धि की झोंक में आदमी खुराफ़ातों पर उतारू हो जाता  है, सोचता नहीं, कि बीज को ग्रहण और पोषित करनेवाली धरती रूखी भावनाहीन रहे तो , वैसी ही औलाद पैदा होगी.. सब व्यापार बना डाला है .'
'तुम खाली कमियाँ निकाल रहे हो ,कितने लोगों का भला होता है इससे .'
'पराये को अपनाने की गुंजाइश समाप्त होती जा रही है. ऊपर से काम निकालने के बाद किसी का किसी से मतलब नहीं. '
सुनत-सुनते दोनों महिलाओं ने चाल धीमी कर ली थी.
'अब इस केस में आगे क्या..?'
कान खड़े हो गये वहीं रुक गईँ .
डॉ.मानस का स्वर था -
'जब आना उसी ठिकाने है तो काहे को दुनिया भर के तमाशे ,सीधे काम करने में शान घट जाती है ?'
'दूसरी समस्यायें सामने आती हैं ..'
' ये कहो ,दुकानदारी बन गया है  सब कुछ . लगाव न हो जाय कहीं ,ममता,मोह-छोह बाधायें बन गईं .रूखे-सूखे ढंग से फेंको बीज .फिर एक दूसरे बचते रहो, व्यभिचार किया हो जैसे.'
' मानस, तुम कैसे डाक्टर हो ?'
'मैं दूसरी लाइन पकड़ता बापराम ने ठोंक-पीट कर बना दिया ?
वे और धीमे चल रही हैं .
'...और डाक्टरों के नाम पर एक नई स्पेसी तैयार कर दी ?
' क्यों, डाक्टर बन कर क्या नॉर्मल इंसान नहीं रह जाता ?'
'हमारा काम कोशिश करना है, सो कर रहे हैं, कुछ तो हो ही जायेगा  .'
' अपन लोगों की मक्खन-ब्रेड का सवाल है न. '
'तुम्हारा सोचने का तरीका अजीब है ..'
कुछ लोग आते दिखे ,आगे बढ़ गईं दोनों.
*
आज डॉ. अमर ने साफ़ कर दिया ,
' अधिक वेट करने में आप लोगों को परेशानियाँ हैं तो संतान पाने का एक ही रास्ता दिखाई देता है.'
सबकी प्रश्न-वाचक दृष्टि चेहरे पर अनुभव कर बोले,
'जिस पक्ष का उपयोग नहीं हो पा रहा तो उसे बाहर करके ही  काम संभव है.'
  हैरिस के मुँह से निकला 'लेकिन... ?'
'ये 'लेकिन' ही तो सबसे बड़ी समस्या है.'
 सोच में थे डाक्टर भी.
'अब तो आप की नैय्या एक ही व्यक्ति पार लगा सकता है,' वे मोनिका  की ओर देख रहे थे.
'मैं अपनी ओर से कोई कोशिश बाकी नहीं छोड़ूँगी. इट्स माइ प्रामिज़!'
' नतीजा वही रहेगा . फ़ालतू प्रयोग में वक्त न ज़ाया हो तो आशा है जल्दी.. बशर्ते आपकी पत्नी को आपत्ति न हो '.
'मुझे क्यों ? ..मैं तो हर कीमत पर संतान चाहती हूँ.'
'बच्चा आपका, पर पत्नी भागीदार नहीं हो सकीं ,इसलिये उन्हें हटना पड़ेगा. आगे  ईश्वर का बनाया सबसे सीधा रास्ता.'
सब स्तब्ध.

अचानक ही फ़ुर्ती से बढ़ कर डॉ. मानस ने बैलेंस -बिगड़ी मोनिका की, गिरती हुई कुर्सी  थाम ली.
 हे, भगवान् !
*

(आगामी अंक में समाप्त.)

गुरुवार, 26 मार्च 2015

कोख का करार - तीन किस्तों में समाप्य (कहानी).

*
'बहुत भटक लिये अब जाकर हमारी खोज पूरी हुई .'
 हैरिस ने अपने मन की बात मोनिका की ओर देखते हुए कह दी, फिर पुष्टि के लिए पत्नी की ओर देखने लगे  .
'बड़ी मुश्किल से हमें मन पसंद  महिला मिली हैं . अब हमें और कहीं नहीं खोजना . हमें पूरा इत्मीनान हो गया  कि हमारे आनेवाले बच्चे को बहुत सुसंस्कृत माँ मिल रही है .'
मोनिका एकदम चुप ,सिर झुकाए सोच में लीन .
'आप तैयार तो हैं न ? .
उसने   सिर उठाया बोली, ' इतनी जल्दी मत कीजिये . थोड़ा समय  दीजिये मुझे. हड़बड़ी में हाँ कर लेना बड़ा मुश्किल लग रहा है. '
'आप करेंगी तो न ?' पत्नी की आवाज़ में कुछ गिड़गिड़ाहट उतर आई थी,' देखिये न ,हमारी मजबूरी है और आपको भी ज़रूरत है  .समय कभी एक सा नहीं रहता ..आज हम दोनों एक दूसरे का आसरा बन गए हैं..आप सोच-विचार कर देख लीजिये ... '
हैरिस ने पत्नी को समझाया
' जब हमारे पास वे ख़ुद आईं हैं ..,तुम बेकार शंका कर रही हो, जूली .'
मोनिका दोनों हाथों की अँगुलियाँ एक दूसरी में फँसाए हिलाए जा रही है .उत्तर कोई नहीं
जूली  चुप न रह सकी
' हमारी लाचारी है कि सब कुछ ठीक होते हुए भी रही  हम संतान नहीं पा सके. तभी ज़रूरत पड़ी ऐसी महिला की जो हमारे बच्चे को अपनी कोख में धर सके .आप ने रुचि दिखाई ,हमसे संपर्क किया .बहुत अच्छा किया. अब हमारी तरफ़ से 'हाँ' है तो आप किस सोच में पड़ी हैं.'
'मेरे लिए करने को कुछ बचा ही कहाँ  है .फिर भी कुछ ऊँच-नीच सोचे बिना ..'.
'बात पैसे की है ?
'सिर्फ़ पैसे की नहीं .तमाम बातें आती हैं मन में ... '
जूली लाचार- सी , पर चुप भी न रह सकी,
'...यों तो बहुत तैयार हो रही थीं पर . हम नहीं चाहते कोई गिरी हुई मानसिकता वाली हमारी संतान धारण करे .मन पुसाय तो पैसा इतनी बड़ी बात नहीं है .माँ के संस्कार संतान में  आय़ेंगे ही. इस बीच तरह-तरह की औरतों से वास्ता पड़ा .दिखाती कुछ हैं पर अस्लियत कुछ और होती है  सिगरेट पीना ,ड्रिंक करना और भी जाने क्या-क्या . .एक झूठ पकड़ में आ जाये तो मन हट जाता है .आपको देख कर हमें पूरा संतोष होगया है .'
'इतना विचित्र ,इतना बड़ा !काम थोड़ा समय तो दाजिये  ..मन को पूरी तरह तैयार कर लूँ पहले .'
कुछ देर कोई कुछ न बोल पाया.
 'आप पर अचानक जो आ पड़ी  सुन कर बहुत दुख है , हम मजबूरी का लाभ नहीं उठाना चाहते ... आपसे पूरी सहानुभूति है. खातिर जमा रखिये  हमसे आपको कोई शिकायत नहीं होगी .आपको कैसा लगता होगा समझ रहे हैं हम .बस विश्वास ही दिला सकते हैं कि आपको निराश  नहीं होना पड़ेगा.हम भी  इज्ज़तदार लोग हैं ,अच्छे परिवार के .' 
पति के कथन पर जूली  समर्थन की मुद्रा में .
मोनिका की समझ में नहीं आ रहा क्या कहे .
  ' मैं क्या कहूँ आपसे .मेरे भीतर क्या-क्या चलता है कौन समझेगा ..  माता-पिता के एक्सीडेंट की खबर मिली तो अपनी सहेली के घर पर थी.....' भावावेग में वाणी कुछ क्षणों को रुँध गई , ' उसी के माता-पिता ने साधा-सहेजा , मेरे तो पैसा भी नहीं गाँठ में कि आगे की ज़िन्दगी के बारे में सोच पाऊँ, इतना समय हो गया  सहेली के मात-पिता ने बहुत सहारा दिया. पर हर बात की एक हद होती है. '

'हमें सब पता है आप पर अचानक आ पड़ी विपदा और आपका यों अकेले रह जाना ..पर बहुत हिम्मत की आपने इतने धीरज  से काम लिया  ....'
'विषम काल में बुद्धि ही रास्ता दिखाती है कोई उपाय तो अपनाना पड़ता है .जब हम दोनों के टर्म्स स्पष्ट हैं कहीं किसी धोखे की गुंजाइश नहीं . और कोई गलत काम नहीं कर रहे .कोई डर नहीं सब साफ़ है ,'हैरिस ने फिर अपनी बात रख दी.'
'डर किसी का नहीं....पर पहले अपना मन पक्का कर लूँ .'
'ठीक है हम एक हफ़्ते और इंतज़ार कर लेंगे  .
' वैसे  हम समझ रहे हैं आपकी उलझन .शादी भी नहीं हुई आपकी .माँ बनने की बात बड़ी अटपटी लगती  होगी .घबराहट  लगेगी ही.  हम अपनी तरफ़ से हर कोशिश करेंगे कि कोई बाहरी परेशानी न हो आपको .
नई जगह रहने का सारा प्रबंध, जहाँ कोई जानता नहीं हो और उस सारे व्यय का जिम्मा हमारा .आपके  हिस्से पर  कोई आँच नहीं आयेगी.  यह तो नई जगह है  नये लोग ,फिर आजकल किसे इतनी फ़ुर्सत है. इन फ़्लैटों के कल्चर में जिसे  जो बता दें वही ठीक .नौ-दस महीने गुज़रते क्या देर लगती है.'
'आप  अपना समय लीजिये ,तनाव में मत रहिये ,शान्ति से विचार कीजिये.'
 'अभी चलती हूँ ,' वह उठने लगी.
हमलोग उधर ही जा रहे हैं आप को छोड़ते चले जायेंगे .

*
'ज़रा समझने की कोशिश करो जूली .थोड़ी सबूरी रखो  , एक तो कँवारी लड़की  बहुत उमर भी नहीं है अभी,..24-26 से ऊपर नहीं लगती?'
'हद से हद 25 या छब्बीस ,इससे आगे नहीं .'

'अचानक मुसीबत पड़ गई .कोई  अपना सगा नहीं .बिलकुल अकेली रह गई  .अभी कुछ ही महीने हुए हैं .'
 जूली सहमत है ,' रिश्तेदारों से परेशान हो गई .मुझसे काफ़ी खुल कर बात करती रही . बता रही थी ,एकाध तो उसे अपने हिसाब से पटाने चक्कर में थे.'
 'फुसलानेवालों की कोई कमी है क्या ?' हैरिस ने स्वीकार किया ,यहाँ भारत में हालात और भी अजीब हैं .
पर बड़ी हिम्मतवाली है '
'क्या करे जब सिर पर पड़ती है तो झेले बिना छुटकारा कहाँ ?'
लाचार देख कर सब फ़ायदा उठाना चाहते हैं .पैसे के बिना दुनिया में कहीं गुज़र नहीं. काम तलाश रही  है -टाइम तो लगेगा.
'एयर लाइन से मुआवज़ा मिलेगा उसे.बात चल रही है  पर पता नहीं कित्ते पापड़ बेलने पड़ें खर्चा ही खर्चा हर कदम पर ..'.
'अब ये न हाथ से निकल जाय किसी तरह सधी रहे .पैसे का मुँह देखने का समय नहीं. कैसे भी यह काम हो जाय,' जूली की अपनी चिन्ता व्यक्त हो गई.
'बेचारी ! '
'हाँ ,तरस तो आता है.आज को माँ-बाप होते तो काहे को ...' एक उसाँस ली  जूली ने ,'लेकिन कोई  कर क्या सकता है ?

'अमेरिका में पली बढ़ी है इसलिए इतना सोच भी सकी .,वो यहाँ रहेगी भी नहीं . कह रही थी इतनी बंदिशें हैं .अपने ढंग से रह नहीं सकती ,निश्चिंत हो कर काम कर सकती नहीं .कहीं आने-जाने में डर और सबसे बड़ी बात  इज्ज़तदार कमाई का कोई रास्ता नहीं मिल रहा.'
'बेबस जान कर लोग गिद्ध की तरह घेरने चले आते हैं.वह  किसी का एहसान नहीं लेना चाहती सहायता करने वालों की असलियत जानती है  ....लड़की  दीन-हीन बन कर रहना नहीं चाहती ..अपने दम पर जीना चाहती है .'
मुझसे तो  काफ़ी बातें हुईँ कह रही थी - मजबूरी में यह कदम उठा रही हूँ.'
मैंने  समझाया कोई पाप नहीं कर रही हो  ,किसी को धोखा नहीं दे रही हो .अपनी ग़ैरत का सौदा नहीं है यह .सम्मान से जीने की सुविधा बहुत ज़रूरी है  तुम्हारे लिए.'
'उसे घबराहट होती है ,ज़रूर होती होगी .थोड़ा समय तो लेगी ही.'

हैरिस ने अपने ढंग से जान कारी  इकट्ठी कर ली थी पर सहज व्यवहार हेतु  लड़की से भी  पूछना-बताना होता रहा
 ,' आपके संबंधी  रिश्तेदार वग़ैरा कोई ,,,?'
'रिश्तेदार ?नहीं जानती और कोई है कि नहीं पता भी नहीं है  .उस एक्सीडेंट के बाद कोई सामने नहीं आया .जो आए वे अपने मतलब से...आगे बोलते उसका गला भरभरा आया ,कुछ देर को चुप हो गई.
रहने दीजिये .. हर बात जानना ज़रूरी भी नहीं.'
'ऐसा कुछ नहीं ..कि बता न सकूँ..
 ...मेरे माता-पिता ? उनकी लव मेरिज थी पिता क्रिश्चियन थे माँ हिन्दू .वहीं पली  पली-बढ़ी थीं . पिता काम से लग गये थे ,माँ  पढ़ रहीं थीं ,माँ  के घरवाले तैयार नहीं थे अपने लोगों में ब्याहना चाहते थे ,इन लोगों ने कोर्ट मैरिज कर ली ,पिता का परिवार से  खास जुड़ाव नहीं रहा था,बाद में आना-जाना होने लगा  .रिश्तेदारों की बातें होतीं थीं कभी-कभी, पर कभी किसी से व्यवहार नहीं रहा .बस यों ही सब कुछ अच्छा चल रहा था .मेरी पढ़ाई पूरी होनेवाली थी. मीना मेरी अच्छी दोस्त है, तीन साल से हम साथ हैं .छुट्टियों में कई बार मेरे घर रही है. अबकी से मुझे साथ ले आई कि चलो भारत घुमा लाऊँ . मुझे भी माँ से सुन-सुन कर यहाँ आने का चाव जगा था .उस के साथ कुछ दिन को आई थी .. बस हफ्ते भर बाद प्लेन दुर्घटना में ...आगे आपके मालूम ही है..' कहते-कहते वह रो पड़ी .
' ..हे भगवान् !किसी पर ऐसा दुख न पड़े..!'
*
...'और आप लोग,' मोनिका ने पूछा था ,मूल निवास कहाँ का रहा ?
'हैं तो यहीं के .पर दो पीढ़ी पहले बाबा कनाडा जा बसे थे .वहीं अपना बिज़नेस जमा लिया .
और सुनिये नाम हरीश  था ,सो हैरिस हो गया ' .
मुस्कराहट दौड़ गई दोनों के मुख पर .लोग हमें फ़ारेनर समझ लेते हैं अच्छा है हमारे मामलों में  दखल नहीं देते
'वही समझ कर तो मैं भी, मैं भी .. .तभी आपका प्रपोज़ल जान कर  चली आई.'
'यहाँ कुछ रिश्तेदारी है अभी ,और यहाँ सरोगेसी में आसानी है फिर ये कि वो  यहाँ रहेगी हम वहाँ . तो आगे कभी मिलने-जुलने का सवाल नहीं उठेगा.'
'खर्चा भी कम होता होगा यहाँ?'
'हाँ, ये बात भी है.अच्छी तकनीक उपलब्ध है और लागत भी अपेक्षाकृत कम .'

मोनिका फिर अपनी सुनाने लगी -
'यहाँ लोगों को हर बात से मतलब रहता है -शादी,माँ-बाप ,कहाँ जाना -हे भगवान !क्या करती हो ?अरे ट्रेन में बैठे -बैठे तक पूछ लेते हैं.पहले तो हँसी आती थी पर अब  चिढ़ छूटती है . इतनी-पूछा-बताई कि आराम से जीना मुश्किल ..'
'जानती हूँ यहाँ का हाल सारा, शिजरा पलटने पर तुल जाते हैं लोग..'
'मैं स्टेट्स में पली-बढ़ी यहाँ जैसी नहीं रहती न . वे समझ लेते हैं चालू लड़की है .'

  'मैं वहीं लौट जाना चाहती हूँ.यहाँ रहना मेरे बस का नहीं. इन हालतों में और भी मुश्किल .बस ज़रा हाथ मज़बूत हो जायें इसीलिये तो...ये सब .'
' बिलकुल सही ,इस काम के बाद आप आराम से जा सकती हैं.तब तक समझ लीजिये हमारी गार्डियनशिप.. '
' थोड़ा समय दीजिये ,विचार करने को .मुझे भी सोचना होगा कैसे क्या करूँ .इतना बड़ा काम ,इतना विचित्र .अच्छी तरह सोच-समझ लूँ पहले .
साधारण सौदा नहीं है, मैं ईमानदारी से करना चाहती हूँ  .एक नया जीवन रचना है . केवल तन से नहीं पूरे मन से और निष्ठा से .'
' हम समझ रहे हैं आपको .तभी आप पर विश्वास जम गया है ...'
' पैसे की बहुत ज़रूरत है तभी तो ..'
आपकी मुश्किलें सच में  बहुत भारी हैं नहीं तो यों साहस भरा कदम उठाना क्या कोई आसान काम है!'
जूली चुप न रह सकी ,'  पर आप तैयार तो हैं न  ?'
सिर झुकाए सोचती रही वह,' और कोई उपाय नहीं .. बस,ज़रा मन को साध लूँ ..'

जिस दिन आप की 'हाँ' होगी सात लाख घर पहुँच जायेंगे .बाद में पूरा काम होने पर हाथ के हाथ भुगतान ..आप डालर में चाहें तो.. जैसा आप कहें....'
मोनिका ने सिर हिला दिया
*

मंगलवार, 17 मार्च 2015

नारीत्व की देह-यात्रा


नारीत्व की देह-यात्रा : साहित्य के दर्पण में .
भाग -1.
देह-यात्रा इसलिये कि नारी की बात आते ही उससे प्राप्त सौन्दर्य-सुविधा-सेवा की सुखानुभूति में लीन किसी की दृष्टि उसके मन और आत्मा तक नहीं पहुँच पाती. नीति-शास्त्र, आचार-विचार, धर्मोपदेश सब का एक ही मूल-स्वर - सेवा-सुश्रुषा करते हुए पुरुष के अधीन ,और अनुकूल रहने में ही उसका कल्याण है, कहीं भी त्रुटि होने पर वह एकदम त्याज्य- ज्यों माटी का भाँडा .नारीत्व का इतना भर प्रयोजन समाज के लिए पर्याप्त समझा गया.  पौराणिक-गाथाओं में भी यही प्रतिपादन मिलता है -पिता के द्वारा उधार दी गई पुत्री माधवी के शरीर-उपभोग से अर्जित- श्यामकर्ण घोड़े गालव का प्राप्य , दान के पुण्य-भागी पिता. और माधवी? चार राजाओं और गालव के गुरु की  भोग्या बन उनके लिये चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न करने के बाद रिक्त ही लौट आई ,अपनी अगली ड्यूटी  पिता के कन्या-दान की चाह पूरी करने . शैव्या बिकी, सत्यवादी  हरिश्चंद्र को यश मिला .पुरुषार्थ- चतुष्टय पुरुष के लिए है,और इस साधना में  सांसारिक उद्देश्य पूरे करने तक वह सहधर्मिणी है, आत्मिक उन्नयन केवल पुरुष के हिस्से ,स्त्री की सार्थकता उसके त्यागे हुए को निभाने में स्वयं को खपा देना है .और तो और काव्य की संवेदना भी उसे व्यक्ति होने का गौरव नहीं दे पाई .
साहित्य-रचना वैयक्तिक प्रक्रिया होते हुए भी समाज-सापेक्ष होती है,इसलिये साहित्यिक रचनाओं में वैयक्तिकता और सामाजिकता का विलक्षण समन्वय दृष्टिगत होता है. लेखक का व्यक्तित्व उसकी स्वैच्छिक और स्वतंत्र रचना न होकर किसी समाज के अंतर्गत,उसके प्रभावों से निर्मित और प्रभावित होने के कारण समाज और साहित्य का संबंध अति घनिष्ठ होता है और किसी भी युग के लेखन से तत्कालीन सामाजिक स्थितियों का अनुमान किया जा सकता है.हिन्दी साहित्य के विभिन्न युगों के अनुशीलन द्वारा हम तत्कालीन समाज की नारी के प्रति दृष्टि की खोज कर सकते हैं.
     हि.सा. का प्रारंभ ईसा की  दसवीं शताब्दी से माना जाता है .किसी भाषा के साहित्य का आविर्भाव कोई आकस्मिक घटना नहीं होती,उसके रूप निर्धारण के पीछे पिछले युगों के प्रभाव काम करते हैं.हिन्दी की पृष्ठभूमि में भाषाओं की जो सुदीर्घ परंपरा रही है उसमें संस्कृत,पालि.प्राकृत और अपभ्रंश के नाम आते हैं.
संस्कृत इस परंपरा में सर्वाधिक प्राचीन है जो परवर्ती युगों के साथ विकसित होती रही और और युगीन प्रभावों को आत्मसात् करती रही .छठी शताब्दी के बद नारद,बृहस्पति,याज्ञवल्क्य,मनु आदि ने स्मृतियों की रचना की जिनमें वर्णाश्रम और राजधर्म के साथ नारी-धर्म की भी चर्चा है.इनमें भी मनु-स्मृति का विशेष महत्व है ,जिसके 5,9 तथा 11वें अध्यायों में स्त्री-पुरुष संबंधों पर प्रकाश डाला गया है.
सामाजिक मान्यताओं पर इन स्मृतियों का दूरगामी प्रभाव पड़ा जो साहित्यिक रचनाओं में बिंबित हुआ .
प्रायः सभी स्मृतिकारों ने नारी धर्म में नैतिकता को अपरिहार्य माना .एक ओर आत्मा को शरीर से अधिक महत्व दिया गया - शरीर को भंगुर और बाह्य आवरण मात्र बताया गया ,लेकिन जहाँ नारी की बात आती है ,उसकी शुचिता और सत् का आधार केवल शरीर रह गया .पुरुष के प्रति उसकी अनन्य निष्ठा सब-कुछ हो गई ,शेष सब गौण हो गया. नैतिकता के मानदंड केवल नारी के लिये रह गये ,यदि पुरुष के लिये भी नैतिकता अनिवार्य रही होती तो आज भारत का चरित्र ही कुछ और होता.स्त्री को घर की शोभा और सम्मान का  पात्र माना गया पर उसे स्वतंत्र रहने योग्य नहीं समझा गया.यह नियंत्रण संबवतः पुरुष के विषयी और वासनापूर्ण स्वभाव के कारण लगाया गया. जिसका परिणाम केवल नारी के हिस्से में आता है..सृष्टि की परंपरा चलाने का दायित्व प्रकृति ने नारी को दिया और तदनुरूप शारीरिक संरचना के कारण उसे जीवन-पर्यन्त सुख-सुविधा और संरक्षण देने के लिये जो दायित्व पुरुष को विभिन्न संबंधों के माध्यम से सौंपे गये कालान्तर में उसके अधिकार के प्रतिपादक बन गये और नारी अबला और निरीह हो कर पुरुष पर आश्रित होती गई .
नारी-परक अभिव्यक्तियों के निरीक्षण के लिये पहले उसकी दो श्रेणियों की पड़ताल करना उचित होगा.-1.धार्मिक और नीतिपरक साहित्यऔर 2.लौकिक साहित्य.
संस्कृत की नीतिपरक उक्तियों में (विदुर नीति, भर्तृहरि नीति,चाणक्य नीति आदि में )नारी निन्दा का स्वर मुखर रहा है,उसके गुणों की ओर से आँखें मूँद कर ,जीवन में उसे मिलनेवाले कष्टों ,उपेक्षाओं और वंचनाओं की अनदेखी कर ,उसके अवगुणों को बढ़-चढ़ा कर वर्णित किया गया.पापाचारिणी,मिथ्यावादिनी कह कर उसकी साक्षी न लेने का आदेश दिया गया.यहीं नारी-स्वभाव के आठ दोषों के बारे में बताया गया . फिर आगे के कवि इसी परंपरा को खीचते चले गये.
संस्कृत के लौकिक साहित्य में नारी के प्रति पर्याप्त संतुलित दृष्टिकोण रहा .वहां पुरुष उसकी कामना करता है और उसे स्वयंवर का अधिकार है
परिवार में पुत्री,भगिनी,वधू और माता के रूपों में वह सम्मान की पात्र है.यहाँ नारी के विरह में पुरुष की व्यथा-वेदना के मार्मिक वर्णन प्राप्त होते हैं.
कालिदास के काव्य में नारी के  उदात्त चित्र अंकित हुए हैं.वराहमिहिर के अनुसार ब्रह्मा जी ने स्त्री से बढ़ कर और कोई रत्न इस संसार को नहीं दिया.एक बड़े मार्के की बात उन्होंने कही,कि जो लोग नारी निन्दा करते हैं वे उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे की उक्ति चरितार्थ करते हैं.
संस्कृत काव्य में नारी, सौन्दर्य की प्रतीक,प्रेरणा की मूर्ति और आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु रही .
कहीं-कहीं उसकीशारीरिक और मानसिक दुर्बलताओं की निन्दा भी की गई  ,लेकिन दृष्टिकोण में पूर्वाग्रह और असंतुलन नहीं है.
  आगे चल कर यह संतुलन बिगड़ता गया .बौद्ध धर्म की निवृत्तिमूलकता ने संसार त्याग करने के लिये नारी के प्रति पुरुष के आकर्षण को विकर्षण में बदलना चाहा.अश्वघोष के बुद्ध-चरित'  और सौन्दरानन्द में इसी दृष्टिकोण के अनुरूप नारी का वीभत्स वर्णन मिलता है.,उसे जर्जर भाण्ड के समान दूषित ,कलुषित और कुरूप बताया गया,मानो पुरुष के शरीर का निर्माण किन्हीं दूसरे तत्वों से हुआ हो .
निवृत्तिमार्ग के इन पथिकों ने पुरुष के मन में विरक्ति जगाने के लिये,सारी दुर्बलताओं,दोषों और दूषणों का आरोपण उस पर कर दिया.आगे के कवि जिनमें संत कवियों का नाम सबसे ऊपर है ,उस परंपरा को यथावत् ग्रहण कर आगे बढ़ाते गये.बाद के रामभक्त कवि भी नारी को हीन ,आठ अवगुणों से पूर्ण और ताड़ना के योग्य कहने से नहीं चूके.
   बौद्ध धर्म का साहित्य पालि भाषा में रचा गया जिसमें दुखमय संसार के त्याग का स्वर ही प्रधान रहा.संस्कृत साहित्य में जो नर-नारी एक दूसरे के पूरक थे,गिरा अर्थ जल-बीचि सम एक दूसरे से अभिन्न थे,अज-इन्दुमती,और विक्रम-उर्वशी के समान एक-दूसरे के सहचर थे,उनके संबंध अब बिलकुल बदल गये. यह संबंध अब दो व्यक्तियों ,दो आत्माओं का सहज-स्वाभाविक संबंध नहीं रहा ,उसमें से साझेदारी का भाव तिरोहित हो गया .पुरुष की संगिनी और मित्र होने के स्थान पर वह अनुगामिनी और भोग्या मात्र रह गई .मानवी के स्थान से च्युत कर उसे दो रूपों में देखा जाने लगा - देवी और दासी.और यही दासी आगे चलकर माया,ठगिनी और डाकिनी में परिवर्तित हो गई.जहाँ वह माता है ,श्रेष्ठ आचरण वाली है ,पुरुष के प्रति पूर्ण समर्पण में अपने व्यक्तित्व को लुप्त कर देती है वहाँ वह पूजित हो कर भी मानवीय जगत से अलगाव की स्थिति में है .व्यक्तित्व की गरिमा उसे नहीं मिली और सहयात्री होने के गौरव से उसे वंचित कर दिया गया.फिर भी कहीं-कहीं नारी की अस्मिता साहित्य में मुखर हुई है.
   संस्कृत के काव्य ललित विस्तर और अश्वघोष के बुद्ध-चरित में गौतमबुद्ध की पत्नी गोपा के चरित्र को उभारा गया है. वह सिद्धार्थ द्वारा पुरस्कृत होने पर अवगुण्ठन खोल कर सभा में प्रवेश करती है. रनिवास के विरोध करने पर वह उत्तर देती है-.'वस्त्र की सहस्र तहें भी लज्जाहीन के व्यक्तित्व और स्वभाव को नहीं ढँक सकतीं,किन्तु गुणी और सात्विक व्यक्ति तो अनावृत्त हो कर रत्न की तरह विचर सकते हैं'
नारी-चरित्र का यह अनुपम उदाहरण है.
  जैन काव्यों का प्रणयन धार्मिक प्रेरणा से हुआ है. इस काल के जैन कवियों ने भी मानव को प्रबोधित करते हुये भोगों की क्षणभंगुरता और भौतिक स्वरूप की नश्वरता तथा परनारी-गमन की अनैतिकता की ओर ध्यान आकर्षित किया .परन्तु जैन काव्यों में नारी को व्यक्ति होने का गौरव भी मिला है..राजमती स्वेच्छा से नेमिनाथ का वरण करती है.उसके उदासी हो कर चले जाने पर अनब्याही रह कर अपने जीवन को साधना के मार्ग पर प्रवृत्त करती है.
   बौद्धों की हीनयान शाखा का विकास वज्रयानी और फिर सिद्ध-परंपरा के रूप में हुआ. सर्व प्रथम इन रचनाकारों की सामाजिक स्थिति पर दृष्टि डालना उचित होगा क्यों कि आचार-विचार व्यवहार और मान्यताओं पर उस वर्ग और परिवेश का प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है जिसके बीच जन्म और पोषण पाकर कोई व्यक्तित्व निर्मित होता है.
डॉ. धर्मवीर भारती ने सिद्धों को शूद्र माना है और कहा है कि निम्न वर्ग की स्त्रयों से विवाह कर उन्होंने उनकी आजीविका को अपना लिया.ये प्रकृतिक जीवन के उपासक थे,इनके आचार-विचार भोगवादी थे.इस संप्रदाय में भोग, धर्म पालन का एक साधन बन गया था . पंचमकारों का सेवन मान्य था और नारी को मुद्रा नाम से अभिहित किया जाता था.निम्न वर्ग की तरह देह-प्रधानता कह सकते हैं. नारी को उन्हों ने साधना हेतु माध्यम बनाया था.उनके अनुसार सिद्धि प्राप्त करने के लिये नारी सेवन अनिवार्य था.
सिद्धों की मान्यता थी कि प्रथमानन्द,बिरमानन्दऔर सहजानन्द की प्राप्ति स्त्री द्वारा ही संभव है. इन्हीं मान्यताओं का प्रभाव उनके साहित्य पर है.उनके लिये नारी मात्र एक साधन है.केवल शरीर उनके लिये ग्राह्य था .इसलिये जितनी निम्न जाति की होगी उतनी ही उनकी साधना के उपयुक्त होगी.उच्च स्तर की महिलाओं में मनस् और आत्मा का तत्व देह को गौण बना देता है अतःवे देह-सुख शुद्ध दैहिक स्तर पर न ले सकेंगी ,न दे सकेंगी. नारी के पतन की कथा को उन्होंने आगे बढ़ाया और व्यभिचार को साधना का नाम दे कर उस समय के साधकों ने समाज को गुमराह किया.सच्चे सिद्ध तो विरले ही होते थे पर साधना के नाम पर भोग करनवालों की कमी नहीं थी. सिद्धों की रचनाओं में नारी का प्रतीकात्मक रूप मिलता है और उनकी दृष्टि समाज-सापेक्ष नहीं है.
   सिद्ध-संप्रदाय की नाथ-संप्रदाय में परिणति का श्रेय गुरु गोरखनाथ को है .सिद्धों की स्वैराचार साधना के स्थान पर उन्होंने शील और सदाचार का मार्ग अपनाने की बात कही और योग-मार्ग पर बल देकर इन्द्रिय-निग्रह का महत्व प्रतिपादित किया .उनका कथन है  -
'कन्या कुमारिका नग्ना उन्मत्ता अपि योशिता,
न निन्देत् जुगुप्सेत् न हसेन्नावमानयेत्,
एक वृक्ष श्मशान च समूह योशितामपि
नारी च रिक्त वसनाम् दृष्टा वन्देत् भक्तितः'
  नारी को सम्मान देते हुये उन्होंने कामुकता का पूर्ण बहिष्कार किया.उनके मतानुसार नारी साधकों के संग शोभा नहीं देती.संसार त्यागने के लिये इन कवियों ने नारी का त्याग आवश्यक माना क्यों कि नारी, प्रवृत्ति की ओर ले जाती है.और वह मार्ग इन्हे काम्य नहीं था.ये निवृत्ति मार्ग पथिक थे और समाज से निरपेक्ष हो कर वैयक्तिक उन्नयन की ओर अग्रसर रहे.
     अपभ्रंश के साहित्य में सामन्तवादी समाज-व्यवस्था का चित्रण है.युद्धों में विजय पाना और भोगों को छक कर भोगना राजाओं के दो ही काम रह गये.नारी पुरुष की तुष्टि का हेतु बनी और भोग्या रूप में उसका चित्रण साहित्य का विषय हो गया.
उसका सौन्दर्य पुरुष को लुभाता है ,और उसे पाने के लिाये भीषण युद्ध होते हैं
स्त्री का काम है मिलन-काल में पति को तुष्टि देना और विरह-काल मं भिन्न-भिन्न ऋतुओं के अनुसार अलग-अलग ढंग से रोना-कलपना.
पुरुषों के द्वारा मनचाहे विवाह भी उसके जीवन में दुख और वेदना का कारण बने रहे.वह अधिकारहीन,  निरीह और दयनीय स्थिति को प्राप्त होती गई.
ईसा की पहली शताब्दी से ही नारी की स्थिति गिरने लगी थी.दिगंबर सिद्ध आचार्यों को वह सिद्धि के मार्ग में रोड़ा प्रतीत हुई,वे उसे अज्ञान, दुख और नरक की ओर ले जानेवाली मानने लगे .पुरुष की दुर्बलता का दायित्व नारी पर डालते हुये जैन आचार्यों ने कहा कि नारी की वाणी में अमृत और हृदय में विष होता है. बौद्ध-काल में सतीत्व का आदर्श प्रतिष्ठित रहा,और नारी को हेय माना गया.'कण्डिन-जातक ' में कहा गया है कि उस जनपद को धिक्कार है जिसका संचालन स्त्रियाँ करती हैं. उस काल में नारी का आदर्श था कि वह पति के प्रति समर्पित और निष्ठावान रहे,अपमान ,तिरस्कार और कष्ट सह कर भी मन में दुर्भावना न रखे,कुण्ठा न पाले .पुरुष को अधिकार है कि जब चाहे उसे त्याग दे क्यों कि उसके जीवन का ध्येय उच्च है.(पुरुष केवल पुत्र परिवार तक सीमित नहीं है ,जब कि नारी जीवन  का लक्ष्य यही है कि इसी मनें अपने अस्तित्व को विलीन कर दे.यदि वह परिवार त्याग कर निकल जाता है तो उसकी संतान के पोषण का दायित्व स्त्री का है.संसार की विषम स्थितियों को झेलना उसकी नियति है जो उसे अकेले सहन करना है.नारी जीवन की करुणाभरी कहानी उन 'थेरी-गाथाओँ' में मिलती है जो स्त्रियों द्वारा रचित हैं. प्रारंभ में बुद्ध की करुणा के कपाट केवल पुरुषों के लिये खुले थे.नारी का प्रवेश निषिद्ध था .बाद में उसे सद्धर्म में दीक्षित होने का अधिकार मिला लेकिन वह केवल तभी जब उसे अपने स्वामी की अनुमति मिल जाये.इस मामले में कुल-स्त्री से अधिक भाग्यशाली वेश्यायें रहीं,जो स्वाधीन थीं. एक ओर सामान्या के नाम पर व्यभिचार उचित ठहराया जा रहा था.दूसरी ओर था दरबारों और रजवाड़ों का विलासी जीवन.जिस पर मन आया उठवा कर हरम में डाल लिया.एक बार किसी की भोग्या बन जाने के बाद स्त्री के लिये कहीं जाने को कोई रास्ता नहीं बचता था.यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार जनता का आचरण भी तदनुरूप हो गया था.ऐसी स्थिति में पुरुष की काम-पिपासा पर नियंत्रमण लगाने तथा उसे विरक्त करने के लिये संतों ने नारी देह की निन्दा शुरू की .उनका उद्देश्य जन सामान्य को ऐन्द्रिय-सुखों से विमुख कर आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख करना था. इहलोक से वैराग्य और गृह-त्याग का पाठ उन्होंने पढ़ाना शुरू कर दिया.उन्हें यह भी प्रतीत हुआ कि नारी को स्वीकार कर उन्हें संसार को स्वीकार करना होगा और समाज के नियंत्रण में रहना होगा . ऐसी स्थिति में कर्मठ जीवन बिताना आवश्यक होता .मनमौजीपन अथवा निठल्लापन उनमें से अधिकाँश के स्वभाव में था  'मैं भी भूखा ना रहूँ ,साधु न भूखा जाय' यह उनके लिये पर्याप्त था. पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण की चिन्ता उन्हें नहीं थी.वे घर जला कर हाथ में लुकाठी ले कर खड़े हो गये और दूसरों को भी घर जला कर अपने साथ चलने की प्रेरणा देने लगे.
     प्राचीन आश्रम-पद्धति में नारी केवल गृहस्थाश्रम में ग्राह्य थी,वानप्रस्थ में वह पुरुष का साथ दे सकती थी किन्तु शेष दोनों आश्रमों में वह निषिद्ध थी.संतों ने वर्णाश्रम से विद्रोह किया था,गृहस्थाश्रम में उनकी आस्था नहीं थी .वे निर्बंध,विमुक्त रहना चाहते थे
इसलिये नारी के साथ निबाहना उनके स्वभाव मैं नहीं था.यही कारण है कि संसार की असारता के साथ नारी-निन्दा का स्वर उनके काव्य में प्रधान रहा .
संतों के काव्य में नारी-निन्दा प्रतीकात्मक है और कुलटा नारी की निन्दा करते हुये उन्होंने सती और पतिव्रता की प्रशंसा की है .उन्होंने यौन-भाव को गर्हित माना और और पुरुष की दुर्बलता के कारण नारी पर प्रतिबंध लगाना उचित समझा.कुछ संतों ने संतुलित दृष्टिकोण का परिचय भी दिया है-दादू ने शीलवंत पुरुषों पर विचार करते हुये कहा-जो पुरुष नारी को देख कर नारी हो जाय वह  शीलवंत है.उन्होंने दाम्पत्य के माधुर्य का निरूपण भी किया जिसमें दोनों को समान स्तर पर प्रतिष्ठा दी.उनके अनुसार नारी-नर एक दूसरे को बैरी हैं ,नारी नर को पीती है और नर नारी को खाता है. इस प्रकार अज्ञानवश दोनो विलीन हो जाते हैं.
संत रज्जब   एक प्रश्न बड़ी परेशानी में डालनेवाला है कि प्रत्येक स्त्री मातृरूपा है तो फिर उससे भोग-विलास कैसे किया जा सकता है!आश्चर्य यह है कि उन्होंने  शरीर और आत्मा के धर्म को एक कैसे मान लिया. शरीर माता ,वधू ,कन्या अनेक रूप धारण करता है पर आत्मा इनसे परे है.मुश्किल यह है कि ये लोग नारी को सिर्फ़ 'देह' के रूप में देख पाते हैं.संत सुन्दरदास ने नारी की सराहना करनवाले को महा गँवार बताया.नारी शरीर की निन्दा करते हए वे कहते हैं-उसका रोम-रोम मलिन है ,सभी इन्द्रियाँ मलीन हैं हड्डियाँ मासँ और मज्जा मेद और चमड़े से लिपटा है ,उदर में विकार और स्थान-स्थान पर रक्त भंडार भरे हैं- वीभत्सता की पराकाष्ठा पर पहुंचते हुए वे कहते हैं -परुष मूत्र हू आँत एकमेक मिलि रहीं .
अतः नारी निन्दा रूप है जैसे पुरुष शरीर का निर्माण किन्हीं और वस्तुओँ से हुआ हो.
संत गरीबदास का कथन फिर भी ठीक है कि जो बिना विचारे नारी-गत होता है उसकी दुर्गति अवश्यंभावी है.
संतों की परंपरा में और नारी निन्दा में पहला नाम कबीर का .यों तो कबीर बड़े क्रान्तिकारी और बहुत संवेदनशील थे,इतने कि चक्की चलती देख रो पड़ते थे. पर इस ओर कभी उनकी दृष्टि नहीं गई कि कि संसार के बंधनों में नारी भी उतना ही छटपटाती होगी ,जितना कि पुरुष .क्योंकि ईश्वर ने दोनों को समान रूप से मन,आत्मा और इन्द्रियाँ दे कर सिरजा है और दोनों एक ही पथ के सहयात्री हैं. नारी को ठगिनी,पापिनी ,डाकिनी-नागिनी कह कर वे क्या कहना चाहते हैं?यही न कि पुरुष उससे बचे.एक प्रश्न उनसे पूछने का मन होता है- 'जो तू सच में पुरुष कहाया,नारी देह से काहे आया?"
बात केवल कबीर की नहीं अधिकतर संतों और निर्गुणियों की है.लेकिन जिस परिवेश से वे लोग आए थे वहाँ घर की स्त्रियों से गाली-गलौज करना ,घर के उत्तरदायित्व से कन्नी काट जाना और अपने अहं की तुष्टि के लिये  स्त्री पर दोषारोपण करना रोज़मर्रा की बात थी.आज भी समाज के निम्न-वर्गों में यही सब देखने को मिलता है.बल्कि स्त्री परिश्रम कर अपना और बच्चों का पेट भरने को धनार्जन करती है तो आदमी उसे भी हड़प जाना चाहता है,ऊपर से आशा करता है कि वह सती-पतिव्रता बनी रहे .
इन संतों में सभी निम्न-वर्ग के नहीं थे इसलिये उन के विचारों में भी अंतर है.
जगजीवन साहब ने नारी-निन्दा न कर सदाचारी जीवन पर बल दिया उनका कथन है-
गृहिणी त्याग कहा वनवासा .
जो उनके सुलझेपन का द्योतक है.उन्होंने पुरुष और नारी के भेद को व्यर्थ बताते हुए उन्हें एक ही वस्तु के दो नाम माना और दोनों में जीवात्मा की समान रूप से विद्यमानता की बात की.संत दूलनदास के अनुसार भी -
'जगतमातु वनिता अहै दूसी जगत जियाव,
निन्दनजोग न ये दोऊ कह दूलन सतभाव .'
डॉ. अंबाशंकर नागर का मत है ,'संत-काव्य एक समूह-गान जैसा है जिसकी पहली पंक्ति को कोई प्रतिनिधि संत गाता है और शेष संत उस रामधुन में उसके द्वारा गाई गई पंक्ति को दोहराते रहते हैं.'
निन्दा के इन्हीं स्वरों का निर्वाह अधिकतर संतों में प्राप्त होता है.सोच-विचार करनेवाले संतों ने इस पर रोक लगाने की चेष्टा भी की
दरिया साहब का कहना था -
नारी जननी जगत की ,पाल-पोस दे तोष ,
मूरख राम बिसारि करि ताहि लगावै दोष .
गुजरात के संत प्रीतम दास ने समदर्शी बन कर नारी-पुरुष दोनों को आनन्द-स्वरूप हरि का रूप माना .उनके अनुसार तो पुरुष ही पतित होता है अतः नारी किसी प्रकार निन्दनीय नहीं.
इस काल के संत-काव्य में कुछ महिलाओं का भी योगदान है
जिनमें प्रमुख नाम हैं -मीराँ बाई ,सहजो बाई दयाबाई आदि.सहजो बाई और दयाबाई अपने गुरु के मत के विपरीत न जा सकीं और उनके स्वर में स्वर मिलाती रहीं
पर मीराँ बाई के काव्य द्वारा एक भुक्तभोगी नारी की वास्तविक स्थिति का अनुमान किया जा सकता है.
मान्यता यही कि नारी जीवन का पति और परिवार से उच्च कोई उद्देश्य हो ही नहीं सकता .जो पुरुष के लिये त्याज्य है वह नारी के लिये जीवन का लक्ष्य बना दिया गया. इसीलिये मीराँ के अद्भुत प्रेम को नहीं समझा गया और उसे सहानुभूति नहीं मिली.नारी की नियति बना दी गई थी समाज,धर्म और परिवार की रूढ़ियों में कठपुतली के समान आचरण करती रहे .क्योंकि मीराँ ने अपना स्वतंत्र मार्ग चुनने का साहस किया था,यही उनका सबसे बड़ा अपराध था.परिवार और समाज ने उन्हें आरोपों,आक्षेपों ,व्यंग्य,लांछन और प्रतारणाओं से बेध कर उनके स्वाभिमान ,आत्मबल और इच्छाशक्ति को रौंद कर एक कुण्ठित व्यक्तित्व में परिणत कर देना चाहा था. उन्हें कुलनासी,बावरी ,राँड जैसी उपाधियाँ मिलीं,जीवन भर सास, ननद, देवर का दुर्व्यवहार झेला, और ज़हर का प्याला देकर उन्हें समाप्त करने के कुकृत्य भी किये गये
लेकिन मीराँ उस अदम्य आस्था का नाम था जो किसी के सामने झुकी नहीं ,कुण्ठित नहीं हुई.शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलते-झेलते जब उनकी सहन-शक्ति ने जवाब दे दिया तो उन्होंने घर छोड़ दिया -
सास लड़ै मेरी ननद खिजावै,राणा रह्या रिसाय,
पहरो भी राख्यो,चौकी बिठाइयो ताला दियो लगाय.
*
लोग कहें मीराँ भई बावरी सासु कहै कुलनासी रे .
और भी -
जहर का प्याला राणा भेज्यो...
उस युग में नारी का दर्द जाननेवाला कोई नहीं था.
इस सब से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि नारी का पारिवारिक और सामाजिक जीवन दूसरों की दया पर निर्भर था.
सास ननद बहू को तरह-तरह के कष्ट देती थीं,पति ही उसका एकमात्र आश्रय था लेकिन वह भी कुछ दिन सुहागिन बनाता था, फिर तो दूसरी की चाह उसका स्थान ले लेती थी.
बहु-विवाह के कारण सौत का दुख निरंतर उसे सालता था. लेकिन यही वह समय था जब वंचिता नारी ने भक्ति का अधिकार प्राप्त किया.,समाज के निम्न-वर्ग के साथ स्वामी रामानन्द ने स्त्री को भी यह अधिकार दिया और इस समय के संतों ने स्त्रियों को भी अपना शिष्य बनाया..मीराँ बाई और झाली रानी ,संत रैदास की शिष्या कही जाती हैं . सहजोबाई ,दयाबाई, जनाबाई आदि संत-कवयित्रियों ने भी इस युग को अपनी रचनाओं से समृद्ध किया.   एक बड़ी अजीब बात है कि जिस नारी से बचने के लिये ये महापुरुष सब कुछ छोड़कर भाग निकले और रमते-राम बन गये वह नारी निरंतर उनके मन पर छाई रही.इसीलिय उसके लिये निन्दा औऱ घृणा व्यक्त कर वे अपने को विरक्त और उच्च स्तर का सिद्ध करने का प्रयास करते रहे.लेकिन भक्ति के तन्मय क्षणों में उस परम पुरुष की भार्या बन कर उन्होंने अपनी आत्मा मे गुंजारते सत्य को वाणी दी और साधक के रूप में स्वयं को कन्या,यौवनमयी नारी ,परिणीता,सुन्दरी और सती की भूमिकाओं में रख संपूर्ण नारीत्व को शिरोधार्य कर स्वयं को नारी-निन्दा के पाप से मुक्त कर लिया.
आत्मा का नारी रूप में चित्रण समूचे संत-काव्य में हुआ है.आगे सगुण काव्य में भी इस परंपरा का निर्वाह हुआ,रीति-काल में भी यह धारा टूटी नहीं और वर्तमान साहित्य में भी यत्र-तत्र दिखाई दे जाती है.
प्रेम-मार्गी कवियों में फ़ारसी प्रभाव मुखर हुआ. अपने प्रेम-काव्यों में उन्होंने नारी को पुरुष से ऊँचा स्थान दिया.
वहाँ परमात्मा को नारी और साधक को पुरुष रूप में प्रस्तुत किया गया है. अपने से उच्च स्तर की असीम रूप और गुणों से संपन्न कुमारी को प्राप्त करने के लिये,पुरुष, संसार त्याग ,योगी बन कर निकल पड़ता है. कोई मानवेतर प्राणी ,जिसे गुरु का रूप माना गया है उसका मार्ग-दर्शन करता है रास्ते में पड़नेवाली बाधाओँ को पार करने के क्रम में वह अपना जीवन भी दाँव पर लगा देता है
तब उसका प्रेम  फलीभूत होता है.इन कवियों का उद्देश्य इश्क़मजाज़ी से इश्क़ हकी़की़ तक ले जाना है. इसलिये हम नहीं मान सकते कि नारी के प्रति उनके हृदय में पूज्य-भाव या सम्मान की भावना थी.अपनी ब्याहता और समर्पिता रूप-गुण-संपन्न पत्नी को छोड़ कर यात्रा पर निकलते समय उन्हें ज़रा भी ग्लानि नहीं होती थी.जायसी ने तो उस निष्ठावान पत्नी को 'दुनिया-धंधा' कह कर उसकी ओर से सहानुभूति का रास्ता ही बंद कर दिया.पति के विरह  में दुखी रहना उसका परम धर्म है.और उस वेदना का वर्णन बड़ी रुचि पूर्वक बारहमासे में किया गया है.
      इन प्रेम-काव्यों में कुछ नई स्थापनाएँ भी मिलती है.मुल्ला दाऊद के चंदायन में बाल्यवस्था में विवाहित चन्दा,पति की उदासीनता के कारण मायके चली आती है
लोरिक की वीरता देख कर वह उसके प्रति आकर्षित होती है  और लोरिक अपनी विवाहिता पत्नी को छोड़ कर चन्दा को भगा ले जाता है.अंत में उन दोनों के प्रेम को सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है.सदयवत्स और सावलिंगा की प्रेम-कथा में भी सावलिंगा का विवाह अन्यत्र होने के बाद भी वह सदयवत्स की हो जाती है .अर्थात् विवाहिता के अन्य पुरुष के प्रति प्रेम को भी स्वीकृति मिली है.
ये प्रेम-गाथाएँ सामाजिक पृष्ठभूमि में नहीं नहीं रची गई हैं .
इनमें नारी-पुरुष का प्रेम ही पर्याप्त है अन्य संबंधों को महत्व नहीं दिया गया है.
  सगुण भक्ति के काव्य में नारी की स्थिति निर्गुण  काव्य से भिन्न है
राम और कृष्ण भक्त कवियों ने अपने आराध्यों की परिकल्पना युगल-रूपों में की है उन्होंने उनमें अभिन्नता स्थापित कर नारी को पुरुष की चिर-सहचरी माना .नारी जीवन की विभिन्न भूमिकाएँ राम-काव्य में प्राप्त होती है. और संबंधों में मर्यादा का पूरा-पूरा निर्वाह है.विमाता को प्रत्येक स्थिति में माता के समान आदर देना ,भाभी का पूरा सम्मान शवरी जैसी नारियों से सहज और आदरपूर्ण व्यवहार राम-काव्य में ही संभव हुआ है .स्त्री की इच्छा का पूरा मान ,चाहे कैकेयी का वरदान हो चाहे  सीता की वन-गमन का आग्रह .'वधू लरकिनीं पर घर आईं ,राखेहु नयन पलक की नाईं '
कह कर नव-वधुओं के प्रति स्नेह और ,संरक्षण की भावना व्यक्त की गई है. अनुज-वधू, भगिनी ,सुत-नारी कन्या के समान मान्या हैं .पर इसके साथ ही परंपरा से प्राप्त कुछ प्रभाव भी यहाँ दिखाई दे जाते है -अवगुन आठ और ताड़ना की बात !स्वतंत्र होने पर बिगड़ जाने की संभावना भी उन्हीं प्रभावों को सूचित करती है.  
राम -काव्य में प्रवृत्ति मार्ग की महत्ता का प्रतिपादन है.इसलिये नारी को प्रतिष्ठा मिली साथ ही दोनों को एक व्रती और निष्ठापूर्ण होने का आदर्श प्रस्तुत किया गया.पुरुष अकेले कोई धार्मिक कार्य संपन्न नहीं कर सकता,अर्धांगिनी के साथ ही उसकी पूर्णता है.इन मर्यादावादी कवियों ने नारी के साथ मर्यादापूर्ण व्यवहार का औचित्य सिद्ध किया और उसे कामिनी रूप में दखना अनुचित बताया .पुरुष अगर परनारी के साथ यही दृष्टि रखे तो समाज की अधिकांश गन्दगी का सफ़ाया हो जाये .
स्त्रियों के लिये भी जो आदर्श प्रतिपादित किये गये, वे भी उनुचित नहीं कहे जा सकते .क्योंकि वह अगर पति की ओट छोड़ दे तो समाज में उसे संरक्षण देने कोई आगे नहीं आयेगा.सब उसका भक्षण करने पर तुल जायेंगे ,उसका जीवन नरक बना देंगे.
   कृष्ण-काव्य में जीवन के उल्लासपूर्ण ,आनन्दमय रूप का चित्रण है.नारी-पुरुष दोनों समान रूप से उसके भागीदार हैं. स्त्री के लिये वर्जनायें नहीं है वह कुण्ठाहीन जीवन जीती है.जितना भी सामाजिक जीवन चित्रित है उसमें बराबर का हिस्सा लेती है.बाल-लीला के अंतर्गत मातृ-हृदय के भावों का जितनी सहज और मार्मिक अभिव्यक्ति कृष्ण-काव्य में मिलती है उतनी और कहीं नहीं.माँ का हृदय अपनी संतान के विरह में कितना व्याकुल है इसका निरूपण यशोदा के वात्सल्य-विरह में है.तत्कालीन जीवन की जड़ता को भंग कर कृष्ण-काव्य ने उसकी उद्देश्यहीनता को दूर किया तथा उसे सौन्दर्य और आनन्द से अनुप्राणित किया.इस काव्य में मनोवैज्ञानिक आधार पर सहज प्रवृत्ति के रूप में मानव चरित्र को ऊँचा उठाने का प्रयत्न है.उसकी सबसे प्रमुख दुर्बलता का धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण से दमन के स्थान पर उन्नयन का प्रयास है.यहाँ नर-नारी में कोई भेद नहीं बल्कि भक्ति के क्षेत्र में गोपी-भाव को महत्व मिला है.कृष्ण-काव्य के पात्र प्रतीक रूप हैं .गोपियों के प्रेम-भाव की अनन्यता और संपूर्णता प्रमाणित करने के लिये सूरसागर में 'खंडिता प्रकरण 'लिखा था.जिसमें कृष्ण के दक्षिण नायक रूप का सूक्ष्म,आध्यात्मिक और व्यंजनापूर्ण चित्रण है.
उन्होंने गोपियों और राधा के प्रेम विकास की अत्यंत सूक्ष्म और स्वाभाविक स्थितियों का अंकन किया था.बाद में रीतिकाल के कवियों ने उन्हीं से प्रेरणा लेकर 'नायक-नायिका भेद'नाम से काव्यशास्त्रीय विवेचन को अपना विषय बना लिया और  उनकी विलास -वृत्ति ने काम-भावना के क्षेत्र में नारी की स्थितियों और प्रतिक्रियाओं के विवेचन में अपनी संपूर्ण शक्ति लगा दी.
रीतिकाल को आ. विश्वनाथ प्रसाद ने  हिन्दी-काव्य का यौवन काल कहा है ,जब सत्यं और शिवं की उपेक्षा कर वासनामय सुन्दरम् उभर कर आया.हिन्दी साहित्य के प्रत्येक युग में परस्पर विपरीत दो धाराएँ निरंतर गतिशील रही हैं - राग की और वैराग्य की.रीतिकाल में भी घोर शृांगारिक रचनाओं के साथ नीति तथा वैराग्य-परक काव्य रचा गया.इस काल में काव्य का सृजन सामन्ती वातावरण में हुआ.
शृांगारिक काव्य रचना आश्रयदाताओं की विलास वृत्ति के अनुरूप थी.इसयुग के काव्य को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है.
1, संस्कृत के काव्य-शास्त्र के आधार पर हिन्दी में लक्षण-ग्रंथों के प्रणेता, रीतिबद्ध कवि ,जिनमें केशव, चिन्तामणि,मतिराम ,देव ,भूषण,कुलपति मिश्र आदि आते हैं.
2. जिन कवियों ने रीति परंपरा को आत्मसात् कर स्वतंत्र तथा मौलिक एवं अर्थ-गत भंगिमाओं से युक्त कविता रची, वे रीति-सिद्ध कवि कहलाये.
3. और जिन कवियों ने आचार्य कवियों की पंक्ति में न सम्मिलित हो कर अंतर्मन के सहज-सरल संवेदनों को मुक्त वाणी दी वे रीतिमुक्त कवि कहलाये.
रीति-काव्य अलंकार,गुण ध्वनि,नायिका-भेद आदि की काव्यशास्त्रीय प्रणालियों के आधार पर रचा गया -इनके लक्षणों के साथ उदाहरण रूप में या स्वतंत्र रूप से ,इनका आधार लेकर.

रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवियों ने 'नायिका-भेद' को बड़े विस्तार के साथ अपने काव्य-विषय के रूप में लिया और स्त्रियों की कोटियाँ निर्धारित कर उनका बड़ा विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन किया.
नायक-नायिका भेद का प्रारंभ नाट्य-शास्त्र के ग्रंथों में हो गया था,लेकिन रीति-काल के कवियों ने यह विषय शृंगार के आलंबन के रूप में ही लिया.शृंगार का स्थाई भाव रति स्त्री-पुरुष के संबंध में ही व्यक्त होता है.इस युग के कवियों ने यौवन और आकर्षणयुक्त स्त्री-पुरुष के प्रेम को ही अभिव्यक्ति दी.इन संबंधों में सामान्य रूप से सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखा गया है.केशव ने अपनी रसिक-प्रिया में इस प्रकार की स्त्रियों की सूची दी है जिनके साथ रति-संबंध स्थापित नहीं किया जाना चाहिये (शेष सब के साथ?) .रति-भावना को स्त्री-पुरुष दोनों में समान रूप से स्वीकार किया गया है.वर्णनों में काफ़ी-कुछ वात्स्यायन के काम-सूत्र का आधार लिया गया है. शारीरिक-संरचना और स्वभाव के आधार पर चार प्रकार निर्धारित किये हैं-पद्मिनी ,चित्रिणी शंखिनी और हस्तिनी.स्त्री के नायिका होने का आधार पुरुष के साथ उसका प्रेम-संबंध ही रह गया. यहाँ नायिका की परिस्थिति और व्यवहार पर आधारित भेदोपभेदों की लंबी शृंखला है.
नायिका के सौन्दर्य और मानसिक स्थिति के चित्रण में कवियों ने सूक्ष्म निरीक्षण और कल्पना- शक्ति का परिचय दिया.
इस काल के कवियों ने नारी जीवन के व्यपक रूप को न लेकर केवल यौवन और उसमें भी शृंगार-वृत्ति तक सीमित रहे.
मुग्धा,मध्या ,प्रौढ़ा.,स्वकीया ,परकीया ,सामान्या,और उनके तमाम भेदों उपभेदों द्वारा नारी की मानसिकता का उद्घाटन कर स्त्री-संबंधी अपनी बढ़ी-चढ़ी, जानकारी का परिचय दिया पर और विषयों में ये कवि अपेक्षाकृत कोरे ही प्रतीत होते हैं. पुरुष के अनेक स्त्रियों के साथ संबंधों को ले कर हृदय की वेदना क्लेश ,आवेग ,उद्वेग और लोक-लज्जा के वर्णन में ये परम प्रवीण हैं.
विभिन्न ऋतुओं में नारी-विरह का वर्णन कर यह भी स्पष्ट कर दिया कि पुरुष के लिये नारियों की कमी नहीं लेकिन स्त्री की नियति एक के साथ बँध कर रहना और पीड़ा झेलना है.पुरुषों का वर्णन पत्नी के साथ उनके संबंधों को ले कर है -अनुकूल,दक्षिण ,शठ और धृष्ट.केवल रसलीन ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने काम-संबंधों में रत नारी के संबंधों का वर्णन किया है. स्त्री के इन संबंधों में पति,उपपतिऔर वैशिक तीन भेद हैं .पति की भूमिकायें तो सभी कवियों में वर्णित हैं यहाँ उपपति के भेद देखिए- गूढ़ ,मूढ़ , आरूढ़ .और वैशिक (अनेक वेश्याओं का उपभोग करनेवाला) के अनुरक्त और मत्त  - दो भेद.
लेकिन ये भेद समाज में नारी की स्थिति पर प्रकाश नहीं डालते .इनसे यही स्पष्ट होता है कि नारी पुरुष के भोग  के लिये है और जब तक यौवन,रूप और पुरुष को आकर्षित करने की क्षमता है, तभी तक उसका महत्व है.इसके बावजूद यदि पति दूसरी पत्नी ले आया तो पति और उसके साथ ही जीवन के सारे सुखों से वंचित हो जाना है.-नहुँ मुँह दिखरावनी ,दुलहिनि करि अनुराग ,सासु सदन ,मन ललन हू सौतनि दियो सुहाग .
नई बहू चार दिन ये सारे सुख भोग लेगी फिर दूसरी के आते ही उसे यह सब सौंप देना होगा .
   रीतिकालीन नारी भी परपुरुष को आकर्षित कर रस लेने में पीछे नहीं रही है.'त्रिवली-नाभि' दिखाने का कौशल उसने सीख लिया है और पुरुषों द्वारा की गई छेड़-छाड़ से वह खिन्न नहीं होती ,सखी से कहती है- 'लरिका लेबे के मिसनि ,लंगर मो ढिग आय,
गयो अचानक आँगुरी छाती छैल छुआय.'
उस समय विषय-सुख इतना प्रधान हो गया था
 कि उसके सामने जीवन की सात्विकता का कोई महत्व नहीं रह गया था.लेकिन कभी-कभी सौंदर्य-वर्णन मे पवित्रता भी छलक जाती थी -
'लसत स्वेत सारी ढक्यो तरल तर्यौना कान
पर्यो मनो सुरसरि सलिल रवि प्रतिबिंब विहान '.
लेकिन ये सीमायें थीं परिवार के दायरे में रहनेवाली महिलाओं की .स्ववश अर्थात् सामान्या,दरबार की नर्तकियाँ, गणिकाएँ आदि कहीं अच्छी स्थिति में थीं.पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर काम करनेवाली स्त्रियाँ जैसे रँगरेज़िनें ,मनिहारिनें आदि भी सहज जीवन जीती थीं.
रीति-मुक्त कवियों ने जिस विषम प्रेम की पीड़ा कवित्तों में व्यक्त की वह विरह पीड़ा एक पक्षीय है.जिन नारियों के प्रति यह प्रेम व्यक्त हुआ है वे विवाहिताएँ नहीं है, निर्बंध हैं. प्रेम का प्रतिदान देना या न देना उनका अधिकार है .इन नारियों का अपना व्यक्तित्व है, अपनी रुचि है और वहाँ पुरुष उनके प्रेम का आकांक्षी है. तथा विरह की स्थिति पलट गई है.वह प्रेमी के हिस्से में आया है. महाकवि केशव राजदरबार की कलावंत नारी प्रवीण राय को उमा, रमा, सरस्वती की समता में रखने में संकोच नहीं करते . एक नर्तकी ने उस महापंडित से अपनी सुरुचि,सौन्दर्य और वैदुष्य का लोहा मनवा लिया.घनानंद की प्रेमिका सुजान का पल्ला भी भारी रहा शेख और आलम भी इसी समय की कवयित्रियाँ हैं.परिवार की सीमा में रहनेवाली महिलाओं की स्थिति में और गिरावट आई .अभी तक पुत्र माँ के नाम से भी जाना जाता था और वधू मात़कुल की संज्ञाओं से संबोधित होती थी.लेकिन अब स्त्रियों का अपना परिचय कुछ नहीं रहा
फलाने की माँ या अमुक की दुलहिन या जेठी/छोटी बहू रह गईं .बूढ़े को ब्याही गई युवती की कुण्ठा,नपुंसक पति की पत्नी,और अरहर तथा ऊख के खेत में पर-पुरुषों के साथ रस-रंग मनानेवाली स्त्रियों के चित्र भी इस साहित्य में बड़े सहज रूप से अंकित किये गये हैं.
नीति और वैराग्य की धारा के अंतर्गत रहीम,गिरधर कविराय, वृन्द-कवि ,हेमराज, आदि का काव्य है.जिन्होंने नारी-निन्दा में अपना पर्याप्त समय व्यय किया है.रहीम ने सर्प,घोड़ा ,नारी,,नृपति और नीच लोगों से सावधान रहने को कहा क्योंकि इन्हे पलटते देर नहीं लगती .कवियों ने छिनाल स्त्रियों के लक्षणों का भी बड़े विस्तार से वर्णन किया लगता है इनका भी उन्हें व्यापक अनुभव रहा होगा .भिन्न जातियों की स्त्रियों की विशेषताओं को अनुभव करने का अवकाश भी कवियों के पास खूब था.नारी के नख-शिख वर्णन में तो कवियों को कमाल हासिल है ,पर किसी की दृष्टि नारी मन की ओर नहीं गई.
यौवनागम से पूर्व बालिकाओं के शरीर में होनेवाले सूक्ष्म परिवर्तनों भी इनकी कुत्सित दृष्टियाँ पड़ीं और उन स्थितियों के चित्रण में कवियों ने सूक्ष्म निरीक्षण और कल्पना शक्ति का  पूरा परिचय दिया.
यह कामुकतापूर्ण वर्णन कवियों की विकृत भावनाओं का परिचायक है.
इनके सद्य-स्नाता वर्णनों को देख कर लगता है कि स्नान के समय भी स्त्री की प्राइवेसी को बरकरार नहीं रहने देना चाहते .लगातार ताक-झाँक कर श्लील-अश्लील वर्णन करते हैं.
जब तक सामर्थ्य बरकरार रहती थी ,इन लोगों को नारी देह के सिवा कुछ नहीं दिखाई देता था,रति-सुख के आगे उन्हें मुक्ति भी निस्सार लगती थी,बाद में वह उसे ही ग्राहिणी घोषित करने लगते थे. दोष  नारी का या मदान्ध पुरुष, का जो नशा उतरते ही स्त्री के लिये लानत-मलामत और गाली-गलौज शुरू कर भगवान को मनाने लगता था.

भाग - 2.
अंग्रेज़ों के भारत-आगमन के पश्चात् राजनैतिक और सामाजिक परिवर्तनों के कारण स्थितियाँ बदलने लगीं.ज्ञान-विज्ञान के नये क्षितिज खुले,प्रिन्टिंग-प्रेस की स्थापना और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के साथ गद्य-लेखन समय की आवश्यकता बन गया.उन्नीसवीं शती से ही नव-जागरण की लहरियाँ उठने लगीं थीं.सांस्कृतिक पुनर्जागरण,पश्चिम से नये विचारों का उन्मुक्त प्रवाह और अंग्रेज़ी शिक्षा के परिणाम स्वरूप नारी के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन आने लगे.
भारतेन्दु युग में इस परिवर्तन की स्पष्ट पदचाप सुनाई पड़ने लगी.रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 'काव्येर उपेक्षिता' शीर्षक  निबंध लिखा था,उसी से प्रेरित हो कर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1908 में 'कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता 'निबंध प्रकाशित किया.और हिन्दी साहित्य में उपेक्षिता नारियोँ को विषय बना कर काव्य-सृजन का क्रम चल निकला. मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला,यशोधरा,विष्णुप्रिया,विधृता आदि को काव्य की नायिका के रूप में प्रतिष्ठित किया .नारी के प्रतिकवियों की संवेदना जागी और उसकी मनोभावनाओं को अभिव्यक्ति देने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी.उनकी लेखनी ने उन्हें पुरुषों से अधिक गौरव दिया.इन के व्यक्तित्व पति की छाया बने दबे-ढके न हो कर प्रखर और प्रभावशाली थे. कहीं-कहीं तो नायक उनके समकक्ष होने में असमर्थ रह गया है.यह नारी संत कवियों की नारी नहीं न राम-काव्य के समान पुरुष की छाया बनी रही .उचित-अनुचित का विश्लेषण कर पाने में समर्थ है.उसे शिकायत भी है कि अपने सद्कार्यों में उसे सहयोगिनी नहीं बनाया और सारे उत्तरदायित्व ढोने के लिये उसे छोड़कर स्वयं साफ़ बच कर निकल गये, इससे वह क्षुब्ध है.
द्विवेदी युग की सुधारवादी विचारधारा का प्रभाव साहित्य पर व्यापक रूप से पड़ा.
स्त्री और परुष को बराबरी का दर्जा मिला दोनों को एकव्रती और निष्ठावान होने का संदेश दिया-'यदि सीता ने एक राम को ही वर माना,
यदि मैने निज वधू उर्मिला को ही जाना .'
गृहस्थ जीवन में रस की धार दोनों के सम-स्तर पर मिलन से ही संभव है.
नारी जीवन को अनेक भूमिकाओं में प्रस्तुत किया गया. द्विवेदी जी के अनुसार वह अर्धांगिनी,सहधर्मिणी और पुरुष-जीवन की पूरक है.घर में वह कुल-वधू है जो आवश्यकता पड़ने पर उर्मिला और कैकेयी की भाँति रणचण्डी भी बन जाती है.
प्रेम ,त्याग और सेवा के क्षेत्र में वह अतुलनीय है.
नारी के गौरव का विशद आख्यान गुप्त जी ने इन चरित्रों के माध्यम से गाया है.
उसकी करुण दशा पर उनकी करुणा खूब रोई है.
पुरुष की दुर्बलता पर उन्होंने कहा -
'अबला के भय से भाग गये ,वे उससे भी निर्बल निकले,
नारी निकले तो असती है ,नर यती कहा कर चल निकले.'
विष्णुप्रिया की पंक्तियाँ गौतम बुद्ध पर सही बैठती हैं ,और समाज के दोहरे मानदंडों की ओर भी इंगित करती हैं -
'नर-कृत शास्त्रों के सब बंधन हैं नारी को ले कर,अपने लिये सभी सुविधाएं पहले ही कर बैठे नर .'
एक के लिये सब सुख-ऐश्वर्य और दूसरी की आवश्यकता है-
'दो-दो कौर अन्न पा लेंगी और धोतियाँ चार,
नारी तेरा मूल्य यही तो रखता है संसार.'
उसकी निरीह अवस्था का मार्मिक चित्रण गुप्त जी के काव्य में हुआ है.
हरिऔध जी ने भी उर्मिला के चित्रण में मौलिकता का परिचय दिया.
उसके रूप में प्रबुद्ध और तर्कशील नारी का रूप सामने आता है.
बालकृष्ण शर्मा नवीन की उर्मिला की पीड़ा फूट निकलती है जब लक्ष्मण वन जाने की अनुमति माँगने आते हैं-
'चौदह बरस ?नहीं प्रिय चाहो यदि चौदह युग लौं जाओ,
खूब करो उद्धार विश्व का ,ज्ञान-रश्मियाँ फैलाओ.'
नारी के प्रति सम्मान,उसके व्यक्तित्व को स्वीकृति , प्रतिष्ठा और प्रखरता का समावेश बीसवीं सदी की माँग थी.
वह उग्रता से बोल उठती है -
' यह अँधेर प्रचण्ड मौर्ख्य का ,यह निष्ठुर आदेश प्रभो,
तुम भी धर्म-धर्म कहते हो इसके हे प्राणेश प्रभो,
आग लगे इस धर्म-क्रान्ति में जो बुद्धि विनाश करे
है कैसा यह धर्म कि जो जनगण के हृदय निराश करे.
उसके व्यक्तित्व में आवेग और उद्वेग की ही प्रधानता नहीं है उसके पीछे उसका गूढ़ चिन्तन है.
पहले वह विद्रोह के लिये लक्ष्मण को प्रेरित करती है' महानाश का मंत्र फूँक दो,मेरे विकट क्रान्तिकारी ,भस्म करो ये गलित रूढ़ियाँ मेरे निकट भ्रान्तिहारी.'

नवीन ने विद्रोह की चिंगारी उसके व्यक्तित्व में समाहित की है लेकिन अंत में वह परिवार के कल्याण के लिये लक्ष्मण का मार्ग प्रशस्त करती है.-
'मानवता की पादपीठ पर तुमको न्यौछावर करके,रो लेगी उर्मिला तुम्हारी चुपके-चुपके जी भर के.'
वह न उपेक्षिता है न दयनीय, वह पुरुष की चिर-प्रेरणा है.
कृष्णायन में द्वारका प्रसाद मिश्र ने भी द्रौपदी का तेजस्वी व्यक्तित्व सामने रखा है
उसका कथन है -
जब लगि दुःशासन जियत ,जियत अधम कुरु राज,
तब लगि वसुधा पृष्ठ मँह शान्ति-अहिंसा नायँ.'
   छायावादी काव्य की नारी-सृष्टि स्थूल न रह कर वायवी हो गई है ,लेकिन इन कवियों ने नारी जीवन की सुन्दरतम कल्पनाओं और मधुरतम भावनाओं का आलंबन बनाया है. प्रसाद   के हृदय में नारी के प्रति अपार सहानुभूति,सात्विक प्रेम और सम्मान है.उनकी नारी सृष्टि विविधतापूर्ण और सुविचारित है.उन्होंने अनेक विधाओं पर कुशलता से लेखनी चलाई लेकिन उनका स्वच्छन्दतावादी कवि का रूप, सभी पर अपनी छाप छोड़ गया.
उनकी कहानियों नाटकों,उपन्यासों और काव्य-रचनाओं में नारी के विविध रूप साकार हुए हैं लेकिन उनपर उनकी छायावादी जीवन-दृष्टि का प्रभाव है.
कुछ अविस्मरणीय नारी पात्रों की सृष्टि का श्रेय उन्हें जाता है .उनकी इस विविधता को दो रूपों मे देखा जा सकता है
1 भावनामयी,स्नेह-ममतायुक्त समर्पणमयी नारी.और
 2. बुद्धि-प्रधान तर्कमयी विचारशीला नारी.कामायनी की श्रद्धा और इड़ा इन रूपों का प्रतिनिधित्व करती हैं.
इन दोनो के समन्वय से ही जीवन को पूर्णता की उपलब्धि होती है.
विश्व के कल्याण का श्रेय भी उन्होंने नारी को दिया है-- 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो' कह कर प्रसाद ने उसे श्रद्धा अर्पित की है. 
प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पंत की काव्य-यात्रा के विभिन्न चरणों में उनकी नारी भावना का रूप भी विकसित होता गया है.
प्रारंभ में सरल बालिका के रूप में देखा. फिर देवि,माँ ,सहचरि,प्राण के रूप में पहचान कर अपार स्नेह अर्पित किया .आगे चल कर उन्होंने उसे मानव होने की प्रतिष्ठा दी और अनावश्यक लज्जा त्याग पुरुष की सहयोगिनी के रूप में देखना चाहा है. 
इस प्रसंग में दिनकर की उर्वशी को भूला नहीं जा सकता  जिसमें उन्होंने कुछ नये मान स्थापित किये हैं.
उर्वशी में नारी की प्रेम-प्रवणता की पराकाष्ठा का चित्रण  है जहाँ प्रकृति ने उसे चिति और शिवा बना कर परम सत्ता के रूप तक ऊँचा उठाया है.
पुरूरवा वीर योद्धा और प्रगाढ़ प्रेमी है.दोनो के प्रेम का ताप उभय-
पक्षों में सम है.उन्होंने नर-नारी के प्रेम का उन्नयन किया है -
'रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है,'
पुरूरवा का कथन है 'उर्वशी के रक्त के कण में समा कर प्रार्थना के गीत गाना चाहता हूँ .'
उन्होंने नारी को नरक की ओर ले जानेवाली नहीं कहा बल्कि उसके प्रेम को उन्नयनकारी बताया.
 'पहले प्रेम स्पर्श होता है ,तदनंतर चिंतन भी
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है ,तब वायव्य गगन भी.' 
तन के अतिक्रमण से द्युतिमान मनोमय जीवन की झलक मिलती है.और उर्वशी पुरूरवा के लिये विराट् छवि की कोर बन जाती है.
'यह अति क्रान्ति वियोग नहीं ,आलिंगन नर-नारी का ,
देह धर्म से परे अंतरात्मा तक उठ जाता है.'
उठने का परिणाम है -
वहाँ जहाँ कैलाश प्रान्त में शिव प्रत्येक पुरुष है,
और शक्तिशालिनी शिवा प्रत्येक प्रणयिनी नारी.'
कामायनी के कैलाशधाम में भी मनु और श्रद्धा की यही स्थिति थी.
नारी से भागनेवाले पुरुष के लिये उनकी चेतावनी है -
'मूढ़ मनुज,तू नहीं जानता तू स्वयं ही प्रकृति है,
फिर अपने से आप भाग कर कहाँ त्राण पायेगा!'
अप्रयास अनुभवन प्रकृति का सहज रीति जीवन की,
क्योंकि पुरुष औ' प्रकृति एक है कोई भेद नहीं है .'
उर्वशी की स्वीकारोक्ति है  -
'नारी का इतिहास प्रकृति की पूरी प्राण-कथा है .'
दिनकर ने वैराग्य और प्रव्रज्या को पलायन माना है.लेकिन औशीनरी जैसी निष्ठामयी नारी को कवि ने कामाध्यात्म का विषय नहीं बनाया,शायद इसलिये कि वह समर्पिता बन कर रह गई. पति की उद्दाम कामना की सहभागिनी नहीं बन सकी.
पंत का लोकायतन 'कामायनी'से आगे की बात ले कर चला है
कवि-मानस में उतर कर उमा उसे अमृत घट सौंपती है.--
तुम्हें सौंपती लो यह कनक अमृतघट
नर-नारी के रस मंगल से पूरित
पुरुष-प्रकृति की शुभ्र कीर्ति का पावन,
सावधान बन जाय न विष जन भू हित.'
संतों ने इसी को विष बना दिया था क्योंकि उनके लिये स्त्री-पुरुष का प्रेम सिर्फ़ वासना रूप था. इसलिये उन्नयन के स्थान पर प्रतिक्षण पतन और क्षय का कारक था.
अब गद्य की ओर चलें.नव-जागरण की लहर के परिणाम स्वरूप समाज के दृष्टिकोण में परिवर्तन आने लगा था.भारतेन्दु युग से ही लेखकों ने सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार करने के साथ नारीगत समस्याओं को भी उठाया .निबंधों,नाटकों,कहानियोंऔर उपन्यासों में विधवा-विवाह,अनमेल विवाह,वेश्यवृत्ति नारी-स्वतंत्रता और शिक्षा के विषय उठाये जाने लगे.इन प्रयासों का प्रारंभ भारतेन्दु- मंडल के लेखकों द्वारा हुआ,नाट्य-साहित्य ने आगा हश्र वाले दौर से निकल कर एक नये दौर में प्रवेश किया.प्रसाद के नाटक प्राचीन इतिहास की पृष्ठभूमि पर रचे गये
समसामयिक नाटककारों में लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाम है.जिन्होंने यथार्थवादी नाटकों की नींव डाली.उनमें बुद्धिवाद का स्वर प्रधान रहा.
फ़्रायडवादी दृष्टिकोण के अनुरूप उन्होंने यौन प्रवृत्तियों और कामवासना को अधिक महत्व दिया   इसलिये उनके नारी-पात्र सहज और संतुलित नहीं है.
प्रसाद-युग के नाटकों में -स्वच्छंदतावादी नाट्य-शैली का सन्निवेश है जिसमें व्यक्तिनिष्ठता और आत्मानुभूति का आग्रह है. वस्तु -चित्रण में अतिरंजित कल्पना ,भावुकता और अतीत के प्रति मोह दृष्टिगत होता है.प्रसाद की दृष्टि में रोमानियत के साथ सामाजिक जागरूकता का भी समावेश हुआ है.
नारी के संबंध में उनका दृष्टिकोम आदर्शवादी रोमांटिक मूल्यों से प्रेरित है.पर उसके अस्तित्व के संबंध में उनका विचार यथार्थवादी चेतना से पूर्ण है.
उनके लगभग सभी नाटकों मे स्त्री की स्थिति को उजागर किया गया है,राजनीति का प्रतिशोध नारी का सम्मान नष्ट कर लिया जाता है.पुरुषों द्वारा नारी की प्रतारणा की उन्होंने भर्त्स्ना की है वर्धन-वंश की बालिका को कान्यकुब्ज का सिंहासन दिला कर उन्होंने नारी का महत्व प्रतिपादित किया.

गृहस्थ जीवन के सौन्दर्य और उसकी सुखमयता का चित्रण उन्होंने किया है और पारिवारिक संबंधों का मनोरम अंकन कर उसके प्रति आस्था व्यक्त की है .उनकी नारियों की प्रेम-भावना  में रोमांटिक भावुकता और कल्पना का पूरा पुट मिलता है.
ध्रुवस्वामिनी में उन्होंने नपुंसक पति की पत्नी को पुनर्विवाह का अधिकार दिलाया है और नारी को व्यक्ति होने का पूरा मान दिया. 
   प्रसाद के नारी पात्रों में जहाँ एक ओर स्वच्छंदतावाद  की विशेषताओं,भावुकता ,कल्पना,आदर्श और रहस्योन्मुखता का पुट है वहीं विजया और श्यामा जैसी स्त्रियों में वासना और स्वार्थ भी है.राष्ट्र-प्रेम की भावना से उनके नारी-पात्र रिक्त नहीं हैं जैसे देवसेना मल्लिका सरमा मधूलिका जयमाला आदि ..सेठ गोविन्ददास के नाटक 'हर्ष ' में विधवा स्त्री की स्थिति अभिव्यक्त हुई है . राज्यश्री कहती है,'मैं विधवा! विधवा को  समाज में किसी मंगल कार्य में भाग लेने का अधिकार नहीं.' 
उदयशंकर भट्ट ने 'विद्रोहिणी अंबा' नाटक में भीष्म द्वारा हरी गई काशिराज की तीनों कन्याओं और सत्यवती द्वारा समानाधिकार प्राप्त करने की आवाज़ उठाई.अंबा को कथनों में स्त्री-पुरुष संबंधों की विषमताओं को उजागर करने का प्रयास है.संपत्ति समझ कर मनचाहे ढंग से भोगे जाने के विरुद्ध विद्रोह की आवाज़ उठाती हुई वह कहती है,'पुरुष समाज की इतनी धृष्टता ! स्त्रियों के सौन्दर्य की काई पर फिसलनेवाली पुरुषजाति ने आज से नहीं सदा से स्त्रियों का अपमान किया है.'
अंबिका का प्रश्न है,'असमर्थ रोगी पुरुष के विवाह के लिये एक नहीं तीन-तीन कन्याओं को हर लाना स्त्रीत्व ,समाज और मनुष्यता की हत्या नहीं तो और क्या ?'
बाद के नाटकों में यथार्थवादी दृष्टि पनपी है फ़्रायड की विचारधारा का प्रभाव नर-नारी के संबंधों और मूल्यों का कारण बना.नई शिक्षा और पाश्चात्य विचारों के प्रभाव के कारण प्राचीन रूढ़ियों से मुक्ति पाने की छटपटाहट के साथ व्यक्ति-स्वातंत्र्य की चेतना जाग्रत हुई .नारी में स्वावलंबन का उत्साह जागा वह पुरुष की दासता से मुक्ति का कामना करने लगी.
उपेन्द्रनाथ अश्क के नाटक 'क़ैद' में अनचाहे पति के साथ दाम्पत्य-जीवन बिताती हुई पत्नी के मन में घुटन और पति तथा गृहस्थी के प्रति अरुचि व्यक्त हुई है.लक्ष्मी नारायण मिश्र रचित 'सन्यासी' नाटक में किरणमयी पति से कहती है ,'तुम इधर-उधर मिस मेमों से मिला करते हो मुझे भी अपने मित्रों से मिलने दो.हमारा नाता विश्वास के बल पर जितना टिक सकता है उतना संदेह और ईर्ष्या से नहीं.'
मिश्र जी ने अपने नाटकों में प्रतिपादित किया कि प्रेम आत्मा का धर्म है और भोग शरीर का, इसलिये प्रेम अनेक के साथ भी हो सकता है.अपने नाटकों में स्वच्छंद प्रेम को चित्रित करते हुए भी उन्होंने भारतीय आदर्शवादी दृष्टिकोण प्रतिष्ठित किया.नारी द्वारा सामाजिक मान्यताओं को ठुकराने का औचित्य भी उन्होंने सिद्ध किया.
सेठ गोविन्द दास की 'त्याग का ग्रहण' की नायिका विमला, फ़र्स्ट क्लास एम.ए. है .वह विवाह को पुरुष की प्रभुता और स्त्री की गुलामी कहती है.विवाह न करने की इच्छा द्वारा वह अपना विद्रोह व्यक्त करती है.लेकिन उसमें बौद्धिक जागरूकता और तर्क-संगत निजी दृष्टिकोण का अभाव है. अंत में वह गाँधीवादी विचारधारा से प्रेरित  'धर्मध्वज से विवाह कर लेती है. बिना विवाह किये 'नीतिराज' की पत्नी के रूप में रह कर वह गर्भवती हो जाती है फिर भी स्वच्छंद प्रेम की पुष्टि करती हुई वह अपनी संतान के परित्याग के लिये प्रस्तुत है.लेकिन अंत में वह विवाह का पारंपरिक मूल्य स्वीकार करती है.
वह युग नारी-जागरण का था लेकिन वह व्यवहार के बदले विचारों में ही अधिक प्रगतिशील और क्रान्तिकारिणी रही.
   स्वातंत्र्योत्तर काल में जन-चेतना नये संदर्भों में विकसित हुई.आधुनिक चिन्तन ने व्यक्ति-स्वातंत्र्य का नारा दिया जो स्त्री-पुरुष दोनों में समान रूप से व्यक्त हुआ. डॉ.धर्मवीर भारती के  'अंधायुग' में व्यक्तिवादी चेतना के अंतर्गत अस्तित्व-बोध के प्रश्न को सशक्त शैली में उभारा गया है.
'प्रजा ही रहने दो' में भी गिरिराज किशोर के नारी पात्रों - गान्धारी, कुन्ती,और द्रौपदी  राज पुरुषों के आपसी बैर और स्वार्थी मनोवृत्ति के कारण विषम स्थितियाँ झेलते-झेलते इतनी कटु हो उठती हैं कि उनकी स्नेहशीलता,कोमलता और सहजता खो गई है.
'आषाढ का एक दिन' में भी कर्तव्यकी कठोर स्वीकृति है.'लहरों के राजहंस' गर्विता और अहमन्या नारी सुन्दरी की तुलना में उसका पति नन्द व्यक्तित्वहीन हो गया है अतः वह संशय और द्वंद्व से ग्रस्त रहता है.मोहन राकेश के ही 'आधे-अधूरे' में सावित्री का व्यक्तित्व प्रखर है,उसका पति महेन्द्र नाथ लिजलिजा,व्यक्तित्व हीन, आधा-अधूरा रह गया है.सावित्री का व्यक्तित्व 'विमेन लिब' के मूल्य से प्रेरित है .वह पुरुष की सहयात्री हो सकती है लेकिन समर्पिता हो कर उसकी अतियों का भार ढोने वाली नहीं .
 मन्नू भंडारी ने भी 'बिना दीवारों का घर ' में नारी-पुरुष के अहं का द्वंद्व उभारा है.
मध्ययुगीन साहित्य में पुरुष होने के दंभ में नारी का जो नारकीय सीमा तक उपयोग देखने को मिला था वह आगे बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध  में भी चला आया
'आधागाँव' उपन्यास में प्रेम के साथ नैतिकता का ढोंग जोड़ कर काम पिपासा की पूर्ति हेतु चमारिन को प्रेमिका से पत्नी बना लिया जाता है फिर भी वह चमारिन ही रह जाती है.,उसका छुआ हुआ खाने से परहेज किया जाता है.
कमाऊ स्त्री के साथ कुछ नई समस्यायें उत्पन्न हुईं.अब तक बेटी की कमाई खाना पाप समझा जाता था ,और अब उसके बल पर परिवार का स्तर सुधारा जाता है. माता-पिता को अपनी औऱ शेष भाई-बहिनों के भविष्य की चिन्ता है और कमाऊ बेटी के ऊपर सब की जिम्मेदारी डाल कर उसे जीवन के सभी सुखों से वंचित कर दिया जाता है..'. पचपन खंभे लाल दीवारें' में इस स्थिति का मार्मिक चित्रण है नायिका की नियति एकाकी जीवन जीना और आदर्शों का बोझ लादे त्याग करते चले जाना है. उसके सुख-दुख के प्रति परिवार संवेदनाहीन हो चुका है.
व्यक्तिवादी उपन्यासों में फ़्रायड ,मार्क्स और डार्विन के सिद्धातों ने व्यक्ति चेतना को जिस रूप में उद्घाटित किया उससे समाज के प्रति नकारात्मक
दृष्टिकोण को प्रोत्साहन मिला
आधुनिक उपन्यासों में नारी से संबद्ध यह दृष्टिकोण अनेक बिन्दुओं का आधार लेकर उभरा है.एक ओर तो वह स्वयं को परंपरा से टूटा हुआ अनुभव करती है दूसरी और सही संदर्भों में आधुनिकता से जुड़ नहीं पा रही है.और कुंठित-सी अपने दायरे में छटपटा रही है.
वह दोहरी ज़िन्दगी जीती है
निर्मल वर्मा की 'लाल टीन की छत' के नारी पात्र भीतर के रीतेपन से ग्रस्त हैं .अपनी सार्थकता की तलाश और व्यर्थता का बोध आधुनिक नारी में गहराता जा रहा है.युगबोध के अंतर्गत नारी का स्वच्छंद आचरण अनेक उपन्यासों में व्यक्त हुआ है.
श्रीलाल शुक्ल के 'सीमाएं  टूटती हैं' की चांद, भगवती चरण वर्मा की रेखा पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर चलनेवाली नारियाँ हैं.शारीरिक पवित्रता की सीमा भी विस्तार पा रही है. कहीं-कहीं आधुनिक के नाम पर उन्मुक्त आचरण विकृति की सीमा तक पहुँच जाता है और अपनी स्वच्छंदता में वह पुरुष के हाथों का खिलौना बन जाती है .वर्तमान जीवन के संत्रास और एकाकीपन के बावजूद भी नारी अपनी वैयक्तिकता की रक्षा करती है और स्वयं के प्रति ईमानदार तथा परिवेश के प्रति सजग दिखाई देती है .
   'आपका बंटी' में आज के विवाहित जीवन की असलियत उभऱ कर आई है .स्त्री-पुरुष के बीच बढ़ते खोखले संबंध की तलाक में परिणति ,नारी जीवन को नया अर्थ देने का अवसर और पुरुष से सामाजिक मुक्ति,लेकिन भावी पीढ़ी के हिस्से में रुग्णता और कुंठा ही आती है.
'एक इंच मुस्कान' की अमला के चरित्र से स्पष्ट होता है कि पति द्वारा परित्यक्ता हो कर नारी सबकी दया,सहानुभूति और उपेक्षा की पात्र बन जाती है..उसका कहना है ,'पति के अतिरिक्त भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो नारी जीवन को पूर्ण बना सकता है..मैं विवाह नहीं करना चाहती उस ऊँचाई को पाना चाहती हूँ जहाँ जाकर यह सब निरर्थक लगने लगे ,' पति,और परिवार ही नारी का सबसे सशक्त बंधन होता है.जब वही टूट गया तो अमला अपने को क्यों बँधने दे .लेकिन इसके साथ ही उसे अपने जीवन की निरर्थकता का बोध भी होता है.
'सूरजमुखी अँधेरे के' में बालिका रत्ती के चरित्र द्वारा नारी की मानसिक सत्ता की खोज की गई है ,जो अब तक उपेक्षित रही थी.
राम कुमार भ्रमर के उपन्यास 'कच्ची-पक्की दीवारें' की आभा देवी का चरित्र एक और उदाहरण है
दो पत्नियों के हंता और अपने से बीस वर्ष बड़े ऐय्याश आदमी से ब्याही जाकर वह अपने जीने का ढंग तलाश लेती हैं.हम-उम्र देवर से उनका संबंध होता है ,शराब से भी उसे परहेज़ नहीं
पर उसी देवर द्वारा उसके शरीर के सौदे की बात से गहरा आघात पा कर वह विकृतियों की शिकार हो जाती हैं.
उदयशंकर भट्ट के उपन्यास 'सागर और लहरें 'बारसोवा के मछुओँ के जीवन पर आधारित है जहाँ समाज मातृसत्तात्मक है .घर की मालकिन वंशी पूर्णाधिकार युक्त है ,वह पति को भी इच्छानुसार नचाती है.उसकी पुत्री रत्ना का व्यक्तित्व इन्हीं प्रभावों में विकसा है लेकिन वह आवारा माणिक के प्रति आकृष्ट होती है. रत्ना जानती है कि अपनी पहली पत्नी दुर्गा पर उसने अत्याचार किये थे और बाद में उसके अस्वस्थ होने पर खाना-पीना तक छोड़ दिया था.फिर भी उससे विवाह कर लेती है.उसके अत्याचारी स्वभाव से परेशान हो कर वह लौट आती है .माँ उसे बहुत समझाती है कि माणिक को छोड़ दे लेकिन माणिक के अनुनय-विनय से द्रवित हो कर वह उसके साख भाग जाती है.यह जानते हुये भी कि वह सुधरेगा नहीं, वह उसका मोह छोड़ नहीं पाती.
रामेश्वर शुक्ल ने मनोवेगों द्वारा व्यक्तित्व का विकास किया है .उनके'चढ़ती धूप' और उल्का में मंजु का व्यक्तित्व विलक्षण है.दोनों उपन्यासों की नायिकाओं के व्यक्तित्व-विकास की विशेषता है कि उनमें अपार आत्म-शक्ति है जो चंद्र और मोहन की प्रेरणा से विकसित होती है.उल्का में मंजु का तेजस्वी रूप अपने चरम पर पहुँच जाता है जब वह कहती है 'फिर आज मेरे जीवन-धारण का एक उद्देश्य है ,मुझे अपनी संतान को पालना है ,उसे दुनिया से संघर्ष करना सिखाना है.जन्म से वह सामाजिक कलंक के आवरण से ढँकी-ढँकी आई ,लेकिन में जानती हूँ कि वह क्या है,कैसी है, कहाँ से आई है. '
वह सामाजिक रूढ़ियों से संघर्ष करती है ,अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की घोषणा करती है ,फिर भी वह बहुत स्वाभाविक लगती है.क्योंकि अपनी संस्कृति की परंपरागत मर्यादा नहीं तोड़ती
ईश्वर से अगणित विडंबनाएं पा कर भी उस पर विश्वास करती है
उसी प्रकार यज्ञदत्त के 'मधु' की नायिका मधु का व्यक्तित्व भी राजन की प्रेरणा से विकसित होता है.और आगे चल कर वह राजन से भी अधिक दृढ़ता और आत्मशक्ति प्रदर्शित करती है.
  हिन्दी के व्यक्तिवादी उपन्यासों में पात्रों के सर्वांगीण विकास का परिचय न हो कर किसी मनोवृत्ति का ही सूक्ष्म अध्ययन मिलता है.इन उपन्यासकारों(जैनेन्द्र ,इलाचंद्र जोशी,अज्ञेय आदि) ने सेक्स की कुंठा को ही प्रमुख रूप से लिया है. अन्य मनोवृत्तियों की ओर ध्यान नहीं दिया.जैनेन्द्र की 'सुनीता' में सुनीता उसकी परिवर्तित होनेवाली मनोवृत्तियों से संघर्ष करती हुई उसके अनुकूल रहती है.और अपनी आत्म-शक्ति से उसे नियंत्रित करती है
सुखदा कान्त के प्रेम में मुग्ध रहने पर भी जीवन में अभाव अनुभव करती है.पर उसका व्यक्तित्व घर की दीवारों से बाहर आने की महत्वाकांक्षा और परिवार के प्रति स्वाभाविक आकर्षण दोनों के द्वंद्व से विकसित होता है . वह राजीव सेसहायता लेने को हेय समझ कर अपने भरोसे चली आती है. अज्ञेय के उन्यास 'नदी के द्वीप' की रेखा उसकी सबसे अधिक सबल पात्र है अपने विवाहित जीवन से कुछ न पानेवाली रेखा के भुवन के प्रति आकर्षण में अज्ञेय ने जिस प्रेम का अंकन किया वह अनुपम है.बाह्य सामाजिकता छोड़ ,अज्ञेय रेखा के मनोजगत में प्रविष्ट होते हैं और अनादि वासना के उत्कट रूप की ओर संकेत करते हैं.तब लगने लगता है कि यथार्थ, व्यक्ति के बाहर नहीं अन्दर है.एक दिन के दैहिक प्रेम की अनुभूति उसे तृप्त कर देती है और उसका निराश जीवन सार्थक हो उठता है.इसके लिये वह भुवन की चिर-ऋणी है.उसे मुक्त करने के लिये वह भ्रूण हत्या तक करती है.जब वह कहती है,'आई एम फ़ुलफ़िल्ड'  तो उसके निराश जीवन में उस अनुभूति का महत्व ज्ञात होता है.
वासना जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ है जिसकी तृप्ति भोग की मात्रा पर अवलंबित न होकर मन की विशेष दशा पर अवलंबित होती है.
डॉ. देवराज के 'पथ की खोज' की नायिका रेखा से भिन्न है.चन्द्रनाथ साधना के प्रति आकृष्ट हो कर भी आगे नहीं बढ़ पाता.साधना उसकी वासना का उन्नयन करती है.स्वयं अपनी कामना को भी नियंत्रित कर कहती है,'मुझे तुम्हें भैया कहना ही अच्छा लगता है.'  आँचलिक उपन्यासों में प्रमुख नाम फणीश्वर नाथ 'रेणु'  का है.मिथिला के आंचलिक जीवन का बहुत जीवन्त चित्रण उन्होंने किया है.ग्राम्य नारियों की विभिन्न भूमिकाएँ उन्होंने प्रत्यक्ष की हैं,
कमली,दुलारी ,फुलिया ,लालपान की बोग़म कहानी में चंपिया और उसकी माँ ,टीसनवाली बहू,व्यंग्य करती महिलाएँ मिथिला के लोक-जीवन के बीच बड़ी स्वाभाविकता से उभारी गई हैं   ग्रामीण लोग जिस प्रकार देखते हैं बिलकुल उन्हीं की दृष्टि से उन्होंने उन्हें अंकित किया है.जैसे 'फुलिया पुरैनिया टीशन से आई है एकदमै बदल गई है फुलिया.साड़ी पहनने का ढंग ,बोलने बतियाने का ढंग ,सब कुछ बदल गया है -
'तहसीलदार साहब की बेटी कमली अँगिया के नीचे जैसी छोटी चोली पहनती है वैसी वह भी पहनती है.'
उस जीवन की सहजता के अनुरूप ही उनके पात्र सहज रूप से हँसते हैं ,दुखी होने पर चिल्ला-चिल्ला कर रोते हैं,लड़ते-झगड़ते और फिर मिलकर बैठते हैं .कहीं कोई कुंठा नहीं है.
   प्रेमचन्द के उपन्यासों पर पहले ही विचार कर लेना चाहिये था. उनका आगमन गांधी जी के राजनीति में प्रवेश के साथ हुआ था और उन्होंने ही हिन्दी कथा-साहित्य को जन-सामान्य के जीवन से और विशेष कर ग्रामीण जीवन से जोड़ा. उनके गोदान को ग्राम्य-जीवन का महाकाव्य कहा जाता है.प्रेमचन्द ने आरंभ से ही रूढ़ियों का विरोध किया और नारी-जीवन की विभिन्न समस्याओं को प्रस्तुत करते हुए उनके समाधान का प्रयास किया . अपने पहले उपन्यास 'प्रेमा'  में उन्होंने विधवा-विवाह का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था. 'सेवा-सदन' में वे अभिशप्त नारी के अभिभावक बनकर सामने आए
'सुमन' के चरित्र द्वारा उन्होंने समाज के खोखलेपन को खोल कर रख दिया. जब तक सुमन सतीश की है, उसके हिस्से में अपमान और यंत्रणाएँ ही आती हैं.दहेज के राक्षस ने उसे अयोग्य पति को सौंपे जाने को विवश किया,उसके परित्याग के बाद समाज का तिरस्कार सहते-सहते लाचार हो कर उसने वेश्या-वृत्ति अपनाई रूप-जीवा बनने के बाद उसके लिए आदर और मान के द्वार खुले, उसका अर्थाभाव भी दूर हो गया . 'निर्मला' में बेमेल विवाह  और नारी की विवशता की कहानी है.
'गोदान' में उन्होंने शहरों की पढ़ी-लिखी पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त मालती और उसकी बहिन बुद्धिजीवी संपादक की पत्नी गोविन्दी,तथा मज़दूरी करनेवाली महिलाओं के अतिरिक्त ग्रामीण नारी के सभी वर्गों को प्रस्तुत किया है.'मालती बाहर से तितली है और भीतर से मधुमक्खी'-परिवार के भऱण-पोषण का दायित्व उस पर है,जिसे वह निभा रही है.पुरुषों के साथ मुक्त हो कर हँसती-बोलती है लेकिन उसके स्वभाव में एक शालीनता है.
पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से उसे स्वयं को पुरुषों के समकक्ष  रखना आता है.
स्वाभाविक दुर्बलताएँ भी उसमें हैं लेकिन बाद में उसका चरित्र बहुत ऊँचा उठ जाता है.
प्रेमचन्द ने स्त्री को पुरुष से श्रेष्ठ माना है.ग्रामीण चरित्रों में धनियाँ ,झुनियाँ ,सोना,रूपा नोहरी. सिलिया आदि में भी व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा हुई है .उनके नारी चरित्र पुरुष चरित्रों की अपेक्षा अधिक सतर्क,प्रखर और व्यक्तित्व-संपन्न हैं.ये नारियाँ पुरुषों की चरित्रगत कमियों की पूर्णता के रूप में आई हैं,जहाँ पुरुष पात्र निराश और असफल हैं ,वहाँ लगातार जूझती हुई ये परिणाम को अपने अनुकूल बनाने को सतत चेष्टारत रही हैं.
गोदान में उन्होंने भारतीय समाज का संपूर्ण वातावरण उपस्थित कर दिया है.'ग़बन' को छोड़ कर अन्य सभी उपन्यासों में उन्होंने अन्य समस्याओं के साथ स्त्री के दाम्पत्य-वैषम्य का चित्रण किया है.अनुचित और अनमेल विवाह का परिणाम दिखाया है कई निर्दोष व्यक्तियों को भयंकर मानसिक पीड़ा और परिवार का सर्वनाश.प्रेमचन्द की नारी में भारतीय नारी का स्वाभाविक संयम है.वे स्त्री की दयनीय दशा से व्यथित थे और उन्हीं पहलुओं को उन्होंने  उपन्यास में स्थान दिया जिनमें सुधार की आवश्यकता थी.
प्रेमचन्द के काल में और उनके पश्चात् नारी -जीवन की विषमताओं को लेकर जो उपन्यास लिखे गये वे दो प्रकार के हैं - 1.आलोचनात्मक यथार्थवादी. 2. नग्नतावादी.
आलोचनात्मक यथार्थवादी उपन्यासकारों में भगवती प्रसाद वाजपेयी के 'अनाथपत्नी' 'त्यागमयी', 'पतिता की साधना', वृन्दावन लाल वर्मा के 'लगन' ,'कुण्डलीचक्र',प्रसाद के 'कंकाल',और 'तितली',विश्वंभर नाथ कौशिक का 'माँ' ,'भिखारिणी' उषा देवी के 'पथचारी','पिया',निराला के 'अप्सरा','अलका' आदि.इनका विषय पुरुष की अक्षम्य उच्छृंखलता और नारी की भयंकर पराधीनता एवं विवशता है.ये उपन्यास स्त्री को वंचित करनेवाली रूढ़ियों को उखाड़ फेंकने की आवाज़ उठाते हैं.वृन्दावन लाल वर्मा के 'कुण्डली चक्र' में दो प्रकार के नारी चरित्र हैं एक विवश हो कर मनचाहे पुरुष से विवाह नहीं कर पाती ,दूसरी अपनी बुद्धि और धैर्य से काम लेकर अपना प्राप्य पा लेती है. यह वास्तव में स्त्री पर मनमानी की कहानी है .ललित सेन के शब्द लेखक का संदेश-वहन करते हैं,'तुम्हीं यदि कुछ रौद्र प्रकृति की होतीं तो आज यह नौबत क्यों आती.?तुम लोगों की आदर्श-प्रियता ने ही बहुत से पुरुषों को नरक का कीड़ा बना रखा है.'
नग्नतावादी उपन्यासों में उग्र,.आचार्य चतुर सेन शास्त्री,ऋषभ चरण जैन,मन्मथनाथ गुप्त आदि के नाम आते हैं.
इनका मुख्य विषय व्यभिचार है. मन्मथनाथ गुप्त ने स्पष्ट किया है कि समाज में जब स्त्री का पाप खुल जाता है तभी वह पाप है .चतुरसेन  ने बाल्यकाल से ही विधवा होकर समस्त सुखों से वंचित रहनेवाली युवतियों में नैसर्गिक वासना का जाग्रत होना दिखाया है और फिर उसे कैसी-कैसी ठोकरें खानी पड़ती हैं और जीवन नर्क हो जाता है.इन उपन्यासों में स्त्री स्वयं अपनी दुर्बलता या वासना की शिकार हो कर पतन की ओर जाती है.
उपरोक्त विश्लेषण के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जिस सामन्ती-प्रेम का वर्णन करते हुये साहित्य थकता नहीं, वह बे-लगाम वासना की कहानी है.उस समाज मे व्यभिचार बुरी तरह फैला था.अवसर पाते ही स्त्रियाँ भी स्वेच्छाचार पर उतर आती थीं
इसके अतिरिक्त वह कुछ और करने को स्वतंत्र नहीं थीं.निलकुल उसी तरह जैसे अवनति काल में रोमन स्त्रियाँ केवल व्यभिचार में ही स्वतंत्रता का अवसर पाती थीं. इसलिये यह अनुमान लगा लिया गया कि उसकी स्वाधीनता का अर्थ नकारात्मक है. 
   स्त्री-पुरुष में सहज स्वाभाविक-दो व्यक्तियों का समान संबंध दुर्लभ था.वह पुरुष की मित्र और साथी बन कर जीवन में साझेदारी नहीं पा सकी,वश-वर्तिनी की भूमिका में ही रखा गया.
समर्पण और सद्गुणों के कारण पूजित हो कर भी व्यक्तित्व की गरिमा नहीं प्राप्त कर सकी ,मानवी-जगत से अलगाव की स्थिति में रही .उसका व्यक्तित्व हमेशा मांसल समझा गया.
पुरुष जब नारी को पूर्णतः अधिकृत कर लेता है तो वह वस्तुतः एक वस्तु में परिणत हो जाती है,फिर वह चाहता है उसका आदिम जादुई आकर्षण भी बना रहे .पर दासी और सहधर्मिणी एक साथ कैसे हुआ जा सकता है. वह निरंतर परजीवी और पराश्रिता रही, सहयात्री होने का अवसर उसे नहीं दिया गया.
  सोरेन कीर्केगार्द के अनुसार नारी के माध्यम से ही जीवन में आदर्श का प्रवेश होता है,वह पुरुष को आदर्श का सृजनकर्ता तभी बना सकती है जब उसके संबंध पुरुष के साथ नकारात्मक हों और तभी पुरुष असीमित बनता है. सकारात्मक संबंध उसे सीमित कर देता है.पुरुष नारी से कई भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ एक साथ चाहता है,सेविका और प्रेमिका.समाज में पुरुष का यौन सांसारिक माना गया और स्त्री के यौन पर धार्मिकता का ठप्पा लगा रहा.
समाज के हित के लिये स्त्री का सदा दमन किया गया .यदि वह पुरुष को हर प्रकार का सुख-संतोष देती है (वह चाहे जैसा भी हो)पूर्ण समर्पित हो कर अपना अस्तित्व मिटा देती है तो वह देवी है ,उसका अपना व्यक्तित्व होते ही वह डायन हो जाती है.श्रम करनेवाली मधुमक्खी,और बच्चों के पालनेवाली मुर्गी के स्थान पर उसे मकड़ी और नागिन ही कहा जाता रहा. ये सारे विशेषण संत-काव्य ने नीति-काव्यों में स्थापित कर नारी के साथ जोड़ दिये थे.
काम-संबंध पुरुष की इच्छा से स्थापित किये और तोहमत स्त्री पर लगाई जाती रही कि वह नरक में घसीटती है,चाहे उसके पीछे स्त्री को जीवन भर नरक भोगना पड़े.
  स्त्री से सबसे अधिक विद्वेष रखने वाला पुरोहित-वर्ग रहा जो शारीरिक संबंध को पाप समझता था और विवाह को सांसारिकता में फँसाने का माध्यम.स्वाभाविक जीवन को स्वीकृति देना उसे हीनता का द्योतक लगता था. साहित्य में यदि देखा जाय तो कवियों की प्रेरणा अधिकतर नारी ही रही और काव्य की विषय वस्तु भी .पुरुष अपनी शक्ति को तभी सार्थक मानता है जब स्त्री उसे अपना सौभाग्य मान कर स्वीकार करे.
   दलित वर्ग की सदा यह स्थिति होती है कि वह अपनी वास्तविकता सावधानी से छिपाता है ,उसे अपना कृत्रिम रूप सामने रखना होता है. स्त्री भी मुक्त मन से अपनी बात कहने में सदा असमर्थ रही ,उसे वही बोलना पड़ता था जो उसे सिखाया जाता रहा कि क्या बोलना चाहिये. विवाह और मातृत्व ही उसकी संपूर्ण नियति बनी रही . साहित्य में भी सदा यही देखने में आता है कि एक बुद्धिमान और दबंग लड़की की तुलना में खूबसूरत और बेवकूफ़ ही पुरुष को जीत पाती है और जीवन में आसानी से सब-कुछ पा लेती है.
स्त्री के जीवन का अर्थ सदा नैतिक मान्यताओं का पोषण और कामनात्मक जीवन का दमन रहा. इसलिये उसका अपना व्यक्तित्व नहीं बन सका.
नारी को देखने का प्रत्येक कलाकार का अपना दृष्टिकोण तो होता ही है पर उस पर युग का प्रभाव भी पड़ता है.आज नारी के प्रति जो दृष्टिकोण बदला है उसके पीठे वर्तमान काल की बदली हुई परिस्थितियों का हाथ है,कुछ पिछले युगों के प्रयास भी रहे हैं .यदि समर्थ स्त्रियाँ इतिहास में बिरली हैं तो उसका कारण उनका स्त्री होना नहीं ,बल्कि  सामाजिक स्थितियाँ  हैं. सार्वजनिक हित के लिये सदा स्त्री का दमन किया गया.आज के साहित्य में भी दोनों की भूमिकाओं में पर्याप्त भिन्नता है. दोनो अपनी-अपनी दुनिया में जीते हैं,एक दूसरे से अनजाने,
परस्पर पर दोषारोपण करते हुये.
स्त्री को गृहस्थी की माँगे ले कर सांसारिकता में जीना है .उसका का अपना क्षेत्र सीमित रहते हुए भी परिवार में निजत्व का विस्तार कर अपना सुख-दुख सबसे जोड़ लेती है. और पुरुष अपेक्षाकृत अपने में सीमित, बस यही है  एक अंतराल की शुरुआत.क्योंकि पुरुष अपने को समर्थ और संपूर्ण समझता है, स्त्री उसकी  सामयिक आवश्यकता .आवेग का ज्वार उतरते ही जब सांसारिक जीवन के कटु यथार्थ सामने आने लगते हैं तो  उसे लगता है वह फँस गया, उसका अहं उसे चेताता है.वह बाह्य-जीवन के अनेक पक्षों और उसकी विविधता में जीना चाहता है .पारस्परिकता उसे मान्य नहीं.अपने से पृथक् समझने के कारण स्त्री उसकी समझ से बाहर है,वह उसे अबूझ और रहस्यमय कह कर निश्चिन्त हो जाता है.अपने अहं की तुष्टि के लिये वह स्त्री को हीन समझना उसके लिये बहुत आसान है ,भले ही वह उसकी अपनी  हीनता का नारी पर आरोपण हो..स्त्री भी पुरुषों की दुनिया से अलग-थलग .समान स्तर पर सहयोग के अभाव में वह अपने को निरंतर वंचित -प्रवंचित अनुभव करती है.
 समान मानवीय स्तर पर नारी और पुरुष दोनों के स्थापित होने की कल्पना जब तक यथार्थ में परिणत नहीं होती तब तक ये विसंगतियाँ बनी रहेंगी.कभी कोई एक रूप लेंगी ,कभी कोई दूसरा,लेकिन प्रकृति के सहज विकास और पूर्णतर होने की प्रक्रिया से दोनों वंचित रह जायेंगे. तब असन्तोष और कुण्ठायें ही मुखऱ होंगी, चाहे जीवन हो चाहे साहित्य.
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- प्रतिभा सक्सेना.
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