मंगलवार, 29 जुलाई 2014

कथांश - 10.

*
सुबह की गाड़ी से निकल जाऊँगा.
घर पर कह रखा था रात तक पहुँचूँगा .तब सोचा था अब सब अलग हो रहे हैं कोई कहीं जाएगा, कोई कहीं -फिर जाने कब मिलें .हो जाए थोड़ा और साथ  .रात में सोने भी कौन देगा ! सुबह आराम से उठूँगा, थोड़ी शापिंग भी ...कुछ गिफ़्ट्स वगैरा सबके लिए ,मीता के पिता के लिए भी. लगा था .कोई बेटा नहीं उनके ,मैं ही उनके लिए कुछ करूँ.
पर अब कुछ करने का मन नहीं है .यहाँ रुकना किसी से बात-चीत करना भी अच्छा नहीं लग रहा.तय कर लिया बस, अब सुबह ही निकल जाऊँ.    
 चार बजे तक हंगामा होता रहा .कमरे में आकर बिस्तर पर पड़ जरूर गया पर नींद कहाँ आती !
सामान पहले ही समेट गया था .था ही क्या अधिकांश पहले ही घर पहुँचा आया था.
बीच-बीच में अजब सी गफ़लत, उड़ते सपनों जैसी .
फिर नहीं लेटा गया उठ कर बैठ गया ,सुबह की रोशनी फैल गई थी .
आँखें कड़ुआ रही हैं पाँव मन -मन भर के हो रहे हैं ...पर उठना तो है ही .
स्टेशन तक कुछ लोगों का साथ मिल गया .आगे अकेले ही जाना है
रास्ता चुपचाप कट गया .सोचता रहा क्या कहूँगा माँ से?
वे भी  जाने कितनी बातें छिपा जाती हैं.
सच कभी नहीं बताएँगी .वसुधा से भी क्या आशा करूँ !किसका, कैसे विश्वास करूँ ?
मीता आएगी क्या ?क्या पता .कैसे सामना होगा ?
धूप तेज़ हो गई थी .वहाँ उन को पता था रात तक आ रहा हूँ.  इन्तज़ार कौन करता! 
दरवाज़ा खोलती वसु के मुँह से निकला था , ' अरे ,भइया .आ गये....'
सामान रख कर भाड़े के पैसे चुका दिए .माँ आगे बढ़ीं मैंने पाँव छुए .असीस की बुद्बुदाहट सुनी ,कंधे पर हाथ फिरा .
माँ उदास लगीं, वसु चुप .

फिर  वह रसोई में चली गई - लस्सी ले कर आई .
' नहीं, मैंने  कुल्ला तक नहीं किया है.'
माँ के मुँह से निकला 'अभी तक !'
 मैं क्या कहता !
'वसु, बस  पानी दे दे.'
पानी का गिलास ,शीतल जल .माटी के नये घड़े की सोंधी गंध , अनोखा तोषता स्वाद, सूखते गले को कुछ चैन पड़ा.
हर गर्मी में माँ पीने के पानी के लिए मिट्टी का घड़ा ज़रूर रखती हैं.
 'भइया ,बहुत तप गए हो , लस्सी पी लो न !'
लस्सी लिए खड़ी है .
वसु का उतरा-सा चेहरा देखा नहीं गया .इस बेचारी ने क्या किया !
ले ली उसके हाथ से ,वहीं पड़ी चौकी पर रख दी,नल से कुल्ला कर आया .बैठ कर पीने लगा .
माँ दूसरी ओर कुछ कर रहीं थीं .
कितनी चुप्पी फैली है घर में.
'कब है  वसु, तेरा प्रोग्राम ?'
'शनिवार को .'
बैग से कपड़े निकाले, वसु तौलिया पकड़ा गई .
नहा कर आईने के सामने खड़ा हूँ ,अपना चेहरा अनपहचाना-सा लग रहा है ,बालों में कंघा फेरकर हट आया .मन कर रहा है रहा है आँखें बंद कर ,चुपचाप लेट जाऊँ .
असली बात कोई नहीं बताएगा .कैसे किसका विश्वास करूँ ?
 होस्टल से बिदा की  भेंट-सी वह पंक्ति बार-बार उजागर हो जाती है - जैसे मन की करियाई  स्लेट पर उजली खड़िया से लिख गया हो कोई - 'धिक् जीवन ...'.
 'धिक् ...'
माँ किसी काम से इधर आई थीं ,मैं वसु से पूछ रहा था, ' ..तो यहाँ बड़े-बड़े काम हो गए ! '
उन्हें देख कर पूछा .'तुम भी तो उसका हिस्सा रहीं ?'
माँ ने सिर उठा कर देखा था,कहा कुछ नहीं .
'और वसु, तू उस खास मौके पर  नहीं गई ?
 ' कोई प्रोग्राम कहाँ था ?मुझे तो पहले से मालूम  भी नहीं ......'
मैं सुनता रहा, वही बोलने लगी -
'मेरा तो बहुत बिज़ी टाइम रहा .दीदी ने म्यूज़िक कंपीटीशन में नाम  लिखवा दिया ,अपनी प्रेक्टिस से ही छुट्टी नहीं .घर पर भी बहुत कम रुक पाती थी .'
माँ अल्मारी से कुछ निकाल रहीं थीं.
'वसु बता रही थी तुम्हारे लिए तो राय साब के यहाँ खास तौर से बुलावा था - रीत-नीत पूछने-बताने के लिए... .'
 आज मेरे मुँह से पहली बार  मीता का घर न निकल कर  राय साब का घर निकला. उन्हें धनपत राय कोई नहीं कहता .नेम-प्लेट पर लिखा है - डी.राय ! मैंने तो मीता के फ़ार्म पर पढ़ लिया था  ,पहला नाम शायद ही कोई जानता हो ,राय ही चलता रहा - राय साब !
वे कुछ बोलें उसके पहले ही वसु बोलने लगी -
'उसी दिन सुबह कहलाया था, और माँ जाने क्या समझीं , खुश-खुश पूजा कर उतावली सी चली गईं .'
माँ की वह मनस्थिति कैसे बता पाती वह !
वहाँ से  रीत-नीत पूछने बुलाया गया है सुन कर कैसी पुलक उठी थीं वे - मन के आँगन में कितनी संभावनाओं की दस्तक सुनाई देने लगी थी. ..लड़का लायक निकला ,तो ये दिन देखने को मिला. विचार-शृंखला उन्मुक्त हो चली थी.
  'हाँ ,भैया  माँ को जाने क्या क्या लग रहा था. ,मिलने .और.. जरूर कुछ खास बात करने बुलाया होगा !'
उसके शब्दों का आशय भासित कर मैं अपना आवेग रोक न सका -  
'तू चुप कर, झुट्ठी !'
वह अचकचा कर चुप हो गई .
माँ ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा - पहचानने की कोशिश कर रहीं होंगी कि  यह वही है, जिसे जन्म देकर इतना बड़ा किया !
फिर वे बिना कुछ बोले  रसोई में चली गईं .
अध-भीगा तौलिया अभी तक कंधे पर पड़ा था .
बाहर अरगनी पर डालने गया  देखा - रसोई में खड़ी माँ , भाप से बार-बार सीटी  देते और वेट  के साथ ऊपर तक  छींटे उछालते कुकर को मूर्तिवत्  देखे जा रहीं हैं.
*

सोमवार, 21 जुलाई 2014

कथांश -9.

  *
कल  रात बहुत देर तक बैठक जमी  .जिन्हें अच्छा ऑफ़र मिला ,उनमें मैं भी एक था ,लोग  घेरे बैठे रहे .  अभी और कंपनियाँ आनेवाली थीं देर-सवेर  मिलने की आशा सबको थी.
'सुबह निकलना है' - कह कर मुश्किल से जान छुड़ाई .
सोचता जा रहा था - बिना किसी सूचना के  अचानक  पहुँचूँगा .एप्वाइंटमेंट लेटर हाथ में है. सबको चौंका दूँगा .
साढ़े आठ वाली ट्रेन पकड़नी है सुबह, बारह-एक तक घर पहुँच जाऊँगा .
वसु दौड़ेगी - अरे भइया आए ! उसे उठा कर नचा दूँगा .माँ से कहूँगा  '  तुम बिलकुल निश्चिंत हो जाओ  . तुम्हारे आराम के दिन आ गए,'
 फिर किसी तरह जल्दी मीता के पास पहुँचूँ  .बाबूजी से भेंट करूँ.
 माँ से पूछ लूँगा -  मिठाई ले कर जाऊँ क्या ?
  मीता से कहूँगा,' अब मैं अपने बल पर खड़ा हूँ - मैं समर्थ हूँ .' बाबूजी  के  चरण-स्पर्श करूँगा कहूँगा - बस आपका आशीर्वाद चाहिए. और कुछ नहीं . उन्हें सोचने-समझने का समय दूँगा .बाकी मीता सँभाल लेगी .'


 रूम में पहुँचा . भाड़ से दरवाज़ा खोला .नीचे पड़ी  चिट्ठी दिखी -इनलैंड था .वसु का होगा ! मैंने ही  कह  रखा था ,इधर बहुत व्यस्त होने के कारण मैं नहीं आ पा रहा हूँ सप्ताह में एक बार अपने हाल ज़रूर लिख दिया करे.वह बराबर खबर देती है .
तुरंत खोल डाला .इधर-उधर की बातें फिर लिखा था 'भइया - मीता का वाग्दान हो गया.हो तो पिछले हफ़्ते गया था ,तुम्हें लिखना भूल गई थी.'
हाथ से कागज़ छूट पड़ा .और भी बहुत-कुछ लिखा था...फिर से पढ़ने की कोशिश की ,
अक्षरों पर नज़र घूमती रही .कुछ समझ नहीं आ रहा था.
गिलास भर पानी पी कर बिस्तर पर पड़ गया.
अंदर ही अंदर कितनी प्रतिक्रियाएँ उठ रही हैं.जाने क्या-क्या उमड़ा चला आ रहा है. तीखी चुभन जाग उठी है.
मीता, मुझे पता था तुम उन्हें बहुत प्यार करती हो.यह भी जानता था,हमारे परिवार के लिए उनकी धारणा क्या थी. ये भी जानता हूँ . तुम्हारे पिता मेरी माँ को परित्यक्ता समझते हैं.
सब कुछ जानते हुए भी, जाने क्यों मुझे विश्वास था . एक बार उन्हीं ने कहा था ,लड़का समर्थ और अपने को सिद्ध करनेवाला हो तो भी एक बात है .क्या मैं समर्थ नहीं , क्या मैंने अपने को सिद्ध नहीं किया ?

फिर भी इतनी उतावली ?
 उन्हें यही चिन्ता थी कि लड़का आगे क्या करेगा ,आमदनी पता नहीं कितनी हो ! पर मैंने  तो पूरा भविष्य सुरक्षित कर दिया.


 पिता हैं न !बहुत प्यार करते हैं बेटी को. उनके मन में शंकाएँ थी.

कहीं घर-द्वार नहीं , पिता से अलग . सब-कुछ स्वाभविक नहीं लगता .सम्मान्य - संभ्रान्त परिवार हैं हम? .समाधान कोई कैसे करता?
विग्रह तो था ही. जो होना चाहिए था वह नहीं था .पिता थे पर किसी ने कभी देखा नहीं उन्हें.  कहाँ से ला कर खड़ा कर देता ?

 वे पुत्री के पिता थे  .क्या-क्या सोचा होगा . सभी के पिता सोचते हैं .. पर..मेरे पिता ?
मन में कड़ुआहट भर आई .

 तय कर लिया था अब इस बारे में कुछ नहीं सोचूँगा ,बिलकुल, नहीं . 

इसके साथ जाने क्या-क्या याद आ जाता है.  अब तो बीत गया वह समय , आगे की सोच रे मन !
हमने जो किया अपने बल पर किया!किसी से माँगने नहीं गए.अपनी मेहनत से आगे बढ़े हैं .इस बात को तो वे भी मानते हैं. बिना किसी आसरे के ,सिर पर कोई हाथ नहीं  ,ट्यूशन का सहारा रहा था बस . हाँ, माँ के संघर्ष का एहसास भी है उन्हें .मीता के पिता ऐसे सेल्फ़मेड का महत्व जानते हैं !
कई बार सहानुभूति प्रकट की थी उन्होंने . पर मुझे स्नेह चाहिए .  उस सहानुभूति से आगे बढ़ आया हूँ .किसी की कृपा नहीं , बराबरी का -आत्मीयता का व्यवहार चाहिये और अपनी माँ के लिए सम्मान  भी !
  कुछ बन कर अपने को सिद्ध कर तुम्हारे घर आ रहा था ,मीता, तुम्हारे पिता के  चरण-स्पर्श करता .उनसे बाबूजी कहता .तु्म्हारे पिता को अपने से बढ़ कर मानता .पर वह नौबत ही कहाँ  आई ?
- कोई नहीं है मेरे लिए ,मुझे कुछ समय देने वाला थोड़ी प्रतीक्षा करनेवाला, कहीं नही  कोई !
 अजीब सी मनस्थिति में रात बीती.
सुबह तन्द्रा में डूबा था , बाहर से आवाज़ आई ,'अरे ,क्या कर रहा है तू ,तैयार हो गया ?'
होस्टल  का मेरा  मित्र आकाश था .
उठ कर  दरवाज़ा खोला वह अंदर चला आया
 मैं बिस्तर पर बैठ गया था , कुछ करने का मन नहीं कर रहा था ..
' घर नहीं जा रहे ?.तुम तो  ..'
' अब नहीं जा रहा..'

'क्यों ,क्या हुआ ?'
'बस नहीं जा रहा ,मन बदल गया .अब फेअरवेल के बाद ही इकट्ठा ही जाऊँगा.'
'इत्ती अच्छी नौकरी बिना एप्लाई किए मिल गई ,सैलरी भी बिना माँगे ड्योढ़ी .कल तो उछल रहे थे खुद जाकर सरप्राइज़ देनेवाले थे ,अचानक क्या हो गया ?'
क्या हो गया - क्या कहूँ ?
आकाश कह रहा था,
'इतना अच्छा ऑफ़र  ,तुम तो बड़े खुश थे, अब सुस्त क्यों पड़े हो? .'
' एक दिन को जाऊँ .क्या फ़ायदा !दो दिन बाद जाना ही है .कहीं बीमार पड़ गया तो मुश्किल हो जायगी .'
सो तो है .बार-बार का जाना-आना ,जब कि फ़ाइनली जाना ही है. दो दिन में क्या फर्क पड़ना है. "
'चल ,कल हम लोगों ने हल्ला-गुल्ला कर इतना जगाया , तेरे इस सेलेक्शन को सेलिब्रेट कर रहे थे न ! सो ले ,और थोड़ा .जाता हूँ.  ' 

उठ कर खड़ हो गया फिर बोला -
'कल की कल्चरल नाइट के लिए दुरुस्त हो जा तू ,तुझे भी नचाएँगे हम . कल आखिरी प्रोग्राम होंगे, हमारे लिए ,हमें बिदा करने के लिए .यहाँ का काम खत्म ,अब आगे बढ़ो !
वह  चला गया .
*

मैं चुपचाप लेटा रहा ,भीतर आँधियाँ चल रही हैं .
अकेला रहना चाहता हूँ .
वसु ने लिखा है पिछले सप्ताह ही सब हो चुका था ! लिखना भूल गई थी.
'भूल गई थी' ! जान बूझ कर नहीं लिखा उसने - झुट्ठी कहीं की !
झूठी होती है सारी औरतें .और नहीं तो ?

ऐसे आयोजनों की आहट पहले से आ जाती है ,कुछ तो तैयारी होती है अचानक नहीं हो जाता सब-कुछ .मीता को पता होगा , उसने माँ को बताया न हो ऐसा नहीं हो  सकता . वे  भी  कार्यक्रम का हिस्सा बनी रहीं  ?
 मीता ,तुम अगर अड़ जातीं तो ये  कुछ न होता .पिता सारी ज़िन्दगी बैठे रहेंगे - साथ देंगे तुम्हारा ?उन्हें समझा सकतीं थीं . बेटी थीं तुम . तुम्हारी माँ नहीं तो क्या अपने लिए खुद बोल सकतीं थीं .

सब ढोंग  है .दूसरों का विचार कि वह दुखी न हों ,और घर की इज्ज़त के लिए भी झूठा दिखावा करते देखा है तुम लोगों को .ऐसी झूठी मर्यादा की क्या ज़रूरत? 

 ओ  मेरी माँ , कभी किसी को सच बताया तुमने? सारी तोहमतें खुद पर लादती रहती हो .दूसरों को कुछ नहीं कहतीं .मुझे तक नहीं. माँ , तुम भी कितनी छलनामयी हो !
स्त्री को बनाया है प्रकृति ने -मायाविनि!जिसका सच कोई नहीं जानता - कौन सा रूप असली है, कौन नकली ? सारे असली या सारे नकली : या उन सबसे परे है  नारी-  सिर्फ़ एक पहेली . जिसे कभी सुलझा न पाया कोई .

मैं भी नहीं समझ पाया  न माँ को, न मीता को .स्त्री-चरित्र  को कौन जान सका है ?
मीता ,ऐसी संकोची तो नहीं हो तुम .पिता से लड़ लेती हो ,डाँट भी लेती हो- जानता हूँ मैं ! जब बाबूजी नहीं सुनते तो तुम्हारा हथियार होता  ' आज को माँ होतीं मेरी...'और  जहाँ उनकी दुखती रग छुई  ,वे पिघल जाते  - तुम्हीं ने बताया था मुझे.
पता नहीं वहाँ कैसे, क्या हुआ ,जो  इतने  दबाव  में आ गईं .. .
 दूसरे की कमी पर  पर्दा डालना , अन्याय सह कर भी विरोध नहीं  , इसलिए कोई नहीं जानता किसी पर क्या बीतती है .
घर के अंदर कुछ होता रहे दुनिया न जान ले कहीं ,और इसीलिए एकदम निडर हो जाता है आदमी !
पर इस तरह सारे जीवन को दाँव पर लगा देना ...उफ़ !
जब तुम स्वयं अपना नहीं सोचतीं ,कोई दूसरा क्यों सोचे !


अरे , मैं क्यों रो रहा हूँ ? ये आँसू क्यों बहे चले आ रहे हैं ?

कहाँ तक पोछूँ ?कौन देखता है यहाँ ! बहने दो.. .रुक जाएँगे अपने आप .

 स्त्री-चरित्र ऐसा क्यों है? क्या मिलता है इससे तुम्हें ?सबके लिए सोचती हो  , अपना ही नुक्सान करती हो तुम. इसीलिए तो..तुम्हारी  कमज़ोरी का  सब लाभ  उठाते हैं. 

औरत क्यों होती है ऐसी ? वह विवश नहीं , अपनी सी पर उतर आए तो क्या नहीं कर सकती ?फिर ..क्यों ऐसी बनी रहती है?
माँ ने शुरू से विरोध नहीं किया ,दबती रहीं ,अशान्ति से डर कर ,लोगों की बोली से बचने को .कभी किसी से कु़छ नहीं कहा. अपनी बात कहने पर उतारू नहीं हुईं  .जब तक वहाँ रहीं मनमानी सहती रहीं .पर तुम ऐसी क्यों हो ?
 मेरे मन में आक्रोश ही आक्रोश  है - क्यों नहीं  शुरू से सामना किया जाता? सच बोलने में मर्यादा भंग होती है क्या ? अच्छा तो ये होता कि ऐसा कुछ हो जाता कि  मेरे जन्मने की नौबत ही न आती .
पारमिता, तुम भी ऐसी हो ?
तुम मेरी कमज़ोरियाँ ,मेरी कमियाँ  जानती रहीं.मेरी सीमाओं से अवगत हो तुम ! फिर भी मुझे स्वीकार करती रहीं . 

 और कोई चाहे  कुछ करे ,  मीता ,तुम ने भी कुछ नहीं सोचा ?
 तुम्हें अच्छी तरह पता है कि  मैं हरेक के साथ नहीं रह सकता!
 न अपना, न मेरा, किसी का विचार नहीं किया तुमने !

तुम स्त्रियाँ ऐसी क्यों होती हो ?
 यही तिरिया चरित्तर है .शुरू से यही होते देखा है - मेरी बात पिता से छिपाना,और पिता की मुझसे. क्यों इतना डरती हो तुम लोग? और क्यों इतनी दब्बू हो तुम ?कपटी हो तुम सब !पूरा सच साफ़-साफ़ क्यों नहीं सामने बोलतीं औरों के लिए अच्छी बनती हो ,अपने स्वयं से यह प्रवंचना क्यों ? क्यों इतना भला बनने की कोशिश  जिसमें अशेष ग्लानि ही पल्ले पड़े ! इसी में तो मात खाती हो!
क्यों मीता, तुम्हें क्या कहूँ?पिता से बहुत प्यार  था तुम्हें ? इतना पढ़-लिख कर भी कुछ नहीं हो पाया तुमसे !

 उनने तुम्हारे कारण एकाकी जीवन बिताया ,पर इसका यह मतलब  नहीं कि तुम्हें ही दाँव पर लगा दें !
 सब-कुछ जानता था मैं .फिर भी लगता था सब ठीक हो जाएगा.बहुत आशावादी था ,अपने कुछ बनने का विश्वास था .समझ गया हूँ  अब  मेरे कुछ भी करने से पिछले अध्याय अनलिखे  नहीं हो सकते! 
जाने क्यों इतना विश्वास था मुझे !.
क्यों था?

*

बुधवार, 9 जुलाई 2014

कथांश - 8.

*

पूरे एक सप्ताह बाद आज मीता को इधर आने का मौका मिला है .
दरवाज़ा खोलते ही वसुधा ने शिकायतें शुरू कर दीं ,'अच्छा ,तब तो आगे कर दिया संगीत प्रतियोगिता के लिए ,और मुझे फँसा के  अपना गोल हो गईँ ...वाह दीदी !'
'अरे, घुसने तो दे ..मेरी बात भी सुन ..आज कैसे निकल पाई  ..'
बोलते-बोलते  वह अंदर आ गई . 
रसोई के बाहर माँ थाली में राई उछाल रहीँ थीं ,' मैं कहूँ कि मीता यहीं है कि कहीं चली गई  .' 
' वो रमन चाचाजी आए थे न ,बाबूजी के पुराने दोस्त.उन ने उन्हें रोक लिया . मेरा तो कहीं निकलना मुश्किल हो गया .पर वसू, तू क्यों नहीं आ गई ? ये शिकायत मैं करूँ तो ?'

' वहाँ कॉलेज के फंक्शन में तुम्हीं ने फँसाया .मैं वहाँ आऊँ तो बाबूजी   रोक लेते हैं 'आ शतरंज सिखाता हूँ '. मुझे नहीं सीखना .संगीत की प्रैक्टिस के लिए वैसे ई टाइम नहीं मिल रहा..'  
' वो तो उनकी आदत है ,पर इतना खुश मैंने उन्हें कभी नहीं देखा ,आजकल तो जैसे शकल ही बदल गई है  .'
'अच्छा ! तभी इधर नहीं आ पाई  ..कोई बात नहीं बिटिया ,घर में ये सब चलता है .'

'वो चाचाजी हैं न 'मीता-मीता' की पुकार लगाए रहते हैं .शतरंज खेलने बैठ गए तो समझो नहाने-खाने की छुट्टी .मुझे  ही बार बार टोकना पड़ता है .बाबू जी को तो वैसे ही अपनी सुध नहीं रहती.'
मीता का मुँह देखती, चुपचाप सुने जा रही हैं वे .
'.. मैं कहती हूँ तो - हाँ, बस अभी .बस दो मिनट .और फिर जम गए .जब जाकर सिर पर खड़ी हो जाऊँ कि मैं तो भूख से मरी जा रही हूँ  तब कहीं जाकर उठते हैं...'
'...आजकल तो खाने में भी परहेज़ नहीं करते..भूख भी ठीक से लगने लगी है.'
माँ ने टोका ,' परहेज़ नहीं करते ,ये तो गलत है . '
'मेरी तो सुनते ही नहीं .क्या करूँ माँ, कहते हैं खुश हूँ तो खुश रह लेने दे . हफ़्ता भर हो गया महराजिन से कह कर दे पराँठे,पकौड़े, कोफ़्ते ऊपर से हलुआ .इसी लिये मैं निगरानी रखती हूँ.उनका मुँह देख कर ज्यादा टोक भी नहीं पाती .'
'बेटा, अपने चाचाजी से कहना.दोस्त हैं न उनके ,वे समझाएँगे . पर  ,उनके सामने नहीं, पीछे.'
'हाँ, यही करना पड़ेगा .'

'ये मिर्च का अचार डाल रही हैं ,अरे वाह ..थोड़ा मेरे लिए भी...'
*
'आज पता है कैसी मुश्किल से निकल के आई हूँ ! बस, आपकी तबीयत का हाल जानने ..अरे, ये क्या बनाया है माँ ?...सूखेवाले गट्टे ..कब से नहीं खाए.महराजिन तो ठीक से बना ही नहीं पाती  .'
'हाँ, हाँ  तुम ले जाना. पर बैठो  ज़रा देर .'
'नहीं बैठ पाऊँगी माँ, आज विनय आ रहा है, चाचाजी का बेटा .'
'अच्छा ,रुकेगा फिर तो ?'
'रुकेगा कैसे? दो दिन की छुट्टी ली है बाबूजी से मिल लेगा और चाचाजी को साथ ले जाएगा ..वहाँ कॉलेज में पढ़ाता है न. '

माँ अपना काम करती रहीं . 
'वसु को दो दिन और गाइड नहीं कर पाऊँगी,कहना मंदा के साथ प्रेक्टिस कर ले ... वहीं गई होगी ..'
'हाँ !'
उनके अंदर कुछ ऊभ-चूभ होने लगा  है .
मीता चली गई, वे चुप देखती रहीं . 
 *
' तुम आ गए रमन ,मेरी सारी समस्याओं का हल मिल गया .मैं बहुत खुश हूँ ,  ज़िन्दगी का अब कोई ठिकाना नहीं  अन्दर से कुछ-कुछ लगने  लगा है .अब कभी भी कुछ हो जाए तो चिन्ता नहीं ,ये जो कुछ है अब तुम्हारे जिम्मे .'

व्याकुल सी मीता पुकार उठी  ,'बाबूजी..'
धीर बँधाते रमन बाबू बोले ' तू दुखी मत हो बेटी ,ये ऐसा ही है .बड़ी जल्दी हार बैठता है.बिलकुल ठीक हो जायगा मैं जानता हूँ .'
 '  घबरा मत बेटा ,अपनी ड्यूटी  पूरी कर निश्चिंत होना चाहता हूँ .' दोस्त की ओर घूम कर बोले, 'भाभी से मेरी ओर से माफ़ी माँग लेना रमन .उनके आने का इन्तज़ार भी नहीं किया .उनसे  कहना मैं रुक नहीं सका.'
बाहर का दरवाज़ा खड़का .
'कोई आया है .शायद, '
मीता उठ कर जा रही थी ,इतने में  वे आती दिखाई दीं .
'अरे ,माँ !'
'हाँ , मैंने  उन्हें आने को कहलाया था ..उन्हें इतना मानती है न तू .'
वे अंदर चली आईं -
 'आजकल तो खूब मौज कर रहे हैं ,बिटिया बता रही थी..  .'
' आइए, आइए. आज कुछ खास बात के लिए आपको आने का सँदेसा भेजा था .पहले भी  कई बार याद किया था .'

वे सुनती रहीं ,ध्यान में जाने क्या-क्या आता रहा . 
  ' कुछ रीत-नीत की बात करनी थी ,'
' मुझे लगा था आपकी तबीयत..मीता ने बताया था भाई साहब आये हैं, ' इशारा रमन बाबू की ओर  था.  
'आप बहुत बदपरहेज़ी कर रहे हैं...'
'मैं बिलकुल ठीक हूँ ,पर लगता है ज्यादा ही खा लेता हूँ आज कल .'
उनके बोलने को कुछ नहीं .
' बहुत दिनों बाद खुश होने का मौका मिला .अरमान पूरे कर लूँ ,ज़िन्दगी का कौन ठिकाना..'
'ऐसे मत बोलिए भाई साहब ,बिटिया पर क्या बीतेगी ये तो सोचिए ..' 
मीता की बुआ के साथ वे भी उन्हें भाई साहब कहने लगीं थीं .  
फिर अपने दोस्त से बोले ,' इन्हीं ने सहारा दिया है .जिज्जी अपने पूजा पाठ में मगन रहतीं थी ..उनसे बढ़ कर इनने बिटिया को अपनापा दिया. '

अधिकतर मौन रहेवाले  वे आज बोले चले जा रहे हैं ,
 'खुश होने का मौका कहाँ मिलता है ?  फ़िर  मीता की फ़िकर लगी रहती है .पर  हाँ, इधऱ कुछ ज्यादा ही हो गया ,मुझे भी लगता है ...कल   शाम से  बड़ा अजीब लग रहा है .बिलकुल उठने की इच्छा नहीं हो रही आज तो.'  .
'अब क्यों परेशान हो  ?अब तो विनय भी आ गया ...'

विनय? हाँ ,याद आया उन्हें - मीता ने बताया था .
तभी वह नाश्ते की ट्रे ले कर आई .
'लो मिठाई भी आ गई .'
'अरे विनय कहाँ है ,उसे भी बुला लो .बिटिया देख तो, नहा चुका कि नहीं ?'
फिर उन्होंने खुद ही आवाज़ लगा दी .
'आ रहा हूँ ,' कहता विनय चला आ रहा था .
आकर मीता की माँ को नमस्ते किया उसने -सुदर्शन संस्कारशील युवक.
प्रौढ़ महिला देख पाँवों पर झुकने लगा .
'ना बाबू, ना, ' उन्होंने बरजा .
'अरे, तो क्या हुआ ,बिटिया तो माँ कहती है इन्हें .कितना मानती है...इन से ही सारे गुन-ढँग सीखे हैं .इसकी माँ तो छुटपन में ही ..'
और विनय ने झुक कर उनके पाँव छू लिए .
आशीष देते-देते उनका जी धक्-सा हो गया .

'मेरा ,बड़ा बेटा है यह .मीता की माँ की गोद पला ,मेरी पत्नी उन दिनों बड़ी बीमार रहीं .ये बड़ा कमज़ोर था.कोई आशा नहीं थी  .. उन्हीं ने दिन -रात सेवा कर जिलाया  .वो  तो इसे उन्ही का कहती है.'
 मीता को वहीं अपने पास बैठा लिया था बाबूजी ने .
विनय पासवाली सोफ़े की सीट पर.

'मैं वैसे ही बीमार रहता हूँ ,अब निचिंत होना चाहता हूँ .आज ',...'कहते-कहते उन्होंने मीता का हाथ पकड़ा ,विनय से पूछा, 'तुम राज़ी हो न ?'
उसने संकोच से सिर झुका लिया .उसके पिता ने स्पष्ट किया ,' इसे  पहले ही सौंपा जा चुका है .'

'आपकी आज्ञा है, रमन बाबू ?
'शुभस्यशीघ्रम् ! हम तो इसकी माँ को ये खुशखबरी देने को उतावले हो रहे हैं.'
'बहिन जी ,जोड़ी अच्छी है न ?'
यंत्रवत् जिह्वा हिली,' बहुत बढ़िया !'
अपनी ही आवाज़ पर  चौंक उठी हों जैसे  - विनय को देखा ,फिर मीता को - खूब सिर झुकाए बैठी है.पता नहीं  चेहरे पर क्या भाव हैं .

ये तो  सभी जानते हैं, लड़की अपने वाग्दान पर लजाई रहती है.
बाबूजी ने मीता का हाथ पकड़े-पकड़े विनय से हाथ माँगा .उसने दाहिना हाथ बढ़ा दिया .
उस हाथ पर मीता का काँपता-सा हाथ रख कर बाबूजी ने दोनों हाथों से  थाम लिया -
'आज से मेरी बेटी तुम्हारी हुई. '
'और मेरा बेटा  ,वो तो शुरू से
तुम्हारा है ',  रमन बाबू ने एक वाक्य और जोड़ दिया .
माँ देखती रहीं - जड़ सी .
दोनों समधी एक दूसरे को बधाई देते गले मिल रहे हैं .
'अरे, मुँह मीठा कराओ '- महराजिन चौके से उठ आई हैं ,उन्हें आहट लग गई कि  कुछ खास हो रहा है .
बढ़ कर मिठाई की प्लेट बाबू जी को थमा दी .
'हमार तो जी जुड़ाय गवा .'
 आगे बढ़ कर दोनों की बलैया ली और खड़ी रही वहीं .

 मीता एकदम चुप है ,बैठी की बैठी .फिर धीमे से उठी .जा कर उनसे लिपट गई . अपने में समेट लिया माँ ने.
रमन बाबू बोल उठे ,'हाँ, आपको ही माँ माना है उसने ,और कौन है यहाँ ?'
'आपका ही आशीर्वाद चाहिए इन दोनों को !'
वे आगे बढ़ीं पर्स में से एक नोट निकाला और दोनों पर वार-फेर कर महराजिन को पकड़ा दिया .
विनय फिर उनके चरण-स्पर्श को झुका, सिर पर हाथ रख दिया उन्होंने .
'अब तू भी चली जाएगी बिटिया ' आँखं भर रहीं थीं ,मीता की भी .
 अधिक खुशी आ पड़े या दुख ,आँसू अनायास बहने लगते हैं !  

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