बुधवार, 30 जून 2010

किताब और किचेन

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अपने मन की किताब मिल जाये तो उसे पढ़ने का मज़ा ही कुछ और है ।पर ऐसी किताब आसानी से मिलती कहाँ है जिसमें मन डूब कर रह जाये ।बहुत दिनों बाद एक मन की मिल पाई है ।जब से पढ़ना शुरू किया , और सब चीजों से मेरा ध्यान हट गया है ।सारे काम पड़े हुये हैं और मैं बैठी हूँ उसमे डूबी हुई ।बीच में किसी का आना-जाना न हो ,यही मना रही हूँ मैं । सुबह ग्यारह बजे लोग चले जाते हैं ,पति अपने काम पर ,कामवाली सुबह के बाद आती है साढे पाँच -छः तक ।तब तक मेरी छुट्टी ।पाँच बजे जब ऑफिस से लौटेंगे ,चाय नाश्ते का काम होगा ।पर तब तक तो मैं इसे पूरी कर लूँगी ।
जब चाहो घर पर कोई न आये तब उपत कर कोई -न-कोई आ धमकता है ।आज पड़ोस की अम्माँ जी आकर बैठ गईं ।
बहू घर पर है नहीं ,मन नहीं लगा सो इधर चली आईँ ।बैठना पडा उनके साथ ।मन किताब में ही उलझा रहा ।उनने पूछा ,'क्या बात है ,बहू ,आज कुछ अनमनी लग रही हो ।'
'हाँ अम्माँ जी ,सुबह से सिर धमक रहा है ।बाद में सो लूँगी आप बैठिये ।'
'अरे हम तो ,यूँ ही चली आईं।बहुत दिनों से तुम्हारी खबर नहीं मिली ,सोचा चलो देख आयें ।तुम आराम करो ।सो लो थोड़ा। '
वे उठ कर चलने लगीं ।
'अरे, आप तो सच्ची चली जा रही हैं '--कहते-कहते मैं उन्हें दरवाजे तक छोड आई ।
पौन घंटा यों ही चला गया ।
वे जब आती हैं कम से कम डेढ घंटा बैठती हैं और सारे मोहल्ले की खबरें दे जाती हैं ।आज यह सब जानने में मेरी रुचि नहीं है।इस सब से परे मेरे भीतर कुछ चल रहा है ।इस अनुभूति में खो कर भूख-प्यास तक खो जाती है,बाहर क्या चल रहा है इसका भान भूल जाती हूँ,कुकर पर वेट रखना रह जाता है ,दाल जल-जल कर कोयला हो जाती है ।मुझे तो उसकी महक भी अपने घर की नहीं ,पडोस से आती हुई लगती है ।वह भावलोक किताब बन्द कर देने के बाद भी मनोजगत पर छाया रहता है ।और कई-कई दिनों तक उस खुमार की मादकता में डूबी रहती हूँ।बाहरी दुनिया की कोई बात जब चौंका कर जगाती है ,तो एक झटका सा लगता है ।
मन में कथा के पात्र भीड़ लगाये हैं ,और मै जानने को व्याकुल हूँ कि आगे किसके साथ क्या हो रहा है ।
अचानक टेलिफ़ोन की घंटी बजने लगी है ।इस समय सब लोग आराम करते हैं ,झपकी लेते हैं फोन करने की कौन सी तुक है!
किसी महिला की आवाज़ है, अरे हाँ, सोनल है . अब आधे घंटे घेरे रहेगी ।मैंने आवाज़ बदल कर बोलना शुरू कर दिया ,
'आप किसे पूछ रही हैं ?'नाम सुनकर मैंने भरभराती आवाज में राँग नंबर कह कर फोन रख दिया ।
अभी न शाम के खाने की प्लानिंग की है ,न चाय के साथ क्या नाश्ता देना है यह सोचा है ।एक दिन तो बिस्कुट से भी काम चल सकता है ।और तब तक तो किताब पूरी हो जायेगी ,तभी सोच लूँगी ।अभी तो नायिका और उसकी सहेली के बीच जो तमाशा चल रहा है उसका समापन कैसे होगा यही सबसे बडी समस्या है ।ऐसी विचित्र स्थितियाँ हैं कि मुझे तो उबरने का कोई रास्ता नजर नहीं आता ।
मैं पढ़े जा रही हूँ ,समस्यायें घनीभूत होती जा रही हैं ।कहानी खिंचे जा रही है टी.वी. के सीरियलों की तरह ।सूत्र जाने कहाँ -कहाँ तक उलझे हैं ।कैसे सुलझेगी यह पहेली ,क्या होगा न जाने ?
मुझे अंत की प्रतीक्षा है ।
दरवाज़ा खटका ।घड़ी पर निगाह गई ।
अरे पाँच बज गये ,लौट आये दफ्तर से !
अब ?अब तो छोड़नी पडेगी अधबिच में ।सिर्फ बावन पेज रहे हैं ।अम्माँजी न आई होतीं तो पूरी हो गई होती ।किताब बिस्तर पर औँधा कर रख दी और दरवाजा खोल आई ।
पीछे-पीछे ये आ रहे थे ।
'आज ऑफिस में चाय पी ?'
'चाय नहीं पी ।माथुर ने केक खिला दिया था ।'
'अच्छा !'
'दो बजे खिलाया था ,लंच टाइम पर ।'
'हाँ,हाँ तुम बैठो ।चाहे फ्रेश होलो ,चेन्ज कर लो ।अभी चाय देती हूँ ।'
'चेन्ज-एन्ज कुछ नहीं करना है ।तुम चाय नाश्ता दे दो ।शायद सतीश आ जाये ।'
'क्यों ?सतीश क्यों आ रहा है ?'
'उसे अपना एक फार्म भरवाना है ।'
वे वहीं ड्राइँग-रूम में बैठ गये ।मैं अपने कमरे में आई ,औँधी रखी किताब उठा ली ।यह पेज खतम करके चाय बनाऊँगी ।पढने-पढते बैठ गई ।उस पेज का वाक्य अगले पेज तक गया था ।पन्ना पलटा तो भूल गई ,ये बाहर बैठे चाय का इन्तजार कर रहे हैं ।बडा रुचिकर प्रसंग चल रहा है ।अब तो खतम कर के ही उठूँगी ,नहीं तो सारा मज़ा ही गायब हो जायेगा ,मन की रसमयता पर पानी फिर जायेगा ।।
'अरे ,तुम कहाँ हो ?क्या कर रही हो ?'
'क्यों ?चाय बना रही हूँ ।'
यह कमरा किचेन के पास ही है ।किताब पढ़ते-पढ़ते मैं किचेन में गई और दो-तीन बर्तन खड़का दिये ।
अगर ऐसे में चाय का पानी रख भी दिया ,और चीनी की जगह नमक डाल गई तो सब बेकार हो जायेगा ।एक बार ऐसे ही मन किताब में लगा था और मैंने दूध छान कर चढा दिया ।किताब पढते-पढते जाने कैसे मैं कमरे में आ गई ।दूध उबलता रहा ,फैलता रहा और अंत में भगोना जलने लगा ।जलन की महक लगी ,मैंने सोचा पड़ोस के घर से आ रही है ।उस समय घर में कोई था नहीं ।भगोना जल कर काला पड गया ।
फिर मैं चौंकी 'अरे दूध !'
दूध कहाँ था वहाँ ,ऊपर से भी भगोना लाल हुआ जा रहा था ।मैंने झपट कर गैस बुझाई ।पढ़ना बीच में छोडकर यही तो होता ।ऐसा कुछ हो यह मैं नहीं चाहती ।
कुल पैंतीस पेज बचे हैं ,कितनी देर लगेगी ?मुश्किल से दस मिनट !बार-बार उठना न पडे मैं भगोना और चम्मच किताब के साथ कमरे में लेती आई ।हर दो पेज के बाद भगोना बजा देती हूँ ।ये इत्मीनान से बाहर बैठे हैं ।
किताब पढ़ते पर कोई आवाज देता है तो एकदम झटका लगता है ,लगता है जैसे मैं आसमान से जमीन पर आ पड़ी हूँ ।कितनी समस्याओं का समाधान होना है ।मन में शंकायें-कुशंकायें उठ रही हैं ,बिना पूरी पढ़े उनका निवारण कैसे होगा ?मुश्किलों का कोई ओर-छोर नजर नहीं आ रहा था ।ऐसी विषम परिस्थिति में पड़े रहना किसे अच्छा लगेगा !
'अरे अभी चाय नहीं बनी ?'
ओफ़्फ़ोह ,अपने यहाँ के आदमी !इन्हें किसी के जीने-मरने की परवाह नहीं ।मौका पडने पर एक कप चाय भी नहीं बना सकते।
लेकिन मैं कह नहीं सकती ,अभी कहा-सुनी होने लगी तो एकदम मूड चौपट हो जायेगा .सारा आनन्द गायब हो जायेगा और किताब धरी की धरी रह जायेगी ।नहीं इस समय कोई झक-झक नहीं ।
'बस ,होनेवाली है ।'
मैंने फिर भगोना बजाया ,सिर्फ़ दस पेज बाकी है ।
आप सोच रहे होंगे ,कि ये उठकर आ गये तो क्या होगा ?
मैं जानती हूँ ,उनकी आदत ।
 वहीं बैठे-बैठे चीख - पुकार मचाते रहेंगे ,उठकर नहीं आयेंगे । कम से कम दस मिनट तो नहीं ही ।और पढ़ने को अब बचा ही कितना ?पाँच -सात पेज !इसके बाद तो जाकर चाय चढ़ा ही दूँगी ।
मैंने भगोने में चम्मच डाल कर फिर बजाया ।सुन रहे होंगे चौके में बर्तन खनक रहे हैं -चाय बन रही होगी ।
सारी द्विविधाओं का अंत ,दुष्चिन्ताओं का निवारण अगले तीन मिनट में होने वाला है ।मन व्याकुल है, उत्कंठा अपनी चरम सीमा पर है.
 अभी मैं कैसे उठ सकती हूँ ?
हाथ बढा कर बिना देखे मैंने चम्मच से भगोना बजाना चाहा ,भगोना नीचे जा गिरा ।
'क्या हुआ ?'
'भगोना गिर पडा ।'
'तुम्हारे ऊपर तो नहीं गिरा ?'
'मैं बिल्कुल बच गई ।यहाँ फिसलन है, तुम इधर मत आना नहीं और किच-किच होगी ।वहीं बैठे रहो ।'बस अभी चाय लेकर आती हूँ ।'
दिमाग तो किताब में लगा है ।इसमें डूबी-डूबी मैं चाय कैसे बनाऊँ !वैसे भी इस मनोजगत से इतनी जल्दी निकल थोड़े ही पाऊँगी ,बहुत देर तक दिलोदिमाग पर यही खुमार छाया रहेगा ।ये कुछ कहेंगे ,मेरी समझ में नहीं आयेगा , दिमाग कहीं और व्यस्त होगा ।
पाँच मिनट और निकल गये ।
'अरे चाय ला रही हो ?'
'हाँ,हाँ ,बस होनेवाली है ।
अब तो सिर उठाने का भी मन नहीं है ।सारी उत्कंठाओं ,दुष्चिन्ताओं,और उलझी हुई समस्याओं का समापन और समाधान होनेवाला है।बस,तीन पेज !फिर मैं निश्चिन्त,निरुद्विग्न मन ले कर उठूँगी ,भगोने में पानी भर कर गैस पर चढा दूँगी ,और खड़ी हो जाऊँगीं वहीं उसी रस में डूबी ।इस मायालोक से इतनी जल्दी थोड़े ही बाहर निकल पाऊँगी ।कुछ करने का मन नहीं होगा।कोई कुछ कहता रहे सुनाई नहीं देगा,कानों तक पहुँचेगा पर समझ में नहीं आयेगा ।मैं चाय बनाती खड़ी रहूँगी उसी रस में भीगी डूबी-डूबी ।
मैंने भगोना उठा कर जोर से रक्खा ,इतनी जोर से कि इन तक आवाज़ जाये ।
 आखिरी पेज भी बहुत भरे भरे निकले,
'बस,बस होनेवाली है चाय । ला रही हूँ ।'
और मैंने आखिरी बार भगोने में चम्मच झनझना कर बजा दिया है ।

स्वभाव --

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मेला देखने के दिन आ गये ! भाव-ताव और क्रय-विक्रय से निवृत्त होकर,यहाँ आ बैठे है विश्राम की मुद्रा मे ।अच्छा लगता है बाज़ार के बीच दर्शक बन कर रहना । सहयात्रियों के साथ अनुभूतियाँ बाँटने के दिन हैं ,निरुद्विग्न भाव से धारा को देखने के ।जीवन और पानी बहते हुए ही अच्छे ! तरंगों से रहित जल और भावना कल्पना से रहित जीवन क्या रह जायेगा -निरा उदासीन ,एकदम फीका और सपाट ।
बच्तों के बच्चों के साथ मुक्त- भाव से जीने के दिन !अपने बच्चों के साथ मुक्त -भाव से जीने का मौका कहाँ मिलता है । दुनिया भर की जिम्मेदारियाँ लादे भागते-दौड़ते समय चुपके से निकल जाता है।कभी इसकी चिन्ता कभी उसका सोच इस सबके बीच अपनी निजता कहीं दुबकी बैठी रहती है।मन बार-बार पुकारता है ,सुनने का अवकाश लहीं होता ।दौड़ते-दौड़ते पीछे मुड़कर देखने का भी मौका नहीं मिलता ।अभी तक अनुभवों की पुटलियाँ बाँध-बाँध कर रखते रहे ,अब अपनी गठरी खोल कर औरों से मिला-जुला कर देखने ,फिर से परखने काअवसर मिला है।
मेरी मित्र को पौत्री-लाभ हुआ।भरत से दूर अमेरिका की इस पश्चिमी तटवर्ती भूमि पर जब चाहो मिलने की सुविधा भले ही न हो, फ़ोन करना बहुत आसान है। सो हम दोनो फ़ोन पर अपने अनुभव बाँटती रहीं।सोंठ हरीरा ,बुकनू से लेकर उबटन और मालिश की चर्चाएँ कीं।इस मामले मे मेरे अनुभवों की पोटली कुछ भारी बैठी । नव जात को उठाते लिटाते शुरू-शुरू मे उसकी जननी को भी डर लगता है -इतनी सुकुमार नन्हीं सी देह कहीं कुछ ग़लत न हो जाये ! न जाने किस उमंग मे , मै कह उठी,' मेरे पास भेज दीजिये ,मै कर लूँगी ।'
'कैसे भेज दूँ ?हम लोग ही कहाँ मिल पाते हैं एक-दूसरे से ,फिर माँ से अलग कर भच्चे को इतनी दूर -- .'
एकदम झटका लगा मुझे! यह क्या कह दिया मैने !क्यों कह दिया ! यह तो सच कह रही हैं ,मुझे सोच-समझ कर बोलना चाहिये था। मैने ग़लत कहा।पर गलती क्या?मन मे जब कोई तरंग उठती है तो वह सोचती-समझती है क्या?उल्लास का राग है वह जिसकी तान मे जो कुछ संभव नहीं है वह भी कह बैठते हैं हम !अन्तर्मन की अभिव्यक्ति अनायास हो जाती है ।कभी जब मै दूर भारत मे होती हूँ और मेरी पोती अमेरिका मे,फोन पर बातों के सिलसिले मे वह पूछती है ,'बड़ी माँ ,क्या बनाया है?'
मुझसे कहे बिना रहा नहीं जाता,'दही बड़े ।आजा ,खाले !'
हाँ बड़ी-माँ खाना है ।लाइये न!'
हम दोनो हँसते हैं ,मन तरंगायित हो उठते हैं । देना और खाना नहीं हुआ तो क्या हुआ और बहुत कुछ हो गया जो आनन्दित कर गया ।
लहर विकार है,यह सच है ,तरंग मिथ्या है ।पवन केआवेग से जलराशि अस्थिर है।सच तो जल है जितना गहरा उतना स्थिर!पर जल सचमुच स्थिर है क्या? स्थिर होना लाचारी है ,विवशता है,कोईउपाय नहीं उसके सिवा! रास्ता मिलते ही बह चलेगा जल -पवन के झोंके लहरें उठाएँगे,कभी ऊँची कभी नीची ,यह जीवन है।बहना प्रकृति है ,तरंग स्वभाव है -समाज से जुड़ने का ,रंग मे रँगने का!वह सच नहीं है पर मिथ्या भी नहीं है।जैसे आकाश के प्रतिबिम्ब जल को रँग देते हैं,भाव के रँग मे मन भी रँग जाता है भले अल्पकाल के लिये ही ! भावना रंग जेती है,उल्लास हृदय मे लहरें उठाता है ,तब भीतर जो सहज अनुभूति जागती है उसका अपना अस्तित्व है ।वह मिथ्या महीं है सच भले ही न हो!
उम्र के चौथे प्रहर मे मन , अपने आप मे मगन ,देखरहा है इस मेले को!नदी किनारे बैठ बहाव को देखने का निस्पृह आनन्द ! यही तो स्वभाव है - अपना भाव !
- प्रतिभा सक्सेना

दर्द की दवा --

कोई नई खोज करने का परिश्रम किसी खास देश के प्रबुद्धजनों ने भले ही किया हो ,उससे कल्याण सारे मानव- जगत का होता है ।दर्द से छुटकारा दिलाना बड़े पुण्य का काम और ऐसी दवायें बतानेवाला भी परोपकार के यश का भागीदार होता है। ऐसी युक्ति जान कर जिससे कष्ट से छुटकारा और सुख मिले लोग हमेशा दुआयें देते हैं ।
गर्दन के दर्द की इस दवा की खोज मंगोलिया में हुई। ज़ाहिर है वहाँ की महिलाओं की गर्दनें प्रायः ही दर्द करती होगी ।दवा ही ऐसी है कि सुन कर दर्द होने लगे ।मैंने जब अपनी मित्र को विस्तार से बताया ,उनके उसी दिन दर्द हुआ था, कहने लगीं ये इलाज वहीं की औरतों पर कारगर होगा ।'ऐसा कैसे हो सकता है' -मैंने कहा-'औरतें हर जगह की एक सी । समान प्रवृत्तियाँ ।एक से मन, एक से तन ।वही अनुभूतियाँ ,समान स्वभाव । दिल दिमाग सब एक ही ढर्रे का रचा है भगवान ने ।जो एक के लिये मुफ़ीद है सब के लिये होना चाहिये ।तुम अपने को सबसे निराला क्यों समझती हो ?चाहे प्रयोग कर के देख।'
उलन बटोर (मंगोलिया )के लोग महिलाओं को गर्दन की मोच के दर्द से मुक्ति दिलाने का बड़ा नायाब तरीका प्रयोग में लाते हैं ।महिलाओँ की सारी परेशानी एकदम उड़न-छू हो जाती है ।जिसकी गर्दन में दर्द है वह महिला घुटनों के बल बैठ जाय और किसी खूबसूरत पुरुष के घुटनों पर अपना सिर रख दे ।दर्द छू मंतर !
मंगोलिया के ऐसे उपाय और देशों में भी कारगर होंगे । आदमियों , औरतों को भी प्रकृति ने समान बनाया है ।एक जगह जो बात लागू होती है हर जगह होनी चाहिये ।मंगोलिया में जो इलाज कारगर है भला अपने भारत में क्यों नहीं होगा -ज़रूर होगा ।मानव प्रकृति हर जगह एक सी !
कहने को तो अपनी मित्र से मैं कह गई फिर सोचा यह तैयार हो गई तो इसके लिये कहाँ से लाऊंगी ऐसा व्यक्ति जिसके घुटनों पर यह सिर टका ले ।फिर दवायें भी उम्र, शरीर की अवस्था आदि देख कर प्रिस्क्राइब की जाती हैं।किस उम्र पर कितना कैसा क्या होना चाहिये यह जानने के लिये तो पूरी खोज करनी पड़ेगी ।
किसी दवा से किसी को एलर्जी हो सकती है ।किसे कैसा पुरुष चलेगा यह भी पहले जानना पड़ेगा । खूबसूरत पुरुषों का मार्केट बढ़ जायेगा क्योंकि यह बीमारी ऐसी है कि एक बार हुई तो बार-बार होने की संभावना बन जाती है ।वैसे पुरुष अधिकरतर अपने को कुछ खास समझते हैं। उस खासियत में ख़ूबसूरती शामिल है या नहीं यह जानने की मैने कभी कोशिश नहीं की ।यह भी पता करना पड़ेगा कि किस उम्र की महिला के लिये किस उम्र का पुरुष फ़ायदेमंद होगा ।नहीं तो कहीं पासा उल्टा पड़ गया तो दर्द और बढ जायेगा ।यह भी नहीं पता कितनी देर तक सिर उसके घुटनों पर रक्खे रहना है। और कैसे ? मुँह घुटनों पर औँधा कर या सीधा -आँखों से उसकी खूबसूरती निहारते हुये ।
किसी का दर्द धीरे-धीरे जाता है ,एक बार में नहीं ।कई खुराकें देनी पड़ती हैं यह रोगी की शारीरिक और मानसिक अवस्थाओँ पर निर्भर करता है ।कभी-कभी रिपीट भी करना पड़ता है ।इस सब को जानने के लिये तो विषेष अध्ययन की आवश्यकता है ।अध्य़यन के साथ अभ्यास - प्रेक्टिस भी !-व्यावहार में अलग-अलग मरीज़ों को ट्रीट किये बिना स्पष्ट हो नहीं सकता कि कितनी खुराक कहाँ कारगर है । हाँ,एक बात तो रह ही गई- खूबसूरती की सबकी अपनी-अपना पसंद होती है ।एक की रुचि को दूसरे पर थोपा नहीं जा सकता ।दवा का चयन रोगी को ध्यान में रख कर होना चाहिये ,उसकी एलर्जीज़ का विचार पहले ही कर दर्दवाली जिसे खूबसूरत माने उसी के घुटने पर सिर रखने से लाभ की आशा की जा सकती है ।वरना कहीं ऐसा न हो कि दवा उल्टी पड़ जाय और दर्द बढता चला जाये -लेने के देने पड़ जायँ । हमारे घरों में अधिकतर पति लोग अपने को पर्याप्त समझ बैठते हैं उनसे गुज़ारिश है कि भ्रम से मुक्त रह कर आचरण करें ।वैसे एक खूबसूरत पुरुष की व्यवस्था घरवालों पहले से कर ले तो अधिक अच्छा रहे ।पता नहीं कब कोई महिला गर्दन पकड़ कर बैठ जाये ।आजकल तो ऐसी ऐसी बीमारियाँ चली हैं कि एक से दूसरे को बड़ी जल्दी लग जाती हैं ।
बात इलाज की है ।ज़माना आदर्शवाद का नहीं है ।यहाँ हर चीज़ की कीमत चुकानी पड़ती है,मुफ़्त में कुछ नहीं मिलता ।कोई फोकट में इलाज करे यह भी संभव नहीं ।मर्ज ठीक करना है ,इलाज के लिये कीमत चुकानी होंगी ।वैसे एक बार शरीर या मन पर हावी होगये तो मर्ज़ जड़ से नहीं जाते ।बारबार होने की प्रवृत्ति बन जाती है ।कोई भी कमजोंरी या बुरी आदत आदत अगर मन उसमें रम जाये तो फ़ौरन लग भी जल्दी जाती है और फिर उसका छूटना मुश्किल !एक और कठिनाई। ऐसी दवा बाज़ार में नहीं मिलती ,दवादार ढूँढना पड़ता है । पता नहीं क्या कीमत वसूले ?मजबूरी मरीज़ की है। दर्द से छुटकारा पाना है तो मूल्य चुकाने पर राज़ी होना पड़ेगा जितना जैसा वह चाहे !चिकित्सा के लिये मूल्य देना ही उचित है नहीं तो दवा फ़ाचदा नहीं करती ।कीमत कैसे चुकायेंगी यह आप जाने और आपका काम जाने । इस पचड़े से हम दूर ही रहते हैं ।
।इस क्षेत्र में शोध और अध्ययन की अपार संभावनायें हैं ।
महिलाओं से,जिनकी गर्दन में वास्तव में दर्द है , निवेदन हैं कि इस इलाज से फ़ायदा उठायें ।कुछ बीमारियाँ ही मानसिक होती हैं, शारीरिक लक्षण बाद में दिखाई देते हैं ।शरीर और मन भिन्न नहीं एक ही वस्तु के दो पहलू हैं ।अगर कोई प्रतिक्रिया हो तो सारे लक्षण और इलाज हेतु प्रयुक्त व्यक्ति का विवरण के साथ शारीरिक स्थिति एवं मानसिक और भावनात्मक -प्रतिक्रया का पूर्ण विवरण प्रस्तुत करते हुये अपने अनुभव हमें विस्तार से लिख भेजें ।आपके अनुभवों से बहुतों का मार्गदर्शन होगा और भविष्य के शोध में आपका प्रशंसनीय योगदान होगा ।क्योंकि अध्येता को यह सावधानी से देखना पड़ेगा कि शिकायत वस्तुतः शारीरिक है या मानसिक (भावनात्मक) ,और स्वस्थ होने में मानसिकता का बहुत बड़ा योगदान होता है ।
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रविवार, 13 जून 2010

चन्दा की गिट्टक

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चंदा सिलाई कर रही है ।दाहिना हाथ पहिये के हैंडिल को बराबर घुमा रहा है और बायाँ हाथ सुई के नीचे के कपडे को व्यवस्थित करने में लगा है ।उसकी निगाहें मशीन की खटर-खटर के साथ आगे बढते कपडे पर लगी हैं ।पास ही चारपाई पर मैं बैठा हूँ ,मेरी निगाहें चन्दा की हर गतिविधि का निरीक्षण कर रही हैं ।मुझे मालूम है अभी 'गिट्टक उछल कर गिरेगी ,चकित सी चन्दा की आँखें उसके उछलकर गिरने की दिशा में घूमेंगी और औचक ही उसके मुँह से निकलेगा ,' अरे ,गिट्टक !ओफ ,कितनी दूर जाकर गिरी । '
इसी क्षण की प्रतीक्षा में मैं बैठा हूँ ।गिट्टक की उछलती गति के साथ उसकी आँखें फैल जाती हैं, मैं उसके गोल होते होंठों से निकते शब्द सुनता हूँ ।उसकी दृष्टि मेरी ओर घूमती है ,कुछ अनुरोध की भंगिमा में ।
मैं सब देख रहा हूँ ,एक -एक व्यापार पर मेरी दृष्टि है ,पर अनजान बन कर पूछता हूँ ,'क्या हुआ ?'
'वह गिट्टक ,' उसके होंठों से निकलते शब्द सुनता हूँ ।उसके उच्चारण का ढंग इतना प्यारा लगता है कि मेरी आँखें उसके कुछ गोल होंठों और फैलती आँखों पर टिकी रहती हैं। बार -बार सुनना चाहता हूँ ।मन मे रस की धारा प्रवाहित होने लगती है ।एक विचित्र सा आनन्द छा जाता है तन-मन पर। मैं उठ कर दौडा हूँ गिट्टक उठा कर उसके हाथ में दूँगा ,कहीं ऐसा न हो कि वह खूद ही उठ कर गिट्टक उठाने लगे ।चन्दा बैठी है निश्चिन्त ।गिट्टक लेते कृतज्ञ दृष्टि से मुझे देखती है ।मैं कृतकृत्य हो गया हूँ ।वह तिरछी हो गई डंडी को सीधा कर हथेली से ठोंकती है और फिर उसमें गिट्टक पिरो देती है ।'चन्दा ने पल्लू उठा कर अपनी मुँह पोंछा और फिर सिलने लगी है । खट्खटाक्-खट्खटाक् 'मशीन फिर चलने लगी है ।मशीन की वह डंडी ढीली है ,मैं जानता हूँ वह फिर टेढी होगी ,गिट्टक गिरेगी ।।इसी इन्तजार में तो बैठा हूँ ।
जब चन्दा सिलाई करती है तो मैं वहीं बैठा रहना चाहता हूँ ।जिस अंदाज से वह 'गिट्टक ' इस शब्द का उच्चारण करती है वह लालित्य मैंने कहीं नहीं देखा ।मेरी खिडकी से वह जगह दिखाई देती है ,जहाँ बैठ कर चन्दा सिलाई करती है ।जहाँ उसने मशीन खोल कर रखी मैं अपने घर में रुक नहीं पाता ।कभी कभी किसी खास रंग की गिट्टक बाजार से मँगाने के लिये मुझ आवाज भी लगाती है । उसकी ठोटी बहिन मेरे घर आकर खेलती है ,मेरी बहिन की सहेली है वह ।चन्दा का सिलने का टाइम होता है दोपहर बाद जब मैं स्कूल से लौट आता हूँ ।वह रोज-रोज सिलती भी नहीं ।महीने-दो महीने में एक बार दो-तीन दिन उसकी सिलाई चलती है ।वैसे वखत-बेवखत जरा-बहुत सिल ले, वह दूसरी बात है ।
जब चंदा सिलने बैठती है ,मैं ताक लगाये रहता हूँ ।मशीन पुरानी है गिट्टक उछल कर नीचे ही गिरती है ,और खुलती चली जाती है दूर तक ।मैं पहले चंदा का मुँह देखता हूँ ,उसे गिट्टक कहते सुनता हूँ ।ऐसे देखता हूँ ,जैसे मुझे गिट्टक के गिरने का पता ही न हो ।फिर दौड पडता हूँ ,उठाने ।उसके गिट्टक कहने की भंगिमा को मैं देखता रह जाता हूँ ।यह साधारण सा शब्द भी वह कुछ ऐसे बोलती है कि उसमें जादू समा जाता है ।सुनने के लिये मैं प्रतीक्षारत रहता हूँ ।
वह मुझसे तीन-चार साल बडी है ,और मुझे छोटा समझती है ।पर इतना छोटा और नासमझ नहीं हूँ मैं ।।मुझे चन्दा अच्छी लगती है ,और उसका 'गिट्टक' सुनने के लिये तो मैं मीलों का सफर तय कर सकता हूँ ।
जब भी मुझे पता चलता है कि आज वह सिलाई करनेवाली है ,मैं किसी-न-किसी बहाने आ बैछता हूँ ।कभी वह मुझसे लाल गिट्टक मँगाती है ,कभी हरी ।कभी उसकी गिट्टक का तागा टूटने लगता है ,तो वह परेशान -सी मुझे देखने लगती है।
डंडी ढीली होने के कारण गिट्टक छिटक कर नीचे जा गिरती है ,और चन्दा का पैडल पर घूमता हाथ रुक जाता है ,आँखें फैल जाती हैं ।वह इधर उधर देखती है कोई उठा दे तो सुई के नीचे दबा कपडा छोड कर उसे न उठना पडे ।और कोई वहाँ नहीं होता ,मै मौजूद रहता हूँ ।उसका चेहरा देखता हूँ ,और दौड पडता हूँ गिट्टक उठाने ।
चन्दा सिलती रहे ,गिट्टक गिरती रहे ।मैं उसकी कृतज्ञ दृष्टि का अपने चहरे पर अनुभव करता देखता रहूँ ,सुनता रहूँ दौड-दौड कर गिट्टक उठा कर उसे पकडाता रहूँ । बस,गिट्टक उछलती रहे ,चन्दा चौंकती रहे ,और मैं उसके पीछे भागता रहूँ ,उलझा रहूँ उसके रंगीन धागों में जन्म-जन्मान्तर तक !

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