शनिवार, 15 जून 2013

स्वीकारे बिना निस्तार नहीं .

 'बड़ी माँ, मेरी मामी चादर को चद्दर कहती हैं,और चाकू को चक्कू!'
मेरा पोता अपने ननिहाल से आया था .शाम को आकर मेरे पास बैठ गया .
बहू सुन रही थी ,' कैसा भोला बना बैठा रहता है जैसे कुछ सुन ही न रहा हो ,और सब नोट करता रहता है .'
मन-मन हँस रही हूँ मैं .
पोते से कहा मैंने , 'हाँ, हर जगह अपने ढंग से बोलते हैं लोग.'
   मुझे याद है हमारे ताऊ जी -पिताजी वगैरा ख़तों में कन्नौज में क के नीचे नुक्ता लगा कर 'क़न्नौज' लिखते थे . देसी बोलियाँ घर में बोलने की आदत थी .खड़ी बोली घर से बाहर ही रहती थी .पिछली पीढ़ी तक घरों में अपने-अपने क्षेत्र की बोली चलती रही.पारिवारिक समारोहों उत्सवों आदि में देसी बोलियों का ही बोल-बाला रहता था ,विवाह,मुंडन कनछेदन आदि पर गीत भी - लोक-जीवन के रंगों में रचे रस-सिक्त गीत. खड़ी बोली अधिकतर बाहर बोलने में  प्रयुक्त होती थी .
 लोग चिट्ठियाँ फ़ारसी या उर्दू में लिखते थे ,पराधीन जनों के  औपचारिक- सामाजिक व्यवहारों में  शासकीय भाषा-अनुशासन का प्रभाव आ ही जाता है . या फिर पंडिताऊ ढंग पर 'अत्रकुशलम् तत्रास्तु' से शुरू कर बँधी-बँधाई पारंपरिक शब्दावली में . आगे चल कर चिट्ठी-पत्री अंग्रेजी में होने लगी..इस पीढ़ी के लोग अब घर में भी खड़ी बोली बोलते हैं पर बोलने और लिखने में   टोन थोड़ी बदल जाती है 
 हमारे पिता जी कन्नौज के थे ,माताजी हरदोई की .हम लोग मध्य-भारत की ग्वालियर स्टेट में . कन्नौज जाते वहां घरों में कन्नौजी बोली जाती  ,माता जी के घर की बोली में थोड़ा फ़र्क था ,और मध्य-भारत में मालवी चलती थी.मराठी भाषा भी खूब सुनने को मिलती थी. स्कूलों में किताबें खड़ी बोली में पढ़ाई जातीं था पर समझाने और बोलने में क्षेत्र का पूरा प्रभाव भी रहता था.
 हिन्दी बोलने में  भी हर प्रान्त के अपने शब्द-रूप और बोलने की अपनी टोन  एक अपना फ़्लो  है -स्थानीय शब्द तो होते ही हैं .समय के साथ नये शब्द भी सम्मिलित होते हैं और भाषा में उतनी एक रूपता नहीं रह पाती. इसे भाषा-विकास भी कह सकते हैं भाषा का क्षेत्र बहुत व्यापक होने पर कुछ कारणों से -स्थानीय प्रभावों आदि के कारण ,शब्दों के रूप ,प्रयोग में अंतर आता जाता है .ब्लागों पर 'रायता फैलने' की बात ,चौचक,आदि और बहुत से शब्द  शुरू में मेरी समझ नहीं आते ,झकास,बिंदास . इसी प्रकार स्थानीय शब्द धीरे-धीरे  मुख्य भाषा में आ जाते हैं .और अब ब्लागों पर तो क्षेत्रीय भाषाएँ बहुत मुखर हो गई हैं - जवार,एकदम्मै,जोगाड़,मारू,पट ठेलना,मनई  सारे अपनी-अपनी भंगिमा लिये मंच पर उपस्थित हैं. जीवित भाषाओं की इस प्रवृत्ति को रोका नहीं जा सकता ,हिन्दी भाषा के क्षेत्र में बड़ी उठा-पटक चल रही है. कभी भी इस पर बड़ा भूचाल आ सकता है.
भाषा का सतत गतिशील रूप ही उसका जीवन है .कोई कितनी भी हाय-हाय मचाये दूसरे को गलत बताता रहे.मानक भाषा अपनी जगह चलती रहेगी लोक-जीवन यों ही चलता रहेगा और उसके साथ-साथ भाषा भी .कोई कुछ नहीं कर पाएगा .स्वीकारे बिना निस्तार नहीं .

बुधवार, 12 जून 2013

मन की मौज

*
बिस्तर पर लेट जब मन अपनी मौज में होता है और मुक्त विचार परंपरा चल निकलती है तब  प्रायः ही कुछ मज़ेदार बातें ध्यान में आने लगती है.सोच-सोच कर हँसी भी आती है.ऐसी ही एक बात कल याद आ गई -
बहुत पहले की घटना  है - तब कानपुर में थे हम , बच्चे छोटे थे.
उस दिन हम लोग अस्सी फ़ुट रोड़ से हो कर पनकी जा रहे थे .दोंनो बच्चे साथ में थे सोचा एक बिस्किट का पैकेट यहीं से खरीद लें .गाड़ी साइड में रुकवा ली .मैं नीचे उतरी थी .
 पति ने कहा ,'वो उधर ज़रा बढ़ कर दो पैकेट ग्लूकोज़वाले ले लो,' साथ ही जोड़ दिया  'देख कर पार करना !'
 दस का एक नोट बढ़ाते हुए दुकान का ओर इशारा कर  दिया .मैं लेकर चल दी .उस   पार थी दुकान. मैं उधर ही बढ़ गई .
पहुँच कर मैंने वही दस का नोट दुकानदार को पकड़ाया ,'दो पैकेट ग्लूकोज़ वाले बिस्किट!'
बड़े ताज्जुब से उसने मेरी ओर देखा ,और साइडवाली दुकान की ओर इशारा कर दिया .
अब मेरा ध्यान गया - अरे, यहाँ तो  होम एप्लाइन्सेज़ भरे हैं !
एकदम उससे नोट  लिया मैंने और साइडवाली  की दुकान की ओर बढ़ गई .
सड़क के उस पार से बैठे-बैठे देख रहे थे .
मेरे पहुँचते ही पूछा,' क्यों , तुम उस दुकान पर बिस्कुट माँग रहीं थीं ?'
'तुम्हीं ने तो  इशारा कर के बताई थी सीधी वहीं चली गई.'
 ' तो क्या कहा उसने ?
'कहता क्या उसने सही दुकान दिखा दी .तुम्हें पहले ही ठीक बताना चाहिए था .'
*

शनिवार, 8 जून 2013

चैलेञ्ज का नतीजा .


आज मैंने एक समाचार पढ़ा - लोक-प्रिय के अंतर्गत .पढ़ कर मुझे बड़ी खुशी हुई .लोग महिलाओं को कमज़ोर आदि जाने क्या-क्या समझते हैं .खतरनाक और हिम्मतवाले कामों पर अब तक  अपना एकाधिकार समझ रखा था पुरुषों ने.

लीजिये, पढ़िए पूरी ख़बर -

महिलाओं ने फैक्ट्री की दीवार फाँद उड़ाया सामान .
(है न हिम्मत का काम !)
 लुधियाना .शिकायतकर्ता जोगिंदर सिंह ने बताया कि 30 मई को अपनी लोहे की फ़ैक्ट्री फैक्ट्री बंद करने के बाद घर चला गया. इसी दौरान कुछ अज्ञात महिलाएं फैक्ट्री की दीवार फाँद कर अंदर आई और अंदर से 15 क्विंटल लोहे का सामान चोरी कर फरार हो गईं. इसकी कीमत 75 हजार रुपये हैं। 31 मई सुबह जब जोगिंदर ने फैक्ट्री में आकर देखा, तो अंदर से सारा सामान गायब था.पड़ोस में रहने वाले व्यक्ति ने बताया कि उसने फैक्ट्री में से कुछ महिलाएँ सामान ले जाते देखी थीं.
*
दीवार फाँदना कोई आसान काम है क्या ? पर हो गई शुरुआत. आज एक फाँदी है कल को दूसरी दीवारें फाँदेंगी .हर तरह की दीवारें .
हमेशा चैलेंज देते रहते हैं आदमी ,मनमाना आचार-व्यवहार  उन्हें लगता है अपना अधिकार .अब  देख लो नतीजा.अगर तुल जाएँ तो क्या नहीं कर सकतीं महिलाएँ !
  हिकारत से मत देखो उन्हें ,ज्यादा मीन-मेख मत निकालो. सहज रूप से रहने दो .नहीं तो पछताओगे बैठ कर.
वैसे एक अनुमान और है किसी महिला के पति को पुलिस पकड़ ले गई होगी .अब छुड़ाने को रिश्वत माँग रहे हैं .पति ने कहलवाया कहीं से इंतज़ाम करो नहीं तो मैं बेमौत मारा जाऊँगा .
क्या करती बेचारी ?आपस में सलाह कर  डट कर लोहा लिया .मजबूरी रही होगी सो काँटे से काँटा निकाल लिया . 

सोमवार, 3 जून 2013

भक्ति या आसक्ति ?

आदिकालीन कवियों में विद्यपति,मेरे प्रिय कवि रहे हैं.पर मैं आज तक निर्णय नहीं कर पाई कि उनके काव्य में शृंगार की प्रधानता है या भक्ति-भाव की.अन्य कवियों में स्पष्ट पता चल जाता है .सूर तुलसी आदि कवियों का मूल स्वर भक्ति का है  .पर विद्यापति ने अपने काव्य में दोनों का  मिश्रण कर ऐसा टाफ़्टा बुन डाला कि पता ही नहीं लगता कौन सा स्वर अधिक मुखर है , कठिन है तय करना कि वे कि मूलतः वे  भक्ति के  कवि हैं या शृंगार के .
शृंगार की गहन रूपासक्ति में भक्ति की उज्ज्वलता ऐसी घुली कि
विलगाना मुश्किल हो गया -
'गिरिवर गरुअ पयोधर परसित गिम गज-मोतिक हारा ,
काम कंबु भरि कनक-संभु पर ढारत सुरधुनि-धारा .'

और ऐसे एक नहीं अनगिनत उदाहरण .
यों तो भक्ति में आराध्या का शृंगार वर्णन  मर्यादा के अंतर्गत नहीं आता पर सभी तुलसी नहीं होते .कालिदास ने  कुमार-संभव में कोई बाधा नहीं मानी ,सूर कृष्ण के सखा रहे तब वहाँ परदे की गुञ्जाइश कहाँ ?उनके लिये सब जायज़ हो गया .और रीति काल को तो एक आड़ चाहिये थी घोर दैहिकता के लिये .
सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि की भावना भक्ति का भाव धरे है या आसक्ति का - लगता है, फिर से पढ़ना पड़ेगा विद्यापति को !