शनिवार, 26 जनवरी 2013

इतना तो विहित है -



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अब के लोगों के गले से ज़रा कम ही उतरेगी .बात तब की  है जब हमारे देश में स्त्रियाँ पति का नाम नहीं लेती थीं, मेरी तो ऐसी आदत पड़ी है कि अब भी 'ये' 'वो' कह कर काम चलाती हूँ .कभी नाम लेना भी पड़े तो अपने ही कान खड़े हो जाते हैं .और 'ये' धड़ल्ले से शुरू से नाम लेकर चिल्लाते रहे .तभी मेरा पोता बोलना शुरू करते ही मेरा नाम ले कर आवाज़ देने लगा. अपने ननिहाल में मेरा खूब तमाशा बनवाया है उसने. अब तो खैर बड़ा हो गया है .
 हाँ ,तो मुझसे 15 साल बड़ी मेरी जिठानी फरक्काबाद(फ़र्रुखाबाद)की . उनकी चाची ,बड़ी क़ायदेवाली रहीं..('क़ायदा' =बहुओं के आचरण को नियंत्रित रखने के लिये ,खास अर्थों में ढाला गया एक  पारिभाषिक शब्द है.).
 उनके पति का नाम था 'पीतांबर' -सब 'पितंबर' कहते . इसलिये उन्होंने कभी  सितंबर महीने तक का नाम तक अपने मुँह नहीं लिया. शैतान देवरों ने पूछा तो बोलीं ,'का फरक है  ,एकै अच्छर को तो है!'
सही बात ,एक अक्षर इधर-उधर हुआ तो उनका तो धर्म गया !
 (सच्ची , मुझे भी  सितंबर शब्द बिलकुल 'पितंबर' की टक्कर का लगता है - एक साथ बोलिये 'सितंबर-पितंबर'  समान लगे न!) .
एक दिन मुझसे बोलीं ,' काहे तुम किलास में लड़कियन के नाम कैसे लेती हो ?.'
मैं तो चकपका गई .उनने स्पष्ट किया -
' जैसे लाला को नाम किसउ लड़किनी को नाम होय तो ..? अब तो लड़कियन के नाम भी ....'
'हाँ वो तो है... .तब? ..तब मैं ... मैं क्या करती हूँ ,..' मैं तो फँस गई .
मुँह से सच निकल गया तो अभी  शिकायत ऊपर तक न पहुँच जाय  सो बोली ,'शकल देख के 'उ'  (उपस्थित) लगा देती हूँ .'
उनसे और क्या कहती मैं !
वैसे एक लड़की है ,पति की नामाराशि ,पढ़ने-लिखने के नाम डब्बा गोल . ऊपर से क्लास में चकर-मकर करने में मुस्तैद.
अब नाम लेकर डाटूँ नहीं तो क्या सिर पे बिठाऊँ ?
पर घर पर कह तो नहीं सकती न !
फिर जब सामने हों ऐसी निष्ठावतियाँ जो पितंबर के हित में सितंबर का उच्चाटन कर डालें ,
तो मुझे अपनी भद्द पिटवानी है क्या ?
वैसे भी संकट-काल में इतना झूठ तो विहित है !
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गुरुवार, 24 जनवरी 2013

हिमगिरि के ननिहाल में (उत्तरार्ध).



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लीजिये,आ गया ब्रह्मअरण्य क्षेत्र ! पाँच नदियों का संगम -कृष्णा ,कोयना ,वेण्णा ,सावित्री और गायत्री.

कृष्णा नदी का क्षेत्र बहुत विस्तृत है समूचे महाराष्ट्र को यह अपनी बाहों में समेटे है .इसके जलदान से कर्नाटक और आँध्र भी तृप्त होते हैं .तीनो प्रांतों का पोषण करती हुई यह सहज भाव से कई जलधाराओं को अपने में धारण करती हुई बहती चली जाती है
काका कालेलकर ने इस धरा के परिवेश को मगन-मन वर्णित किया -
'सह्याद्रि के कांतार में, महाबलेश्वर के पास से निकलकर सातारा तक दौड़ने में कृष्णा को बहुत देर नहीं लगती, किंतु इतने में ही वेण्ण्या कृष्णा से मिलने आती है। इनके यहां के संगम के कारण ही माहुली को माहात्म्य प्राप्त हुआ है। दो बालिकाएं एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर मानी खेलने निकली हों, ऐसा यह दृश्य मेरे हृदय पर पिछले पैंतीस साल से अंकित रहा है।'
सचमुच ये दृष्य मनःपटल  अंकित हो कर बार-बार अपने लोक में खींच ले जाते हैं .

ब्रह्मपुराण में उल्लेख है कि विन्ध्य के दक्षिण में गंगा को गौतमी और उत्तर में भागीरथी कहा जाता है . गौतम ऋषि से संबंधित होने के कारण  वहाँ गोदावरी के लिये गौतमी संज्ञा का प्रयोग हुआ है.
 गोदावरी कहीं प्रकट हैं और कहीं गुप्त हैं . शंकर की जटाओं से सात धाराओं में अवतरित गंगा की महिमा गाते हुये उल्लेख है-
'सप्तगोदावरी स्नात्वा नियतो नियताशन: ।
महापुण्यमप्राप्नोति देवलोके च गच्छति ॥'
सात धाराएँ
-गौतमी, वशिष्ठा. कौशिकी, आत्रेयी, वृद्धगौतमी तुल्या ,और भारद्वाजी.

दक्षिण भारत के कई राज्यों में नवरात्र के अवसर पर गुड़ियों का दरबार लगाया जाता है। इन दिनों महिलाएं रंग-बिरंगे वस्त्रों से गुड़ियों को सजाती हैं। इस त्यौहार के शुरु होने के पीछे एक कहानी है-
महाभारत युद्ध पर जाने से पूर्व उत्तरा ने धनंजय  से 'विजित योद्धाओं के वस्त्र लाने को कहा था .जीत की खुशी में अर्जुन भूल गए।  याद आया तो उन्होंने  रथ लौटाया और जीवित जनों को सम्मोहनास्त्र से निद्रालीन कर उनके वस्त्र उतार लिये.विजय के हर्ष में राजकुमारी ने उन्हीं से अपनी गुड़ियाँ सजाईं .वही परंपरा इस रूप में विद्यमान है.
यात्रा चल रही है -
स्मृतियों की गाड़ी के पहिये भी लगातार घूम रहे हैं.
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अरे ,कितना सुन्दर, कैसा मनभावन दृष्य पीछे निकल गया.थोड़ा सावधान रही होती तो  आँखों में समा लेती .भागती हुई मनोरम झलक ही हाथ लगी .
जीवन की कितनी सुन्दर स्थितियाँ इसी तरह आईं और निकल गईं .उनका रस ग्रहण करना तो दूर ,अनुभूतियाँ भी मन में नहीं समो सकी .कितने अनुभव ऊपर से निकल गये ,अगवानी करने का अवकाश नहीं था.एक हड़बड़ी, एक अकुलाहट भरी व्यस्तता आगे खींचती रही .इन भागते दृष्यों जैसे वे पल भी मनःपटल पर खिंचे और बीत गये.
उम्र के रास्ते पर बहुत आगे निकल आने के बाद कभी-कभी पीछे छूटे हुए की  याद आती है ,और कई-कई दिनों तक आती ही चली जाती है. लंबा सफ़र जो  कब का  बीत चुका  स्मृतियों के आगार से निकल अनायास रास्ता घेर लेता है.
चैत की नवरात्रियाँ प्रारंभ हो गई हैं। अगरु -कपूर की सुगन्ध मंदिरों के आस-पास की हवाओं को गमका रही है . नारी कंठों से निस्सृत देवी-गीतों की लहरियाँ डोलने लगी हैं । नये लाल-लाल पत्तों की हथेलियों से वनस्पतियाँ ताल दे रही हैं ।पेड़ों के पुराने पत्ते  धराशायी हो रहे हैं ।ज़मीन पड़े ढेर-ढेर सूखे पत्तों में हवायें नाचती हैं - लगता है झाँझर झंकारती ठुमके दे-दे कर इठला रही हैं ।पायलें चाँदी की नहीं, ग्राम कन्यायें कीकर की कँगूरेदार सूखी फलियों को एकत्र कर ,दो-दो कँगूरों वाले टुकड़े कर लेती हैं उनके बीच में डोरी लपेट कर जो मालायें पाँवों में बाँधती हैं , चलने पर उनके भीतर के बीज ऊपर के आवरण से टकरा कर मर्मरित होने लगते हैं ।वनस्थली की हवा वही खड़खड़ाहट बजाती चली आ रही है .
वृक्ष, पुराने पर्ण त्याग नया पाने की पुलक लिए खड़े हैं .प्रकृति में एक विराट् हवन चल रहा है .हव्य-गंध दिग्-दिगंतको सुवासित करती धूमलेखाओं में विचर रही है .आद्या-शक्ति की अर्चना में सारी प्रकृति लीन है. रास्तों के किनारों पर जगह-जगह सूखे पत्तों के ढेर सुलग रहे हैं .वनस्पतियों की सोंधी गंध वातावरण में व्याप्त है .यह चैत की अपनी गंध है .धरती-माँ ,उस दिव्य ऊर्जा का अभिनन्दन कर रही है .धूप-धूम से  सुवासित पवन झोंके बेरोक-टोक विचर रहे हैं .
बीच-बीच में स्टेशनों की आवक और जन-कोलाहल-हलचल .भागा-दौड़ी .चढ़ा-उतरी .गठरी-मुठरी .सब जगह एक जैसा .
आदिकाल से  उच्चतर जीवन की  समान मान्यताएँ व्याप्त रहीं, इस कभी रहे महादेश में, जो भारतवर्ष कहलाता है. काल और स्थान के फेर से कुछ नई मान्यतायें आ जुड़ीं .उसी प्रकार दोनों सहयोगिनी भाषायें ,तमिल और संस्कृत एक दूसरी से आदान-प्रदान करती हुई भी स्थानीय और सामयिक प्रभावों को आत्मसात् करती रहीं .एक ही संस्कृति की अवधारणा इस महादेश की शिराओँ को विवध रूपों में पोषण दे रही है,जिसका निखार  इन  भाषाओँ -भूषाओँ, और जीवन-पद्धतियों में चारुता का संचार कर रहा है .
वही हिमाचल नंदिनी, उमा अपर्णा दक्षिण सागर- संगम  पर कन्या-कुमारी रूप में विराज रही हैं. दुर्दम दैत्य के पराभव का व्रत - शिव से उनके विवाह की सारी तैयारियाँ धरी की धरी रह गईं. सागर तट पर विवाह-सामग्री आज भी बिखरी पड़ी है ,दाल-चावल के दाने रेत में मिल कर उसी रंग-रूप में पथरा चुके हैं  .
इधर है तीन सागरों की तरंगों से वंदित अम्मन मंदिर जिस के पूर्वी द्वार हमेशा बंद रखे जाते हैं  इसलिये कि गिरिराज-नंदिनी के रत्नाभूषणों की द्युति को,लाइट हाउस समझ कर जलपोत किनारे करने के चक्कर में दुनिया से ही किनारा न कर जाएँ..
कन्याकुमारी -में  प्रसिद्ध तमिल संत कवि तिरुवल्लुवर की भव्य प्रतिमा जिसे 5000 शिल्पकारों ने रूपायित किया .133 फुट की ऊँचाई कवि के काव्य-ग्रंथ 'तिरुवकुरल' के 133 अध्यायों की प्रतीक !
लौटती बार आदि -धरा कोआँख भर निहार प्रणाम निवेदन करते असीम नील-पारावार का लोना जल अंतर विगलित करता , नयनों में छलक उठा.
परस लिया  महीयसी- माँ का आँचल- छोर , नेहार्द्र पवन झोंकों से अभिषेक-जल छिड़क असीसती है वह, 'मैं महादेहिनी धरित्री तुम्हारी परम-जननी, उत्तर से दक्षिण तक मेरी ही यह अविकल परंपरा,  जहाँ रहो तुम्हारा कल्याण हो !'
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- प्रतिभा सक्सेना.

बुधवार, 9 जनवरी 2013

रट के आई हैं ?


मौसम बदल रहा था ।ऐसे दिनों में प्रायः ही ज़ुकाम की शिकायत हो जाती है ।
जब क्लास   में खड़े होकर बोलना पड़ता है तो गले में एकदम सुरसुरी और अटकाव के मारे बोल निकलना मुश्किल .
'कुछ लेते क्यों नहीं' कहने की विज्ञापनी परंपरा है सो
एक मित्र ने कहा ने कहा ,' बढ़ा क्यों रही हो ?ऐसे ये ठीक होनेवाला नहीं ।अपनी तो रोज़ गले  की कवायद होती है ।  दवा ले लो ।'
 मैंने कहा ,'एलोपैथी की दवा से एकदम खुश्क हो जाता है , लगता है सब अन्दर भर गया ।'
'एलोपैथी क्यों ?इधर कॉलेज के पीछे इधर वाली गली में डॉ. रमेश बैठते हैं ।होमियोपैथी के हैंं ।
भई ,हमें तो उनकी दवा खूब सूट करती है।'

बात तुक की लगी. अगला  विषय काव्यशास्त्र - एकदम ठोस और भारी ! गला बीच में अड़ जाए, तो पढ़नेवालों का ध्यान  इधर- उधर ,  कानाफूसी शुरू , मुझे और ज़ोर से बोलना पड़ेगा .
और सबसे बुरी बात पिछले सारे रिफ़रेन्सेज़ उनके दिमाग़ से गोल , आगे पाठ ,पीठे सपाट !
अभी-अभी पत्रकारिता  की क्लास ली ,बातें मीडिया की ज़ोरदार  और आवाज़  गले में ही रुक-रुक कानाफूसी पर उतारू .
इन्टरवल है,  बाद का एक पीरियड फ़्री .
चलो, ले ही ली जाय दवा .
डॉक्टर के पास कई मरीज़ बैठे थे ,चार-छः तो  अपनी छात्रायें ही ,पास पड़ता है न !और लड़कियों की आदत ,चलेंगी तो सहेली से कहेंगी -तू भी चल न !एक का काम  दो-चार साथ के लिये .
एक महिला अपनी चार-पाँच साल की बच्ची को लाईं थीं -नाम मेघना ,पेट साफ़ न होने की शिकायत.
बोलीं,' थोड़ी-थोड़ी सी होती है और सख़्त भी .'
 चट् से डाक्टर  बोले ,'आपने उसका नाम भी तो  ऐसा ही रखा है .'वही  प्यारी-सी बच्ची .
(समझ गये होंगे आप .जैसे गाय का गोबर ,घोड़े की लीद , बकरी की मेंगनी) - बेचारी मेघना !
महिला  चुप, कहें तो क्या कहें !सिर झुका ,पर्चा लेकर  उठ गईं .
अगली बारी -
लड़कियाँ लिहाज़ के मारे पीछे हो गईं ,मुझे आगे कर दिया .
डॉक्टर के पास बैठ कर फटाफट् हाल कह सुनाया ।उन्होंने ध्यान से हमारी ओर देखा बोले ,' आप क्या रट के आई हैं ?धीरे धीरे बताइये ,फिर से ..'
मैं तो सन्न!
उफ़ , क्या करूँ इस जल्दी बोलने की आदत का !
लाख कोशिश की  कभी कंट्रोल में नहीं आई  !
वे छात्रायें कुछ  मुँह घुमाये थीं, मुस्करा रही होंगी !
आँख उठा कर देखने की मेरी  हिम्मत नहीं पड़ी .
फिर से धीरे-धीरे हाल बताया और दवा ले कर भागी .
पर वहाँ से भागने से क्या होता ,क्लास में तो वही लोग हाज़िर होंगे , अपने संगी-साथियों सहित .
सामना करूँगी जाकर  - करना ही पड़ेगा !
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शनिवार, 5 जनवरी 2013

हिमगिरि के ननिहाल में -


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देश के दक्षिणी भागों की यात्रा का स्वभाव और प्रभाव ही कुछ और है .उत्तर के  गंगा-यमुनी समतलों को पीछे छोड़ती  विंध्य और सतपुड़ा से  आगे शिप्रा एवं नर्मदा के रम्य तटों का दर्शन करते मुंबई,गोआ, मद्रास ,महाबलेश्वर और कन्याकुमारी तक का भ्रमण कुछ निराली ही अनुभूतियाँ जगाता है.सागर-तल से 600 मीटर तक का उच्चासन धारे यह पुरातन भूमि टेर-टेर कर कहती है -देखों मैं हूँ उन सारी गिरि शृंखलाओँ की नानी .सारे उत्तरी समतलों और पर्वतों की पूर्वजा.जन्म से सहारा दिया मैंने उन्हें . चले आओ , ननिहाल है यह तो तुम्हारा . नेहांचल  फैलाये हूँ बैठी हूँ ये अमृत सरितायें- तुम्हारा अंतस्तल  सींच देंगी,इन पयोधरी उठानों में तुम्हारा तन-मन उछालें लेने लगेगा .
उन्हीं दिनो ' एक योगी की आत्म कथा पूरी हो रही थी, इस अनुपम संयोग से मेरी अनुभूतियों को आध्यात्मिकता का पुट मिला और बाह्य जगत में व्याप्त  अपार सुषमा से मानव मन का कैसा संस्कार होता हैं इसका मैं अनुभव कर सकी -वह दिव्य और गहन शान्तिमय अनुभूति भले ही थोड़ी देर रही हो पर अपनी अमिट छाप छोड़ गई। वर्ड्सवर्थ के शब्दों में यही Bliss of solitude बन गया होगा !
दक्षिण की यह यात्रा जितनी मनोरम है उतनी ही वैचारिक तोष देनेवाली भी.इतनी सुन्दर दृष्यावली और प्रकृति का रमणीय रूप अपार प्रसन्नता से भरता रहा ।जिस स्थिति को ' मन का विश्राम ' कहते हैं उसका अनुभव मैंने कर लिया ।मन में गूँज उठा - पूर्वजा ! उत्तरी भूमियों की पूर्वजा!
 हिमालय की व्यापक ऊँचाइयाँ ध्यान में आ गईँ.वह तो इस धरती से इतना विस्तृत ,इतना  ऊँचा ,विविधता संपन्न!....'
'पर मैं उनकी नानी हूँ .क्यों तुम्हारे यहाँ बच्चे दादी-नानी से ऊँचे नहीं निकलते?'
प्रान्तर के  वृक्षों ने सिर हिला हुंकारा भरा, किनारे के हरे-भरे खेतों से पक्षियों का एक झुंड चहचहाता हुआ आकाश में उड़ गया गया, जैसे प्रकृति की खिलखिलाहट बिखर गई हो. . फैली हुई धूप में हरित वनस्पतियाँ स्वर्णाभा से भर गईँ .पाँच हज़ार से अधिक प्रकारों के रंग-रंगे फूल ,अनगिनत वनस्पतियाँ और पाँच सौ से ऊपर  प्रकार के पक्षि-प्रजातियों को धारण करनेवाली पुलकिता धरा उचक कर   ट्रेन की  खिड़की से  झाँक रही है जैसे मेरा मन पढ़ लिया हो उसने .चारों ओर की इतनी हलचल और कोलाहल के बीच उसकी आवाज़ सुन रही हूँ ,
'मेरी बात कर रही हो ? हाँ, मैं उसकी नानी हूँ अपार  सागर लहरा रहा था वहाँ.हिमालय को जन्म लेते देखा है मैंने  अपने से चिपका कर  सहेजा, आधार दिया .जानती हो - भू गर्भ के संचालनों द्वारा तल के उठने से प्रकटा है 5-6 करोड़ वर्ष पहले .यह जो मेरे देखते-देखते बढ़ा है .साठ-सत्तर लाख बरसों में इतना हुआ अभी तो बढ़ रहा है और मैं आद्य महाकल्प में धरती के भू खंड़ों की प्राचीनतम पीढी में हूँ .इतनी आयु हुई अब भी  वैसी ही विद्यमान  स्थिर,भूगर्भिक हलचलों से  निरी निरपेक्ष  जस की तस बैठी हूँ .,
पुलक उठती हूँ मैं!यह हिमालय का ननिहाल मेरा मायका -अपूर्व उल्लास से उमग उठा अंतर.शिप्रा- नर्मदा के तट मेरे क्रीड़ा-थल .
' -पानी और मौसम के प्रभाव कटाव करते हैं .देह की ऊपरी क्षरण है यह.मैं वैसी ही पक्की-पौढ़ी जमी हूँ यहाँ अपना विशाल परिवार सँभाले .ये विंध्य,अरावली ,सह्याद्रि ,नीलगिरि ,पूर्वी .पश्चिमी-घाट सब मेरे कुटुंबी हैं ,मेरी पुत्रियाँ ये तरल सरितायें अपनी  नेह-धाराओं से मन-जीवन में सरसता और उर्वरता भरती हुई .मौसमों के प्रहार से रूपाकार थोड़ा बदला ज़रूर .पर ये पूर्वी और पश्चमी घाट मेरी विगत समग्रता के  प्रमाण-स्वरूप जमें बैठे हैं.'
 अपने पूर्वविचार पर लज्जित हो उठी मैं ! 
पश्चिमी घाट के साइलेंट वेली नेशनल पार्क की याद आ गई - अभी तक अगम्य रहा भारत का एक मात्र ऊष्ण-कटिबंधीय वन -जिसकी निभृत हरीतिमा  अभी तक इंसान नामक जीव के पगों से अछूती है. भारत की अति प्राचीन संस्कृति और भाषा यहाँ आज दिन तक अबाध गति से फलफूल रही है. 
जी हाँ तमिल  - जो विश्व की प्राचीनतम भाषाओँ में गिनी जाती है -और कुछ विद्वानों का मत भी कि संस्कृत और द्रविड़ भाषाएँ एक ही उद्गम से निकली हैं. तमिलनाडु में कार्य करके अगस्त्य मुनि कम्बोडिया गए।तमिल के प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ के अनुसार कम्बोडिया को मुनि अगस्त्य ने ही बसाया । 
दोनो भाषाओँ में जो भिन्नता आती गई वह काल और देशान्तर के प्रभावों से 
 कहावत है न,'कोस-कोस पर पानी बदले पाँच कोस पर बानी.'
इतिहास के पृष्ठ मन में करवटें लेने लगे -  शासक, युद्ध और कितने उलट-फेर. अचानक याद आता है इतिहास में नामों और तारीखों के सिवा कुछ सच नहीं होता .इस शब्द का मतलब ही है वे आख्यान जो हमें परंपरा से प्राप्त हुए हैं- काल क्रमानुसार घटनाओं का वर्णन .
सब कुछ घट जाने के बाद इतिहास आता है,और बताने लगता है क्या-क्या घटित हो गया..साक्षी तो भूगोल है पहले.सारा खाका  खींच कर मंच सज्जित करता है,तब तदनुरूप क्रिया-कलापों का आयोजन प्रारंभ होता है .भूगोल झेलता है ,गाँव-नगर निवासी सब झेलते हैं. उन परिणामों को. सब कुछ निपट जाने के बाद इतिहास हाज़िर हो जाता है, किया-धरा बताने के लिये . 
सच, यह कितनी सुदृढ़ भूमि. उत्तरी मैदान के नीचे आधार बनी -सी .
कानों में वही प्रबोधता-सा स्वर -
'और यह जो अरावली को देख रही हो यह भी अब इतना है. पर पहले यह हिमालय से कम नहीं था . मध्यजीवी महाकल्प दरारों और भ्रंशों का दौर चला .अनेक भ्रंश  और उसके बाद कटाव ...'.
 मन बीच-बीच में भाग चलता है -जाने-कहाँ-कहाँ की सोचता हुआ .सब को एक ओर समेटता हुआ  भव्य मंदिरों के स्थापत्य और तत्कालीन जीवन के ध्यान में रम जाता है .विचारों और भावनाओं का ज्वार उमड़ता है.
  किसी ने कुछ कहा ध्यान बँट गया जो कुछ भीतर उमड़ा था एकदम विलीन .साबुन के बुलबुलों की तरह बिला गया .कितनी मन-भावन मनोदशा थी ,अनायास भंग हो गई .याद करने की कोशिश करती रही .पर सब एकदम ब्लैंक !
अक्सर ही ऐसा होता है ,बहुत सुन्दर- सा कुछ मन में चलता है और अचानक ग़ायब  . फिर लाख यत्न करो  कुछ पकड़ में नहीं आता .
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(क्रमशः)

बुधवार, 2 जनवरी 2013

ब्लागर मित्रों से निवेदन ,


ब्लागर मित्रों ,
चेत जाइये !पत्रों-पत्रिकाओं में बिना रचयिता की अनुमति के जो रचनाएं ब्लागों से ले कर छाप ली जाती हैं उससे आप उपकृत नहीं ,उन्हें उपकृत होना चाहिये .
हमारा लेखन इतना सस्ता नहीं कि कोई भी अपना माल समझ कर बिना पूछे-बताये ,जैसे चाहे उसका उपयोग करता रहे.आपकी पूर्व अनुमति के बिना रचना प्रकाशित करना ,चोरी ही कहलाएगी .
 अधिकांश पत्रकार पत्रकारिता के मिशन के विपरीत आचरण करनेवाले हैं.अपने कारनामों पर लीपा-पोती करना भी उन्हें खूब आता है.हम सब मिल कर ही इस स्थिति पर काबू पा सकते हैं . 

इसके लिये हम सब सावधान हो जाएँ  

जहाँ किसी पत्र-पत्रिका में किसी ब्लागर की रचना देखें ,तुरंत उसकी सूचना दें .चाहे नाम पता दिया हो तो भी.अक्सर लेखक को पता ही नहीं चलता कि उसका माल कहाँ से कहाँ पहुँच गया .ब्लागरों  की पहुँच  का क्षेत्र बहुत व्यापक है .इस प्रकार अधिकतर ऐसे मामले सामने आ जायेंगे .

किसी को इस पर कोई भी आपत्ति हो तो कृपा कर सामने रखे ,जिससे कि बात पूरी तरह स्पष्ट हो सके .
आशा करती हूँ मेरे निवेदन पर विचार करेंगे और इस पर अपने विचार देंगे.
 सारे ब्लाग-जगत को नव-वर्ष की शुभकामनाएँ !
- प्रतिभा सक्सेना.