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पूर्व-वक्तव्य -
संस्कृतियों का विकास, लोक-मन की अनवरत यात्रा है . लोक-मानस जब तक विवेकशील और सहिष्णु होकर समय की गति के साथ चलता है तब तक संस्कृतियों का विकास होता है अन्यथा विनाश हो जाता है .भारत एक सागर है जिसमें प्रागैतिहासिक युगों से लेकर ,आज तक अनेकानेक संस्कृतियों और धर्मों का संगमन होता आया है .विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियाँ जहाँ काल के प्रवाह में विलीन हो गईं वहीं भारतीय संस्कृति चिर -प्राचीना हो कर भी चिर-नवीना बनी रही - कारण कि सागर के समान अनेकानेक सरिताओं को आत्मसात् कर यह अपनी जीवनी-शक्ति को परिवर्धित करती रही ,साथ ही इसने विभिन्न धाराओं को धारण कर अपनी विविधता और समग्रता को बनाये रखा .
धर्मों और भाषाओं का उद्भव मानव समाज के सामंजस्य और कल्याण के लिये होता है ,वैमनस्य के लिये नहीं .आज जब धर्म और भाषा के नाम लेकर कुछ विकृत मन बर्बर्ताओं के नंगनाच में लगे हैं,हम पलट कर देखें कि जीवन-यात्रा के किन पड़ावों से गुज़र कर हम यहाँ तक पहुँच पाये हैं.इक्कीसवीं सदी के बदलते परिवेश में , विश्व के मंगल और स्वस्ति लिये हम ऐसा संतुलित और स्वस्थ वातावरण निर्मित करें ,जिससे कि आगत पीढि़याँ समुचित दाय प्राप्त कर जीवन की महाधारा में अपना स्थान निर्धारित कर सकें .
अविरल काल-धारा से,लोक-मन ,लोक की भाषा में जो वैश्वानर है ,युग-युग के घाटों का रस पान कर सूत्रधार को अनुभूतिमयी दृष्टि का दान देता ,सतत प्रवहमान काल-धारा में समाधिस्थ होता है . नश्वर देहों में अनश्वर चैतन्य के सूत्र को धारण करनेवाला सूत्रधार ,चिर सहचरी ,जिज्ञासा नटी के साथ ,लोक मन के रस-ब्रह्म का साक्षात्कार करता चल रहा है .
आइये हम भी लोक-मन की रागिनी के अनहद नाद में गूँजते ' विविधता में एकता ' की तान को सुनने और गुनने की चाह में, पूर्व दृष्यों की निरंतरता के साथ चलें, आगत क्रमों के संयोजन हेतु ......
[ सूत्रधार ,नटी और लोकमन मंच पर - ]
सूत्र - अकबर ने मुस्लिम पक्ष की ओर से प्रयत्न किया ,लेकिन वह राजनीति से संबद्ध था ,और उसके प्रयास बौद्धिक स्तर पर रहे थे अतः,दोनों धर्मों के लोगों की मानसिकता पर प्रभाव न डाल सके.
नटी - हाँ ,वह आध्यात्मिक ,या सामाजिक स्तर का व्यक्ति नहीं था ,इसलिये उसकी बातें हवा में उड़ा दी गईं .लेकिन और प्रयत्न भी तो किये गये थे ?
सूत्र -गुरु नानक ने हिन्दू पक्ष की ओर से प्रयत्न किया था .उनका मत अपने सिद्धान्तों में सिद्धान्तों में सार्वभौम होने पर भी व्यवहार में एक सप्रदाय रह गया ..
नटी -[गहरी साँस लेती है ]हाँ प्रिय ,उस दिन सूफियों और सन्तों के प्रयत्नों की बात चल रही थी .वे भी संप्रदायों में सीमित होकर रह गये .और विरोंधों का शमन नहीं हो सका .
सूत्र - सुनो कवि कुछ कह रहे हैं .
लोक - किन्तु समन्वय जन स्तर पर कभी नहीं रुक पाया ,
एक दूसरे के प्रभाव को दोनों ने अपनाया!
एक देश में एक साथ रह इक दूजे को समझा ,
जीवन पद्धति का तब अभिनव रूप निखर कर आया !
जीवन नदिया सब को ले लहराती बढती जाये !
नटी - कवि आपने शंकराचार्य की बात कही थी ,वे तो धर्मगुरु थे .भारत की एकता में उनका क्या योगदान है?
शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के स्थायित्व, प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में अपूर्व योगदान दिया. उनके व्यक्तितत्व में गुरु, दार्शनिक, समाज एवं धर्म सुधारक, विभिन्न मतों तथा सम्प्रदायों के समन्वयकर्ता का रूप दिखाई पड़ता है.
सूत्र - धर्म क्या है ?इतना सब पढ़ कर मैंने तो यही समझा कि यह जीने की पद्धति है -व्यक्ति और समाज की स्थिति,विकास और कल्याण के लिये जो विधि-विधान समय-समय पर बने वही धर्म है .लोक जीवन पर आचार्य शंकर का प्रभाव बड़ा दूरगामी था .जीवन के परम सत्य को व्यावहारिक सत्य के साथ जोड़ने के कारण ही अपरोक्षानुभूति के बाद आचार्य शंकर मौन बैठकर उसका आनन्द नहीं लेते, बल्कि समूचे भारतवर्ष में घूम-घूम कर उसके रूप-स्वरूप को निखारने में तत्पर रहे थे .
उनका व्यापक प्रभाव जन-जीवन में बहुत गहरे तक समाया हुआ है जो लोक व्यवहार में स्पष्ट दिखाई देता है.
दृष्य -
दृष्य - एक वृद्ध-वृद्धा और एक युवती ,सामान में दो गठरियाँ एक बंडल लोटा-डोर एक संदूकची - जैसे किसी यात्रा से आये हों ]
वृद्ध - चलो लैट के बुद्धू घर को आये ,काहे सुमिरनी !
सुमि -घर तो तुम्हई लौट के आये हो दद्दा ,तब तो तुम्हईं बुद्धू भये .
वृद्धा -काहे ?बुद्धू तो गये हते .लौट के तो अकलमन्द बन के आये हैं .[अपनी पुटरिया खोलने का उपक्रम] ,
बाहर से आवाजें -
'अरे ताऊ ,तीरथ करके लैट आये का ?''आय गए का ?'आदि कुछ लोग आते हैं परस्पर पा-लागी आशीर्वाद होता है ]
वृद्धा- आओ, लल्लू ,अच्छे तो रहे ?
लल्लू -हम तो ठीक हैं ताई ,आप लोग बहु दिन लगाय के आये !
वृद्धा -सुमिरनी ,दुआरका के परसाद की पुड़िया तुमका दीन रहे ,कहाँ धरी है ?
सुमि - हम तो हुअईँ धर दीन रहै ,दद्दा से पूछो .
वृद्ध - तुम्हार भौजी को लोगन से बतियाबे का एतना सौक है कि कुछू ध्यान नहीं रहत .हमनेआपुन टोपी तरै धर दिया रहै .
वृद्धा - [टोपी के नीचे से प्रसाद की पुडिया निकालती है ,ताँके कलश को खोलती है ,आचमनी निकालती है] लेओ दुलहिन ,लल्लू लेओ परसाद .सब तीरथन का जल एक ही कलस में समाय गया है .
एक स्त्री -आप लोग बड़भागी हैं तीरथ कर आये हैं.इन चरनन को छूइ के हमउ पुन्न के भागी हुइ गये .
वृद्ध -तुम सब लोगन ने हिम्मत बँधाई ,गाँव के घरन ते पइसा कोड़ी की मदद भई ,तब हम जाय पाये .हमारो अकेलो बूता कहाँ हतो !
लल्लू -ताऊ - आप ही ने तो सिगरी उमर आपद्-विपद में गाँववालन को साथ दौ .....अऊर चारों धाम के तीरथ जैसो महन् कारज अकेले से थोरे ही न हुई जाय .
वृद्ध) -इहै तो पुरानो चलन है ,तीरथ जान वारै को सिगरो गाँव खरच देत है और वाके पुन्न को भागीदार बनि जात है .
स्त्री -जात्रा कैसी रही ताई ?
वृद्धा - बहुतैआनन्द रहो .ई धरती कित्ती बड़ी है अब समुझ पायेन .अब तक तो कुआँ के मेंढक बने भये थे .हमारी तो आँखी खुलि गईं लल्लू .आपन देस में कैसे कैसे आचार-विचार ,कित्ते पंथ ,कित्ते मारग - और सब एकै साथ ,मिले-जुले जैसे महा समुन्दर होय .
एक पुरुष - आपको अपने नेम धरम की बहुत चिन्ता रहै ताई ,तरह-तरह के लोग-लुगाइन में जानौ न परता होई कि कौन जात है कौन कुजात ?
वृद्धा -ऊ नेम धरम तो हम कन्या-कुमारी के समुन्दर में बहाय आईं ,पुत्तन .संकराचार्य को भगवान ने चंडाल को रूप धार के दरसन दिये रहे .अब तो इहै लगत है ,जो ईमान धरम से रहे उहै सुद्ध ,बाकी सब सुसरे चंडाल हैं .
सुमि -दद्दा -भौजी तो अभै लौटन को तैयार नाहीं हते ,पर हमने कही घर ते निकरे साल से ऊपर हुई गवा अब उहाँ की भी सुध लेओ .
एक व्यक्ति -अइसा उहाँ का मिलि गवा जौन घर संसार बिसराय दिया .हमारी ताई तो घर की देहरी न छोड़त रही इत्ते दिन कैसे बाहर रही ?
वृद्धा -अरे पुत्तन, कुछू पूछो मत .इत्ता पायो इत्ता पायो कि हमार छोटे मन में समाय नहीं पाय रहा है .उहाँ साथ भी इत्ता अच्छा मिलि गवा .उहाँ उज्जैन के रहे दोऊ पति-पत्नी .हमें तो अइस लगे जइसे आपुन सगे संबंधी होयँ .इत्ते परोपकारी ,इत्ते विद्वान और इत्ते सज्जन !
वृदध -सच्ची में ,उनके साथ अइस लगत रहा ,जइस आपुन देस का पग-पग तीरथ होय .उनकी बातें तो हमारे हिरदै में पैठि गईं हैं .[इस बीच प्रसाद देने का क्रम चलता रहता है ]
सुमि -हमरा तो समझो जनम सकारथ हुई गवा .जी जुडाय गवा हमार तो .
वृद्ध -ऊ संकराचार्य साच्छात् अवतार रहे जिनने चारों छोर तीरथ धाम बनाय के लोगन को सदा-सदा को जोड़ दिया .चारों दिसायें जाने बिना तो आदमी समुझ अधूरी ही रहि जावत है.
लल्लू - ताऊ ,अपने हिन्दुस्तान में अनगिनत पंथ हैं ,सैकडों देवता पुजते हैं ,कोई शैव ,कोई शाक्त ,कोई वैष्णव ,कोई किसी को माने कोई किसी और को ,फिर तीरथ में कैसे सबन की पटरी बैठ जात हैगी ?
वृद्ध -इसी लै तो संकराचार्य ने पंचदेवोपासना चलाई .शिव दुर्गा ,विष्णु ,गणेश और सूर्य जब पाँचों में निष्ठा है तो मन आपै आप जुड़ि जायेंगे .
वृद्धा -उनने धरम को सुद्ध कर दिया .माँस मदिरा ,मसान-पूजा ,तंत्र ,बलि सब हटा दिया और कहा सच्ची भगती ही सच्ची पूजा है .भज गोविंदं ,भज गोविंदं ,भज गोविंदं मूढमते !
स्त्री - अउर का देखा ,सुमिरनी बहिना ?
सुमि -तरह तरह के लोग, तरह तरह के पहिनावा, तरह तरह की बोली.,उत्तर -दक्खिन ,पूरव-पच्छिम सब तरफ से चले आय रहे हैं .सब के अलग रं ग अलग ढंग पर मन में उहै सरधा,उहै भक्ति !अइस लगन लाग जौन हम सब एकै कुटुम के परानी होयँ
वृद्धा - ई सुमिरनी तो रात मे सोय जात रहीं .हम लोग सबन से बोलत बतियात रहे ,सतसंग करत रहे .एक अउर मिले रहे..
सुमिरनी - अरे हाँ ,दच्छिन में पांड्य देस के वासी रहें ,आपुन नाम कब्भौं नाहीं बतावत,कहि देत हैं बस एक यात्री हूँ . उनकी तो अइस बातें कि लिखि के धर लेउ... हमेसा के लै ...
पुत्तन - अच्छा !
वृद्ध - कहत रहे -मनुष्य को आठ महीनों तक खूब परिश्रम करन का चाही जिससे बरिसा भर सुख से खाय सके.दिन भर परिस्रम करै जा सों रातन में निचिंत सोय सके .जवानी में बुढ़ापे के लै संग्रह करै अउर इस लोक में रहत पे परलोक के लै कमाय ले.
पुत्तन - परलोक के लिये कमाई?ई आपुन सुमझ में नहीं आवा .
वृद्ध -शरधा अउर बिसवास धारन करो.
कोरे ज्ञान ते ऊहा बढ़त है .अपने को परमात्मा की सरन में छोड़न की बान धरै क चही.
सुमि - सारी दुनिया उनकी घूमी परी है .सबका गियान बाँटत रहे .
बरसन पहले ईरान के एक संत मंसूर हल्लाज़ नाम वारे रहे. सिन्ध में उनका मिले रहे दोऊ साथै मुल्तान और कसमीर घूमे.उनसे बहुत सीखन को मिला .बतावत रहे इन्सानियत की जोत अब बाम्हनन में नहीं इन संत और भक्तन में अधिकै सच्ची है.
आ.- सहीची बात है आज के बाँभन सब भुलाय गए -आपुन पेट भरन के उपाय सीख गए हैं .हु दच्छिन देस में जिनका सब नीची जात कहत हैं उन लोगन में भगवान के लै सच्ची लगन है.पर पर ऊँची जातवारै उनके लै बड़े निरदयी हुइ रहे हैं.
वृद्धा - जिनका दबाय रहे हैं उनकी असलियत एक दिन सामने आय के रहेगी .मन के सच्चे ,लगन के पक्के उहै लोग एक दिन समाज को सही रास्ता बताय देंगे .
आ .- दुनिया देखै ते गियान बढ़त है . एकै जगह पे तो मति बँधि जात है .
एक स्त्री - हमार मन भी ललचाय रहो है ,आगिल बेर हमहूँ चलिबे .
वृद्ध -मारग के नगर गाँवन में ,नदियन के किनारन पे ,परवतन के चरनन में घने वनन की राहन में मंदिर मंदिर में सत्संग करते भजन गाते हम तो नई जिनगी पाय गये .
पुत्तन -तो चारों धाम करत-करत आप सारा देस घूमि आये ?
वृद्ध - उहै तो असली मतलब है चारों धाम घूमन को .गंगा और गोदावरी के जल का महातम हैं पर उससे भी बढ़ि कर उन के पास जाने की जातरा है .उनके पास जाओ ,अपने पाँवन से जाओ ,राहन को बूझत- रमत जाओ तब उन्हें जानन की छमता आवत है .बाहर भी अउर आपने भीतर भी जोत जागत है .देह का सारा छोटापन वो बहाय ले जायेंगी ,और मन हहर के लहराय उठेगा .
सुमि -तभै तो हमार छूत-पाक वाली भौजी भी ,बहि गईं और ई नई होय के आय गईं .
वृद्धा -हमारा कित्ता सुन्दर ,कित्ता निराला देस ,ऊपर हिमालय लहराती गंगा-जमुना ,नीचे कन्याकुमारी में तीन-तीन समुन्दरों का संगम और बीच मे ये वरदान जैसी धरती .हर तरह का मौसम ,फल-फूल अन्न -जल !इत्ता विसाल देस कि घूमते जनम बीत जाय फिर भी पार न मिले .
लल्लू -सब नया नया लगता होयगा ताई ?
वृद्धा -लल्लू सुननवारे को नया लगता है ,देखनवारे के तईं सब चीजें परसाद जैसी सहज हुइ जाती हैं .देखो न ,कित्ती जातियां ,कित्ते आचार -विचार हमारी धरती पे आके एक हुइ के रहि गईं जइस अलग अलग धारायें गंगा जी में समाज के सारे भेद एक रूप हुइ जाय़ँ .
सुमि - हाँ ,देखो न ,महावीर ,बुद्ध ,सभी को हमने अवतार मान लिया और यहाँ तक कि हजरत अली को भी विष्णु का दसवाँ अवतार मान लिया .
स्त्री - ई तो हम कबहूँ नाहीं सुना .
वृद्धा -पंजभाई संप्रदाय में इस्लामी खोजा हजरत अली को दसवाँ अवतार मानित हैं .
वृद्ध -अरे ,एक दिन माँ समुझ में न आई लल्लू .सुरू में सब अजीब लगेगा फिर सब सहज लगने लगेगा .
लल्लू -और भी आगे सुनन की इच्छा है ताऊ .
वृद्द -पूर्णिया के देहातन में मुसलमान लोग अल्लाह और काली माई दोउन को पूजत हैं और उनके बियाह-सादी भगवती के मंदिर में होवत हैं .
वृद्दा -और अल्लोपनिषद् की बात काहे न कहो !हमारे पंडितन ने अल्लाह को अपना मान के अल्लोपनिषद बनाय दिया .
पुत्तन -लेकिन इस्लाम धर्म तो बहुत बाद में आया रहे .
वृद्धा -नाहीं भइया ,ऊ तो संकराचार्य से भी पहले दच्छिन भारत में आय गया रहा .और फिन तो सूफी लोग भी आवत रहे .
सुमि -हाँ ,ऊ बताये रहे कि सूफी फकीर और भारतीय साधक खूब मिलत-जुलत रहे .
वृद्ध -कोरे मिलत जुलत न रहे एक दूसर की अच्छी बातें मानत रहे और लोगन को सिखावत भी रहे .
स्त्री - हां ,जायसी की पदमावत हम पढ़े हैं .लगतै नहीं कि लिखनवाला मुसलमान है .का कहत हैं 'आपुन आपुन भासा लेहिं दैउ कर नाँव '
लल्लू - काहे ताऊ ,ई किरस्तान अँग्रेजन के साथ आये रहे ?
वृद्ध - ईसा की पहलीे सताब्दी में अपने धरम का परचार करन के लै इनके पादरी आय गये थे .सुनी तो यहै जात है कि ईसामसीह खुद हिन्दुस्तान आये रहे.
वृद्धा - काहे नाहीं हुई सकत है .हमारे इहाँ तो सब धरमन को सुआगत होत रहो है .पारसी लोगन की अगिन पूजा तो वेदन के काल से होवत रही ..हमारा तो जीवन सकारथ हुइ गवा भारत माता के दरसन से .
स्त्र -का उनका भी कौनो मंदिर रहै ताई ,भारत माता का ?
वृद्धा - उनहिन के मंदिर में तो हम-तुम सब रहत हैं .हिमालय से कन्याकुमारी और बंगाल से गुजरात तक उन्हई को रूप व्यापित है .हम तो उनके आँचल मे पलनवाली उन्हई की संतान हैं ..जरा बाहर निकरि के देखो कैसो रूप है उनको कैसो नेह ,कैसी ममता .कोई उरिन हुइ सकत है का ?
सुमि -हाँ भौजी , इहै बात सब समुझ लें तौन सारो झगरौ खतम होय. ?
वृद्धा -हाँ ,कहत तो रहे ....याद आइ गवा .अगर तुम सीधे सुरग को मारग चाहत हो तो जगन्नाथपुरी को बेंत लै जाय के बद्रीनाथ में चढाओ ,और गंगोत्री का जल रामेश्वर मे अर्पित करो .
वृद्ध -उज्जैनवारन ने खुलासा बात कही -कि जे अपनी जनमभूमि सुरग से बढ़ कर है .जहाँ उत्तर से दक्खिन और पूरव से पच्छिम मिल जायें समुझ लेओ स्वर्ग वहीं उतर आवत है .
लल्लू -बड़ी ज्ञान की बातें हैं ताऊ ,इनके कहे सुने से बडो पुन्न होवत है .
वृद्धा -कोरे कहिबे-सुनिबे से नहीं , अमल करै ते पुन्न मिलत है .
सुमि- लल्लू भैया -अब दद्दा भौजी का कौनो विसवास नहीं .ई तो सन्यासी हुइ जान को तैयार बैठे हैं .
पुत्तन -काहे ताऊ ,सच्ची ताई ?
वृद्ध -अब तक मोह परपंच में दिन काटे अब मन चेत गवा है .ई सुमिरनी हैं तो ननद हैंपर बिटिया अस पाली हैं . इनको ससुराल पठाय के मकान इनके नाम करके माया से मुक्त होवे की इच्छा है .तुम सबै लोग देखन सुनन के लै हो .हमार मन में अब इहै आवत है .
वृद्ध -हाँ अब ई घेरा से निकल के सच्ची पूजा ,मतलब दीन-दुखियारन की सेवा में लगाय के पूरे देस की धरती को आपुन घर बनाय लें -ई मनुज तन सकारथ हुइ जाय.
लल्लू - हमका छोड के मत ना जायो ताई .
वृद्धा -कौन अभै निकरे जाय रहे हैं .अभी तो जात्रा का परसाद और जल सबका बाँटे का है .
पुत्तन - अब चलित हैं ,. निचीते हुइ कै अश्नान ध्यान करौ ताई ,भोजन के लै हमार घर पधारे का परी .
(पटाक्षेप)
(क्रमशः)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (04-05-2015) को "बेटियों को सुशिक्षित करो" (चर्चा अंक-1965) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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आभारी हूँ - आ. मयंक जी !
हटाएं"आपको नेम धर्म की बहुत चिंता रहै ताई.……………………कौन कुजात । "
जवाब देंहटाएं"ऊ नेम धरम तो हम कन्या कुमारी के समन्दर में बहाय आईं पुत्तन,"
सर्वधर्म समभाव को सार्थक करती बहुत ही उम्दा प्रस्तुति आदरणीया।
पढ़कर मन प्रसन्न हो गया।
धर्म की वास्तविकता को उजागर करती...भारत भूमि की महानता को प्रकट करती..तीर्थयात्रा के बहाने इस पुरातन संस्कृति की समरसता और सबको समेटने की क्षमता का बखान करती प्रेरणादायक लेखनी..
जवाब देंहटाएंभारतीय धार्मिक विरासत के आत्मतत्व की विवेचना के साथ ही महोबिया-कानपुरी क्षेत्रीय बोली के संरक्षण का प्रयास अनुकरणीय है ।
जवाब देंहटाएंमाँ ,आनंद आगया पढ़कर . धार्मिक एकता की सुन्दर गाथा है . हमारे पूर्वजों ने इसका पुख्ता इंतजाम किया है . बदरीनाथ और केदारनाथ में केरल और कर्नाटक के पुजारी होते है .रामेश्वरम( दक्षिण) जाने से पहले बद्रीनाथ ( उत्तर ) जाना होता है वहां से गंगाजल लाकर रामेश्वरम को चढ़ाना होता है . वृद्ध बाबा ने कितनी सुन्दर बात कही है कि यात्रा केवल तन की नहीं मन की भी होनी चाहिए . हर स्थान पर रमते हुए जाना , वहां की माटी को आत्मसात करना , धरती के कण-कण में रम जाना अंतर -द्वार खोलने जैसा ही है .सच्ची तीर्थयात्रा यही है . आज ऐसी यात्रा कम ही लोग कर रहे है . सुविधाओं ने यात्रा को सुगम और संक्षिप्त तो बना दिया है पर यात्रा के लाभ और मूल उद्देश्यों से वंचित भी कर दिया है . यही कारण है कि यात्रा से वैसा कुछ साथ नहीं ला पाते जैसा ये वृद्ध दंपत्ति लाए ..
जवाब देंहटाएंविविध धार्मिक आस्थाओं और संस्कृतियों की समरसता की आश्रयस्थली
जवाब देंहटाएंहै अपना भारत । लोकभाषा के माधुर्य ने भारत-भूमि की सांस्कृतिक प्रतिष्ठा को नाटकीयता के द्वारा अतीव मनोहारी रूप प्रदान किया है।पात्रों के वाद-संवादों के माध्यम से ज्ञानवर्धन तो हुआ ही ,साथ में यात्रा का सुख और मनोरंजन भी हुआ । लोकभाषा पर लेखिका का पूर्ण अधिकार है ,जिससे कथोपकथन अत्यन्त सहज, सरल और स्वाभाविक लगता है ।
इस प्रभावी रचना के लिये प्रतिभा जी का अनेकश: साधुवाद !!