शनिवार, 27 नवंबर 2010

वाह रे लड़के !

आगे बढ़ने के क्रम में जीवन-धारा क्या मज़ेदार वाक़ये पीछे छोड़ती चलती है !ऐसे छींटे उछालती है कि यत्न से जोड़ी हुई कथाएं उसके आगे फीकी पड़ जाएं. वैसे मानी हुई बात है- फ़ैक्ट्स आर स्ट्रेंजर दैन फ़िक्शन .लोग ईमानदारी से अपने सच्चे किस्से बयान करने लगें तो कहानियाँ रचने की ज़रूरत ही नहीं  .असली चटक माल अपने आप मिल जाए, संभावनाओं में भटकने की मजबूरी ख़त्म. पर क्या किया जाय बेलाग सच को कुबूलता कौन है !
खैर,छोड़िये. क्या फ़ायदा फिलासफ़ी छाँटने से ,सीधे अपनी बात पर बात पर आयें .

बात है 25-30 साल पहले की- शायद इससे भी पहले की .तब फ़ाउंटेन- पेन बच्चों के हाथमें नहीं आए थे - छोटे तीसरी-पाँचवीं के बच्चों के लिए तो एकदम अलभ्य . परीक्षाएं देने अपनी-अपनी दावातें ले कर जाया करते थे .स्वाभाविक है कभी किसी की स्याही फैल जाये या खत्म हो जाए तो उसे दूसरे से माँगनी पड़ती थी .दूसरा उसकी दावात में अपनी में से थोड़ी-सी स्याही उँडेल देता ,उधार के रूप में .अब बच्चों की बात ठहरी.लेन-देन ,उधार चुकाना सब अपने ढंग से
हमारी बहिन जी उन दिनों टूँडला में थीं ,उनका बेटा आठ-नौ साल का रहा होगा. दाहिने हाथ की उँगलियों की पोरें हमेशा स्याही से रँगी मिलती थीं -वो तो सभी बच्चों की .एक बार स्कूल से घर आया तो निकर स्याही से रँगा पैरों पर स्याही के दाग़ जैसे किसी ने धार बाँध कर डाली हो. बड़ा खीजा हुआ सा घर में घुसा .बहिन जी ने पूछा ,"ये क्या कर लाए,आलोक ?"आलोक फट पड़ा ,"ये उसी शालिनी ने किया है ..हम उसे मना करते रहे ,नहीं चाहिये ,नहीं चाहिये पर वह कभी किसी की नहीं सुनती ."
"पर हुआ क्या ,ये नेकर पर कैसे फैली स्याही ?"
"परसों उसकी दवात में स्याही खतम हो गई थी तो हमने दे दी थी . कल वो आई नहीं. आज आई ,तो हमसे कहने लगी अपनी स्याही ले लो ."
हमने कहा," रहने दो .हमें नहीं चाहिये."
"हाँ ,हाँ ,ज़रा सी स्याही .वापस लेने की क्या ज़रूरत", बहिन जी ने पुष्टि की .
"पर वो मानी नहीं .कहने लगी हम किसी की चीज़ नहीं रखते .तुमने दी थी ,अब तुम लो."
''हमने मना कर दिया .वो तो लड़ने लगी ,कहे- हम क्या बेईमान हैं ! तुम्हें अपनी स्याही लेनी पड़ेगी .''
"फिर कभी ले लेंगे .हम आज दवात नहीं लाए,"
"तो तुम हमारी दवात ले जाओ .हमारे पास और भी है ".
"हम तुम्हारी दवात क्यों लें ?"
''लेओगे कैसे नहीं जब हमने तुमसे ली, !"
''हमें नहीं लेना,'' कह कर हम चल दिये ,
वो तो पीछे दौड़ी,
''देखो,हम बेकार किसी से कुछ नहीं लेते ,तुम्हें लेनी पड़ेगी ".
"हमने कह दिया नहीं चाहिये. "
''तुम्हारे कहने से क्या होता .हमें तो देना है . हम तुम्हारी जेब में रख देंगे."
और स्याही की दावात हमारी जेब में रखने लगी .
हम रोकते रहे पर उसने जबर्दस्ती हमारी जेब में डाल दी.
खींचा-तानी में स्याही जेब में ही फैल गई .
जब उससे कहा ," ये क्या किया तुमने?"
उलटे हमी पे चिल्लाने लगी '',तुम्हारी स्याही ,हमने दे दी ,तुम्हारी जेब में फैली ,तुम्हारी वजह से ..हम क्या करें और भाग गई .
वो कभी किसी की नहीं ,सुनती ."
आलोक ने जेब से दावात निकाल कर दिखा दी उलटी कर के कि खाली है
"तो दावात तो जेब से निकाल देते !"
"कहीं वो देख लेती तो.. .इधर ही तो रहती है ."वह रुबांसा हो आया था
"..गलती उस की है ,हम क्या करते! " .
बहिन जी का और मेरा हँसी के मारे बुरा हाल .
वाह रे लड़के !
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बुधवार, 17 नवंबर 2010

वाह टमाटर ,आह टमाटर !

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जब हम छोटे थे तो टमाटर इतने नहीं चलते थे .हर सब्ज़ी का अपना स्वाद होता अपनी सुगंध,अपना रूप अपना रंग कहाँ ,अब तो सब टमाटर होता जा रहा है .

टमाटर की लाली बिना सब बेकार .

कोई चीज़ ऐसी नहीं दिखती जिसमें यह न हो .

कल एक पार्टी में जाना हुआ .मारे टमाटर के मुश्किल .

एक स्वाद सब में ,एक रंग टमाटर, टमाटर !

दाल में टमाटर सूप में तो चलो ठीक है ,कभी-कभी तो डर लगता है पानी में भी नीबू के कतरे की जगह टमाटर काट कर न डाल दिया हो .

छोले तो छोले ,.मसाले के साथ पेल दिए टमाटर .पर नवरात्र के प्रसादवाले छौंके हुए काले चनों मे भी घुस-पैठ .और लौकी की तरकारी पर हो गया अतिक्रमण, टमाटरों की हनक के नीचे उसका अपना स्वाद ग़ायब !

मुँगौरी की सब्ज़ी में देखो, तो टमाटर घुले ,पता ही नहीं लगता मुँगौरी है या कुछ अल्लम-गल्लम ,

कल घर पर मैंने बिल्कुल सादे मटर छौंके चाय के साथ नाश्ते के लिए, और मैं ज़रा दूसरा काम करने लगी.

वन्या ,अपनी भतीजी से कह दिया ,’ज़रा मटर चला देना, मैं अभी आ रही हूं .’

आई तो कहने लगी ,'बुआ ,मैंने सब ठीक कर दिया !आप ने मटर में टमाटर डाले ही नहीं थे मैंने डाल कर पका दिया.'

'अरे तुमने कहां से डाल दिये टमाटर तो थे नहीं .'

'वो जो प्यूरी रखी थी वह डाल दी ,नहीं तो क्या मज़ा आता खाने में !'

हे भगवान ,बह गई मटर की मिठास ,अब चाटो टमाटर का स्वाद ,

क्या कहती उससे कुछ नहीं कहा .

निगलना पड़ेगा मजबूरी में, सोंधापन डूब गया प्यूरी में ! .

मारे टमाटरों के मुश्किल हो गई है ,कभी-कभी तो लगता है चाय में नीबू की जगह टमाटर न पड़ा हो .

अरे इस बार तो गज़ब हो गया .टमाटर का पराँठा .रायते में टमाटर ,चटनी में ,अरे आलू की टिक्की  भी सनी पड़ी है.

कढ़ी में भी टमाटर. तहरी -खिचड़ी ,पुलाव कोई तो बचा रहे इसके अतिचार से .
अभी उस दिन अपनी राजस्थानी मित्र के यहां गई थी ,उन्होंने गट्टे की तरकारी बनाई थी (जो चाहे सब्ज़ी कहे ,मुझे तरकारी कहना ज़्यादा स्वादिष्ट लगता है ).

परोस कर बोलीं, ‘लो खाओ अपनी प्रिय चीज़ !’

चख कर मैंने पूछा,’ यह क्या नई तरह की कढ़ी है?’

खा जानेवाली निगाहों से देखती हुई बोलीं , 'ये गट्टे तुम्हें कढ़ी लग रहे हैं ?’

‘अच्छा गट्टे हैं ?’

मैं दंग रह गई बेसन के घोल में खटास घोल दी जाए -चाहे टमाटर की ही ,कढ़ी तो कहलाएगी !उसी में समा गए गट्टे ,क्या ताल-मेल है , और रंग ?पूछिए मत बेसन टमाटर का मिक्स्ड, दोनों का स्वाद चौपट.

और वे ऐसे देखे जा रही हैं जैसे मैं कोई अजूबा होऊँ .

अब कहाँ सुकुमार स्वर्ण-हरित भिंडियों का सलोना करारापन. वह देव दुर्लभ स्वाद  !उद्दाम टमाटरी प्रभाव सब कुछ लील गया ,उस रक्तिम शिकंजे में सब जकड़े जा रहे है .

हे भगवान, यह .सर्वग्रासी आतंक हमारे सारे स्वाद ,सारे रंग मटियामेट कर के ही छोड़ेगा क्या !

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