बुधवार, 22 अगस्त 2012

कृष्ण-सखी - 57.& 58.



57.
सबसे आग्रह था कथा के श्रवण हेतु ऊंच-नीच ,धनी-निर्धन,पंडित-अपढ़ का कोई भेद नहीं. सब समकक्ष हो कर श्रवण करें .
उछाह भरे प्रजा- जन उमड़ आये .सम्राट् को अपने पास ,समान आसन पर पा कर अभिभूत हो गये .
सबकी सुख-सुविधा हेतु चारों भाई सजग हैं,
कोई किसी को बता रहा है -' इस आयोजन में भोग हेतु प्रसाद साम्राज्ञी को स्वयं बनाना है '
विस्मय से सुनते हैं लोग.
व्यास देव की मनोरम शैली ,श्रोताओं का औत्सुक्य - क्या  सुन्दर ताल-मेल !
*
कथा चल रही है ,अध्याय पर अध्याय खुलते जा रहे  हैं  -
युद्ध की विभीषिका ने आर्यावर्त की धरती पहले ही वीरों से विहीन कर दी,अनेक महान् वंश समाप्त हो गये .माँ और पितामही ,की बातों से  जो जाना है युवराज ने आज कथा-क्रम में सब सुन रहे हैं .
यदुकुल के लोगों का बहुत स्नेह पाया परीक्षित ने  ,उनके वार्तालाप से लाभान्वित होता रहा है,बोले,
'हाँ ,मुझे ज्ञात है ,कृतवर्मा पितामह को बहुत दुख रहा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया .'
'जाने दो पुत्र ,उनकी बातें उनके साथ गईँ .'
'परीक्षित को  जन के सम्मुख उपस्थित कर उसकी पात्रता सिद्ध करने का समय आ गया है.
उसे ही शासन सूत्र सँभालने हैं .यहाँ की स्थितियों से परिचित होता चले .'
भावी राजमाता है उत्तरा .अपने सामने ही सब से परिचित कराना उचित होगा .
तब युधिष्ठिर ने  संशय किया था,'धार्मिक कार्यों में  राजनीतिक उद्देश्य जोड़ना ,....'
'राजनीति ? कौन सी नीति हो रही है यहाँ? हमारा कर्तव्य ,हमारा धर्म .राजा-प्रजा में सामंजस्य का प्रयास, परस्पर सद्भावना और समझ उत्पन्न करने का ,इसमें राजनीति कहाँ से आ गई ?'
 व्यास बोले थे, वाचक के आसन पर पर बैठ कर पोथी नहीं जीवन के अध्याय खुलते हैं . सत्य-वाचन किये बिना कैसे रहा जा सकता है .  धर्म वैयक्तिक  जीवन के साथ समाज को भी साधता है .
लोक को जानना ही उचित है कि वह किस ओर जा रहा है ,'
  परिवार के सदस्य भागवत श्रवण करेंगे .उपस्थित जन से संपर्क तो होना ही है .'
पार्थ बोले ,'सही है .उसके जन्म का वृत्तान्त जान लें सारे जन .जीवन की आपाधापी में किसे याद होंगी वे पुरानी घटनायें ?'
क्या-क्या घट चुका अपने उस इतिहास को यह पीढ़ी समझ ले .'
*
पांचाली स्वयं स्वागत करती है ,आवश्यक शिष्टाचार का निर्वाह करती है .
कोई संकुचित न हो कहती है,' मेरे बाँधव कृष्ण ने स्वयं अतिथियों के जूठे पात्र उठाये थे ,और आप तो  भागवत-कथा का श्रवण कर रहे हैं - मेरे  आदरणीय हैं .'
गद्गद् हो जाते हैं  जन .
गद्दी पर आसीन व्यास जी ,कथा के बीच स्पष्ट करते हैं ,ब्रह्मास्त्र से कोई बच नहीं पाया आज तक . पर श्रीकृष्ण ने देवी उत्तरा के गर्भस्थ शिशु की रक्षा की अपने सत और तप से की .यही है वह परीक्षित .आपके सम्मुख .'
मर्मर  ध्वनि उठती है -'परीक्षित ?'
'पुत्र सम्मुख आओ,ये सब तुम्हारे अपने ,मिलो इनसे ! '
कितना सुदर्शन ,गौर वर्ण युवक !
वह ,शीष झुका कर ,कर जोड़ देता है 'आप सब मेरा प्रणाम स्वीकारें !'
हर्ष की लहर दौड़ जाती है .
पांचाली ने पौत्र का सिर सूंघा ,हृदय से लगा लिया ,वात्सल्य उमड़ पड़ा .
उत्तरा के पुत्र में कृष्ण और पार्थ दोनों की झलक पा ली  .
 अपने पुत्र के संपर्क से  पयोधर  उमड़ आये हों ज्यों ,वही अनुभूति परीक्षित को पहली बार गोद में लेने पर जाग उठी थी ,सजल होते नेत्रों को छिपा गई थी वह .
अभी ऊँचे-पूरे युवक-पौत्र को निहार  अंतर उसी भाव से भर उठा .
मेरी ही टोक न लग जाय  कहीं . उसने दृष्टि-दिशा बदल दी.
'वत्स तुम्हारे पिता के मामा-श्री के तप और सत् से आज तुम हमारे सामने हो.नहीं तो हमारा वंश ही डूब गया था. प्रयत्न करना उनके शुभ्र चरित्र पर कोई आँच न आये . '
'आपका आशीष  साथ रहे, पितामही .'
सब देख रहे हैं दक्षिण बाहु पर यह नील-लोहित चिह्न - यह क्या ?
'हाँ, और हृदय के समीप भी .जैसे उस समय की मुद्रा में था ,अस्त्र  शिशु के   हृदय में प्रविष्ट हुआ हो .'
''हाँ यही है उस ब्रह्मास्त्र का शेष चिह्न जो अश्वत्थामा ने इस के लिये छोड़ा था .''
किसी की उत्सुकता जागी है .
'तुम्हें क्या  अनुभव हुआ था वत्स, उस समय?"
कुछ स्मरण करता-सा बोला ,'बहुत धुँधली स्मृति .अभी भी कँपा देती है !इतना तीव्र ताप जैसे पल में वाष्प कण बन  जाऊँगा .तभी कानों  में कुछ ध्वनित होने लगा.  लगा मेरे चारों ओर अत्यंत वेग से कुछ घूम रहा है- घनघनाता चक्कर काट रहा. इतना समीप कि अभी स्पर्श कर लेगा ....हाँ, फिर ताप घटने लगा ,' कहते-कहते उसकी वह  बाँह हिल गई ,'यहाँ तीव्र पीड़ा,असहनीय.अभी भी लगता है जैसे सनसनाहट हो रही हो .
तब भी यह बाँह काँपी थी फिर माँ के कर का स्पर्श अनुभव किया,'
उसने समीप बैठी राजवधू उत्तरा की ओर देखा,
 ' माँ ने मेरे  उदर पर अपना  हाथ धरा था .कुछ निश्चेष्ट सा हो गया मैं.
धीरे-धीरे शीतलता व्यापने लगी..आगे कुछ याद नहीं .'
महिलाओं के समूह में किसी  ने उत्तरा से  सहानुभूति प्रकट की ,'इन्हें कैसा लगा होगा उस समय ,हे भगवान !'
'पुत्री ,तुम पर क्या बीती होगी !'
 सुभद्रा पास खिसक आईं  आश्वस्त करती बोलीं .
'कुछ बोलोगी वत्से ? कहने-सुनने से हृदय का भार  हल्का हो जाता है . '
कुछ क्षण सिर झुका रहा ,मुख पर कुछ भाव आये-गये , जैसे स्वयं में कुछ  समेट रही हो .
  बोली उत्तरा ,' हाँ ,मुझे लगा  अचानक एक भयंकर ताप मेरे उदर को दग्ध करने लगा  ,इतनी व्याकुल हो गई ...
 हाथ उदर पर धर लिया ,मुख से चीत्कार निकल गया तभी जैसे किसी ने कहा हो ,चेत मत खोना वधू ,परीक्षा का समय है , अचेत हुईं कि गर्भस्थ पुत्र गया ..'
और मैं दूसरे हाथ से अपनी देह नखों से खरोंचने लगी कि इस पीड़ा के आगे वह ताप ध्यान  न आये , .'
मुझे याद आ गया माँ की अनजाने में उस निद्रा से कितना बड़ा अनर्थ हो गया था .'
दृष्टियाँ सुभद्रा की ओर चली गईं.
उन्होंने ने सिर हिलाया .
विशाल कक्ष .अपार जन-समुदाय .वधू का मृदुल-सा स्वर एक सीमा तक ही पहुँच रहा था, पर विलक्षण शान्ति .स्तंभित से हो गये थे सब .
'ओह,कैसे बीता वह समय ?जैसे क्षण-क्षण कोई शत-शत अग्नियों से दहा रहा हो . जैसे पल भर में वाष्प में बदल जाऊँगी .कैसा दारुण ,विष-बुझे सैकड़ों तीरों के चुभन की पीड़ा .असह्य !ओह .'
स्मृति-मात्र से वह कंपित हो उठी थी .
'बस,बस ,अब कुछ मत बोलो ,'
' मत याद दिलाओ उन्हें उस दारुण क्षण की .अंत भला सो सब भला !
नारियाँ चर्चा कर रहीं थीं,
'चेत बनाये रखा फिर भी..' कोई कह रहा था.
और एक  नारी स्वर -
.'सुख और आनन्द के सब भागीदार , दारुण पीड़ा और जतन केवल माँ का भोग .'
वह फिर भी कहती रही,
'...नहीं ,अब ठीक हूँ. मैं बताती हूँ पूरी बात..फिर , लगा मामा-श्री ने घेर लिया है ,लपटों से जूझ रहे हैं  मुझे आश्वस्ति देते हुये .कहते जा  रहे थे
कुछ क्षण और ,कुछ क्षण और .पर मुझे लगता पता नहीं समय कितना लंबा  खिंच रहा है.और  फिर , मैं एकाग्र होने लगी. ध्यान केन्द्रित हो गया  .ताप का भान भूल गई .
उन्होंने कहा',बस ,शान्त हो ,सो जाओ पुत्री .'
और मैं विचित्र निद्रा में लीन हो गई .लगता रहा अमिय-कणों की फुहार रह-रह कर दग्ध तन को शीतल कर  रही है..'
'जब जागी तो उदर पर एक ऐसा ही नील-लोहित व्रण था  जो बाद में चिह्न शेष रह गया . .'  सुभद्रा बोलीं, उनकी अभिभूत दृष्टि वधू के सुकुमार मुख  पर.
पांचाली करुणा से भरी चुप देखती रहीं.
पार्थ की नेह-भीगी दृष्टि का अनुभव हो रहा है उसे .
उनके  शब्द शीतलता का प्रलेप करते हैं..'उत्तरे ,मैने प्रारंभ से तुम्हें पुत्री वत् माना . तुम्हें नृत्य की शिक्षा देने में उसी वत्सल आनन्द का अनुभव किया .वैसा ही स्नेह बहिन दुःशला के लिये मेरे हृदय में था .'
 तभी तो मुझे अपने पुत्र के  लिये स्वीकारा सोच कर तप्त हृदय शीतल हो  हो गया  .जनार्दन की भागिनेय-वधू ,उत्तरा के नैन भर आये  .उस विशाल सभागार में कितने नेत्र सजल हो उठे थे.
,पांचाली भी जानती है ,दुःशला के प्रति कितना ममत्व था पार्थ के हृदय में - और इन पर वह भी अपना विशेष अधिकार समझती थी . तभी वन में जब  जयद्रथ ने उसका हरण किया तो उसे जीवित छोड़ दिया कि बहिन विधवा न हो जाय.
भावाकुल  होकर श्वसुर के हृदय से आ लगी उत्तरा .'इस घोर दुख में आप दोनों का ही सहारा.नहीं तो कौन बचा है मेरा !'
कृष्ण-भगिनी सुभद्रा सामने खड़ी हैं ,भाई का मुख झलकता है ,व्यवहार झलकता है उनके हर विन्यास में .
'ऐसा न कहो पुत्री ,' पांचाली ने शीष पर हाथ धर दिया.'यह सभी  तुम्हारा है !'.

58.
बीच-बीच में होनेवाला ऐसा कथान्तर व्यास की कथा में  व्यवधान नहीं उसका प्रत्यक्षीकरण लगता है .
काल के  पृष्ठों को सामने रख रहे हैं व्यास -
अतिप्राकृतिक अस्त्रों का प्रयोग धरती का अंतस्थल दहला गये, उर्वरता रूखी रेत बन  गई.महा-समर का अपशिष्ट सरस्वती और उसकी सहयोगिनी सरिताओं  मे विसर्जित कर दिया गया था, पोषण के स्थान पर दूषणदायी हो गया सारा जल.
कोई बोल उठा ,'अब कहाँ  जल ?संपूर्ण वैदिक संस्कृति को जन्म से पोषण देने वाली  सदानीरा सरस्वती में जल बचा ही कहाँ !'
'जल कहाँ, अब केवल कीच  और विषम गंध !'
दूसरा स्वर ,'पशु-पक्षी आते हैं, बिना पिये लौट जाते हैं.'
व्याकुल हो कह उठते हैं व्यास -
'कहाँ हो रे अश्वत्थामा .आओ देखो .ये परिणाम कहाँ तक चला  आया और आगे कहाँ तक पहुँचेगा !शताब्दियों की अनवरत साधना  ने जो उपलब्ध किया था,उत्तेजना की एक घड़ी ने चौपट कर दिया !'
*
सब बड़े ध्यान से सुनते हैं -
कैसे आदि बद्री समीपस्थ हिमनद से प्रारंभ नदीतमा  की  प्रभास क्षेत्र तक की   अथाह जल-यात्रा इसी अहंकारी अतिचार के महादानव ने पी डाली . विस्तीर्ण ,वनस्पति-सघन, खग-मृगाकीर्ण प्रदेश रुक्ष मरुथल बन कर रह गया .
तटवर्ती आश्रम ध्वस्त, निर्जन पड़े हैं -ज्ञान का प्रसार कहाँ से हो? चिन्तक मनीषियों और  तपस्वियों के बिना  वैदिक संस्कृति और सभ्यता लुप्त प्राय है. ज्ञान-विज्ञान की धारायें सूखी जा रही हैं '
   आँखों देखा सच है -लोग सिर हिलाते हैं.
' सब इस युद्ध के कारण जो हम पर थोपा गया .'
'अति हो गई थी ,' सबको लगता है .परित्राण के लिये जो हुआ वह होना ही था .
 उसी का तो परिणाम है - यज्ञों की व्यवस्था विस्मृत हो गई. लोग वेदों  का शुद्ध उच्चारण भूल गये ,मंत्रों का दिव्य प्रभाव क्षीण हो गया .केवल दक्षिणा का लोभ रह गया  दयनीय अर्थ-व्यवस्था एवं आर्थिक और सामरिक दृष्टि से दुर्बल आर्यावर्त  को  विदेशी आँखें टटोलने लगीं.
आदर्शों के भव्य प्रासाद ढह गये थे .उतार पर आ था गया सब .
एक संपूर्ण सभ्यता-संस्कृति को निरंतर जीवन-ऊर्जा से सींचती सरस्वती अब कहां है ?
उन्नति के शीर्ष पर पहुँची वैदिक संस्कृति के पतन का काल बन गया यह युग ,जिसमें दुष्कृतियों को हत करने के लिये कितनी सीमायें पार करनी पड़ीं .'
वर्तमान सम्राट् ने भावी सम्राट् से कहा,
'वत्स,सत्य को जान लो , जनार्दन की छाया में रहे हो ...तुमसे बहुत आशायें हैं जन को .'
मामामह ने मेरे बोधों को जाग्रत कर दिया है ,पूज्य .अश्वारोहण द्वारा विविध स्थानों का भ्रमण करवाते थे वे ,कि अपनी आँखों से देख लूँ .'
पार्थ ने कृतज्ञ दृष्टि सुभद्रा पर डाली ,'सुभद्रे, तुम्हारे भ्राता बड़े नीतिज्ञ थे .कितने आगे तक की सोच गये .'
'दाऊ जितने सहज विश्वासी रहे , मोहन भैया को कोई चरा नहीं सका,' उसने अपना अनुभव कह डाला .  .
परीक्षित बोल उठा,'
'महान् नीतिज्ञ माना है ,तो फिर उनके दृष्टान्त ही आगे  मार्ग दिखायेंगे .'
युधिष्ठिर का विश्वास मुखर हुआ ,' मुझे विश्वास हो गया वत्स ,तुम इस राज्य के योग्य उत्तराधिकारी हो .'
'तात,आपका मार्ग-दर्शन और आशीष पाता रहूँ .प्रयत्नशील रहूँगा .'
सुभद्रा पुलक उठी .सब ने संतोष से देखा.
ऐसा लगता था जैसे श्रीमद्भागवत का साक्षात निरूपण हो रहा हो .
'वे स्वर्णिम दिवस  सदा को लुप्त हो  गये ?' एक चिन्तित स्वर उठा.
' सदा को कुछ लुप्त नहीं होता वत्स .समय का चक्र  ,और कर्म तुम्हारे !'
आरती हेतु, रजत पात्र में पातों का द्रोण धर कर कर्पूर की जोत जगाने लगे थे  महर्षि द्वैपायन .
सुगंधों से गमकते प्रसाद के बड़े-बड़े गंगाल लाकर रख रख दिये सेवकों ने  -साम्राज्ञी के करों से निर्मित भोग !
सब की  उत्सुक दृष्टियाँ उधर घूम गईँ .
कहते हैं - जिस  मानसिकता से  पाक होगा , भोक्ता में तदनुकूल भाव का परिपाक अनायास हो जाता है !
*
सात दिन की भागवत-कथा .सात दिन आचार-विचार से शुद्ध रहने का संकल्प !
हृदयों का संस्कार हो रहा है .ये सात दिवस,वर्ष भर अपना शुभ-प्रभाव बना रखेंगे .सात्विकता आंशिक स्वभाव बन जायेगी .
इतने समय पुनीत मनोमयता की यह डूब ,कितनी दूषित भावनाओं का शमन करेगी,धीरे-धीरे वही सात्विकता स्वभाव में परिणत होने लगेगी .
 व्यास-पीठ पर आसीन ज्ञानी वाचक बोले थे -
' सारे जीवन तपे थे वे ,संसार को सुन्दरतर बनाने के लिये .उनके संदेश हम जीवन में उतार लें तो विश्व का कल्याण संभव है !'
अभिभूत है नर-नारी जैसे भागवत के अध्यायों का साक्षात् निरूपण देख रहे हों!
सकारात्मक  ऊर्जायें जन-मानस  में नव चेतना संचरित करने लगीं थीं .
*
(क्रमशः)
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टिप्पणियाँ

apni ankho ke aage sab kuchh gatit hua jab itihas banNe lage to khud ko hi ye dekh hairani hoti hai ki waqt kaise kaise karwat leta hai. pareekshit ka vritant padh kar gyan vriddhi hui. aabhar. पांचाली 55.& 56. पर
अनामिका की सदायें ......
8/17/12 को

अद्भुत! निशब्द करती प्रस्तुति....आभार पांचाली 55.& 56. पर
Kailash Sharma
8/17/12 को

मन को बांध लेने वाली कथा। पांचाली 55.& 56. पर
सामग्री निकालें | हटाएं | स्पैम
mahendra verma
8/15/12 को
अभिभूत हूँ! शकुन्तला जी के शब्द को दोहराने भर की ही योग्यता पाता हूँ स्वयं में। आपकी लेखनी को नमन! पांचाली 55.& 56. पर
सामग्री निकालें | हटाएं | स्पैम
Avinash Chandra
8/15/12 को

इस शृँखला में भी कई सुभाषित सदृश दार्शनिक उक्तियाँ हैं। जैसे-"माटी की रचना कभी मंद कभी तीव्र आँच नहीं खाएगी तो पकेगी कैसे?","देह के साथ विदेह को निभाना यही जीने की कला है।" तथा" सीमित बुद्धि जब गहन को व्याख्यायित करने पर उतर आती है,तो विवेक पर आवरण पड़ जाता है।"आदि अनेक सशक्त वाक्य हैं। पांचाली का करुण विलाप हृदयविदारक है।परीक्षित के राज्याभिषेक का प्रस्ताव भी पांचाली की विरक्ति और चरित्र की उदात्तता को ही उजागर करता है।युद्ध के परिणाम स्वरूप हुई सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधःपतन की स्थिति का चित्रण प्रभावी है।जीवनदर्शन की अद्भुत प्रस्तुति श्लाघनीय है।प्रतिभाजी की लेखनी को नमन!! पांचाली 55.& 56. पर
शकुन्तला बहादुर
8/14/12 को

गतिमान- अनुसरण कर रहा हूँ- अश्वश्थामा के सिर पर, इक ख़ूनी घाव बहा करता है | निरपराध बच्चों की हत्या, यह संताप सहा करता है | मामा श्री के कर कमलों से जीवन दान मिला था तुमको- ब्रह्मास्त्र का शेष चिन्ह है , जिससे व्यक्ति सदा मरता है || पांचाली 55.& 56. पर
रविकर फैजाबादी
8/13/12 को

अद्भुत रस है आपके लेखन में , मंत्रमुग्ध हो पढ़ते ही जाए और पौराणिक इतिहास से परिचित भी हो जाएँ ! पांचाली 55.& 56. पर
वाणी गीत
8/13/12 को

Sundar vichar. ............ कितनी बदल रही है हिन्‍दी ! पांचाली 55.& 56. पर
DrZakir Ali Rajnish
8/13/12 को

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार १४/८/१२ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी आपका स्वागत है| पांचाली 55.& 56. पर
Rajesh Kumari
8/13/12 को

परीक्षित को शासन की बागडोर संभालवाने की सुंदर कथा .... पांचाली 55.& 56. पर
संगीता स्वरुप ( गीत )
8/12/12 को




रविवार, 12 अगस्त 2012

कृष्ण-सखी - 55.& 56.


55 .
*
विषम जीवन के दुर्दांत क्षणों में जो निरंतर अवलंब दिये था वह आधार चला गया . अधीर हो-हो कर बार-बार  रो पड़ती है पांचाली .
बिखरे केश ,वस्त्र मलीन - धरती पर बैठी है .सारे भान भूल गई है . अनायास आँसू बहने लगते हैं ,पोंछने की सुध नहीं .अंतर की वेदना बार-बार मुखर हो उठती है .
'ओ मीत, कहाँ हो तुम ?'
अंतर्मन से  रह-रह कर पुकार उठती है.
कृष्ण बिना इस संसार में कैसे जिया जायेगा ?
कैसे समझेगा कोई - कृष्ण, तुम कौन थे मेरे ?
कोई नहीं - सब-कुछ !
संसार के सारे काम चल रहे हैं पर भीतर एक शून्य समा गया है . कुछ अनुभव नहीं हो रहा . एक रिक्ति -सबसे विरक्ति.
वेदना अंतस्तल में जम गई है .
कोई अपना नहीं रहा था जब, बिलकुल अकेली पड़ गई थी ,बस, एक ने साथ दिया था .
हर विषम क्षण में ,उसे ही बार-बार पुकारता है आकुल मन !
पर वह कहाँ है ?
स्मृतियाँ बार-बार उमड़ती हैं .विगत कथा के बिखरे अंश समेट लाती
 विचलित कर जाती हैं .
 पतियों का मुख हत-तेज हो गया है .पार्थ घोर ग्लानि से ग्रस्त !नहीं बचा सके उन कुलनारियों को, वन्य जातियों द्वारा हर ली गईं वे .कुछ नहीं कर पाये, नितान्त असमर्थ !
सामर्थ्य तुम्हारी थी ,निमित्त मात्र थे शेष सब.
  नर ,नारायण से विच्छिन्न हो गया . नारायण छोड़ कर चला जाये तो नर अकेला क्या करे -एकाकी ,आहत, विवश !
मीत ,तुम इस जीवन में न होते तो .....बस, आगे नहीं सोचा जाता.
अब क्या करना है?सौंप दो सब,जिसका जो हो ले ले .हमारा कुछ नहीं, न राज न भोग .
पांचाली का मन पुकारता है , कहाँ हो तुम ?  कहीं तो होगे पर अब मैं नहीं हूँ मीत ,क्योंकि तुम यहाँ नहीं हो .तुम्हारे जाते ही सब समाप्त हो गया मान -अपमान ,सुख-दुख ,यश-अपयश।.मने सम्पत्ति -विपत्ति में समभाव से जीना सिखाया .अब जब तुम नहीं हो मैं व्यर्थ -सी रह गई हूँ .मेरी बात आती है तो सारी मर्यादायें ,सारे औचित्य बदल जाते हैं और तटस्थ दर्शक बन कर देखता रहता है सारा संसार.
तुम्हारे बिन क्या करती मैं ?
लाख प्रयत्न करती हूं ,नहीं भूल पाती ,उस असह्य क्षण को जो भयावह स्वप्न बन कर मुझ पर  घिर आता है .लगने लगता है, भरी सभा में कोई निर्वस्त्र कर रहा है मुझे . तुम्हें टेरती हूँ .उद्भ्रान्त सी हो हो.
 नहीं उबर पा रही .इन सब संबंधों से मेरा विश्वास उठ गया है  ,
जिस दिन आकाश से एकदम गहरी खाई में जा पड़ी थी ,कहीं सहारा नहीं था .पूरे प्राण-प्रण से  पुकारा था तुम्हें  और तभी समझ गई थी कि तुम्हारे सिवा ,और कोई  मेरा नहीं .
भयानक अकेलापन  घेर लेता है बार-बार ..
तुम्हारे बिना उस विभीषिका से मुक्त नहीं हो पाती मैं !
मन में बोलता है कोई-,' तुमने  सारा भार मुझे सौंप दिया था .अब क्यों खोल रही हो पुरानी गठरी ?'
अनायास अश्रु प्रवाहित होने लगते हैं .
- व्यथा का ज्वार उमड़ता चला आता है . संयम के सारे बाँध टूट जाते हैं.
*
जिसने सदा धैर्य दिया,साहस बँधाये रखा वह द्रौपदी बिखर  रही है .
सब निबटा गये तुम ,अब कुछ नहीं बचा  करने को - तो फिर मैं क्यों हूँ ?
 पाँच पति , पर किसी  को धीरज देने का साहस नहीं हो रहा .जस के तस विमूढ़ से सब.
सबसे बहुत कुछ पूछना है.पर किसी के पास कोई उत्तर नहीं .हाँ, मेरे पतियों ,अब मैं मुक्ति चाहती हूँ. जीवन जीने की इच्छा नहीं रही मुझमें .नहीं होना चाहती पट्टमहिषी.
रह-रहकर स्वर खो जाते हैं हिचकियों में -
 आज मैं सब भूल गई हूँ सारी मर्यादायें सारे औचित्य !
'कभी-कभी पुरुष मात्र से वितृष्णा होने लगती है मुझे, अपने उद्देश्य की पूर्ति का माध्यम बना लिया स्त्री को .कामना-पूर्ति का हेतु मात्र !
पर पुरुष ही तुम भी थे -  पुरुषोत्तम सही. '
विमूढ़ युधिष्ठिर सुन रहे हैं चुपचाप !
उन्हें लगता है वेग उतरेगा ,तो शान्त हो जायेगी .
ठगे से भीम , व्यथित अर्जुन ,जड़ हो गये  नकुल-सहदेव .
सब जैसे एक दूसरे को न झेल पा रहे हों ,परस्पर दृष्टि बचाये . कोई नहीं  जो आगे बढ़े कुछ कह सके .ज्वार का वेग कौन थामे !
*
 लगातार पुकार उठ रही है - कहाँ हो ?  तुम बिन इस संसार में कैसे जिया जायेगा ?
लगा कृष्ण ने हाथ पकड़ लिया है - 'गंभीरता से मत लो सखी !खेल समझ कर खेलो .आरोपित वस्तुओं को ऊपर -ऊपर से ही बीतने दो. '
'सब ओर तुम्हें हेर रही हूँ .कहाँ हो तुम ?'
विषाद-मग्नता बार-बार जड़ कर देती है
 उसने कहा था , 'जब भी पुकारोगी मैं होऊँगा तुम्हारे पास .'
यह भी कहा था उस महारास में  हर गोपी के साथ मैं ही तो रहा था......
कहाँ है वह ?हाँ ,शब्द हैं उसके -
'शंका मत करो ,मैं हूँ सतत तुम्हारे साथ,
 मैं सदा था, हूँ और रहूँगा .और तुम भी पांचाली  ,
अपने संस्कारों के अनुकूल मनोवृत्तियाँ धारे जन्म-जन्मान्तरों  तक मिलते रहेंगे हम !'
कितने रूप ,कितने नाम ,सहस्र-सहस्र दृष्यों में विद्यमान !
 हाँ ,कहा था तुमने , 'अनगिनत रूप धारे. यहाँ-वहाँ हर जगह व्याप्त .दिग्-दिगंत तक ,आत्म से परमात्म तक .वही चेत सब में झंकारता ,योजता, जैसे माला में डोरी !'
शीश नत कर लिया द्रौपदी ने .
लगा मन के आगे डोल गया वह अपरूप.
माधव ,तुम  नहीं गये ,बस ओझल हो गये हो दृष्टि से .'
लगा कह रहा है -'मैं तो ग्वाला हूँ सदा चराता हूँ तुम्हारी गायें  .'
 वही टेढ़ी मुस्कान .
 पर आज  खीझने  के स्थान पर मन रीझा जा  रहा है .
*
हाँ ,तुम हो .आभासित होते हो ,मेरे अंतर में .
अपनी ही अलापे जाओगी ,या कुछ मेरी भी सुनोगी  ,
 'हे ग्वाल, मेरी गौ बार-बार हरक कर भागती है .मन  भटकता है यत्र-तत्र-सर्वत्र,.समा लो अपने झुंड में !'
'हँकार लाता हूँ जब भटक जाती हैं ,पर दुहना तो तुम्हें ही है न - इन्द्रियों का आनन्द ! कभी सरस कभी फीका !'
'ग्वाला हूँ न पांचाली ये चतुर्दिक् गोचर जो हैं .देख लो इन चरती हुई गायों को...चाहता हूँ खींच लूँ अपने पास .'
हँस रहा है ,नटखट.
 तुम भी तो मुकुन्द .सबसे भिन्न सबसे निराले !'
  'भिन्न न रहूँ तो ग्वाल कैसे बनूँ ?'
लगा वह हँस रहा है मुँह टेढ़ा किये ,'क्यों, मैं मिला नहीं क्या तुम्हें ?'
शान्त हो चला है मन !
 *
समय बीत रहा है .कितने दिन -कितनी रातें .
अपने आप में डूबी , यंत्रवत् सारे  दायित्व निभाती है .
मन में मौन संवाद चलता है .
'परिताप  कहाँ झेला तुमने ?सारी सुलगन तो मेरे हिस्से आई .'
'तुम्हें क्या पता ?'
एक उसाँस उठी हो जैसे !
'जानती हूँ पर कह लेती हूँ ,एक तुम्हीं से तो .'
'द्रौपदी , देह का स्वभाव  है ताप !..औरों के दुख देखो. अपने से कम कर के मत आँको ..
और  देह.यही तो बनती है  सारे पापों की मूल .'
' भीतर दहकती है तो आँच आती है .तपाती है .फिर विचारती हूँ , जल  छींटती हूँ ज्यों ..,कुछ शान्ति पड़ती है उस समय .पर मेरे बस में नहीं ,आवेगों का उफान फिर-फिर  उमड़ता है.'
  ' सुविचारों का छिड़काव शान्त करता रहे .और पांचाली , देह है तो
ताप उमड़ेगा ,यही संसार का क्रम है ,कौन बचा है इस सुलगन से !
..माटी की रचना सखी,कभी मंद कभी तीव्र आंच नहीं खायेगी तो पकेगी कैसे ? मीता , इससे निस्तार नहीं .देह के साथ विदेह को निभाना यही तो जीने की कला है .'
*
उसने आगे  कहा था -
'पांचाली ,मेरा-तुम्हारा भौतिक संबंध कब रहा ? केवल शब्द , विश्वास और पारस्परिक  समझ.तभी तो पक्के साझीदार हो सके. '
तुम क्या अंतर्मन में जागते हो ,कृष्ण ?
कोई उत्तर नहीं .
कर्तव्य पूरे करने को निभाती रहे देह अपना धर्म , यही तो था उस  कथन का मर्म !
सामने होता तो चिढ़ाता ,'जुगाली कर रही हो ?'
 सोच कर अनायास मुस्करा दी .
कोई देखे तो क्या कहे !साम्राज्ञी पगला गई हैं
अपने आप हँसे जा रही हैं .
'साम्राज्ञी,देवी वृषाली पधारी हैं .'
परिचारिका कह रही थी .
'हाँ हाँ ,भूल गई थी मैं ,विशेष कक्ष में सम्मानपूर्वक आसन दो .कहो ,मैं बस उपस्थित हो रही हूँ .'
उठ पड़ी वह .
कर्ण की स्मृति उदित हुई -कितनी संश्लिष्ट .कितने-कितने दृष्य एक-दूसरे में गुँथे .
वृषाली .  मेरे बाँटे भी आये थे तुम्हारे पति. पर यह भी उनका दुर्भाग्य रहा , सखा ने उनके लिये कहा था,'जितना निर्मल अंतःकरण उतनी दमक से दीपित .कवच-कुंडलहीन हो कर भी वही ओज-तेज .'
तुम अनजान नहीं हो.पति की कोई बात तुम जैसी पत्नी से अजानी नहीं रहती ,कितनी सहनशील कितनी संयमी हो तुम !
वह चली गई वृषाली से भेंट करने .
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56.
 काल का चक्र अविराम घूमता रहा. महा-समर के बाद दो पीढ़ियाँ धरती पर आ चुकीं  .
  बहुत-कुछ बीत गया .हर विपद् में सहारा देनेवाला अभिन्न मित्र खोकर नर एकाकी रह गया.प्रिय सखा अब कभी नहीं मिलेगा जान कर भी पांचाली दिन बिताती रही .
कृष्ण का प्रस्थान एक रिक्तता सिरज गया ,किसी के आने की उत्सुक प्रतीक्षा नहीं रहती .सब कुछ  निश्चित ढंग से चलता है .शत्रुओं के साथ मित्रों-संबंधियों का भी विनाश हो गया .वह आवागमन ,वैसे आयोजन और वह उल्लास अब कहाँ ? बराबरी के संबंध कहाँ रहे ?
  एक उदासीनता सर्वत्र समा गई हो जैसे .
 अपार जलराशि दहाड़ रही है जहाँ द्वारकापुरी थी .
अब उस पर कहाँ-कहाँ के विदेशी पोत दिखाई देने लगे हैं  .
सब ओर क्षरण के लक्षण .कैसा युग कि आस्थायें और विश्वास बिखरे जा रहे हैं .
 फिर एक दिन द्रौपदी ने कहा ,'सम्राट् युधिष्ठिर ,सुनो !'
सब सचेत ,आज पांचाली ,बड़े पांडव को नाम से बुला रही है .
कुछ चौंके से बोले ,'कहो, साम्राज्ञी.'
 गंभीरता छाई है ,वातावरण की शान्ति बोझिल -सी ,' मुझे लगता है ,हमें जो करना था कर चुके .समय बदल गया. अब बागडोर नये हाथों में दे कर मुक्त हों .'
' मैं भी यही कहना चाह रहा था ,
सब के मनों में इस  सब से उपराम होने की इच्छा जागने लगी है .
परस्पर विचार कर शासन-दंड परीक्षित को सौंपने को प्रस्तुत हैं युधिष्ठिर .
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कृष्ण द्वैपायन के सम्मुख चर्चा हुई.
उन का मत है पहले युवराज को प्रजा के सामने लाओ , सारी वस्तु-स्थिति से अवगत होने दो .विगत के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान को समझेगा तभी भविष्य के लिये उचित निर्णय ले पाएगा.
तब से अधिकतर वार्तालापों में परीक्षित की उपस्थिति रहने लगी  .
विचार-विमर्ष में पांचाली के साथ , सुभद्रा और उत्तरा को सम्मिलित करने का आग्रह रहता है .उत्तरा राजमाता होगी ,दायित्व निर्वाह हेतु समुचित मानसिकता बने, प्रारंभ में कोई अवलंब चाहिये उसे ,सुभद्रा से अधिक और कौन उसके समीप होगा.
मित्र की भगिनी के नाते सुभद्रा ,पांचाली को और प्रिय हो उठी है .वैसे भी पट्टमहिषी के कर्तव्य निर्वाह में बहुत औपचारिकतायें व्यस्त रखती हैं .सुभद्रा के निस्पृह सहयोग से बहुत सुविधा हो जाती है.
इतनी शीघ्र युग-परिवर्तन हो जायेगा किसने सोचा था.
शंकाओं का युग ,अनास्था का युग !
उन घटनाओं को नई पीढ़ी अपने  ढंग से देख रही है - उल्लेख करती है जैसे कोई इतिहास  .
जन-चर्चाओं की गूँज राजमहल तक चली आती है .
अपनी सुनी-सुनाई के आधार पर वे कहते हैं -'पार्थ सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं थे .'
 पार्थ ने होंठ काट लिये ,युधिष्ठिर ने शीष झुका लिया .
पांचाली ,कुछ सोचती चुप रह गई .
सर्वश्रेष्ठ धनुर्धऱ ?
वसुषेण .हाँ वही ,सबसे तिरस्कृत हो कर भी श्रेष्ठतम .
एकलव्य किसी सहायता के बिना ,अपनी साधना के बल पर  सर्वश्रेष्ठ !

पर इनकी योग्यताओं का यहाँ कोई मूल्य नहीं था !
धनी-निर्धन का भेद तब भी था -एक ओर सारे विलास दूसरी ओर संतानों को दूध के अभाव में आटे का  घोल  पिला कर आश्वस्त करनेवाले गुणी - जन तब भी थे.पर तब आश्रय देने वाले समर्थ थे .अब तो वह भी नहीं .

वेश बदल कर  पांडव-बंधु लोगों के बीच टोह लेने पहुँच जाते हैं .राज-परिवार के विषय में वार्तालाप करना जनता का स्वभाव है - जो कुछ हुआ नये लोगों में उसे जानने का कौतूहल  है.
लोक-मानस उतना सहज-संतोषी नहीं रह गया .
*
युवराज परीक्षित की भिज्ञता बढ़ रही है.समय के साथ आनेवाले परिवर्तनों को समझ रहे हैं .
 सीमित बुद्धि जब गहन को व्याख्यायित करने पर उतर आती है तो विवेक पर आवरण पड़ जाता है .परिणाम एक से अनेक मत-मतांतरों की उपज .सबकी अपनी ढपली अपना राग , और सामान्य-जन भरमा कर,उसे ही परम साध्य समझने लगता है.
भक्ति का उद्देश्य उन्नयन से हट कर मन-रंजन हो गया .
 किंवदंतियो में व्याप्त कृष्ण का पुरुषोत्तमत्व आच्छादित हो गया .भावना  वासना की राह चल पड़ी .प्रेम की दिव्यता, ऐहिकता और दैहिकता में रँग गई .
 निस्पृह-कर्म का संदेश भूल गये सब, लीला-कलाओं से  विलास की गंध आने लगी.
राधा और गोपियों के साथ के कृष्ण के संबंध को अपनी कुंठित वासनाओं की अभिव्यक्ति बना कर कहाँ-कहाँ घसीट रहे हैं लोग!
वासुदेव का उदात्त,अनासक्त चरित्र ,लोक मन में विलासी नायक का रूप लेने लगा .पुरुषोत्तम के उस दिव्य चरित्र पर कैसे-कैसे आरोपण होने लगे !
 जन-रुचि आखिर कहाँ तक पतित होती चली जाएगी ?
*
साम्राज्ञी को कुछ सूझा परिषद् के सामने पूछ बैठीं-'भागवत कथा का पुरुषों के लिये कोई उपयोग नहीं ?'
युधिष्ठिर चौंक गये ,'नहीं सबके लिये हितकारी है .'
व्यास देव मुस्कराये ,'शुभे ,आपका कथन उचित है. श्रीकृष्ण के जीवन में जो नीतिज्ञता ,दृढ़ता,जो तत्व-ज्ञान था ,सर्वमंगल की कामना थी और अनासक्ति ,' व्यास जी ने कहा,'जिसमें धर्म-युद्ध से विमुखों को भी सम्मुख कर देने की सामर्थ्य हो ,उसके क्रिया-कलाप और उसकी वाणी सारे समाज के लिये प्रासंगिक है - पुरुषों को कर्मशीलता की ओर प्रेरित करनेवाली  ,'
'तो यह आयोजन सब के लिये क्यों नहीं ?" .
विस्मित हो गये व्यास देव.
' चकित हूँ साम्राज्ञी,जिस अंतःप्रेरणा से ये शब्द आपके मुख से निस्सृत हुये .उसी में भावी कल्याण का समाधान निहित है .'
' भागवत का पारायण  सार्वजनिक रूप से हो सम्राट् , राज-परिवार और प्रजा दोनों के संबंधों का नया अध्याय प्रारंभ हो .'
युधिष्ठिर की उदारता जाग उठी,' तो फिर प्रजा  हमारी आगत  अतिथि हो,प्रसाद पाकर जाये !'
भावी मंगल और अनिष्ट की छायाओं के निवारण हेतु ,सप्तदिवसीय भागवत-कथा का आयोजन .प्रजा-जन सादर आमंत्रित हों .
क्रियान्वयन का निर्णय  सर्व-सम्मति से हो गया .
सुभद्रा धीरे से बोली 'जीजी,कितना प्रसाद ?'
वैसा ही हँसी भरा उत्तर मिला ,'अक्षय पात्र है न !'
*

(क्रमशः)