सोमवार, 18 अप्रैल 2011

एक थी तरु - 14.& 15.


14.

"यह जो बाहरी दुनिया है इसके समानान्तर एक मेरे मन की दुनिया है " _ तरु ने कहा था .
"मुझे बताओ ,कैसी वह दुनिया ?''
पर तरु कैसे बताये ?
मन में जो कुछ है उसे व्यक्त कैसे करे ?वह सब क्या कहने की बात है !
फिर असित ने पूछा था ,"उस दिन,मेरी बात सुनते - सुनते तुम्हें क्या याद आ गया था ?तुम भी मुझे अपना साझीदार बना लो !."
"साझीदार ?" कैसे कहे तरु कि जहाँ वह निपट अकेली है,वहाँ कोई साझा नहीं चलता .मन में समाई वे बातें किसी तरह व्यक्त नहीं हो पातीं .वह सब मुँह से कहना संभव नहीं .नहीं असित ,जिन विकृतियों को मैंने जिया है ,उन्हें कैसे दोहराऊँ ?भीतर से बाहर आने का उनके लिये कहीं कोई अवकाश नहीं .उनका अनुभव कोई और करे यह मैं सोच भी नहीं सकती .
असित से वह कहना चाहती है -तुम्हारे अनुभवों का क्षेत्र बहुत व्यापक है ,तुमने जिन्दगी में बहुत संघर्ष किये हैं लेकिन वे अनुभव सामान्य जीवन के हैं.तुम उन्हें किसी को भी बता सकते हो तुमसे सबको सहानुभूति होगी .पर मेरे अनुभव ! मेरा विगत जीवन की विकृतियों का कटु अध्याय है,.उन पृष्ठों को खोलते मुझे स्वयं घबराहट होती है .सत्य बहुत विचित्र होता है ,जिसे सहज रूप से स्वीकारा नहीं जा सकता .मैं किसी से कुछ नहीं कह सकती .तुम पूछते हो तो मैं अव्यवस्थित हो जाती हूँ .अपनी बखिया आप ही कैसे उधेडूँ ?मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ कि कुछ बातें ऐसी होती हैं जो कभी मुँह पर नहीं आ सकतीं .अपरिचित से कहूँ भी कैसे ,अल्पपरिचित उस सबका हकदार नहीं और अति परिचित से कह कर हमेशा के लिये उसके सामने कुण्ठित हो जाऊँ ?ऊँहुँक् !
तरु को बिल्कुल चुप देख कर फिर उसने कहा ," मन को इतना बाँध कर क्यों रखती हो ?किसी को अपना साथी बना कर हल्का हो लेना क्या बुरा है !क्या मैं अपात्र हूँ?"
"नहीं ,ऐसी बात नहीं .पर क्या कहूँ कुछ समझ में नहीं आता .बात यह है असित जी, कि मैं कुछ अलग हूँ .मुझे ऐसा लगता है कि मैं सबके जैसी नहीं हूँ .शुरू से मेरी किसी से पटरी नहीं बैठती .इतना अशान्त है मेरा मन. किसी के साथ सुख -चैन से नहीं रह सकती .क्या करूँ, मैं हूँ ही ऐसी ."
"बेकार के वहम में पडी हैं .कुछ लोगों से पटरी नहीं बैठी तो आगे भी नहीं बैठेगी ऐसा कैसे सोच लिया ? और मेरे साथ तो आपकी खूब पटरी बैठती है .स्वभाव तो मेरा भी विचित्र है ."
"वहम नहीं है .आप नहीं जानते मेरे पिता ने बहुत कष्ट झेले थे ,उसके बाद उनकी मृत्यु हुई थी .मुझसे उनका कष्ट देखा नहीं जाता था .जिसे देख कर ही मैं विचलित हो जाती थी ,उन्हें वह सब झेलते हुए कैसा लगता होगा - मैं अनुभव करना चाहती हूँ ...."
तरु के गले में भीतर से उठती भाप का गोला अटक सा रहा था ,जिसे गटक कर वह फिर बोलने लगी ,."... और लोग ईश्वर से सुख -शान्ति की याचना करते हैं ,और मैंने क्या माँगा था ,जानते है ? मैंने मन-ही मन कहा था 'ओ मेरे अंतर्यामी,अ्ब तक मैंने तुमसे कुछ नहीं कहा .आज कहती हूँ - तुम मुझे भी इतना ही दुख देना ,जिसमें कि मैं अनुभव कर सकूँ कि उन्हें कैसा लगता होगा ! "
असित स्तम्भित सा बैठा है .तरु के मुँह पर छाई गहरी उदासी उसे कुछ कहने से रोक रही है .
तरु अपने आप में ही डूबी कहे जा रही है ,"मैं पैदा क्यों हो गई !यही सब देखने -सुनने को !और हुई भी थी तो ऐसा मन क्यों मिला मुझे -अड़ियल और ज़िद्दी ,फिर भी संवेदनशील !"
"असित जी ,किसी के दबाव में आकर मैं कुछ नहीं कर सकती .कितने भी विरोध झेलने पडें ,कितनी ही अशान्ति हो ,बड़े से बड़ा नुक्सान क्यों न हो जाय पर मन जिसकी गवाही नहीं देता उससे मैं समझौता नहीं कर पाती .कई बार कोशिश करके देखा ,पर तब मेरा ही अंतःकरण मुझे धिक्कारने लगा .और सब सह सकती हूं पर भीतर से उठती वह धिक्कार मुझसे सहन नहीं होती .."
"ऐसा भी कहीं होता है .?" असित के मुँह से निकला .
"हाँ ,वही तो . पर मेरे साथ यही तो मुश्किल है .मुझे जो लगता है कर डालती हूँ बहुत अव्यावहारिक हूँ न मैं ?"
"बड़ी मुश्किल है ,"असित अपने आप ही बुदबुदाया .
"मुश्किल में डाल दिया न आपको भी .छोड़िये यह सब ." तरु ने टॉपिक बदलते हुये कहा ,"रश्मि का रिश्ता कहीं तै हुआ ?"
"बात चल रही है .आशा है हो जायेगा .बात लेन-देन पर अटकी है .सब चाहते हैं पहले मेरी हो ."
"ठीक चाहते हैं ."
"और आप क्या सोचती हैं ?"
"हाँ ,अब आपको कर लेनी चाहिये ."
"मैं अपनी नहीं,आपकी बात कर रहा हूँ ."
तरु मुस्करा दी .
"सोचा ही नहीं कभी . मेरा स्वभाव बड़ा विचित्र है .कहीं गुजर नहीं होगी ."
"विचित्र स्वभाव वाले के साथ हो सकती है .और भी कोई ऐसा हो सकता है .ज़रा, सोचकर देखिये ."
मतलब समझ रही है वह .इसी प्रश्न से बराबर बचने की कोशिश करती रही है . अगर असित ने साफ़ पूछ लिया तो न ना करते बनेगा, न हाँ .
हाँ, कैसे करे विवाहित जीवन के अनुभव चारों ओर बिखरे पड़ हैं .असित के साथ जितनी देर रहती है ,मन संयत रहता है ,नहीं तो भटका-भटका फिरता है .कैसी उलझन है असित को चाहती भी है और विवाह भी नहीं !
फिर क्या प्लेटोनिक लव ? हुँह .प्लेटोनिक वाली बात निरी ढोंग लगती है तरु को .वह तो सिर्फ मजबूरी का नाम है .आत्मा और शरीर एक दूसरे से अलग कर दें तो जिन्दगी कहाँ रही ?
मन प्यार करता है, आँखें देखना चाहती हैं कान सुनना चाहते हैं ,जिह्वा बोलना चाहती है शरीर स्पर्श चाहता है ,हृदय अनुभव करना चाहता है .इनमें आत्मा कहाँ ?सब शरीर की इच्छायें हैं .आत्मा तो अलग खड़ी रहती है ,तटस्थ भाव से .और एक के बाद दूसरी कामनायें जागती जाती हैं .कामना - पूर्ति की अपनी - अपनी सीमाओं का निर्धारण सब अपने आप करते हैं .
तन और मन जहाँ एकाकार हो जायें वहीं है तन्मयता की स्थिति ,पूर्णता की स्थिति ,प्रेम की पराकाष्ठा !
पर दुनिया में ऐसा कहाँ मिलता है !

**

रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर तरु ,शिखा के पासवाली अपनी सीट पर बैठी ही थी कि मधुरिमा ने प्रवेश किया .
शिखा और तरु की निगाहें उसके हाथ के बड़े से पैकेट पर जम गईं .
शिखा ने पैकेट छीन कर खोल डाला .उसमें से  निकला एक जो़ड़ा बेडकवर सामने फैला कर बोली ,"वाह !क्या सुन्दर कम्बीनेशन है !कित्ते में लाईं ?"
इतने में उसे पैकेट में पड़ा कैश - मेमो दिखाई दे गया .,"तीन सौ पच्चीस रुपये !बड़ा मँहगा खरीद डाला !"
"जब से नई गृहस्थी जमाई है यार ,अब तक कुछ खरीदा नहीं था .कल सेलरी मिली तो सोचा बल्देव को सरप्राइज दे दूँ.उन्हें यह कम्बीनेशन बहुत पसन्द है ."
तरु हाथ बढ़ाकर बेड-कवर छू रही है .यह छुअन उसे एक और बेड-कवर की याद दिला गई जो ट्रेन की यात्रा में उसे किसी ने उढ़ा दिया था ,जिसकी सुखद गर्माहट में लिपटी वह देर तक सोई रही थी .उस रात की याद आते ही रोमाँच हो आया उसे .भीतर ही भीतर लगा जैसे कुछ उमड़ा चला आ रहा हो.दाढ़ी की नोकें मुँह पर चुभती -सी लगती हैं .एक अजीब सी मोहक गन्ध नशे की तरह उस पर छाती चली जा रही है
मेज़ पर काम कर रही है तरल, पर मन भाग - भाग जा रहा है .रजिस्टर के जोड़ -घटाव के साथ मन में निरंतर एक जोड़-घटाव चल रहा है .असित और तरल,तरल और असित !कैसा जुड़ गया है यह संबंध जिसका कोई नाम नहीं ,केवल अनुभूति !
वह बार-बार उबरने की कोशिश करती है पर कैसी है यह सर्वग्रासी अनुभूति जो समस्त चित्तवृत्तियों को छाये ले रही है !कभी किसी के लिये इतना दुर्निवार आकर्षण नहीं जागा था .
असित ,तुम्हारे सम्पर्क में बीती एक रात ने, मेरी समस्त चेतना को मोहाच्छन्न कर डाला है .बहुत पहले पढ़ा हुआ विद्यापति का एक पद याद आ रहा है ,तब इसका अर्थ समझ कर विभोर हो गई थी ,पर आज उस अनुभूति की गहराई में पहुँच कर डूब-डूब जा रही हूँ --

"सखि कि पुछेसि अनुभव मोय ,
से हो पिरित अनुराग बखानिय पल-पल नूतन होय !
जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल ,
से हो मृदु बोल स्रवनहिं सूनल ,स्रुति पथ परस न केल !
कत मधुजामिनि रसभ गमाओल नजने कइसन केल !
लाख-लाख जुग हिय धरि भेटल तओ हिय जुडल न गेल ! "

सखी राधा से उसका प्रेमानुभव पूछती है .पर राधा नित्य नूतन होते इस अनुराग को शब्दों मे कैसे वर्णित करे !जहाँ वह स्वयं खो जाती है उसकी सुधि कहाँ से लाये !वह सब कुछ विस्मृत हुआ सा लगता है, कुछ स्पष्ट याद नहीं आता .यह कैसी तृष्णा है जो जो कभी तृप्त नहीं होती ,बढ़ती ही जाती है .जिसे स्वयं न समझ पाई हो वह दारुण प्रेमानुभव किसी  को कैसे समझाये राधा !
सचमुच असित,मुझे भी ऐसा लगने लगा है कि जन्म-जन्मान्तर तक तुम्हारा साथ पाने के बाद भी मैं तृप्त नहीं होऊँगी .तुम मेरे लिये सर्वथा नवीन ही रहोगे .पर अपनी भावना को मैं स्वयं नहीं समझ पाती तुम्हें कैसे समझाऊँ ?मुझे लगता है असित, अगर किसी चीज को दो हिस्सों में काट दिया जाय तो एक तुम होओगे ,दूसरी मैं !

**

15.

असित कई बार इंगित कर चुका है, पर वह असित के सामने सीधी-सीधी बात करते घबराती है .मन-ही-मन कहती है -मैं तुम्हारी आभारी हूँ कि तुमने मुझे प्यार किया .पर मैं तुम्हें सुख -शान्ति नहीं दे सकूँगी ,मैं जो स्वयं इतनी अशान्त हूँ .कुछ ऐसा है जो मुझे कहीं चैन नहीं लेने देता. पीछे जो छोड आई हूँ उससे मेरी मुक्ति नहीं होती .जीवन भर जिस ज्वाला में मुझे दग्ध होना है उसकी आँच तुम्हें क्यों लगने दूँ ?मैने तुम्हें चाहा है इसलिये तुम्हें उस अशान्ति का हिस्सेदार नहीं बना सकती असित, अपना संतप्त मन मैं तुमसे नहीं बाँट सकती .वह जो मेरा है ,मुझे ही झेलना है ,तुम्हारे ऊपर नहीं लादूँगी .
उस दिन तरु का हाथ पकड लिया था असित ने ,''जीवन में बहुत खोया है तरु ,पर अब मेरी हिम्मत जवाब देने लगी है .अब कुछ मिला है उसे खोकर कैसे रहूँगा? तुम मुझे छोड़कर कहीं मत जाना .---मैं बहुत अकेला होता जा रहा हूँ .तुम्हें नहीं खो सकता ..नहीं ,किसी तरह नहीं !''
हाथ नहीं छुड़ा पा रही तरल .बहुत दिनों से इसी उलझन में है .सोचती रहती है चुपचाप .बार-बार असित का ध्यान आता है.वह अच्छा लगता है .पर उसकी समझ में नहीं आता वह गृहस्थी कैसे करेगी ?भीतर की घोर अव्यवस्था औऱ बाहर सब सुचारु रूप से चलाना -कैसे संभव हो सकेगा ?मन को चैन नहीं होता तो सारे सुख निरर्थक हो जाते हैं ,उनकी ओर हाथ बढ़ाने का प्रयत्न भी कैसे करूँ ?
"मैं तुम्हें बुरा लगता हूँ ?"
"नहीं ."
"फिर ?"
"मैं क्या करूँ ,समझ नहीं पाती .अब तक का अनुभव यही है कि कोई रिश्ता स्थाई नहीं होता .माता-पिता भाई -बहन ,समय के साथ सब बदल जाते हैं .."
"वे संबंध जीवन भर के लिये नहीं होते .वे तो अलग-अलग स्थितियाँ हैं -सन्तान होने की भाई-बहन होने की .दूसरी तरफ संबंध प्रगाढ़ होते ही वे स्थितियाँ बदलने लगती हैं पर एक रिश्ता ऐसा भी है जो जीवन भर बाँधे रखता है वह नहीं बदलता ."
"असित जी ,मेरा स्वभाव अलग है .आप चाहेंगे जैसा सब करते हैं ,वैसा मैं भी करूँ .मैं न कर पाई तो ---?फिर आपको असन्तोष होगा. मैं गृहस्थी की सीमा में अपने को सीमित न रख पाई तो --?
तरु को लगता है पति बन कर आदमी वह नहीं रहता जो अन्यथा होता है पत्नी पर पूरा नियन्त्रण और स्वामित्व चाहता है और मैं ऐसी हूं कि जो ठीक लगता है वह कहे, बिना करे बिना रह नहीं पाती .घर बने और रोज़-रोज़ किट-किट हो तो घर बनाने से क्या फ़ायदा ?---लेकिन विग्रह की बात पहले से कारण बना कर प्रस्तुत कैसे करे ?
"मैं बँध कर नहीं रह सकती ," तरु ने कहा ,".मुझे बँध कर रहने में ऊब लगती है .मैं ऐसे नहीं रह सकती ,अपने मन का कुछ करना जैसे पढ़ना ,लिखना ,घूमना फिरना ,मन चाहे तो नौकरी करना ,या और कुछ --."
"तुम अपने को अलग रख कर क्यों सोच रही हो ?घर तो दोनों का होगा ,दोनों का ही मन रहे तभी तो घर है ."
घर की एक कल्पना है तरु के पास -ऐसा घर नहीं चाहिये जहाँ बाकी सब पराये हो जाते हों .सीमित स्वार्थ के आगे सब रिश्ते टूट जायें .रिश्ते , जो पहले औरों से टूटते है फिर आपस में ही टूटने लगते हैं.सब अलग-अलग होकर बिखर जाते हैं -अकेले-अकेले !औरों से रिश्ते टूटने के बाद जब आपसी रिश्ते टूटते हैं तो वही होता है जो मेरे साथ हुआ ,असित के साथ हुआ .
"कैसा घर बनना है ,यह तो तुम्हारे सोचने की बात है ,जो करना है वह तुम्हारे हाथ में है .मैं सहयोग दूँगा ,बाधा नहीं .''
तरल के होंठों पर बड़ी मधुर मुस्कान छा गई है ."
"क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा ."
"बहुत कर चुकीं तुम ,अब तुम्हें कुछ नहीं करना है ."
यह क्या सुन रही है तरल !
अब तक तो यही सुनती आई है -तुम्हें यह करना है ,तुमने यह नहीं किया .तरु ,तुम इतना और कर डालो .न घर चैन ,न बाहर चैन ! आज यह कैसी नई बात- ' तरु तुम्हें कुछ नहीं करना है !'
यह कौन समाधान दे रहा है ?कैसे अस्वीकार कर दे ?तरु का मन भीग उठा है .
असित समझा रहा है -मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ भी तो होती हैं .उन्हें दबाने से अस्वाभाविकता और कुण्ठायें ही उत्पन्न होंगी .प्रकृति के नियम तो पूरे होंगे ही .मेरे घरवाले मेरे पीछे पड़े हैं ,तुमसे भी कहा जा रहा होगा ,या घर के लोग ढूँढ-खोज में लगे होंगे .उस जुए में किसे कैसा साथ मिल जाये ,उससे अच्छा क्या यह नहीं कि हम जिसे समझते हैं उसे ही स्वीकार कर लें ?"
"मुझे थोड़ा समय दीजिये ,सोचने -समझने का --."
"ठीक है ,मैं इन्तजार करूँगा ."

*
पिछली बार जब असित रिजर्वेशन की बात करने तरल के पास गय़ा था तो मेज़ पर पड़ी किताबें पलटते तरु का बी.ए.का एडमिशन कार्ड निकल पडा था .असित ने उठा लिया.
स्टोव पर चाय बनाती तरु ने देखा -उसमें लगे उसके फ़ोटो को ध्यान से असित देखता रहा था .
उसके जाने के बाद तरु ने अपनी फ़ोटो उठा ली - आज असित की आँखों से अपने को देखना चाहती है वह !
अपनी फ़ोटो ध्यान से देखे जा रही है .दृष्टि उसकी नहीं असित की हो गई - आँखें असित की हो गईं,यह तरु नहीं असित है .फ़ोटो में तरु है .तरु असित की निगाहों से अपनी फ़ोटो देख रही है ,देखे जा रही है .आँखें ,नाक ,मुँह ,माथा ठोड़ी .अब तक इतने ध्यान से किसी ने देखा था क्या ?
असित की दृष्टि का राग आँखों में उतर आया है .एक खुमार सा तन-मन पर छा गया !उसी में तरु खो गई .अब तक जो नहीं देखा था वह भी दिखाई देने लगा -पलकों का एक-एक बाल ,भौंहों की पंक्ति ,आँखों का रंग,ठोड़ी के पास का तिल ,ऊपर के होंठ का झुकाव ,नीचे का कटाव ,नाक की ढलान ,अपलक कहीं और देखती दृष्टि !
ओ,असित क्या मिला तुम्हें इस चेहरे में ,इन आँखों में ,जिनकी दृष्टि भी तुम्हारे आमने- सामने नहीं, कहीं दूर खोई है ?
कानों में बार-बार कोई कहता है 'अब तुम्हें कुछ नहीं करना है ,अब तुम्हें कुछ नहीं करना है ,'
असित के शब्द संतप्त मन पर शीतल प्रलेप - सा लगा जाते हैं .

*

"एक तरैया पापी देखे ,दो देखे चण्डाल----"

बुआ द्वारा कही हुई कहावत तरु को याद आती है .पर उसे दिखाई देता है रोज, शाम को पहला तारा .
दिन ढलने लगता है,सूरज अपनी किरणों का जाल समेट अस्ताचल में समा जाता है और धूसर होते आसमान में साँझ का पहला तारा टिमटिमाने लगता है .वह और ढूँढती है,सारा आकाश खँखोल डालती है तब दूसर सितारा दिखाई देता है ,बिना पलक झपकाये फिर खोजती है पर तीसरा कहीं नहीं मिलता .एक ही निगाह में एक और सितारा पाने की कोशिश करती है पर  कहीं नहीं पाती .एक ही निगाह में तीन सितारे दिखाई दे जाँय ऐसा कभी नहीं होता .

तीन तरैया राजा देखे ,
सब देखे संसार !"
सब तारे रात भर आकाश में टिमटिमा रहते हैं पर शाम के आकाश में कभी भूले से भी उसे एक नजर में तीन तारे नहीं दिखते .मैं पापी हूं ?नहीं तो रोज ही क्यों दिखाई देते हैं एक या दो तारे !
कमरे के आगे छत पर बैठी तरल सोच रही है -एक दिन नहीं ,दो दिन नहीं ,रोज ही एक सितारा ,या फिर दो ,बस !
पापी तो हूँ ही .देखते -देखते सब कुछ बिखर जाय,घर चौपट हो जाय ,सब कुछ छिन्न-भिन्न हो जाय!एक आदमी भूखा- प्यासा पड़ा रहे !.पहनना-ओढ़ना ,बोलना ,बात करना ,मान-सम्मान सबसे वंचित कर दिया जाय .अकेला ,चुपचाप सब सहन करता रहे ,तन-मन से छीजता रहे ,और एक दिन यों ही दम तोड दे .सामने -सामने सब घटता रहे और देखनेवाला दर्शक बना देखता रहे ,तो पापी ,चाण्डाल कोई दूसरा होगा क्या ?
ऑफ़िस से आकर अकेली कमरे से बाहर छत पर आ बैठती है वह.कोई साथ नहीं .ऑफ़िस में उसके सिवा तीन महिलायें और हैं -,उसी के सेक्शन में .दो विवाहित एक क्वाँरी .सब अपने-अपने परिवार में लीन .

शाम पड़े लौटती है तरल ,थकी हुई निष्प्रभ -सी .
रात को अक्सर स्वप्न में देखती है-पिता आये हैं ,वे भूखे हैं .
तरु पूछती है,' पिताजी खाना परसूं ?'
वे कुछ बोलते नहीं वापस लौट जाते हैं .
जितनी बार आये भूखे ही चले गये .उन्हें खाना किसी ने नहीं दिया .तरु ने पूछा तो वे कुछ नहीं बोले .
तरु चुपचाप देखती है. वे आते हैं उसकी ओर देखते रहते हैं और उसके बोलते ही चले जाते हैं .मन चीख़ -चीख़ कर रोता है -क्यों नहीं कुछ कर पाती मैं ?किसी पर मेरा बस नहीं .न जिन्दगी में रहा ,न सपने में !
कैसे असहनीय दिन थे वे .रातें भी शान्ति से नहीं गुजरतीं थी .

अम्माँ की आवाजों से तरु की नींद खुल जाती थी, चुपचाप पड़ी-पड़ी देखती रहती थी वे बकझक कर रही हैं .पानी पीने के बहाने उठ कर देखती थी तरु -पिता का चुपचाप मुँह ढाँक कर लेटे रहना भी उन्हें सहन नहीं होता .वे चादर खींच कर खोल देतीं चादर हटते ही जो चेहरा निकलता था उसका स्मरण ! स्मरण से भी रोंगटे खडे हो जाते हैं .शब्द नहीं हैं .ऐसे शब्द भाषा मे बने ही नहीं जो उस मूक सन्ताप को उस दहला देनेवाली यंत्रणा को व्यक्त कर सकें .

रात में भी वे उन्हे चैन नहीं लेने देंगी. खुद तो दिन में सो लेती है ,खुद तो समय से खा लेती हैं .तरु का बनाया खाना बडी उदारता से सबको बाँट देती हैं .बाहरवालों के लिये बड़ी संवेदनशील ,बड़ी करुणामयी ,बड़ी स्नेहमयी बन जाती हैं.सबकी सहानुभूति पा लेती हैं .और पिता ? वह सोच नहीं पाती . पिता की वेदना की सीमा निर्धारित नहीं कर पाती .

वह घड़ी देखती है -दो बजते हैं ,फिर तीन बजते हैं वह घबरा कर चीख़ उठना चाहती है,'तुम इस हड्डियों के ढाँचे को भी साबित नहीं रहने दोगी ! '
न मर्यादा का ध्यान ,न श्लीलता-अश्लीलता का होश !वे बोलते -बोलते थकती भी नहीं .वे क्यों थकेंगी ,उन्हें कहाँ दिन भर दफ्तर में काम करना है !उन्हें तो घर में भी किसी काम से मतलब नहीं उनकी हर ज़रूरत पूरी होनी चाहिये नहीं तो ..क्या कुछ नहीं कर डालें !
कितना सामान घर में बनता था .आये गये को पास-पड़ोसियों को आग्रह कर कर के खिलाया जाता था ,पर पिता नहीं खाते थे .कैसे खाते वे ? महीने भर का सामान पन्द्रह दिन में खत्म होने पर फ़र्माइश तो उन्हीं से की जायेगी .ऊपर से सुनने को मिलेगा तुम नहीं खाते क्या ?खाते बड़ा अच्छा लगता है ,सामान लाते जान निकलती है
वे नाश्ते की तश्तरी सामने से हटा देते थे .तब अम्माँ कहती थीं "न खा सकते हैं ,न दूसरों को खाते देख सकते हैं उनके सामने मत ले जाओ ."
उनके लिये था सिर्फ दो समय का खाना शान्ति से मिल गया तो खा लिया ,नहीं तो उठ कर चले गये .और बाद में तो वह भी नहीं - जैसे ज़िद चढ़ गई थी उन्हें कि तुम क्लेश मचाओगी तो मैं कुछ नहीं खाऊँगा ..

जीवन के सत्य कैसे अजीब हैं,जिन पर विश्वास करना बहुत मुश्किल है .पर तरु करने लगी है .यहाँ जो कुछ घटता है ,कहीं न कहीं अपनी अमिट छाप छोड जाता है - ऐसी छाप जो समय के साथ भीतर उतरती चली जाती है ,गहरे और गहरे .ऊपर से देखने में कहीं कुछ नहीं लगता पर भीतर जो अंकित हो गया है वह अपनी चुभन से कभी मुक्त नहीं होने देता .
जीवन में है क्या ?तरल को लगता है कुछ नहीं है .एक के बाद एक बीतते क्षण ,घंटे ,दिन, महीने, वर्ष ,एक के बाद एक ,लगातार ,अनवरत.
ऐसी मनस्थिति लेकर किसी को सुख -शान्ति दे सकती हूँ क्या ?जो खुद अशान्त है वह दूसरे को और क्या देगा ?यह क्रम आगे न बढ़े .नहीं ,बिल्कुल नहीं !
व्याकुल हो तरु उठ कर खड़ी हो गई .
उसे याद आता है दस-बारह साल की एक लड़की फीके-से रंग की फ्राक पहने ,,दूसरों के अच्छे-अच्छे वस्त्रों को छिपी निगाहों से देखती है ,जहाँ कोई उसकी ओर देखता है एकदम संकुचित हो जाती है .

अम्माँ उसे मामा के घर छोड़ कर खुद चली गई हैं. हर क्षण उसे लगता है उसके खाने- पीने उठने बैठने साँस लेने तक पर औरों की नजरें रहती हैं .न वह ठीक से सो पाती है ,न निश्चिन्त होकर कुछ कर पाती है .खाते पीते सहज नहीं हो पाती. कुछ काम करती है तो शंकित मन और विचलित हाथों से कुछ का कुछ कर बैठती है .हर समय उसे उसे जैसे कोई तोलता रहता है. हमेशा सहमी सी रहती है .खाने बैठती है तो इच्छा होती है खाती चली जाये ,पर हाथ रोक कर उठ आती है .किसी चीज से उसका मन नहीं भरता. एक चिर अतृप्ति एसके साथ-साथ चलती है .

पर अब क्यों लगता है ऐसा ?जीवन का एक छोटी सी अवधि जो कब की बीत चुकी है सारी जिन्दगी के आड़े क्यों आजाती है ?उसे याद है उसने सोच लिया था रोयेगी नहीं .चुपचाप सब झेलती रहेगी .किसी को कुछ नहीं बतायेगी ,किसी से शिकायत नहीं करेगी .
सब भाई -बहिन घर में इकट्ठे हुये थे. मन्नो जिज्जी भी आईँ थीं उन दिनों ,चिट्ठी से सब पता लगा था .बस एक तरु सब के बीच नहीं थी .हाँ, मुझे काहे को बुलायें ?फ़ालतू हूँ मैं तो !मेरी याद किसी को काहे को आती होगी ?नहीं रोऊँगी मैं भी .उन्हें याद करके बिल्कुल नहीं रोऊंगी .
तब के रुके हुये आँसू क्या अब आँखों में बर-बार उमड़ आते हैं ?
रात बड़े अजीब-अजीब सपने आते रहे .देख असित आया है कह रहा है "मैने दो दिन से कुछ नहीं खाया तरु .बहुत भूखा हूँ .तुम भी नहीं पूछोगी मुझे ?"

रुकिये, मैं खाना बनाने जा रही हूँ ."
फिर वह ग़ायब हो गया .तरु बदहवास सी घूम रही है .कोई बच्चा चीख -चीख कर रो रहा है -उसे लगता है बच्चा बीमार है ,भूखा है .अरे ,कौन अकेला छोड़ गया इसे?
दृष्य बदल जाता है ,सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की आहट होती है ,पिता जी आये होंगे ,उन्हीं के चलने की आवाज है यह !

वे आकर चुपचाप खड़े हो गये --शरीर हड्डियों का ढाँचा, फटी लटकती कमी़ ,मटमैला पाजामा .तरु की ओर देखे जा रहे हैं .तरु सोच रही है आज फिर अम्माँ ने फाड़ डाली कमीज़ !
पिता जी खाना लाऊँ ?"
कोई उत्तर नहीं .
वह थाली परसने उठी .पिता कुछ क्षण खड़े देखते रहे ,फिर लौट गये .एकदम चले गये वे !
*

(क्रमशः)

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

एक थी तरु- 12.& 13.


12 .

अरे ,आप यहीं है ,हमने तो समझा चली गई हैं ?'

मेडिकल स्टोर पर बिल चुकाती तरल नें चौंक कर सिर उठाया .रायज़ादा की बहू, विनती नाम है, पास आ गईं थीं ,'उस दिन पार्टी के बाद से आप दिखाई नहीं दीं .'
रुपये गिन कर थमाती तरल ने सिर हिला कर विश किया ,'मैं कहाँ जाऊँगी ,यहीं की यहीं ..'
' हमने सोचा ट्राँसफ़र करा लिया ,जहाँ सर्विस है .असल में हमारा निकलना भी कम ही हो पाता है .'
ध्यान से देखते हुए बोलीं 'क्या कुछ तबियत ख़राब.. '
'नहीं ,नहीं मैं ठीक हूँ .ये दवाएँ तो अम्माँ की ..'
'लग तो आप भी काफी़ झटकी -सी ..पर अम्माँ को क्या हो गया ?

'स्ट्रोक पड़ गया था. बेड पर हैं '

'अच्छा? तभी .. लेकिन कैसे ?'

तरु ने दोहराया ,'कैसे ?

क्या बतायेगी अशेष ग्लानि !

विनती सहानुभूति प्रकट कर रहीं थीं .

'पहले आपके पिता जी गए अब माताजी बिस्तर पर .बिचारी को झटका लगा होगा .स्ट्रोक तो ... ' शायद तरु कुछ कहे ,कुछ रुकीं वे .

वह तो सिर झुकाए खड़ी है .

स्ट्रोक अचानक ही पड़ता है जानती हूँ ..हमारे फूफाजी ,तो दो साल से बेड पर हैं ..'

महिला बोले जा रहीं हैं .

क्या बोल रही है .तरु समझ रही है या नहीं !

फिर उन्होंने कहा ,' एक दिन वर्मा जी आए थे पूछ रहे थे आपको ..कि कहाँ हैं आजकल .'

'वर्मा जी ?'

' आपसे परिचय कराया तो था पार्टीवाले दिन ..असित वर्मा वही एम आर .'

''हाँ ,हाँ ,याद है."

"आपसे मुलाकात हुई होगी फिर कभी .."

"हाँ ,मिल जाते थे कभी-कभी ट्रेन में ,उनका एरिया उस तरफ़ ही है न .'

'आप छुट्टी लिए हैं शायद ?'

बताया तरु नें .कुछ भी नियमित नहीं रहा .अक्सर ही छुट्टी पर .कभी गौतम चले आते हैं , संजू भी है पर उसके बस का कहाँ .पढ़ाई भी तो है .एक विधवा चाची हैं कुछ दिन को आ गई हैं ,बस चल रहा है किसी तरह .

'सच में बड़ी मुश्किल है सर्विसवाली औरतों की .ऊपर से ये रोज़-रोज़ की दौड़.'

तरु क्या कहे !

'अच्छा चलूँ ,घर के काम सारे पड़े होंगे ..'

'हाँ ,हाँ ,चलिये आप तो .आते हैं हम किसी दिन .कुछ ज़रूरत हो तो हम लोग हैं न '

'ज़रूर,जरूर !'

जल्दी में थीं दोनों .चल दीं फ़ौरन .



कानों में गूँज रहा है - ''पहले आपके पिता जी गए अब माताजी बिस्तर पर ..."

क्रोध से विकृत चेहरा माँ की मुद्रा सामने आ गई .

उस दिन अपने आवेग पर नियंत्रण कर लिया होता तो !

आज का यह पछतावा नहीं होता .

रोक नहीं सकी अपने को क्यों ?

क्या कर लिया कह कर ?

लेकिन अपने आप हो गया - कब का बाँध बिना जाने-समझे फूट पड़ा उस दिन .

एक मात्र सखी मीना भी दोष देने लगी .माँ ,माँ होती है तरु,वह तुम्हारा सदा भला चाहेगी तुम उनकी सुनती क्यों नहीं .उन्होंने खु़द मुँह खोल कर मुझसे कहा कि तुम्हें समझाऊँ .

तरु चुप ,कोई उत्तर नहीं ,कोई समाधान नहीं .बस बात टाल देना.

अब तो कहीं ठौर नहीं बचा !

पर अब जब सब बीत चुका है .स्थितियाँ बदल गई हैं , मैं आगे क्यों नहीं बढ़ पा रही

तरु उलझ जाती है अपने में ही.समय रुक जाता है मन चक्कर खाने लगता है उन्हीं भँवरों में.

*

बात मीना ने की थी .

उसने तरु से पूछा था,"क्यों इन शर्मा जी में और तेरे पिता मे तो अच्छी दोस्ती थी ?तेरी अम्माँ ने तो हफ्तों उनके घर खाना भेजा है .अब क्या हो गया ?दोनो मियां-बीबी हमेशा कुछ -न-कुछ बुराई करते रहते हैं ?"

"इन लोगों की बातों में कौन पडे मीना ,अम्माँ से कुछ बात हुई होगी ."

"तेरी अम्माँ कितनी एफ़ीशियेन्ट हैं तरु !तू कितनी भाग्यशाली है . जब मेरा वे इतना ध्यान रखती हैं तो तेरा कितना रखती होंगी !मुझे तो ईर्ष्या होती है तुझसे --यहाँ तो अपनी माँ की शकल तक याद नहीं !"

मीना का शर्माइन से दूर का रिश्ता है .तरु को पिता के दफ़्तर की बहुत सी बातें मीना से पता लग जाती हैं .

आजकल उनसे बहुत गल्तियाँ होने लगी हैं .बड़े बाबू उनसे सीधे मुँह बात नहीं करते ,साहब अलग नाराज हैं ,ट्रान्सफ़र कराने पर तुले हैं .

तरु आशा से भर उठी --हो जाय उनका यहाँ से ट्रान्सफर!इस घर गृहस्थी से कहीं अलग जाकर रहें .तब वे समय से खायेंगे ,सोयेंगे .चैन से रहेंगे .तब दिन-रात उन्हें यह सब नहीं झेलना पडेगा !

कितना अच्छा हो ट्रान्सफ़र हो जाय उनका .फिर तो बाकी लोग गौतम भइया के पास चले जायेंगे और पिता किसी नई जगह पर .नई जगह में एकदम सबके रहने की व्यवस्था थोड़े ही हो पायेगी .

पर वह नौबत ही कहाँ आ पाई .उन्होंने पहले ही बिस्तर पकड़ लिया .एक दिन ऑफ़िस से लौ़टे तो बाहर ही गिर पड़े .फिर वे उठ नहीं पाये शायद उनकी उठने की इच्छा ही खत्म हो गई थी .

"मीना ने पूछा था ,"तरु तेरे पिता मित्तर बाबू की पार्टी में नहीं गये ?"

"मित्तर बाबू की पार्टी कब हुई ?"

"तुम लोगों को कुछ बताते भी नहीं क्या ?उनके बड़े बाबू थे न उनका ट्रान्सफ़र हो गया --."

"अरे हाँ ,कहा तो था ,मैं कुछ ऐसी धुन में रहती हूँ ,मेरे ध्यान से उतर गया .उस दिन उन्हें खूब तेज बुखार था ,"

"धुन में तो तू रहती है ,यह तो मैने भी मार्क किया है .पर ये शर्मा लोग भी अजीब हैं.कुछ भी कह देते हैं ."

"क्या कहा ?"

"जाने दे ,क्या करेगी सुनकर,बड़े वैसे लोग हैं .''

"फिर भी पता तो लगे ."

"कह रहे थे गोविन्द बाबू बडे मक्खीचूस हैं .चन्दा नहीं देना चाहते इसलिये पार्टी में नहीं आये .--पर तू क्यों फ़ील करती है?लोग तो कुछ भी बोल देते हैं ."

तरुने कुछ नहीं कहा एक लम्बी-सी सांस खींच कर रह गई .

**

"तरु बुआ ,तुम्हें माँ ने बुलाया है . "

"अच्छा थोड़ी देर में आऊँगी ."

विपिन पीछे पड़ गया ,"नहीं अभी चलो ."

वह साथ लिये बिना जाने को तैयार नहीं .

"अच्छा ,चल रही हूँ ."

घर जाकर उसने आवाज लगाई ,"माँ ,बुला लाया ."

विपिन की मां ने बताया ,सुबह से शोर मचा रहा है ,"तुम बुआ को बुलाओ '.मैने चिढ़ाने को कह दिया ,'नहीं बुलाऊँगी ' तो मुझसे लड़ पडा .मुझसे भी ज्यादा वो तुम्हें चाहता है तरु ."

तरु बैठी-बैठी मुस्करा रही है.

"लेकिन आज बुलाया क्यों है ?"

"मेरे मायके सिंधारा आया है .तुम्हारे लिये फूल और मिठाई अलग निकाल गया है ."

घन्टे भर बाद तरु लौटी तो मीना बैठी इन्तजार कर रही थी .अम्माँ बडे प्यार से पास बैठी उसे पापड़ी खिला रहीं थीं .

"अम्माँ जी , मेरी तो इच्छा होती है,रोज आपके पास आया करूँ .."

"तो आया करो न .तुम तो मुझे बहुत अच्छी लगती हो .."

मीना ने तरु से कहा था ,"तेरी माँ कितनी वात्सल्यमयी हैं .तेरे घर आती हूं तो तुझे जो प्यार मिला है उसका थोड़ा-सा भाग मैं भी पा लेती हूँ ..तू भाग्यशाली है तरु .पर तू कितनी अजीब है ,तेरी कुछ बातें मेरी समझ में नहीं आतीं .तुम लोग उनका ध्यान नहीं रखते ."

अनमनी सी तरु ने पूछा ,"उनने कुछ कहा है क्या तुझसे ?"

"कुछ खास नहीं मुझे इतना प्यार करती हैं इसलिये कह बैठीं .पर तेरी तो माँ हैं .तुझे उनकी बात माननी चाहिये ..माँ से बढ़ कर दुनियां में कोई और रिश्ता नहीं होता .और तू अपने पिता को भी समझा ."

"पर कुछ बता भी तो. बात क्या है ?बिना बताये कैसे समझूँगी ?"

"यही कह रहीं थीं कि बाहर के लोग तो खूब आदर मान देते हैं पर अपने घर में कोई कदर नहीं करता .मैं तेरी सहेली हूं इसलिये मुझसे समझाने को कहा ,और तेरे पिता किस टाइप के हैं तरु ?"

तरु के चेहरे का तनाव देख कर वह रुकी ,,"मुझे क्या पता तरु ,ऑफ़िस के लोग तो कहते थे पर खुद तेरी अम्माँ ने जब कहा तो मैंने तुझसे ---."

"मीना , ऊपर से जो लगता है वही सच नहीं होता ..वास्तविकता क्या है इसे कौन जानता है ?"

"ऐसी क्या बात है जो तू मुझे भी नहीं बता सकती ?"

"तू जान ले इतना सब बताने की सामर्थ्य मुझमे नहीं है .सब कुछ इता अजीब , इतना अविश्वसनीय है .मै खुद नहीं समझ पाती--."

"जाने दे तरु .तुझसे बहुत इन्टीमेट हूं और माँ का प्यार मिल गया इसलिये कह दिया .--अरे वो किताब पढ़ ली तूने? कल वापस करनी है ."

**

तरु विपिन को बच्चा समझ कर व्यवहार करती है ,तो उसे अच्छा नहीं लगता .मुख-मुद्रा से जाहिर करने से काम नहीं चला तो उसने स्पष्ट किया ,"बुआ ,मैं बच्चा नहीं हूँ .इतना छोटा नहीं हूँ ,जितना तुम समझती हो .."

''बड़े पते की बात बोलने लगा है .यह तो बडी अच्छी खबर है कि तू बड़ा हो गया ."

"मज़ाक की बात नहीं .मुझे बहुत सी ऐसी बातें मालूम हैं जो तुम्हे भी नहीं पता .."

"अच्छा !क्या मालूम है ?"

वह कुछ क्षण सोचकर बोला ,"नहीं,वह सब तुम्हें नहीं बताऊंगा .लड़कियों को ऐसी बातें नहीं बताते ."

"तुझसे कौन कहता है ऐसी बातें ?"

"हमारे साथ के लड़के .हम बड़े लड़के सब तरह की बातें करते हैं ."

तरु ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा !

वह किशोर विपिन कब युवा हो गया ,तरु ने ध्यान ही नहीं दिया था .आज अचानक अपने से एक मुट्ठी ऊँचे विपिन को अपने सामने खड़ा देखा ,जिसमे यौवन के चिह्न स्पष्ट दिखाई देने लगे थे .

"हां,विपिन ,सच में तुम बडे हो गये !"

**

एक दिन विपिन ने बताया 'अब हम लोग चले डायेंगे ,पिता जी का ट्रांस्फ़र हो गया है . '
तरु के मुँह से निकला ,अरे , तुम चले जाओगे !'
'जाना पड़ेगा,बुआ तुम मुझे याद करोगी न १'
'वाह तुझे कैसे भूल सकती हूँ ' उसका कंधाथपक कर तरु ने आश्वस्त किया,'कब जाना है ?'
'अभी नहीं .अभी तो अम्माँ को सेशन पूरा करना है .
तरु क्या कहे !
"मेरा यहां से जाने का मन नहीं है .वहाँ पता नहीं कैसा लगेगा ?पर जाना तो पड़ेगा ही .हम लोग इम्तहान के बाद जायेंगे अभी तो बाबू जी अकेले जा रहे हैं ."
जाने के पहले वह आकर काफ़ी देर बैठा रहा .फिर चलते-चलते कह गया ," बुआ,मैं फिर तुमसे जरूर मिलूंगा , बुआ ."

**

पिता की मृत्यु बाद मन्नो एक महीने के लिये विदेश से आई थीं .बहुत रो रही थीं -छः महीनो से आने का प्रोग्राम बन रहा था ,हर बार कुछ न-कुछ रुकावट आ जाती थी .उन्हें क्या पता था कि इतनी देर हो जायेगी कि पिता मिलेंगे ही नहीं ..कोई ऐसी बीमारी भी तो नहीं थी .

अम्माँ का हाल देख कर उन्होनें तरु से कहा था ,"इनका दुख तो अब कभी दूर नहीं हो सकता .कितनी कमजोर हो गई हैं .अचानक पड़े दुख से इनकी तो मति ही बौरा गई ."

तब तरु का ध्यान भी गया था कि पिता की मृत्यु के बाद वे बहुत दुर्बल हो गईं हैं .वे किसी से कुछ कहती नहीं चुपचाप बैठी रहती हैं .मन्नो खोद -खोद कर तरु से पूछती हैं -पिता को क्या हो गया था ?"

तरु टुकड़े -टुकड़े कर उत्तर देती रही .क्या कहे ,क्या न कहे !वह सब क्या मुँह से कहा जा सकता है ?

कभी अधपेट खा लिया ,कभी बिल्कुल भूखे ,.धँसी -धँसी आँखें और विवश क्रोध !जो अपने को ही खाता चला जा रहा है .इतना भी दम नहीं कि चिल्ला कर डाँट दें .दिन भर कैसे काम करते होंगे !वह सब सोचना भी आसान नहीं है .सोचती है तो रातों की नींद उड़ जाती है .हफ्तों मन अशान्त रहता है .जो सोचना भी दुःसह है उसे कैसे कहा जा सकता है ?उसे तो सिर्फ अनुभव किया जा सकता है - ऐसा अनुभव जो किसी से बाँटा नहीं जा सकता .स्मृतियों का भारी बोझ मन पर ज्यों का त्यों धरा है.साझीदार कोई नहीं ,कहीं नहीं !

मन्नो पूछती हैं ,तरु बोल नहीं पाती .सोचती है और रो पड़ती है .क्या -क्या बतायेगी ?चाय पीने की आदत थी उन्हें और अम्माँ कोंचने से कभी चूकती नहीं थीं .वे बराबर कुछ न कुछ बोलती रहती थीं. चाय को लेकर क्या-क्या नहीं कह डालती थीं चाय नुक्सान करती है ,पेट जलाती है इसीलिये वे दूध पीती थीं -उनका स्वास्थ्य अच्छा था .लेकिन पिता बाहर रहते थे उन्हे चाय की लत सी हो गई थी .घर में चाय बनना मुश्किल .उन्हें तलब लगती थी सिर दर्द करता था ,आँखों मे धुन्ध सी छाने लगती थी .और वे निढाल से बैठे रहते थे .

पहले तरु अम्मां से चोरी -छिपे बना देती थी .पर एक दिन अचामक उन्होने चाय पीते पकड़ लिया फिर तो तरु की और उनकी जो लानत -मलामत हुई !

कुछ भी कहने से छोड़ती नहीं वे ऐसे मौकों पर .उन्हे झूठा करार दे कर छिप-छिप खाने पीने का आरोप लगा दिया . उसके बाद से तरु कितनी ही जिद करे वे सामने आई चाय पीने को भी तैयार नहीं होते थे .....अरे, एक बात है क्या ,जो कह डालेगी वह ?ऐसी बातें जिनकी यादें घंटों मन पर बोझ-सी धरी रहती हैं ,और ऐसी कितनी -कितनी बातें !

"मुझसे मत पूछो जिज्जी ,मैं नहीं बता पाऊँगी ."

अम्माँ के सामने कोई कुछ नहीं पूछता ,कुछ नहीं कहता .उनके लिये न सुबह ,सुबह है ,न शाम ,शाम .समय के विभाग महत्वहीन हो गये हैं .जब जो चाहती हैं करती हैं .तरु सन्न-सी सब देखती है .शन्नो चली गईं, मन्नो चली जायेंगी. उसे तो यहीं रहना है .

पर रहा नहीं जा रहा अब घर में जैसे .सारी स्थितियाँ उसके लिये असहनीय हो उठी हैं .घर मे बैठे-बैठे क्या करे ?गौतम से कह सुनकर उसने टाइपिंग का कोर्स ज्वाइन कर लिया .

मीना की भी शादी हो गई .तरु ने नौकरी के लिये अर्जियाँ भेजना शुरू कर दिया .मीना के पति ने अपने भाई से कह कर उसे एक जगह नियुक्ति पत्र दिलवा दिया .

गौतम ने शन्नो से सलाह माँगी

"करने दो ब्याह के लिये ही कुछ जुड़ जायेगा .और आजकल सर्विसवाली लड़की की शादी में आसानी रहती है ."

पता लगने पर अम्माँ ने विरोध किया ,"मैं जानती थी ,तुम यही करोगी .पढ-लिख कर नौकरी के लिये तैयारी की थी तुमने?/"

"तो घर में बैठे-बैठे क्या करूं?नौकरी करने में नुक्सान क्या है ?"

'लाज-शरम सब बेचकर निकल जाओ .."

तरु कुछ बोली नहीं .वे बड़बड़ाती रहीं .जब देखा कोई असर नहीं पड रहा है तो अँतिम निर्णय दे दिया ,"तुम कहीं नहीं जाओगी .'

"मै कोई अकेली तो नहीं .कितनी लड़कियां कर रही हैं ."

"उन्होने मेरा कहा न मान कर तुम्हें पढने की छूट दी .उन्हीं ने सिर चढ़ाया है .मेरी तो एक नहीं सुनते थे ..."

पिता पर आक्षेप सुनकर तरु का मुँह तमतमा उठा ,"अगर उनके साथ इतना न किया जाता तो वे अभी नहीं मरते ."

"अच्छा तो मेरी वजह से मर गये ?मैंने मार डाला ?"

"हमेशा उन्हें दोषी ठहराया .हमेशा अपमानित किया ,दूसरों की निगाहों में इतना गिरा दिया .कभी चैन से नहीं रह पाये वे ."

आँखों से आँसू बहते जा रहे हैं वह कहती जा रही है ,"बिना खाये कोई कितना चल सकता है "वे दिन-दिन भर भूखे रहते थे ,तुम खाने के समय क्लेश मचाती थीं .सुबह दो रोटी खालीं तो खा लीं, और सारे दिन सारी रात कुछ नहीं .बताओ दोपहर और शाम को खाना उन्होने महीनों नहीं खाया और किसी को कोई फ़र्क नहीं पडा .ऊपर से तुम दिन-रात झगड़ा मचाती थीं .उनकी चाय छुड़वा दी ---" वह सिसकी भर-भर कर कहती जा रही थी ," चाय नहीं, नाश्ता नहीं ,कुछ नहीं .उन्हें जाड़ा पाला कुछ नहीं लगता था !भरे जाडे उन्होंने एक दोहर ओढकर निकाल दिये ..उनके कपडे फाड देती थीं तुम और वे नये बनवाते भी नहीं थे ."तरु की हिचकियाँ बँध गई हैं ,वह रुक-रुक कर बोलती जा रही है ,"तुमने उनका चेहरा देखा था कभी ?उनका हड्डी रह गया शरीर देखा था ?उनकी धँसी हुई आँखें देखीं थीं ?वे कैसे चलते थे तुम्हें मालूम है ?तुम भूखी रह सकती हो क्या ?ऐसा चेहरा मैंने आज तक किसी का नहीं देखा ऐसी आँखें ---."

अम्माँ का चेहरा क्रोध से विकृत हो उठा ,वे झपट पडीं ,"चुड़ैल कहीं की .इसीलिये पैदा किया था मैने तुझे ?"उन्होने आगे बढकर तरु के बाल पकड़ लिये ,"मैं हत्यारी हूँ ?मैंने उन्हें मार डाला ,ला तेरी भी गर्दन मरोड दूं !"

"हाँ ,लो ,मरोड़ दो गर्दन .इस रोज़-रोज़ की अशान्ति से छुट्टी मिले .पिता जी मर गये मुझे भी मार डालो !''

अचानक उनकी पकड़ ढीली पड गई बढ़े हुये हाथ हवा में लहराये ,आँखों मे अजीब सा भाव आया ,वे सम्हलने की कोशिश में लडखडाईँ और गिर पडीं .

"अरे रे रे ,यह क्या ?"

तरु ने झुक कर सम्हाला .मुँह खुला अजीब पथराई सी दृष्टि .लगता है बेहोश हो गईं .

भाग-दौड मच गई,गौतम डाक्टर को बुला कर लाये .

"पैरालिसिस का अटैक है एक तरफ का शरीर सुन्न हो गया है .

पैसा पानी की तरह बह रहा है .अब घर का खर्च चलना तरु के नौकरी किये बिना संभव नहीं .

**

13

"अरे,बहुत दिन बाद ?क्या आपने किसी दूसरी ट्रेन से जाना शुरू कर दिया?"होल्डाल अपनी बर्थ पर रखते हुये असित ने पूछा .

"नहीं ,इधर एक महीने छुट्टी पर थी .."

"माँ, का क्या हाल है ."

'उनकी तेरहवीं के बाद अब ज्वाइन करने जा रही हूँ ."

"माँ का स्वर्गवास हो गया ? बताया भी नहीं मुझे ?'

कह कर असित को लगा कुछ अधिक कह गया है .उसने फिर पूछा ,"क्या एकदम से हालत बिगड़ गई थी /"

"एकदम तो नहीं .---बहुत दिनों से ऐसी ही चल रही थी .मर्ज ही ऐसा था उन्हें .फिर इस उमर में ---डॉक्टरो ने पहले ही कह दिया था जब तक चल रही हैं तभी तक हैं --."

तरु के चेहरे पर गहरी उदासी ,जैसे दुख आँसुओं में बहने के बजाय भीतर तक जड़ें जमा बैठा हो !

"उनके न होने से आपको बहुत अकेलापन लगने लगा होगा !"

अकेलापन ! तरु सोच रही है पिता की मृत्यु फिर माँ की -बीच में कितना अन्तराल .इन कुछ वर्षों में ही कितना फ़ासला तय कर लिया !

"अकेलापन ?हाँ, लगता है पर अम्माँ की पीड़ा इतनी अधिक थी कि उनका जाना ही ठीक था .मुक्ति पा गईं वे !

'कुछ देर चुप्पी के बाद असित ने पूछा ,'आप इधर ही ट्रान्सफर क्यों नहीं करा लेतीं ?इधर आपके भाई जहाँ हैं ,वहीं रहें तो ज्यादा आराम रहेगा ."

"ट्रान्सफर क्या आसान है असित जी ?अम्माँ की बीमारी के दौरान भी कितनी कोशिश करती रही ,भारी रिश्वत दिये बिना कुछ नहीं होता ."

डिब्बे में काफ़ी भीड़ जमा हो गई थी .बिना रिज़र्वेशनवाले भी बहुत से यात्री चढ़ आये थे .हमेशा ऐसा ही होता है रात दस बजे तक रिजर्वेशनवालों की बर्थ पर जमे बैठे रहते हैं .कभी-कभी तो इसी ज़िद में मार-पीट तक हो जाती है .और आज तो हद की भीड़ है .

इधर की बर्थ पर बड़े ज़ोरों से पॉलिटिक्स डिस्कस की जा रही है .

असित खिड़की से सिर टिकाये आँखें बन्द किये बैठा है .एक हाथ की अँगुलियों से बार-बार सिर दबा रहा है .

इधर की बर्थवाली ने पूछा ,"वो आपके कौन हैं ?"

क्या उत्तर दे ?तरु सोचती है -कोई नहीं हैं मेरे .पर ऐसा भी कैसे कहे ?परिचित हैं - बस? सहयात्री हैं - बस?हर संबंध को नाम दिया जा सकता है क्या ?कोई खास रिश्ता नहीं .फिर लोग सोचेंगे साथ बैठने की क्या जरूरत आ पड़ी ?क्या घुट-घुट कर बातें हो रही हैं ?

"तरु को चुप देख सहयात्रिणी मुस्करा दी .,"अच्छा मैं समझ गई .आपकी चुप्पी ने सब कह दिया ..आप लोगों की शादी होगी न ?"उसने न हाँ कहा न ना चुपचाप सिर झुका लिया ..

असित ने सुन लिया है, मन ही मन मुस्करा रहा है .

"नींद आ रही है आपको ,"तरु ने असित से कहा ,"जाइये, सो जाइये अपनी बर्थ पर .सोने से आराम मिलेगा ."

"नींद नहीं आ रही .बडा अजीब सा सिर दर्द है.आँखें जल रही हैं .आज सुबह से बड़ा बुरा लग रहा है. "

तरु ने फिर वही बात कही ,"आँखें चढ़ी-चढ़ी-सी लग रही हैं .टेम्परेचर होगा .जाइये अपनी बर्थ पर लेट जाइये ."

"उधर जाने की इच्छा नहीं हो रही है ."

इस अपार्टमेन्ट के अनेक यात्री एक दूसरे को शकल से पहचानने लगे हैं .असित और तरु भी उनके लिये नये नहीं हैं .

पास बैठा एक व्यक्ति बोल उठा ,"आप दोनों को इतनी दूर-दूर बर्थ क्यों दे दी ऐसे ही हैं ये रेलवेवाले .मैं उधर चला जाता हूँ, आप यहाँ आ जाइये ."

उसने झट-पट अपना होल्डाल समेट लिया .असित ने तरु की ओर देखा ,वहाँ कोई प्रतिक्रिया नहीं थी ..वह चुपचाप अपना होल्डाल उठा लाया .असित की दृष्टि को अनदेखा करते हुये तरु बिल्कुल चुप बैठी रही . असित ने बिस्तर सीट पर खोल दिया .जूते उतार कर पाँव बिस्तर पर पसार दिये .चुप बैठी तरु को अजीब लग रहा था .

'सबको तो दवायें बाँटते हैं अपने लिये कोई दवा नहीं है क्या ?"

"है न !निकाल दीजिये बैग में से ."असित ने चाबी उछाल दी .

थोड़ी देर में फिर बोला ,"बड़ी बेचैनी हो रही है ,गला सूख रहा है .."

तरु ने पानी पिलाया फिर वहीं एक तरफ बैठ गई .घड़ी देख कर बोली ,"साढ़े दस बज चुके हैं ."

कम्पार्टमेन्ट में हल्की रोशनी फैली हुई है .अधिकाँश लोग सो गये,सर्वत्र नींद की ख़ामोशी छाई है . असित ने तरु का हाथ पकड़ अपने सिर पर दबा लिया .सिर दाबने लगी वह .असित ने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया .

"दाबिये नहीं ,बस यों ही अपना हाथ रखा रहने दीजिये आपका शीतल स्पर्श बड़ा अच्छा लग रहा है .''

गर्म मर्दानी हथेली का स्पर्श अनुभव कर रही है तरु .अन्दर से कैसा-कैसा लग रहा है !''ऐसे कब तक बैठी रहेगी ?''

असित बाँयें हाथ से दाहिने हाथ की कोहनी के ऊपर का भाग दबा रहा है .

"क्या बात है हाथ में भी दर्द है ?"

"वह भारी बैग लगातार हाथ में लटकाये रहा ....आपको बताया था न ,एक बार रिक्शा चलाया था तब इस हाथ में बड़े झटके से चोट लगी थी .तब तो इतना पता नहीं चला .अब ज़रा सा ज़ोर पडते ही हाथ दर्द करने लगता है ..आज भी ---अरे, आप आराम से बैठिये "

थोडटा खिसक कर उसने तरु के आराम से बौठने भर को जगह बना दी .,वह थोड़ा आराम से बैठ गई.

"कल से बड़ा खराब लग रहाहै .बुख़ार रहा होगा .''

उसने तरु की गोद में अपना हाथ रख दिया .तरु ने धीरे से गोद से उठा कर अपने हाथ पर रख लिया .और धीमे से सहला दिया .

रिक्शे की घटना उसे याद आ गई,असित ने बताया था कैसे दो-दो मुस्टंडे उसके रिक्शे पर चढ़ कर बैठ गये थे और ढाई मील तक दौडा दिया था फिर. मजदूरी के नाम पर एक रुपया टिकाकर चलते बने .

मन में स्नेह उमड पडा .पूरी बांह की शर्ट उसका स्पर्श हाथ तक नहीं पहुँचने दे रही थी .उसने हल्के से कफ़ की बाँहें ऊपर समेट दीं और हल्के हाथों दबाने लगी .

असित बार-बार उसका हाथ अपने सिर पर दबा लेता है .

पहियों की गड़गड़ाहट और भाप की छकपकाहट .मानव ध्वनियाँ शान्त हैं .खर्राटों की आवाज रह-रह कर उठती है .तरु की आँखों में नींद भरी है .वह सो जाना चाहती है ,नींद रोकने के क्रम मे बार-बार उसका सिर नीचे झोंके खाने लगता है .

"तुम भी सोओ अब जाकर .तुम कह रहा हूँ .नाराज मत होना ."

मुँह से कह दिया पर आँखें कह रही हैं तरु न जाये .

"अब सिर कैसा है ?"

''पहले से कुछ ठीक है पर अकेले होते ही फिर घबराहट लगेगी ."

''---तो मैं बैठी हूँ ."

"अच्छा तो पाँव ऊपर कर लो .कुछ आराम मिलेगा.यों लटकाये-लटकाये कब तक बैठी रहोगी ?"

असित को अच्छी तरह उढ़ाते हुये उसने कम्बल समेट दिया और पाँव ऊपर कर लिये .

हल्की रोशनी मे असित की निगाहें उसके चेहरे पर आ टिकी हैं .रुक-रुक कर वह भी देख लेती है .बुखार की तपन कुछ कम हुई या नहीं बीच-बीच में हाथ उसके सिर पर रख अनुभव कर लेती है .असित ने उसका हाथ पकड़ कर अपने गाल पर रख लिया हथेली में सुबह की बनी दाढ़ी की हलकी सी चुभन.तरु सिहर उठी ..

"तरल जी, मेरे पास से मत जाइये ,"व्याकुल सा स्वर उठता है .

"नहीं, मैं कहीं नहीं जा रही ."

एक तपता हुआ हाथ उसके बालों और गालों को सहला जाता है .उँगलियाँ नाक की नोक हिला देती हैं .तरु क्या करे विवश बैठी है .

"पाँव ठीक से फैला लो ,ऐसे कहाँ तक बैठी रहोगी ?"

वह संकोच से भर गई ,"नहीं ठीक है ."

"तो जाओ ,अपनी बर्थ पर सोओ जाकर .ऐसे तो तुम भी बीमार पड़ जाओगी ." असित के स्वर के आक्रोश को तरु ने पचा लिया .

उठ कर चली जाऊँ ? नहीं ,बीमार है -सहारा चाह रहा है -सोचा तरु ने बोली ,"नहीं ,मुझे कुछ नहीं होगा ."

वह कोहनी टेक कर तिरछी होती हुई बैठ गई .उसका कंबल उसी की ओर समेटते हुये अपने को पर्याप्त अलग कर लिया .

असित की उँगलियां तरु के होंठों से आ लगीं वह एक क्षण रुकी फिर हाथ से पकड़ कर अलग कर दिया .बालों की एक छिटकी हुई लट उसने समेट दी.

तरु विवश सी बैठी है .

"तुम्हें बहुत परेशानी हो रही है ." वह उसके चेहरे पर आँखें जमाये है .

क्या उत्त्तर दूँ ,कुछ कहते भी नहीं बन रहा .

"कोई बात नहीं .ठीक है ."

उसने अपनी गर्म उँगलियाँ फिर उसके होंठों पर रख दीं ,होंठों पर दबाव बढ़ रहा है . तरु एक क्षण झिझकी फिर उँगली की कोर हाथ से हल्के से दबा कर हटा दी.

"अब आप शान्त लेट कर सो जाइये न. "

"कोशिश कर रहा हूँ ."

एक झटके से उसे खींचकर असित अपने सीने से लगा लेता है .उसके शरीर के ताप और दिल की धड़कनों का अनुभव कर रही है ,चौंकी हुई तरल .कौन सी धड़कनें उसकी हैं कौन सी असित की वह भेद नहीं कर पा रही .

सम्हल कर छूटने की कोशिश करती है तभी ठोड़ी पर उँगलियों की पकड़ और होंठों पर होंठों का गर्म दबाव ,नोकीली दाढ़ी की चुभन ,मूँछों की चुभती सरसराहट ! विमूढ़ सी हो उठी .रोमाँच हो आया तरु को -जैसे उस स्पर्श को ग्रहण करने शरीर का रोम-रोम सजग हो उठा हो .एक अनजानी गन्ध नासापुटों में समा रही है ,उन्माद में डुबाती -सी .दाढ़ी की नोकें चुभ रही हैं माथे पर नाक पर .

"यह क्या कर रहे हो ."कहते -कहते रुक गई वह .उस हल्की रोशनी में उस चेहरे को उन आँखों को देखती रह गई .फिर अपनी दोनों हथेलियों में भींचकर उसने असित का चेहरा हल्के से उठाया सामने रख कर देखा फिर छोड़ दिया .कैसी चुभन है ?क्या हथेलियों मे भी रोमाँच होता है ?

तरु ने अपने पाँव सीधे किये और सम्हल कर बैठ गई .

"जा रही हो ?.''

असित ने हाथ पकड़ लिया ..

"नहीं जा रही यहीं बैठी हूँ ."

उसका हाथ अपने हाथों में लेकर तरु बैठी रही .असित अपना कम्बल उसे उढ़ा देना चाहता है .

"नहीं मैं ठीक हूँ ऐसे ही ."

"क्या ठीक हो ?"

वह उसके कन्धे तक कम्बल खींच देता है .कुछ देर हाथ कंधे पर टिकता है फिर गर्दन की हड्डी पर .उसकी नज़र फिर असित के चेहरे पर अटक गई है .असित के बहकते हाथ को उसने अपने हाथ में पकड़ लिया है और खोई -सी देखे जा रही है .असित की आँखें उसे ही देख रही हैं .

"तरु!"अनुनय भरा स्वर उठता है .

उन उच्छृंखल होते हाथों को वह बार-बार बरजती है .उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर बैठ गई है .

हाथों का हाथों से स्पर्श ,केवल स्पर्श !

नींद पलकों से उड़ गई ,शब्द होंठों में बन्द रह गये और सारी रात बीत गई .

सुबह के तीन बज चुके हैं .

"तुम्हारे पाँव अकड़ गये होंगे तरु .अब सो जाओ ."उसकी पलकों को बालों को गालों को असित के उतप्त हाथ सहला गये ,जाने की अनुमति देते -से .

वह अपनी बर्थ पर आ लेटी .

बड़ी अजीब सी अनुभूति घेरे है तरु के मन को, न सो पा रही है ,न जाग रही है .असित के हाथों का स्पर्श जहाँ -जहाँ हुआ था ,बड़े मोह से अपने शरीर पर हाथ फेरती है ,और रोमाँचित हो उठती है .कैसी विलक्षण अनुभूति , शब्दों से परे !

यों ही जाने कब आँख लग गई .सुबह नींद जल्दी नहीं खुली .ट्रेन में जल्दी उठ कर करना भी क्या ! लेटे-लेटे बड़ा आराम मिल रहा है .आँखें बन्द किये पड़ी है .सुहावनी भरक शरीर को घेरे हुये है .तरु ओढ़ी हुई चादर को और लपेट लेती है .स्पर्श कुछ नया सा लगा .आधी आँख खोलकर देखा -उसकी चादर के ऊपर किसी ने एक और मोटी सी चादर उढ़ा दी है ,खूब सम्हाल कर .

सामने निगाहें जाती हैं .रात वाला कम्बल असित के बिस्तर पर पड़ा है .असित की चादर ओढ़े वह आराम से सोती रही .पता नहीं कब उढ़ा गया -हैंडलूम की मोटी चादर के भीतर तरु का शरीर रोमाँचित हो उठा .उसने चारों ओर निगाह दौडाई -नहीं ,यहाँ नहीं है !

घडी में टाइम देखा .अरे,साढ़े आठ बज चुके !

उसने बालों पर हाथ फेरा और पल्ला सम्हालती उठ खड़ी हुई .चादर तहाई और असित के होल्डाल पर डाल दी .

"चाय लेंगी ?"

असित आ गया है ,शेव का सामान बैग में रख रहा है .

"अभी नहीं ," वह सिर उठाकर उसकी ओर देख नहीं पा रही है .,"आप लीजिये .'फिर कुछ रुक कर पूछा ,"आपकी तबीयत कैसी है ?"

"बहुत ठीक

.दवा का असर होना ही था ."

**

इसी साड़ी को देख कर शन्नो जिज्जी ने टोका था ,"कितना गहरा पीला रंग है .एक तो काली ऊपर से इतनी पीली साड़ी .कैसी अजीब लग रही है!"

"लगने दो अजीब .मैं तो पहनूंगी .पिताजी ने खरिदवाई है ,मुझे अच्छी लगती है ."

पिता तब अस्वस्थ नहीं थे.

माँ अपने मैके गईँ थीं . बडी शान्ति से दिन बीत रहे थे .एक दिन शाम को आकर बोले थे ,"चौक की दूकान पर एक बडी अच्छी धोती अलग रखवा आया हूँ तरु ,तुम खरीद लाओ .ब्लाउज़ का कपड़ा भी लेती आना ."

वे साड़ी को धोती ही कहते थे .

तरु ने साड़ी देखी ,रंग गहरा लगा .पर पिताजी ने पसन्द कर ली है . चलो एक यह भी सही ! उसने खरीद ली थी .

पिता ने फिर पूछा था ,"तरु ,अच्छी लगी न ! तुम्हारे पास ऐसी कोई नहीं है ."

तरु मन ही -मन मुस्करा दी थी .अम्माँ गोरी हैं जिज्जी गोरी हैं ,मै तो काली हूँ, पिता जी यह क्यों नही सोचते !

पर फिर शन्नो जिज्जी ने टोक दिया था .'ऊँह ,कहने दो उन्हें तो मेरे ऊपर कोई चीज़ अच्छी नहीं लगती. '

एक बड़ी पुरानी घटना तरु के मन में कौँध जाती है -

रिश्तेदारी में कहीं विवाह था .लड़कियाँ सज रहीं थी .खुल कर प्रसाधन सामग्री का प्रयोग किया जा रहा था .शन्नो तो सुन्दर थीं ही उनका रूप सवाया हो उठा था .

तरु ने भी पाउडर क्रीम से चेहरा चमकाया लिपस्टिक पोती ,आइ-ब्रो से भौंहें सँवारीं काजल लगाया और माथे पर चमकीली बिन्दी चिपकाकर शीशा देखा .फिर वह संतुष्ट होकर बाहर निकली .

"आँगन में शन्नो अपनी हमजोलियों के साथ बैठीं थी .तरु को कुछ क्षण देखती रही फिर बे-साख्ता हँस पड़ीं .उनने इशारे से अपनी साथिनों को दिखाया .वे सब भी खिलखिला पड़ीं .

"क्या चहोरा है चेहरे को !" शन्नो हँसी के मारे दुहरी हुई जा रहीं थी .

तरु भाग कर कमरे में जा घुसी .शीशे पर निगाह गई -काजल और आई-ब्रो खूब फैल गई हैं ,पाउडर के धब्बे चमक रहे हैं लिपिस्टिक होंठों के ऊपर और नीचे पुत सी गई है और खिसियाया रोया सा चेहरा ! विचित्र मुखाकृति बन गई है .

उसने सब पोंछ डाला .आँसू गालों पर बहते रहे ,सबके सामने आने की फिर हिम्मत नहीं पड़ी ,वह उसी कमरे में बिस्तर पर पड़ गई.तरु का मन उस दिन से ऐसा खट्टा हो गया कि 'सजने ' शब्द से ही उसे वितृष्णा हो गई .मैं जैसी हूँ, वैसी ही रहूँगी .सिंगार पटार से क्या शकल बदल सकती है ?ठीक है रूप नहीं है मेरे पास, रंग काला सही ,मन तो उजला है ,छल -कपट तो नहीं रखती हूँ अपने भीतर !

और आज फिर पिता की पसन्द की हुई गहरी पीली साड़ी पहने ट्रेन में खिड़की से लगी बैठी है तरु ..

असित बार-बार उसकी ओर देख लेता है .कुछ कांशस हो रही है .

"काली हूँ न !ऐसी पीली साड़ी अच्छी नहीं लगती मेरे ऊपर .पर पिता जी की खरिदवाई यही एक साड़ी बची है मेरे पास ! मुझे यह पहनना अच्छा लगता है .."

"तुम काली हो ?किसने कह दिया ?गेहुँआ ,या उज्ज्वल साँवला रंग.मैं तो बार - बार देख रहा हूँ पीली साड़ी पर पड़ती धूप की चमक से तुम्हारा चेहरा कैसा दमक उठा है !जरा मेरी आँखों से देखो अपने को .-- और बिल्कुल गोरा रंग तो मुझे ज़रा नहीं सुहाता ."

'तुम पहनोगी तो और अच्छी लगेगी .' पिता की बात याद आ गई उसे. असित की निर्निमेष दृष्टि कहीं भीतर तक उतर गई .तरु को लगा जैसे सूरज की किरणों में सातों रंग खिल उठे हों !

अब तो असित दफ़्तर से ही पता कर लेता है कि वह कब जा रही है और उसी के अनुसार अपना प्रोग्राम बना कर रिजजर्वेशन करा लेता है .कहता है सफ़र अच्छा कट जायेगा .तरु को भी आराम है .अकेले जाने की परेशानियों से बच जाती है .

'मेरे पीछे अपना प्रोग्राम क्यों गड़बड़ करते हो ,'वह कहना चाह कर भी कहने की हिम्मत नहीं कर पाती .कोई रागात्मक तन्तु उसे असित के साथ जोड़ गया है .शुरू -शुरू में रिजर्वेशन के लिये पूछे जाने पर तरु ने साफ़ मना कर दिया था .आग्रह करने पर भी वह नहीं मान रही थी .तब असित ने झुँझलाकर कहा था ,"आप इतनी ज़िद्दी क्यों हैं ?"

"जि़द्दी हूँ " --तरु ने सोचा ,'सही बात होगी .सब यही कहते हैं .--पर मन जिसकी गवाही न दे वह कैसे करूँ ?..लेकिन इसमें ग़लत क्या है ?उसने अपने आप से पूछा .भीतर से उत्तर आया --कुछ नहीं .कुछ गलत नहीं .कोई किसी का रिजर्वेशन करा दे तो इसमें क्या गलत हो सकता है !

"अच्छा करा दीजिये ."वह मान गई थी .
**


(क्रमशः)

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

एक थी तरु - 10 & 11.

*

10.
गौतम दादा नौकरी करने बाहर चले गये .रह गये तरु और संजू .संजू घर में रहता ही कितना है - स्कूल ,खेल और अपनी पढ़ाई . घर में क्या होता है उसे पूरा पता ही नहीं रहता .अभी उमर भी क्या है उसकी .पन्द्रह साल में समझ भी पूरी कहाँ आ पाती है !तरु थोड़ी ही बड़ी होकर बहुत समझदार हो गई है .वह अधिकतर चुप ही रहती है.कहे भी किससे ! संजू से कहने से फ़ायदा ही क्या !जब वही कुछ नहीं कर सकती ,तो छोटा होकर संजू क्या कर लेगा !
अम्माँ का झुकाव तो शुरू से अपने मायके की तरफ़ बहुत रहा है .शुरू से ही उन लोगों के सामने वे पिता की आलोचना करती रहीं .वे लोग भी उनका मन हटाते रहे और पिता से असंतुष्ट रहे -शिकायतबाज़ी भी चलती रही .उनके मायके में कोई काम-काज होने पर स्थिति और दारुण हो जाती है .अम्माँ अपने भाई बहनों के सामने किसी प्रकार की कमी बर्दाश्त नहीं कर सकतीं .वे सबसे बढ़-चढ़ कर रहना चाहती हैं .नहीं तो उन्हें लगता है उनकी हेठी हो रही है .उन्हें बहुत दे कर वे उनसे सम्मान -स्नेह पाना चाहती हैं .कभी-कभी गुस्से के मारे वहाँ के कामों मे जाती ही नहीं, और महीनों अपनी कुण्ठा पिता पर निकालती रहती हैं .
बात बहुत बढने पर गोविन्द बाबू चिल्ला पड़ते ,"पैसा ,पैसा कहाँ से लाऊँ पैसा ?चोरी करूँ ,डाका डालूँ ?सब लाकर हाथ पर रख देता हूँ ,बाहर एक कप चाय तक नहीं पीता .''
उनकी शिकायतें जारी रहती हैं तो वे बिगड़ते हैं ,'..और चाहिये तुम्हें तो मुझे मार डालो ,मेरा खून पी लो हड्डियाँ बेच आओ ."
अम्माँ बोलने में बहुत कटु हैं ,उन्हें अपनी जीभ पर नियन्त्रण नहीं रहता .जाने कब की पुरानी बातें लाकर अन्हें अपमानित करने लगती हैं .पिता सुनते रहते हैं.क्रोध को भीतर -ही-भीतर निगलते रहते हैं .जब बर्दाश्त से बाहर हो जाता तो हाथ से उनके बाल पकड़ कर झकझोर देते हैं .वे भी झपटती हैं दोनों चिल्लाते हैं .तरु बीच में घुस कर बचाना चाहती है.
माँ चिल्लाती हैं ,"अच्छा बाप-बेटी दोनों मिलकर मुझे मार डालो ."
"अरे फाड़ डाली "--."पिता का आर्त स्वर कानों में जाता है ,"यही तो एक ढंग की कमीज़ थी .अब क्या पहन कर बाहर जाऊँगा ?"

"तो काहे रे लिये जुटे थे मुझसे, शरम नहीं आती है ."
"मेरे खून की प्यासी हो तुम.कभी चैन से रहने नहीं दोगी ."
तरु इस सबकी साक्षी नहीं बनना चाहती .
पिता का आर्त स्वर मन को बुरी तरह मथे डाल रहा है .ओफ़ कैसे जानवरों की तरह ....ओह, मुझे क्या हो गया है... ?  स्वयं को धिक्कारने लगती है .
विचारों पर काबू नहीं रहता .आवाजें फिर उसके कानों में आने लगी हैं .
"अब पता लगा तुम्हें ,दूसरों के सामने नीचा देखना क्या होता है !मुझे तो जिन्दगी भर नीचा दिखाया तुम लोगों ने --तुम स्वार्थी हत्यारे !"
"हत्यारा मैं नहीं तुम हो. मुझे खा कर चैन लोगी . सबको खा लोगी फिर भी सन्तोष नहीं होगा तुम्हें ."
"अपनी इच्छा पूरी करने के लिये मेरे बेटे को मार डाला --"वे फिर झपटी हैं कमीज फट रही है --चर्ररर-चर्ररर् .....

रुका नहीं जाता .तरु दौडती है ,"अम्माँ , मत फाड़ो कमीज ..."
"तू चुप रह.बड़ी खैरख्वाह बनी है बाप की .मेरे लिये भी कभी लगता है ?..सब उन्हीं को पूछते हैं. नई कमीज नहीं बनवा सकते अपनी कमाई से .?"
वे नहीं बनवायेंगे तरु जानती है .वे खाना नहीं खायेंगे तरु जानती है .और वे किसी से कुछ नहीं कहेंगे -यह भी तरु जानती है .
और अम्माँ ? उन्हे शिकायत है कोई उनका ध्यान नहीं रखता !
पर जो खुद सबसे पहले अपने लिये ही सोचता रहे उसका ध्यान कोई कैसे रख सकता है?
*
तरु की समझ में नहीं आता क्या करे !
पिता आज फिर बिना खाये चले गये .क्या होता जा रहा है अम्माँ को?
उनके खाना खाने बैठते ही कुछ ऐसा होता है कि,वे थाली छोड़कर उठ जाते हैं .कितने कमज़ोर हो गये हैं --सारे दिन काम और किसी वक्त खाना चैन से नहीं ..जाना भी कितनी दूर पडता है पैदल जाते हैं .कभी सवारी नहीं लेते .
दफ़्तर की फाइलें पहले घर ले आते थे .अब नहीं लाते वहीं देर तक रुके रहते हैं .लौट कर आते हैं किसी से कुछ कहते-सुनते नहीं खाना मिला और कहा-सुनी नहीं हुई तो खा लिया लहीं तो बिना कुछ खाये चादर से मुँह ढाँक कर लेट जाते हैं .

जब वे थके हुये लौटते हैं तो वह थका-उतरा चेहरा और उनकी वे निगाहें सहन नहीं होतीं .आते ही पहले चोर निगाहों से चारों ओर देखते हैं ,अम्माँ नहीं होतीं तो तरु से पूछ लेते हैं ,"कुछ है खाने के लिये ?"
तरु तैयार रहती है इस समय के लिये .झटपट उठ कर थाली परस लाती है वे जल्दी -जल्दी खाने लगते हैं .बड़े-बड़े कौर तेजी से चबा कर गले से नीचे उतारते हैं .वह मनाती रहती है,पेट भर खाना खाने तक अम्माँ न आयें .पर कभी-कभी अध-खाई थाली वैसी ही पड़ी रह जाती है .अम्माँ की ज़ुबान रुकती नहीं वे थाली छोड़ कर उठ जाते हैं और मुँह ढाँक कर लेट जाते हैं .
लड़ाई पहले भी होती थी पर इतनी नहीं कि कोई भूखा रहे और दूसरा अपनी झक पूरता रहे .जब से अम्माँ बीमारी से उठी हैं और मायके होकर आई हैं उनकी सारी स्वाभाविकता समाप्त हो गई है .
पहले पिता भी नाराज होते थे ,बच्चों को डाँटते थे .अम्माँ पर झल्लाते थे ,कभी कुछ खाने की फर्माइश भी करते थे .पर अब घर ,घर नहीं लगता .जाने क्या होता जा रहा है .अब वे कुछ नहीं कहते .अम्माँ जो चाहें कहती रहें ,बोलेंगे नहीं ,चुपचाप पड़े खाली-खाली आँखों देखते रहेंगे .तरु को जाने कैसा लगने लगता है.

कंघे से बाल झाड़ती तरु पूरी खिड़की खोल कर खड़ी हो गई .अभी विपिन स्कूल जाने के लिये सड़क पर निकलेगा .तरु की निगाहें सड़क पर लगी हैं .
"विपिन,एइ विपिन !"
कैसी धुन में चला जा रहा है सुनता ही नहीं.
फिर वह खिड़की से सिर निकाल कर ज़ोर से चिल्लाई ,"अरे, ओ विपिन 1"
उसने सिर उठाकर देखा ,"मुझे बुला रही हो ?"
तरु ने सिर हिलाया वह आकर खिड़की के नीचे खड़ा हो गया .
"विपिन ,मेरा एक काम कर देगा ?"
"क्या?"
"पिताजी को खाना पहुँचा देगा ?"
"आज फिर ऐसे ही चले गये ?"
"उन्हें नौ बजे जाना था ,मैंने सोचा तेरे हाथ भेज दूँगी ." कह कर उसे शक हुआ,विपिन ने झूठ पकड़ तो नहीं लिया .वह अपनी ही धुन में था .
"लाओ जल्दी ."
तरु के पीछे-पीछे वह अन्दर आ गया .तरु ने पराँठे- सब्जी पत्ते में लपेट कर लिफ़ाफ़े में डालते हुये कहा ,"देख यहाँ किसी को पता न लगे .लेकिन कैसे ले जायेगा ?"
"ये बैग है न मेरा .कपड़े में लपेट दो. इसी में रख लूँगा .हाँ ,ऐसे ."
"वहाँ वो कुछ पूछते तो नहीं न?"
"ना ,मैं तो जाता हूँ उनकी मेज पर रखता हूँ और निकल आता हूँ. .स्कूल को जल्दी रहती है न."

**
"भाभी जी, हमारी बीमारी के दौरान आपने खूब सम्हाला .बराबर टिफ़िन भर-भर कर खाना भेजती रहीं .इत्ता तो अपनी सगी जिठानी भी नहीं करती .."

"अरे बहू , मुसीबत में ही तो एक दूसरे का साथ दिया जाता है .कहो, अब तो ठीक हो न ? "

"हमारे ये तो आपके गुन गाते नहीं अघाते .कहते हैं भाभी जी जैसी लच्छिमी तो आज तक नहीं देखी .हम भी ठीक होकर सब से पहले यहाँ आये हैं ."
अम्माँ झट से प्लेट भर गाजर का हलुआ निकाल लाईं उनके सामने रख दिया ,"बैठो बहू , बडी कमज़ोरी आ गई है .लो, यह खा लो .सुबह ही तरु ने बनाया है ."
"अरे वाह, गाजर का हलुआ !अबकी तो हम एक बार भी बना नहीं पाये .बच्चे कहते ही रह गये ."
"अरे, तो यहाँ से ले जाओ .बच्चों का मन क्यों रह जाये .यहाँ तो बना ही है ."
"हमारे शर्मा जी तो कहते हैं -गौतम के पिता हमारे बड़े भाई की जगह हैं .ऑफिस में सालों एक ही कमरे में बैठते थे .आज कल कुछ तबीयत ढीली चल रही दीखे भाई साहब की ?हमारे ये तो उनके बारे में हमेसा बात करते रहवें हैं .आजकल उन पे भारी काम आगया है .बीमार आदमी मेहनत भी नहीं कर पावें ."
अम्माँ ने शंका भरी दृष्टि से उनकी तरफ देखा ,"अच्छा !"
"किसी अच्छे डॉक्टर का इलाज कराओ ,भाभी जी .ये पेट का मरज पुराना हो के बडा दुखी करे है ."
"तो उनकी वकालत करने आई हो.तुम्हें कैसे मालुम ?"
बात शर्माइन के पल्ले नहीं पड़ी, लेकिन अम्माँ के कहने का ढंग उन्हें बडा अजीब लगा .
"लो, एक दफ़्तर में, मालूम भी न होवे ?एक बार तो चक्कर खा के गिरते-गिरते बचे .हमारे इन ने सम्हाल लिया ."
"हाँ, उन्हें मित्रों की क्या कमी ?"
"क्यों न हो ,इत्ते सीधे आदमी हैं .भाई साहब को तो कभी ऊँचा बोल भी बोलते न सुना .अब उनके खाने का बहुत ध्यान रखो ,भाभी जी .पराँठे बिल्कुल बन्द कर दो .टेम-बेटैम खाने से भी बदन को थोड़े ही ना लगे ."
आवाज़ धीमी कर के वे बताने लगीं - बड़े साहब ने तो यहाँ तक कह दिया कि काम नहीं कर पाते तो छुट्टी ले लो .ठीक हो जाना तब काम पे आना .अब भाभीजी तुम्हीं उनका ध्यान करो ?"
अम्माँ के चेहरे के भाव बदलने लगे थे ,वे ताव में आ गईं,"ओफ़्फ़ोह ,पराये आदमी से बड़ी हमदर्दी है .बड़ी सगी बनती हो उनकी . अरे, हमें सब मालूम है ,तुम्हीं लोगों ने सगापन दिखा-दिखा कर उनका मन हमसे फेर दिया है ."
"बस करो ,गौतम की अम्माँ ,बहुत कह लिया .हमें क्या करना .आप जानो वो जाने .बरसों से साथ रहे हैं ,पुराना मेल-जोल है .बीमार सुना सो कह दिया .नहीं तो हमें क्या मतलब !"
"हाँ,हाँ ,क्यों नहीं ?बरसों पुरानी मोहब्बत है ,निभानी ही चाहिये ."
शर्माइन ताव में आकर खडी हो गईं ,"अब तो पाँव नहीं धरेंगे इस घर में .होम करते हाथ जलते हैं .ऐसी औरतों से भगवान बचाये ."

वे एकदम बाहर निकल गईं .
**
11.
"हाँ ,मै हत्यारा हूं !और तुम जो दिन-रात मेरा ख़ून पीती हो ,तुम कौन हो ?.....कभी नहीं सोचा भूखा हूँ कि थका ,वहाँ से खट कर आता हूँ और यहाँ तुम नोचने को तैयार मिलती हो .घर में पाँव रखते ही क्लेश मचाना शुरू कर देती हो .मुझे तो कहीं भी चैन नहीं ."
"मैं खून पीती हूँ कि तुम ?तुमने मार डाला मेरे बेटे को .--."
"मैनें मार डाला ? तुम यही समझती हो .तो मुझे मार डालो ,तुम्हारी छाती ठण्डी हो जाये .."
"मैं काहे को मार डालूं?भगवान सब देखते हैं .वही समझेंगे ."
"कुछ नहीं देखता ,भगवान है ही कहाँ ,है तो अन्धा है ."

"फिर काहे को सोमवार का व्रत करते हो ?काहे को ये तस्वीरें लाकर टाँगी हैं "अपने पाप के बदले ही तो करते हो ."
"मैनें कोई पाप नहीं किया .न कुछ बदले के लिये कर रहा हूँ ."
"मैं खूब समझती हूँ.,तुम और तुम्हारे संगी-साथी ,जो तुम्हारे साथ मिल कर मुझे परेशान करते हैं ."
उन्होने विवश क्रोध से उनकी ओर देखा ,"मेरा कोई संगी नहीं --तुम नहीं मानती तो लो --"उन्होने राम जी की फोटो उठा कर फेंक दी ."मैं लाया था न तस्वीर ?अब से नहीं करूँगा व्रत .आग लगा दूँगा इस पूजा-पाठ में .."
"भगवान को क्यों मुझे झोंक दो आग में. मार डालो मुझे,' वे चिल्ला कर झपटती हैं .गोविन्द बाबू ने पकड़ लिया है .रोक लिया है वे छूटने की कोशिश कर रही हैं . किसी तरह बस में नहीं आ रही हैं .चिल्ला रही हैं ,"हाँ मारो ,मारो मारो मुझे .मार डालो....."
वे हाथों से अपना सिर पीटती हैं ,दीवार से टकराने की कोशिश करती हैं .गोविन्द बाबू ने पकड़ा है . उनकी आँखें लाल हो गई हैं .वे छूटने की कोशिश कर रहीं हैं ,गोविन्द बाबू ने झिँझोड़ कर खड़ा कर दिया है .वे चिल्लाते हुये ज़मीन पर पड़ गईं .
दरवाजे पर कुछ आहटें होती हैं आवाज आती है ,"क्या बात है गोविन्द बाबू ?"
उढ़के हुये दरवाजे धक्का पड़ते ही खुल गये हैं ,पड़ोसवाले दरवाजे पर खड़े कह रहे हैं ,"गोविन्द बाबू ,बड़ी बुरी बात है ."
पीछे से कुछ और चेहरे झाँक रहे हैं .
तरु की मां को जमीन पर पड़ा देख पड़ोसिन अन्दर आ गई है.
"कैसे मारा है बिचारी को ."
"आप तो पढ़े लिखे आदमी हैं, शरम आनी चाहिये आप को ."
पड़ोसिन ज़न पर तरु की माँ के पास बैठ गई है .
"अरे इनकी तो दाँती भिंची है,बेहोश हो गई दीखें ." कई लोग अन्दर घुस आये .
"तू ना रोके ,तरु अपने पिता जी को ?कटोरी में पानी ले आ ,चिम्मच भी लेती अइयो ."
"कैसे बेदरद मरद होवें ,औरत को पैर की जूती समझें ."
कोई नहीं आता तो उठ कर खड़ी हो जातीं अब पड़ी रहेंगी .तरु जानती है पर कह नहीं सकती .
"ये बिचारी तो किसी का दुख भी ना देख सके  .हमारी बीमारी में रोज़ बदाम घिस के लावे थी और बिना पिलाये जावे ना थी ..अब देखो कैसी पड़ी है ?और ये बच्चे... अपनी माँ की सम्हाल भी ना करें ."
पड़ोसिन अपने पति की ओर घूम कर बोली ,'तुम ,घर से थोडा गुलूकोज ले आओ जी ."
तरु अन्दर से ग्लूकोज का डिब्बा ले आई है पानी में घोल रही है .
"बिचारी को ना मरद पूछे ना बेटा-बेटी ."
*
"तरु कहाँ गईं थीं ?"
"पिता जी ,मीना के घर .'
"तीन घन्टे हो गये तुम्हें घर से निकले हुये ,कुछ तो सोचना चाहिये !"
तरु पिता के बिल्कुल पास चली आई ,धीरे से बोली ,"पिता जी, मेरे पास पॉलिटिकल साइन्स की किताब नहीं है .मीना रेगुलर है .लाइब्रेरी से इशू करवाती है अलग-अलग राइटर्स की .उसी के साथ पढ़ लेती हूँ ."
"घर के लिये क्यों नहींले आतीं ?अपनी अम्माँ की आदत जानते हुये भी ....''
तरु की आँखों मे विवशता छलक उठी है .
"वह हफ़्ते भर को लाती है पिता जी ,साथ में डिस्कस करने में देर लग जाती है. ...उसके कॉलेजवाले नोट्स भी वहीं देख लेती हूँ .अब उससे कहूँगी .घर में लाकर उसके नोट्स बना दिया करूँगी .फिर साथ में बैठ कर उसे डिटेल्स मे बताना तो पड़ेगा ही .''
पिता ने फिर कुछ नहीं कहा .
बी.ए. का फ़ार्म भरवाते समय ही उन्होंने कहा था ,"तुम्हारी अम्माँ को लड़कियों को पढ़ाना पसन्द नहीं .मेरे पास किताबों के लिये अलग से पैसे नहीं .घर का हाल तुम देख ही रही हो ,फारम तो किसी तरह भरवा दिया पर आगे कैसे करोगी ?"
अम्माँ का हाल खूब अच्छी तरह जानती है तरु .उन्हें पढाई से चिढ़ हो गई है .पढ़ने की बात पर, किताबों की बात पर ,कॉलेज की बात पर आपे से बाहर हो जाती हैं .
तरु की एक सहेली है ,मीना -बचपन की साथिन .उसने कॉलेज में एडमिशन लिया है .तरु ने उसी का साथ पकड़ लिया है .वह किताबें लाती है ,तरु उससे लेकर नोट्स बना देती है.मीना को बने-बनाये नोट्स मिल जाते हैं .वह अपने क्लास नोट्स भी तरु को सौंप देती है और तरु बैठ कर पूरा मैटर छानती है .
मीना के विश्वास पर ही पिता को आश्वस्त कर दिया था उसने,कि कॉलेज की बात नहीं करेगी ,किताबें नहीं खरिदवायेगी ,घर का काम पूरा कर तब कुछ और करेगी. फिर भी दो-तीन किताबें पिता ने लाकर दीं थीं .
अम्माँ बहुत अस्वस्थ रहती हैं और बहुत असन्तुलित .तरु के ऊपर घर का सारा काम आ पड़ा है .वह चुपचाप सब निपटा लेती है ,फिर वे उसके आने-जाने पर ज्यादा रोक-टोक नहीं करतीं .शुरू-शुरू में कई बार उन्होंने टोका तो तरु बहुत स्पष्ट स्वर में बोली ,"अम्माँ ,मैं कभी कोई गलत काम करूँ या तुम किसी से मेरी शिकायत सुनो तो मना करो.बेकार में क्यों रोकती हो ? मैं सिर्फ़  मीना केघर जाती हूँ,उससे मुझे बडी़ मदद मिलती है .."
पर जिस दिन उसे बाहर दो-तीन घन्टे हो जाते ,वे नाराज़ होने लगतीं .चिल्लाती हैं ,पढाई को कोसती हैं ,तरु को कहनी-अनकहनी सुनाती हैं .
पता नहीं इन्हें पढ़ने से क्यों इतनी चिढ़ है,तरु समझ नहीं पाती .समझाने की कोशिश करने पर वे उसी पर उलट पडती हैं .वे क्या चाहती हैं तरु समझ नहीं पाती .
मीना ने एक मोटी सी किताब तरु को दी है .खुद वह कहीं बाहर जा रही है .चाहती है हफ्ते भर में तरु नोट्स बना ले फिर विस्तार से उसके साथ डिस्कस भी कर ले .तरु ने हामी भर ली है .
तरु रात को एक बजे तक जागती है ,दिन में लगकर बैठने का समय नहीं मिलता .इस एक किताब में पूरा मैटर है,अब इस पेपर के लिये कहीं और भटकने की जरूरत नहीं .काफी प्रश्न बनते हैं जी-जान से तरु उनके उत्तर का मैटर तैयार करने में जुटी है .
एक दिन सिर मे दर्द होने लगा .उसने किताब खिसका दी और दस बजे से पहले ही सो गई .
सुबह किताब मेज पर नहीं थी .
"मेरी किताब कहाँ गई ?"
संजू उठाता तो बता देता ,पिता तो उठाते ही नहीं .फिर किताब कहाँ गई ?
"अम्माँ , मेरी किताब मेज़ पर रखी थी ?"
"मुझे परेशान मत करो ."
"मैंने यहीं रखी थी ,तुमने उठाई है क्या ."
"हाँ मैनें उठाई है .एक-एक बजे तक जग कर तन्दुरुस्ती चौपट कर रही हो .ऐसी क्या जरूरत है किताबें पढ़ने की ?"
"मेरे पढ़ने से तुम्हारा क्या नुक्सान है ?"
एक वो पढ़ती थीं उनने बड़ा सुख दिया ,एक तुम दोगी ."उनका इशारा शन्नो की ओर था .
मैंने ऐसा-वैसा कुछ नहीं किया .मैं घर का काम भी कर लूँगी ."
"लड़का कहाँ मिलेगा इतना पढ़ा-लिखा ?और उसकी माँगे पूरी करने को पैसा कहाँ से आयेगा ?"
"वो सब बाद की बातें हैं ,वो किताब मीना की है जल्दी वापस करनी है ."
"दिमाग तुम्हारे भी बढ़ते जा रहे हैं .मेरा कहा सुनती नहीं हो .फिर कहोगी नौकरी करूँगी ."
"..पर वो किताब मुझे वापस करनी है ."
"तुम सुनोगी नहीं तो यही होगा ."
"वह लाइब्रेरी की किताब है.मैं उससे माँग कर लाई हूँ .उस पर फ़ाइन पडने लगेगा .मुझे देना है ."
"मैं नहीं जानती ."
तरु गिड़गिड़ाने लगी है. अम्माँ किताब नहीं देतीं .
वह नहीं देंगी उन्हे झक चढ़ गई है .
उसने सारा खोज डाला .
अब क्या करूँ मैं?
तरु परेशान .अभी डेढ सौ पेजेज़ के नोट्स बनाने को पड़े हैं .कल सुबह वापस करनी है किताब !कैसे होगा ?
"किताब दे दो अम्माँ ,बता दो कहाँ रखी है ."
वे चुप हैं कुछ बोलती ही नहीं .
तरु खीझ रही है, उन पर कोई असर नहीं होता .
तीसरा पहर बीत गया तरु क्या करे ?
"अम्माँ. मुझे किताब चाहिये "
"तुम मरो जाकर किताब के पीछे --."
वह बिल्कुल निरुपाय हो गई ..क्या करे अपना सिर पटक ले !
"कुछ और कर लो अम्माँ ,मुझे मार लो ,पीट लो .किताब दे दो ."
"मेरी किताब देदो ,अम्माँ ."
किताबों से कुछ नहीं होगा .जिन्दगी भर पछताओगी .तुम मेरा कहा बिल्कुल नहीं सुनती हो ."
वे पढ़ाई के सख्त खिलाफ हैं .तरु पर कुछ असर नहीं पड़ता .उसे सिर्फ एक धुन है--पढ़ना है,पढ़ना है .बी.ए. पास करना है .वह और सब कर लेती है ,पढाई के बारे में कुछ नहीं सुनती .गुस्सा आने पर अम्माँ खूब उल्टा-सीधा बकती हैं ,तब थोड़ी देर के लिये किताब बन्द कर रख देती है .
पर आज तो उन्होंने किताब छिपा दी है .
तरु रो रही है .रोते-रोते कह रही है ,"किताब उसकी है ,मुझे किताब दे दो ."
"रोओ,खूब रोओ ," अम्माँ गुस्से में आ गई हैं ," ज़िन्दगी भर रोओगी तुम .देख लेना .रोए नहीं चुकेगा !"
कुछ देर बक-झक कर वे मन्दिर चली गईं .
बावली-सी तरु घर भर में चक्कर लगा रही है .
सब जगह ढूँढ चुकी .किसी तरह चैन नहीं पड़ रहा ..कोई उपाय समझ में नहीं आ रहा .फिर नये सिरे से खोज शुरू हुई .
मसाले के डब्बे के पीछे वह क्या चमक रहा है ?
वही है ,वही है किताब !
तरु उठाती है साड़ी के पल्ले से पोंछती है .
अब सुबह का इन्तजार नही करेगी .रात में ही काम लिपटाकर संजू से किताब भिजवा देनी है ..नहीं तो कहीं उन्होने फिर उठा ली तो !
दस बजे तक संजू से भिजवा दे ?पर समय ही कितना है ?
सिर्फ छः घन्टे और शाम के खाने की व्यवस्था भी उसी बीच !
जल्दी-जल्दी सारा काम खत्म करती है .मन में बड संशय है .हो पायेग या नहीं ?नहीं हुआ तो मीना क्या कहेगी ?फर उससे किताब माँगने की हिम्मत कैसे पडेगी ?डेढ सौ पेज ! नहीं हो पायेगा तो... ?
नहीं हो पायेगा .लिखना किसी तरह नहीं हो पायेगा !पढ़ लूँ . फिर याद करके लिखूँगी - तय कर लिया उसने .
बाहर के दरवाज़े बन्द कर दिये ,किताब खोल कर बैठ गई ..साथ के कागज़ पर सिर्फ मेन प्वाइन्ट्स ,नंबरवाइज़ !

घड़ी की सुइयाँ बराबर आगे बढ़ रही हैं .तरु ने दृढ़ निश्चय कर लिया है .पूरा करना ही है .पढ़ रही है वह .पढ़े जा रही है.-एक चित्त !पन्ने एक-एक कर पलटे जा रहे हैं .दस,बीस,तीस पचास ,सत्तर ,सौ !
अरे ,अभी पचास और हैं !सिर को झटका देकर वह फिर जुट गई .दस बजने में आठ मिनट बाकी हैं .,वह संजू को किताब पकड़ा आई ,भैया जल्दी से पहुँचा दो ."
संजू को भेज वह गिने हुए प्वाइन्ट्स लिखने बैठी .

चारों तरफ कहीं कुछ नहीं है ,किसी का भान नहीं ,किसी पर ध्यान नहीं . .संजू कब आया कब गया उसे कुछ पता नहीं ..इधर-उधर क्या हो रहा है होश नहीं .कितने भी बज जायें अब कोई चिन्ता नहीं .वह लिख रही है .लिखती जा रही है ,सिर्फ़ लिखती जा रही है .सब याद आता जा रहा है जैसे दिमाग़ में पढ़े हुए पन्ने कहीं लिख गये हों और तरु उतारती जा रही हो !

हाँ, सिर्फ मस्तिष्क बोल रहा है ,तरु लिख रही है .कलम चल रही है--और कहीं कुछ नहीं .कहीं कोई नहीं ! अकेली तरु और उसकी चलती हुई कलम !

कहीं कुछ नहीं हो रहा है इस समय !


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(क्रमशः