रविवार, 18 जून 2017

मैं कौआ नहीं बनना चाहती

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बाहर लान में खुलनेवाली हमारी खिड़की के शेड तले एक भूरी चिड़िया ने घोंसला बनाया है.अब तो अंडों में से बच्चे निकल आये हैं .चिड़िया दूर तक उड़ कर उनके लिये चुग्गा लाती है और वे चारो उसके आते ही चीं-चीं कर अपनी चोंचें बा देते हैं.
मैंने  थोड़ा दाना-पानी यहीं पास में रख दिया .पर चिड़िया ने छुआ तक नहीं, तीन-चार  दिन यों ही रखा रहा . बच्चों के लिये दूर-दूर से चुग्गा लाती है.,घास  झाड़ियों -पेड़ों आदि अपने संसाधनो से अपना खाद्य चुनती हैं.
यहाँ देखती हूँ अनेकानेक पक्षियों को -  चहचहाते हुए,आसमान में उड़ते हुये पेड़ों पर ,लान में फुदकते हुये - पर सब कुछ बड़े करीने से.कोई मौसम हो मुझे तो पत्तों पर मुड़ेरों पर या कहीं भी बीटों का गंदगी नहीं दिखाई देती .बड़े डिसिप्लिंड  लगते हैं .खुले आसमान के नीचे अन्न ,भोजन आदि रखा रहे ,मुगौरियाँ खुली थाली में सूखती रहें चोंचें डालना तो दूर भूखी निगाहों से  देखते तक नहीं.अपने खाने ,अपने दाने से मतलब .मुझे लगता है जैसे जहाँ के लोग होते हैं ,वैसे ही वहाँ के जीव भी हो जाते हैं .
दादी कहती  हैं ,मुँह आई बात रोक लो तो कौए का जनम मिलता है ,और मुझे कौआ नहीं बनना. इसलिये मुँह आई बात कहे डाल रही हूँ .
हाँ ,तो यहाँ खुले में खाने का सामान पड़ा रहे पक्षी चोंच लगाना तो दूर, ललचाई निगाह तक नहीं डालते .उनके लिये अलग से जो दाना होता है वही ग्रहण करते हैं .ये नहीं कि किसी ने खाद्य पदार्थ बाहर या धूप में रखा और मुफ़्तखोरों जैसी इनकी नियत लग गई - खायें सो खायें और बिखेरते हुये उसी में गंदगी मचाते उड़ जायें .न खाने का ढंग ,न बीट करने का..
मैं अमेरिका की बात कर रही हूँ ,भारत का उल्लेख अपने आप हो जाये तो मेरा दोष नहीं.  - हर बात सापेक्ष होती है न.एक के साथ दूसरी लगी-लिपटी .किसी पर दोषारोपण करने का  मेरा इरादा नहीं.बस , मैं कौआ  बन कर जनम नहीं लेना चाहती .
 हाँ ,तो बात गंदगी मचाने की हो रही थी.मुझे लगता है  वातावरण में ही खोट आ जाता है  .देखिये न ,हमारे यहाँ  लोग भी तो पब्लिक के या पराये माल को , मुफ़्त का माल समझते हैं-और हर जगह गंदगी बिखेरना जन्म-सिद्ध अधिकार .वही आदतें पक्षियों में उतर आई
 .पेड़ों के ऊपर के पत्ते तो बीट से पुते ही रहते नीचे की ज़मीन छिंटी हुई - आते-जाते लोगों के कपड़ों और बालों का भी कल्याण हो जाता है कभी-कभी . आजकल सब जगह फ्लैटों वाली  बहुमंज़िली इमारतें खड़ी हैं.बाहर की दीवारों और खिड़कियों के छायादानों पर घने-घने छपके और जमे हुये थक्के जरूर देखे होंगे आपने .पक्षियों की ढेर की ढेर बीट जम कर चिपकी हुई ..  सायबानो के नीचे, मोखों में कितने कबूतर बस जाते हैं कोई गिनती नहीं .रात दिन गुटर-गूँ तो हई .ऊपर से खिड़कियों के शेड बालकनियाँ और छतों की मुँडेरे हर जगह बीटों की सफ़ेदी छाई मिलेगी.खुले में  खाद्य पदार्थ डालकर धूप दिखाना मुश्किल - चोंचें मार-मार कर बिखरायेंगे .खायेंगे सो खायेंगे उसी में अपनी गंदगी छोड़ जायेंगे .बात वहीं आ जाती है , लोगो को जो करते देखते हैं ,वही सीखेंगे.देखते तो होंगे ही  पब्लिक टॉयलेटों,ट्रेनों का हाल,नदी के किनारों पर ,कहाँ तक बताये हर खुली जगह पर .पराये फलों के पेड़ों पर फूलों की क्यारियों पर कैसे हमला बोलते हैं.कोई ढंग की चीज़ देख नहीं सकते अपने सिवा किसी के पास .किसी के घर आम या अमरूद का पेड़ हो ,पत्थर चले आयेंगे बाहर से .दीवार नीची हुई तो फाँदने में कोई परहेज़ नहीं.
मौका मिलते ही दूसरे के उगाये फूल तोड़ लेना स्वभाव में है .बच्चे नहीं बूढ़े तक भगवान के नाम पर परायी फुलवारियों पर हाथ साफ़ करने से चूकते नहीं .उलटा कोई आपत्ति करे तो उसे ही पाप का भागी बनाने पर उतारू..
मुझे लगने लगा है स्वच्छता के भी संस्कार होते हैं जो स्वभाव में बस जाते हैं
और सामाजिक अनुशासन आदत बन कर सहज-व्यवहार में उतरता है.इन चीज़ों का धार्मिकता से कोई लेना-देना नहीं.बल्कि अधिकतर तो धर्म के नाम पर ..., अब आगे क्या कहूँ -जो होता है ,सब को पता है.
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