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देश के दक्षिणी भागों की यात्रा का स्वभाव और प्रभाव ही कुछ और है .उत्तर के गंगा-यमुनी समतलों को पीछे छोड़ती विंध्य और सतपुड़ा से आगे शिप्रा एवं नर्मदा के रम्य तटों का दर्शन करते मुंबई,गोआ, मद्रास ,महाबलेश्वर और कन्याकुमारी तक का भ्रमण कुछ निराली ही अनुभूतियाँ जगाता है.सागर-तल से 600 मीटर तक का उच्चासन धारे यह पुरातन भूमि टेर-टेर कर कहती है -देखों मैं हूँ उन सारी गिरि शृंखलाओँ की नानी .सारे उत्तरी समतलों और पर्वतों की पूर्वजा.जन्म से सहारा दिया मैंने उन्हें . चले आओ , ननिहाल है यह तो तुम्हारा . नेहांचल फैलाये हूँ बैठी हूँ ये अमृत सरितायें- तुम्हारा अंतस्तल सींच देंगी,इन पयोधरी उठानों में तुम्हारा तन-मन उछालें लेने लगेगा .
उन्हीं दिनो ' एक योगी की आत्म कथा पूरी हो रही थी, इस अनुपम संयोग से मेरी अनुभूतियों को आध्यात्मिकता का पुट मिला और बाह्य जगत में व्याप्त अपार सुषमा से मानव मन का कैसा संस्कार होता हैं इसका मैं अनुभव कर सकी -वह दिव्य और गहन शान्तिमय अनुभूति भले ही थोड़ी देर रही हो पर अपनी अमिट छाप छोड़ गई। वर्ड्सवर्थ के शब्दों में यही Bliss of solitude बन गया होगा !
दक्षिण की यह यात्रा जितनी मनोरम है उतनी ही वैचारिक तोष देनेवाली भी.इतनी सुन्दर दृष्यावली और प्रकृति का रमणीय रूप अपार प्रसन्नता से भरता रहा ।जिस स्थिति को ' मन का विश्राम ' कहते हैं उसका अनुभव मैंने कर लिया ।मन में गूँज उठा - पूर्वजा ! उत्तरी भूमियों की पूर्वजा!
हिमालय की व्यापक ऊँचाइयाँ ध्यान में आ गईँ.वह तो इस धरती से इतना विस्तृत ,इतना ऊँचा ,विविधता संपन्न!....'
'पर मैं उनकी नानी हूँ .क्यों तुम्हारे यहाँ बच्चे दादी-नानी से ऊँचे नहीं निकलते?'
प्रान्तर के वृक्षों ने सिर हिला हुंकारा भरा, किनारे के हरे-भरे खेतों से पक्षियों का एक झुंड चहचहाता हुआ आकाश में उड़ गया गया, जैसे प्रकृति की खिलखिलाहट बिखर गई हो. . फैली हुई धूप में हरित वनस्पतियाँ स्वर्णाभा से भर गईँ .पाँच हज़ार से अधिक प्रकारों के रंग-रंगे फूल ,अनगिनत वनस्पतियाँ और पाँच सौ से ऊपर प्रकार के पक्षि-प्रजातियों को धारण करनेवाली पुलकिता धरा उचक कर ट्रेन की खिड़की से झाँक रही है जैसे मेरा मन पढ़ लिया हो उसने .चारों ओर की इतनी हलचल और कोलाहल के बीच उसकी आवाज़ सुन रही हूँ ,
'मेरी बात कर रही हो ? हाँ, मैं उसकी नानी हूँ अपार सागर लहरा रहा था वहाँ.हिमालय को जन्म लेते देखा है मैंने अपने से चिपका कर सहेजा, आधार दिया .जानती हो - भू गर्भ के संचालनों द्वारा तल के उठने से प्रकटा है 5-6 करोड़ वर्ष पहले .यह जो मेरे देखते-देखते बढ़ा है .साठ-सत्तर लाख बरसों में इतना हुआ अभी तो बढ़ रहा है और मैं आद्य महाकल्प में धरती के भू खंड़ों की प्राचीनतम पीढी में हूँ .इतनी आयु हुई अब भी वैसी ही विद्यमान स्थिर,भूगर्भिक हलचलों से निरी निरपेक्ष जस की तस बैठी हूँ .,
पुलक उठती हूँ मैं!यह हिमालय का ननिहाल मेरा मायका -अपूर्व उल्लास से उमग उठा अंतर.शिप्रा- नर्मदा के तट मेरे क्रीड़ा-थल .
' -पानी और मौसम के प्रभाव कटाव करते हैं .देह की ऊपरी क्षरण है यह.मैं वैसी ही पक्की-पौढ़ी जमी हूँ यहाँ अपना विशाल परिवार सँभाले .ये विंध्य,अरावली ,सह्याद्रि ,नीलगिरि ,पूर्वी .पश्चिमी-घाट सब मेरे कुटुंबी हैं ,मेरी पुत्रियाँ ये तरल सरितायें अपनी नेह-धाराओं से मन-जीवन में सरसता और उर्वरता भरती हुई .मौसमों के प्रहार से रूपाकार थोड़ा बदला ज़रूर .पर ये पूर्वी और पश्चमी घाट मेरी विगत समग्रता के प्रमाण-स्वरूप जमें बैठे हैं.'
अपने पूर्वविचार पर लज्जित हो उठी मैं !
पश्चिमी घाट के साइलेंट वेली नेशनल पार्क की याद आ गई - अभी तक अगम्य रहा भारत का एक मात्र ऊष्ण-कटिबंधीय वन -जिसकी निभृत हरीतिमा अभी तक इंसान नामक जीव के पगों से अछूती है. भारत की अति प्राचीन संस्कृति और भाषा यहाँ आज दिन तक अबाध गति से फलफूल रही है.
जी हाँ तमिल - जो विश्व की प्राचीनतम भाषाओँ में गिनी जाती है -और कुछ विद्वानों का मत भी कि संस्कृत और द्रविड़ भाषाएँ एक ही उद्गम से निकली हैं. तमिलनाडु में कार्य करके अगस्त्य मुनि कम्बोडिया गए।तमिल के प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ के अनुसार कम्बोडिया को मुनि अगस्त्य ने ही बसाया ।
दोनो भाषाओँ में जो भिन्नता आती गई वह काल और देशान्तर के प्रभावों से
कहावत है न,'कोस-कोस पर पानी बदले पाँच कोस पर बानी.'
इतिहास के पृष्ठ मन में करवटें लेने लगे - शासक, युद्ध और कितने उलट-फेर. अचानक याद आता है इतिहास में नामों और तारीखों के सिवा कुछ सच नहीं होता .इस शब्द का मतलब ही है वे आख्यान जो हमें परंपरा से प्राप्त हुए हैं- काल क्रमानुसार घटनाओं का वर्णन .
सब कुछ घट जाने के बाद इतिहास आता है,और बताने लगता है क्या-क्या घटित हो गया..साक्षी तो भूगोल है पहले.सारा खाका खींच कर मंच सज्जित करता है,तब तदनुरूप क्रिया-कलापों का आयोजन प्रारंभ होता है .भूगोल झेलता है ,गाँव-नगर निवासी सब झेलते हैं. उन परिणामों को. सब कुछ निपट जाने के बाद इतिहास हाज़िर हो जाता है, किया-धरा बताने के लिये .
सच, यह कितनी सुदृढ़ भूमि. उत्तरी मैदान के नीचे आधार बनी -सी .
कानों में वही प्रबोधता-सा स्वर -
'और यह जो अरावली को देख रही हो यह भी अब इतना है. पर पहले यह हिमालय से कम नहीं था . मध्यजीवी महाकल्प दरारों और भ्रंशों का दौर चला .अनेक भ्रंश और उसके बाद कटाव ...'.
मन बीच-बीच में भाग चलता है -जाने-कहाँ-कहाँ की सोचता हुआ .सब को एक ओर समेटता हुआ भव्य मंदिरों के स्थापत्य और तत्कालीन जीवन के ध्यान में रम जाता है .विचारों और भावनाओं का ज्वार उमड़ता है.
किसी ने कुछ कहा ध्यान बँट गया जो कुछ भीतर उमड़ा था एकदम विलीन .साबुन के बुलबुलों की तरह बिला गया .कितनी मन-भावन मनोदशा थी ,अनायास भंग हो गई .याद करने की कोशिश करती रही .पर सब एकदम ब्लैंक !
अक्सर ही ऐसा होता है ,बहुत सुन्दर- सा कुछ मन में चलता है और अचानक ग़ायब . फिर लाख यत्न करो कुछ पकड़ में नहीं आता .
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(क्रमशः)
सुन्दर प्रस्तुती |
जवाब देंहटाएंआभार दीदी ||
अगली कडी का इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंआपकी कल प्रविष्टि आज दिनांक 07-01-2013 को चर्चामंच- 11117 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..आभार
जवाब देंहटाएंवाह ! अद्भुत ! अनुपम आपकी लेखनी में कमाल का जादू है..इतिहास, भूगोल सब काव्य में ढल गया..
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जवाब देंहटाएंभाव पूर्ण अभिव्यक्ति |
आशा
बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंइतिहास के पृष्ठ मन में करवटें लेने लगे....Can feel the nostalgia..
जवाब देंहटाएंगद्यकाव्य सा सरस एवं मधुर चित्रण मन को प्रफुल्लित कर गया । साथ में यात्रा करते हुए मैंने स्वयं को अपने अतीत के संस्मरणों के बीच पाया। विशेषकर केरल की मनोरम प्राकृतिक सुषमा में मैं खो गई ।
जवाब देंहटाएंइस आनन्द के लिये आभार ।
बहुत सुंदर ...प्राकृतिक सौन्दर्य में खो गयी
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