गुरुवार, 5 मार्च 2015

कथांश - समापन .

*
 पारमिता से उस दिन सच ही कहा था- मैं दुखी नहीं हूँ .दुखी न होने पर सुखी होना जरूरी होता है क्या ?एक न्यूट्रल-सी मनस्थिति-  भी तो संभव है -कैसा लगता है  जब ख़ुद की ही समझ में न आये . 

नहीं, जड़ता नहीं ,सारी दुनिया की बातें अनुभव हों ,एक निज को छोड़ कर ! ये तो मन है  ,कभी लीन रहता है ,कभी उचटता है .कभी कुछ अच्छा लगता है कभी कुछ  बुरा ,बड़ी मिलीजुली-सी चीज़ है ज़िन्दगी .
कुछ मन से ,कुछ बेमन से(हो सकता है अधिकतर)  दुनिया यों ही चलती है.
मन की बात आई तो  मंदिर के पुजारी  याद आ गये.
 आती बिरिया जहाँ दो-तीन दिन  रुका था , लौटते पर  फिर वहीं रुका  हूँ .यों ही  घूमते-घूमते मंदिर की ओर बढ़ गया था. नवरात्रों में हमारे घर का वातावरण मंदिरमय हो उठता था .कपूर -गंध से व्याप्त प्रांगण में पग धरते ही देखा कन्या-भोज चल रहा है.

 माथे पर टीका लगाए प्रसन्नमुखी बालिकाएँ देख कर अच्छा लगा . माँ भी नवरात्रों में कन्यायें जिमाती थीं.पूरे नौ दिन व्रत करती थीं . माँ के पूजाघर से आती अगरुधूम  गंध - वैसे ही  नासापुटों में समा रही है . एक अदृश नेहिल  परस बार-बार  छू जाता  है .
पुजारी जी का दिया -हलवा पूड़ी और चने -ग्रहण करता हूँ. प्रसाद देते हुए एक लड़के से कह रहे थे ,'अरे ,षष्टी तू यहीं घूम रहा है ..' 

शिखा-शेष  सफ़ाचट्ट शीष धारे वह  10-11 बरस का लड़का खड़ा हो गया था.
'तेरी  ईजा  शिकायत कर रही थी  पढ़ने-लिखने  में मन नहीं लगाता, आवारा गर्दी करता है..'
मुझे अपनी ओर देखते पा कर बोला ,'आज तो छुट्टी है, शाब जी ..'
 वे कह रहे थे ,'अरे किसी काम से लग ,खाली बैठे खुराफ़ातें सूझेंगी बेटा. अपने पर काबू कर लिया तो समझो सब जीत लिया .मन को छुट्टा छोड़ा तो कहीं का न रहेगा .'
 मैंने जोड़ा  ,'सच में,इस उमर में नियंत्रण होना बहुत ज़रूरी है.'
'इसी में नहीं, हर उमर में भैयै ,अनुशासन-नियम मानना बहुत ज़रूरी हैं. मन के मते चलने से बचाने को  तो सारी व्यवस्थाएँ बनाई गई हैं .गृहस्थ-जीवन की नींव पर तो दुनिया टिकी है ,अपना ही  अपना सोचने को तो इंसान नहीं जनमता .' .
मैं अचकचा गया .बाहर निकल आया.
जीम चुकी कन्यायें बाहर निकल रही थीं .9-10 बरस की लड़की के साथ ,एक छोटी-सी बच्ची , दो-ढाई बरस की रही होगी, हाथ में प्रसाद का दोना लिए निकली है. बच्ची मुझसे टकरा गई ,चौंक कर देखने लगी.
'लगी तो नहीं बेटा ?' मैंने पूछा.
उसने 'ना' में सिर हिला दिया .
 आज को माँ होतीं तो इसे  खाली हाथ  नहीं जाने देतीं ,मैंने जेब से रुपये निकाले.
बड़ी लड़की ने मना किया ,' नहीं, हम सबसे नहीं लेते .'
'अरे, ये तो मेरी माँ ने तुम्हारे लिए दिये हैं.'
अजाने व्यक्ति से लेने में वह झिझक रही थी , पीछे से पुजारी जी  बोले
'ले ,लो बेटा ,आज तो तुम्हारी पूजा का दिन है .'
मैंने रुपये देकर प्रणाम किया.
'इसकी बात सुनो ,' पुजारी जी ने 
छोटी बच्ची का दुलार करते हुए पूछा ,'छोनी के दाँत  काए के लिए ?'
वह तत्काल बोल उठी ,'हँछने के लिए .'
 हम दोनों हँस रहे थे .बच्ची शरमा गई .भाग गई बड़ी बहन के पीछे.
मुझे  वसु का ध्यान आ गया. उस दिन चलते समय देखा था - मेरी छोटी- सी बहिन कितनी बदल गई है - गरिमामयी , दीप्ति पूर्ण! विस्मय से देखे जा रहा था..
'तू मामा बननेवाला है , रे '- उसकी सास बोल उठी .
' अरे !' एकदम मुँह से निकला .
माँ के शब्द याद आए ,'मुन्ना, बहन का ध्यान रखना. अकेली न रह जाय वह .'
माँ ,कैसे उऋण होऊँगा तुमसे ? और बहन, मेरे मन की शीतल  छाँह -तुम जो मेरी माँ का अंश हो ?
इधर दुर्गा सप्तशती का पाठ चल रहा है .माँ भी करती थीं .चलते-फिरते मेरे कानों में पड़ता  रहा है ,वैसै मैं प्रसादी- भक्त रहा हूँ  बस !
नौरतों में माँ-दुर्गा की भक्ति का ज्वार उमड़ता है .लाउडस्पीकर की कान-फोड़ आवाज़ें रात देर तक गूँजती  हैं. भक्ति  के ढोल पीट कर करतब दिखानेवालों की बाढ़ आ जाती है .

मन में प्रश्न जागता है -कन्या पूज्य है ,और उसके बाद की सारी भूमिकायें उपेक्षणीय ? भगिनी,सहचरी ,माँ और कितने रिश्तों से अभिहित , द्वार आए याचक से ले  कर मान्यजनों तक की पूरणा करती हुई  पोषण  तत्परा गृहिणी ?
नवरात्रियों की पूजा सजीव नारीत्व की अभ्यर्थना है. बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक कुमारी ,युवती , ज्ञात-अज्ञात .कितने रूप कितने नाम !

उपवास ,कर्मकांड आदि से  काया को कितना भी रगड़ते रहें, भावना का परिष्कार नहीं हुआ तो यह सारा पूजा-पाठ व्यर्थ है ,मन का महिष बार-बार सिर उठाता रहेगा.
इस पर्वतीय प्रदेश में चूल्हे की आँच पर महिलाओँ को भोजन बनाते देखता हूँ  तो माँ का ध्यान आ जाता है. पहले हमारे घर में गैस नहीं थी . वह चूल्हे पर भोजन बनाती थीं .रसोई घर में, पीला प्रकाश बिखेरता बीच में  टँगा  एक बिजली का बल्ब था . माँ जब  अंगारों पर रोटी सेंकती  तो उन लपटों की हिलती रोशनी में उन का मुख  दीप्त हो उठता था.
  काल के व्यवधान  के साथ  भावों और कल्पनाओं से संकुल हो वह रूप स्मृतियों में अतीन्द्रिय  हो उठता है.
*
इन पर्वतों का जीवन बड़ा शान्तिपूर्ण है -नीचे मैदानोंवाली  वाली भागम-भाग से दूर . कहीं , कोई जल्दबाज़ी नहीं .
ट्रेन में कोई बता रहा था पहाड़  के लोग  ठाले-बैठे गप्पें मारते या नशापानी करते  हैं .काम-धाम की सारी जिम्मेदारी लुगाइयों की ,घर और बाहर खेती-पाती,पशु, साज-सँभाल सब उनके जिम्मे .
 महिलाओं के कुछ वाक्य कान में पड़ जाते हैं .एक कह रही है,' सब कट्ठे करके डाल देवें, मैं लत्ते धोवण में लग री .मरद से तो कुछ .होत्ता भी ना .'
'शान घटे सी. लुगाई के आग्गे कुछ करण की के जरूरत ?'
एकदम याद आ गई भोले शंभु भी भाँग-धतूरा चढ़ाये
रहते हैं या फिर समाधिलीन . सारे दायित्व सारे गौरा के हिस्से .सचमुच लोक-देवता का साक्षात् स्वरूप कि हम तो ठहरे निर्लिप्त-निरासक्त ,तुम माया हो. अपने को विस्तारो, हर जगह समाओ.
शाम की हवाओं में ठंडक घुल गई है -ऊपर से बैग उतार कर स्वेटर और गुलूबंद निकाल लिया (साथ में आया हुआ सुमति का छोटा-सा
संदेश तब से  उसी पॉकेट में पड़ा है). पहन कर तन को आराम मिला - तन से अधिक  मन को .
पहाड़ी मौसम की मनमानी में बहुत साथ दिया है इसने. सबसे ऊपर रखता हूँ कि झट से निकाल सकूँ .
पीछे बैठी दोनों महिलायें बड़े ध्यान से  बुनाई का डिज़ाइन देख रही हैं,'सोणी बुनाई गेरी है..'.उन्हें  भान नहीं कि मैं उनकी बात सुन रहा हूँ
 ,भाषा और लहज़े का ठेठपन छिपता है कहीं ,वही हरियाणेवाली हैं.
इधर जो वृद्ध सज्जन बैठे हैं शीशा गिराना चाहते हैं ,' बड़ी ठंडी हवा है भाई ..'
मैं हाथ बढ़ा कर  खींच देता हूँ ,' बेमौसम बरसात हुई है न,सर्दी एकदम से बढ़ गई .'
'इंसान अपनी मनमानी से कहाँ चूकता है ,तभी न कुदरत का हिसाब गड़बड़ा रहा है,'
किसी नदी का पुल पार हो रहा है .उधर किनारे की ऊंची सी चट्टान पर धोबी पछीट-पछीट कर कपड़े धो रहा है  ,पानी में घुमाकर कर पत्थरों पर दे मारता है -दूर-दूर तक छींटे बिखराता हुआ. मुँह से 'हेओ-हेओ' आवाज़ निकलती है .
कपड़े पर  पर कुछ जम जाए तो छुड़ाना कितना मुश्किल - रोएं  घिसते हैं कोरापन उड़ जाता है ,कपड़े की दमक खो जाती है .
मन को भी झटक-पटक कर स्वच्छ किया जा सकता है क्या ?
समय के साथ सब बदल जाता है. पहले छोटी-छोटी बातें मन को  ख़ुश कर देतीं थीं ,अब बड़ी बातें भी ज़रा देर में उड़ जाती हैं .


दुनिया का कोई व्यापार किसी के लिए रुकता नहीं .सारे  रिश्ते  समय के साथ रूप बदल लेते हैं .इसी सब के साथ चले बिना भी निस्तार नहीं .
'बस..बस  ज्यादा वैरागी मत बनो, ईश्वर ने जो दिया ग्रहण करते चलो बिरजू ...'
पर वैरागी था  कब मैं ? राग के बिना जीना भी कैसा जीना , संसार
एकदम निस्सार  हो कर रह जाय तो .
 अपना-अपना जीवन सबको जीना है .पारमिता तुम अपनी गृहस्थी में पूरी सच्चाई से, मैं  अपने संबंधों में पूरी ईमानदारी से.किसी स्तर पर साथ हैं दोनों ,एक विश्वास कि कोई अंतर्मन में  शुभाशंसा लिए बैठा है , हर दुख-सुख  पर  उसकी संवेदना  की छाँह है .

मन को अवलंब देने के लिए यही बहुत है .
पश्चिम के आकाश में हवाएँ बादलों के माडल  बना- बना कर बिगाड़ रही हैं .कभी तो अधबना ही छितरा देती है -  कार्यशाला में उनकी जोड़-तोड़ लगातार चल रही है.
अरुण कंठी श्यामा चिड़ियाँ चहकने लगीं . नन्हीं-नन्हीं कायायें पंख फड़फड़ाती हुई  इकटठी एक जगह आ बैठती हैं फिर एकदम चहचहाती उड़ जाती हैं,.जैसे हँसी की एक लहर डोल गई हो .
 उधर ढाल पर ग्वाला अपनी गायों-बछड़ों को जंगल से लौटाए लिये जा रहा है .भटके हुओँ को बार-बार टेरता है -घेरता है ,छोड़ेगा किसी को नहीं .

अपने पशुओँ पर नियंत्रण रखना आता है उसे.
बहुत चर लिया .लौट रहा हूँ मैं भी ,अपने झुंड में सम्मिलित हुए बिना निस्तार कहाँ ?
'ओ चरवाहे  सँग-सँग मुझे लिए चल !'

(समाप्त)
*

8 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी कहानी... भाव अति सुन्दर
    आपको सपरिवार होली की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ .....!!
    http://savanxxx.blogspot.in

    जवाब देंहटाएं
  2. शकुन्तला बहादुर9 मार्च 2015 को 6:59 pm बजे

    इस कथांश के बाद "समाप्त" लिखा पढ़कर मन कुछ उदास हो गया । यद्यपि लेखिका को कथा के समापन से अतिशय सन्तोष मिला होगा । ये कहानी अपने में कई और पात्रों की जीवन-कथा को समेटे , मन को निरन्तर अटकाए चल रही थी । सामाजिक पहलुओं के साथ ही प्राकृतिक
    दृश्यों के भी सुन्दर चित्रों ने मन मोह लिया था । वह उत्सुकता अब समाप्त हो गई । भूला भटका राही अन्ततः अपनी गाड़ी को घर की ओर
    मोड़ कर घर बसाने का संकेत देता हुआ मन को आश्वस्त कर जाता है ।
    इस प्रभावी कहानी के लिये लेखिका को अनेकश: साधुवाद !! उनकी
    अगली रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी ।

    जवाब देंहटाएं
  3. जीवन में जाने कहाँ-कहाँ समझौते करने पड़ते हैं , कितनी चट्टानों से टकराते हुए आगे बढ़ना होता है फिर भी मन विरागी नहीं हो पाता . ब्रजेश ने ठीक ही तो कहा है -राग के बिना जीना कैसा ! कथा का अंत बिलकुल क्लासिक फिल्मों जैसा है जो दर्शक को भावों विचारों के भंवर में छोड़ देता है एक अधूरेपन की तृप्ति के साथ .'पिक्चर अभी बाकी है' का अहसास ही इस कहानी के कथ्य और शिल्प की उत्कृष्टता का प्रमाण है . उम्मीद है कि आगे की कथा के लिए कथांश--२ भी पढ़ने मिलेगा . सादर ...

    जवाब देंहटाएं
  4. माँ, नेट की धूखाधड़ी के कारण तीन दिन से सोच रहा हूँ लिखूँ मगर लिख नहीं पा रहा.
    ओशो कहते हैं कि किसी इंसान की खोपड़ी में अगर खिड़की होती तो झाँककर देखने से पता चलता कि कितनी अनर्गल कथाएँ वहाँ डेरा जमाए बैठी होती हैं. लेकिन आज उस बात का अपवाद देखने को मिला कथांश के समापन में. इतनी सारी घटनाएँ और एक के बाद उनका बिना सिलसिले के घटना (जैसे जैसे बिरजू को याद आती गईं, परिदृश्य को देखते हुये) ऐसा लगा मानो विचारों का एक सुन्दर सा कोलॉज तैयार हो गया है. कथाकार का दखल कम होते हुये भी (घटनाक्रम को शब्द प्रदान करने भर) ऐसा लगा कि कथानायक अपने जीवन की समस्त घटनाओं का सिंहावलोकन कर रहा हो. भूत और वर्त्तमान का एक अद्भुत मेल यहाँ देखने को मिला है. कभी कभी तो घबराहट सी होने लगती थी कि कहीं बिरजू भिक्षु न हो जाए, वैराग्य न पैदा हो जाए उसके मन में.
    एक लम्बी शृंखला का समापन इतना सुन्दर रहा कि समाप्त होने का तनिक भी दु:ख नहीं. पारमिता और बिरजू के सम्बन्धों को एक ख़ूबसूरत सी व्याख्या, वसु का माँ बनने का समाचार, सुमति का गुलूबन्द और सन्देश... एक ख़ूबसूरत कहानी का, सुन्दर सा अंत. हाँ, जहाँ कथांश के शुरुआत में मैंने कहा था कि इस उपन्यासिका की विशेष बात यह है कि महिला द्वारा लिखित यह कथा कहीं भी यह आभास नहीं देती, लेकिन आज की कड़ी में लगा कि माँ के अन्दर की महिला अत्यधिक मुखर है! :) :)
    एक नयी शृंखला की आशा में एक बार फिर मेरा प्रणाम क्योंकि इस 300 कड़ियों के कथांश से बहुत कुछ सीखा है मैंने.

    जवाब देंहटाएं
  5. कहानी का समापन भाग आज पढ़ा, पिछले पढ़े हुए अंक जैसे पुनः मनः पटल पर ताजा हो गये.. बिलकुल यहीअंत ही होना चाहिए था ..पढ़कर ऐसा ही लगा.

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत ही अच्‍छी कहानी। बहुत ही अच्‍छी लगी।

    जवाब देंहटाएं