*
वसु माँ के पास रुक गई थी.
तनय का कहना था ,भइया अधिक छुट्टियाँ नहीं ले सकते .तुम्हीं रुक जाओ .माँ कुछ ठीक हो जायँ तो मैं ले जाऊँगा .मैंने कह दिया ,'उसकी चिन्ता न करो ,बाबू ,मैं ख़ुद पहुँचा आऊँगा.'
राय साब सारी खोज-खबर लेते रहते थे.उनसे बहुत सहारा था.
सुमति के जाने के पहले ही उसके पिता से मिलने गया था. चार पुत्रियों का पिता, जिसकी आय का स्रोत साधारण क्लर्की हो, वही हाल था.
पहले स्पष्ट किया मैंने ,'मेरी बहिन और और आपकी बेटी में पॉलिटेक्नीक की सर्विस के दौरान मित्रता हुई थी.
उन्हीं ने आपसे कुछ कहने को मुझे भेजा है. आपकी बेटी जीजा से विवाह करने को तैयार नहीं. उस पर ज़ोर डालने का नतीजा बुरा भी हो सकता है .'
उनने अपनी विवशताएँ बताईं .बोले,' उसके मन का वहम है ,बड़ा जमाई ठीक-ठाक है .लड़की का दिमाग़ ही चढ़ा हो तो मैं क्या कर सकता हूँ ?'
मेरे समझाने पर पर कि थोड़ा इंतज़ार करें ,सारे लोग लालची नहीं होते .
वे बोले,
'कहने को सब कह देते हैं ,मौका आने पर कोई कोई तैयार नहीं होता .तीन-तीन ब्याहने को बैठी हैं उनका भी सोचना है मुझे .लड़केवाले सीधे मुँह बात नहीं करते ..'
'ऐसी बात नहीं है ...'
वे कुछ तेज़ी पकड़ गये ,मेरी बात काट कर बोले-
'तो आप ही बताइये साहब,आप तैयार हो जाएँगे ?'
'मैं ..मैं, ' एकदम से मैं क्या बोलता?
'बस करने लगे न मैं-मैं ,..कोई कमी है मेरी बेटी में ..?
' कोई कमी नहीं, पर मुझे अभी थोड़ा समय है .कम से कम साल भर ..'
'वह कोई बात नहीं आप तैयार हों तो काफ़ी है हमारे लिए . तब तक हम विनीता रिश्ता खोज लेंगे -दो बेटियाँ एक साथ ब्याह देंगे.'
और फिर बात रास्ते पर आ गई
पहले तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ, फिर एक दम विनम्र हो गए .
मैंने कहा ,' मैं इससे पहले नहीं कर सकता ,तब तक आपको कोई और मिल जाय तो ...'
'कैसी बातें करते हैं हमारे लिए तो भगवान बन कर आए आप .अगर कोई और मिल भी जाय तो दो और बैठी हैं अभी..'
'जैसा आप चाहें.'
उस समय इतनी ही बात हुई .
*
सुमति को कुछ नहीं बताया था मैंने .
बाद में माँ से मिलने उसके पिता ही आए थे .
मिठाई ले कर आए थे ,माँ को नज़राने में इक्यावन रुपये दे गए .
उन्होंने मना किया तो कहने लगे ,' अरे हम ग़रीब लोग, समधिन जी ,आपके लिए कर ही क्या सकते हैं .ये तो मान का पान है. हमें उबार लिया आपने .'
बड़े खुश हो कर गए .माँ संतुष्ट थीं .
पिता की देखभाल भी मीता की जुम्मेदारी थी -छुट्टी में आ पाती थी .
तनय ने वहाँ जाकर सबसे यहाँ की सारी बातें फूँक दीं थीं.
विनय खुश थे, चलो अच्छा हुआ ,उन्हें लगा सारा कुछ मीता का किया धरा है
बोले थे ,' ब्रजेश की माँ को वचन दिया था न उसने ....'
*
अकेले में बैठे कभी-कभी बड़ी ऊब लगती है .
मन बड़ी उलझन में पड़ा रहता है .अचानक ही इतनी घटनाएँ घट गईं .बिना सोचे-समझे बाहरी परिस्थितियों को साधता मैं, जैसा बना, करता गया . अब उस पर सोचने बैठा हूँ .माँ ,मीता और वसु तीनों एक मत . . चढ़ा दिया सब ने और मैं बेवकूफ़ियाँ करता गया. मेरी बड़ी बुरी आदत है अपनी ही चलाने लगता हूँ मीता के साथ तो करता ही था उस दिन उसे भी अपनी अनुकूलता में घसीट लिया .वह तो लाचार थी ,मैंने अपनी धुन में कुछ सोचा-विचारा नहीं .बस माँ को तुष्ट करना चाहा था. निराशा न हो ,वे उदास न हों उस समय यही पूरा प्रयत्न रहा था.
मीता का कहा ध्यान में था ,'माँ के संस्कार पाये हैं तुमने .'
एक सुन्दर परिवार- जो माँ को नहीं मिल सका उनका सपना था ,जो बिखरे नहीं ,मन जिसमें रह कर प्रसन्न हो .
उन्होंने कहा था ,' आगे इसी धरती पर तो आना है ,तुम्हें और मुझे भी.
मुन्ना, अपने पुरखों के श्राद्ध हम करते हैं ,उनकी सारी अच्छाइयों का फल हम भोगते हैं तो अपराधों का प्रायश्चित कौन करेगा ?'
इतने दिन से बीमार माँ को दुख न पहुँचे ,उस दिन बस इतना ही ध्यान था.
*
मन कहीं टिक नहीं रहा.
ध्यान आ गया मीता के पारिवारिक जीवन का .
मैंने व्यस्त हो जाने के बारे में पूछा था , 'नौकरी करके कैसा लगता है ?'
'शरीर की थकान आसानी से दूर हो जाती है ,पर मन ऊबने लगे तो जीवन का उत्साह कम होने लगता है .इस हिसाब से पॉलिटेक्नीक का जॉब बहुत अनुकूल है . '
हाँ ,जॉब ले कर अच्छा किया उसने .संबंधों और परिवार की सीमाओं से कहीं थोड़ा छुटकारा बहुत ज़रूरी है ,मन के कुछ अकेले कोने ,कभी-कभी अपने लिए एकान्त चाहते हैं . कोई जगह जहाँ कुछ निजीपन बचा रह सके , जहाँ कभी अपने में ही रहने का अवसर रहे ,जहाँ अचानक छा जाते अनमनेपन का कोई कारण देना ज़रूरी न हो .कुछ साँसें ,दूसरे वायुमंडल से खींची जा सकें जहाँ .
मैं तुम्हारी स्थिति समझता हूँ ,कितना कठिन होता है घर में रह कर ही अपने को खपा देना ,मुक्ति का कोई रास्ता नहीं दिखता हो जहाँ .
अब मैं भी सचेत हो गया हूँ . सोच रहा हूँ .कितना मुश्किल हो जाता है हर समय अपनी मनस्थिति के लिए कोई समाधान किसी के सामने रखना .हमेशा सबके आगे प्रत्यक्ष होना. कभी अपने आप में रहने की सुविधा न हो जहाँ , कितना असह्य हो जाता होगा !
तभी मेरा मन विवाह के लिए तैयार नहीं होता .
उस दिन लिखते-लिखते बीच में छोड़ दिया था , डायरी सामने पड़ गई .
खोल कर देखने लगा.
पेन उठा लिया -
नाम लिख दिया था उस दिन तुम्हारा, पर वक्तव्य मेरा है.
बार-बार तुम्हारा वह प्रश्न सामने खड़ा हो जाता है - किसी से प्रेम करने से क्या अंतर का भंडार रीत जाता है ?प्रेम स्वभाव है .माँ बहन और बेटी में सोचो ज़रा.एक का प्यार दूसरे का हिस्सा कम कर देता है, क्या ?
हाँ,पारमिता .माँ, माँ रहेंगी ,जो तुम हो तुम रहोगी ,वसु वसु रहेगी .जो, जो है वही रहेंगा-भाव की भिन्नता है, बस!
अंदर ही अंदर बहुत कुछ उठता है - संबद्ध-असंबद्ध . जिसका पूरी तरह व्यक्त हो पाना कठिन होता है .थोड़ा चैन पड़ता है जब ,कुछ अपने मन का लिख लेता हूँ ,पर एक बार में थोड़ा -सा ही .मैं लेखन पटु नहीं हूँ .पर इससे क्या ?कौन सा किसी के सामने रखना है .अपनी बात अपने तक ही तो - बिलकुल निजी!
माँ की बीमारी में कितना कुछ घट गया , मैं तब सोचने -समझने की स्थिति में नहीं था.अब असुविधा अनुभव कर रहा हूँ . ठीक हुआ या ग़लत समझ में नहीं आता .ख़ुद अपना समाधान नहीं कर पा रहा,
अचानक ऐसा कुछ कर गया कि अब उससे बचने का उपाय नहीं . सब को संतोष है ,किसी को क्या फ़र्क पड़नेवाला है ?झेलना अकेले मुझे .मैं ही रह गया बीच में अकेला.कैसे निपटूँगा ?
अनमना मन भटक जाता है कुछ और नहीं लिख पा रहा . पेन और डायरी किनारे कर दी.
माँ की चिन्ता लग रही है .उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो रहा .
वसु है वहाँ, राय साब हैं ,उनका डाक्टर आता है .
मेरी माँ अपनी ओर से बहुत लापरवाह हैं , हमेशा की आदत है . कितनी बार कहो -चलो डाक्टर के पास .चट् मना कर देती हैं - ' मुझे वे दवाएँ नहीं पड़तीं ',
देसी दवाएँ और काढ़ों से काम चलातीं हैं .दवा के नाम ,वैद्य जी की पुड़िया उन्हें ठीक लगती है .डाक्टर की दवाओं से उन्हें उलझन होती है .'
ऊपर से , अपनी जान को दस काम लगाये रखती हैं - किसी को ना कहने की आदत नहीं .
साथ की शिक्षिका की बेटी का विवाह था . ठंड लग गई , किसी को बताया नहीं .हल्का ज्वर रहा तब भी ध्यान नहीं दिया. कमज़ोर तो थीं ही . अधिक शीत-घाम नहीं झेल पाईँ .खाँसी आने लगी थी .बाद में 15 दिन बिस्तर पर पड़ी रहीं .
समझ में नहीं आता क्या करूँ कि उनका दुख कम हो .क्या करूँ जिससे वे सुख का अनुभव करें . मेरा मन बहुत विचलित हो जाता था पर कहता किससे ,और कहने को था भी क्या/ बहुत चुप्पा-सा हो गया था. मन करता था उनके आँचल में मुँह छिपा लूँ ,आँसू बहा कर हल्का हो लूँ .पर कभी नहीं कर पाया .उन्हें दुखी करने का विचार भी गवारा नहीं होता.
माँ की गोद में सिर रख कर कभी रो नहीं सका .उन्हें अपना दुख दिखाता कैसे ? बहुत बातें , पर कह नहीं पाता था.लोगों के बहुत से व्यवहार बता नहीं पाता था . वह सब बीत गया , सब बदल गया लेकिन अब भी मन कैसा हो जाता है कभी-कभी .
मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है -बहुत दिनों तक मन भारी रहता है फिर अचानक अनायास कुछ याद आता है और अपने आप हँसी आ जाती है .
प्रकृति का यही विधान होगा कि मन का मौसम कुछ बदल जाए , संताप का सातत्य बिलकुल विषण्ण न कर दे.
और कुछ हुआ कि मुझे बैठे-बैठे हँसी आ गई .कोई देखे तो सोचेगा कैसा मूर्ख , अकेला बैठा हँस रहा है.
जाने कहाँ से भटकती एक पुरानी याद मन-मस्तिष्क में उदित हो गई -
उस दिन लाइब्रेरी गया था .पारमिता किसी लड़की के साथ बैठी पढ़ रही थी.
लड़की उठ कर किसी काम से बाहर गई ,पढ़ते-पढ़ते उसका मुँह कुछ खुला और टेढ़ा दाँत दिखाई देने लगा .इस ओर बैठे मैंने हाथ बढ़ा कर छूना चाहा उसने चौंककर सिर घुमाया, बोली ,' ये क्या ? जाने कहाँ का कैसा गंदा हाथ मेरे मुँह में लगा रहे हो ..'
'अच्छा ये बात है .अभी धो कर आता हूँ .फिर तो..'
''चलो हटो...'
हँसी आई थी उसे भी .मुँह फेर कर छिपाने की कोशिश कर रही थी.
कितने दिन बीत गये.तब हम लोग कॉलेज में थे.
वेतन ले लूँ बस ,मुझे माँ के पास जाना है .
*
(क्रमशः)
वसु माँ के पास रुक गई थी.
तनय का कहना था ,भइया अधिक छुट्टियाँ नहीं ले सकते .तुम्हीं रुक जाओ .माँ कुछ ठीक हो जायँ तो मैं ले जाऊँगा .मैंने कह दिया ,'उसकी चिन्ता न करो ,बाबू ,मैं ख़ुद पहुँचा आऊँगा.'
राय साब सारी खोज-खबर लेते रहते थे.उनसे बहुत सहारा था.
सुमति के जाने के पहले ही उसके पिता से मिलने गया था. चार पुत्रियों का पिता, जिसकी आय का स्रोत साधारण क्लर्की हो, वही हाल था.
पहले स्पष्ट किया मैंने ,'मेरी बहिन और और आपकी बेटी में पॉलिटेक्नीक की सर्विस के दौरान मित्रता हुई थी.
उन्हीं ने आपसे कुछ कहने को मुझे भेजा है. आपकी बेटी जीजा से विवाह करने को तैयार नहीं. उस पर ज़ोर डालने का नतीजा बुरा भी हो सकता है .'
उनने अपनी विवशताएँ बताईं .बोले,' उसके मन का वहम है ,बड़ा जमाई ठीक-ठाक है .लड़की का दिमाग़ ही चढ़ा हो तो मैं क्या कर सकता हूँ ?'
मेरे समझाने पर पर कि थोड़ा इंतज़ार करें ,सारे लोग लालची नहीं होते .
वे बोले,
'कहने को सब कह देते हैं ,मौका आने पर कोई कोई तैयार नहीं होता .तीन-तीन ब्याहने को बैठी हैं उनका भी सोचना है मुझे .लड़केवाले सीधे मुँह बात नहीं करते ..'
'ऐसी बात नहीं है ...'
वे कुछ तेज़ी पकड़ गये ,मेरी बात काट कर बोले-
'तो आप ही बताइये साहब,आप तैयार हो जाएँगे ?'
'मैं ..मैं, ' एकदम से मैं क्या बोलता?
'बस करने लगे न मैं-मैं ,..कोई कमी है मेरी बेटी में ..?
' कोई कमी नहीं, पर मुझे अभी थोड़ा समय है .कम से कम साल भर ..'
'वह कोई बात नहीं आप तैयार हों तो काफ़ी है हमारे लिए . तब तक हम विनीता रिश्ता खोज लेंगे -दो बेटियाँ एक साथ ब्याह देंगे.'
और फिर बात रास्ते पर आ गई
पहले तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ, फिर एक दम विनम्र हो गए .
मैंने कहा ,' मैं इससे पहले नहीं कर सकता ,तब तक आपको कोई और मिल जाय तो ...'
'कैसी बातें करते हैं हमारे लिए तो भगवान बन कर आए आप .अगर कोई और मिल भी जाय तो दो और बैठी हैं अभी..'
'जैसा आप चाहें.'
उस समय इतनी ही बात हुई .
*
सुमति को कुछ नहीं बताया था मैंने .
बाद में माँ से मिलने उसके पिता ही आए थे .
मिठाई ले कर आए थे ,माँ को नज़राने में इक्यावन रुपये दे गए .
उन्होंने मना किया तो कहने लगे ,' अरे हम ग़रीब लोग, समधिन जी ,आपके लिए कर ही क्या सकते हैं .ये तो मान का पान है. हमें उबार लिया आपने .'
बड़े खुश हो कर गए .माँ संतुष्ट थीं .
पिता की देखभाल भी मीता की जुम्मेदारी थी -छुट्टी में आ पाती थी .
तनय ने वहाँ जाकर सबसे यहाँ की सारी बातें फूँक दीं थीं.
विनय खुश थे, चलो अच्छा हुआ ,उन्हें लगा सारा कुछ मीता का किया धरा है
बोले थे ,' ब्रजेश की माँ को वचन दिया था न उसने ....'
*
अकेले में बैठे कभी-कभी बड़ी ऊब लगती है .
मन बड़ी उलझन में पड़ा रहता है .अचानक ही इतनी घटनाएँ घट गईं .बिना सोचे-समझे बाहरी परिस्थितियों को साधता मैं, जैसा बना, करता गया . अब उस पर सोचने बैठा हूँ .माँ ,मीता और वसु तीनों एक मत . . चढ़ा दिया सब ने और मैं बेवकूफ़ियाँ करता गया. मेरी बड़ी बुरी आदत है अपनी ही चलाने लगता हूँ मीता के साथ तो करता ही था उस दिन उसे भी अपनी अनुकूलता में घसीट लिया .वह तो लाचार थी ,मैंने अपनी धुन में कुछ सोचा-विचारा नहीं .बस माँ को तुष्ट करना चाहा था. निराशा न हो ,वे उदास न हों उस समय यही पूरा प्रयत्न रहा था.
मीता का कहा ध्यान में था ,'माँ के संस्कार पाये हैं तुमने .'
एक सुन्दर परिवार- जो माँ को नहीं मिल सका उनका सपना था ,जो बिखरे नहीं ,मन जिसमें रह कर प्रसन्न हो .
उन्होंने कहा था ,' आगे इसी धरती पर तो आना है ,तुम्हें और मुझे भी.
मुन्ना, अपने पुरखों के श्राद्ध हम करते हैं ,उनकी सारी अच्छाइयों का फल हम भोगते हैं तो अपराधों का प्रायश्चित कौन करेगा ?'
इतने दिन से बीमार माँ को दुख न पहुँचे ,उस दिन बस इतना ही ध्यान था.
*
मन कहीं टिक नहीं रहा.
ध्यान आ गया मीता के पारिवारिक जीवन का .
मैंने व्यस्त हो जाने के बारे में पूछा था , 'नौकरी करके कैसा लगता है ?'
'शरीर की थकान आसानी से दूर हो जाती है ,पर मन ऊबने लगे तो जीवन का उत्साह कम होने लगता है .इस हिसाब से पॉलिटेक्नीक का जॉब बहुत अनुकूल है . '
हाँ ,जॉब ले कर अच्छा किया उसने .संबंधों और परिवार की सीमाओं से कहीं थोड़ा छुटकारा बहुत ज़रूरी है ,मन के कुछ अकेले कोने ,कभी-कभी अपने लिए एकान्त चाहते हैं . कोई जगह जहाँ कुछ निजीपन बचा रह सके , जहाँ कभी अपने में ही रहने का अवसर रहे ,जहाँ अचानक छा जाते अनमनेपन का कोई कारण देना ज़रूरी न हो .कुछ साँसें ,दूसरे वायुमंडल से खींची जा सकें जहाँ .
मैं तुम्हारी स्थिति समझता हूँ ,कितना कठिन होता है घर में रह कर ही अपने को खपा देना ,मुक्ति का कोई रास्ता नहीं दिखता हो जहाँ .
अब मैं भी सचेत हो गया हूँ . सोच रहा हूँ .कितना मुश्किल हो जाता है हर समय अपनी मनस्थिति के लिए कोई समाधान किसी के सामने रखना .हमेशा सबके आगे प्रत्यक्ष होना. कभी अपने आप में रहने की सुविधा न हो जहाँ , कितना असह्य हो जाता होगा !
तभी मेरा मन विवाह के लिए तैयार नहीं होता .
उस दिन लिखते-लिखते बीच में छोड़ दिया था , डायरी सामने पड़ गई .
खोल कर देखने लगा.
पेन उठा लिया -
नाम लिख दिया था उस दिन तुम्हारा, पर वक्तव्य मेरा है.
बार-बार तुम्हारा वह प्रश्न सामने खड़ा हो जाता है - किसी से प्रेम करने से क्या अंतर का भंडार रीत जाता है ?प्रेम स्वभाव है .माँ बहन और बेटी में सोचो ज़रा.एक का प्यार दूसरे का हिस्सा कम कर देता है, क्या ?
हाँ,पारमिता .माँ, माँ रहेंगी ,जो तुम हो तुम रहोगी ,वसु वसु रहेगी .जो, जो है वही रहेंगा-भाव की भिन्नता है, बस!
अंदर ही अंदर बहुत कुछ उठता है - संबद्ध-असंबद्ध . जिसका पूरी तरह व्यक्त हो पाना कठिन होता है .थोड़ा चैन पड़ता है जब ,कुछ अपने मन का लिख लेता हूँ ,पर एक बार में थोड़ा -सा ही .मैं लेखन पटु नहीं हूँ .पर इससे क्या ?कौन सा किसी के सामने रखना है .अपनी बात अपने तक ही तो - बिलकुल निजी!
माँ की बीमारी में कितना कुछ घट गया , मैं तब सोचने -समझने की स्थिति में नहीं था.अब असुविधा अनुभव कर रहा हूँ . ठीक हुआ या ग़लत समझ में नहीं आता .ख़ुद अपना समाधान नहीं कर पा रहा,
अचानक ऐसा कुछ कर गया कि अब उससे बचने का उपाय नहीं . सब को संतोष है ,किसी को क्या फ़र्क पड़नेवाला है ?झेलना अकेले मुझे .मैं ही रह गया बीच में अकेला.कैसे निपटूँगा ?
अनमना मन भटक जाता है कुछ और नहीं लिख पा रहा . पेन और डायरी किनारे कर दी.
माँ की चिन्ता लग रही है .उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो रहा .
वसु है वहाँ, राय साब हैं ,उनका डाक्टर आता है .
मेरी माँ अपनी ओर से बहुत लापरवाह हैं , हमेशा की आदत है . कितनी बार कहो -चलो डाक्टर के पास .चट् मना कर देती हैं - ' मुझे वे दवाएँ नहीं पड़तीं ',
देसी दवाएँ और काढ़ों से काम चलातीं हैं .दवा के नाम ,वैद्य जी की पुड़िया उन्हें ठीक लगती है .डाक्टर की दवाओं से उन्हें उलझन होती है .'
ऊपर से , अपनी जान को दस काम लगाये रखती हैं - किसी को ना कहने की आदत नहीं .
साथ की शिक्षिका की बेटी का विवाह था . ठंड लग गई , किसी को बताया नहीं .हल्का ज्वर रहा तब भी ध्यान नहीं दिया. कमज़ोर तो थीं ही . अधिक शीत-घाम नहीं झेल पाईँ .खाँसी आने लगी थी .बाद में 15 दिन बिस्तर पर पड़ी रहीं .
समझ में नहीं आता क्या करूँ कि उनका दुख कम हो .क्या करूँ जिससे वे सुख का अनुभव करें . मेरा मन बहुत विचलित हो जाता था पर कहता किससे ,और कहने को था भी क्या/ बहुत चुप्पा-सा हो गया था. मन करता था उनके आँचल में मुँह छिपा लूँ ,आँसू बहा कर हल्का हो लूँ .पर कभी नहीं कर पाया .उन्हें दुखी करने का विचार भी गवारा नहीं होता.
माँ की गोद में सिर रख कर कभी रो नहीं सका .उन्हें अपना दुख दिखाता कैसे ? बहुत बातें , पर कह नहीं पाता था.लोगों के बहुत से व्यवहार बता नहीं पाता था . वह सब बीत गया , सब बदल गया लेकिन अब भी मन कैसा हो जाता है कभी-कभी .
मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है -बहुत दिनों तक मन भारी रहता है फिर अचानक अनायास कुछ याद आता है और अपने आप हँसी आ जाती है .
प्रकृति का यही विधान होगा कि मन का मौसम कुछ बदल जाए , संताप का सातत्य बिलकुल विषण्ण न कर दे.
और कुछ हुआ कि मुझे बैठे-बैठे हँसी आ गई .कोई देखे तो सोचेगा कैसा मूर्ख , अकेला बैठा हँस रहा है.
जाने कहाँ से भटकती एक पुरानी याद मन-मस्तिष्क में उदित हो गई -
उस दिन लाइब्रेरी गया था .पारमिता किसी लड़की के साथ बैठी पढ़ रही थी.
लड़की उठ कर किसी काम से बाहर गई ,पढ़ते-पढ़ते उसका मुँह कुछ खुला और टेढ़ा दाँत दिखाई देने लगा .इस ओर बैठे मैंने हाथ बढ़ा कर छूना चाहा उसने चौंककर सिर घुमाया, बोली ,' ये क्या ? जाने कहाँ का कैसा गंदा हाथ मेरे मुँह में लगा रहे हो ..'
'अच्छा ये बात है .अभी धो कर आता हूँ .फिर तो..'
''चलो हटो...'
हँसी आई थी उसे भी .मुँह फेर कर छिपाने की कोशिश कर रही थी.
कितने दिन बीत गये.तब हम लोग कॉलेज में थे.
वेतन ले लूँ बस ,मुझे माँ के पास जाना है .
*
(क्रमशः)
प्रेम तो स्वभाव है...वह चुक नहीं सकता और जहाँ एक बार ठहर गया हो वहाँ से उतर भी नहीं सकता...प्रेम तो सारी समष्टि पर छा जाना चाहता है फिर भी कृष्ण की भी एक ही राधा थी...
जवाब देंहटाएंकथांश का यह भाग भी एक साँस में पढ़ गयी मीता और वसु के बीच दोनों के नाम से कुछ अक्षर चुरा कर सुमति आ गयी है इसे सुखांत बनाने...
माँ!
जवाब देंहटाएंपिछले कथांश में जो आहट सुनने को मिली थी आज किवाड़ खोला तो वही सामने खड़ी थी. कोई आश्चर्य नहीं, बल्कि एक खुशी महसूस हुई, मैं तो बस प्रतीक्षा कर रहा था कि यह रिश्ता बनाने का प्रसंग आप कैसे गढती हैं. बस पढता हुआ मैं भी मुस्कुरा रहा था और आसपास देख लेता था कि कोई मुझे अकेले मुस्कुराते देख पागल न समझे!!
अब जब यह लगने लगा है कि सबको सबकुछ मिल गया, तो न जाने क्यों एक डर सा भी समाता जा रहा है मन में. वो माँ की बीमारी को लेकर है, क्योंकि उनका ईलाज सही नहीं हो रहा. यह किसी अनिष्ट का पूर्वाभास न हो ईश्वर करे! जब सब कुछ ठीक ठाक हो रहा है तो उस बेचारी ने, जिसने सारा जीवन तिनका तिनका जोड़कर घरौंदा बनाया वो यह भी न देख सकी ठीक से कि सारे परिन्दे अपने अपने घोंसले में सकुशल और प्रसन्न हैं!
अंतिम पंक्तियों पर (ब्रजेश के फ़्लैश बैक में) एक बार फिर से मुस्कुराहट आ गई होंठों पर. माँ, आप रोमाण्टिक सीन बहुत ही ख़ूबसूरत लिखती हैं. भला कौन सोच सकता है कि किसी का बाहर निकला दाँत छूने की रोमाण्टिक हिमाकत कोई चाहने वाला करेगा!
कथांश की अब प्रतीक्षा भी रहने लगी है और पढने बैठता हूँ तो बस एक साँस में समाप्त!!
रोमांटिक सीन ! हाँ ,सलिल आखिर को उपन्यास है ,और टीवी सीरियल्स ,मूवीज़ के ज़माने में पढ़नवालों का भी ध्यान रखना ज़रूरी है . रोमांटिक दृष्यांकन में संभावनाएँ बहुत मिल जाती हैं ,वहाँ औचित्य कोई समस्या नहीं लोग इन्ज्वाय भी उसी मूड में करते हैं ,सो बीच-बीच में डाल देती हूँ कि लो भई ,थोड़ा अचार चटनी भी...चाहिये न ! .
हटाएंलेकिन ऐसा कही नही लगता कि रोमांस कल्पना से गढ़ा गया है .
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27-11-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1810 में दिया गया है
जवाब देंहटाएंआभार
आभारी हूँ ,विर्क जी !
हटाएंपिछली कड़ियाँ नहीं पढ़ पाया..अब शुरू से पढ़ता हूँ...
जवाब देंहटाएंदो मास उपरान्त -भारत से लौटने पर आज ही पढ़ सकी हूँ । अत: इतना
जवाब देंहटाएंविलम्ब हुआ । कथा के प्रवाह के साथ मन बहता चला गया । सारी ही
घटनाएँ बड़ी सहजता और स्वाभाविकता से आगे बढ़कर मन को भी
आश्वस्त कर रही हैं । बीच में अचार, चटनी का भी स्वाद मिल गया तो
मज़ा आया । साधुवाद !
अचार चटनी के साथ कथांश स्वादिष्ट लगा :)
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