बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

कथांश - 21 .

*
 मेहमान को बोर नहीं होने दिया था विनय ने .  मेहमान ही तो था मैं वहाँ ,घूम कर लौटने का बाद  देर रात तक बातें चलती रहीं.
वे ही सूचनाएँ देते रहे -तनय अपने ताऊ जी के यहाँ है,शुरू से लगाव रहा है उनसे .जुटा है कुछ न कुछ करके ही दम लेगा .स्कूल कॉलेज में पढ़ाना उसके बस का नहीं ,कई जगह हाथ-पैर मार रहा है .
फिर पूछा था, ' बंधु-बांधवों में एक आप ही का नाम लेती हैं वह, तो ..शादी में नहीं आए आप ?
'उन्ही दिनों मेरी ट्रेनिंग शुरू हुई थी .फिर मैंने ये भी सोचा ,मैं कोई सगा या रिश्तेदारों में तो हूँ नहीं.इस मौके पर बहुत से अपने भाई-बंधु, आएँगे उनमें हमारी पैठ कहाँ  ..?'
'ये तो है .हमें भी लगता है रिश्तेदारों के घेरों से अपना अलग अच्छे ! लगता है जैसे इनमें हम फ़ालतू फँस गए हों. बेकार में  उनकी निगाहें क्यों झेलो. ...पर हाँ  असली ज़रूरत पर आप ही खड़े रहे.'
'असली ज़रूरत ?'
  'कॉलेज के छोकरों  से उसकी ढाल बने चोटें खाते रहे रहे ,और हमारे सुपुर्द कर दिया.ये एहसान कैसे भूल सकते हैं हम !'
'अरे  ,कॉलेज में तो ये सब चलता है .'
'बता रही थी आपके कारण लोगों की ऐसी-वैसी  हिम्मत नहीं पड़ती थी ,जानते थे ब्रजेश से पंगा लेना महँगा पड़ेगा.'
पारमिता ने विनय को बता रखा था कि विषम स्थितियों में उसे मैं ने  ही साधा .अकेली थी ,किसी से बोलती -चालती नहीं तो लड़कों को लगता अपने आप को जाने क्या समझती है ,घमंडी कहीं की  - इसे सबक़ सिखाना चाहिये .
  'उस समय स्थिति को आपने सँभाला नहीं तो पता नहीं क्या होता !'
मैं क्या कहता ,चुप रहा .
विनय कहे जा रहा था ,'  हमें सब मालूम है ,एक बार तो   चार-चार  से अकेले निपटे थे .वो सबक सिखाने पर तुले थे .झगड़े में उन्हें तो समझा  दिया पर ख़ुद ने  मार खाई .किसी को क्या ,मीता तक को बताया नहीं ,वो तो इसकी सहेली वाणी से पता लगा उसे ,तब तुम्हें देखने गई थी .'
'जिसे जानता हूँ उस लड़की के लिए मेरा  फ़र्ज़ बनता है .कोई दूसरी होती तो भी कोशिश भर बचाता .'
'फिर भी तुमने अपना हक़ नहीं जमाया सुरक्षित मुझे सौंप दिया.कौन कर  पाता है ऐसा !'
'रिश्तेदारी जुड़ गई थी , इनकी बुआ जी ने माँ को बहिन मान लिया था '
'असली रिश्ता तो वही जो ज़रूरत पर काम आए. सच्ची ब्रजेश ', फिर अटक गया विनय , 'नाम ले सकता हूँ न तुम्हारा ,मेरी पत्नी के बंधु ,मेरे दोस्त ही तो ..'
'नहीं ,नहीं ,विनय बाबू मैंने ऐसा कोई बड़ा काम नहीं किया.मैं इस योग्य था भी नहीं .'
'यह मत कहिये .कहीं कोई कमी नहीं .कैरियर की भी इतनी अच्छी शुरुआत !मीता तो करती ही है मैं भी आपका बहुत सम्मान करता हूँ . यहाँ तो तन्नू -कह देता है हमें नहीं बनना टीचर- फटीचर .'
'आप मेरी बांधवी के पति हैं मेरे माननीय.हमारी तो नौकरी है ,ज्ञान की  यह प्यास कहाँ !'
'अरे ,छोड़ो यार हम दोनों दोस्त हुए आज से -लाओ हाथ मिलाओ !' 

'जो आपसे पढ़ ले सच में बन जायेगा विनय बाबू ,उल्लू बनाने की टालू विद्या आपके बस की नहीं .सच में विद्यानुरागी हैं आप !'
तभी पारमिता आ गई ,'ये कैसा हथलेवा हो रहा है ,भई?'
'तुम्हारा साथ और इनका हाथ दोनों मेरे, '
मुझे हँसी आ गई .

' हाँ,हाँ, क्यों नहीं ?'
'माँ ने तो कभी अलग समझा नहीं.' 
'उन्हें इनका  बड़ा सहारा था .'
'उन्हें अपनी माँ कहती हैं ये,.और था ही कौन इन का.... '
'सच में ..'
 *
खाना खा कर बराम्दे के वाशबेसिन पर हाथ धो रहा था कान में उन लोगों की आवाजें आ रहीं थीं-
विनय के शब्द ,' झोंका हवा का, पानी का रेला.मेले में रह जाए जो अकेला. इसे छुट्टा मत छोड़ना  अकेला रहा तो बिखरता चला जाएगा.हिल्ले से लगा दो इसे भी.'
'इसे भी से क्या मतलब ?'
'जैसे मुझे लगाया है .'
तुम्हें हिल्ले से लगाया मैंने !ये क्यों नहीं कहते कि मुझे रेस्ट्रिक्ट कर दिया तुमने ?'
'अरे, रस्सी को तो बँधना ही पड़ता है .'
'अपनी ऊलजलूल फ़िलासफ़ी अपने पास रखो .'
'देखो .और तो  कोई है नहीं एक तुम्हीं उसकी बाँधवी हो ,भला-सा लड़का है सो चेता रहा हूँ ..'
'तुम्हीं समझाओ न !मेरी माँ जैसी थीं वे .उनके दुख में मैं भी, इन्वाल्व हो जाती हूँ .फिर कुछ कहते नहीं बनता .'
' प्रेक्टिकल बनाने की कोशिश करता हूँ मैं तो  ..पर खूंटे वाली रस्सी गले पड़ेगी नही तो  सिर उठाए जहाँ-तहाँ भागता फिरेगा .'
बड़े पते की बातें करते हो तुम तो ..काफ़ी तेज़ आदमी हो.'
'दिमाग से काम लेता हूँ न ..'
आते-आते तारतम्य में मैंने अपनी ठोंक दी ,'ये दिमाग की बात कहाँ से आ गई .'
'इन्हें समझा रहा हूँ ,ये दुनिया को अपनी ही तरह देखती हैं .'


सब कुछ बड़ी आसानी से चल रहा था लेकिन उसी रात को एक गड़बड़ हो गई -
भोजन और गप्पबाज़ी से छुट्टी पा कर अपने कमरे में आया .सोने के पहले  ब्रश करने चला गया था .वहाँ से बाहर सड़क दिखाई देती है. जाने क्या सोचता खड़ा रह गया वहाँ  .कमरे में जा रहा था,बत्ती नहीं जलाई -कमरों की रोशनी की उजास, बरामदा पार करने को काफ़ी लगी.कुछ कदम चला था कि  अचानक दिख गया -मीता की गोद में सिर रखे विनय लेटा-लेटा कुछ कह रहा था, वह उसकी ओर देख कर हँस रही थी .
उनके शयन कक्ष की

 खिड़की के आधे हिस्से में  पर्दा लगा है .नीचे का स्प्रिंग बीच से कुछ ऊपर खिंच गया था, नीचे से गैप बनाता हुआ . अनायास दृष्टि उधर चली गई  मुझे नहीं पता था उन लोगों का शयन कक्ष है ये .नाइट गाउन पहने  वह .गोद में लेटा उसका चेहरा देखता विनय कुछ कहता जा रहा है .वह हँस रही है उसका टेढ़ावाला दाँत रोशनी में चमक गया .
 मैं स्तब्ध - सा ,आँखें फाड़े वहीं के वहीं खड़ा रह गया !फिर सँभला और  आँखें फेर कर तुरंत आगे चल दिया 
 अपने आप पर शर्मिन्दा हो उठा .जितना हटाता हूँ उतना ही ध्यान आता है .उफ़् नहीं सोचूंगा..बिलकुल नहीं . कौन सी गलत बात  ? वह उसकी पत्नी है . मुझे नहीं सोचना चाहिये .
 नहीं, मैंने कभी नहीं चाहा था .उनके शयन-कक्ष में झाँकना, मुझे अनुमान भी नहीं था .अब इधर बिलकुल  नहीं आऊँगा .
नहीं मुझे बुरा नहीं लगा .क्यों लगेगा? 

एकदम अजीब सा लगा- ऐसे- कभी देखा नहीं था न . नाइट गाउन पहने और वह  ...जाने दो ...मुझे क्या करना .... नहीं ,नहीं,मुझे नहीं सोचना चाहिये .
पर कहीं कोई देख लेता तो ... ?
हे भगवान् , ये क्या हो गया !

*
(क्रमशः)

6 टिप्‍पणियां:

  1. शकुन्तला बहादुर1 अक्तूबर 2014 को 7:14 pm बजे

    ब्रजेश ने स्वयं को सँभाल लिया है - यह सन्तोष की बात है । विनय और ब्रजेश का वार्तालाप स्वाभाविक मित्रों जैसा है , जो पारमिता के स्वभाव की निश्छलता को सिद्ध करता है । अपने पूर्व जीवन की घटनाओं से पति को परिचित कराना - उसके विश्वास का प्रमाण है ।ब्रजेश की परिवर्तित मानसिकता मन को आश्वस्त करती है । सारी घटनाएँ बड़ी सोच समझ के साथ उद्घाटित हो रही हैं । कथांश रुचिकर लगा ।।

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  2. माँ!
    बड़ी ही सहज सी घटनाएँ रहीं इस कथांश की. बिरजू और विनय की बातचीत आत्मीय लगी. हाँ ब्रजेश की शब्दावलि पुन: पहली सी हो गई दिखी. चरित्र इतने आदर्श गढ़े गये हैं कि विनय का पनी पत्नी के मुख से अपने सखा के विषय में बहुत कुछ पता चलता है और वो बिल्कुल सहज व्यवहार करता है. परिस्थितियाँ, घटनाएँ और ब्रजेश के व्यवहार से विनय की जगह कोई भी होता तो वो उनके सम्बन्धों पर सन्देह कर सकता था. किंतु यहाँ मैं पुन: अपने अनुभव से यह कह सकता हूँ कि यदि विनय के मन में तिल भर का भी सन्देह रहा हो तो उसने अपनी महानता का परिचय ही दिया कि अपने प्रेम से उस तिल को ताड़ बनने से रोक ले और शायद यही विनय ने किया.

    अंतिम उप-अंश में ब्रजेश के मन की कशमकश को सोलिलोक्वीज़ के रूप में दर्शाया है. यहाँ मुझे ऐसा लगता है माँ कि आपका लेखिका के रूप में कथा में प्रवेश करना बहुत ज़रूरी था. आपके शब्दों में (ब्रजेश के सम्वादों के स्थान पर उसके द्वारा उसकी मनोदशा के विवरण के रूप में) वह अवश्य ही उभर कर सामने आता. क्योंकि यह वो दृश्य था जो ब्रजेश के लिये परीक्षा से कम नहीं!

    घटनाक्रम बहुत ही व्यवस्थित रूप से आगे बढ रहे हैं. माँ, आपको दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  3. अच्छा किया सलिल ,तुमने अपना विचार बता दिया
    अभी तो लिखे जा रही हूँ ,एक बार पूरा हो जाए फिर सब देखना तो होगा ही !

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  4. विनय की बातों में कहीं कहीं वह झलक रहा है जो कहा नही गया है । इसे ही ध्वनि कहते हैं । कुछ आचार्यों ने ध्वनि को काव्य की आत्मा कहा है । ध्वन्यात्मता श्रेष्ठ साहित्य का लक्षण माना गया है । जाहिर है कि आपकी इस कथांश-माला में ध्वनि का अनुभव पग पग पर होता है । मीता के प्रति ब्रजेश की भावनाएं अभी भी हल्की सी चिनगारी का संकेत देतीं हैं जो अत्यन्त स्वाभाविक है । जबकि मीता काफी सहज होचुकी है । नारी के स्वभाव का यही लचीलापन उसे बचाए रखता है । मनोदशा का ऐसा सहज चित्रण बहत ही कम देखने मिलता है । मैं तो चाहकर भी ऐसा करने में असमर्थ हूँ ।

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  5. hmm, :(
    sab kuch achha achha smooth smooth chal raha hai.we sambandh ..ya sahi kahoon to we bhavnatmak sambandh jo mann aur avchetan se aur me jode gaye the..unme sehajta kee aahat mil rahi hai. Vinay ka suljha hua vyavhar..mitravatt pesh aana mujhe thoda sa aashankit bhi kar raha hai. saari shubh bhavnaon aur vishwas ke itar mujhe ye bhi prateet hota hai ki Vinay ka purush mann sambhat: Meeta aur Brajesh kii mitrata kee seemayein tatolne kaa prayas kar raha ho sakta hai.halanki shayankash me pati patni ke beech ka vyavhar ashwast karta hai..fir bhi mera mann ek pratishat sandeh to rakhna chahta hi hai.shayad nakaratmakta adhik haavi hai is kshan athva kuch alag kehna chahti houngi...:(

    (manushya ka mann bhi na kitna ajeeb hota hai...pichhle ank me main minnat kar rahi thi k sab achha achha ho vasu tanay ke beech..aur kathansh me bhi...magar sab sahi sahi chlta hai to shankayein bhi sar uthati hi hain aur mann bhi sau pratishat aashwast nahin hona chahta.ya mera mind set hai..ki kahaniyan/upanyas uljhi hui paristhiyon se hi bante hain...jab sab smooth ho drishya me to agla drishya sambhvat: apne sath adhil uljhanaein aur dwand lekar aaye..!! )

    :-| kitta chhotu ansh tha !!

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