*
पीछे वाले क्रीक के दोनों ओर बाजरे जैसी कलगी वाली लंबी-लंबी घासें उग आई हैं.फिर ऊँचे पेड़ों की पाँत, साइकिल और पैदल वालों की लेन के बीच के ढाल को , कवर करती हुई . सड़क की सतह लेन से भी कुछ ऊँची और बीच में फिर वनस्पतियों का भराव .ऊँचे पेड़ों के साथ रोज़मेरी और अन्य झाड़ियों की पूरी शृंखला साथ चलती है .कहीं-कहीं काँटेदार ब्लैक-बेरीज़ भी हैं .
आगे जाकर क्रीक का प्रवाह ताल में परिणत हो गया है.अच्छा जीवन्त है ताल - मछलियाँ ,बगुले ,सुना है कछुए भी हैं .पर बतखें तो खूब हैं ,'क्वेक-क्वेक' करती जल में तैरती रहती हैं .अब तो लोगों ने वहाँ मछलियाँ पकड़ना भी शुरू कर दिया है.
आसमान में बक-पंक्ति की उड़ान जब-तब लहरा जाती है .ताल में भी एक टाँग पर खड़े ध्यानस्थों के दर्शन सुलभ हैं .जल-पक्षियों की क्रेंकार से परिवेश मुखरित रहता है.पेड़ और झाड़ियाँ तो चारों ओर हैंं ही , दो ओर खुली जगह भी, जिन पर पड़े बड़े-बड़े पत्थरों पर आराम से बैठा जा सकता है.अब दो बेंचें भी आ गई हैं . हरे भरे पेड़ों के नीचे बैठने का अपना ही आनन्द है.पहले अक्सर से खाली रहती थीं . अब लोग आने लगे हैं ,अपने बच्चों को भी लाते हैं, जल-पक्षी दिखाने.
खेल-खेल में बच्चे खाने की चीज़ें बतखों को भी डालने लगे.
जब से बच्चों ने खाने की चीज़ें डालना शुरू किया वे परच गईं, लोगों को देखते ही सजग हो जाती हैं हैं , लोग भी उन्हें चुगाने का आनन्द उठाने लगे .जब बतखें चोंचें फैला कर लपकती हैं , बच्चे उछलते हैं.
सब ख़ुश हो कर देखते हैं वह तमाशा !
इस साल ताल को काफ़ी सँवारा गया.जाड़े बीतते ही चहल-पहल भी बढ़ने लगी -बच्चों के साथ बड़े भीउन्हें खिलाने को दाने या ब्रेड के पीसेज़ आदि लाने लगे .वे भी खूब हिल गईँ , जल से बाहर आने लगीं .शुरू में दो-चार आईँ ,देखा-देखी हिम्मत बढ़ने लगी . अब तो 20-20,25-25 के झुंड निकल आते हैं .खाना डालने बाले बच्चों के हाथ से भी झपटने की कोशिश कर लेती हैं, कोई- कोई तो . जब वे ब्रेड के टुकड़े फेंकते हैं और वे फ़ुर्ती से बीच हवा में लपक लेती हैं.
पहले बतखें मुझसे डरती थीं .पानी के समीप जाऊँ तो एक ओर सिमट जाती थीं .
सब को देख कर मैं भी खाने की चीज़ें लाकर डालने लगा . थोड़ा-थोड़ा फेंकता रहता ,वे पास आ जातीं उछल-उछल कर खाती रहतीं .एक क्रम-सा बन गया था.वे भी खुश ,हम भी खुश !
मौसम ने करवट ली .दिन छोटे होने लगे ,सब अपने में व्यस्त होने लगे गए .झील पर आना कम हो गया
फिर आईँ बड़े दिन की छुट्टियाँ .क्रिसमस की हलचल, मनोरंजन के नये विषय. सब अपने आयोजनों-प्रयोजनों में लीन हो गए .
बतखों को कौन याद रखता !
हवाओं में ठंडक घुल गई.ताल पर आने का क्रम भंग होने लगा .बतखों पर मौसम का कोई असर नहीं था,उनकी शामें अब सुनसान हो गईं. झटका लगा होगा ज़रूर .सोचती होंगी कैसे होते हैं आदमी लोग ?
तब सब खुश हो-हो खिलाते थे ,उत्साह से बतखें दौड़ी चली आती थीं .एकदम सब बंद हो गया .पर उनकी खाने की आदतें बदल गईं .
हम लोग भी तो - पहले कैसे थे , और अब ?
वे आशा लगाए प्रतीक्षा करती , निराश होती रहीं .
इधर कुछ दिनों से घर पर अकेला हूँ .ताल पर आना कम हो गया है.बच्चों की भी छुट्टियाँ .झील के किनारे कोई नहीं होता .कभी-कभी अकेले ऊब लगने पर वहीं बेंच पर जा बैठता हूँ .आज फिर निकल गया .उधरवाली बेंच पर बैठ गया .सन्नाटा पड़ा था . अक्सर ही घर से नहीं आता .वैसे भी अकेला होने पर ध्यान नहीं रहता, खाली हाथ चला आता हूँ
अब शाम होते-होते यहाँ सन्नाटा पसर जाता है .
मुझे देख ताल में तैरती बतखों की गतिशीलता बढ़ गई .वे इधर ही तैरती आ रही हैं .किनारे तक आकर ठहर गईँ हैं.
इसी ओर देख रही हैं ,मेरी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं .
एकाध झिझकती सी मेरी ओर आने लगी .मैं चुप देखता रहा .
वे इस ओर सूखे में आ गईँ. मेरी ओर ताके जा रहीं ,वे आशा लगाए हैं कुछ मिलेगा.पर मेरे हाथ खाली हैं.
'क्वेक-क्वेक' की आवाज़ें उठ रही हैं . वे खाना माँग रही हैं .
'लाओ ,लाओ खाना .हम भूखे हैं...' ,उनकी शिकायतें जारी हैं.
उन्हें खाना चाहिये पेट भरने को !
लगा जैसे कह रही हों-और कुछ नहीं चाहिये हमें, न कपड़े न घर ,न कोई साज सामान ,सिर्फ़ खाना!..
सारा समेट लिया तुमने हमारी भूख का तमाशा बनाए हो -कैसी मन मानी !'
एकाध बेंच के पास तक चली आई .छोटीवाली बढ़ कर मेरे पांवों तक आ गई .जैसे कह रही हो ,'खाना लाओ, लाओ' .
लगातार मेरी ओर देख रही है.
पीछे-पीछे दूसरी आ कर खड़ी हो गई .अरे, एक और, फिर और. उधर से वे सब इधर चली आ रही हैं- पूरा झुंड का झुंड.
उन्हें खाना चाहिये -वे इकट्ठी हो गई हैं .
'क्वेक-क्वेक, क्रें-क्रें, ' के स्वरों में तीखापन आता जा रहा है ,जैसे क्रोध से भरती जा रही हों .
मैं चुपचाप बैठा हूँ . कुछ नहीं लाया हूँ उनके लिए .एक बढ़ती हुई मेरे पाँव तक चली आई .दूसरी उसके पीछे है .पास में दो-तीन और शिकायत भरी निगाहों से देखे जा रही है .
मैंने,' हुश-हुश ' कर भगाना चाहा .वह थोड़ा हटी पर वहीं डटी रही .पीछेवाली के बराबर में खड़ी है वह .
वह निराश हो गई , हटने के बजाय और पास आ गई .
उसने गर्दन बढ़ा कर मेरे पाँव पर चोंच मारी ,मैंने पाँव पीछे खींच लिया .
बड़ी तीखी है चोंच !
वह फिर आगे बढ़ आई . मैं चुप , न पुचकार न सत्कार! दुत्कार रहा हूँ बार-बार हाथ हिला कर धमका रहा हूँ!
उस पर असर नहीं पड़ा,बढ़ कर फिर चोंच मारने लगी . तभी एक और बढ़ आई ,वह भी प्रहार करने लगी .फिर तो दो-तीन और ,तीन- चार और!
वे सब चोंचें उठाये मारने को तैयार. एकाध झपट रही है - हुश्-हुश् करते हाथ की ओर.
कुछ उड़-उड़ कर बेंच के हत्थे पर आ बैठीं .हाथ पर ,गले पर जहाँ जगह मिलेी चोंचों से वार कर रही हैंं
एकदम घबराया हुआ मैं खड़ा हो गया. दोनों हाथ पूरे ज़ोर से चलाने लगा .
वे पहुँच भर प्रहार करती रहीं -जैसे कह रही हों ,'धोखेबाज़ !'
हाथ लहू-लुहान हो रहे हैं, गर्दन पर भी चोंच के वार .
दहशत से भर मैं उठ कर भागा.पीछे लग गईं वे.पगडंडी से सड़क की ओर अंधाधुंध दौड़ा .
उस दिन किस तरह निकल पाया मैं ही जानता हूँ.
एक बार पलट कर देखा था -
लगा जैसे दिशा में आग लगी हो.साँझ के बादलों का नारंगी रंग गहरा सिंदूरी और जलता लाल हो उठा था,और ताल के पानी में वही छायायें , बतखों के फड़फड़ाते आकार जिनसे उठती तीखी कंठ-ध्वनियाँ !
फिर सारे रास्ते उधर सिर घुमा कर उधर नहीं देखा.
आपको असंभव लग रहा है यह सब ?
*
पीछे वाले क्रीक के दोनों ओर बाजरे जैसी कलगी वाली लंबी-लंबी घासें उग आई हैं.फिर ऊँचे पेड़ों की पाँत, साइकिल और पैदल वालों की लेन के बीच के ढाल को , कवर करती हुई . सड़क की सतह लेन से भी कुछ ऊँची और बीच में फिर वनस्पतियों का भराव .ऊँचे पेड़ों के साथ रोज़मेरी और अन्य झाड़ियों की पूरी शृंखला साथ चलती है .कहीं-कहीं काँटेदार ब्लैक-बेरीज़ भी हैं .
आगे जाकर क्रीक का प्रवाह ताल में परिणत हो गया है.अच्छा जीवन्त है ताल - मछलियाँ ,बगुले ,सुना है कछुए भी हैं .पर बतखें तो खूब हैं ,'क्वेक-क्वेक' करती जल में तैरती रहती हैं .अब तो लोगों ने वहाँ मछलियाँ पकड़ना भी शुरू कर दिया है.
आसमान में बक-पंक्ति की उड़ान जब-तब लहरा जाती है .ताल में भी एक टाँग पर खड़े ध्यानस्थों के दर्शन सुलभ हैं .जल-पक्षियों की क्रेंकार से परिवेश मुखरित रहता है.पेड़ और झाड़ियाँ तो चारों ओर हैंं ही , दो ओर खुली जगह भी, जिन पर पड़े बड़े-बड़े पत्थरों पर आराम से बैठा जा सकता है.अब दो बेंचें भी आ गई हैं . हरे भरे पेड़ों के नीचे बैठने का अपना ही आनन्द है.पहले अक्सर से खाली रहती थीं . अब लोग आने लगे हैं ,अपने बच्चों को भी लाते हैं, जल-पक्षी दिखाने.
खेल-खेल में बच्चे खाने की चीज़ें बतखों को भी डालने लगे.
जब से बच्चों ने खाने की चीज़ें डालना शुरू किया वे परच गईं, लोगों को देखते ही सजग हो जाती हैं हैं , लोग भी उन्हें चुगाने का आनन्द उठाने लगे .जब बतखें चोंचें फैला कर लपकती हैं , बच्चे उछलते हैं.
सब ख़ुश हो कर देखते हैं वह तमाशा !
इस साल ताल को काफ़ी सँवारा गया.जाड़े बीतते ही चहल-पहल भी बढ़ने लगी -बच्चों के साथ बड़े भीउन्हें खिलाने को दाने या ब्रेड के पीसेज़ आदि लाने लगे .वे भी खूब हिल गईँ , जल से बाहर आने लगीं .शुरू में दो-चार आईँ ,देखा-देखी हिम्मत बढ़ने लगी . अब तो 20-20,25-25 के झुंड निकल आते हैं .खाना डालने बाले बच्चों के हाथ से भी झपटने की कोशिश कर लेती हैं, कोई- कोई तो . जब वे ब्रेड के टुकड़े फेंकते हैं और वे फ़ुर्ती से बीच हवा में लपक लेती हैं.
पहले बतखें मुझसे डरती थीं .पानी के समीप जाऊँ तो एक ओर सिमट जाती थीं .
सब को देख कर मैं भी खाने की चीज़ें लाकर डालने लगा . थोड़ा-थोड़ा फेंकता रहता ,वे पास आ जातीं उछल-उछल कर खाती रहतीं .एक क्रम-सा बन गया था.वे भी खुश ,हम भी खुश !
मौसम ने करवट ली .दिन छोटे होने लगे ,सब अपने में व्यस्त होने लगे गए .झील पर आना कम हो गया
फिर आईँ बड़े दिन की छुट्टियाँ .क्रिसमस की हलचल, मनोरंजन के नये विषय. सब अपने आयोजनों-प्रयोजनों में लीन हो गए .
बतखों को कौन याद रखता !
हवाओं में ठंडक घुल गई.ताल पर आने का क्रम भंग होने लगा .बतखों पर मौसम का कोई असर नहीं था,उनकी शामें अब सुनसान हो गईं. झटका लगा होगा ज़रूर .सोचती होंगी कैसे होते हैं आदमी लोग ?
तब सब खुश हो-हो खिलाते थे ,उत्साह से बतखें दौड़ी चली आती थीं .एकदम सब बंद हो गया .पर उनकी खाने की आदतें बदल गईं .
हम लोग भी तो - पहले कैसे थे , और अब ?
वे आशा लगाए प्रतीक्षा करती , निराश होती रहीं .
इधर कुछ दिनों से घर पर अकेला हूँ .ताल पर आना कम हो गया है.बच्चों की भी छुट्टियाँ .झील के किनारे कोई नहीं होता .कभी-कभी अकेले ऊब लगने पर वहीं बेंच पर जा बैठता हूँ .आज फिर निकल गया .उधरवाली बेंच पर बैठ गया .सन्नाटा पड़ा था . अक्सर ही घर से नहीं आता .वैसे भी अकेला होने पर ध्यान नहीं रहता, खाली हाथ चला आता हूँ
अब शाम होते-होते यहाँ सन्नाटा पसर जाता है .
मुझे देख ताल में तैरती बतखों की गतिशीलता बढ़ गई .वे इधर ही तैरती आ रही हैं .किनारे तक आकर ठहर गईँ हैं.
इसी ओर देख रही हैं ,मेरी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं .
एकाध झिझकती सी मेरी ओर आने लगी .मैं चुप देखता रहा .
वे इस ओर सूखे में आ गईँ. मेरी ओर ताके जा रहीं ,वे आशा लगाए हैं कुछ मिलेगा.पर मेरे हाथ खाली हैं.
'क्वेक-क्वेक' की आवाज़ें उठ रही हैं . वे खाना माँग रही हैं .
'लाओ ,लाओ खाना .हम भूखे हैं...' ,उनकी शिकायतें जारी हैं.
उन्हें खाना चाहिये पेट भरने को !
लगा जैसे कह रही हों-और कुछ नहीं चाहिये हमें, न कपड़े न घर ,न कोई साज सामान ,सिर्फ़ खाना!..
सारा समेट लिया तुमने हमारी भूख का तमाशा बनाए हो -कैसी मन मानी !'
एकाध बेंच के पास तक चली आई .छोटीवाली बढ़ कर मेरे पांवों तक आ गई .जैसे कह रही हो ,'खाना लाओ, लाओ' .
लगातार मेरी ओर देख रही है.
पीछे-पीछे दूसरी आ कर खड़ी हो गई .अरे, एक और, फिर और. उधर से वे सब इधर चली आ रही हैं- पूरा झुंड का झुंड.
उन्हें खाना चाहिये -वे इकट्ठी हो गई हैं .
'क्वेक-क्वेक, क्रें-क्रें, ' के स्वरों में तीखापन आता जा रहा है ,जैसे क्रोध से भरती जा रही हों .
मैं चुपचाप बैठा हूँ . कुछ नहीं लाया हूँ उनके लिए .एक बढ़ती हुई मेरे पाँव तक चली आई .दूसरी उसके पीछे है .पास में दो-तीन और शिकायत भरी निगाहों से देखे जा रही है .
मैंने,' हुश-हुश ' कर भगाना चाहा .वह थोड़ा हटी पर वहीं डटी रही .पीछेवाली के बराबर में खड़ी है वह .
वह निराश हो गई , हटने के बजाय और पास आ गई .
उसने गर्दन बढ़ा कर मेरे पाँव पर चोंच मारी ,मैंने पाँव पीछे खींच लिया .
बड़ी तीखी है चोंच !
वह फिर आगे बढ़ आई . मैं चुप , न पुचकार न सत्कार! दुत्कार रहा हूँ बार-बार हाथ हिला कर धमका रहा हूँ!
उस पर असर नहीं पड़ा,बढ़ कर फिर चोंच मारने लगी . तभी एक और बढ़ आई ,वह भी प्रहार करने लगी .फिर तो दो-तीन और ,तीन- चार और!
वे सब चोंचें उठाये मारने को तैयार. एकाध झपट रही है - हुश्-हुश् करते हाथ की ओर.
कुछ उड़-उड़ कर बेंच के हत्थे पर आ बैठीं .हाथ पर ,गले पर जहाँ जगह मिलेी चोंचों से वार कर रही हैंं
एकदम घबराया हुआ मैं खड़ा हो गया. दोनों हाथ पूरे ज़ोर से चलाने लगा .
वे पहुँच भर प्रहार करती रहीं -जैसे कह रही हों ,'धोखेबाज़ !'
हाथ लहू-लुहान हो रहे हैं, गर्दन पर भी चोंच के वार .
दहशत से भर मैं उठ कर भागा.पीछे लग गईं वे.पगडंडी से सड़क की ओर अंधाधुंध दौड़ा .
उस दिन किस तरह निकल पाया मैं ही जानता हूँ.
एक बार पलट कर देखा था -
लगा जैसे दिशा में आग लगी हो.साँझ के बादलों का नारंगी रंग गहरा सिंदूरी और जलता लाल हो उठा था,और ताल के पानी में वही छायायें , बतखों के फड़फड़ाते आकार जिनसे उठती तीखी कंठ-ध्वनियाँ !
फिर सारे रास्ते उधर सिर घुमा कर उधर नहीं देखा.
आपको असंभव लग रहा है यह सब ?
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भूल जाना इन्सान की पुराणी और सब से खराब आदत है... कोई अहसान तो जैसे याद रहता ही न हो.
जवाब देंहटाएंउनका कोई दोष नहीं जिन्होंने वार किया हो
सिर्ख का सिर्फ कर लें.
: सब थे उसकी मौत पर (ग़जल 2)
माँ! कई तरह के विचार मन में कौंध गये एक साथ..
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो इतना ख़ूबसूरत शब्द-चित्र खींचा है आपने कि बस आपकी लेखनी को आँखों से लगाने को जी चाहता है. एक एक पंक्ति के साथ दृश्य आँखों के सामने उतरता चला जाता है. किसी पेण्टिंग की तरह..
इस कहानी के कितने अर्थ निकाले जा सकते हैं.. सर्वहारा क्रांति से लेकर हरमन हेस की उस नायिका की व्यथा की तरह जो बहुत ही साधारण थी और इसी हीन भावना से ग्रसित रहती थी. एक व्यक्ति ने पर्दे में रहते हुए उसकी प्रशंसा की और वो सजने, सँवरने और सुन्दर दिखने लगी. फिर एक दिन वो व्यक्ति चला गया और इस जुदाई में ठगा सा महसूस करते हुये उस लड़की ने आत्महत्या कर ली.
एक बार फिर एक शंका... आपकी इस कथा के पात्र का पुरुष होना मात्र संयोग है कि जानबूझकर किसी कारण विशेष के अंतर्गत??
सलिल ,लिखने का उद्देश्य केवल यह घटना नहीं, उससे आगे जहाँ तक कोई सोच सके....
हटाएं1 .मुझे लगता है इन्सान अपने स्वार्थ और सुख-सुविधा के लिए जीवों (अपनी जाति के लिए भी) के प्रति नितान्त संवेदनाहीन हो जाता है .उन्हें कोई लत लगा देना ( फालतू पड़ी चीज़े खपा देने के लिए
भी ), उनके स्वास्थ्य और भावी जीवन पर दुष्प्रभाव का सोचे बिना ,मनमानी करता रहता है.
2 . पुरुष होना मात्र संयोग है कि जानबूझकर?
एक सामान्य व्यक्ति के रूप में मैंने अनेक कहानियाँ भी लिखी हैं .
बेहतरीन वर्णन !! मंगलकामनाएं स्वीकार करें
जवाब देंहटाएंBahut hi sunder shabd chitran ...prastuti lajawaab...badhaayi!!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंmaine to do baar padhi post..doosri baar zyada dil chhalni hua.
जवाब देंहटाएंek sher yaad aaya..ek community me Akhilesh Bhaiya ne likha tha
पंछियों ने इन्हें छुआ भी नहीं,
तेरी खुशबु कहाँ थी दानों में.
sher ulta hai..jaanti hoon...bas samvednaon ka khel hai har jagah.yahi kehna chahti hoon.
aapki post bahut bahut bahuuuuuut bhaavuk hai Pratibha ji,..vishesh roop se mook janwaron ke nazariye se. mere kuch street dogs hain yahan pe..unke sath pesh aate hue main bhi is baat ka dhyan rkahte aayi hoon...ki unhe aisi koi adat na daaloon jisse mere na rehne pe wo vyaakul ho uthein. aur yakeen maniye kabhi kabhi unhe kewal itna chahiye hota hai k unke sar pe haath fer diya jaye ya khel liya jaye unke sath....manaye manaaye se khana nai khaate.
mann sakaratmak hai...fir bhi disappointed hoon ki aisi bhavuk posts padh kar un logon ke dil me kuch chubhan hoti bhi hogi !!!
jeewan to achhe aur bure ke saamanjasya ka hi naam hai. mohabbat aur khuloos hi har shay chahti hai duniya me.
ye kaun sa yug hai jaane. jahan insaan ki bhavnayein, praan, rihstey sab naganya ho chuke hain.
''swapnon ke ksharan'' per bhi yahi sateek shabd the aur yahan bhi Bachchan sahab kee yahi panktiyan likhungi....insaan ke alawaa har shay kee janib se hum sabke liye (choonki hum buddhimatta me baaqi har srijan se upar hain...isliye )
''क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
मैं दुखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,
रीति दोनो ने निभाई,
किन्तु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?''
waise ek baat ye bhi hai k ek bahut bada varg ye sab soch hi nahin pata...ya to unme ye ehsaas inbuilt hote hain ya hote hi nahin....bahut se log yantron kee tarah jeewan jeete hain.itna kahan samay k ye sab kiya jaye aur yadi kiya jaye to socha bhi jaye is tarah se k humare kisi karm se vanaspatiyon aur janwaron par kya asar hoga.
meri aadhi zindagi me hi itna kuch badal gaya bachpan se aaj tak...jaane ant tak pahunchungi to blogs kee post kya kya huakarengi..? kitna patan dkehna baaqi hai aur kitna hona baaqi hai..??!!
jab comment likhna shuru kiya to mann sthir tha...k karne wala,..,sabka palan poshan bharan karne wala parmatma hai..hum kewal maya ke vasheebhoot hoker ye sochte hain ki hum kar rahe hain...magar fir bhi jab tak tatvgyan param nai ho jata..ye sab cheezein mann par prabhav daalti hi hain. vichlit ho gayi hoon ant tak aate aate.
hum khud me bhi khud ka tamasha banate rehte hain na !! is kshanik vichalan se bhala aur kya zahir karna chah rhai hoon main !! :(:(:(
aisi post likhte raha keejiye Pratibha ji..main khud ko jo kahin kho aati hoon duniyadari me...thoda bahut wapas pa hi leti hoon aapse khud ko :(
sab irrelavant likh diya aaj.kshama kijiyega :'(
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंभूख का तमाशा देखने का एक प्रत्यक्ष उदाहरण विगत मई-जून में कब्बन पार्क( बैंगलुरु) में देखने मिला । पार्क का एक कोना कबूतरों के लिये है । जब दाना डाला जाता है तब हजारों कबूतर दाना चुगने टहनियों से उतरकर नीचे आ जाते हैं वे चुगना शुरु करते हैं तभी कोई उनके बीच से दौड़ता हुआ निकलता है वे ,कबूतर डर कर एक साथ उड़ते हैं । लोग हँसते हैं , तालियाँ बजाते हैं । वीडियो फिल्म बनाते हैं । केवल अपने मनोरंजन के लिये निरीह पक्षियों को इसतरह परेशान करना कहाँ तक उचित है । अगर बतखों ने विकराल रूप ले लिया तो कोई आश्चर्य नही आखिर -"हित अनहित पशु पच्छिउ जाना ....।"
हटाएंपहले लत। लगा देना और फिर अकेला छोड़ देना सच पक्षी तक आक्रामक हो सकते हैं ।बहुत सजीव चित्रण किया है ।
हटाएंबहुत सुंदर।
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