सोमवार, 22 सितंबर 2014

कथांश - 20 .

 ' एक क्षण का भी स्वतंत्र अस्तित्व  होता है ,आज समझ पाया हूँ उसका  महत्व, उसकी सार्थकता . कुछ बीते हुए पलों की तृप्ति मन को छाँह दे गयी है .शब्दों में अपार शक्ति है , देख  लिया मैंने .कुछ शब्द मनःतपन पर शीतल प्रलेप धर गए , अंतर की उद्विग्नता कुछ  शान्त हुई , अंतर्विषाद विश्राम पा गया. आता-जाता रहेगा जानता हूँ पर वह उतना दारुण  नहीं.
लेकिन अपने को बहुत अकेला अनुभव करने लगा हूँ !
मन की बातें कहना चाहता हूँ . काग़ज़ों से ही सही . तभी लिखने बैठा हूँ   , लेखनी हाथ  आई तो अनायास लिख गया  - पारमिता.
मन में झाँका .कुछ उमड़ रहा है जिसे व्यक्त करना  है .अपनी ही   असलियत पहचानने को लिख रहा हूँ , अपने ही लिए . तुम्हें भेजूँगा नहीं  किसी का नाम ऊपर होने से लिखा हुआ चिट्ठी नहीं बन  जाता .मेरा अपने निज से वार्तालाप है यह ,तुम जाने कहाँ से बीच में आ जाती हो.
 यों चाहता भी हूँ  किसी रूप में तुम्हारा मन मेरा आभास  पा ले .विचार और इच्छाएँ सूक्ष्म होती हैं जैसे हवा ,यहाँ से वहाँ पहुँचते बाधा नहीं  उन्हें . कैसे भी ,किसी रूप में भास  जाएँगी तुम्हें.लिख रहा हूँ इसीलिए ,मेरे मन में जो है उससे अविदित नहीं रहोगी तुम.
यों इतना भी गांधी जी नहीं कि अपनी हर कमी उघाड़ता चलूँ .जानता हूँ डीसेंसी भी कोई चीज़ है !अपनी सारी  कमज़ोरियाँ  तुम्हें कैसे बता सकता हूँ ? अंततः पुरुष हूँ ,तुमसे जब मिलूँ सिर उठा कर ,थोड़ा बड़प्पन बना  रहे मेरा !
ये कुछ पन्ने ,जो केवल मेरे हैं - अपने से अपनी बात !
तुम्हें समझता हूँ, उतरा चेहरा याद कर मन  कसकता है .कमी मुझमें रही -पर जैसा  हूँ ,विवश हूँ  .तुम्हारे साथ वही बना रहूँ , अंत तक उसी रूप में - स्वाभाविक सहज!
जानता हूँ, कभी-कभी तुम मन ही मन  मेरे ऊपर हँसी हो .सामने -सामने नहीं ,कभी नहीं .मेरी कमज़ोरियाँ जानती हो तुम . उद्घाटित नहीं करती  दबा  जाती हो, यह  सोच कर कि मुझे कैसा  लगेगा.

औरों का सोचती हो तुम .मुझसे अपना सोचे बिना नहीं रहा जाता .ओ,पारमिता ....'
डोर-बेल बजी , बाहर कोई है - कलम रख दी मैंने .

माँ की चिट्ठी आई है -  साधारण कुशल के बाद लिखा है - 
रमन बाबू के साथ विनय के  माता-पिता  हमारे घर आए थे ,वो सब यहाँ आने पर बताऊँगी . बाकी हाल लिखने के बाद अंत में जोड़ा था.'तुम्हें पता है मुन्ना ,पिछले दिनों एक बार मीता ने मुझसे कहा था -'वसु की चिन्ता न करना माँ ,मेरी बहिन है .मैं देखूँगी उसके लिए . पूरा कर दिया उसने अपना कहा. मैं तो उसकी  ऋणी हो गई,  कैसे चुकाऊंगी ?'
कुछ समझ में नहीं आया .दोनो बातों में क्या ताल-मेल ?
अब जाने पर ही पता लगेगा.
*
बड़ी  रुचिपूर्वक माँ ने वर्णन किया था .
बहुत दिनों बाद ,उस दिन सुबह वसु गाने की प्रेक्टिस करने बैठी थी.
उसकी आदत है ,कमरे  के दरवाज़े उड़का लेती है और फिर चारों ओर का भान नहीं रहता उसे .
 सुर निकाल कर गाने में लीन हो गई थी -
'प्रभू जी मेरे औगुन चित न धरो.'
बाहर की कुंड़ी खटकती रही ,उसे कहाँ सुनाई दे !
माँ ने पहले एकाध  बार टाला, शायद उठ जाये .फिर हार कर गईँ खोलने .देख कर तो एकदम चौंक गईँ ,न कोई  सूचना न ख़बर और रमन बाबू अपने समधी-समधिन सहित हाज़िर !
 'अरे, आइये,आइये '

अंदर आते-आते संगीत के स्वर कानों में पड़े -
' सम- दरसी है नाम तिहारो  ,चाहो तो पार करो ..'
कैसा गहरा भाव ,कैसा  स्वर -अंतर की गहराइयों तक  उतरा  जा रहा हो जैसे !  चारों जन एकदम चुप .
रमन बाबू  ही बोले ,'बिटिया गा रही है .'
'बड़ी बुरी आदत है .ऐसी डूब  जाती है गाने में कि दीन-दुनिया का होश नहीं रहता. अब देखिये न, मैं रसोई में थी ,सोच रही थी अब उठेगी अब उठेगी ,खोल देगी.पर कहाँ सुनाई दे उन्हें .आपको इत्ती देर खड़ा रहना पड़ा .'
'ये तो सरस्वती का वरदान है उसे .'
पत्नी बोलीं ,'कितना मधुर और गहरे उतरने वाला संगीत !'
'आज कल सिनेमा के गानों से कहाँ छुट्टी मिलती है लड़कियों को ,और यह ऐसा  पावन संगीत - मन प्रसन्न हो गया  !'
उन लोगों को बैठा  कर वे उधर गईं, उसे चेताने .
पर उसे  देख कर चुप न रह सकीं , 'उफ़फोह ,ये लड़की ..! कहाँ का पुराना घिसा सलवार-सूट चढ़ाये बैठी है, क्या कहेगा कोई ... ?'
 साथ-साथ चली आई समधिन -पीछे खड़ी थीं.
बोलीं  ,'कोई दिखावा नहीं उसमें ,ऊपरी बनावट से क्या होता ?वह सहज-सरल अपने आप में पूरी !'
माँ क्या कहतीं ,चुप हो गईँ . 
वसु ,सकपका कर खड़ी हो गई ,'आंटी जी ,नमस्ते ! अरे,मैंने देखा  नहीं ..'.'
''कोई बात नहीं , परेशान मत हो .अपना टाइम लो सुविधा से आना .'
अपनी वेष-भूषा पर कांशस हो गई थी वह,चुन्नी समेटती दूसरे कमरे में चली गई.

उधर से  राय साब की पुकार आई -

'जिज्जी, ख़ातिरदारी बाद में कर लेना.अभी ज़रा हमारे पास बैठ लीजिये .'
फिर बोले ,'  ये रमन बाबू और भाभीजी आपसे कुछ कहना चाहते हैं.'
'ऐसा क्या है, आज्ञा दीजिए समधी जी .'
'समधिन कहें या जिज्जी ?'
फिर बोले ,'क्या फ़र्क पड़ता है,मन में सम्मान भाव होना चाहिये .'
'बैठिए न आप .ये बताइये हमलोग आपको कैसे लगे ?'
'ये भी कोई पूछने की बात है समधी जी ?ऐसा घर-वर तो बड़े भाग से मिलता है , .'
'आपसे एक प्रार्थना है ,'उन्होंने अपनी पत्नी को इशारा किया और
पीछे की एक कुर्सी आगे खींच दी ,आगे  आ बैठी समधिन कह रही थीं,
' ...मैंने एक बार बहू से पूछा  ,'ये सब बातें कहाँ से सीखीं ,तुम्हारे तो माँ नहीं थीं? पता है उसने क्या कहा -
उसके शब्द थे जन्मदात्री माँ नहीं थीं ,पर एक माँ मुझे मिली थीं, जिनका प्यार और सँवार पाई .उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला.'

फिर उन्होंने जोड़ा ,'आपने ख़ूब सँभाल लिया ,माँ की कमी नहीं रहने दी.'
'मुझे शुरू से ही वह अपनी लगी '
'सच है, अपना समझे बिना कोई इतना नहीं कर सकता .'
रमन बाबू बोले,'अपनी बात कहो न !'
'...समधिन हों ,तो भी मेरी जीजी ही हैं आप ,वैसे दोनों ही रिश्ते अच्छे हैं... '

'जो आपको भाए .मैं सब में खुश .'
'विनय तो आपका हो गया .हमारे छोटे बेटे तनय को आपने देखा है?'
हाँ ,खूब ! हमारे घर भी आए थे तनय बाबू पिछली बार . लग ही नहीं रहा था कहीं बाहर के हैं ,मुन्ना से तो उनकी खूब जम गई थी ..'
'उसके लिए भी ऐसी ही लड़की चाहिये .' रमन बाबू बोल रहे थे.
'अरे , लड़कियों  की आपको क्या कमी ?इशारा मिले ,दौड़ के आयेंगे लोग ,ऐसे संबंध के लिए .'
'तो फिर आप ही अपनी छोटी बिटिया को उसके लिए ..'
माँ आँखें फाड़ कर देखती रह गईँ !

'आपकी बिटिया को कब से अपनी बेटी मान रहा हूँ . अब आज्ञा दें तो  अपने घर बाकायदा बिदा करा के ले जाऊँ  !...तनय है न हमारा ?'
माँ बिलकुल अवाक् -सच है या सपना ?
'क्या हुआ जिज्जी ?'
'ऐसा सौभाग्य हमारा !अरे ,तर गये  हम तो ..पर आपने तनय बाबू से पूछा ?"
'उसी की इच्छा से आगे बढ़े हैं.'
पता लगा, खूब पटती है  देवर-भाभी में . वहाँ पहले ही सलाह हो गई है .यहाँ तो अब आये हैं .'

सब बता कर माँ ने कहा था  'मीता का यह ऋण कैसे उतार पाऊंगी ?
'कोई ऋण-विण नहीं ,' मैंने तुरंत कहा ,'कॉलेज में चार साल उसकी निगरानी की है .कैसे-कैसे बचाया है सब जानती है वह .'
दाहिना हाथ अनायास बाएं कंधे पर चला गया ,अभी तक कभी-कभी टीसने लगता है.

*
बाद में मैंने पूछा था ,'वसु को भी मंज़ूर है ?'
''अरे, उसे काहे नहीं होगा? भरा घर ,इतना अच्छा लड़का ..'
फिर भी एक बार पूछ तो लो .'
ये माँ के बस का नहीं ,जानता था. मैंने ही बात शुरू की
' तेरी दीदी ठीक हैं वहाँ ?
'हाँ भइया ,उनने पॉली टेक्नीक में एप्लाई भी कर दिया है .'
'अच्छा!'
'हाँ ,बाबूजी ,माँ ,मतलब उनके बाबूजी- माँ,सास-ससुर तैयार हैं. वे चाहें सर्विस करें चाहें  कुछ और ... .वे लोग बहुत अच्छे हैं .'

'और सब लोग तो ठीक हैं. ये तनय ज़रा गड़बड़ है उनके घर में '
वह चौंकी ,'क्या ?'
'बड़ा झगड़ू लगता है .'.
वह कुछ बोली नहीं .
'उसका उजड्डपन मुझे पसंद नहीं ..'
' वैसे तो नहीं होगा . शादी-ब्याह में लोग हो जाते हैं..' .
'उससे तो तेरी  नहीं पट सकती , तू बता- मना कर दूँ ?'
खिसिया कर बोली ,'मुझे नहीं पता !'
'कितना लड़ा था तुझसे शादी में .नहीं,नहीं उसे तो दूर से नमस्ते  ..'
' ये सब मुझ से क्यों कह रहे हो ?माँ देखो ... ..'
'क्यों परेशान कर रहा है उसे ?
'.तो तू ने 'हाँ' कर दी  उसके लिए ?'
'मैंने कुछ नहीं कहा.. .'
मन ही मन हँसी आ रही है पर जानबूझ कर छेड़े जा रहा हूँ .
'तो ठीक  ,वह नहीं  कोई और ढूँढ़ूगा ..'
'मुझे नहीं करनी किसी से '
'तनय से भी नहीं न ?'
'मैं नहीं जानती .माँ , देखो न फ़ालतू में .'
वे भी हँस रहीं थीं .
'अरे, क्यों उसके पीछे पड़ा है  ?'
 बाद में  माँ को आश्वस्त किया था मैंने ,'बहन की शादी ठाठ से करूँगा .
कोई ये न कहे कि ...' पर आगे  नहीं बोल पाया.
माँ  समझ गईँ थीं .
हम दोनों चुप हो गए थे फिर .
*
वसु चली जाएगी ,माँ का उनका मन  कच्चा हो रहा है .क्या लग रहा है समझ रहा हूँ एक वही तो थी मैं चला जाता हूँ ,वे बिलकुल अकेली .उस दिन कहने लगीं,'औऱ मैं हमेशा क्या-क्या सोचती कर घबराती रही. जहाँ कोई मुश्किल आई ,अपने आप उसका हल निकलता रहा वह हमारे लिए हमेशा भाग्यशाली रही  मैं उलटा उसी पर खीजती थी. मैने कभी उसकी कदर नहीं की. रहा   .हुई थी तो मेरी नौकरी लग गई .

उनकी आँखों मे आँसू छलक आये
और मैं हमेशा डाँटती -टोकती रही ,कभी सुख नहीं दे सकी अपनी बेटी को .
माँ ,तुमने हमेशा ठीक किया .मैं तो खुश रही हमेशा .पर अब तो तुम बच्ची बनी जा रही हो .लगता है तुम्हारा ध्यान रखना पड़ेगा .'
'तू तो हमेशा से ही ,सहती आई है ,पछतावा तो मुझे रहेगा .'
'पछतावा क्यों रहे,'मैं एकदम बोला ,'ऐसा करो अभी शादी की तारीख आगे बढ़वा देना.पहले उसकी कदर कर अपना मन भर लो  ब्याह तो फिर भी हो जायेगा..' 

 कई बार ऐसी बातें सुन कर  कुछ खीझ-सा गया था .बहुत ज़रूरी था उनका ध्यान हटाना  नहीं तो वे यही सोच-सोच कर दुखी होती रहेंगी.
'आगे कभी टालने की बात मत करना,मुन्ना शुभ- शुभ बोल बेटा .अडंगे की बात भी नहीं करते !'

माँ बहुत प्रसन्न थीं ,संतुष्ट कहूँ तो ग़लत नहीं होगा . बहुत बड़ी चिन्ता दूर हुई थी उनकी और हाँ ,मेरी भी . 
माँ  ने कहा था ,' बहिन का संबंध तय हो रहा है. पहल उनकी ओर से हुई है , तुम्हें उनके घर हो आना चाहिये .दीवाली आ रही है ,अच्छा मौका है .मिठाई ले कर चले जाओ .'
'ठीक है एक दिन को चला जाऊँगा .'
गया था उनके घर . उसके सास-ससुर के पाँव छुये थे ,बाबू जी कहा था उन्हें .
विनय से गपशप होती रही थी -पर अनचाहे ही एक गड़बड़ हो गई . कह  नहीं सकता किसी से -  मन बड़ा अव्यवस्थित हो रहा है .
*
(क्रमशः)

9 टिप्‍पणियां:

  1. मन का क्या भरोसा ...सब कुछ ठीक चलता रहे तो कोई न कोई गड़बड़ खड़ी कर ही लेता है...सदा की तरह कथांश आनन्दित कर गया..

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  2. vanchit hriday ke paas kitna kuch hai kehne ko sehne ko aur usse bhi adhik chup rehne ko.sansaar me jitta bhi chaitanya aur buddhimaan srijan hai param shakti ka...we saare mann kisi na kisi kone me ekaaki hokar isi tarah kaagaj ke pannon me...mastishk kee deaawaron par hriday kee gaanthe kholte band karte rehte honge na!!
    Meeta ke ek sukarm ko apni nibhaye hue uttardayitv se tolta hua Brajesh kheeja sa chot khaya hua laga. smriti ka dansh to jhelna hi rehta hai sabko hi...vishesh roop se jo humaare bahut chaahne par bhi humse chhoot gaya ho..us vyakti/paristhiti athva vastu ka samay asamay 'na pa sakne' ka bhav.
    meri mausi ekbaar keh rhain thin..k ''kabhi kabhi rishtey jaise aarambh hote hain...jis pradhaan bhavna kee neenv par banna shuru hote hain...wo samay ke sath waisi nahin reh jaati.sambandh sakaratmak roop se parivartit paristhiti aur bhavnaon me dhal jaane yogya paripakv hone lagte hain.jeewan me mann kee bhavnaon me saamanjasya aane lagta hai..basharte tees bhi apne sthan par bani rahe..lambe lambe varsh tees ko kaat kaat ke sookshmtar kar hi dete hain.''
    achha laga...bhayi behan kee beech kee chhed-chhad mera behan mann gudgudaa gayi. :'-)
    maa ke hriday ke apaar sukh aur shanti ko samajh rahi hoon.aankh band kar anubhav kar pa rahi hoon. kitne tarah ke kasht aur uljhanein hotin hain akeli maa ke liye rishtey dhundhne me....pita ka hona/na hona/hokar b na hona...sanshay ko janm deta hai. doshi na hote hue bhi apradhi sareekhe maa explanation detin. achha hua Meeta ne rishta khoj diya. achanak baithe bithaye ghar kee chaukhat par vivah sambandh swayam ichchhuk ho aakar khada ho...aha! maa kee to aankhein chhalak gayin hongi.sasural me meeta k ek dhaal jaise rehne ka bhi sambal rahega vasu k liye. :''D

    :D
    ye achhi post thi Pratibha ji.merko khoob achhhi lagi...:D..magar shadi karayiyega donon ki..koi tragedy na ho jaye..maa ko dukh hoyega :( :-/ :-| :-)

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  3. कथा सुखान्त की ओर बढ़ती लग रही है । बड़े ही सहज रूप में । एकदम जीवन्त ।

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  4. माँ! इस कथांश के आज तीन उप-अंश मुझे दिखाई दिये. पहला बिरजू का एकालाप (पत्र-लेखन या डायरी लेखन), दूसरा घरेलू माहौल में समधी समधिन (भाई-बहन) की बातचीत और तीसरा भाई-बहन की छेड़-छाड़! और जैसा मैंने कथांश की प्रारम्भिक कड़ियों में कहा था कि यह कथामालिका किसी भी कोण से एक महिला का लेखन न लगकर एक पुरुष का वक्तव्य लग रही है.
    आज की इस कड़ी में पहले अंश में बिरजू की बातें लगता ही नहीं कि कोई महिला के द्वारा लिखे सम्वादों में है. एक-एक सम्वाद पुरुष पात्र की घोषणा करता दिखाई दे रहा है. वहीं दूसरे उप-अंश में घरेलू बातचीत से ही दृश्य और चरित्र स्थापित हो जाते हैं... पाठक को यह बताने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि वे किस आयु-वर्ग के हैं. दूसरे शब्दों में हम सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि वे हमारे ताऊ, फूफा, चाची, ताई हैं! तीसरे उप-अंश में जो दृश्य है, वह भाई-बहन के प्यार की वह प्रस्तुति है जो सदा बचपन से आगे नहीं बढ़ पाती, उनकी उम्र चाहे जितनी भी क्यों न हो जाये.

    माँ, यह एक कथाकार की सबसे बड़ी सफलता है कि कथा केवल शब्दों की संरचना न होकर एक सजीव दृश्य उपस्थित करे! और इस कला में आपके अनुभव, लेखन, शब्दावलि और सम्वादों की परिपक्वता आपके समक्ष नत होने को बाध्य कर देती है!

    अब लौट ता हूँ पुन: इस कथांश के पहले दृश्य पर. यदि ग़ौर से सारे सम्वादों को पढें तो एक मुक्तछन्द की कविता का असर पैदा होता है. एक कथाकार का कवि भी होना इन सम्वादों के सौन्दर्य को द्विगुणित कर रहा है. (पुन: सिनेमा का तुलनात्मक उदाहरण दूँ तो फ़िल्म हीर-राँझा में क़ैफ़ी साहब के सम्वाद और आँधी में गुलज़ार साहब के सम्वाद याद आ गये. और यदि साहित्यिक उदाहरण दूँ तो बच्चन जी की मैकबेथ मस्तिष्क में ताज़ा हो आई). कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि मेरे लिये इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि एक साधारण से पत्र/ एकालाप/ डायरी लेखन से आपने रोमैण्टिसिज़्म का एक अद्भुत समाँ बाँधा है!

    हाँ.. इस बार ब्रजेश की शब्दावलि अवश्य कुछ बदली-बदली सी लगी... जैसे डिसेंसी, अपर-हैण्ड, ऑकवर्ड जैसे शब्दों का प्रयोग... याद नहीं आता कि कभी सुना हो उसे कहते!

    उसकी बातों में पारमिता का ज़िक्र आना अनायास है कह नहीं सकता. धुँधली सी याद है उपेन्द्र नाथ अश्क जी के एक उपन्यास "निमिषा" की, जिसमें ऐसा ही एक पुरुष चरित्र अपनी प्रेयसि का नाम (नीता) बार-बार पुकारने के लिये अपनी किसी भी रचना में "नित" शब्द का प्रयोग करता था. (यूँ तो मैं नित अकेला सफ़र करता हूँ...)

    ब्रजेश की माँ और वसु के लिये सुसमाचार की आहट सुनकर विश्वास होने लगता है उस परमात्मा पर और जीवन-चक्र पर जिसके विषय में कहते हैं कि यह चक्र हमेशा चलता रहता है और दु:ख कभी सदा नहीं रहते.

    इन सभी घटनाओं के बीच बिरजू की टीस के साथ-साथ मेरे मन में भी एक टीस है, उनके पिता के लिये! क्या सबकुछ पहले जैसा नहीं हो पाएगा? क्या उन्हें कन्यादान का अवसर प्राप्त होगा? क्या वसु को अपने विवाह पर अपने पिता की प्रतीक्षा नहीं होगी?

    पहली बार मैंने जिज्ञासाओं का आनन्द उठाया है, वरना मैं धारावाहिक उपन्यास कभी इतनी गहराई से नहीं पढ़ पाता हूँ! प्रणाम के साथ अपनी बात समाप्त करता हूँ! और आज यह अवश्य कहूँगा कि कम लिखे को ज़्यादा समझिये!!

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  5. ref.- 'ब्रजेश की शब्दावलि कुछ बदली-बदली सी लगी..'
    व्यक्ति की भूमिका और परिवेश के साथ उसके शब्दों में बदलाव आना स्वाभाविक है ,अब ब्रजेश,पहलेवाला कुंठित-सा छात्र नहीं वह मान्य अधिकारी की ट्रेनिंग में है वैसे ही साथियों के बीच .मुझे याद है मेरा बेटा जब घर से आई.आई.टी. गया तो उसकी शब्दावली में भी परिवर्तन आया था .

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  6. प्रतिभा जी ,
    आपके ब्लॉग पर टिप्पणी करने का दो बार प्रयास किया पर वहां मेरी टिप्पणी प्रकाशित नहीं हुई ... मेल से भेज रही हूँ ... आभार.
    पाठक को तो कहानी में भी सुखांत की ही इच्छा रहती है लेकिन ब्रजेश के मन पर क्या गुज़र रही होगी कैसे सामान्य रख पा रहा होगा खुद को .... १६ से २० तक कथांश एक साथ पढ़े .... यदि वासु की शादी तनय के साथ हो जाती है तो ब्रजेश का रिश्ता भी पारमिता से बदल जायेगा ... सब कैसे सहज रह पायेगा यही सोच रही हूँ .... क्या गड़बड़ कर आये हैं नायक यह जानने की उत्कंठा है ... आपका कथांश पढ़ते हुए न जाने क्यों बार बार गुनाहों का देवता याद आती रही .
    - संगीता स्वरूप

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  7. शकुन्तला बहादुर25 सितंबर 2014 को 12:40 am बजे

    ब्रजेश- एक पुरुष पात्र के मन के भावों का चित्रण कथाकार के पुरुष होने का भ्रम उत्पन्न करता है । सभी पात्रों के मन का एक्स-रे उतारने में कुशल लेखनी कथांश को सहज स्वाभाविकता में ढाल कर चित्र सा उपस्थित कर देती है ।कथा का प्रवाह मन को लुभाने वाला है । संवाद मन पर छा जाते हैं। कुछ वाक्य उद्धरण से लगते हैं । कुल मिलाकर कथा का निर्वाह अद्भुत है । कल्पना कहानी को सुखान्त मोड़ की ओर ले जा रही है। अंतिम गड़बड़ी ने मन में उत्सुकता जगा दी है । लेखनी को नमन ।

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  8. बहुत ही अच्छी कहानी। विरोधाभासी व्यवहार, भावातिरेक को बहुत अच्छे तरह से प्रस्तुत किया है आपने स्वयं शून्य

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  9. Pratibha ji , sadar naman. kathansh 18-19 to maine shayad usi din padh liya tha jis din apne post kiya tha....aur tabhi se bar bar memory knock karti thi ki is par abhi tak maine comment nahi diya. aaj vyavastTaaon se thoda samay nikla to yaha aayi aur paya agli kadi mil gayi padhne ko (khushi ka thikana nahi raha). Brijesh ka patr dwara apne man k bhaavon ko vyakt karna aur un bhaavon ko jis roop me dhaal kar apne man ki baat kahi vo sarvpratham to kuchh apne anubhav yaad dila gaya...ki aksar maine bhi aisa hi kiya hai. doosra aapne hamesha hi bahut acchhi tarah se yun kaha jaye sateek roop me purush bhaavon ko apni sashakt lekhni se bakhoobi ubara hai (Hatts off).

    Brijesh dwara angreji k kuchh shabdo ka prayog apki kahi baat yaad dila gaya ki samay k anusaar aur prachlan k anusaar aapne sabhi tarah k shabdon ka prayog kiya.....aur kar dikhaya.

    Bhai-behen ki chhed-chaad ko bahut hi sundarta se shaabdik kiya hai.

    18-19 ki kadi se umeed bandh gayi thi ki tanay apna proposal ab jaroor bhejega. maan ki khushi aur santushti ka ehsaas kar thandak mili us khalish bhare man ko jo brijesh k PARIMITA kehne aur mehsoos karne se utpann hoti hai.

    lekhak ka aakhri shabdo me suspense chhod dena katha k aage ke bare me jaanne ke liye excitement banaye rakhne me saksham hua hai. aur kehte hain yeh ek acchhe lekhak ki pehchaan mana jata hai :)

    sabhi hindi movies ki tarah end acchha chaahte aur sochte hain. ....dekhte hai isme abhi kya baaki hai.

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