बुधवार, 9 अप्रैल 2014

भानमती चुप थी..


*
 भानमती से मैंने सिर्फ़ इतना पूछा था,' वैसी औरतों को छिनाल कहा जाता है तो वैसे आदमियों को क्या कहते हैं ?'
'मरदुअन को ?उनका कउन कहि सकत है सारे लैसंस (लाइसेंस) तौन उन्हई के पास हैं...' कहते-कहते  रुक गई वह .
उसका मुँह तमतमा आया था.
समझ गई मैं काँटा कहीं-न कहीं खटक रहा है. इस बार मिली भी तो बहुत दिन बाद है.मुझसे अपने मन की कह डालती है, किसी से कहती नहीं हूँ न.
' क्या हुआ भानमती ? कुछ खास बात हो गई क्या ?'
'खास का, उहै हमेसा जो होवत है .बल(बलि) का बकरा बनन के लै तो बनी है औरतजात.' 
बातों में लगाए रही कि अपनी बात कह सके.
 उसने कहा था ,' जामें नेकऊ झूठ नाहीं .सब  हमार देखी है .हमारी ननद के तएरे ससुर रहैं , सहर में आय बसे. अभै पिछले दिनन को किस्सा है .ताई को सिगरे जन अजिया बुलावत हैं
.ताऊ सत्त नाराइन की कथा कराए रहे . पूजा की चौकी की ढूँढ परी.
अजिया कहिन,' हमका पता है कहाँ धरी है, अभै लाए देत .'
'अरे अजिया ,तुमसे ना उठी,' सो हम उनके साथ हुइ गै  '
अजिया उस कमरे में बहुत कम जाती थीं घर की सारी अंगड़-खंगड़ चीज़ें यहीं डाल दी जाती थीं.उस दिन महीनों बाद चौकी ढूँढने अजिया को वहाँ जाना पड़ा
इधरवाला कमरा पिंकी का .बचपन की दोस्त विनती और नीरजा के साथ  मशगूल थी वह.
बातों का एक टुकड़ा कान में पड़ा
' ऐसा जी घिना जाता है ...' 
अजिया के आगे  बढ़ते पाँव रुक गए, भानमती साथ में. 
..'इच्छा होती है वो झापड़ रसीद करूँ कि हिलती हुई दाढ़ें भी बाहर निकल पड़ें,' आवाज़ नीरजा की थी.
पिंकी बोली थी,'जानवर होते हैं सब के सब ,अपने घरों में असली चेहरों पर अच्छेपन की नकाब डाले रहते हैं,  बाहर वही कुत्तापन .'
'ऐसे मरगिल्ले, अधेड़ उमर के लोग ,मरते भी नहीं..सोचो ज़रा, हमारे दादाजी की उमर के . भीड़ में घुस कर ऐसी उंगलियाँ चुभाते हैं
 बड़ी मुश्किल से अपने को काबू में कर पाई मैं,' उसकी बोली में वितृष्णा छलक रही थी.
'अच्छा किया काबू कर लिया नहीं तो लोग तुझे ही बेवकूफ़ बनाते .'
वह कह देता', ऐ लड़की, क्या कह रही हो? ठीक से देखा करो कौन कर रहा है ,तुम्हारे बराबर की हमारी पोतियाँ हैं ',
'और सब उनकी हाँ,में हाँ मिलाते.  उलटे तुम्हीं को दोष देने लगते .'

'.... अभी बाहर दादाजी को नमस्ते करते फिर से याद आ गया . लोग दादा बन जाते हैं पर ..'
पिंकी ने कहा था,'अगर यही लोग बुज़ुर्ग बन कर  बसों वगैरा में थोड़ी निगरानी रखें तो किसी की  छेड़खानियों की हिम्मत न पड़े.कितनी अच्छी हो जाए दुनिया हमारे लिए! पर ये तो खुद ही...'
चुपचाप सुन रही हैं , बात को समझ रहीं हैं दोनों .
भानमती मुनमुनाई ,'दादा बन जाने से का चरित्तर  बदलाय  जात है..?'
 दोनों महिलाएँ अनुभवी हैं ,घर-बाहर आती-जाती सब देखती हैं.
 दोनों के सामने प्रश्न है -आदमी में उमर का गरुआपन कब आता है?
मन की बरजोरी के आगे सही-गलत सब  हवा हो जाता है?भीतर ही भीतर ताव खाती रहीं.
एकाध वाक्य बोल पाईं आपस में .
पहले सोचा लड़कियों के पास चलें ,फिर लगा उनकी बातें सुनाई दे गईं, पर अब जाकर बीच में बोलना ठीक नहीं .
'टार्च ले कर आयेंगे, 

अंदर अँधेरा है ,'अजिया ने कहा ', चलो, भानमती.'
'आदमी कुत्ता होता है '  कह रहीं थी लड़कियाँ - विचार चलते रहे .
भानमती बोली थी,'सही कहती हैं बिटियाँ .माँस की गंध पाय के  कूकर अस ललात हैं ,निगाह मक्खी अइस मँडरात रहत है....;'
 ताव में आकर जब वह गाँव की वर्जनाहीन आक्रामक भाषा पर उतर आती है तब उसकी खुली अभिव्यक्तियाँ सुननी तो पड़ती हैं, पर वह सब लिखना वाणी को अपमानित करना लगता है . भानमती के शब्द नहीं दोहरा सकूँगी.
उसने जो  बताया,  बस उसका सारांश -
दामाद बहुएँ बेटे सब इकट्ठा थे. डाइनिंग टेबल वाली कुर्सी पर दोनों दामाद बैठे चाय पी रहे थे ,
सुमिता नाश्ता दे रही थी .  अजिया आगे बढ़ गईं थीं ,दादाजी बेडरूम वाले गलियारे से इधर ही चले आ रहे थे.
भानमती आँगन के नल पर रुकी थी हाथ धोने ,
किचन के स्टोर तक आ पहुँची अजिया ने देखा टोकरी में  धनिए की पत्ती लौकी से दबी पड़ी है. इन लोगों को इतना भी ध्यान नहीं कि सब्ज़ी ठीक से  रखें दें ,लौकी को अलग करने वे नीचे झुकीं.
आधे झुके शरीर पर पीछे कुछ सरसराहट - बड़ी अरुचिकर अनुभूति .
चौंक गईं!
घुटनों पर हाथ धर सीधी खड़ी हुईँ ,पीछे मुड़ीं .
दादाजी थे - आँखों में विचित्र-सी कौंध और चेहरे पर टोहती-सी मुस्कान लिए .
 अजिया ने तमक कर देखा आँखों से आग बरसाते ,'सब कुत्ते होते हैं..' .कहती आगे बढ़ गईं.
पीछे से आ रही भानमती सन्न!
दादा जी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रहीं थीं.
 दोनों दामाद हाथ में चाय का कप पकड़े रह गए .सुमिता मूर्तिवत् जैसे कुछ समझने का प्रयास कर रही हो.
सुनकर  स्तब्ध मैं भी !
कहने-सुनने को अब बचा ही क्या ?
*

9 टिप्‍पणियां:

  1. वासना को इसलिए अँधा कहा गया है

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  2. कितने ही प्रसंग होंगे ऐसे शराफत और अपनेपन के नकाब में !
    सच में जी घिना जाता है !

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  3. भानमती का अनुभव सच्चाई को कह जाता है भले ही उसकी भाषा कैसी भी हो पर आप तो बहुत नियंत्रित कर लिखती हैं .

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  4. सौ प्रतिशत सच्चाई है भानमती के कहने में। मरदन की और कूकर की जात.........।

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  5. hmm...ek baat suni thi brahmkumaris me k ''soochna ke strot (source ka hindi..spelling gaalt oh to kshama kijiyega :(:( ) jo hum din bhar padhte sunte ya dkehte hain (akhbaar/TV/Radio etc) unse humaare dimag ko vichaaron kee khuraaq milti hai....aur jis tarah ka bhojan hum apni mansikta ko denge usi tarah ka reaction aur action hota hai fir...shuru shuru me buddhi aur vivek hastakshep karte hain..fir baad me baar baar dohrane se buddhi by pass ho jaati hai..reflex action hone lagte hain..'' aur isliye we zor dete hain..subah subah se apne dimag ko achhe vicharon sahitya ya baaton se bhar lein (khokhle dharm waqyon se nahin) uske baad bahar kee baaton ke entrance k liye jagah nai bachegi..doosre shabdon me aapki mansikta kuch hdd tak surakshit reh sakti hai.
    ab aati hoon post per......being a girl maine bhi kayi baar ye cheezein face ki hain..auron ne bhi ki hi hongi..so ye bahut aam sa magar bahut ghinauna sankraman hai samaaj me jo teji se fail raha hai..jo umr nahin dkehta kisi ki bhi..kayi baar sankramit vyakti k liye ladki ka ladki hona hi kaafi ho jata hai.sahi kehtin hain bhanmati ji..ajiya bhi.

    ab aana chahungi vikas kram per..manushya ne bandaron se viksit hona aarambh kiya..kapde pehanne seekhe..bhasha bani..khana banaya gaya..aag jalayi gayi..and so on.sankshep me pashuta se manushyata kee ore badhte aaye aur shayad ye vikaskram ek gol ghera hota hoga..tabhi hum wapas pashuta ki ore hi badhte ja rahein hain..wo bhi dheeme dheeme nahin..kaafi tez gati se.rishton ki maryada nahin rahi..sanyam nahin raha..janwaron kee tarah doosre per toot padte hain..har ek kadam par maryada aur achran aahat hote hi ja rahein hain.
    ek mera prashn hai Pratibha ji...jo abhi haal mere zehan me aaya..ki hum kyun bauddhik star per khseen hote ja rahein hain (main specifically paariwarik aur saamajik moolyon ke sandarbh me prashn kar rahi hoon..:( ) ..? kyun badi badi technology banaane wala manushya apni indriyon per sanyam nahin rakh pata? ya aisa software banane kee avashyakta hai ab humein jo humaari paashwik ichhaaon ko nyantran me rakh le jab kabhi bhi aape se bahar ho jaayein to!!!

    ek adhyatmik vaakya bolun!!!?? - bol hi deti hoon...''jo bhi ho raha hai..jo bhi ghatt raha hai..usme kisi na kisi aatma ka kalyaan hi nihit hota hai..bhale hi sansarik drishti se wo kroortapoorn anyaay ya atyaachaar prateet hota ho humein..'' magar apne hi waqya ke bachav me main ye bhi kahungi k is kathan ko apni bechargi ya chuppi kee dhaal nai banana chahiye..narad ji ne ek baar ek sarp ko kaatne se mana kiya..use logon ne maar maar ke adhmara kar diya...narad ji wapas aaye..bole 'zarurat padne pe fufkaaro uske liye manahi nai hai' ..ye main apne aap se aur doosri ladkiyon aur aise dadaji type logon ke pariwar se bhi ummeed karungi...ki at elast fufkaaro..magar mann hi mann nai..fufkaar se saamne wala jhulasna chahiye..use bhi to shiksha mile na ! :)

    dhanyawaad Pratibha ji bahut si baaton k liye kritagya feel kar rahi hoon.......jang lage dimaag ki chaal thodi badh gayi hai..bahut se mudde jeewan me daba se liye the maine..jin per humesha kaam karne ka socha tha mass level pe..wo wapas zinda hue..:):)
    vishesh abhaar aur param kritagyata ke sath vida leti hoon..kal aaungi ab :):):)

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  6. pehla part apne comment ka spasht nai kar paayi shayad..fir se likh rahi hoon..k soochna ke source kee isliye baat chhedi maine Pratibha ji..k agar mansikta shai hai..to galat khayal fatt se nai aate hain.......magar aaj jis tarah ke star ka sahitya aur filme (esp bharat me mass level per films bahut asar karti hain) dekha suna ya padha ja raha hai..to aapko kisi ko bhi dkeh ke pehle galat hi vichar aayega...achha aap sochne kee koshish bhi nai karte...kyunki dimag me wahi bhara hua hai...din me sau tho cheap se gaane sune..sath sath gungunaye to bhala kaise dadaji ke mann me raam naam ka vichar aayega..:-|
    bas isliye kaha wo sab :')

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    1. यह दूषित मानसिकता , चारों ओर व्याप्त भोगवादी संस्कृति का प्रभाव है.लालसाओं की तृप्ति के लिए ही जीवन का उपयोग है .कुछ धर्मों में तो स्त्री की मृत्यु के बाद उसकी देह (कुछ घंटों की सीमा में )आखिरी बार भोग ने को भी विहित ठहराया जाता है .सुन कर ही मन एकदम खराब हो जाता है)

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