रविवार, 6 अप्रैल 2014

वे कौन थीं - शायद एक वायवी-अनुभूति !

*
वे  कौन थीं, मैं नहीं जानती.एक दिन अचानक मिली थीं.
 परिचय जानना चाहा तो हँस कर टाल गईं. कहने लगीं - कोई एक परिचय होता है किसी का ?सबके लिए अलग-अलग ,पात्रता बदल जाती है ,हर एक से एक अलग प्रासंगिकता....
मैं क्या बोलती ?
वही कहती रहीं -
सोचो ज़रा,पक्षी पिंजड़े को स्वीकार करता है कभी ? पर करे क्या ,उसकी सीमा वही. रहना उसी में है - मन से या बे-मन .फिर भी पिंजड़े से जो मुक्त आकाश दिखाई देता है ,उसमें उड़ने की कल्पना से ही उसके पंख फड़क-फड़क जाते होंगे .जब तक साँस चले ,जो है उसे स्वीकारे बिना कोई चारा नहीं.
यह कैसी पहेली?- मेरे मुख से निकला था .
हाँ, पहेली ही है.
दिन भर साथ रहे थे.ऋषिकेश से आगे नीलकंठ की राह में 10-12 घंटों का उनका साथ मिला था - तभी.
वे कहती रहीं मैं सुनती रही .कैसे, किन शब्दों में कहा कि मुझे प्रत्यक्ष लगता - अंतर्मन तक समाता गया .
 कितने बरस बीत गए - वह विचित्र कथा तब से मन में उमड़ रही है.अब कहे बिना रहा नहीं जा रहा उनके कहे शब्द  तो नहीं दोहरा पाऊंगी.पर मुझमें ऐसी समाहित है    अभिव्यक्ति मेरी होते हुए भी अंतर्निहित अनुभव, सारे उनके .
इसीलिये कह भी उन्हीं की ओर से रही हूँ , एक और बात - जहाँ क्रम नहीं जोड़ पाई अपनी कल्पना का ईंट-गारा लगा लिया.
 शुरुआत उन्होंने इन्हीं शब्दों में की थी -
बहुत घुमक्कड़ी की है ,पर एक अनुभव मेरी अंतर्चेतना में बड़ा गहरा समाया है.
वह महाबलेश्वर की यात्रा थी !पाँच दिन उन सुरम्य-सुरभित वनालियों के बीच कैसे बीत गये कि दिन-रात का भान नहीं रहा .जैसे धरती पर न हो कर किसी रमणीय लोक कि में आ गई होऊँ.बड़े भोर पक्षियों की श्रुति-मधुर ध्वनियों से नींद खुलती  दूसरे मंज़िल की बालकनी से हरे-भरे वृक्ष और पुष्पित लताओं  से पूरित गहन वन-खंडों की घनी हरीतिमा को निहारती, भ्रमण को निकलती तो सुवासित समीरण साथ चलता. मेरे मगन मन में जिस अवर्णनीय सौंदर्य की वृष्टि होती रही ,उसे पूरी तरह सँजो लूँ यह चेत कहाँ था.आज व्यक्त करने की व्यकुलता में बार-बार वे क्षण पकड़ पाने को यत्नशील हूँ .
निर्मल चैत्र मास! शीत  समाप्ति पर था. आद्या-शक्ति के अवतरण के स्वागत आयोजन होने लगे थे संपूर्ण प्रकृति में विराट् हवन की तैयारी. .ऋतु की उत्सवी आँच धीमे-धीमे  सुलगने लगी . सूर्य की किरणों में ताप का संचार प्रारंभ हुआ .अपर्णा वनस्पतियों में अग्नि-रेखाएँ नवांकुर बन  जागने लगीं .नव-पल्लव  अरुणाभा से  दहकने लगे. आकुल हवाएं धरती पर गिरे जीर्ण पात समेटने को तत्पर .भोर से ही रास्तों के किनारों पर एकत्रित सूखे पत्तों की सुलगन .चतुर्दिक् वायु-मंडल उन सुवासित  धूमकणों को चुरा-चुरा अपनी तहों में समा लेता  प्रातःकाल  वही गंध-बोझिल कण झीने कुहासे  का पट बुन दिशाओं  के अनावृत्त होते तन को छा लेते .हव्य-गंध से दिग्-दिगंत व्याप्त  ... ,वनस्पतियों की सोंधी गंध से गमकते पवन झोंके  बेरोक चले आते .यह चैत की अपनी गंध है, जब उस अवतरित होती  दिव्य ऊर्जा का अभिनन्दन करने वसुधा नवांबरा हो जाती है.
नित्य-प्रति के सारे क्रिया-कलापों का निर्वाह करते लगता था ,इनकी कर्ता मैं नहीं .मेरा अस्तित्व स्थूल में सीमित न रह कर सुदूर दृष्यों तक व्याप्त हो गया है .लगता  नित्य-कृत्य करनेवाला कोई और सारे कर्तव्य निभाए जा रहा है मैं अलग रह गई हूँ. मन में  कहीं कोई अकेलापन नहीं.  कोई  सहस्र-सहस्र नेत्रों से मुझे देख रहा हैं  .आशीषमय आकाश  से झरती  प्रकाश-किरणें उसी  दृष्टि का विस्तार हैं .प्रफुल्ल दिशाएँ उसकी प्रसन्न मुद्रा .शीतल-सुगंधित पवन उनके लहराते आँचल की छुअन - स्नेह और  शान्ति से परिपूर्ण वह सतत मेरे साथ है.मैं अकेली कहाँ !
 उसी की एक निर्मिति मैं भी हूँ .यह जीवन,यह मन उन्हीं का प्रसाद है जिसमें वे आभासित होती हैं
 वे परम चैतन्यमयी अपने सृजन में आनन्द लीन , सारी सृष्टि में चित्-कण बिेखेरती हुई  .. संपूर्ण विश्व उस आनन्द का भोक्ता है - नारी-नर का भेद नहीं यहाँ ,यहाँ पृथकत्व नहीं  ,दोनो समान - क्यों कि प्राणी न मात्र नारी है न मात्र पुरुष .पुँ-स्त्री भाव  समन्वित रूप में सर्वत्र विद्यमान है -अर्द्धनारीश्वर में परम संतुलित! परस्पर अनुभवन करते हुए, एकात्म स्थिति  .शेष सृष्टि में  वही मिश्रण भिन्न-भिन्न अनुपातों में .इस असमता को प्राणी सम्यक् भावेन ग्रहण नहीं कर पाता.  संतुलन गड़बड़ाता है , मन में अहं पोषित 'स्व' का  वैषम्य जागता है - यही है सारे विग्रह का मूल .

छोड़ो , ये सब फ़ालतू बातें.
हाँ ,सान्ध्य-भ्रमण को निकली थी पतझर के बिखरे विविधवर्णी पातों पर पांव धरती ,खोई सी चली जा रही थी -  प्रातः काल के पाठ की पंक्ति मन में गुंजरित होने लगी - विद्याः समस्तास्तव देवि भेदः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु. मन विचार उठता है  मैं भी तुम्हारी अंशभूता हूँ,'
 लगा किसी ने आवाज़ दी..पग थम गए भटकी-सी देखने लगी .खड़े-खड़े पाँव विश्रान्त हुए ,निकटस्थ वृक्ष का झुका हुआ द्विभाजित तना जैसे बैठने का आमंत्रण दे रहा हो .घूम कर बैठ गई.
 इस जगह कभी आई नहीं थी पर अपरिचित कुछ नहीं लग रहा .नहीं बिलकुल भय नहीं,सहज रूप से बैठी हूँ . चारों ओर दृष्टि डालने लगी.
 विलक्षण शान्ति छाई थी .विचित्र सुगंधों से पूरित समीरण,एकाध लाल माटी की पगडंडी की छोड़ कर सारी भूमि तृणदलों से आच्छादित  पुष्पों से पूरित लता -गुल्म और कहीं-कहीं ऊंचे-ऊंचे वृक्ष.पर्याप्त समतल भू-भाग .मन में उठा.यहाँ तो कोई आयोजन हो सकता है.अकेले घूमते कैसे निराले  विचार घेरने लगते हैं   
  उठने का मन नहीं.बैठे-बैठे अलसा गई ,मस्तिष्क शिथिल  जैसे  तंद्रा छा रही हो 
अनायास सारे आभास बदलने लगे.नेत्रों के आगे नया दृष्य-पट खुलता चला जा रहा था जैसे किसी आयोजन का संभार .
दूर-दूर तक कलापूर्ण बहुरंगी अंकनों से युक्त  कालीन .चलने के लिए मार्गों की रिक्तियाँ कोमल लाल गलीचे से आवृत्त .पीठिकाओं युक्त सुन्दर आसन पर छाये तरु-लताओं के सुरंजित-पुष्पित वितान .सारे तत्व जैसे सजीव हो उठे हों ,कुछ ऊँचाई पर एक अतिसुन्दर वितान युक्त सिंहासन .चारों ओर कैसी रंग-रचनाएँ .कल्पना से परे .शीतल-सुखद .
वाद्य-यंत्रों की मंद झंकार.
 किसी अतीन्द्रिय लोक में जा पहुँची !
*
 अरे, किसका आगमन हो रहा है.
  अनुपम रूप-संपन्ना ,विचित्र वस्त्राभूषण धारे योगिनियां पधार रही हैं .अवर्णनीय आभा चतुर्दिक् छा गई
 और लो ,उस लता-वितान में सुन्दर आसनों पर वे विराज गईं.
संगीत के सातों स्वर वातावरण में गुंजरित हो उठे .
कुछ  कोलाहल उठा फिर शान्ति ,सब सजग हो गए थे.
 दिव्य सखियों से सेवित अपरूप श्री-सुषमा मंडिता  दिव्यवस्त्राभरण भूषिता, परम ज्योतिष्मती स्वयं प्रज्ञा पारमिता, दिशाओं को दीप्त करती हुई भव्य सिंहासन पर आ विराजीं , मुख का तेज ?दृष्टि सम्मुख हो नहीं पा रही .नेत्र झँपे जाते .वह आकार ,उस अरुण परिधान की झलक! एक आभास ही इतना प्रखर  ओह, नहीं .नेत्रों की सामर्थ्य नहीं .शब्दों  में वह शक्ति कहाँ कि व्यक्त कर सकें.
अभिभूत,स्तब्ध विजड़ित-सी मैं .
कुछ पल उनके परस्परिक  विनिमय के .
कोई स्वर -'आज यहाँ कोई है ?'
'हाँ, जो है उसे  होना था .'
आभास दे दिया था?
'स्वप्न में अनेक बार भान कराया है .यही अवसर उपयुक्त पाया .
हाँ .हाँ .ठीक है .प्रस्तुति हेतु उपचार हो. .
कुछ हलचल हुई .कोई उठा,
मेरे निकट आया है कोई .

 मेरा अपने आप पर कोई वश नहीं. स्वप्न सा घटता रहा . अतीन्द्रिय-सी अनुभूति ..निर्देशित सी  मैं पेड़ से उठी . जो आईँ थीं वे मेरे साथ .चल रहे हैं हम  .प्रयत्न नहीं करना पड़ता स्वचालित गति- स्वयमेव नियंत्रित .
एक कक्ष में आ गए हम लोगस विविध सुविधाओं और अनेकानेक प्रसाधनों से सजा, वहीं स्नानागार. सुगंधित जड़ी-बूटियों से युक्त जल बड़े-बड़े गंगालों में भरा.  भारहीन तन ,बिना आयास सारे क्रिय-कलाप. जैसे  मैं वायवी हो गई होऊँ .वहाँ कुछ और जन बड़ी कोमलता से विविध उपचार करते दिखाई देिये .

और मैं ? 
जैसे अवश शिशु को माँ अपने संरक्षण में संचालित कर रही हो .
सुवासित उबटन का आलेपन. पुष्पों से सुगंधित सुस्पर्शी शीतल जल  कलश  भर-भर मुझ पर उँडेल-उँडेल कर अति मृदुता से स्नान संपन्न कराया गया  तन के भीगेपन को जैसे शुभ्र  हंस-पंख  फिरा कर सुखा रहा हो ,कंठ-वक्ष-कटि आदि संधि-स्थलों पर प्रीतिकर अंगराग-चूर्ण का सुशीतल परस  .
लो , रोग-दोषों से निवारित हुई काया  .
प्रश्न उठा - कब तक?
चिहुँका-सा प्रतिप्रश्न - ये उपचार एक जनम सीमित रहते हैं क्या ?
पुहुप पँखुरियों से कोमल अंतःवस्त्र अंग-अंग साधते सजा दिए.
 परिधान ! ओह, कल्पना से परे , मन-भावन!
 नितान्त अपरिचित नहीं लग रहे ,पर मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी पहना हो इन्हें .
बिन बोले बिन पूछे  अनायास समाधान कर देता है कोई .

 .यहाँ के नियम हैं .महामाया के सम्मुख उन वस्त्रों में कैसे उपस्थित होगी ?
बिल्कुल हल्का हो गया तन-मन, रोम-रोम पुलकित.
रत्नाभूषणों की झिल-मिल .अरे नेत्रों को यह कैसा आँजा  -जैसे दिव्य दृष्टि धर ली हो .मैं चल रही हूँ ,या कोई लिये जा रहा है ,कोई प्रयास नहीं ,सब कुछ अनायास
विस्मित हूँ ,यह सब क्या है ?
- उस परम ऊर्जस्विता से योजन का आयोजन !
*
 वहीं पहुँच गई
किसी ने सूचना दी - प्रस्तुत है .

 मैं ? हाँ मैं ही तो . प्रस्तुत हूँ उस भव्य सिंहासन के तले.
नहीं, मुझे उस प्रताप से कोई आतंक नहीं ,मंद-स्मित पूरित वह स्निग्ध  दृष्टि मुझे आश्वस्त कर रही है.
वही हैं ,हाँ ,वही - सब के मूल में स्थित - परमात्मिका,परमा.
 बूझने का यत्न किया था. कोई एक संज्ञा है क्या - .महामाया, चिन्मयातीता, प्रज्ञापारमिता? संपूर्णता से व्यक्त कर सके ऐसी कोई अभिधा पर्य्याप्त नहीं. 
अंतर में अनुगूँज उठी - मूल प्रकृति में त्रिगुणों के आरोह-अवरोहों के अनगिनती क्रम.कितने रूप,कितने नाम !
वही ,हाँ ,हाँ ,वही ,स्वप्न में दर्शनाभास मिला था जिनका. मुग्ध सी मैं.
 हाथ जुड़ गये शीष झुक गया - 'अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति..' 
 मंद स्मिति कुछ और खिली.
विलक्षण शान्ति!
अद्भुत अनुभूति- वृत्तियां एकाग्र हो गईं,तन के बोध खो गये उस इन्द्रियातीत  अनुभव के लिए  कोई शब्द नहीं .
समय बीतता रहा या थम गया था ?
एक स्वर -अरे,इसकी स्मृति ..!
पता नहीं कैसा विभ्रम !
लगा मेरे ऊपर से चेत देता हुआ -सा  रेशमी स्निग्ध स्पर्श गुज़र गया हो !
उस अर्द्ध-चेत में भी चौंक उठी - अरे , सब भूल जाऊंगी क्या ?
अंतर में टीस-सी उठी .नहीं भूलना चाहती , रहने दो मेरे साथ.  स्मृति ही सही .
आज का यह विलक्षण परम दुर्लभ अनुभव क्या सदा को खो जायेगा स्मरण के सुख से भी वंचित रहूँगी ?
मधुर-सी हँसी.
वे मौन हैं .पर लगा कह रही हैं -विस्मृत हो जाये तो क्या. जो अनुभव आत्मा का अंश बन गया  ,संस्कारों में बस गया . विलीन होना कहाँ संभव.. !
उलझन फिर भी नहीं सुलझी .पुनः समाधान मिला - सजग चेतना में एक बार पहुँच गया जो ,उसे कैसे कोई मिटा पायेगा !गहन अनुभव का अंश बन गया जो उस स्मृति का पूर्ण विलय संभव नहीं.कौंध बार-बार उठेगी मानस में  पुनः-पुनः बोध जागेगा . किसी अनुकूल अवसर पर जब स्मृति उद्बुद्ध होने लगे ,खंड-खंड जागने लगे, समझ जाना कि  मेरे बहुत पास हो .'
समग्र नहीं, बिखरी हुई .खंड-खंड ?
जैसा उचित समझो माँ ,शिरोधार्य है मुझे , इन स्मृतियों का कण-कण समेटती रहूँगी ,जोड़ती रहूँगी तुम्हारा अवदान समझ कर .
नेत्र  उठे,  उनके आयत नयनों की दृष्टि में विनोद का आभास. कानों ने सुना,' हाँ, तो कहो जो कहना है ?'
विस्मित मैं - मुझे क्या कहना, जब कुछ पता ही नहीं!
स्पष्टीकरण हुआ
जो चाहो माँग लो !

मैं ? मैं तो चकित!
'दर्शन निष्फल नहीं होते .क्या चाहिये तुम्हें ? '
मुझे क्या चाहिये ? उलझन में पड़ गई .
ऊहापोह की स्थिति - मन थिर नहीं होता.
विचार उठने लगे - माँ के सामने हूँ अभी तो मन-चाहा मिलेगा.
पर क्या ?
ऐसा क्या है जो माँगने पर कुछ और पाने की कामना  न हो?
 मुझे क्या चाहिये? क्या चाहिए जो पाकर मैं पूर्ण तृप्त हो जाऊं,.क्या?..क्या?
 सुख?
क्या है सुख? मन की स्थिति ही तो, बहुत परिवर्तनशील ,अस्थाई .
यश ,धन,बल ? सब ऊपरी वस्तुएँ .चलायमान .टिकनेवाला कुछ नहीं. समय के साथ सब बीत जायेंगे . एक अतिरिक्त रिक्तता छोड़ जाएँगे .ऐसी भंगुर वस्तु माँग कर क्या करूँ?
मन स्थिर नहीं कर पा रही .
मैं क्या बोलूँ, माँ?
तुमसे उधिक कौन समझेगा मुझे? मेरे अंदर जो भी चल रहा है, हे घटवासिनी, तुम जान रही हो  .मेरी सीमित बुद्धि अक्षम है.
ऐसा क्या है जो माँगने पर कुछ और पाना शेष न रहे?
उनके मुख पर मंद स्मिति.
मेरी उलझन तुम्हीं सुलझा दो न !
    शब्दों की आवश्यकता नहीं थी. मौन में संवाद संपन्न होते रहे.
जन्म-जन्मान्तर तक मेरा कल्याण हो जिसमें, महामंगले, मति-गति तुम्हारे सदांश से  नियंत्रित रहे .नहीं जानती मैं क्या बोलूँ ..तुम्हीं जानो  ..
नयन उठा कर देखा उन्होने . अंतर परम स्वस्ति से भर उठा.
मेरा शीष अनायास झुक गया था.

अच्छा  पुत्री ,बस अब !
पुत्री?
 पुत्री कहा?
 उन्होंने ? मुझसे ?
क्या शेष रह गया अब !
अभिभूत मैं, कृतार्थ !
 उसी आत्म-विस्मृति में अंतर्मन पुकार उठा - बस, आश्वस्त करती रहना,
हर विचलन में , माँ ,कि सिर पर हाथ तुम्हारा है!'
 स्वस्ति कर उठता दिखा.
आविष्ट मैं. नयन-पलक मुँद गए थे.
आगे की सुध नहीं मुझे.
बड़े भोर नींद खुली थी -अपने कक्ष में शैया पर .भ्रमित सी चारों ओर देखती रह गई थी.
*
बहुत खोजा था उन्हें , बहुत-कुछ पूछना था,
 पर फिर कभी नहीं मिलीं वे !

इस नवरात्र-बेला में  रहस्य-कथा  अनायास ही अक्षरित हो गई - वाङ्माया की इच्छा रही होगी !

*


6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना मंगलवार 08 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. कनक से दिन मोती सी रात सुनहली सॉझ गुलाबी प्रात ।
    मिटाता - रँगता बारम्बार कौन जग का वह चित्राधार ॥
    महादेवी वर्मा

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  3. परमात्मा केलिए जो व्याकुल है उस अंतर को वह मिल ही जाता है..अद्भुत कथा..आपके सुंदर वर्णन ने इसे और भी आकर्षक बना दित्य है...स्वप्न में जो समाधि घटी है उसे कितने भावपूर्ण शब्दों में आपने उकेरा है..नमन !

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  4. :''''-) jaane kyun ant tak aate aate netr bheeg gaye...aur thodi irshiyaa si bhi prateet hui ki (kshama kijiyega) merko aise sapne kayko nai aate..:-) hehhe.
    'ganga teere' wala post yaad aa gaya merko Pratibha ji..uske akhir me bhi mann shant tha..aalekjh sunder bhi laga tha..magar mann wahan bhi bheeg hi gaya tha..:'-)
    aap aise likhtin hain na..to lagta hai aankhon ke aage kram dar kram drishya upasthit ho rahe hain...kahin kahin padhte hue laga jaise nidhivan (Vrindavan) me maha raas kaa ayojan likh rahin hain aap.......maine to gopiyon, maa radhika aur kishnu ke beech aapko bhi lajaate sakuchaate imagine kar liya tha :'D
    pehle bhi padhi thi ye post..magar aaj bahut achhe se padhi..ek ek shabd ko ek ek vaakya ko jeete hue samajhte hue...laga ant me main hi jaagi houn koi samaadhi se...aapke lekhan ka kamaal...:'')

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