गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

कथांश -2.

*
बस दो लोग बार-बार मन में जागते हैं. माँ और मीता .यही मेरे अपने, चिर दिन साथ रहेंगे - दोनों .
माँ तो माँ है ,और मीता ?
मीता मेरी सहपाठिन .चार साल साथ पढ़े थे दोनों .केवल चार बरस .पर लगता है जाने कितनी पुरानी है पहचान .
 पहली बार लाइब्रेरी में ध्यान गया था. वह कोई फ़ार्म भर रही थी,मेज़ पर झुकी हुई.चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था .अचानक सिर उठा कर इधर-उधर देखा  उसने ,अपने पेन को झटका, हिला-डुला कर देखा .चलते-चलते रुक गया था ,किसी तरह चला नहीं .
'बड़ी मुश्किल है .'उसके मुख से निकला . मैे शेल्फ़ से किताबें निकाल लाया था, सामने खड़ा था.
 किताबें मेज़ पर रख कर जेब से पेन निकाल कर दे दिया .
'बस थोड़ा-सा बचा है ,मुश्किल से पाँच मिनट लगेंगे.'
'आप आराम से भर लीजिये. '
वह फिर फ़ार्म पर झुक गई
केश-संभार के पीछे चेहरा गुम गया .
'आप आराम से भरिये, दूसरा है मेरे पास .'
मैं चला आया था .
दो दिन बाद कॉरिडोर में जा रहा था ,पीछे से आवाज आई ',जरा सुनिए ...रुकिए ..'
पीछे घूम कर देखा वही लड़की  रुक गया मैं.
मेरा पेन निकाल कर दिया उसने, 'धन्यवाद.'
'आपका शुभ नाम जान सकती हूँ ?'
'मैं ?ब्रजेश कहते हैं मुझे .'
मैंने पूछा नहीं था.उसका नाम मुझे बाद मे पता चला - पारमिता !
फिर क्लास में बैठे देखा लेक्चर-थियेटर था .उस ओर की बेंच पर हाथ में पेन पकड़े तिरछी घूमी लेक्चर पर ध्यान लगाए थी.
ध्यान से देखा .नेत्र बँध से गए.
चकियाया सा  देखे जा रहा है युवक.
पहली बार देख रहा है किसी नारी को ?
नहीं बचपन से देखा है, देखता आया हूँ . माँ बहिन , बुआ भी थीं पहले. चाची मामी उनकी पुत्रियाँ -कई बहनें . साथ भी रहा हूँ -   सब हैं
 कभी कोई कौतूहल नहीं जागा .सहज रूप से उन संबंधों में बँधा रहा . 
माँ -वो तो माँ हैं! कुछ और सोचा नहीं कभी. जन्मदात्री ,पयपान किया, गोद में सोया ,पोष-तोष पाता रहा .सब अनायास मिलता रहा , कभी विचार नहीं आया ये नारियाँ  हैं.
बहिन छोटी है मुझसे ,बच्ची-सी लगती है, हमेशा स्नेह -संरक्षण की अधिकारिणी .कभी इससे अधिक मन में आया  नहीं. किसी दूजी ओर ध्यान  गया  नहीं .कोई प्रवृत्ति नहीं जागी मन में, स्मृतियों में कोई आवृत्ति नहीं हुई .
परिवार की कितनी नारियाँ .सब संबंधों की पीठिका बनी-बनाई मिलती है,उसी अलिखित संहिता के अनुसार किस भाव  से देखना है पहले ही तय रहता है .बिना किसा द्विधा के  व्यवहार चलने लगता है .अलग-अलग खाँचे, उसी में जम जाते हैं सारे नाते .
पर यह?
नितान्त नई  लड़की से पाला पड़े तो मन  कुछ निराली ही संहिता रचने लगता है.
आज ही देख रहा हूँ इस देह-यष्टि के साथ -एक नया रूप .मन में  कभी ऐसा नहीं जगा था .आश्चर्य, कौतूहल ,देखने की कामना ,कुछ खींचता -सा .अपने को भूला सा ,कुछ नए बोध उदित हेने लगे.
 - तिरछी गर्दन की लास्यपूर्ण भंगिमा, घूमे हुए मुख की आत्मलीन मुद्रा को  विजड़ित कौतूहल से ताकता रह गया.
साथ बैठे लड़के ने टहोका दिया ,'क्या देखे जा रहा है..साले.. ?
मैं एकदम चौंक गया, दृष्टि हटा ली .रोकता रहा उधर न जाए .
ध्यान बार-बार उचटता रहा.

 कानों में शब्दों की  गूँज जागी, 'बेटा, मन लगा कर पढ़ना!'
जानता हूँ इसके बिना निस्तार नहीं .
नहीं देखूँगा उधर , लेक्चर से ध्यान बार-बार  हट जाता है .
क्लास चल रही है .बोर्ड पर  समीकरण लिखे जा रहे हैं उन्हीं में डूबने की कोशिश करता रहा.

*
(क्रमशः)

3 टिप्‍पणियां:

  1. पहला भाग नहीं पढ़ा है अभी, कहानी अति रोचक है, .आपकी भाषा के बारे में कुछ कहना तो सूर्य को दीपक दिखाने जैसा ही होगा..

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  2. :) जैसा कि लग ही था, बहुत रोचक है!

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  3. chhoti se chhoti ghatna bhi kitti maheenta se ukertin hain Pratibha ji aap..mugdh hi ho jaati hoon humesha..:') poora lecture hall ka drishya ankhon k aage aa gaya :)

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