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दृष्य - 3
सूत्र - कितनी उन्नत सभ्यता ,कैसा आनन्दमय जीवन और अब केवल खँडहर बचे .
लोक -कोई बड़ी भौतिक आपदा .इसके विनाश का कारण बन गई .
नटी - शताब्दियाँ लग जाती हैं जिसे सँजोने में, काल का कोप अचानक ही लील जाता है.
कवि - यह जीवन एक अविराम क्रम है .
(दो क्षण चुप्पी)
नटी -कवि,आपने देव संस्कृति की बात कही थी ,यह संस्कृत जिसे हम देव वाणी कहते हैं क्या उन्हीं से मिली है .
सूत्र - वेदों की भाषा छंदस् रही थी ,बोलने के क्रम में वह जब अनेर रूपों में विकसित होने लगी तब अनुशासन में रखने को पाणिनि ने व्याकरणिक नियमों से उसका संस्कार किया और वह संस्कृत कहलाई .
नटी -मेरा मतलब नाम से नहीं भाषा के उद्गम से है .विकसित हो रही सभ्यताओं के उस चरण में ,इतनी पूर्ण और वैज्ञानिक भाषा व्यवहार में आए.और उसके नियम-व्याकरण बाद में बने आश्चर्य है .मुझे लगता है देवजाति के विनाश में उनकी परंपरागत भाषा किसी तरह बच गई .
सूत्र - हाँ ,आश्चर्य मुझे भी होता है . वेदों को भी तो अपौरुषेय माना गया है पहले यह श्रुति परंपरा में सुरक्षित रहे .लेखन बाद में प्रारंभ हुआ .
नटी - देव-संस्कृति की अवशिष्ट सामग्री में जो बचा वह वंशधर ने पाया .(लोकमन सुन-सुन कर मौन मुस्करा रहा है ),कवि, तुम हँसे जाओगे या कुछ कहोगे भी ..
लोक - तुम्हारी जिज्ञासा की छूत मुझे भी लग गई, नटी .उन मनु-पुत्रों ने जो पाया ,एक पीढ़ी दूसरी की स्मृति में डालती गई ,
नटी -हाँ और चिन्तक-जन उसी के अनुरूप रच-रच कर उसमें जोड़ते रहे .तो फिर संस्कृत की लिपि ?
हूँ.. ,ये भी विकट प्रश्न है .वेदों को श्रुति परंपरा में सुरक्षित रखा कि उसकी ध्वनियाँ विकृत न होने लगें, अनुकरण में पूर्णता बनी रहे लेकिन ज्ञान के अन्य ग्रंथ लिखित रहे होंगे कुछ लोगों का जीवित बचना संभव है .सभी कुछ नष्ट नहीं होता .
सूत्र.- प्रिये , संभावनाओं का कोई अंत नहीं कवि को आगे बढ़ने दो .हाँ, कवि .
लोकमन - सभ्यता सिंधु घाटी तक सीमित नहीं थी .इसकी व्याप्ति दूर-दूर तक सरस्वती नदी के पूरा क्षेत्र में तो थी ही. भारत से दूर दूरस्थ भूमियों में भी जो प्राचीन अवशेष मिलते हैं उनमें और इनमें बहुत समानताएं हैं .
सूत्र - और आर्य ?
लोक. - आर्य इसी देश के वासी रहे थे वे एक जगह सीमित हो कर रहनेवालों में नहीं थे .प्रारंभ में उच्च भूमियों पर निवास करते थे .दूर देशों तक उनका विस्तार रहा था .समय के साथ जन-संख्या का क्षेत्र फैलता गया."
सूत्र - इनकी श्रेष्ठता का लोहा सबने माना .कुछ विशेषताएँ रही होंगी, मित्र .
लोकमन - वह भी देख लो -
दृष्य -
आर्यों की संस्कृति का विशेष ,था सप्त- सिन्धु अति रम्य देश .
आत्मानुभूति का उषाकाल ,वह वेद ऋचाओं का सुकाल .
मंगल - स्वर से गूँजे जंगल ,ऋषि रचने लगे वेद मंडल .
[पृष्ठ भूमि से स्वर -
आत्मवत् सर्वभूतेषु ,सर्वभूतानि चात्मनि .
यः पश्यति स पश्यति .]
लोक - विश्वात्मा के अति ही समीप ,मनुजात्मा ज्योतित ज्ञानदीप .
कर्मण्य,समन्वय अनुशासन ,आनन्द उछाह सहज जीवन .
कल्याण विश्व का चरम ध्येय,ऋत और सत्य से युक्त श्रेय .
सबका सुख ही अपना सुख हो ,निष्कलुष ,सन्तुलित जीवन हो .
इच्छा विवेक आधार गहे ,वसुधा कुटुम्ब अविकार रहे .
[पृष्ठभूमि से स्वर -सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः ,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तः,मा कश्चिद् दुःख भाव भवेत् .]
श्रद्धा विवेक आधार रहे ,वसुधा कुटुम्ब अविकार रहे .
मानव ही है सबसे महान् ,इस महासृष्टि का समाधान .
विश्वास युक्त होकर अदीन ,मन रहे सतत आनन्दलीन .
इनका आवागमन दूर-दूर तक चलता था. दृषद्वती,जिसे हम अब दज़ला कहते हैं (दजला )का क्षेत्र पुलस्तिन जो पैलेस्टाइन कहलाता है असुरिया या असीरिया तक और उससे आगे भी ..
सूत्र - आर्य-भाषा और शब्द चाहे विरूप हो गए हों ,उन भाषाओँ में अभी भी खोजे तजा सकते हैं .
नटी -कैसा होगा उनका जीवन ?
दृष्य खुलता है -
[अपेक्षाकृत मैदानी क्षेत्र ,आर्यों के डेरे गड़े हैं पृष्ठभूमि में बैलगाड़ियाँ ,पशु आदि .आग जल रही है ,जिसके चारों ओर लोग विभन्न क्रिया कलापों में व्यस्त हैं .
एक व्यक्ति - कितना विस्तृत है यह प्रदेश . और कितने भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग यहाँ रहते हैं .
एक व्यक्ति - कितना विस्तृत है यह प्रदेश . और कितने भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग यहाँ रहते हैं .
वृद्ध -आश्चर्य हो रहा है सुमेध को . हमें पहले ही आभास था कि यह भू क्षेत्र बहुत बहुत-दूर-दूर तक फैला है नाग ,गरुड,वानर, किरात ,निषाद मत्स्य आदि जाने कितने कबीले यहाँ बसते हैं .
सुमेध - उधर उत्तर पश्चिमी दिशा हमारी जानी पहचानी रही पर ये जो असुर कहलाते हैं ,वे विचित्र लोग हैं .नाक कान छेद कर स्वर्ण पहनते हैं ,मुझे तो वितृष्णा होती है इनसे .
वृद्ध - वितृष्णा ,भले होती हो पर उनके नगर देखे हैं कभी ?कितने सुव्यवस्थित हैं -उनके भवन ,नालियाँ स्नानागार ,सडकें,तालाब क्या नहीं है ?लो वह अमृताश्व आ गया .
[अमृताश्व आता है ,लगता है दूर की यात्रा से आया है .सूती वस्त्र पहने है एक पोटली उसके पास है,वृद्ध को प्रणाम कर बैठता है ]
वृद्ध -दीर्घायु हो वत्स .आओ विश्रान्त हो .उषा सोम ला .
[इधर -उधर बैठे लोग पास खिसक आते हैं ,एक तरुणी पात्र में सोम ला कर देती है .अमृताश्व पीता है .एक युवक वरुण ,उसके वस्त्र छू कर देखता है ]
वरुण - मित्र ,यह वस्त्र किस प्रकार के ऊन का है ?
अमृ. - यह पशुओं से प्राप्त ऊन नहीं ,वृक्ष पर उगनेवाला रेशेयुक्त फल है .इसे कार्पास कहते हैं .
उषा - तेरी पोटली में क्या है भ्रातर ?ला, मैं देखूँ .
[कुछ और महिलायें उत्सुकता से पास आ जाती हैं ,पोटली का सामान उठ-उठा कर देखती हैं .एक उसमें बँधे मिट्टी के ठीकरे उठती है]
स्त्री -यह क्यों बाँध लाया है .ये मिट्टी के ठीकरे काहे के लिये हैं ?
अमृ. - पटल है माते .रुचि ,रख दे यह तेरे काम का नहीं . ला दे .[वृद्ध की ओर बढा कर ]तात ये असुरों के संकेत-चिह्न हैं.इनके माध्यम से अपनी बात दूसरों से कहने में देश- काल के व्यवधान बीच में नहीं आते .
रुचि -पहेली मत बुझा भ्रातर ,स्पष्ट कह .ये क्या कोई जादू है या मंत्र है ?
अमृ. - इन चिह्नो में जो अंकित किया गया है ,इनका जानकार उन्हें पढ़ कर समझ लेता है .बिना बोले ,बिना सामने आये सब स्पष्ट हो जाता है .
वृद्ध -[हाथ में ले कर ]अद्भुत है ,आश्चर्यजनक .तू बडा चतुर है अमृताश्व ,उनके ये संकेत-चिह्न तू कहाँ पा गया ?
अमृ. - उनमें कुछ से मेरी मित्रता हो गई थी ,उन्हीं से मैंने यह विद्या सीख ली .
वृद्ध - इस विद्या के विषय में मैने सुना था.हमारे आदिपुरुष मनु के पास अंकनो से युक्त कुछ भूर्ज पत्र थे .वे संग्रह में हैं और उनके जानकार भी हैं.
सूत्र -तो नसे यह विद्या सीख लेनी चाहिये थी हमें .
लोक- कौन कहता है नहीं सीखी .पर अभी सर्वसुलभ नहीं हुई .एक जगह शान्ति से रहें तो वह भी हो जाएगी .
[उसा बीच उषा,रुचि आदि महिलाएँ परस्पर वार्तालाप करती हुई आभूषण निकाल लेती है .,कुछ सूती वस्त्र भी निकलते हैं.स्त्रियाँ आभूषण उठा-उठा कर प्रसन्न हो रही हैं .]
रुचि -यह वलय है, मैं लूँगी .
उषा -कितनी तो लाया है भ्रातर .ला मुझे भी दे .
एक महिला -[कर्णफूल उठा कर ]यह क्या है ?
अमृ. - वे लोग नाक -कान छेद कर ये आभूषण पहनते हैं .
वृद्ध -वत्स अमृताश्व ,तूने यह ठीक नहीं किया .पुष्पों से अधिक सुन्दर और सुलभ और कोई शृंगार हो सकता है क्या ?हमारी स्त्रियाँ आभूषण-प्रिय हो जायेंगी ,अपनी स्वाभाविक गरिमा और शील खो देंगी .यह विलासिता हमें कहीं का नहीं रखेगी .जब तक भुजाओं में बल है यह धरती हमारी है ,नहीं तो कुछ अपना नहीं .रुचि,इषा ,ये आभूषण रख दो .अपना कार्य करो .[वे रख देती हैं ]हमें असुरों से बचकर रहना होगा .वत्स सुमेध ,समस्त गण को इस पवित्र अग्नि के चारों ओर एकत्र करो .
[कुछ युवक उठ कर जाते हैं ,लोग एकत्र होने लगते हैं ]
वृद्ध - जन सुनें ,गण सुनें ,ब्रह्म सुनें, यह धरती हमें आश्रय देती है, कुछ बर्बर लोग जो हमें हटा कर भूमि पर अधिकार करना चाहता है हम उनसे नहीं डरते ,हमारी स्त्रियाँ, बालक सब युद्ध करना जानते हैं.गण के समक्ष हम सब बराबर हैं ....देवों को हव्य मिले ,पितरों को कव्य मिले ,हमारा गण उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त हो इसके लिये इस ओर उनकी सब जानकारी करने को अमृताश्व और ऋचीक को भेजा था .अमृताश्व आपके सम्मुख है और ऋचीक भी शीघ्र ही आयेगा .अब हमारा ब्रह्म यह निर्णय करे कि हमें आगे क्या करना है .
एक पुरुष -उचित है तात,भद्र अमृताश्व स्थिति स्पष्ट करें .
अमृताश्व - मैं एक मास के लगभग असुरों के नगर में रह कर आया हूँ .रूप में हमसे हीन होकर भी वे सभ्यता में हमसे आगे हैं .
एक स्त्री -धिक्कार है .तू उन लोगों को हमसे सभ्य कहता है [कोलाहल होता है ]
अमृताश्व -जन सुनें ,गण सुनें ,ब्रह्म सुनें, मुझे जो प्रतीत हुआ वह सबके सम्मुख स्पष्ट रूप में रखना मेरा कर्तव्य है ..
वृद्ध -[खडे होकर ,शान्ति स्थापन का प्रयास करता हुआ ]पहले अमृताश्व की बात को गण सुने .कोई पूर्वाग्रह लेकर निर्णय न किया जाय .वत्स, कहो.....
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यह नाट्य प्रस्तुति गहन अध्ययन का संकेत करती है ..... मानव के विकास और विनाश को इंगित कर रही है ... आगे की उत्सुकता बनी हुयी है ।
जवाब देंहटाएंउत्तम प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार-
नमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (25-08-2013) के चर्चा मंच -1348 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।
जवाब देंहटाएंमूल में देव व असुर संस्कृतियों की चिर-गाथा है ....
जवाब देंहटाएंगदगद हूँ!
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