'बड़ी माँ, मेरी मामी चादर को चद्दर कहती हैं,और चाकू को चक्कू!'
मेरा पोता अपने ननिहाल से आया था .शाम को आकर मेरे पास बैठ गया .
बहू सुन रही थी ,' कैसा भोला बना बैठा रहता है जैसे कुछ सुन ही न रहा हो ,और सब नोट करता रहता है .'
मन-मन हँस रही हूँ मैं .
पोते से कहा मैंने , 'हाँ, हर जगह अपने ढंग से बोलते हैं लोग.'
मुझे याद है हमारे ताऊ जी -पिताजी वगैरा ख़तों में कन्नौज में क के नीचे नुक्ता लगा कर 'क़न्नौज' लिखते थे . देसी बोलियाँ घर में बोलने की आदत थी .खड़ी बोली घर से बाहर ही रहती थी .पिछली पीढ़ी तक घरों में अपने-अपने क्षेत्र की बोली चलती रही.पारिवारिक समारोहों उत्सवों आदि में देसी बोलियों का ही बोल-बाला रहता था ,विवाह,मुंडन कनछेदन आदि पर गीत भी - लोक-जीवन के रंगों में रचे रस-सिक्त गीत. खड़ी बोली अधिकतर बाहर बोलने में प्रयुक्त होती थी .
लोग चिट्ठियाँ फ़ारसी या उर्दू में लिखते थे ,पराधीन जनों के औपचारिक- सामाजिक व्यवहारों में शासकीय भाषा-अनुशासन का प्रभाव आ ही जाता है . या फिर पंडिताऊ ढंग पर 'अत्रकुशलम् तत्रास्तु' से शुरू कर बँधी-बँधाई पारंपरिक शब्दावली में . आगे चल कर चिट्ठी-पत्री अंग्रेजी में होने लगी..इस पीढ़ी के लोग अब घर में भी खड़ी बोली बोलते हैं पर बोलने और लिखने में टोन थोड़ी बदल जाती है
हमारे पिता जी कन्नौज के थे ,माताजी हरदोई की .हम लोग मध्य-भारत की ग्वालियर स्टेट में . कन्नौज जाते वहां घरों में कन्नौजी बोली जाती ,माता जी के घर की बोली में थोड़ा फ़र्क था ,और मध्य-भारत में मालवी चलती थी.मराठी भाषा भी खूब सुनने को मिलती थी. स्कूलों में किताबें खड़ी बोली में पढ़ाई जातीं था पर समझाने और बोलने में क्षेत्र का पूरा प्रभाव भी रहता था.
हिन्दी बोलने में भी हर प्रान्त के अपने शब्द-रूप और बोलने की अपनी टोन एक अपना फ़्लो है -स्थानीय शब्द तो होते ही हैं .समय के साथ नये शब्द भी सम्मिलित होते हैं और भाषा में उतनी एक रूपता नहीं रह पाती. इसे भाषा-विकास भी कह सकते हैं भाषा का क्षेत्र बहुत व्यापक होने पर कुछ कारणों से -स्थानीय प्रभावों आदि के कारण ,शब्दों के रूप ,प्रयोग में अंतर आता जाता है .ब्लागों पर 'रायता फैलने' की बात ,चौचक,आदि और बहुत से शब्द शुरू में मेरी समझ नहीं आते ,झकास,बिंदास . इसी प्रकार स्थानीय शब्द धीरे-धीरे मुख्य भाषा में आ जाते हैं .और अब ब्लागों पर तो क्षेत्रीय भाषाएँ बहुत मुखर हो गई हैं - जवार,एकदम्मै,जोगाड़,मारू,पट ठेलना,मनई सारे अपनी-अपनी भंगिमा लिये मंच पर उपस्थित हैं. जीवित भाषाओं की इस प्रवृत्ति को रोका नहीं जा सकता ,हिन्दी भाषा के क्षेत्र में बड़ी उठा-पटक चल रही है. कभी भी इस पर बड़ा भूचाल आ सकता है.
भाषा का सतत गतिशील रूप ही उसका जीवन है .कोई कितनी भी हाय-हाय मचाये दूसरे को गलत बताता रहे.मानक भाषा अपनी जगह चलती रहेगी लोक-जीवन यों ही चलता रहेगा और उसके साथ-साथ भाषा भी .कोई कुछ नहीं कर पाएगा .स्वीकारे बिना निस्तार नहीं .
मेरा पोता अपने ननिहाल से आया था .शाम को आकर मेरे पास बैठ गया .
बहू सुन रही थी ,' कैसा भोला बना बैठा रहता है जैसे कुछ सुन ही न रहा हो ,और सब नोट करता रहता है .'
मन-मन हँस रही हूँ मैं .
पोते से कहा मैंने , 'हाँ, हर जगह अपने ढंग से बोलते हैं लोग.'
मुझे याद है हमारे ताऊ जी -पिताजी वगैरा ख़तों में कन्नौज में क के नीचे नुक्ता लगा कर 'क़न्नौज' लिखते थे . देसी बोलियाँ घर में बोलने की आदत थी .खड़ी बोली घर से बाहर ही रहती थी .पिछली पीढ़ी तक घरों में अपने-अपने क्षेत्र की बोली चलती रही.पारिवारिक समारोहों उत्सवों आदि में देसी बोलियों का ही बोल-बाला रहता था ,विवाह,मुंडन कनछेदन आदि पर गीत भी - लोक-जीवन के रंगों में रचे रस-सिक्त गीत. खड़ी बोली अधिकतर बाहर बोलने में प्रयुक्त होती थी .
लोग चिट्ठियाँ फ़ारसी या उर्दू में लिखते थे ,पराधीन जनों के औपचारिक- सामाजिक व्यवहारों में शासकीय भाषा-अनुशासन का प्रभाव आ ही जाता है . या फिर पंडिताऊ ढंग पर 'अत्रकुशलम् तत्रास्तु' से शुरू कर बँधी-बँधाई पारंपरिक शब्दावली में . आगे चल कर चिट्ठी-पत्री अंग्रेजी में होने लगी..इस पीढ़ी के लोग अब घर में भी खड़ी बोली बोलते हैं पर बोलने और लिखने में टोन थोड़ी बदल जाती है
हमारे पिता जी कन्नौज के थे ,माताजी हरदोई की .हम लोग मध्य-भारत की ग्वालियर स्टेट में . कन्नौज जाते वहां घरों में कन्नौजी बोली जाती ,माता जी के घर की बोली में थोड़ा फ़र्क था ,और मध्य-भारत में मालवी चलती थी.मराठी भाषा भी खूब सुनने को मिलती थी. स्कूलों में किताबें खड़ी बोली में पढ़ाई जातीं था पर समझाने और बोलने में क्षेत्र का पूरा प्रभाव भी रहता था.
हिन्दी बोलने में भी हर प्रान्त के अपने शब्द-रूप और बोलने की अपनी टोन एक अपना फ़्लो है -स्थानीय शब्द तो होते ही हैं .समय के साथ नये शब्द भी सम्मिलित होते हैं और भाषा में उतनी एक रूपता नहीं रह पाती. इसे भाषा-विकास भी कह सकते हैं भाषा का क्षेत्र बहुत व्यापक होने पर कुछ कारणों से -स्थानीय प्रभावों आदि के कारण ,शब्दों के रूप ,प्रयोग में अंतर आता जाता है .ब्लागों पर 'रायता फैलने' की बात ,चौचक,आदि और बहुत से शब्द शुरू में मेरी समझ नहीं आते ,झकास,बिंदास . इसी प्रकार स्थानीय शब्द धीरे-धीरे मुख्य भाषा में आ जाते हैं .और अब ब्लागों पर तो क्षेत्रीय भाषाएँ बहुत मुखर हो गई हैं - जवार,एकदम्मै,जोगाड़,मारू,पट ठेलना,मनई सारे अपनी-अपनी भंगिमा लिये मंच पर उपस्थित हैं. जीवित भाषाओं की इस प्रवृत्ति को रोका नहीं जा सकता ,हिन्दी भाषा के क्षेत्र में बड़ी उठा-पटक चल रही है. कभी भी इस पर बड़ा भूचाल आ सकता है.
भाषा का सतत गतिशील रूप ही उसका जीवन है .कोई कितनी भी हाय-हाय मचाये दूसरे को गलत बताता रहे.मानक भाषा अपनी जगह चलती रहेगी लोक-जीवन यों ही चलता रहेगा और उसके साथ-साथ भाषा भी .कोई कुछ नहीं कर पाएगा .स्वीकारे बिना निस्तार नहीं .
शब्दों का संक्षिप्तिकरण या विस्तारण
जवाब देंहटाएंऔर सुविधानुसार उच्चारित करते थे पहले के लोग
एक काफी पुराना अखबार की कतरन दिखी
उसमें एक ही शब्द यहां लिख रही हूँ
"खुरसी उधर रक्खो"
और आज इसे इस तरह कहेंगे
कुर्सी वहाँ रखो
कहा जाता है हर पचास किलोमीटर के बाद बोली-भाषा में परिवर्तन दिख जाता है
सादर
यशोदा जी,
हटाएंहिन्दी की किसी बहिन-भाषा में(संभवतः मराठी)कुर्सी को खुर्सी.या खुर्ची बोलते सुना है मैंने.वैसे भी उच्चारण कई बोलियों में बदल जाते हैं जैसे बिहार में व को भ बोलते हैं -ए-वन को कहेंगे ए-भन,विमला को भिमला.बंगाली में व का ब हो जाता है और जिनके मुखावयव बहुत सुकुमार होते होंगे और भ के उच्चारण में जीभ छिलने का डर होता होगा ,सो अमिताभ को अमिताव और सौरभ को सौरव बोलते हैं.अब क्या कहा जाय!
हमारे तरफ यह कहा जाता है की हर डेड कोस में भाषा और पानी बदलता है.
जवाब देंहटाएंlatest post पिता
LATEST POST जन्म ,मृत्यु और मोक्ष !
भाषा तो इसी तरह ही जीवित बनी रहती है ...सुंदर आलेख प्रतिभा जी ......साभार....
जवाब देंहटाएंअरे क्या क्या याद करा दिया आपने . और बच्चे तो इतनी जल्दी शब्द पकड़ते हैं कि पूछिये मत। हमारी तरफ गाय को गैया कहते हैं। एक बार जब हम छुट्टियों में भारत गए तो एक दिन बेटा आकर कहता है "नानी गैया की रोटी दे दो वो आ गई " उसके मूंह से यह शब्द इतना प्यारा लग रहा था कि क्या बताऊँ :)
जवाब देंहटाएंभाषा तो इसी तरह जीवाइट बनी रहती है यही भाषा का विस्तार है और शायद यही उसकी मिठास भी...वैसे मेरी मम्मी भी चाकू को चक्कू ही कहती है और चादर को चद्दर :)बहुत कुछ याद दिला गयी आपकी यह रचना...
जवाब देंहटाएंइसी तरह भाषा समृद्ध भी होती है और बिगडती भी है :)
जवाब देंहटाएंजी, भाषा तो सदा गतिमान ही रहनी है। और फिर हिन्दी में तो "कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी" जैसी कहावतें इस तथ्य को प्रकट करती ही हैं। बहुत सुंदर आलेख!
जवाब देंहटाएंकोस-कोस में पानी बदले, पांच कोस में बानी......यही भारत की विविधता में एकता का प्रतीक भी है........बिना देसज शब्दों के कोई भी भाषा अपने लालित्य को नहीं पा सकती....किसी भी भाषा में मिठास और अपनापन इन्हीं देसज शब्दों की वजह से ही बना और बचा हुआ है............
जवाब देंहटाएं.मानक भाषा अपनी जगह चलती रहेगी लोक-जीवन यों ही चलता रहेगा और उसके साथ-साथ भाषा भी
जवाब देंहटाएंभाषा पर भूचाल .... सही कहा ... कई बार शब्द सुन कर अजीब सा लगता है । पर हर जगह की बोली में कुछ न कुछ नए शब्द प्रचलित हो ही जाते हैं ।
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