*
'आज तो खूब पहन-ओढ़ कर आई हो. जम रही हो ."
वह मुस्कराये जा रही है .
'क्या हुआ, भानमती ?'
'बस पूछो मत .शादियों के तमाशे हैं ,क्या बतायें ..'
'पर हुआ क्या?
'रिश्तेदारी में शादी थी वहीं का ध्यान आ गया. '
'अब बताओ भी..'
'हम लोगों के यहाँ शादी में आप लोगों की तरह शार्टकट नहीं होता कि दो दिन को बरात-घर, धरमशाला ली ,और सबको वहीं से निपटा कर चले आये.या होटल में एक रात के कमरे ले कर अलग-अलग मेहमान टिका दिये .
हमारे सब साथ रहते हैं हाथ बटाते हैं, सोना चाहे अलग कमरों में हो . हफ़्ता भर पहले और तीन दिन बाद तक रीति-रिवाज , नेग-चार चलते हैं .तेल-हल्दी ,मातृ-पूजन ,इन्हीं से तो रिश्तेदारी का मजा है साथ मिकर कुंआ पूजना, आम महुआ ब्याहना, कुम्हार का चाक , देवी-देवताओं से लेकर ब्रहृस्थान की पूजा सब .'
सुनती रही मैं .
'और देखो तो, अलग-अलग कितने प्रोग्राम ,कहीं लड़के-लड़कियन की अंताक्षरी ,सिनेमा के नहीं- सच्ची कविताई रामायण और दूसरे . मेहरुओं का ढोलक पर गीत ,असली देवी के ,तेल के, भात के, मेंहदी के ,भाँवर के सब देसी गीत .यही तो मजे हैं शादी-ब्याह के .मिल के खाना, मिल के गाना ,हँसना-हँसाना. कहीं ताश .कहीं लिस्टें बन रही हैं ,कहीं बंदनवार ,माली नाइन ,कुम्हारिन सब की झाँय-झाँय.लगता है घर में शादी हो रही है .अब क्या ,अब तो न मंडप छवाना ,न खंब गाड़ना ,न ननदोइयों की पीठ पे सलहजों के हल्दी वाले धमाके!
अब तो सब रेडी-मेड .दो दिन में निपटाया और भागे .पैसे का खेल दिखा लों भले, वो रस कहाँ ?
'भानमती,ये सब पहलेवाली बातें हैं.अब कहाँ वह सुविधा..'
'कोई ना ,अब भी जा के देखो, इन शहरों से दूर. वहाँ मिलेगा असली मज़ा .
शादी क्या !उत्सव होता है उत्सव ,पूरे हफ़्ते का ,खुले मन से .कम खर्चें आनन्द बड़े .अब तो कमरे में से सज-धज के निकले और आकर बैठ लिये .खा-पी लिये .चल दिये'
'अरे हमने भी वो शादियाँ खूब देखी हैं ,हमसे क्या कहती हो.'
मेरी बात वह सुनती कहाँ है .
'एक कहीं की चाची आईं थी .उनकी आदत है चलते चलते किसी की भी हों दो-एक चादरें अपने साथ बाँध लेने की.' ताली पीट कर हँसी वह,' हमारे जेठ के बेटे ने उनके नहाने जाते ही उनका सामान खोल के चादरें निकालीं और जैस का तैस बाँध दिया .'
'हाँ ,अक्सर ऐसे लोग आ जाते हैं .ताश की गड्डियाँ ,किताबें ,वगैरा तो अक्सर ही .और कभी तो बराती भी कुछ न कुछ बाँध ले जाते हैं .'
'पर अब तो झंझट टालते हैं किसी तरह !'
'हमें सब पता है. पहले हमारे यहाँ भी महीने भर पहले से अपने सगे आने लगते थे
नाज बीनना -फटकना ,दाले ,बड़ी-मुँगौड़ी ,,डिबिया का सामान एक संदूकची में खिलौने,दूध पिलाने की बोतल ,झबले ,फ़्राकें .,स्त्रियों के अंतः वस्त्र,बटुये ,रूमाल,सुहाग की चीज़े कंघा-शीशा आदि भर दिया जाता था .जो वरके घर की स्त्रियाँ खोलती थीं और हँसी मज़ाक के बीच आपस में बाँटती थीं.)'
उसे लगता है जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं .
'सारे काम घर में होते थे .पर अब किसे इतनी फ़ुर्सत और कहाँ इतना पसारा .सब झटपटवाले काम.'
'हमारे लोगों के तो अब भी होता है .रीति-रिवाज मानने में कौन पैसा खरच होता है !'
'तो चूल्हा ,चक्की ,मूसल-ओखली भी?'
'हाँ ,हाँ, पूरी मरजाद से. हमारी तरफ़ अब भी हफ़्ता भर तो लग ही जाता है .रिस्तेदारों को ठैराने के लिये पास-पड़ोस के घरों में कमरों का इंतज़ाम कर लेते हैं .'
' पर हँसने की बात क्या है, वो बताओ .'
'सुनो तो ..' उसने कहा . पूरी भूमिका बाँधे बिना बता दे तो भानमती कैसी !
'...तो इनने पड़ोस का एक खाली घर ले लिया था ,वहीं पचीसेक लोग ठहरे थे. बाकी घर में .कल रात क्या हुआ ?साथ के कमरे में मामा,चाचा फूफा के बच्चे इकट्टे थे .कुछ झायँ-झायँ चल रही थी.
फुआ की मीना ,और मौसी के लड़के में बहस हो रही थी.
पूरा विवरण देने लगी वह -
हाँ तो ताऊ जी के बेटे ने पूछा,वही सबसे बड़े थे दो बच्चन के बाप !
' बात कहाँ से शुरू हुई ,पहले ये बताओ .'
मैं बताती हूँ -मीना तैयार .
गोपाल बोलने लगा ,'नहीं, मैं बता रहा हूँ .दिन भर बाज़ार की भाग-दौड़ से थका ,आराम करना चाहता था . मैं ज़रा सो गया , कि इनने मेरे मुँह पर समेटा हुआ कपड़ा फेंक के मारा ..'
'मुझे क्या पता था उन बिस्तरो में कोई दबा पड़ा है.. '
'पूरी बात बताओ ,शुरू से ..'
वह फिर बोलने लगा ,
'मैं अपने कमरे में गया . बिस्तरों का ढेर लगा था . कौन उठा-उठा कर जगह बनाए सो एक साइड से थोड़ा धकिया कर उसी में घुस गया.मुँह पर एक कंबल का कोना तान लिया. ख़ूब भरक गया था ,हल्की सी नींद आई थी कि इनने खींच कर मारा , चौंक कर जग गया मैं तो ..'
'बस-बस चुप करो .मैं बताती हूँ असली बात - कपड़े बदलने थे मुझे . कोई कमरा नहीं .मिला . एक खाली दिखा जहाँ लहदी की तरह बिस्तरों का अंबार लगा था. चलो यहीं सही, मैंने सोचा. वो तो ये कहो कि साड़ी उतार के बिस्तरों के ढेर पर फेंकी थी ,बस .'
'नहीं ,झूठ बोल रही हो..' वह बीच में बोला ,' आगे शुरू हो गईँ थीं ..'
' मेरी बात सुनिये और कपड़े नहीं ..'
'गलत !..उतारे .,साड़ी मेरे ऊपर फेंकने के बाद ..'.
'तो तुम जान बूझ बने पड़े थे?'
'चौंक कर जागा तो पलकें झपकाना भूल गया, आँखें फाड़े देखता रह गया .'
'बत्तमीज़ कहीं के ..'
'बत्तमीज़ मुझे कहा ,खुद ने ही तो आकर शुरू किया '
कुछ लोग बीच-बचाव करने लगे .एक ने कहा,
' ये तो पता लगे , फिर क्या हुआ !'
'होता क्या इनने एक चादर खींच कर लपेट ली और मुझे मारने लगीं .'
'तुम्हें पकड़ कर तो मारा नहीं होगा, भाग जाते बाहर .'
'कमरे की कुंड़ी तो इनने पहले से लगा ली थी .'
'कपडे बदलने आई थी तो..'
'तो मारा काहे से?'
'तकिये फेंक-फेंक कर मारे .'
'क्यों इसके ऊपर तकिये फेंके तुमने ?'
'और कुछ था नहीं क्या करती , बिस्तरों के तकिये पड़े थे बस .'
'वह मेरा कमरा था ,'
' शादी के घर मेंअलग से तुम्हारा कमरा ?'
'हाँ हाँ ,मैं वहीं टिका था .वहाँ घुस कर तुम..'
'बस,बस, चुप रहो तुम दोनो. अब हल्ला मत मचाओ. आगे एक दूसरे से दूर-दूर रहना.बोलने की बिलकुल जरूरत नहीं !'
ताऊ जी के बेटे ने मुस्करानेवालों को आँखें दिखाईँ और दोनो को चुप कर दिया ,
धीमें से बुदबुदाये थे -'अब शादी का घर है इतना तो चलेगा! '
यह भानमती भी एक ही है, इंटरनेट से निकाल कर लोक-जाल में फँसा देती है !
*
'आज तो खूब पहन-ओढ़ कर आई हो. जम रही हो ."
वह मुस्कराये जा रही है .
'क्या हुआ, भानमती ?'
'बस पूछो मत .शादियों के तमाशे हैं ,क्या बतायें ..'
'पर हुआ क्या?
'रिश्तेदारी में शादी थी वहीं का ध्यान आ गया. '
'अब बताओ भी..'
'हम लोगों के यहाँ शादी में आप लोगों की तरह शार्टकट नहीं होता कि दो दिन को बरात-घर, धरमशाला ली ,और सबको वहीं से निपटा कर चले आये.या होटल में एक रात के कमरे ले कर अलग-अलग मेहमान टिका दिये .
हमारे सब साथ रहते हैं हाथ बटाते हैं, सोना चाहे अलग कमरों में हो . हफ़्ता भर पहले और तीन दिन बाद तक रीति-रिवाज , नेग-चार चलते हैं .तेल-हल्दी ,मातृ-पूजन ,इन्हीं से तो रिश्तेदारी का मजा है साथ मिकर कुंआ पूजना, आम महुआ ब्याहना, कुम्हार का चाक , देवी-देवताओं से लेकर ब्रहृस्थान की पूजा सब .'
सुनती रही मैं .
'और देखो तो, अलग-अलग कितने प्रोग्राम ,कहीं लड़के-लड़कियन की अंताक्षरी ,सिनेमा के नहीं- सच्ची कविताई रामायण और दूसरे . मेहरुओं का ढोलक पर गीत ,असली देवी के ,तेल के, भात के, मेंहदी के ,भाँवर के सब देसी गीत .यही तो मजे हैं शादी-ब्याह के .मिल के खाना, मिल के गाना ,हँसना-हँसाना. कहीं ताश .कहीं लिस्टें बन रही हैं ,कहीं बंदनवार ,माली नाइन ,कुम्हारिन सब की झाँय-झाँय.लगता है घर में शादी हो रही है .अब क्या ,अब तो न मंडप छवाना ,न खंब गाड़ना ,न ननदोइयों की पीठ पे सलहजों के हल्दी वाले धमाके!
अब तो सब रेडी-मेड .दो दिन में निपटाया और भागे .पैसे का खेल दिखा लों भले, वो रस कहाँ ?
'भानमती,ये सब पहलेवाली बातें हैं.अब कहाँ वह सुविधा..'
'कोई ना ,अब भी जा के देखो, इन शहरों से दूर. वहाँ मिलेगा असली मज़ा .
शादी क्या !उत्सव होता है उत्सव ,पूरे हफ़्ते का ,खुले मन से .कम खर्चें आनन्द बड़े .अब तो कमरे में से सज-धज के निकले और आकर बैठ लिये .खा-पी लिये .चल दिये'
'अरे हमने भी वो शादियाँ खूब देखी हैं ,हमसे क्या कहती हो.'
मेरी बात वह सुनती कहाँ है .
'एक कहीं की चाची आईं थी .उनकी आदत है चलते चलते किसी की भी हों दो-एक चादरें अपने साथ बाँध लेने की.' ताली पीट कर हँसी वह,' हमारे जेठ के बेटे ने उनके नहाने जाते ही उनका सामान खोल के चादरें निकालीं और जैस का तैस बाँध दिया .'
'हाँ ,अक्सर ऐसे लोग आ जाते हैं .ताश की गड्डियाँ ,किताबें ,वगैरा तो अक्सर ही .और कभी तो बराती भी कुछ न कुछ बाँध ले जाते हैं .'
'पर अब तो झंझट टालते हैं किसी तरह !'
'हमें सब पता है. पहले हमारे यहाँ भी महीने भर पहले से अपने सगे आने लगते थे
नाज बीनना -फटकना ,दाले ,बड़ी-मुँगौड़ी ,,डिबिया का सामान एक संदूकची में खिलौने,दूध पिलाने की बोतल ,झबले ,फ़्राकें .,स्त्रियों के अंतः वस्त्र,बटुये ,रूमाल,सुहाग की चीज़े कंघा-शीशा आदि भर दिया जाता था .जो वरके घर की स्त्रियाँ खोलती थीं और हँसी मज़ाक के बीच आपस में बाँटती थीं.)'
उसे लगता है जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं .
'सारे काम घर में होते थे .पर अब किसे इतनी फ़ुर्सत और कहाँ इतना पसारा .सब झटपटवाले काम.'
'हमारे लोगों के तो अब भी होता है .रीति-रिवाज मानने में कौन पैसा खरच होता है !'
'तो चूल्हा ,चक्की ,मूसल-ओखली भी?'
'हाँ ,हाँ, पूरी मरजाद से. हमारी तरफ़ अब भी हफ़्ता भर तो लग ही जाता है .रिस्तेदारों को ठैराने के लिये पास-पड़ोस के घरों में कमरों का इंतज़ाम कर लेते हैं .'
' पर हँसने की बात क्या है, वो बताओ .'
'सुनो तो ..' उसने कहा . पूरी भूमिका बाँधे बिना बता दे तो भानमती कैसी !
'...तो इनने पड़ोस का एक खाली घर ले लिया था ,वहीं पचीसेक लोग ठहरे थे. बाकी घर में .कल रात क्या हुआ ?साथ के कमरे में मामा,चाचा फूफा के बच्चे इकट्टे थे .कुछ झायँ-झायँ चल रही थी.
फुआ की मीना ,और मौसी के लड़के में बहस हो रही थी.
पूरा विवरण देने लगी वह -
हाँ तो ताऊ जी के बेटे ने पूछा,वही सबसे बड़े थे दो बच्चन के बाप !
' बात कहाँ से शुरू हुई ,पहले ये बताओ .'
मैं बताती हूँ -मीना तैयार .
गोपाल बोलने लगा ,'नहीं, मैं बता रहा हूँ .दिन भर बाज़ार की भाग-दौड़ से थका ,आराम करना चाहता था . मैं ज़रा सो गया , कि इनने मेरे मुँह पर समेटा हुआ कपड़ा फेंक के मारा ..'
'मुझे क्या पता था उन बिस्तरो में कोई दबा पड़ा है.. '
'पूरी बात बताओ ,शुरू से ..'
वह फिर बोलने लगा ,
'मैं अपने कमरे में गया . बिस्तरों का ढेर लगा था . कौन उठा-उठा कर जगह बनाए सो एक साइड से थोड़ा धकिया कर उसी में घुस गया.मुँह पर एक कंबल का कोना तान लिया. ख़ूब भरक गया था ,हल्की सी नींद आई थी कि इनने खींच कर मारा , चौंक कर जग गया मैं तो ..'
'बस-बस चुप करो .मैं बताती हूँ असली बात - कपड़े बदलने थे मुझे . कोई कमरा नहीं .मिला . एक खाली दिखा जहाँ लहदी की तरह बिस्तरों का अंबार लगा था. चलो यहीं सही, मैंने सोचा. वो तो ये कहो कि साड़ी उतार के बिस्तरों के ढेर पर फेंकी थी ,बस .'
'नहीं ,झूठ बोल रही हो..' वह बीच में बोला ,' आगे शुरू हो गईँ थीं ..'
' मेरी बात सुनिये और कपड़े नहीं ..'
'गलत !..उतारे .,साड़ी मेरे ऊपर फेंकने के बाद ..'.
'तो तुम जान बूझ बने पड़े थे?'
'चौंक कर जागा तो पलकें झपकाना भूल गया, आँखें फाड़े देखता रह गया .'
'बत्तमीज़ कहीं के ..'
'बत्तमीज़ मुझे कहा ,खुद ने ही तो आकर शुरू किया '
कुछ लोग बीच-बचाव करने लगे .एक ने कहा,
' ये तो पता लगे , फिर क्या हुआ !'
'होता क्या इनने एक चादर खींच कर लपेट ली और मुझे मारने लगीं .'
'तुम्हें पकड़ कर तो मारा नहीं होगा, भाग जाते बाहर .'
'कमरे की कुंड़ी तो इनने पहले से लगा ली थी .'
'कपडे बदलने आई थी तो..'
'तो मारा काहे से?'
'तकिये फेंक-फेंक कर मारे .'
'क्यों इसके ऊपर तकिये फेंके तुमने ?'
'और कुछ था नहीं क्या करती , बिस्तरों के तकिये पड़े थे बस .'
'वह मेरा कमरा था ,'
' शादी के घर मेंअलग से तुम्हारा कमरा ?'
'हाँ हाँ ,मैं वहीं टिका था .वहाँ घुस कर तुम..'
'बस,बस, चुप रहो तुम दोनो. अब हल्ला मत मचाओ. आगे एक दूसरे से दूर-दूर रहना.बोलने की बिलकुल जरूरत नहीं !'
ताऊ जी के बेटे ने मुस्करानेवालों को आँखें दिखाईँ और दोनो को चुप कर दिया ,
धीमें से बुदबुदाये थे -'अब शादी का घर है इतना तो चलेगा! '
यह भानमती भी एक ही है, इंटरनेट से निकाल कर लोक-जाल में फँसा देती है !
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कल से ही शादियों का मौसम प्रारम्भ हो गया है। मैं भी अभी इसी विषय पर चिन्तन कर रही थी कि भारतीयों में शादी का अर्थ होता है सात जन्मों का बंधन। इसीलिए सारे जगत को न्यौतकर, कई दिनों तक उत्सव मनाया जाता है। अब तो यह बंधन टेम्परेरी हो गया है, इसलिए विवाह भी ऐसा ही होता है। शब्दचित्र के माध्यम से आपने अच्छा वर्णन किया है।
जवाब देंहटाएंशादी के माहौल को, करा गया यह याद ।
जवाब देंहटाएंलेखन को सादर नमन, भानुमती को दाद ।
भानुमती को दाद, जमा इक छत के नीचे ।
हफ़्तों शिष्टाचार, कहीं भी पड़े गलीचे ।
नोंक-झोंक अंदाज, सजी दुल्हन सी दादी ।
पहले की क्या बात, रही मनभावन शादी ।।
शादी के माहौल को, करा गया यह याद ।
हटाएंलेखन को सादर नमन, भानमती को दाद ।
बेहतर!
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंआपकी यह सुन्दर प्रविष्टि कल दिनांक 26-11-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंभानमती का लोक-जाल ..
प्रतिभा सक्सेना
लालित्यम्
मनभावन रहा कथांश .
पुरानी यादें ताजा हो गईं.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंha.ha.ha.khoob nautanki hui....aur shadi ki sari marjaate (rasme) yaad aa gayi.
जवाब देंहटाएंbahut khoob...
bhai maine to bhanmati k ghar ki shadi ka khoob aanand liya.aur meri bhi aankhe jhapakna bhool gayi.ha.ha.ha.