लेखक की बात खत्म हुई ,अब बारी प्रबुद्ध पाठक-वर्ग की -
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(सह-ब्लागर ,अनामिका जी ) :
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1.'... शायद आज इस उपन्यास पर मेरा टिप्पणी देना कोई मायने नहीं रखता होगा. लेकिन लेखक जब इतनी मेहनत करते हैं तो पाठक का भी फ़र्ज़ बनता है की अपनी प्रतिक्रिया दे, हो सकता है कहीं आप मेरी प्रतिक्रिया से हतोत्साहित हों....लेकिन मेरा अंतर्भाव सिर्फ आपके लेखन को प्रोत्साहन देना है.'
(साहित्य बहुत सीमित कालावधि के लिये नहीं होता .उस पर दी हुई ,कभी भी, कोई भी टिप्पणी प्रासंगिक ही होती है.अपनी कमियाँ जानना बहुत आवश्यक है,और पढ़नेवाला ख़ूबियाँ ढूँढ ले तो प्रोत्साहन मिलेगा ही. )
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2.'..और दूसरी सच बात तो यह है की आपके इस उपन्यास की कहानी ने इतना प्रभावित किया की दिल किया की आपके हक़ की सराहना तो आप को अवश्य ही मिलनी चाहिए और तभी से मैंने काफी कड़ियाँ पढ़ लेने के बाद फिर से पहली कड़ी से प्रतिक्रिया देनी आरम्भ की....हालाँकि मेरे लिए इतना समय निकालना बहुत मुश्किल होता है....लेकिन मुझे सुकून है की मैंने आपके हक़ के प्रति कोई अन्याय नहीं किया है.'
(शतप्रतिशत सहमत)
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3.'आप को ये कमेन्ट इसलिए अलग से दिए....ताकि आप चाहें तो इन्हें पोस्ट करें या अपनी धरोहर के रूप में अपने पास रखें...ये चोइयेस आपकी है .'
(ये तो मेरे मूल पर मिला ब्याज है ,इसे कैसे छोड़ सकती हूँ ! ब्याज मूल से ज्यादा प्यारा होता है जी .)
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टिप्पणियाँ -
1,2,3
गरीब की आँखों की भूख और अमीरों द्वारा अन्न का अनादर बड़ी खूबसूरती से दिखाया है. गरीबों की स्त्रियों का बच्चे जनना और अमीरों के बच्चों का होना .....इस पर कलम की धार बढ़ी है.
असित का विचित्र व्यवहार तरल से पहली मुलाकात से मुखरित हो जाता है. सच कहा बचपन ऐसा मिले तो कहीं तो कमीं सामने आती ही है. असित के बचपन की परिस्थितियों को बखूबी स्पष्ट किया है जो आगे तक पाठक को समझने में सहायक रहेगा.
एक एम. आर के हालातों और दिमागी कशमोकश को बड़ी बारीकी से उबारा है साथ में डाक्टर्स का रवैया काबिले तारीफ़ है.
कुछ बाते हैं जैसे सुमी का चरित्र और रायजादा चरित्र स्पष्ट नहीं हुए हैं. शायद आगे हों.
४,५
रायजादा चरित्र स्पष्ट हुआ. असित के मन के बिखराव को व्यक्त करने के लिए बहुत ही सशक्त शब्दों का चुनाव किया है. तरु की आँखों के आंसू सच कह रहे हैं कि दूसरे का दर्द सुन कर अपना दर्द, दर्द देने लगता है. असित के लड़कपन का जीवन बहुत सुन्दरता से चित्रित किया है.
तरु और उसके बहन-भाइयों से मिलवाया और तरु के नटखट बचपन का अच्छा चित्रण है.
6,7
तरु की माँ का व्यवहार अन्दर और बाहर का जो दिखाया है सच ऐसा अनुभव मैंने भी किया है कि जो स्त्रियाँ बाहर इतनी अच्छी बनती हैं घर में उसके उलट ही पायी जाती हैं, बहुत कोफ़्त होती है इस प्रकार के दोमुखी लोगों से.
भाई-बहन की नोक-झोंक का प्रभावी निरुपण किया है. घर में शन्नों जैसी जवान और सुंदर लड़की हो तो माँ का यूँ प्रतिक्रिया करना संभव और जीवंत जान पड़ता है. तरु/संजू का पिता की टाँगे दबाने का क्रम अपना भी बचपन याद दिला गया, जब मैं भी अपने पापा के हाथ का सहारा ले उनकी टांगो पर चढ़ उनका दर्द दूर करने की कोशिश करती थी.
आजादी के समय का बहुत रोचक चित्र खींचा है.
८,९
विपिन - नये चरित्र को सामने लायी हैं तो आगे जरूर कुछ ख़ास होगा .....आगे ही पता चलेगा....लेकिन सही है जो उसकी भूमिका बता कर पहले से ही पाठक को तैयार किया जा रहा है.
माँ का इस प्रकार अपने मायके में पति का और बच्चों का नीचा दिखाना, खुद की बहनों से दुर-व्यवहार, बच्चों की झुकी नज़रे और अपराधबोध मन को भीतर तक कचोट जाता है - और यह सब आपके लेखन का ही असर है कि पाठक चरित्रों के प्रति इतना सहानुभूति पूर्ण हो जाता है.
चन्दन का विषय उल्लेखित कर के परिवार में बीते कटु क्षणों की भूमिका को स्पष्ट किया है.
बहुत सजीव चित्रण चल रहा है और उत्सुकता को बढ़ाये हुए है. आपकी लेखन की इस निपुणता पर शत-शत नमन.
१०,११
आह ! मात-पिता के ये झगडे बच्चों के कोमल मन पर कैसी कैसी न मिटने वाली खरोचें बना देते हैं, समझ सकती हूँ.
बेटी पिता के दुख में कितनी दुखी होती है बहुत सटीक शब्दों से उकेरा है एहसासों को. सच कहते हैं बेटियों का झुकाव पिता की तरफ अधिक होता है.....हो सकता है कहीं तरु की माँ भी ठीक होगी लेकिन ये भगवान् के बनाये हुए रिश्ते हैं जहाँ बेटी पिता पक्ष में ज्यादा रहती है.
पड़ोसियों के जरिये माँ के व्यक्तित्व, आचार-विचार को उभारने में और सहायता मिली है.
घर के कलह जब एक बार शुरू होते हैं तो यूँ ही बरबस बढ़ते चले जाते हैं और विकराल रूप ले लेते हैं. कोप की ज्वाला में ये सब जायज लगता है ...वक़्त बीतने के बाद ये सब बाते कितनी नासमझी वाली लगती हैं लेकिन तब तक पछताने के लिए भी कुछ नहीं बचता.
पढाई के मामले में कभी हमें ऐसी स्थितयों से २-४ नहीं होना पड़ा....शायद गहराई से ना समझ पाऊं...लेकिन तरु की कोशिश अच्छी लगी. सच कहते हैं दूध का जला छाछ को भी फूक मरता है सो ही तरु की माँ की हालत है जो कई जगह पाठक के मन में अपने प्रति रोष पैदा करवाती है.
बहुत सक्षम लेखन चल रहा है.
१२/१३
हा.हा. मीना की बात पर - दूर के ढोल कितने सुहावने होते हैं......उसे तरु की माँ कितनी अच्छी लगती हैं.....हैरान नहीं हूँ....कुछ लोग अपना वजूद दूसरों के आगे ऐसा ही पेश करते हैं.
अच्छा किया विपिन के चरित्र को दोहराती, पाठक को याद दिलाती चल रही हैं...जरुर कहानी के गर्भ में कुछ ख़ास है.
मन्नो के पूछने पर तरु का ना बता पाना - आह कुछ अनुभवों को शब्दों में तोल कर नहीं बांटा जा सकता बस एहसास किया जा सकता है....और ये एहसास जो कहे ना जा सके या तो बहुत दुखदायी होते हैं या बहुत सुखदायी. लेकिन अगर इस कहानी को सच की जमीन पर रखे तो मानव मन यही चाहेगा की तरु को ये एहसास बाँट लेने चाहिए....वर्ना वो तमाम उम्र इनकी आग में जलती रहेगी.
तरु का गुस्सा एक बार को ही सही ....माँ के आगे एक बार फूटा तो सही....बदले में क्या सामने आता है ये तो वक़्त ने बता ही दिया है . लेकिन बाँध भी आखिर टूट ही जाते हैं....तरु का यूँ प्रतिक्रिया करना मुनासिब है.
अकेलेपन में इंसान कभी न कभी कहीं तो झुक ही जाता है....आज तरु भी असित के लिए झुक रही है....कभी तो उसे भी साथी चाहिए ही. लेकिन अब तक जितना पाठक मन में तरु का व्यक्तित्व ढल कर सामने आया....उसमे ये तरु का बदलाव हैरान कर रहा है.....कि तरु पिघल रही है.
४/१५
सच में विगत जीवन की विकृतियों का कटु अध्याय जब एक बार मन में जम जाए तो उसके पन्नों को खोलना वक़्त के साथ उतना ही ना-मुमकिन सा हो जाता है. लेकिन आज तरु जिन कष्टों को भगवान् से मांग रही है....उनके मिल जाने पर उन्हें भोगना भी उतना ही कष्टकारी होगा ये शायद तरु को अभी समझ नहीं आ रहा है. (दुआ है तरु अपना दुख बाँट ले )
सच कहा विचित्र लोग ही एक दुसरे के साथ पटरी बिठा सकते हैं. और ये प्लेटोनिक लव .....आप कई बार कैसे कैसे सत्यों को इतनी सहजता से कह जाती हैं.....मोहित हो जाती हूँ आप पर...आप की लेखनी पर. विद्यापति के पद का बहुत ही खूबसूरत प्रयोग ....शायद इससे अच्छा अवसर कभी न मिलता.
तरु मन ही मन जो असित को कह रही है.....इन सब को शब्दों में ढालना कितना मुश्किल है मैं जानती हूँ ....लेकिन इस में आप का हुनर काबिले तारीफ है.
दूसरी तरफ रिश्ता प्रगाढ़ होते ही रिश्तों की स्थितियाँ बदलने लगती हैं.....एक दम सत्य....लेकिन कटु, दुखदायी
अपने फोटो को दूसरे की नज़र से देखना - इस अनुभव को शब्द देकर मनोहर दृश्य सा पेश किया है आपने.
तरु ने हमेशा अपने अनुभवों को बिना किसी से बांटे दबाये रखा....आज वो इसका खामियाजा भुगत रही है. सच कहा था असित ने मनुष्य की स्वभाविक प्रवृतियाँ भी होती हैं- उन्हें दबाने से अस्व्भाविक्तायें और कुंठाएं जन्म लेती हैं....आज ये बात तरु की हालत पर फिट बैठ रही हैं....बेशक असित ने किसी और विषय में कही थी....आपकी लेखनी पर हतप्रभ हूँ.
१६,१७
पात्रों के चरित्र को क्या रूप देना है.....ये सब उपन्यासकार पहले से ही सोच लेता है और पात्र का चरित्र कितना निर्भर करता है लेखक के खुद के व्यवहार पर.....अब तक आपने जो माँ का चरित्र पेश किया उससे पाठक ने अपने मन में उसकी एक बुरी इमेज बना ली थी...लेकिन अब ऐसा मोड़ डाला कि माँ की इमेज बदल रही है....ये आपकी लेखनी का ही कमाल है (आप कोई मुंशी प्रेमचंद जी से कम थोड़े ही हो :-), होरी, झुनिया, धनिया जिसको जैसा चाहे स्वरुप दे दो )
बाकी रोज-मर्रा की जिन्दगी में उठने वाली बातें और तरु जैसी उम्र की लड़कियों के लिए रिश्ते की जद्दोजहद पारिवारिक वातावरण और घटनाओं को पूर्णता दे रही है.
१८,१९
तरु का आत्मविश्लेषण जब जब प्रस्तुत किया बहुत प्रभावी बन पड़ा कभी कभी लगता है जैसे कितनो के मनों के आत्मविश्लेषण को शब्द दे दिए हों आपने. असित ने जितना प्यार दिया तरु को और तरु जितना असित से जुडी....अतिश्योक्ति नहीं होगी कि असित जैसा जीवन साथी मिलना भी कोई आसान नहीं है. ये मुश्किल तरु की है कि वो असित को भी अपने अंतस तक नहीं घुसने देती....ये उसी का बनाया हुआ चक्रव्यूह है जिसमे सब को घुसने की मनाही है. लेकिन मैं सोचती हूँ...अगर तरु ने ये दीवारें खड़ी कर रखी हैं तो कहीं न कहीं तरु के भी प्यार में कमी है ....वर्ना प्यार करने वाला मन तो सब कुछ खोल के रख देता है अपने साथी के आगे.
प्रसव पीड़ा का इतना सजीव चित्रण मुझे आज तक पढने को नहीं मिला, कोटिश नमन आपको. प्रसव के बाद स्त्री मन ऐसा ही सोचता है कि पिता रूप में पिता का बच्चे के प्रति कितना वात्सल्य हो सकता है, शायद माता के वात्सल्य की बराबरी कभी भी नहीं कर सकता. लेकिन माँ ही एकांत सृजनकर्ता नहीं हो सकती यहाँ कुछ ज्यादा ही हो गया है....पिता बेशक शारीरिक पीडाएं नहीं झेलते लेकिन उनका वात्सल्य, उनकी बच्चे के प्रति सृजनात्मक कोशिशें कम तो नहीं होती.
तरु का मन बदल रहा है...पढ़ कर पाठक मन को अच्छा लग रहा है. चंचल बड़ी भी हो रही है....कहानी ने स्पीड पकड़ ली लगती है शायद.
२०,२१
सास-ससुर के जीवन पर प्रकाश डाल लेखक ने भुलाया नहीं है उनको...ये एक अच्छी बात लगी.
तरु का फिर से स्वयं में डूबना और दुखी होना पाठक मन को खिन्न कर रहा है....कि कभी तरु स्वयं को बदलेगी भी या नहीं. जहाँ तरु कहती है कहाँ है असित मेरे साथ ? तब एक कोफ़्त सी आती है कि तरु ये सब तुम्हारे द्वारा ही तो खड़ी की गयी दीवारें हैं जिसके अंदर कोई नहीं आ सकता...तो अब खिन्न क्यों ? अकेलेपन की शिकायत क्यों ? सुख भोग को तो खुद ने ही कुंठित कर लिया है.
विपिन का कहानी में फिर से प्रवेश सुखदायी लग रहा है. विपिन द्वारा समाज का कच्चा चिटठा बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है.
लपकती चंचल के मुह में पान के पत्ते का टुकड़ा रख देना कहानी की यथार्थ भूमि का सृजन करता है. आपके शब्दों का जादू बाकायदा पाठक मन पर चल रहा है. कहानी अपनी स्पीड पर है और पाठक पूर्ण आनंदमय !
२२,२३
माँ जब दूसरी होती है...पिता तीसरा हो जाता है.....बहुत कुछ कह गए ये तीखे शब्द. - गागर में सागर .... बचपन का सारा दर्द उड़ेल दिया असित का. बिलकुल सपाट तलवे वाली बात जिन्दगी में पहली बार जानी.
राजुल,राहुल,रश्मि, श्यामा, साधना जैसे चरित्रों का गठन करना भी कहानी की मांग है...और माहोल को हल्का -फुल्का बनाये रखने और कहानी के प्रवाह को बनाये रखने के लिए ऐसे वृत्तांत और पात्रों का होना भी जरुरी है.
सुधा प्रसंग भी पाठक मन को गीला कर गया जो असित के बचपन को और मुखरित करने में सहायक हो रहा है.
शुक्लाइन/दन्नु का कहानी में प्रवेश पाठक को स्मरण करने में बाधा डाल रहे हैं....लेखक बेहतर जानते होंगे कि आगे इनका क्या रोल है. जो इस प्रांजल भाषा से अनभिग्य हैं उनको सतत पाठन में खलल सा महसूस होगा (मुझे ऐसा लगता है)
२४,२५
तरु के चरित्र को और उबारा है अच्छा लगा. असित बहुत गोरे नहीं हैं जान कर कुछ हैरानी सी हुई क्युकी पहले ही उनकी छवि तो बहुत खूबसूरत गोरे/चिट्टे युवक की बन चुकी थी. :-)
रिश्तेदारों के ताने वाले कथन कहानी को वास्तविकता की जमीं पर वापिस उतार लाते हैं.
अच्छा हुआ यहाँ तरु ने असित के प्यार को कुछ शब्द दिए....पाठक मन को संतुष्टि मिली.
दन्नु के चरित्र को अच्छा उबारा है. कहानी में ऐसे पात्रों का होना भी आवश्यक है.....प्रवाह बना रहता है.
शादी में और चबूतरे पर और भी बहुत सारे पात्र उतर आये हैं....पाठक मन सबको याद रखने में अक्षम महसूस कर रहा है. लेकिन ये कहानी की मांग है....लेखक को ऐसी प्रतिक्रिया से विचलित नहीं होना चाहिए. (अंततः कहानी को पढने के लिए दिमाग तो लगाना ही पढता है हा.हा.हा.)
हम्म्म, अब आया विपिन का अहम् रोल, अब समझ आ रहा है विपिन को पढ़ कर.....लेखक का कहानी सृजन के साथ साथ ये भी फर्ज होता है कि वो उस समय की सामाजिक वातावरण और उसकी घटनाओं का भी ब्यौरा देता चले...जो आपने जहाँ - तहां बखूबी दिया है. हट्स ऑफ.
२६/२७
उपन्यास के पात्रों ने बहुत मजबूती से पाठक को बाँध रखा है या यूँ कहिये आपके लेखन के प्रवाह ने कहीं मन को उचाट नहीं होने दिया.असीत के भूखे चले जाने पर तरु की जो मनः स्थिति दर्शायी है और उसका अपने पिता की हालत याद करना कहानी में वास्तविकता का बोध करा जाता है.
कहानी में पात्रों की नोक-झोंक कहानी को स्वाभाविकता प्रदान कर रहे हैं.
आपने जो दिव्या जी को कहा कि कहानी को कहानी की तरह ही समझिये ....कुछ हद तक बात तो ठीक है लेकिन जब तक गहरे तक नहीं उतरेंगे तो कहानी के मर्म तक नहीं पहुँच पाएंगे....और जब तक पाठक कहानी की संवेदना न महसूस करे तब तक उस कहानी को सफलता नहीं मिल सकती.
बाकी जो लेन-देन वाले रिश्तों की बात कही तो वो तो आज की परम्पराओं का एक हिस्सा बन चुके है, और इन सब को सोच कर बहुत दुख भी होता है. हालाँकि मैं जानती हूँ ये कहानी १९४७ के बाद की है उस समय की परम्पराएं कुछ और थी.
कहानी को आगे पढने की उत्सुकता निरंतर बनी हुई है.
२८/२९
जहाँ तहां प्रांजल की भाषा वातावरण में बदलाव पैदा कर देती है और सरसता भी. हमारे ऑफिस में एक वर्कर हुआ करते थे वो ऐसी ही भाषा बोलते थे और तब हम उनकी नक़ल कर कर हंसा करते थे. वही मिठास घोल देती है ये भाषा यहाँ पढ़ कर.
चंचल की बचपन की लापरवाहिया पढ़कर अपना बचपन याद आता है.
जहाँ तहां तरु के अंतस की कुंठाएं मन को द्रवित कर देती हैं.
अपनी टिप्पणी में तरु सच कह रही हैं - भाषा की सुन्दरता मन मोहे हुए है.
३०,३१
इस कड़ी में मेरे पास ज्यादा कुछ कहने को नहीं है. मैंने पहले ही लिखा था समाज की घटनाओं के ब्योरों का पटापेक्ष करना भी अत्यंत आवश्यक है. जो आपकी सक्षम कलम से बचना असंभव है. बहुत प्रभावी चित्र खींचा है उस समय के आरक्षण मुद्दे पर.
दन्नु को फिर से जीवंत कर घटनाओं का क्रम सराहनीय है.
विपिन चरित्र अपना स्थान बना चुका है....आगे के घटना क्रम का अंदाजा तो लग ही चुका था....जान कर बहुत दुख हुआ.
३२,३३
माँ की हालत का मार्मिक चित्रण कर दिया.
आपके शब्द विन्यास ने हमें जकड़ा हुआ है कहानी को पढने के लिए.
३४,३५
चंचल ऍम.ए. में आ गयी ...समय कितनी जल्दी आगे बढ़ गया है.
सभी पात्रों को साथ साथ लिए चलती रही कहानी और सब के साथ आपने न्याय किया है.
पाठक को किसी भी पात्र को भूलने नहीं दिया....ये आपकी सक्षमता, निपुणता है.
गीता के श्लोक का बहुत सुंदर और उचित स्थान पर प्रयोग प्रभावित कर रहा है.
तरु की संवेदनाएं कहीं भी उसे आराम नहीं लेने देती....उम्र की शाम में भी....पाठक दुखी होता है ये जान कर.
३६,३७
आह एक बार को लगता है तरु जिज्जी से मिल ही लेगी ...लेकिन ऐसा दृश्य नहीं बन पाया....और कहानी समाप्त हो गयी. मन को कुछ मिल जाए तो और अधिक की चाह करता है सो अंत के लिए पाठक मन तैयार नहीं था. हालाँकि ये तरल की कहानी है तो उसकी जिन्दगी की शाम आने को है....बेटी के ब्याह का समय आ चुका है.....उम्र के इस पड़ाव तक पहुँचते पहुँचते इंसान दुखों को सहने का आदि हो जाता है या कुछ दुख आम जिन्दगी का एक हिस्सा बन कर साधारण बन जाते हैं.
कुल मिला कर पूरे उपन्यास में भाषा की उत्कृष्टता ने प्रभाव बनाये रखा है जिससे पाठक सामाजिक, पारिवारिक भाव भूमि को पूर्ण रूप से समझ पाए हैं और कहीं पढ़ते पढ़ते बोरियत नहीं हुई, सभी पात्रों के साथ न्याय हुआ है. कई छोटी-छोटी जीवन की बातों/एहसासों को शब्दों में ढाल कर उपन्यास को वास्तविकता प्रदान की है.
जब से इस उपन्यास को पढना शुरू किया तब से जेहन में इस से सम्बंधित घटनाक्रम और इसके पात्र पाठक मन में जगह बनाये रखे और लगता है इसके समाप्त होने पर भी अंतस में काफी दिनों तक ये मंथन चलता रहेगा.
प्रतिभा जी आपका लेखन सदा से ही प्रभावित करता रहा है......अब तो चमत्कृत करता है. बहुत बहुत अच्छा, उत्कृष्ट, प्रभावी और सफल लेखन है आपका जो पाठक पर सदा अपनी छाप छोड़ता है और पाठक कई कई दिनों तक उस प्रभाव से बाहर नहीं आ पाता . मैं सोचती हूँ एक लेखक के लिए इससे बड़ी सफलता और क्या होगी.
शुभकामनाओं के साथ...... अनामिका.
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(मैं तय नहीं कर पा रहीं -आभारी हूँ ,कि उपकृत ,या कृतज्ञ ! - प्रतिभा.)
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टिप्पणियाँ -
अनामिका की सदाएं और आप एक साथ छा गईं .गूंजित हैं टिप्पणियाँ और मूल लेखन और उसकी लेखिका . एक अध्याय और - उपन्यास ('एक थी तरु' )के समापन के बाद ! पर
Virendra Kumar Sharma
9/27/12 को
मैं स्वयं भी समझ नहीं पा रही कि आपके इस सौहार्द से मैं आभारी हूँ, उपकृत हूँ या कृतज्ञ हूँ जो आपने मेरी टिप्पणियों को इतना मान दिया. क्षमा चाहती हूँ कि मैंने टाईपिंग के वक़्त ध्यान नहीं दिया और वर्तनी की इतनी गलतियाँ हो गयी जो अब खटक रही हैं. एक अध्याय और - उपन्यास ('एक थी तरु' )के समापन के बाद ! पर
अनामिका की सदायें ......
9/27/12 को
उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।। एक अध्याय और - उपन्यास ('एक थी तरु' )के समापन के बाद ! पर
सामग्री निकालें | हटाएं | स्पैम
अनामिका दी...आप बहुत अच्छी पाठिका हैं दी..आपने मुझे हैरान कर दिया दी..और हाँ मैंने आपसे सीखा आज भी...कई बार मैं रचना पर बिना कहे आगे बढ़ जाती हूँ..कि ,''विलम्ब हो गया अब क्या कहना उचित रहेगा?''...परंतु आपने मुझे सिखाया..प्रासंगिकता का पाठ...अबसे कभी ऐसे नहीं करूँगी.(btw आपने मुझे पहचाना ना दी :(..) आपकी टिप्पणियाँ पढ़ते हुए पुन: ये उपन्यास जी लिया मैंने. एक बात और..वर्तनी के लिए जो कहा आपने..उसके लिए कुछ कहना है..आपने हमेशा प्रतिभा जी के श्रम को रेखांकित किया है अपनी टिप्पणियों में ना...मगर आज मैंने आपके श्रम, भावना और स्नेह को भी देखा दी.मत सोचिये इतना :) प्रतिभा जी - आभार बहुत आपका इस अध्याय के लिए.पता नहीं क्यूँ ..आज ये सब पढ़कर मन अनोखी ऊर्जा से भर सा गया लगता है..मन में और भी आदर बढ़ गया..आपके लिए और अनामिका दी के लिए भी. शुभकामनाएँ आप दोनों को!! एक अध्याय और - उपन्यास ('एक थी तरु' )के समापन के बाद ! पर
Taru
10:23 AM पर
शुभकामनाएं |
जवाब देंहटाएंअधिक नहीं कहना, मैं प्रसन्न हूँ :)
जवाब देंहटाएंलैपटॉप के विघ्न के कारण विलम्ब से टिप्पणी देने के लिये खेद है।
जवाब देंहटाएंप्रिय अनामिका जी,"एक थी तरु" उपन्यास की-अध्यायों के क्रम से
इतनी सूक्ष्मता से विशद समीक्षा द्वारा आपने तो कथा का पुनर्पाठ या
पुनरावलोकन ही करवा दिया।इस प्रकार प्रतिभा जी के रचना-कौशल के साथ ही आपका वैदुष्य और सशक्त अभिव्यक्ति की क्षमता भी प्रत्यक्ष हो गई।पात्रों के चरित्र और विविध घटना क्रमों पर भी आपने बड़ी सहजता से प्रकाश डाला है।समापन के बाद एक और अध्याय को जोड़कर प्रतिभा जी ने आपकी समीक्षा की महत्ता को तो
प्रमाणित कर ही दिया है ,साथ ही आपके श्रमसाध्य सांगोपांग निष्पक्ष लेखन के साथ न्याय भी किया है। सुन्दर भाषा,भाव और सार्थक तथ्यपरक लेखन के लिए बधाई स्वीकार करें। आपकी लेखनी का साधुवाद!!